Friday, August 28, 2020

मातृभाषाओंका साहित्य : राहुल सांकृत्यायन





'विशाल भारत' के सितम्बरके अंकमें श्री परमेश्वरीलाल गुप्तने अपने पड़ोसके एक अपढ़ कवि विश्रामकी कविताओं (विरहों) पर एक लेख लिखा था। मैंने इस कविके बारेमें कुछ और जाननेके लिए उनको लिखा, जिसके उत्तरमें उन्होंने यह भी लिखा -
"विश्रामके (न) पढ़े-लिखे होनेसे मेरा तात्पर्य अक्षर-ज्ञानसे था। इस प्रदेशमें विश्राम-सरीखे न जाने कितने कवियोंने ऐसे विरहे लिखे हैं, जो किसी भी महाकविकी रचनाओंसे टक्कर ले सकते हैं। पर वे सब अज्ञात और उपेक्षित हैं। इस विषयमें मैं थोड़ा प्रयत्न कर रहा हूँ। 'शुकदूत', 'दयाराम', 'वनजरवा', 'चनैनी' सरीखे कुछ काव्य और महाकाव्योंका पता लगता है, जो विरहियोंकी जिह्वापर हैं। और उन्हें प्रकाशित कौन करेगा?"
परमेश्वरी बाबूके इस पत्रने कई प्रश्न हमारे सामने रखे हैं : हिन्दी-साहित्यके सम्बन्ध में नहीं, मातृभाषाओंके साहित्के बारेमें। काशिका (बनारस सम्पूर्ण तथा मिर्ज़ापुर, जौनपुर, आजमगढ़के कितने ही भागोंमें बोली जानेवाली भाषा), भोजपुरी, अवधी, बुन्देलखंडी आदि भाषाओंको ग्रामीण भाषा कहना बतलाता है कि लोग इनकी अहमियतको नहीं समझते। ग्रामीण भाषाका अर्थ है असभ्य, असंस्कृत, फूहड़ अथवा दयापात्र भिक्षुक भाषा। जिस वक़्त सिर्फ़ अपनी ही भाषा बोल-समझ सकनेवाले इन प्रान्तोंके किसी आदमीको देखते हैं, तो हमारे शिक्षितोंके मनमें यही भाव पैदा होता है।

वह भूल जाते हैं कि यह भाषाएँ मृत नहीं, जीवित हैं। यह अधिकार-च्युत हैं। शोषकोंको हटाकर आज जनताको अधिकार प्राप्त हो जाने दीजिए, फिर देखिए कि कल ही यह भाषाएँ कितनी नागर, सभ्य और ललित दिखाई देने लगती हैं। जनताकी राजनीतिक परतन्त्रताको जो लोग सनातन - त्रिकालव्यापी - मानते हैं, वे निराशावादी हैं। हमारी निराशावादिता समझती है कि यह भाषाएँ मरने जा रही हैं, इसलिए जल्दी करनी चाहिए। मूल कारणोंके बारेमें माथापच्ची न करके जो रतन चुन लिए जा सकें, उन्हें चुन लेना चाहिए। संग्रहके लिए जल्दी करना ज़रूरी है। सुस्ती किसी काममें नहीं होनी चाहिए; मगर यह ख़याल करके नहीं कि यह भाषाएँ मरने जा रही हैं।

इन भाषाओं का समय आ रहा है। इनकी सहायताके बिना शत-प्रतिशत जनता दस-पाँच वर्षोंमें साक्षर-शिक्षित नहीं हो सकती। कोई स्वतन्त्र समझदार जाति पराई भाषामें आजके ज्ञान-विज्ञानको प्राप्त करनेकी चेष्टा नहीं करेगी। हिन्दी भी हममें से अधिकोंकी मातृभाषा नहीं, सीखी हुई भाषा है, और ऐसी सीखी हुई कि चौदह वर्ष लगानेपर भी कितने ही बिहारी हिन्दीके व्याकरणपर अधिकार प्राप्त नहीं कर सकते।

एक भाषा-भाषी जनताको एक प्रान्त या प्रजातन्त्र न बनने दिया जाय, जिसमें आन्तरिक झगड़े बरकरार रहें। नहीं, यह हर्गिज़ नहीं होने जा रहा। भारत और संसारका अबकी बार स्वतन्त्र होना इन भाषाओंके लिए भी कुछ मतलब रखता है, और वह यह कि इनके स्वतन्त्र अस्तित्त्वको स्वीकार किया जाय - मल्ली (भोजपुरी) - भाषा-भाषी आरा-छपरा-मोतिहारी-बलिया ज़िलोंके सम्पूर्ण तथा गोरखपुर-आज़मगढ़-गाज़ीपुर ज़िलोंके कितने ही भागोंको मिलाकर एक अलग मल्ल-प्रजातन्त्र क़ायम किया जाय। काशिका (बनारसी) भाषा-भाषी बनारस आदि ज़िलोंको मिलाकर काशी-प्रजातन्त्र क़ायम किया जाय।

फिर सवाल होता है हिन्दीका। हिन्दीको हम अन्तर्प्रान्तीय भाषा मान सकते हैं; पर वह हमारी मातृभाषा नहीं है। उसे कभी किसी भी मातृभाषाको मारकर पूतना बननेका अधिकार नहीं है। हिन्दी-भाषाको शिक्षितकी कसौटी बनाना ग़लत है।मातृभाषाओं के अधिकारको स्वीकार कर लेनेपर भी जनता-युग में हिन्दीको क्षति नहीं पहुँचेगी, उसके अनेक साहित्यिक तब भी दूसरे भाषा-क्षेत्रोंमें पैदा होते रहेंगे। और यदि क्षति हो भी, तो हमें जनताके साकार लाभको देखना है।

गुप्तजीने विश्राम-जैसे कितने ही विस्मृत कवियोंका ख़याल करके बहुत खेद प्रकट किया है। मगर यहाँ यह समझनेकी ग़लती नहीं करनी चाहिए कि इन विस्मृत कवियोंकी कविताएँ अकारथ गईं। यदि उनकी कविता वास्तविक कविता रही है, तो उसने अनेक हृदयोंको झंकृत किया होगा, जिसके परिणामस्वरूप ही नए विश्राम पैदा होते रहेंगे। जिस अनामिका कविता-स्रोतने विश्रामको पैदा किया, वह सूखा नहीं है। विश्राम-जैसे कवियोंको पैदा करनेवाली भाषा बन्ध्या नहीं हो सकती।

मातृभाषाके उत्साही सेवकोंसे मैं कहूँगा कि वे अपनेको अनाथ न समझें। भविष्य उनके ही हाथोंमें है। संग्रहका काम बहुत मुश्किल है। संग्रह करके उसकी दो-दो प्रतियाँ लिखी जा सकती हैं - प्रति तैयार करनेमें उस विषयके विशेष जानकारोंके सलाह-परामर्शसे भी फ़ायदा उठाया जा सकता है।



[ पटना ]

भोजपुरीका वियोगी कवि 'विश्राम' : श्री परमेश्वरीलाल गुप्त


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आयल बाटे सावन क महिनवां मोरे भइया,
रहि-रहि उठे बदरा घनघोर। 

तमसाके उस पार, दूरसे आते हुए करुणासे ओत-प्रोत बिरहे* को सुनकर चलते हुए पाँव ठिठक गए। साथीने कहा - 'कितना सुन्दर गा रहा है!' और हम दोनों सुननेमें तन्मय हो गए :-

उड़ैला    पपीहा   आपन    गितिया   सुनावत;
चलैले     बयार     जियरा     के     लहरावत।
 जोन्हरीके   पात  हिल्ले    मड़ुआ   कै  चोटी;
रहि-रहि   खहरालीं   उखिया   ज मोटी-मोटी।
उड़ैलँ    बकुलवा   जइसे   बेइली  क  गजरा;
बदरा  कै    टुकड़ी    नभवामें    कर   झगरा।
पड़ल बाटै झुलवा वोप्पर झुल्लति बाँटीं नारी;
रहि-रहिके    हिल्ले    वोहो   पेड़वाकै  डारी।
चारों   ओरसे   कजरी   सुनाले   मोरे  भइया;
 जेहि   सुनिके   फाटेला  करेज  मोरे  दइया।
कहैं   'बिसराम'  दुनियाँ  करत  बाय  अराम;
                    नाचत बाटें बनवामें खूब मोर।
राम!   मोरी  रानी   भइलीं  स्वाती  कै  पानी।
                मोर करकैला करेजवा कै कोर।।

- सावनका महीना आया हुआ है। रह-रहकर घनघोर बदल उठ रहे हैं। पपीहा अपना गीत सुनाता उड़ता है। मनमोहक वायु चल रही है, जिससे मक्केके पत्ते और मड़वाकी चोटी हिल रही है; रह-रहकर मोटी ईख खड़खड़ा उठती है। आकाशमें बगुले इस प्रकार उड़ रहे हैं, मानो बेलेके हार हों। (कितनी सुन्दर कल्पना है!) नभमें बादलोंकी सेना युद्ध कर रही है। बागमें झूला पड़ा है, जिसपर स्त्रियाँ झूल रही हैं, जिससे रह-रहकर पेड़की डाली हिल उठती है। चारों ओर कजलीकी ध्वनि सुनाई पड़ रही है, जिसको सुनकर मेरा हृदय फटा जा रहा है। सारा संसार आनन्द कर रहा है और वनमें मोर नाच रहे हैं; किन्तु मेरे मनमें हूक-सी उठ रही है, क्योंकि मेरी रानी तो स्वातीकी बूँद हो चुकी है। 

कितना सुन्दर-सजीव सावनका चित्रण है और साथ ही है वियोगीके हृदयकी मर्मभरी वेदना! गायकके विषयमें जाननेको मन उत्सुक हो उठा। साथीने बतलाया, इन पंक्तियोंका गायक है भोजपुरीका वियोगी कवि 'विश्राम'** एक पतला-दुबला 24 वर्षका अपढ़ ग्रामीण, जिसने अपनी 'सोनेकी-सी रानी' को खोकर पाया है कविता रानीका वरदान। उसीको लेकर तमसा-तटपर बैठा वह अपना मन बहलाया करता है। लोग उसे दीवाना समझते हैं। वह कहता है :-
 
        मोके त  बिपतिया सतावै मोरे दैवा,
गउवाँ  कहे   कि   मेहरबस  हउवै  सार।
बुढ़वा त कहैं, हमरो मरलि बाय मेहरिया,
कबहूँ ना तोरलीं  आपन अइसे सरिरिया।
कहै लँ  जवनका  मेहरी मरे बहुत जग में,
उनकर  मरदवा  नाहीं  रोवें  अइसे मगमें।
इनहीं कै सीता   जनूँ मरलि बाटीं  जगमें,
            इतअ रोवें नित  जरिया बेजार।
एकठे     मेहरियाके    मरतई    बेहँगवा,
       गयल अपनो हिमतिया अइसे हार। 

- मैं तो विपत्तिसे पीड़ित हूँ; मगर गाँववाले समझते हैं कि मैं स्त्रीके वशीभूत हूँ। बुड्ढे कहते हैं कि हमारी भी स्त्रियाँ मरी हैं; पर हमने कभी भी इस प्रकार अपना शरीर नष्ट नहीं किया। युवकोंका कहना है कि संसारमें बहुत-सी पत्नियाँ मरती हैं; पर उनके पति इस तरह रास्तेमें रोया नहीं करते। वे मुझपर व्यंग करते हैं - 'जान पड़ता है, संसारमें एक इसीकी सीता मरी है, जो इस प्रकार रोता है। कायर है, तभी तो एक ही स्त्रीके मरनेसे निराश हो गया है।'

बात कितनी साधारण है;  पर है चुभती हुई। संसारमें कितने ऐसे व्यक्ति हैं, जो पत्नीकी मृत्युपर इस प्रकार क्रन्दन करें? इन पंक्तियों को पढ़कर 'बच्चन' की निम्न-पंक्तियाँ स्मरण हो आती हैं :-
आज मुझसे दूर दुनिया,
हाय कितनी क्रूर दुनिया,
है चिताकी राख करमें माँगती सिन्दूर दुनिया। 
पर हमारा कवि 'दिवंगता श्यामा' के शोकको 'बेदी' के प्रणय में भूल नहीं जाना चाहता। वह कहता है :-
पिताजी कहें, बेटा, करबै बिअहवा दूसर,
                   काहें होल वम्में लवलीन।
एतनी त बतिया नाहीं  जनता मोरे दादा,
         उनकै सूरति मनवामें हौ आसीन।
तूहैं  हउवै  काम  तिलकी  में  लेबै  दाम,
          हमरी दुसरी   नियतियाँ हईं तात!
जनम गँवइबै उनकै नऊँवा हम रटि-रटि,
       दादा, न हो करबै दुसरी कअ बात।
कहैं  'बिसराम'   लखिके   हमराई  काम,
        गउँवा कहै कि करत बाय उत्पात।
हमरा  त दिलवा  सुनगै  अगियाकी  नाईं,
लोगन का हो जनब हमरे दिल कअ बात। 

-पिताजी कहते हैं, उसमें (दिवंगता पत्नीमें) व्यर्थ इतने अनुरक्त हो रहे हो, मैं तुम्हारा दूसरा विवाह कर दूँगा। 
-लेकिन पिताजी, आप यह बात नहीं जानते हैं कि उसकी सूरत मेरे हृदय में आसीन है। आपको तो तिलकमें रुपए लेनेसे मतलब है; लेकिन मैं दूसरी पत्नीकी कल्पना भी नहीं कर सकता। मैं तो उसीके नामको रट-रटकर अपना जीवन समाप्त कर दूँगा। 
-मेरी इस अवस्था को देखकर गाँववाले समझते हैं कि मैं उत्पात कर रहा हूँ; पर मेरे हृदय में तो आग लगी हुई है। गाँववाले मेरे दिलकी बात क्या समझ सकेंगे?

और सचमुच 'विश्राम' अपनी 'सीता' का नाम रट-रटकर  ही जीवन बिता रहा है। होली हो, दीवाली हो, वसंत हो, पावस हो - सब उसको उसकी 'स्वातीकी बूँद बनी रानी' का ही स्मरण कराते हैं। आज दीवाली है, 'विश्राम' गा रहा है :-
आइल बाय दिवाली, जगमें फइललि उजियाली,
                    मोरे मनवामें छवले बाय अन्हार।
जुगुर-जुगुर   दीया  बरे,   होति  बाय  अन्हरिया;
मैं  तो  बइठल  बाटों  अपनी  सूनी रे कोठरिया।
अँचराके    तरे    लेइके     फूल    कै   थरियवा;
गउँवाकै   नारी    बारै    चलति   बाटीं  दियवा।
मोरे    हियमें   उठे    उनके   यादकै   बयरिया;
सिहर-सिहर    मोर   उठे    दुखिया   सरिरिया।
सबके   घरवामें     दियवाकै   बाती   लहराती;
मोरे घरमें पीटति  बाय  अन्हरिया अब्बो छाती।
गाँवकै   जवान    ले    मिठाई     आवैं   घरमें;
देखिके  आपनि  धनियाँ   हरसत   बाटें मनमें।
कहैं  'बिसराम'     हमके     दाना   हौ   हराम,
                 देखि मिठवा कुढ़त हौ जी हमार।
सब   कर   घरनी     घरमें     दियवा   सजावै,
                 मोरे रानी  बिनु  घर  हौ अन्हार।। 
 -दीवाली आई है और संसारमें उजियाली फैली हुई है; किन्तु मेरे मनमें तो अन्धकार ही व्याप्त है। एक ओर रात्रि बढ़ती जा रही है,दूसरी ओर दीपक जगमग-जगमग जल रहे हैं; किन्तु मैं अपनी सूनी कोठरीमें ही बैठा हुआ हूँ। गाँवकी स्त्रियाँ आँचलके नीचे फूलकी थाली लिए दीपक जलाने जा रही है; पर मेरे हृदय में उसकी स्मृति-बयार चल रही है, जिससे मेरा दुखी शरीर सिहर उठता है। सबके घरोंमें दीपकोंकी बत्तियां लहरा रही हैं; पर मेरे घरमें तो अन्धकार भी शोक मना रहा है (छाती पीट रहा है।)  ग्रामके युवक मिठाई लेकर घर आ रहे हैं और अपनी प्रेयसीको देखकर मन-ही-मन प्रसन्न हो रहे हैं; किन्तु मुझे तो खाना तक हराम हो रहा है - मिठाई देखते ही जी जल उठता है। सब लोगोंकी स्त्रियाँ तो घरोंमें दीपक सजा रही हैं; किन्तु मेरा घर रानीके अभावमें अँधेरा पड़ा है!


कितनी मार्मिक वेदना है 'विश्राम' के हृदयमें ! वसन्तको देखते ही वह एक तीखी कसक बनकर प्रकट हो उठती है :-
अइलैं बसन्त,  महक  फइलल बाय दिगन्त,
                  भइया धीरे-धीरे चलैलै बयार।
फुललैं   गुलाब,   फुललीं  उजरी  बेइलिया;
अमवाके   डरियनपर   बोलेलीं  कोइलिया।
बोले   पपीहा   मदमस्त   आपन   बोलिया;
महकिया  लुटावै आम ले बउर कै झोलिया।
उड़ि-उड़ि   भँवरा   कलियन    पै  मड़रालैं;
हउवा  के   सङ॒   मिलीके   पात   लहरालैं।
बढ़ि-बढ़िके   लतवा    पेड़वनसे  लिपटालीं;
उड़ि-उड़ि   खंजन   अपने  देसवाके जालीं।
कहैं   'बिसराम'  कुदरत   भइल   अभिराम,
           चिड़िया गावत बाटीं नदियाके तीर।
चलि-चलि   बतास  उनकै   यदिया   जगावै,
            मोरे   मनवामें   उठति  बाटीं  पीर।
 -वसन्त आया है, चारों ओर सुगन्ध फैली हुई। है वायु मन्द-मन्द चल रही है। गुलाब और श्वेत बेला फूले हुए हैं। आमकी डालपर कोयल कूक रही है। पपीहा मदमस्त होकर अपनी बोली बोल रहा है। आम बौरकी झोली लेकर महक लुटा रहा है। भ्रमर उड़-उड़कर कलियोंपर मँडरा रहे हैं। हवाके संग पत्ते लहरा रहे हैं। लतायें बढ़-बढ़कर पेड़ोंसे लिपट रही हैं। खंजन अपने देश वापस जा रहे हैं और नदीके किनारे पक्षी कलरव कर रहे हैं। इस प्रकार प्रकृति अभिराम-सी हो रही है; किन्तु यह वायु तो रह-रहकर उसकी स्मृति जगा देती है और हृदयमें एक कसक होने लगती है। 

करुणा-मिश्रित यह प्रकृतिका स्वाभाविक चित्रण किस कविके चित्रणसे कम सजीव है? अँधेरी रात और बरसातका मौसम प्रेमीको प्रेयसीके लिए कितना व्याकुल कर देता है, यह 'विश्राम' के दिल से पूछिए। वह कहता है :-

 राति अन्हिअरिया, बाटीं सूनि मोरी सेजरिया,
                    मोरे दिलवामें  उठेला तुफान।
 बोलेलअ    सियार     कुचकुचवा     बहरवाँ;
 रेंउआँ   चिल्लात   बाटें   तालके   किनरवाँ।
उड़ि-उड़ि भगजोगिनी  पिपरन पर मँडरालीं;
नभावासे    टूटिके   तरई   रातमें   बिलालीं।
चलि-चलि   पुरुअवा    पेड़वनके   झकझोरे;
मेघवन   कै    बोली    मोके   चिन्तामें   बोरे।
उमड़ - घुमड़के     बदरा     पानी    बरसावे;
तड़प - तड़पके   मोरा      जियरा   तड़पावे।
आइ - आइ   बउछार   मोर  खटिया भिगोवे;
टूटल     ओसार     मोरा     टुप - टुप    चूवे।
यहि बिच   यदिया  उनकै  अइलीं  अचानक;
           मोरा   मनवा    मसोस   रहि   जाय।
कहैं  'बिसराम'का    बिगड़लीं   तोहरा  राम;
          मोरी  बसली मड़इयाँ  देहला जराय।।

-रात अँधेरी है, पर मेरी शय्या सूनी है। मेरे हृदय में तूफ़ान उठ रहा है। बाहर सियार और उल्लू बोल रहे हैं। तालाबके किनारे झींगुर झंकार कर रहे हैं। पीपलके पेड़पर उड़-उड़कर जुगनू मँडरा रहे हैं। तारे आकाशसे टूट-टूटकर रात्रिमें विलीन हो रहे हैं। पुरवा हवा चलकर पेड़ोंको झकझोर रही है। मेढककी बोली सुनकर मेरा मन चिंतित हो उठता है। बादल उमड़-घुमड़कर पानी बरसाते हैं, साथ ही तड़पकर मेरे जीको भी तड़पाते हैं। बौछार आ-आकर मेरी खाटको भिगो देती है। मेरा टूटा हुआ ओसारा (बरामदा) टप-टप चूता है। ऐसी अवस्थामें अचानक उसकी याद आ गई और मन मसोसकर रह जाता है। हे भगवान ! मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा था कि तुमने मेरे बसे हुए झोपड़ेंको उजाड़ दिया?

प्रकृति कितनी दुःखदायिनी  रही है 'विश्राम'को, यह प्रकृति-निरीक्षक कोई कवि-हृदय ही बता सकता है।

दूर, नदी-किनारे, एक चिता जल रही है। 'विश्राम'के कवि-मनमें हठात उस दिनकी याद आ जाती है, जब उसने इसी नदीके किनारे अपने ही हाथों अपने अरमानोंको जला डाला था। वह कह उठता है :-

नदिया    के   किनारे  एकठे   चिता    धुँधुँआले,
               लुतिया उड़ि-उड़ि  गगनवा में  जाय।
धधकि-धधकि    के    चिता   लकड़ी    जलावे;
लहकि-लहकिके      नदीके     सनवाँ   दिखावे।
चलिके      बतास         अँचियनके      लहरावै;
नदिया   कै    पानी    आपन   देहिंयाँ   हिलावै।
चटकि - चटकिके  चितामें जरति बाय सरिरिया;
ना   जानी कि   पुरुस   जरै   या  जरै  मेहरिया।
चितवातर     बइठल   एकठे     मनई    दुखारी;
अपने     अरमनवनके    डालत    बाटै    जारी।
कहैं    'बिसराम'   लखिके    चितवनकै    काम,
           मोरा   मनवां  हो   जाला   ई    बेकाम।
अइसनै    चिता हो    एक   दिन  हमहूँ जरवलीं; 
         वोहि सङ् फूँकि देहलीं आपन अरमान।

-नदीके किनारे एक चिता धू-धू करके जल रही है और चिनगारी उड़-उड़कर आकाशमें जाती है। धधक-धधककर चिता लकड़ियोंको जला रही हैं और लपटें बढ़-बढ़कर नदीको अपनी शान दिखाती है। वायु चलकर आँचको लहरा देती है। और नदी अपने शरीरको हिला रही है। चितामें चटक-चटककर शरीर जल रहा है। पता नहीं, उसमें नर जल रहा है अथवा नारी। हाँ, इतना अवश्य है कि उसके किनारे बैठा एक दु:खी व्यक्ति अपने अरमानोंकी आहुति दे रहा है। चिताका यह कार्य देखकर मेरा हृदय बेकार हुआ जाता है। एक दिन मैंने भी ऐसी ही चिता प्रज्वलित की थी और उसीमें फूँक दिए थे सारे अरमान।

इन सजल पंक्तियोंको देखकर किसे पन्तकी निम्न पंक्तियाँ स्मरण न हो आयँगी :-
वियोगी होगा पहला कवि,
विरहसे उपजा होगा गान। 
और याद आ जायगी क्रौंच पक्षीकी वह कथा, जिसने वधिक वाल्मीकिको महाकवि वाल्मीकि बना दिया।
कौन कह सकता है, 'विश्राम' किसी महाकविसे कम हैं? उसमें महाकवियों-सी प्रतिभा है, भाव हैं, भावुकता है, कल्पना है और उनके उपयुक्त भाषा। काश, वह पढ़ा-लिखा होता ! फिर भी, इस अवस्थामें ही वह सत्कवियों से कम नहीं है। अन्तर केवल इतना है कि पढ़े-लिखे कवि लोक-प्रसिद्ध हैं और वह तमसाके किनारे बैठा मूक साधना किया करता है।

[ गोपाल-निकेत, आज़मगढ़ ]

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  * पुरुषों द्वारा गाया जानेवाला गान।
** भोजपुरीका यह तरुण गायक आजमगढ़ नगरसे डेढ़ मील दक्षिण-पूरब, तमसाके किनारे जयरामपुर नामक ग्रामका निवासी है। - ले.

Saturday, August 15, 2020

पुरुषार्थवती देवी और रामेश्वरी देवी गोयल की कविताएँ

 



पुरुषार्थवती देवी  (1911 - 1931) 


उद्वोधन

उठो !  ललनाओं भारत की। 


मत समझो हा ! हम हैं अबला 

तुम तो शत्रु घातिनी सबला 

शक्ति और साहस में प्रबला 


सुगति विधायिनी भारत की। 

उठो ललनाओं  भारत की।। 


सोचो, समझो, गम्भीर हो 

निज-बल पहचानो धीरा हो 

रक्ष - चंडी  होवो  वीरा  हो


शक्ति दायिनी  भारत  की। 

जगो ललनाओं भारत की।।


भय  शंका   को  दूर भगाओ

कष्ट  जान   के  दूर   हटाओ 

वास्तव में फिर से बन जाओ 


सौख्य प्रदायिनी भारत की। 

आर्य्य ललनाओ भारत की।। 

(मनोरमा, सितंबर 1927)

***


प्रश्न 

सांध्य - गगन  की ललति-लालिमा 
विहँग - वृन्द का  कल रव - वाद। 
शीत, मन्द, शुचि, मलय - प्रभंजन,
किसकी   अहो!    दिलाते   याद?

बाल - सूर्य्य   की   किरण - राशियाँ,
उषा     सुन्दरी      का     वर - वेष।
चपल - सरित का अविरत - भाषण,
देते         क्या       अतीत - सन्देश?

निशा   काल   का   नीरव  गायन,
सुप्त - विश्व     की    मुद्रा - मौन। 
चन्द्र  देव   की   मृदुल   रश्मियाँ,
क्या   कर  देती   हैं,   मैं   कौन?

व्यथित    हृदयतंत्री   झंकृत   कर,
कौन    अहो !    गाता    है    गान?
किस  अतीत  की  याद दिला कर,
बेसुध     कर     देता    अनजान।।

(मनोरमा, दिसंबर 1927)
***

सप्त - स्वर 

प्रकृति - नटी यह  सात रँगों से करती है नित नव श्रृंगार;
सप्त - स्वरों से यह जग- वीणा करती है मुदमय झंकार। 

सूर्य  रूप में  सप्त -रंग ये  करते जग - जीवन - संचार;
सात  वर्ष की  अभिव्यक्ति में  झूल  रहा  सारा संसार। 

उसी सप्त - स्वर - लहरी में मुझको निमग्न हो जाने दो;
विश्व चित्र  के  चतुर  चितेरे   प्रेम -सुधा - रस  पाने दो। 

(सुधा, मई 1928)
***

जीवन नौका 

पथ अज्ञात, कठिन; जीवन - नौका डगमग हो जाती थी;
विश्व - सरित  की   चपल  तरंगों  में  डूबी  उतराती  थी। 

कभी निराशा  की छाया  निज  अंचल से  ढक  लेती थी;
अश्रु - माल इस दग्ध हृदय का क्लेश - ताप हर लेती थी। 

दुखिया  की  इस  दीन   दशा पर  चन्द्र - देव  मुसकाते  थे;
नभ - मंडल से चुए सुधा - कण भी बलि - बलि हो जाते थे। 

तब  भी  इस  मुरझाए मन  में  आश - लहर  लहराती  थी;
भावों  की  मंजुल  आभा  बस  क्षीण  प्रकाश  दिखाती थी। 

अनिल - झकोरों से तम में वह झिलमिल ज्योति विलीन हुई;
मेरी     जीवन - नैया   भी    उस   अंतराल   में   लीन   हुई। 

(सुधा, अक्टूबर  1928)
***

वेदना 

हो सुंदर, सुरभित उपवन, जग को मोहित करता हो;
पर   मेरा सूखा  पतझड़  ही  मुझको  रम्य  बना हो। 

सज्जित गृह - द्वार खड़े हों, करते हों नभ का चुम्बन;
अपनी  सूनी  कुटिया  में  ही  मेरा  ध्यान  लगा  हो। 

बहता हो सुखद समीरण, संचारक प्राण जगत का;
पर मेरी जीवन - लड़ियाँ उसमें भी उलझ रही हों। 

विशदांगन  में  पृथ्वी  के  क्रीड़ा  करते  हों  प्राणी;
पर  मेरा स्थान  कहाँ  है, यह कोई  जान न पावे। 

उपमेय  न हो  कोई  भी, उपमान  न  कोई  मेरा;
मैं भी 'निज' पता न पाऊं, तब जग कैसे पहचाने?

(सुधा, जुलाई 1929)
***

ओ परदेशी !

खट - खटाया    द्वार    मेरा    रात   ने 
क्या  कहूँ  वह रात  या शुभ - प्रात ने। 
जब अचानक तू ने उर - कम्पन किया 
मैंने   देखा  एक   अद्भुत  जग  नया। 

भूलती  थी  मैं,  अज़ब  वह  दृश्य  था 
यदपि  इन  आँखों  से  तू अदृश्य था। 
भर   चुकी  थी  आंसुओं  से  गगन के
यह मही, जिनको  लिए वह यतन से। 

मुसकराती    थी,  घने  अंधकार   में 
व्यक्त  कर  आनंद  इस  व्यापार  में। 
उस  लजीले  नयन  के मृदु - हास में 
देखा तुम्हीं को, थे  तुम्हीं बस पास में। 

स्तब्ध - सी औ' ज्ञान इससे व्यस्त - सी 
रह गयी मैं  चौंककर फिर मस्त - सी। 
मैं   तुम्हें   नहिं  जानती  थी  और  ना -
जानती   थी   है   तुम्हारा  नाम   क्या। 

किन्तु  उसके  बाद, अब तु म तो गए 
पूर्ण  तुमने  कौन - से  थे  स्थल  किये?
दृष्टि  के उस  एक  ही  बस  मूल्य  में
निरत  झरने  बरसते  स्मृति - कूल में। 

(विशाल भारत, अक्टूबर 1937)

[ नोट - श्रीमती पुरुषार्थवती ने यह कविता 4 फ़रवरी सन् 1931 की साँझ को लिखी थी। अपने नाम पर आयी किसी चिट्ठी के ख़ाली भाग पर ये पंक्तियाँ लिखकर वे भूल गयीं कि वह चिट्ठी किधर हो गयी। इसके सिर्फ़ सात ही दिन बाद, 11 फ़रवरी 1931 के प्रात:काल को, उनका स्वर्गवास हो गया। उसके सवा छः साल बाद वह चिट्ठी उनके समान में पायी गयी है।  इस कविता को वे दुबारा देख भी नहीं पायीं।  - सम्पादक, विशाल भारत ]

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रामेश्वरी देवी गोयल  (1911 - 1935)



आशा 

पीड़ा का मूक रूदन बन शर, दुष्टों का रक्त बहाएगा। 
निर्धन प्राणों का आह पुंज, भूतल पर क्रान्ति मचाएगा। 

अत्याचारी  का  प्रबल  वेग, अबलाओं  के आंसू - कण ले,
आरत भारत पर एक बार, विद्युत् - सा बल चमकाएगा। 

देशानुराग का पागलपन, रग रग में फड़काकर धड़कन,
बलि - वेदी पर बलि दे  जीवन, भारत स्वाधीन बनाएगा। 

(सुधा, अक्टूबर 1930)
***

अरे ... इस ओर ...!

भग्न  हृदय   का  स्वप्न - राज़  है,
मुरझाया सुख - सुमन - साज है,
पथिक - रहित पथ शून्य पड़ा है,
                           मिलता      और      न      छोर। 
                           अरे  ...               इस ओर  ... !

भूमि कठिन, कंटकमय अतिशय,
स्मृति में है विस्मृति का विस्मय !
नियति, हास करती, विषाद -तम
                       छाया     है       अति         घोर। 
                       अरे  ...               इस ओर  ... !

टूटी - फूटी    कहीं     कुटी    है,
सुषमा   जिसकी  सभी   लुटी  है,
छुटी सकल ममता जग की, बस 
                       लगे        वहीं          दृग - कोर। 
                       अरे  ...               इस ओर  ... !

अश्रु     निरंतर    नृत्य     रचाते,
झर - झर हृदय - व्यथा बरसाते,
गाते - गाते   राग   अलख    का 
                       करते         रहते            भोर। 
                       अरे  ...             इस ओर  ... !

सिसक रहीं जीवन की घड़ियाँ,
टूट गयीं मानस की कड़ियाँ,
बिखरीं आशाओं की लडियां,
                       आओ      अब       चित -चोर। 
                       अरे  ...             इस ओर  ... !

(सुधा, अप्रैल 1931)
***


आदेश 

...निराली साध !
विकल मानस का राग अगाध ?
अरी मतवाली !
देव - दुर्लभ अनुपम अभिलाष;
विषम उपहास,
नहीं है पीड़ा से खाली !

... निपट अनजान !
वृथा मत कर दिन का अभिमान,
अरी अविचलित !
बनेगा मानस शून्य श्मसान 
छोड़ दे आ  न 
न खो देना निधि यह संचित !

... सुनहला प्यार -
मधुरतम जीवन यह, कटु भार 
बनेगा, भोली !
नवल विकसित कलियों के साथ 
हृदय कर क्षार 
जलेगी प्राणों की होली !

... साधना विमल,
प्राण का है संकल्प, अचल,
लालसा भारी,
किन्तु ठुकराना मत वह क्षार,
प्यार का सार,
अरे ! हे, निष्ठुर व्यापारी। 

(सुधा, अक्टूबर 1932)
***


पागलपन 


सजनि ! है कैसा पागलपन ?

नीरव आँधी   शून्य   गगन में 
मचल  मचल    वह     जाती। 
शुष्क अधर की संचित लाली 
झर  झर   झर  झर    जाती।। 

न रहता है   किंचित् अपनापन,
सजनि ! है यह कैसा पागलपन ?

नयन हठीले   सो सो जाते 
मधुमय   के   मधुवन   में। 
मनभावन आकर खो जाते 
स्वप्नों   की   उलझन    में। 

न    खोने   पाता    यों   सूनापन 
सजनि ! है यह कैसा पागलपन ?

पीड़ामय तन्द्रा में भी, सखि !
याद    उसी     की    आती। 
निठुराई    निर्मम    के   उर 
चुभती, पर  खोज  न  पाती।।

सजनि ! क्या   ऐसा ही है बन्धन?
सजनि ! है यह कैसा पागलपन ?

(सरस्वती, जनवरी 1934)
***

उपालम्भ

तुम्हारी  संजीवन  मुस्कान,  जगा  देती  मद  का  संसार। 
पुलक, भावुक नभ भी अनजान, लुटा देता अपना श्रृंगार।।

लुभा  लेता  तटस्थ  के  प्राण, बिछा  मायावी   मुक्ता - जाल। 
बना देता पागल - सा कौन, व्यथा की अविकल मदिरा ढाल?

श्रमित कलियों का  कोमल गात, ढूंढ़ता व्याकुल हो विश्राम। 
सुला देता सुधांशु निज अंक, बिछा कर शीतलता अभिराम।।

छोड़  जाता  आंसू  कोई -- दुखद - सा  स्वप्न;   दीन नैराश्य। 
पोंछ  लेता  चुम्बन  में  एक,   हँसा  जाता  प्राची  का  हास्य।।

किन्तु   मानस   का  टूटा  तार,  छेदते  र हते  आकुल  प्राण।
स्वप्न - सा खो जाता मतिमान, सुखद जीवन का सुमधुर गान।।

न आने देता पुनः वसन्त, छेड़ कर अपनी आकुल तान। 
ढहा  देता  आशा  के  स्वप्न; बहा  देता  विवेक  नादान !!

(सरस्वती, फ़रवरी 1934)
***

गीत

घन - कण क्यों वसंत नभ छाये?

कौंध रही अलि चंचल दामिनि,
उमड़ - घुमड़ दल बादल छाये,
काँप   रही   आतुर   शैवालिनी;
पिय - बिछोह  की  धुनी रमाये। 

तुमुल द्वंद्व से श्रान्त, व्यथित, चल 
ज्यों ही सखि मधु - बाल सुलाये
गरज  पड़े   निष्ठुर  सोये  नभ -
कड़क - तड़क सुकुमार जगाये। 

प्रलय  प्रभंजन   से  टकरा  अलि,
गृह - विहीन, अरु प्रिय विलगाये -
बिखर गये, आकुल, अति निष्प्रभ 
मिटे   प्रीति   की   रीति  निभाये। 

क्यों घन - कण  वसंत नभ छाये?

(सरस्वती, सितम्बर 1934)
***

उस पार 

अ       ह:     ह:    ह: ................ !

उस पार जाना चाहते हो, पथिक ! .....

यह गठरी ले कर    ................ ?
इस गम्भीर - अथाह जल - प्रवाह को पार करना चाहते हो, ........ हँसते - हँसते ? ........... स्मृति की छाया में ? ...... और; --- यह भेंट लेकर स्नेहाकांक्षा में ? .......

नादान पथिक ! ठहरो, ---    लौ   .........  ट      जाओ सुकुमार ........

यह क्या    ...........? ममत्व की अपेक्षा, उत्सर्ग का निश्चय कर आगे बढ़ना --- तुम्हारा प्रेमी निर्म्मोही है। 

कामना, प्रेम - जनित अभिलाषा, प्रत्याशा और अपने धन को वहीं छोड़ आना --- तुम केवल फ़क़ीर बन कर उसके पास पहुँच सकते हो  --- वह तो योगी है। 

क्या तुम्हें विश्वास है कि मार्ग की कोई भी कठिनाई --- भयंकर झंझा, मृत्युवाहिनी भँवर, --- विकराल अन्धकार, जीवन - नैराश्य, तथा अनन्त संताप --- तुम्हें विचलित न कर सकेंगे? .......

क्या तुम ढृढ़तापूर्वक कह सकते हो कि तुम्हारे पास तुम्हारा कुछ भी नहीं है? यदि हाँ तो तुम सच्चे प्रेमी हो ---

पथिक ! उस पार मिलन नहीं है --- वहां है आत्मविसर्जन   ..............  चलोगे?


(सरस्वती, मई 1934)
***

गद्य - काव्य 

उसका हृदय अनेक आघातों से पीड़ित था - वे सभी अपनी छाप छोड़ गए थे।  अपने जर्जर प्राणों को सहानुभूति की आशा से वहाँ सँभाल रही थी।  किन्तु व्यथा से बेसुध, संताप से विकल और दुराशाओं से पीड़ित वह जीवन का छोर छूने का प्रयत्न कर रही थी। 

तुम आये  ....... , शरीर में कंपकंपी फ़ैल गयी - उसने आँखें खोलीं और मुस्करा दिया। 

तुम भूल गये -

चमचमाती रजनी के जगमग प्रकाश में तुमने केवल उसका स्मित अधर ही देखा ....... !

पल भर की इस सफलता पर वह प्रसन्न थी। इतनी कठोर यन्त्रणा पर वह विजय पा सकी ! क्षितिज ने भी मुस्करा दिया। 

............पर रोग असाध्य था। 

काल का कौतूहल बढ़ता ही गया।  क्षण क्षण के हृत्कम्पन एक भयानक आघात पहुँचाते।  वे इनी - गिनी श्वासें भी क्षण में विलीन होने वाले जीवन की शत्रु बन बैठीं। उसकी तड़फ देखकर हृदय सिहर उठता था। पर उस पीड़ा को बांटने वाला था ही कौन?

तुमने उसकी नाड़ी थाम ली। उसने आँखें बंद कर लीं। तुम्हारी स्नेह - पूर्ण थपकियों से कदाचित् कुछ आराम मिला - तुम्हारा हृदय आनन्द से विभोर हो गया - जीवन की कुछ आशा बंधी। 

.............एक बार उसने फिर आँख खोली - तुमने सोचा, वह कुछ कह रही है - उसकी पुतलियों को देखकर तुम रो क्यों उठे? क्या उनमें तुम्हारा चित्र न था?

उसने मुस्कराने की चेष्टा की, पर अधर खुलकर रह गए।  उसकी आँखों से दो आंसू चू गए।  उन्हीं में उसके हृदय का, प्राणों का और असफल जीवन का रहस्य था !

(सरस्वती, मार्च 1935)
***


स्वप्न 

(हमें यह लिखते हुए दुःख होता है कि सरस्वती की इन होनहार लेखिका श्रीमती रामेश्वरी देवी गुप्त, एम.ए. का प्रसूति - ज्वर से असमय में ही स्वर्गवास हो गया। अपनी मृत्यु से कुछ दिन पूर्व आपने एक गद्य गीत लिखा था उसे हम यहाँ प्रकाशित करते हैं।  - संपादक, सरस्वती




प्रियतम का मुक्त द्वार था - न कोई प्रहरी न द्वारपाल। मैंने स्वच्छन्दता-पूर्वक उसमें प्रवेश किया।  असंख्य तारों की शीतल चन्द्रिका में अगणित पथ दिखाई दिये - मैं चलते चलते थक गई। ढूंढ़ते ढूंढ़ते विकल हो गई, पर उस प्रासाद के स्वामी का पता न था। 

रजत - रश्मियों की मुस्कान धूमिल हो गई। रजनी ने अपना विस्तृत प्रसार समेटा। और काले मेघों ने वक्ररूप धारण कर लिया। श्रान्त गात, आहत-सा गिर पड़ा - हताश हो मन ने श्रृंखलायें तोड़ दीं। अचेत शरीर में हृत्कम्पन का वेग बढ़ गया - जीवन का काल मन्द नाड़ी छू गया - किन्तु टिमटिमाते दीपक की अन्तिम लपटों की भांति नयनों में ज्योति घूम गई। प्रतीक्षा के उस नन्हें पल में जीवन भर का सम्पूर्ण उत्साह छलक गया - अमिट आशा भर गई। 

अदम्य उत्सुकता से द्वार की ओर देखा - वह मेरे पास था .............. ! !

सब आश्चर्य्य में थे - प्रफुल्ल हो हृदय-गति की परीक्षा की। वह निस्पन्द थी। नाड़ी की गति रूक गई - जीवन का अमर प्रसाद पा आत्मा मुक्त हो गई। 

किन्तु जीवन का स्वप्न टूट गया। आभा बिखर गई - निखरे हुए युगल रत्नों के समान वे नेत्र खुले रह गए - कदाचित् अभी वे अतृप्त ही अपलक दृष्टि से तृष्णा बुझा रहे हैं ! अथवा अपनी सहज सफलता पर अविश्वास कर निर्निमेष दृष्टि गड़ाये प्रियतम का आह्वान कर रहे हैं !!

(सरस्वती, जनवरी 1936) 

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प्रस्तुति : सुजीत कुमार सिंह 

Wednesday, August 12, 2020

काशी-नागरी-प्रचारिणी सभा : पं. रामनारायण मिश्र




 

यह संस्थाओं का युग है। संसारके समस्त सभ्य देशोंमें सार्वजनिक जीवनके प्रत्येक पहलूसे सम्बन्ध रखनेवाली संस्थाएँ  हैं। हमारे भारतमें भी हैं। संस्थाएँ देशकी संघशक्तिकी साक्षी-स्वरूप हैं; पर भारतकी संस्थाओंमें दृढ़ता, एकता और चिरजीवी होनेके गुण प्राय: कम पाए जाते हैं। अन्य देशोंमें ऐसी सभा-समितियाँ  हैं, जो सैकड़ों बरसोंसे चली आ रही हैं। उनके संचालक सोचते रहते हैं कि किस प्रकार उनका भविष्य अधिकसे अधिक उज्ज्वल बनाया जा सकता है; किन्तु हमारे देशमें समस्या यह रहती है कि किस प्रकार हम एक संस्थाको जीवित रखें! ऐसी अवस्थामें यदि कोई संस्था 50 वर्ष की आयु प्राप्त कर ले, तो वह बधाई और प्रोत्साहन पानेकी पात्र है। परमेश्वरकी कृपासे काशी-नागरी-प्रचारिणी सभा आज इसी कोटिमें पहुँच गई है। 

पचास वर्ष पहले हिन्दीको कौन पूछता था। संस्कृतके विद्वान्, जो निसन्देह सरस्वती देवीके सच्चे उपासक रहते आए हैं; हिन्दीको 'भाखा' कहकर उन दिनों उसका निरादर किया करते थे। 5 अगस्त सन् 1843 में डा. बैलन्टाइनको, जो काशीके गवर्नमेन्ट संस्कृत-कालेज के प्रिन्सिपल थे, हिन्दीमें यह आज्ञा निकालनी पड़ी थी -

"संस्कृत-पाठशालामें  विद्यार्थी हिन्दी-भाषा प्राय: बहुत अशुद्ध लिखते हैं। जो विद्यार्थी पंडितके समान संस्कृत लिख सकता है, सो भी हिन्दीभाषा एक गँवार के समान लिखता है और हमारी दृष्टिमें यह निपट अयोग्यता है और चाहते हैं कि यह लज्जाका कारण पाठशालासे उठ जाए। इस निमित्त यह आज्ञा देते हैं कि जो लड़के तीसरी व्याकरण शालामें पढ़ते हैं, सो प्रति दिवस 10 बजेसे 11 बजे तक अंगरेज़ी शालामें आकर हिन्दी-पंडित की शालामें पढ़ा करें।"

जब ब्राह्मण विद्वानोंको, जो उस समय हमारी संस्कृतिकी रक्षा करनेवाले एकमात्र नेता थे, एक विदेशीको बतलाना पड़ा कि हिन्दी -भाषा को भलीभाँति न जानना लज्जाकी बात है, तब अन्य श्रेणीके लोगोंकी क्या अवस्था रही होगी!

अंगरेज़ी स्कूलोंमें पढ़नेवाले बालकोंके अभिभावक यही चाहते थे कि उनके बच्चे विदेशी फ़ारसी-लिपिमें लिखी हुई पुस्तकें पढ़ें। अंगरेज़ी पर तो लोग लट्टू थे। उस समय काशीके सरकारी स्कूलमें पं. मथुराप्रसाद मिश्र एक प्रसिद्ध और प्रतिष्ठित हेडमास्टर थे। उनमें बड़े गुण थे; परन्तु देशमें उनका यश उनके गुणोंके कारण नहीं था, बल्कि इसलिए था कि वे अंगरेज़ोंके समान अंगरेज़ी बोल सकते थे। हम लोग भी विद्यार्थी-अवस्थामें आपसमें अंगरेज़ी ही में बातचीत करना गौरवकी बात समझते थे। छावनीमें गोरोंकी बैरकमें इसलिए घुस जाते थे कि वहाँ अंगरेज़ोंसे अंगरेज़ी बोलेंगे। 

ऐसे समय 8-10  स्कूली विद्यार्थियोंका नागरीके नामसे एक सभा खोलना साहसकी बात थी; पर इसके कार्यक्रममें एकमात्र वाद-विवाद ही को स्थान दिया गया था। सौभाग्यसे इन बालकोंका सम्पर्क बाबू राधाकृष्ण दास, महामहोपाध्याय पं.सुधाकर द्विवेदी, पं.लक्ष्मीशंकर मिश्र, बाबू कार्त्तिकप्रसाद, बाबू प्रमदादास मित्र ऐसे महानुभावों से हो गया, जिनके कारण रूखे वाद-विवादसे हटकर इन लोगोंकी रुचि साहित्यकी ओर झुकी। उन दिनों देशमें हिन्दी-साहित्यके प्रति प्रेम उत्पन्न करनेका श्रेय भारतेन्दु हरिश्चन्द्र को था और हिन्दीको आर्यभाषा कहकर राष्ट्रभाषाका रूप देनेका श्रेय स्वामी दयानन्दको। पर जब यह सभा स्थापित हुई थी, उसके कुछ ही पहले ये दोनों विभूतियाँ स्वर्गगत हो चुकी थीं। वायुमण्डलमें ये दोनों अपना सन्देश अवश्य छोड़ गए थे। 

यह सभा कैसे बढ़ी, इसके सामने कितनी कठिनाइयाँ आईं, इसको किससे कितनी सहायता मिली - ये बातें तो सभाके 50 बरसके विवरणमें मिलेंगी (जो अर्द्धशताब्दी-उत्सवपर प्रकाशित होगा); पर एक बात अवश्य उल्लेखनीय है। वह यह कि इसमें कभी साम्प्रदायिक अथवा व्यक्तिगत भेद-भाव नहीं उत्पन्न हुआ। झगड़े हुए; पर दलबन्दी नहीं हुई। मनुष्योंके स्वभावमें अन्तर होता ही है। एकमें तमोगुण प्रधान , तो दूसरेमें रजोगुण, तीसरेमें सत्वगुण और किसी-किसीमें सब गुणोंका समन्वय। वही संस्था चिरजीवी हो सकती है, जिसमें भिन्न-भिन्न स्वभावके लोग शिष्टताकी सीमाका उल्लंघन नहीं करते और परस्पर प्रेम और श्रद्धा बनाए रखते हैं। मत-भेद हुआ ही करता है - होना स्वाभाविक भी है - पर 'बुद्धि-भेद' न होना चाहिए। इस सभामें ऐसा ही रहा है। यही कारण है कि देखते-देखते इसने 50 बरस बिता दिए और इतना  कार्य किया। 

'सभा' का मुख्य भवन 

सभाका मुख्य उद्देश्य आरम्भसे दो ही रहे -  हिन्दी साहित्यको सम्पन्न करना और देवनागरी-लिपिका प्रचार करना।  नाम तो इसका नागरी-प्रचारिणी सभा रखा गया; पर इसका अधिकतर कार्य साहित्यिक रहा है। प्रचारका कार्य इसने केवल यह किया कि संयुक्त-प्रान्तकी कचहरियोंमें देवनागरी अक्षरोंको, महामना मालवीयके सबल सहयोगसे, स्थान दिलाया। हिन्दी-साहित्य-सम्मेलनको जन्म देकर सभाने प्रचारका एक बहुत बड़ा साधन खड़ा कर दिया। सम्मेलनका कार्यक्षेत्र भारत है। सभाके सभासद उपनिवेशोंमें और यूरोप तथा अमेरिकामें भी मिलते हैं। इसकी एक सम्बद्ध शाखा ईरान की खाड़ीमें भी है। 

साहित्यिक कार्योंमें इसके प्रकाशनोंको सबसे पहला स्थान मिलना चाहिए। इसका शब्दसागर, वैज्ञानिक कोश और इसकी भिन्न-भिन्न विषयोंकी पुस्तकमालाएँ हिन्दी-जगत् में ऊँचा स्थान पा चुकी हैं। कई ग्रन्थ ऐसे हैं, जिनके प्रकाशन करनेसे व्यापारिक दृष्टिसे सभाको हानि हुई है; पर साहित्यिक दृष्टिसे वे बड़े महत्त्व के हैं। सभाकी त्रैमासिक पत्रिका शोध-सम्बन्धी हिन्दीमें एक ही पत्रिका है।  प्रचारकी दृष्टिसे 'हिन्दी' नामकी मासिक पत्रिका जितनी सस्ती कोई दूसरी नहीं। 

सभाका पुस्तकालय हिन्दी-पुस्तकोंका सबसे बड़ा संगठन है। साहित्यिक ग्रन्थ बहुत कम होंगे, जो इसमें न हों। सभा प्रतिवर्ष लेखकोंको पदक-पुरस्कार देती है और समय-समयपर विद्वानोंको निमन्त्रित करके ऐतिहासिक, साहित्यिक और वैज्ञानिक विषयोंपर व्याख्यान कराती है। सभाका एक अनुशीलन विभाग है। इसके अन्तर्गत बहुत-से हस्तलिखित-ग्रन्थ हैं। सभाने हस्तलिखित-ग्रन्थोंकी खोजकर जो काम किया है, बड़े महत्त्व का है। 

साहित्यके साथ कलाका भी सम्बन्ध है, इसलिए 'कला-भवन' सभाकी शोभा और उपयोगिता दोनोंको बढ़ाता है। 

सभाका साधारण जनता, सरकार और राजा-महाराजाओंसे बराबर आर्थिक सहायता मिलती आई है। इसकी अर्द्ध-शताब्दी हिन्दीके लिए युग-प्रवर्त्तक होनी चाहिए; परन्तु यह तभी हो सकता है, जब इसको हिन्दी-जगत् से प्रोत्साहन प्राप्त हो। ईश्वरकी इच्छा होगी, तो इसका भविष्य उज्ज्वल ही होगा। 


(जनवरी, 1944)


Thursday, August 6, 2020

मैं कहानी-लेखक कैसे बना? : ठाकुर श्रीनाथ सिंह






अगर आप कहानियाँ लिखना चाहते हैं और वह भी हिन्दी में तो इस बात के लिए तैयार रहिए कि आप को बहुतेरी कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा। हिन्दी में कहानी लेखक के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त करना वैतरिणी पार करने से कम कठिन नहीं है। प्रेमचंद जी इसी प्रयत्न में स्वर्गवासी हो गए, सुदर्शन जी सूख गए और पाँडेय बेचन शर्मा को काफ़ी बेशर्मी अख्तियार करनी पड़ी। मतलब यह कि ख्याति और वाहवाही से सब वंचित रहे। गुस्ताखी मुआफ़ कीजिए, यदि मैं कहूँ कि इस दिशा में प्रसिद्धि प्राप्त करने के लिए मैंने भी कोशिशें कीं। पर जहाँ बड़ों बड़ों की नहीं चली वहाँ भला मैं नौसिखिया किस गिनती में था। 
इतने पर भी आख़िर मुझे क्या सूझी जो मैं अपना गुण गाने आज बैठ गया। मैं कहानी-लेखक कैसे बना? यह असल में उसके बताने की बात है जो सचमुच कहानी-लेखक बन गया हो। अपनी दृष्टि में नहीं, समालोचकों की दृष्टि में, पाठकों की दृष्टि में, जनता की दृष्टि में यह सौभाग्य मुझे पूरा प्राप्त नहीं है। पर मैं हताश भी नहीं हूँ। हताश होने की कोई जरूरत भी नहीं समझता। इसलिए कि मुझे अपने ऊपर भरोसा पैदा हो गया है। और यही वजह है कि कहानी लेखक के रूप में मैं अब तक ज़िंदा हूँ। हिन्दी के हितैषी अन्य कहानी-लेखकों की भाँति मुझे - मार नहीं सके और शायद आगे उनका यह काम और कठिन होगा। 

कहानी-लेखक के अपने ये अनुभव मैं इसलिए लिख रहा हूँ कि हिन्दी के नवयुवक कहानी-लेखक इस क्षेत्र की कठिनाइयों को समझें और उनसे पराजित न किए जा सकें। अब मैं भूमिका में व्यर्थ का समय न लगा कर मुख्य विषय पर आता हूँ। 

सन् 1925-26 की बात है। मैं 'गृहलक्ष्मी' के संपादकीय विभाग में काम करता था। 'गृहलक्ष्मी' में कहानियाँ भी कम नहीं छपतीं थीं। पर मेरी कहानी छापने के लिए उसके संपादक तैयार न थे। 
                                                              


मौलिक कहानी की अपेक्षा वे अनुवाद कहीं अधिक पसंद करते थे। उनका ख़याल था, मौलिक हिन्दी में कोई लिख ही नहीं सकता। लेकिन मैंने उनसे आग्रह किया कि नहीं वे कृपापूर्वक मेरी रद्दी ही सही एक-आध कहानी छाप दें। अंत में वे इस शर्त पर राज़ी हुए कि वे मेरे नाम से नहीं छाप सकते क्योंकि मुझे कोई नहीं जानता। हाँ कल्पित नामों से छाप सकते हैं। मैं राज़ी हो गया। मैं तो अपनी लिखी चीज़ को छपा देखना चाहता था। मैंने कहानियाँ लिखनी शुरू कीं, नाम चुने गये। लक्ष्मीकांत वर्मा, अल्लाह बख़्श, कुसुमकुमारी देवी, श्यामाबाई आदि आदि। कुछ कहानियों पर 'गृहलक्ष्मी' की सम्पादिका स्वयं गोपाल देवी ने अपना नाम देने की कृपा की! इस तरह चार साल मैंने अज्ञात नामों से गृहलक्ष्मी में कहानियाँ लिखीं। पर कहानी-लेखक के रूप में जहाँ का तहाँ रहा। 
यह मैं मानूँगा कि अन्तिम दिनों में कुछ कहानियाँ मैं अपने नाम से भी छपा सका पर मेरा उत्साह बैठ गया। यह वह समय था जब मैं अपना नाम पत्र-पत्रिकाओं में छपा हुआ देखना चाहता था। पर मेरे नाम में आकर्षण न था। वही चीज़ कल्पित नाम से छप सकती थी पर मेरे नाम से नहीं। इस तरह चार साल तक सैकड़ों कहानियाँ लिखने पर भी मैं कहानी-लेखक के रूप में अज्ञात रहा। 

गृहलक्ष्मी के बाद मैंने 'सरस्वती' में अपना भाग्य आज़माइश करने की कोशिश की। 'सरस्वती' हिन्दी की श्रेष्ठ पत्रिका थी। मौलिक कहानी-लेखक के पनपने की यहाँ और भी सम्भावना नहीं थी। उन दिनों नाम छपा हुआ देखने की लालसा इतनी बढ़ी कि मैंने अनुवाद ही करना शुरू कर दिया। लेखक श्रीनाथ सिंह न सही अनुवादक श्रीनाथ सिंह सही। 'सरस्वती' में मैंने विदेशी विद्वानों की बढ़िया बढ़िया कहानियाँ अनुवाद करके छपवाईं - अनुवादक के रूप में मेरा नाम भी हो चला। एक अमरीकन पादरी दार्जिलिंग से ख़त लिखकर मेरे अनुवादों के लिए मुझे बधाई भेजी। तब मैंने सोचा कि अब मुझे अनुवाद करना बंद कर देना चाहिए। मैंने 'सरस्वती' - संपादक से कहा - 'कृपापूर्वक एक मेरी मौलिक कहानी भी सरस्वती में छाप दीजिये।' उन्होंने कहा "नहीं, नहीं सरस्वती का स्टैंडर्ड मैं गिराना नहीं चाहता। तुमको कौन जानता है? तुम्हारी कहानी कौन पढ़ेगा!" मैं ख़ामोश रह गया। 
                                             
मैंने फिल्मों, कहानियों, पत्र-पत्रिकाओं के द्वारा इस बीच में योरुपीय समाज का काफ़ी परिचय प्राप्त कर लिया था। उसी अनुभव के सहारे मैंने लंदन-नगर की एक कहानी लिखी। कहानी बिलकुल मेरी अपनी थी और सर्वथा मेरी कल्पना पर आश्रित थी। उसके अंत में मैंने यह वाक्य लगाकर सरस्वती-संपादक को भेंट किया - "अंग्रेजी कहानी के आधार पर।" उन्होंने उसे स्वीकार कर लिया और कहा "तुमने इतना सुन्दर अनुवाद किया है कि यह मौलिक हिंदी रचना जान पड़ती है।" मैंने नम्रतापूर्वक उन्हें धन्यवाद दिया और उदास मुख घर लौटा। उस दिन मैं बराबर यही सोचता रहा कि मौलिक हिन्दी-लेखक की हिन्दी में यह उपेक्षा क्यों है? उसका इतना तिरस्कार और अनादर क्यों है? उसे किसी ओर से कोई प्रोत्साहन क्यों नहीं मिलता? खैर, इस घटना के बाद पंडित देवीदत्त शुक्ल ने 'सरस्वती' में मेरी एक मौलिक कहानी छापी। उससे मुझे कितना प्रोत्साहन मिला यह मैं कह नहीं सकता?

उस दिन मुझे यह निश्चय हो गया कि मैं हिन्दी में कहानी लिख सकता हूँ। अख़बार वाले मेरी कहानी जो छापने से हिचकते हैं वह इसलिए कि मेरा कोई नाम नहीं है। यह ठीक ही है। दुनिया में नाम देखकर चीज़ें छापी जाती हैं। सिर्फ़ हिन्दी ही एक ऐसी भाषा है जहाँ चीज़ नहीं सिर्फ़ नाम देखा जाता है और यही वजह है कि हिन्दी में वही नाम सामने आता है जो वर्षों उपेक्षा की मिट्टी अपने ऊपर से हटा सकता है। 

अब वह समय आ गया है जब कितने ही संपादक मुझसे कहानियाँ माँगते हैं। लेकिन दुःख है कि अब लिखने कि वह उमंग नहीं रही। कितने संपादक अब भी समझते हैं कि मैं कहानी नहीं लिख सकता हूँ। पर कहानी-लेखक के रूप में सम्मानित होने की इच्छा अभी दिल से नहीं गई। इसलिए मौक़ा निकाल कर कुछ न कुछ लिखता ही जाता हूँ। 

गृहलक्ष्मी और सरस्वती ने ही नहीं और भी कितने ही पत्र-पत्रिकाओं ने इसी तरह मेरे उत्साह की हत्या की है। पर उन सबका ज़िक्र करके मैं इस प्रसंग को लम्बा नहीं करना चाहता। प्रोत्साहन मुझे सिर्फ़ दो पत्र-पत्रिकाओं से मिला है। 'सैनिक' से और 'अर्जुन' से। मेरा ख़याल है कि हिन्दी में यही दो पत्र अपने नवयुवक लेखकों को प्रोत्साहित करते हैं। इस दृष्टि से ये ज़िन्दा पत्र हैं और नवयुवक लेखकों को इनसे निराशा नहीं हो सकती। व्यक्तियों में मुझे सबसे अधिक प्रोत्साहन पूज्य पंडित वेंकटेश नारायण तिवारी से मिला है। किन्तु उन्होंने कहानियाँ नहीं अन्य रचनाओं के लिए मुझे प्रोत्साहित किया है। तिवारी जी के बाद श्रीरामरखसिंह सहगल, श्री पदुमलाल बख़्शी और श्री पुरुषोत्तमदास टंडन का नाम मैं ले सकता हूँ। परन्तु मेरा ख़याल है कि इन लोगों ने मेरी रचनाएँ तब पढ़ीं और उसकी प्रशंसा की जब उन्होंने सोचा कि अब उनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। श्रीरामरखसिंह सहगल का एक पत्र मैंने अपने पास रख छोड़ा है जिसमें उन्होंने लिखा है कि मेरी एक कहानी ने उन्हें इतना व्यथित किया कि वे घंटों रोते रहे। 
                                                               

                                          
बाबू पुरुषोत्तमदास टंडन ने एक दिन स्वयं मेरे घर पधार कर कहा - "श्रीनाथ सिंह, मैं तुम्हें धन्यवाद देने आया हूँ। तुम्हारी 'ग़रीबों का स्वर्ग' नामक कहानी मुझे बहुत पसन्द आई।" मैं नहीं कह सकता कि टंडनजी के ये वाक्य सुनकर मुझे कितनी ख़ुशी हुई? उनके एक वाक्य की आँच में हिन्दी वालों का सारा उपेक्षा भाव मुझे भस्म हो गया-सा प्रतीत हुआ। 

कुछ लोग अब भी मेरी कहानियों की चर्चा से घबराते हैं। जिनमें जैनी अधिक हैं। कुछ लोग अब भी मेरी कहानियों की उपेक्षा करते चले जाते हैं। पर पिछले दिनों मेरी कहानियों के गुजराती, मराठी और तामिल के अनुवादकों ने मेरे पास जो पत्र भेजे हैं और हिन्दी के पाठकों ने मेरे पास जो पत्र भेजे हैं उनसे मुझे विश्वास ही चला है कि हिन्दी के मुल्लाओं द्वारा अब मेरी उपेक्षा नहीं हो सकती। उनका यह प्रयास अब स्वयं उनके लिए घातक होगा। 

इस प्रकार लड़ता झगड़ता मैं हिन्दी का सफ़ल नहीं तो एक असफल कहानी लेखक ज़रूर बन गया हूँ। पर अभी आगे भविष्य उज्वल दिखाई पड़ता है और यह असफलता का अन्धकार टिकता नज़र नहीं आता। मेरे प्रेमियों को इससे अवश्य प्रसन्नता होगी।

(जुलाई, 1940)

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श्रीनाथ सिंह : जन्म 1903 ई. मानपुर, इलाहाबाद में। 'सती पद्मिनी' काव्य-ग्रन्थ 1925 ई. में प्रकाशित। 'उलझन' (1934), 'क्षमा' (1925), 'एकाकिनी' या 'अकेली स्त्री' (1937), 'प्रेम परीक्षा' (1927), 'जागरण' (1937), 'प्रजामण्डल' (1941),'एक और अनेक' (1951), 'अपहृता' (1952) आदि प्रसिद्ध कृतियाँ हैं। कुछ समय तक 'सरस्वती' का संपादन किया। 'बालसखा' व 'दीदी' के भी संपादक रहे। 


Tuesday, August 4, 2020

जीवन का सपना : रुस्तम सैटिन







('जीवन का सपना' स्वर्गीय श्रीमती रामेश्वरी गोयल की रचनाओं का संग्रह है। लेखक महोदय ने उसी पुस्तक का परिचय इस लेख में कवित्व-पूर्ण शैली में दिया है। स्वर्गीय देवी जी एक होनहार कवयित्री थीं। खेद है, उनका अकाल में ही निधन हो गया। - संपादक, सरस्वती)
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'जीवन का सपना' में एक विप्लवकारी हृदय का वास्तविक चित्र है। इसकी रचयित्री श्रीमती रामेश्वरी जी से मेरा कुछ परिचय था। ऐसे तो बरसों मुझे उनके निकट रहने का अवसर मिला है; परन्तु उन रामेश्वरी जी से जो अपने जीवन के सपने की चिर-क्रीड़ा में लय हो चुकी थीं, जिनका संघर्ष-पूर्ण हृदय किसी पूर्णता की खोज किया करता था, मेरा परिचय अनेकों में अधिक होने पर भी थोड़ा ही था। 

आज चारों ओर करुणानाद ही सुनाई पड़ता है। युवक-हृदय अपने काल्पनिक जीवन की असत्यता के अनुभव से व्याकुल हो उठा है। हमारा सामाजिक जीवन इतना दूषित हो चुका है कि संलग्न होकर चेष्टा करने पर भी जीवन का साधारण सुख अप्राप्य ही रहता है। वर्तमान समाज का मूल-मंत्र 'स्वार्थ' है। रूढ़ि के रूप में या सुधार के नाम से यह विष हमारी उच्च से उच्च भावना की जड़ों तक फैल चुका है। युवक का निर्मल प्रेम-पूर्ण सहज हृदय अपनी और सामाजिक जीवन की स्वाभाविक असफलता को निश्चित देखकर इतना व्यग्र हो उठता है कि वह उस प्रकृति-सौंदर्य-जनित कल्पना-शक्ति की ही हत्या कर डालना चाहता है जिसने उसे अप्राप्य सुख से आभाषित कर अंत में धोखा दिया है। देखिए -
"मधुमास के मधुप थिरक रहे हैं - वसन्त कछारों तक में छाया है। मैं इस करुण-नाद से थक गया हूँ, इस हलचल से विश्राम लेने के लिए मुझे विस्मृत का सङ्गीत सुनाओ। मैं उस अथक संग्राम को भूल जाऊँ - जीवन की निराश घड़ियों को छिपा लूँ...।" 
इतना ही नहीं, सामाजिक जीवन की असफलता के चिर-तांडव को देखकर उसको विश्वास हो जाता है कि उसका लक्ष्य, उसका वह पूर्ण-सत्य इस दुःख-कलित संसृति की परिधि से बाहर इस जीवन के अंत में, और उसकी कल्पना के अंत में ही प्राप्त हो सकता है। कहा है -
"पथिक, उस पार मिलन नहीं है - वहाँ है आत्मविसर्जन... चलोगे?"
श्रीमती महादेवी वर्मा ने भी अपनी एक रचना में ऐसे ही विचार व्यक्त किये हैं -

तरी को ले जाओ मझधार,
डूब कर हो जाओगे पार। 
विसर्जन की है कर्णाधार,
वही पहुँचा देगा उस पार।। 
 
 
मुझे याद है कि रामेश्वरी जी का सरल हृदय सांसारिक स्वार्थमय आडंबर से कितना व्याकुल हो उठता था। इतना ही नहीं, उन्हें तो वर्तमान जीवन की असत्यता ने इतना प्रभावित कर दिया था कि कभी कभी तो वे बहुत गंभीरता-पूर्वक सोचने लगती थीं कि कवि-कथित स्वार्थ-रहित सच्चे प्रेम का कोई वास्तविक अस्तित्व है भी या नहीं। वास्तव में आज हमारी सभ्यता और हमारे सामाजिक विचार इतने दूषित हो चुके हैं कि हमने स्वार्थ-जनित आडंबर को ही सभ्यता की कसौटी मान लिया है। यदि किसी ग़रीब की दशा पर हमें दुःख हो या उस पर होने वाले अन्याय को देखकर हमारा हृदय जल ही क्यों न उठे, हमें अपनी उस अन्याय-विरोधी उच्च भावना को लोक-नीति के विकृत नियमों की बलिवेदी पर भेंट करना ही पड़ता है। हमारा जीवन तो प्रतिक्षण स्वाँग रचाने में और मानव-हृदय की सहज सबलता को कुचलने में ही बीतता है। वे लिखती हैं -
"यहाँ विचित्र व्यापार है - कोई वस्तु, अथवा व्यक्ति, तुम्हारी रुचि के अनुकूल होने पर भी तुम उस भाव को व्यक्त करने के अधिकारी नहीं हो। तुम्हें स्नेह-भाव दिखाना ही होगा। लाख अनिच्छा होने पर भी हृदयगत पीड़ा को छिपाकर तुम्हें मुस्कराना ही होगा - रोते हुए हृदय से भी होठों पर कुछ सुख की झलक दिखानी ही होगी! अच्छा यह जीवन है!! संसार में इस ढोंग का कितना अधिक महत्त्व है, यह देखकर हँसी आती है।"
रामेश्वरी जी की इन पंक्तियों में कितना सत्य भरा है? यहाँ हम उनकी उस प्रबल शक्ति का दर्शन करते हैं जिसके सहारे वे जीवन के जटिल बंधनों को काट, उसके ऊपर उठ सांसारिक नाटक पर निर्लिप्त भाव से मनन करती थीं। उनके मानसिक वैराग्य ने उनके विचारों को इतना दृढ़ कर दिया था कि वे साहस-युक्त हृदय से दूसरों को चेतावनी दे सकी हैं -

सुनने को  उत्कंठा  क्यों,
पीड़ा की अकथ कहानी, 
          पीछे     से    पछताओगे 
          कैसी  थी   यह  नादानी? 

परन्तु उनका यह मानसिक वैराग्य केवल कल्पना की कलामात्र ही न था। वह तो वर्तमान सामाजिक जीवन के कटु अनुभवों से उत्पन्न वह सत्य था जिसका प्रकाश चिरकाल तक न जाने कितने भूले हुए पथिकों के जीवन के अंधकारपूर्ण मार्ग में पड़े हुए भीषण कंटकों से बचाएगा। 

रामेश्वरी जी का विश्वास था कि हमको सांसारिक बंधनों से मुक्ति पाने के लिए जीवन के संघर्ष को अपनाना ही पड़ेगा - संसार से भागनेवाला व्यक्ति तो कभी भी सच्चा वैराग्य प्राप्त कर ही नहीं सकता। क्योंकि जो केवल अपने व्यक्तिगत सुख और शांति के लिए इस महान संग्राम से भागता है, जिसने अपने ही सुख स्वार्थ के वश में होकर सब कुछ ठुकरा दिया है, वह वैरागी के उच्च पद को पा ही नहीं सकता। रामेश्वरी जी के अनुभव ने तो यह सिद्ध कर दिया था कि हमारे दुखों से ही उस महान सुख का जन्म होता है -

हास्य का मृदु अवगुण्ठन डाल,
राग से सीखा आज विराग,
न जर्जर कर दे यह अभिसार,
वेदना का व्याकुल अनुराग। 

स्वदेश-प्रेम तो रामेश्वरी जी में कूट-कूट कर भरा था। जिन दिनों हमारे देश में स्वाधीनता का संग्राम चल रहा था, उनका भावुक हृदय देशानुराग से पागल-सा हो उठा था। वे रात-दिन उस महान यज्ञ में अपनी शक्ति भर आहुति देने में मग्न रहती थीं। उनकी कविता का जिसने कोरी कल्पना का सहारा न लेकर उनके हृदय की वास्तविक स्थिति को ही सदैव चित्रित किया है, उनके उस देश-प्रेम की व्याकुलता से झंकृत हो उठना सर्वथा स्वाभाविक ही था -

देशानुराग का  पागलपन,
रग रग में फड़काकर धड़कन,
बलिवेदी पर बलि दे जीवन,
भारत स्वाधीन बनायेगा। 

वैसे तो उन दिनों हिन्दी में हज़ारों राष्ट्रीय कवितायें लिखी गईं, और इसमें भी संदेह नहीं कि कुछ तो अवश्य ही बहुत ही सुन्दर हैं, परन्तु अधिकांश ऐसी हैं जिनको स्थायी साहित्य में स्थान नहीं दिया जा सकता, पर रामेश्वरी जी की राष्ट्रीय कविताओं में भाव, भाषा और संगीत का इतना अच्छा सम्मिश्रण हुआ है कि उनकी राष्ट्रीय कवितायें सर्वकालीन और सर्वदेशीय होने का गौरव प्राप्त कर सकती है। 

व्यक्तिगत जीवन की असफलता और कष्टों को शांतिपूर्ण भाव से सहन करना उदार और महान हृदयों का सर्वदा से एक साधारण-सा गुण रहा है। रामेश्वरी जी अपने व्यथित और अपमानित हृदय को गंभीरतापूर्वक  प्रकार सान्त्वना दे सकती थीं -

नीरव जीवन पतझड़ का 
ऋतुराज नहीं फिर आता,
भूली-सी तू फिरती क्यों 
जग का थोड़ा यह नाता?
जग हँसता है...ले सो जा !
आ ..! आ..! मतवाली सो जा !

पर सामाजिक रूप से होनेवाले अत्याचारों और दूसरों के दुःख को देखकर उनके पवित्र हृदय में उस पाप लंका का दहन करने के लिए क्रान्ति की वह महान ज्वाला धधक उठती थी जिसके शाब्दिक प्रतिबिंब में इतना बल है कि वह असंख्य निर्बलों को सबल बनाता रहेगा -

पीड़ा का मूक रुदन बन शर,
दुष्टों का रक्त बहायेगा,
निर्धन प्राणों का आह-पुंज,
भूतल पर क्रान्ति मचायेगा। 

रामेश्वरी जी के एक-एक शब्द में जीवन का रस भरा हुआ है। उन्होंने अपनी रचनाओं के द्वारा हिंदी को नये जीवन का सन्देश दिया है। 

(सरस्वती, अप्रैल 1938)

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रामेश्वरी गोयल (1910 - 1935) : "छायावादी युग की उन सशक्त कवयित्रियों में से हैं, जिनका कवि-व्यक्तित्व और सौंदर्यदृष्टि उस युग के अधिकांश कवियों की अपेक्षा अधिक स्पष्ट और संयमित और संवेदनपूर्ण रही है। रामेश्वरी गोयल के गीतों में व्याप्त करुणा और एक मर्मान्तक वेदना हमें उसी कोटि और उतनी ही हृदयग्राह्य रूप में मिलती है जितनी कि अंग्रेज़ी के कवि कीट्स की कविताओं में। अनुभूति की गहराई के साथ-साथ बिम्बों और अनुभूतियों के मानवीय वैयक्तिक स्वर को जो संवेदना हमें गोयल की कविताओं में मिलती हैं, वह इस बात की सूचक थी कि वे आगे चलकर हिंदी के गीत साहित्य को नया स्वर और नयी भावभूमि प्रदान करतीं। लेकिन जैसा कि होना था, उनकी मृत्यु इतने अल्पकाल में हो गयी कि उनकी प्रतिभा का पूर्ण योगदान हिंदी की गीत-शैली को नहीं मिल सका।" (लक्ष्मीकांत वर्मा)







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प्रस्तुति : सुजीत कुमार सिंह 

Wednesday, July 22, 2020

किसान आंदोलन की साहित्यिक जमीन : विउपनिवेशित-वैकल्पिक परिप्रेक्ष्य की खोज


डाॅ. नीलेश कुमार



एक रचनाकार से 'रचना' की मौलिकता की माँग जितनी जायज है, उतनी ही जायज माँग एक आलोचक से 'आलोचना' की मौलिकता से है। पर इन दिनों 'आलोचना' और 'समीक्षा' की मौलिकता संदेह के साये में ज्यादा रहना पसंद करती है। आज की हिन्दी आलोचना 'समीक्षा-संग्रह'  की प्रवृत्ति का शिकार ज्यादा लगती है। अच्छी समीक्षाओं का संग्रह भी महत्त्वपूर्ण होता है, बशर्ते उसमें नवीनता और निरन्तरता मौजूद हों। लेकिन संग्रह में  लिखे का दुःख और उसका विलाप ज्यादा दिखलाई पड़ता है उसके हर्ष का हिस्सा बहुत कम।

कविता, कहानी,उपन्यास आदि की कुछ प्रवृत्तिगत विशेषताओं के सहारे आलोचना को प्रस्तुत किया जाता है। वे समय और उसके परिवर्तन को महसूस नहीं करते, बस समय को परिवर्तित करने में लगे रहते हैं। लेकिन कुछ आलोचक और उनकी आलोचना न केवल समय और उसके परिवर्तन को महसूस करती है वरन् उसके द्वारा अपने समय और उसमें आये परिवर्तन की गहरी शिनाख्त भी करती है। निराशा से भरे समय में उनका प्रयास सामर्थ्य से भरा होता है। सामर्थ्य से भरा ऐसा ही एक प्रयास रामाज्ञा शशिधर की किताब 'किसान आंदोलन की साहित्यिक जमीन' है।



आजादी के इतने वर्ष बीत जाने के बावजूद हम अपनी बुनियादी जरूरतों भोजन, वस्त्र, आवास, स्वास्थ्य, शिक्षा को नहीं पा सके हैं तो स्वतंत्रता की बात बेईमानी ही है। आज भी 'फटा सुथन्ना पहने राष्ट्रगान' को गाने वालों की नियति 'रामदास' वाली ही है। आज जरूरत है हमें प्रतिरोध की भाषा एवं प्रतिरोध की दिशा को संगठित एवं  सुव्यवस्थित कर ‘प्रतिरोध की पुनर्रचना’ करने की। ऐसा इसलिए भी जरूरी है कि
"भारतीय समाज गहरे भँवर में फँस चुका है। भारतीय खेतिहर आबादी की अस्मिता और अस्तित्व उसके प्रकृति और संस्कृति से निर्मित सतत संबंध, जल, जंगल, जमीन-सब कुछ दाँव पर है।" 
जबकि श्रमिक वर्ग का बड़ा हिस्सा असंगठित क्षेत्र के मजदूरों एवं किसानों का है और अंग्रेजी साम्राज्यवाद से लेकर अमेरिकी साम्राज्यवाद तक सबने औपनिवेशीकरण की प्रक्रिया के तहत इसे ही सबसे ज्यादा नुकसान पहुँचाया है। दूसरी तरफ इन शक्तियों के खिलाफ सर्वाधिक प्रतिरोध के स्वर इन्हीं मजदूरों एवं किसानों के यहाँ से आई है। चाहे वर्तमान में पास्को, वेदांता के खिलाफ आदिवासियों का प्रतिरोध हो या फिर स्वाधीनता संग्राम के समय अंग्रेजी राज के खिलाफ किसानों का संगठित प्रतिरोध। दरअसल, इन साम्राज्यवादी शक्तियों के अधीन सिर्फ हमारी भौगोलिक सीमा ही नहीं रही, इन्होंने 'हमारी भाषा, स्मृति और कल्पना’ को भी 'औपनिवेशिक वर्चस्व' के साये में रखा है।

'औपनिवेशिक वर्चस्व' के साये में अब धूप की सर्वाधिक जरूरत है। और ये धूप किसानों-मजदूरों के संगठित प्रतिरोध की जमीन से ही आयेगी। इस जमीन की एक ठोस वैचारिक पृष्ठभूमि की आवश्यकता है और बतौर लेखक-
"यह किताब इस दिशा में केवल पारिभाषिक लफ्फाजी न होकर एक ठोस सांस्कृतिक-वैचारिक जमीन देने की शुरूआती पहल है।" 
'किसान आंदोलन की साहित्यिक जमीन' किताब, भूमिका सहित छह अध्यायों में विभक्त है और प्रत्येक अध्याय, कई-कई उप-अध्यायों में। अध्याय विभाजन नामवर सिंह की किताब 'छायावाद' के अध्याय विभाजन की याद दिलाता है जहाँ नामवर जी ने अध्याय का नामकरण छायावाद की प्रवृत्तिगत विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए किया है। यहाँ भी आपको वर्गीकरण का वह रूप दिखलाई पड़ेगा। कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं - चौथा अध्याय 'मुक्ति का सामाजिक-सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य' है, उसके उप-अध्याय को देखिए - (1) साँझ जमींदारन के सेज (2) पकड़ि पकड़ि बेगार करावत (3) गाजी मियाँ मुर्गा माँगे (4) गाँवे-गाँवे संगठनमा। इस वर्गीकरण को प्रवृत्तिगत विशेषताओं और खामियों के उभार को सामने लाने के सार्थक प्रसास के रूप में देखा जाना चाहिए।


डॉ.रामाज्ञा शशिधर 

यह किताब किसान आंदोलन और उसको मिलने वाली वैचारिक ऊष्मा की जमीन की खोज करती है। साथ ही आंदोलन के समय निर्मित होने वाली कविता के स्वरूप को सामने लाती है। इस कविता को लेखक हिन्दी कविता की परम्परा में अलग पहचान के साथ 'किसान कविता' कहकर संबोधित करता है। इस संबोधन में हिन्दी आलोचना के रूख पर एक प्रश्न-चिह्न  भी है, जिसने 'किसान कविता' को परिदृश्य से बाहर रखा भी और देखा भी :
"जैसे प्रभुत्त्वशाली सत्ता के लिए किसान वर्ग 'अन्य' है ठीक वैसे ही वर्चस्वमूलक हिन्दी आलोचना के लिए किसान कविता 'अन्य' रही है।" 
 प्रभुत्त्व और वर्चस्व की संस्कृति हमेशा प्रतिरोध की शक्ति को तोड़ने का प्रयास करती है या फिर नजरअंदाज करते हुए आगे चलती है -
"किसान आंदोलन और किसान कविता दोनों ऐसी 'सांस्कृतिक संरचना और रचना' है जहाँ मुख्यधारा के 'प्रभुत्व और वर्चस्व' को चुनौती देनेवाले प्रतिरोध और मुक्ति के भरपूर यूटोपियन मसौदे मौजूद हैं।"
प्रभुत्त्व और वर्चस्व को चुनौती देने वाले प्रतिरोध और मुक्ति के स्वर को 'हिन्दी क्षेत्र में किसान आंदोलन' वाले अध्याय में देखा जा सकता है। इसमें स्वाधीनता संग्राम में किसानों की भूमिका का विस्तार से जिक्र है। राजस्थान, अवध, चम्पारण क्षेत्र में चल रहे किसान आंदोलन के बहाने सम्पूर्ण हिन्दी प्रदेश में चलने वाले आन्दोलन के केन्द्र में किसानों की केन्द्रीय भूमिका को चिह्नित किया गया है। स्वाधीनता आंदोलन की केन्द्रीय भूमिका को भी रेखांकित किया गया है।

स्वाधीनता आंदोलन के समय किसानों की लड़ाई दो-तरफा थी, एक तरफ ब्रिटिश साम्राज्यवाद से तो दूसरी तरफ भारतीय सामंतवाद से। भारतीय सामंतवाद का सर्वोच्च और क्रूर रूप जमींदारों के यहाँ थी -
"औपनिवेशिक जमींदारी एक राजसत्ता के भीतर दूसरी राजसत्ता थी। सामंती शक्तियों का साम्राज्यवाद और कांग्रेस से संबंध था। जमींदार और उसका अमला तंत्र ऐय्याश प्रभुवर्ग था जो किसान समुदाय के आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक शोषण से निचोड़े गए रस का भरपूर भोग करता था। जमींदार वर्ग  राज्य की रचना था। इसलिए वह राजभक्त और देशद्रोही था। वह विक्टोरियन नैतिकता का समर्थक था।" 
जमींदारों की सामंती क्रूरता और विक्टोरियन नैतिकता के फ्यूजन को किसान आंदोलन ने चुनौती पेश की और "इन संगठनों के प्रति किसानों में घृणा और प्रतिरोध की चेतना का विस्तार किया।" किसान आंदोलन ने अपने संगठित प्रयास से औपनिवेशिक शक्ति के देशी आधार सामंतवाद को वर्गीय प्रतिरोधी चेतना के आधार पर चुनौती दी। इस चुनौती का एक सिरा सामंतवाद के खिलाफ वर्ग मुक्ति का था तो दूसरा सिरा साम्राज्यवाद के विरूद्ध राष्ट्रीय मुक्ति का। मुक्ति के इन प्रयासों को 'किसान कविता' के स्वरूप में देखा जा सकता है।

'किसान कविता का स्वरूप' इस किताब का सबसे महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। किसान कविता के स्वरूप निर्धारण में किसान कविता की परम्परा, किसान कविता की वैचारिकी, किसान कविता की पृष्ठभूमि के साथ आजादी के दौर में किसान कविता की उपस्थिति और उसके प्रभाव को विश्लेषित किया गया है। किसान कविता की अवधारण को व्याख्यायित करते हुए लेखक कहता है
"किसान कविता एक व्यापक अवधारणा है जिसमें किसानों या किसान कवियों के द्वारा रचे गए जनगीत, लोकगीत और काव्य के अतिरिक्त किसान जीवन से सहानुभूति रखने वाले कवियों की कविता भी शामिल हो सकती है तथा किसी अन्य विषय वस्तु पर रचित कविता का एक हिस्सा भी हो सकती है। अपने स्वायत्त एवं अधीनस्थ दोनों रूपों में किसान कविता किसान चेतना के अनुभव, उमंग, शोषण एवं स्वप्न के प्रतिरोध की अभिव्यक्ति है।"
किसान कविता की यह अवधारणा एकांगी न होकर व्यापक परिप्रेक्ष्य को अपने में समेटे हुए है।

किसान कविता के स्वरूप  निर्धारण वाले अध्याय में अपनी परम्परा में किसान और उससे जुड़ी कविताओं की उपस्थिति का इतिहास है। इसमें परम्परा के निषेध का स्वर न होकर उसके सकारात्मक निषेध का स्वर है। किसान और उसके जीवन का एक बड़ा हिस्सा लोक से संबद्ध होता है। लोकसंबद्धता से लेकर दस्तावेजों तक में सिमटे किसान कविता के व्यापक प्रसार को दूसरे अध्याय में विश्लेषित किया गया है। घाघ, डाक और भड्डरी से लेकर आजादी के समय निकलने वाले विभिन्न समाचार-पत्रों में फैले किसान मन के गीत, जो जनगीत, लोकगीत के रूप में अपनी व्यापक सर्वस्वीकार्यता को लिये हुए है, का गहरे आलोचनात्मक विवेक के माध्यम से लेखक व्याख्यायित करता है।

हिन्दी प्रदेश में आजादी की लड़ाई, किसान संगठन और तत्कालीन समाचार पत्र-पत्रिकाओं की भूमिका पर विस्तार से बात करते हुए लेखक किसान आंदोलन और कविता की गहरी संबद्धता की ओर इशारा करते हुए कहता है-
"1917 से 47 के बीच बिहार, राजस्थान और युक्त-प्रांत में चले विभिन्न किसान आंदोलनों से हिन्दी कविता का गहरा संबंध रहा। आंदोलन और कविता दोनों ने एक-दूसरे के निर्माण, विकास, विस्तार और रचनात्मक भूमिका तय करने में प्रेरणा और प्रभाव का काम किया।"

'मुक्ति का आर्थिक-राजनीतिक परिप्रेक्ष्य' और 'मुक्ति का सामाजिक-सांस्कृतिक प्ररिप्रेक्ष्य' आंदोलन के निर्माण और विस्तार के बीच की रचनात्मकता के सहारे मुक्ति के आर्थिक-राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक विकल्प की तलाश है। हिन्दी क्षेत्र में औपनिवेशिक तथा सामंती प्रभुत्त्व का आधार किसानों का आर्थिक लूट और राजनीतिक गुलामी था। इसलिए किसान कविता ने आर्थिक शोषण और राजनीतिक परवशता से मुक्ति का व्यापक आख्यान रचा। आख्यान के इस प्रक्रिया में उसने बेदखली, नजराना, कर्ज, सूदखोरी, लगान जैसे शोषणकारी प्रक्रिया का जबरदस्त विरोध किया। इस विरोध में सर्वाधिक उग्र स्वर देशी सामंतवाद के खिलाफ था क्योंकि औपनिवेशिक सत्ता का आर्थिक-सामाजिक आधार प्राथमिक स्तर पर यही सामंती ढाँचा था। इसीलिए अपनी मुक्ति के आर्थिक-राजनीतिक प्रश्न को लेकर जब किसान सामने आये तो उन्होंने सबसे पहले स्थायी बंदोबस्ती,अस्थाई बंदोबस्त और जागीरदारी प्रथा का तीखा प्रतिवाद किया। किसान आंदोलन के संगठित स्वरूप और विस्तार ने आजादी के आंदोलन की दिशा को भी प्रभावित किया। इस प्रभाव ने केवल मुक्ति के स्वप्न की आकांक्षा को ही नहीं वरन् उसके रूपांतरण की दशा और दिशा भी तय की, साथ ही 'जनराष्ट्रवाद' जैसे हथियार की खोज भी जिसका उपयोग साम्राज्यवादी-सामंती शक्तियों को उखाड़ फेंकने के लिए किया गया।

'मुक्ति का सामाजिक-सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य' गहरे रूप से 'मुक्ति के आर्थिक-राजनीतिक परिप्रेक्ष्य' से जुड़ा होता है। आर्थिक-राजनीतिक मुक्ति का अगला चरण सामाजिक-सांस्कृतिक मुक्ति के प्रश्न पर जाकर खत्म होता है। मुक्ति का संबंध, साम्राज्यवादी-सामंती शक्तियों के व्यापक चंगुल से मुक्ति का है। किसान आंदोलन ने आर्थिक-राजनीतिक मुक्ति के प्रश्न के साथ सामाजिक-सांस्कृतिक मुक्ति के विकल्प को भी प्रस्तुत किया। इसका सबसे बड़ा उदाहरण किसान आंदोलन के भीतर श्रमशील स्त्रियों की मौजूदगी है।

राजस्थान से बिहार तक फैले उत्तर भारत के किसान आंदोलन के गीतों और कविताओं में स्त्री-शोषण के प्रश्न के साथ इससे मुक्ति के सवाल प्रमुखता से आये हैं। राजपूताने, बिजोलिया के किसानों और मगध के किसानों की लड़ाई में स्त्रियों की गहरी संबद्धता रही है। शारीरिक- मानसिक शोषण के साथ श्रम-संबंधी शोषण का शिकार अधिकांश मजदूर स्त्रियाँ हुआ करती थीं। इस शोषण का प्रतिकार स्त्रियों ने संगठित रुप से किया है और इसके कई उदाहरण मौजूद हैं। सामाजिक-सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य का सबसे महत्त्वपूर्ण पक्ष यह रहा है कि
"किसान आंदोलन की तत्कालीन राजनीतिक विचारधारा से इस मुद्दे पर अग्रगामी है कि वह वर्ग संघर्ष और वर्ण संघर्ष का एक ही सांस्कृतिक मोर्चे पर हल करना चाहती है।" 
इस प्रक्रिया में संगठित-असंगठित दोनों प्रकार के किसानों ने व्यापक संगठन के निर्माण का कार्य किया। संगठन निर्माण और इसके प्रसार ने किसान आंदोलन के संगठित प्रतिरोधी चेतना को विस्तार दिया, साथ ही 'सौन्दर्य मूल्य निर्मित' करने का कार्य भी किया।

अंतिम अध्याय 'कला की राजनीति' शीर्षक से है। 'कला और लोकप्रियता का द्वंद', 'रूप की धरती', 'भाषा का यथार्थ', 'अन्य का रूपक' और 'मिथक की विचारधारा' उपशीर्षक के जरिये साहित्य के भीतर 'कला की राजनीति' को सामने लाने का प्रयास लेखक करता है :
"साहित्य के भीतर कला और लोकप्रियता का प्रश्न हमेशा से अनिवार्य विचारधारात्मक प्रश्न रहा है। ...कविता में कला और लोकप्रियता का प्रश्न एक ही सिक्के के दोनों पहुलओं जैसा है। कलात्मकता और लोकप्रियता दोनों अविभाज्य, सहजात और अंतर्गठित सृजनात्मक उपलब्धियाँ हैं।" 
उपलब्धियों का यह रूप संघर्ष की नई अंतर्वस्तु, नए रूप और नई भाषिक संरचना की माँग करता है, जबकि इन उपब्धियों की श्रेणीबद्धता की माँग या फिर उपलब्धियों को विभाजित कर देखने की प्रवृत्ति, वस्तुतः इसके स्वरुप और पहचान को धूमिल करने का प्रयास भर है, ये प्रयास कई स्तरों पर होता आ रहा है। इन्हीं स्तरीकरण के कारण किसान कविता की संरचनागत और विचारधारात्मक निर्धारण का कोई रूप नहीं बन पाया। जबकि "किसान कविता की कलात्मकता और लोकप्रियता के निर्धारण में किसान आंदोलन के स्वरूप, संरचना और लोकप्रियता की गहरी भूमिका है।" इस भूमिका ने किसान कविता के व्यापक आधार क्षे़त्र को निर्मित किया है, जहाँ से चलकर कविता ने साम्राज्यवाद और सामंतवाद का कड़ा प्रतिवाद किया। वर्गमुक्ति और राष्ट्रमुक्ति के प्रयास के साथ-साथ किसान-मजदूर वर्ग की चेतना को गहरे स्तर तक प्रभावित किया।

किसान कविता के रूप, उसकी भाषा एवं उसके मिथकों के निर्माण में लिखित और मौखिक दोनों प्रकार की रचनाओं की भूमिका रही है। क्योंकि इस कविता का एक हिस्सा लिखित है तो एक हिस्सा मौखिक रचनाओं का भी है जो चली आती परम्परा से किसान कविता के पास पहुँची है। विभिन्न बोलियों यथा अवधी, भोजपुरी, मगही, मैथिली, बुंदेली, ब्रज, राजस्थानी आदि में फैली लिखित और मौखिक रचनाओं के व्यापक हिस्से ने किसान कविता के स्वरूप को निर्मित किया है। इसलिए इस कविता में किसानों-मजदूरों के मन के गीत बहुत संख्या में मिलते हैं, ये गीत उस व्यापक अनुभव लोक की संवेदना और सौन्दर्यबोध का संवहन करती है जो संघर्ष के समय में उनके कण्ठों से फूटती है -
"किसान कविता की भाषिक संरचना सामूहिकता, लयबद्धता, लोकधर्मिता और सामाजिकता से लैस है। इसका कारण किसान समुदाय का मौखिक लोकजीवन है। किसान कविता में लयबद्धता उसकी सामूहिक जीवन-पद्धति से आती है और उसके छंदों, धुनों और लय का धीमापन उसकी धीमी उत्पादन पद्धति से आता है। उसमें उपस्थित सामूहिक आवेग भी उसकी सामाजिक सौन्दर्यबोधीय और प्रतिरोधी दृष्टि से उपजता है।"
 किसान आंदोलन की कविताओं पर आंदोलनों एवं असंगठित व्यापक किसान-मजदूर वर्ग की चेतना का गहरा प्रवाह है। इनमें मौजूद 'जनता मूर्त, संघर्ष-शील और वास्तविक है।' इसीलिए किसान कविता औपनिवेशिक शक्ति संरचना के विरुद्ध सक्रिय अभिजन मिथकों के समानांतर जन मिथकों का चित्रण करती है।

'किसान आंदोलन की साहित्यिक जमीन' के बहाने रामाज्ञा शशिधर ने हाशिए की वैचारिकी को सामने लाने का प्रयास किया है। साहित्य की मुख्यधारा ने किसान कविता और उसकी वैचारिकी पर कभी इस तरह से विचार नहीं किया है। यह प्रयास मुख्यधारा आलोचना को न केवल विस्तार देता है वरन् उसको समृद्ध भी करता है। हिन्दी आलोचना के भीतर इसका स्वागत किया जाना चाहिए।



पुस्तक :  किसान आंदोलन की साहित्यिक जमीन
लेखक : रामाज्ञा शशिधर

प्रकाशक :
अंतिका प्रकाशन,
सी-56/यूजीएफ-4, शालीमार गॉर्डन, एक्सटेंसन-2
ग़ाज़ियाबाद - 201 005

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बीएचयू से पढ़े-लिखे नीलेश कुमार से अगर आप बातचीत करेंगे तो ये आपको ख़ूब हँसायेंगे। विश्वास न हो रहा हो तो आप अभी  96443 76749 पर कॉल करके परीक्षा ले सकते हैं। बेगूसराय के एस.बी.एस.एस. काॅलेज में हिंदी पढ़ाते हैं। अध्ययन इनका गंभीर है।