"विश्रामके (न) पढ़े-लिखे होनेसे मेरा तात्पर्य अक्षर-ज्ञानसे था। इस प्रदेशमें विश्राम-सरीखे न जाने कितने कवियोंने ऐसे विरहे लिखे हैं, जो किसी भी महाकविकी रचनाओंसे टक्कर ले सकते हैं। पर वे सब अज्ञात और उपेक्षित हैं। इस विषयमें मैं थोड़ा प्रयत्न कर रहा हूँ। 'शुकदूत', 'दयाराम', 'वनजरवा', 'चनैनी' सरीखे कुछ काव्य और महाकाव्योंका पता लगता है, जो विरहियोंकी जिह्वापर हैं। और उन्हें प्रकाशित कौन करेगा?"
Friday, August 28, 2020
मातृभाषाओंका साहित्य : राहुल सांकृत्यायन
भोजपुरीका वियोगी कवि 'विश्राम' : श्री परमेश्वरीलाल गुप्त
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आयल बाटे सावन क महिनवां मोरे भइया,
रहि-रहि उठे बदरा घनघोर।
तमसाके उस पार, दूरसे आते हुए करुणासे ओत-प्रोत बिरहे* को सुनकर चलते हुए पाँव ठिठक गए। साथीने कहा - 'कितना सुन्दर गा रहा है!' और हम दोनों सुननेमें तन्मय हो गए :-
उड़ैला पपीहा आपन गितिया सुनावत;
चलैले बयार जियरा के लहरावत।
जोन्हरीके पात हिल्ले मड़ुआ कै चोटी;
रहि-रहि खहरालीं उखिया ज मोटी-मोटी।
उड़ैलँ बकुलवा जइसे बेइली क गजरा;
बदरा कै टुकड़ी नभवामें कर झगरा।
पड़ल बाटै झुलवा वोप्पर झुल्लति बाँटीं नारी;
रहि-रहिके हिल्ले वोहो पेड़वाकै डारी।
चारों ओरसे कजरी सुनाले मोरे भइया;
जेहि सुनिके फाटेला करेज मोरे दइया।
कहैं 'बिसराम' दुनियाँ करत बाय अराम;
नाचत बाटें बनवामें खूब मोर।
राम! मोरी रानी भइलीं स्वाती कै पानी।
मोर करकैला करेजवा कै कोर।।
- सावनका महीना आया हुआ है। रह-रहकर घनघोर बदल उठ रहे हैं। पपीहा अपना गीत सुनाता उड़ता है। मनमोहक वायु चल रही है, जिससे मक्केके पत्ते और मड़वाकी चोटी हिल रही है; रह-रहकर मोटी ईख खड़खड़ा उठती है। आकाशमें बगुले इस प्रकार उड़ रहे हैं, मानो बेलेके हार हों। (कितनी सुन्दर कल्पना है!) नभमें बादलोंकी सेना युद्ध कर रही है। बागमें झूला पड़ा है, जिसपर स्त्रियाँ झूल रही हैं, जिससे रह-रहकर पेड़की डाली हिल उठती है। चारों ओर कजलीकी ध्वनि सुनाई पड़ रही है, जिसको सुनकर मेरा हृदय फटा जा रहा है। सारा संसार आनन्द कर रहा है और वनमें मोर नाच रहे हैं; किन्तु मेरे मनमें हूक-सी उठ रही है, क्योंकि मेरी रानी तो स्वातीकी बूँद हो चुकी है।
कितना सुन्दर-सजीव सावनका चित्रण है और साथ ही है वियोगीके हृदयकी मर्मभरी वेदना! गायकके विषयमें जाननेको मन उत्सुक हो उठा। साथीने बतलाया, इन पंक्तियोंका गायक है भोजपुरीका वियोगी कवि 'विश्राम'** एक पतला-दुबला 24 वर्षका अपढ़ ग्रामीण, जिसने अपनी 'सोनेकी-सी रानी' को खोकर पाया है कविता रानीका वरदान। उसीको लेकर तमसा-तटपर बैठा वह अपना मन बहलाया करता है। लोग उसे दीवाना समझते हैं। वह कहता है :-
मोके त बिपतिया सतावै मोरे दैवा,
गउवाँ कहे कि मेहरबस हउवै सार।
बुढ़वा त कहैं, हमरो मरलि बाय मेहरिया,
कबहूँ ना तोरलीं आपन अइसे सरिरिया।
कहै लँ जवनका मेहरी मरे बहुत जग में,
उनकर मरदवा नाहीं रोवें अइसे मगमें।
इनहीं कै सीता जनूँ मरलि बाटीं जगमें,
इतअ रोवें नित जरिया बेजार।
एकठे मेहरियाके मरतई बेहँगवा,
गयल अपनो हिमतिया अइसे हार।
- मैं तो विपत्तिसे पीड़ित हूँ; मगर गाँववाले समझते हैं कि मैं स्त्रीके वशीभूत हूँ। बुड्ढे कहते हैं कि हमारी भी स्त्रियाँ मरी हैं; पर हमने कभी भी इस प्रकार अपना शरीर नष्ट नहीं किया। युवकोंका कहना है कि संसारमें बहुत-सी पत्नियाँ मरती हैं; पर उनके पति इस तरह रास्तेमें रोया नहीं करते। वे मुझपर व्यंग करते हैं - 'जान पड़ता है, संसारमें एक इसीकी सीता मरी है, जो इस प्रकार रोता है। कायर है, तभी तो एक ही स्त्रीके मरनेसे निराश हो गया है।'
बात कितनी साधारण है; पर है चुभती हुई। संसारमें कितने ऐसे व्यक्ति हैं, जो पत्नीकी मृत्युपर इस प्रकार क्रन्दन करें? इन पंक्तियों को पढ़कर 'बच्चन' की निम्न-पंक्तियाँ स्मरण हो आती हैं :-
आज मुझसे दूर दुनिया,पर हमारा कवि 'दिवंगता श्यामा' के शोकको 'बेदी' के प्रणय में भूल नहीं जाना चाहता। वह कहता है :-
हाय कितनी क्रूर दुनिया,
है चिताकी राख करमें माँगती सिन्दूर दुनिया।
पिताजी कहें, बेटा, करबै बिअहवा दूसर,
काहें होल वम्में लवलीन।
एतनी त बतिया नाहीं जनता मोरे दादा,
उनकै सूरति मनवामें हौ आसीन।
तूहैं हउवै काम तिलकी में लेबै दाम,
हमरी दुसरी नियतियाँ हईं तात!
जनम गँवइबै उनकै नऊँवा हम रटि-रटि,
दादा, न हो करबै दुसरी कअ बात।
कहैं 'बिसराम' लखिके हमराई काम,
गउँवा कहै कि करत बाय उत्पात।
हमरा त दिलवा सुनगै अगियाकी नाईं,
लोगन का हो जनब हमरे दिल कअ बात।
-पिताजी कहते हैं, उसमें (दिवंगता पत्नीमें) व्यर्थ इतने अनुरक्त हो रहे हो, मैं तुम्हारा दूसरा विवाह कर दूँगा।
-लेकिन पिताजी, आप यह बात नहीं जानते हैं कि उसकी सूरत मेरे हृदय में आसीन है। आपको तो तिलकमें रुपए लेनेसे मतलब है; लेकिन मैं दूसरी पत्नीकी कल्पना भी नहीं कर सकता। मैं तो उसीके नामको रट-रटकर अपना जीवन समाप्त कर दूँगा।
-मेरी इस अवस्था को देखकर गाँववाले समझते हैं कि मैं उत्पात कर रहा हूँ; पर मेरे हृदय में तो आग लगी हुई है। गाँववाले मेरे दिलकी बात क्या समझ सकेंगे?
और सचमुच 'विश्राम' अपनी 'सीता' का नाम रट-रटकर ही जीवन बिता रहा है। होली हो, दीवाली हो, वसंत हो, पावस हो - सब उसको उसकी 'स्वातीकी बूँद बनी रानी' का ही स्मरण कराते हैं। आज दीवाली है, 'विश्राम' गा रहा है :-
आइल बाय दिवाली, जगमें फइललि उजियाली,-दीवाली आई है और संसारमें उजियाली फैली हुई है; किन्तु मेरे मनमें तो अन्धकार ही व्याप्त है। एक ओर रात्रि बढ़ती जा रही है,दूसरी ओर दीपक जगमग-जगमग जल रहे हैं; किन्तु मैं अपनी सूनी कोठरीमें ही बैठा हुआ हूँ। गाँवकी स्त्रियाँ आँचलके नीचे फूलकी थाली लिए दीपक जलाने जा रही है; पर मेरे हृदय में उसकी स्मृति-बयार चल रही है, जिससे मेरा दुखी शरीर सिहर उठता है। सबके घरोंमें दीपकोंकी बत्तियां लहरा रही हैं; पर मेरे घरमें तो अन्धकार भी शोक मना रहा है (छाती पीट रहा है।) ग्रामके युवक मिठाई लेकर घर आ रहे हैं और अपनी प्रेयसीको देखकर मन-ही-मन प्रसन्न हो रहे हैं; किन्तु मुझे तो खाना तक हराम हो रहा है - मिठाई देखते ही जी जल उठता है। सब लोगोंकी स्त्रियाँ तो घरोंमें दीपक सजा रही हैं; किन्तु मेरा घर रानीके अभावमें अँधेरा पड़ा है!
मोरे मनवामें छवले बाय अन्हार।
जुगुर-जुगुर दीया बरे, होति बाय अन्हरिया;
मैं तो बइठल बाटों अपनी सूनी रे कोठरिया।
अँचराके तरे लेइके फूल कै थरियवा;
गउँवाकै नारी बारै चलति बाटीं दियवा।
मोरे हियमें उठे उनके यादकै बयरिया;
सिहर-सिहर मोर उठे दुखिया सरिरिया।
सबके घरवामें दियवाकै बाती लहराती;
मोरे घरमें पीटति बाय अन्हरिया अब्बो छाती।
गाँवकै जवान ले मिठाई आवैं घरमें;
देखिके आपनि धनियाँ हरसत बाटें मनमें।
कहैं 'बिसराम' हमके दाना हौ हराम,
देखि मिठवा कुढ़त हौ जी हमार।
सब कर घरनी घरमें दियवा सजावै,
मोरे रानी बिनु घर हौ अन्हार।।
कितनी मार्मिक वेदना है 'विश्राम' के हृदयमें ! वसन्तको देखते ही वह एक तीखी कसक बनकर प्रकट हो उठती है :-
अइलैं बसन्त, महक फइलल बाय दिगन्त,-वसन्त आया है, चारों ओर सुगन्ध फैली हुई। है वायु मन्द-मन्द चल रही है। गुलाब और श्वेत बेला फूले हुए हैं। आमकी डालपर कोयल कूक रही है। पपीहा मदमस्त होकर अपनी बोली बोल रहा है। आम बौरकी झोली लेकर महक लुटा रहा है। भ्रमर उड़-उड़कर कलियोंपर मँडरा रहे हैं। हवाके संग पत्ते लहरा रहे हैं। लतायें बढ़-बढ़कर पेड़ोंसे लिपट रही हैं। खंजन अपने देश वापस जा रहे हैं और नदीके किनारे पक्षी कलरव कर रहे हैं। इस प्रकार प्रकृति अभिराम-सी हो रही है; किन्तु यह वायु तो रह-रहकर उसकी स्मृति जगा देती है और हृदयमें एक कसक होने लगती है।
भइया धीरे-धीरे चलैलै बयार।
फुललैं गुलाब, फुललीं उजरी बेइलिया;
अमवाके डरियनपर बोलेलीं कोइलिया।
बोले पपीहा मदमस्त आपन बोलिया;
महकिया लुटावै आम ले बउर कै झोलिया।
उड़ि-उड़ि भँवरा कलियन पै मड़रालैं;
हउवा के सङ॒ मिलीके पात लहरालैं।
बढ़ि-बढ़िके लतवा पेड़वनसे लिपटालीं;
उड़ि-उड़ि खंजन अपने देसवाके जालीं।
कहैं 'बिसराम' कुदरत भइल अभिराम,
चिड़िया गावत बाटीं नदियाके तीर।
चलि-चलि बतास उनकै यदिया जगावै,
मोरे मनवामें उठति बाटीं पीर।
करुणा-मिश्रित यह प्रकृतिका स्वाभाविक चित्रण किस कविके चित्रणसे कम सजीव है? अँधेरी रात और बरसातका मौसम प्रेमीको प्रेयसीके लिए कितना व्याकुल कर देता है, यह 'विश्राम' के दिल से पूछिए। वह कहता है :-
राति अन्हिअरिया, बाटीं सूनि मोरी सेजरिया,
मोरे दिलवामें उठेला तुफान।
बोलेलअ सियार कुचकुचवा बहरवाँ;
रेंउआँ चिल्लात बाटें तालके किनरवाँ।
उड़ि-उड़ि भगजोगिनी पिपरन पर मँडरालीं;
नभावासे टूटिके तरई रातमें बिलालीं।
चलि-चलि पुरुअवा पेड़वनके झकझोरे;
मेघवन कै बोली मोके चिन्तामें बोरे।
उमड़ - घुमड़के बदरा पानी बरसावे;
तड़प - तड़पके मोरा जियरा तड़पावे।
आइ - आइ बउछार मोर खटिया भिगोवे;
टूटल ओसार मोरा टुप - टुप चूवे।
यहि बिच यदिया उनकै अइलीं अचानक;
मोरा मनवा मसोस रहि जाय।
कहैं 'बिसराम'का बिगड़लीं तोहरा राम;
मोरी बसली मड़इयाँ देहला जराय।।
-रात अँधेरी है, पर मेरी शय्या सूनी है। मेरे हृदय में तूफ़ान उठ रहा है। बाहर सियार और उल्लू बोल रहे हैं। तालाबके किनारे झींगुर झंकार कर रहे हैं। पीपलके पेड़पर उड़-उड़कर जुगनू मँडरा रहे हैं। तारे आकाशसे टूट-टूटकर रात्रिमें विलीन हो रहे हैं। पुरवा हवा चलकर पेड़ोंको झकझोर रही है। मेढककी बोली सुनकर मेरा मन चिंतित हो उठता है। बादल उमड़-घुमड़कर पानी बरसाते हैं, साथ ही तड़पकर मेरे जीको भी तड़पाते हैं। बौछार आ-आकर मेरी खाटको भिगो देती है। मेरा टूटा हुआ ओसारा (बरामदा) टप-टप चूता है। ऐसी अवस्थामें अचानक उसकी याद आ गई और मन मसोसकर रह जाता है। हे भगवान ! मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा था कि तुमने मेरे बसे हुए झोपड़ेंको उजाड़ दिया?
प्रकृति कितनी दुःखदायिनी रही है 'विश्राम'को, यह प्रकृति-निरीक्षक कोई कवि-हृदय ही बता सकता है।
दूर, नदी-किनारे, एक चिता जल रही है। 'विश्राम'के कवि-मनमें हठात उस दिनकी याद आ जाती है, जब उसने इसी नदीके किनारे अपने ही हाथों अपने अरमानोंको जला डाला था। वह कह उठता है :-
नदिया के किनारे एकठे चिता धुँधुँआले,वोहि सङ् फूँकि देहलीं आपन अरमान।
लुतिया उड़ि-उड़ि गगनवा में जाय।
धधकि-धधकि के चिता लकड़ी जलावे;
लहकि-लहकिके नदीके सनवाँ दिखावे।
चलिके बतास अँचियनके लहरावै;
नदिया कै पानी आपन देहिंयाँ हिलावै।
चटकि - चटकिके चितामें जरति बाय सरिरिया;
ना जानी कि पुरुस जरै या जरै मेहरिया।
चितवातर बइठल एकठे मनई दुखारी;
अपने अरमनवनके डालत बाटै जारी।
कहैं 'बिसराम' लखिके चितवनकै काम,
मोरा मनवां हो जाला ई बेकाम।
अइसनै चिता हो एक दिन हमहूँ जरवलीं;
-नदीके किनारे एक चिता धू-धू करके जल रही है और चिनगारी उड़-उड़कर आकाशमें जाती है। धधक-धधककर चिता लकड़ियोंको जला रही हैं और लपटें बढ़-बढ़कर नदीको अपनी शान दिखाती है। वायु चलकर आँचको लहरा देती है। और नदी अपने शरीरको हिला रही है। चितामें चटक-चटककर शरीर जल रहा है। पता नहीं, उसमें नर जल रहा है अथवा नारी। हाँ, इतना अवश्य है कि उसके किनारे बैठा एक दु:खी व्यक्ति अपने अरमानोंकी आहुति दे रहा है। चिताका यह कार्य देखकर मेरा हृदय बेकार हुआ जाता है। एक दिन मैंने भी ऐसी ही चिता प्रज्वलित की थी और उसीमें फूँक दिए थे सारे अरमान।
इन सजल पंक्तियोंको देखकर किसे पन्तकी निम्न पंक्तियाँ स्मरण न हो आयँगी :-
वियोगी होगा पहला कवि,और याद आ जायगी क्रौंच पक्षीकी वह कथा, जिसने वधिक वाल्मीकिको महाकवि वाल्मीकि बना दिया।
विरहसे उपजा होगा गान।
कौन कह सकता है, 'विश्राम' किसी महाकविसे कम हैं? उसमें महाकवियों-सी प्रतिभा है, भाव हैं, भावुकता है, कल्पना है और उनके उपयुक्त भाषा। काश, वह पढ़ा-लिखा होता ! फिर भी, इस अवस्थामें ही वह सत्कवियों से कम नहीं है। अन्तर केवल इतना है कि पढ़े-लिखे कवि लोक-प्रसिद्ध हैं और वह तमसाके किनारे बैठा मूक साधना किया करता है।
[ गोपाल-निकेत, आज़मगढ़ ]
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* पुरुषों द्वारा गाया जानेवाला गान।
** भोजपुरीका यह तरुण गायक आजमगढ़ नगरसे डेढ़ मील दक्षिण-पूरब, तमसाके किनारे जयरामपुर नामक ग्रामका निवासी है। - ले.
Saturday, August 15, 2020
पुरुषार्थवती देवी और रामेश्वरी देवी गोयल की कविताएँ
पुरुषार्थवती देवी (1911 - 1931)
उद्वोधन
उठो ! ललनाओं भारत की।
मत समझो हा ! हम हैं अबला
तुम तो शत्रु घातिनी सबला
शक्ति और साहस में प्रबला
सुगति विधायिनी भारत की।
उठो ललनाओं भारत की।।
सोचो, समझो, गम्भीर हो
निज-बल पहचानो धीरा हो
रक्ष - चंडी होवो वीरा हो
शक्ति दायिनी भारत की।
जगो ललनाओं भारत की।।
भय शंका को दूर भगाओ
कष्ट जान के दूर हटाओ
वास्तव में फिर से बन जाओ
सौख्य प्रदायिनी भारत की।
आर्य्य ललनाओ भारत की।।
(मनोरमा, सितंबर 1927)
***
प्रश्न
सप्त - स्वर
जीवन नौका
वेदना
ओ परदेशी !
रामेश्वरी देवी गोयल (1911 - 1935)
आशा
अरे ... इस ओर ...!
आदेश
पागलपन
उपालम्भ
गीत
उस पार
गद्य - काव्य
स्वप्न
Wednesday, August 12, 2020
काशी-नागरी-प्रचारिणी सभा : पं. रामनारायण मिश्र
यह संस्थाओं का युग है। संसारके समस्त सभ्य देशोंमें सार्वजनिक जीवनके प्रत्येक पहलूसे सम्बन्ध रखनेवाली संस्थाएँ हैं। हमारे भारतमें भी हैं। संस्थाएँ देशकी संघशक्तिकी साक्षी-स्वरूप हैं; पर भारतकी संस्थाओंमें दृढ़ता, एकता और चिरजीवी होनेके गुण प्राय: कम पाए जाते हैं। अन्य देशोंमें ऐसी सभा-समितियाँ हैं, जो सैकड़ों बरसोंसे चली आ रही हैं। उनके संचालक सोचते रहते हैं कि किस प्रकार उनका भविष्य अधिकसे अधिक उज्ज्वल बनाया जा सकता है; किन्तु हमारे देशमें समस्या यह रहती है कि किस प्रकार हम एक संस्थाको जीवित रखें! ऐसी अवस्थामें यदि कोई संस्था 50 वर्ष की आयु प्राप्त कर ले, तो वह बधाई और प्रोत्साहन पानेकी पात्र है। परमेश्वरकी कृपासे काशी-नागरी-प्रचारिणी सभा आज इसी कोटिमें पहुँच गई है।
पचास वर्ष पहले हिन्दीको कौन पूछता था। संस्कृतके विद्वान्, जो निसन्देह सरस्वती देवीके सच्चे उपासक रहते आए हैं; हिन्दीको 'भाखा' कहकर उन दिनों उसका निरादर किया करते थे। 5 अगस्त सन् 1843 में डा. बैलन्टाइनको, जो काशीके गवर्नमेन्ट संस्कृत-कालेज के प्रिन्सिपल थे, हिन्दीमें यह आज्ञा निकालनी पड़ी थी -
"संस्कृत-पाठशालामें विद्यार्थी हिन्दी-भाषा प्राय: बहुत अशुद्ध लिखते हैं। जो विद्यार्थी पंडितके समान संस्कृत लिख सकता है, सो भी हिन्दीभाषा एक गँवार के समान लिखता है और हमारी दृष्टिमें यह निपट अयोग्यता है और चाहते हैं कि यह लज्जाका कारण पाठशालासे उठ जाए। इस निमित्त यह आज्ञा देते हैं कि जो लड़के तीसरी व्याकरण शालामें पढ़ते हैं, सो प्रति दिवस 10 बजेसे 11 बजे तक अंगरेज़ी शालामें आकर हिन्दी-पंडित की शालामें पढ़ा करें।"
जब ब्राह्मण विद्वानोंको, जो उस समय हमारी संस्कृतिकी रक्षा करनेवाले एकमात्र नेता थे, एक विदेशीको बतलाना पड़ा कि हिन्दी -भाषा को भलीभाँति न जानना लज्जाकी बात है, तब अन्य श्रेणीके लोगोंकी क्या अवस्था रही होगी!
अंगरेज़ी स्कूलोंमें पढ़नेवाले बालकोंके अभिभावक यही चाहते थे कि उनके बच्चे विदेशी फ़ारसी-लिपिमें लिखी हुई पुस्तकें पढ़ें। अंगरेज़ी पर तो लोग लट्टू थे। उस समय काशीके सरकारी स्कूलमें पं. मथुराप्रसाद मिश्र एक प्रसिद्ध और प्रतिष्ठित हेडमास्टर थे। उनमें बड़े गुण थे; परन्तु देशमें उनका यश उनके गुणोंके कारण नहीं था, बल्कि इसलिए था कि वे अंगरेज़ोंके समान अंगरेज़ी बोल सकते थे। हम लोग भी विद्यार्थी-अवस्थामें आपसमें अंगरेज़ी ही में बातचीत करना गौरवकी बात समझते थे। छावनीमें गोरोंकी बैरकमें इसलिए घुस जाते थे कि वहाँ अंगरेज़ोंसे अंगरेज़ी बोलेंगे।
ऐसे समय 8-10 स्कूली विद्यार्थियोंका नागरीके नामसे एक सभा खोलना साहसकी बात थी; पर इसके कार्यक्रममें एकमात्र वाद-विवाद ही को स्थान दिया गया था। सौभाग्यसे इन बालकोंका सम्पर्क बाबू राधाकृष्ण दास, महामहोपाध्याय पं.सुधाकर द्विवेदी, पं.लक्ष्मीशंकर मिश्र, बाबू कार्त्तिकप्रसाद, बाबू प्रमदादास मित्र ऐसे महानुभावों से हो गया, जिनके कारण रूखे वाद-विवादसे हटकर इन लोगोंकी रुचि साहित्यकी ओर झुकी। उन दिनों देशमें हिन्दी-साहित्यके प्रति प्रेम उत्पन्न करनेका श्रेय भारतेन्दु हरिश्चन्द्र को था और हिन्दीको आर्यभाषा कहकर राष्ट्रभाषाका रूप देनेका श्रेय स्वामी दयानन्दको। पर जब यह सभा स्थापित हुई थी, उसके कुछ ही पहले ये दोनों विभूतियाँ स्वर्गगत हो चुकी थीं। वायुमण्डलमें ये दोनों अपना सन्देश अवश्य छोड़ गए थे।
यह सभा कैसे बढ़ी, इसके सामने कितनी कठिनाइयाँ आईं, इसको किससे कितनी सहायता मिली - ये बातें तो सभाके 50 बरसके विवरणमें मिलेंगी (जो अर्द्धशताब्दी-उत्सवपर प्रकाशित होगा); पर एक बात अवश्य उल्लेखनीय है। वह यह कि इसमें कभी साम्प्रदायिक अथवा व्यक्तिगत भेद-भाव नहीं उत्पन्न हुआ। झगड़े हुए; पर दलबन्दी नहीं हुई। मनुष्योंके स्वभावमें अन्तर होता ही है। एकमें तमोगुण प्रधान , तो दूसरेमें रजोगुण, तीसरेमें सत्वगुण और किसी-किसीमें सब गुणोंका समन्वय। वही संस्था चिरजीवी हो सकती है, जिसमें भिन्न-भिन्न स्वभावके लोग शिष्टताकी सीमाका उल्लंघन नहीं करते और परस्पर प्रेम और श्रद्धा बनाए रखते हैं। मत-भेद हुआ ही करता है - होना स्वाभाविक भी है - पर 'बुद्धि-भेद' न होना चाहिए। इस सभामें ऐसा ही रहा है। यही कारण है कि देखते-देखते इसने 50 बरस बिता दिए और इतना कार्य किया।
'सभा' का मुख्य भवन |
सभाका मुख्य उद्देश्य आरम्भसे दो ही रहे - हिन्दी साहित्यको सम्पन्न करना और देवनागरी-लिपिका प्रचार करना। नाम तो इसका नागरी-प्रचारिणी सभा रखा गया; पर इसका अधिकतर कार्य साहित्यिक रहा है। प्रचारका कार्य इसने केवल यह किया कि संयुक्त-प्रान्तकी कचहरियोंमें देवनागरी अक्षरोंको, महामना मालवीयके सबल सहयोगसे, स्थान दिलाया। हिन्दी-साहित्य-सम्मेलनको जन्म देकर सभाने प्रचारका एक बहुत बड़ा साधन खड़ा कर दिया। सम्मेलनका कार्यक्षेत्र भारत है। सभाके सभासद उपनिवेशोंमें और यूरोप तथा अमेरिकामें भी मिलते हैं। इसकी एक सम्बद्ध शाखा ईरान की खाड़ीमें भी है।
साहित्यिक कार्योंमें इसके प्रकाशनोंको सबसे पहला स्थान मिलना चाहिए। इसका शब्दसागर, वैज्ञानिक कोश और इसकी भिन्न-भिन्न विषयोंकी पुस्तकमालाएँ हिन्दी-जगत् में ऊँचा स्थान पा चुकी हैं। कई ग्रन्थ ऐसे हैं, जिनके प्रकाशन करनेसे व्यापारिक दृष्टिसे सभाको हानि हुई है; पर साहित्यिक दृष्टिसे वे बड़े महत्त्व के हैं। सभाकी त्रैमासिक पत्रिका शोध-सम्बन्धी हिन्दीमें एक ही पत्रिका है। प्रचारकी दृष्टिसे 'हिन्दी' नामकी मासिक पत्रिका जितनी सस्ती कोई दूसरी नहीं।
सभाका पुस्तकालय हिन्दी-पुस्तकोंका सबसे बड़ा संगठन है। साहित्यिक ग्रन्थ बहुत कम होंगे, जो इसमें न हों। सभा प्रतिवर्ष लेखकोंको पदक-पुरस्कार देती है और समय-समयपर विद्वानोंको निमन्त्रित करके ऐतिहासिक, साहित्यिक और वैज्ञानिक विषयोंपर व्याख्यान कराती है। सभाका एक अनुशीलन विभाग है। इसके अन्तर्गत बहुत-से हस्तलिखित-ग्रन्थ हैं। सभाने हस्तलिखित-ग्रन्थोंकी खोजकर जो काम किया है, बड़े महत्त्व का है।
साहित्यके साथ कलाका भी सम्बन्ध है, इसलिए 'कला-भवन' सभाकी शोभा और उपयोगिता दोनोंको बढ़ाता है।
सभाका साधारण जनता, सरकार और राजा-महाराजाओंसे बराबर आर्थिक सहायता मिलती आई है। इसकी अर्द्ध-शताब्दी हिन्दीके लिए युग-प्रवर्त्तक होनी चाहिए; परन्तु यह तभी हो सकता है, जब इसको हिन्दी-जगत् से प्रोत्साहन प्राप्त हो। ईश्वरकी इच्छा होगी, तो इसका भविष्य उज्ज्वल ही होगा।
(जनवरी, 1944)
Thursday, August 6, 2020
मैं कहानी-लेखक कैसे बना? : ठाकुर श्रीनाथ सिंह
Tuesday, August 4, 2020
जीवन का सपना : रुस्तम सैटिन
"मधुमास के मधुप थिरक रहे हैं - वसन्त कछारों तक में छाया है। मैं इस करुण-नाद से थक गया हूँ, इस हलचल से विश्राम लेने के लिए मुझे विस्मृत का सङ्गीत सुनाओ। मैं उस अथक संग्राम को भूल जाऊँ - जीवन की निराश घड़ियों को छिपा लूँ...।"
"पथिक, उस पार मिलन नहीं है - वहाँ है आत्मविसर्जन... चलोगे?"
तरी को ले जाओ मझधार,
डूब कर हो जाओगे पार।
विसर्जन की है कर्णाधार,
वही पहुँचा देगा उस पार।।
"यहाँ विचित्र व्यापार है - कोई वस्तु, अथवा व्यक्ति, तुम्हारी रुचि के अनुकूल होने पर भी तुम उस भाव को व्यक्त करने के अधिकारी नहीं हो। तुम्हें स्नेह-भाव दिखाना ही होगा। लाख अनिच्छा होने पर भी हृदयगत पीड़ा को छिपाकर तुम्हें मुस्कराना ही होगा - रोते हुए हृदय से भी होठों पर कुछ सुख की झलक दिखानी ही होगी! अच्छा यह जीवन है!! संसार में इस ढोंग का कितना अधिक महत्त्व है, यह देखकर हँसी आती है।"
सुनने को उत्कंठा क्यों,
पीड़ा की अकथ कहानी,
पीछे से पछताओगे
कैसी थी यह नादानी?
हास्य का मृदु अवगुण्ठन डाल,
राग से सीखा आज विराग,
न जर्जर कर दे यह अभिसार,
वेदना का व्याकुल अनुराग।
देशानुराग का पागलपन,
रग रग में फड़काकर धड़कन,
बलिवेदी पर बलि दे जीवन,
भारत स्वाधीन बनायेगा।
नीरव जीवन पतझड़ का
ऋतुराज नहीं फिर आता,
भूली-सी तू फिरती क्यों
जग का थोड़ा यह नाता?
जग हँसता है...ले सो जा !
आ ..! आ..! मतवाली सो जा !
पीड़ा का मूक रुदन बन शर,
दुष्टों का रक्त बहायेगा,
निर्धन प्राणों का आह-पुंज,
भूतल पर क्रान्ति मचायेगा।
Wednesday, July 22, 2020
किसान आंदोलन की साहित्यिक जमीन : विउपनिवेशित-वैकल्पिक परिप्रेक्ष्य की खोज
डाॅ. नीलेश कुमार
एक रचनाकार से 'रचना' की मौलिकता की माँग जितनी जायज है, उतनी ही जायज माँग एक आलोचक से 'आलोचना' की मौलिकता से है। पर इन दिनों 'आलोचना' और 'समीक्षा' की मौलिकता संदेह के साये में ज्यादा रहना पसंद करती है। आज की हिन्दी आलोचना 'समीक्षा-संग्रह' की प्रवृत्ति का शिकार ज्यादा लगती है। अच्छी समीक्षाओं का संग्रह भी महत्त्वपूर्ण होता है, बशर्ते उसमें नवीनता और निरन्तरता मौजूद हों। लेकिन संग्रह में लिखे का दुःख और उसका विलाप ज्यादा दिखलाई पड़ता है उसके हर्ष का हिस्सा बहुत कम।
कविता, कहानी,उपन्यास आदि की कुछ प्रवृत्तिगत विशेषताओं के सहारे आलोचना को प्रस्तुत किया जाता है। वे समय और उसके परिवर्तन को महसूस नहीं करते, बस समय को परिवर्तित करने में लगे रहते हैं। लेकिन कुछ आलोचक और उनकी आलोचना न केवल समय और उसके परिवर्तन को महसूस करती है वरन् उसके द्वारा अपने समय और उसमें आये परिवर्तन की गहरी शिनाख्त भी करती है। निराशा से भरे समय में उनका प्रयास सामर्थ्य से भरा होता है। सामर्थ्य से भरा ऐसा ही एक प्रयास रामाज्ञा शशिधर की किताब 'किसान आंदोलन की साहित्यिक जमीन' है।
आजादी के इतने वर्ष बीत जाने के बावजूद हम अपनी बुनियादी जरूरतों भोजन, वस्त्र, आवास, स्वास्थ्य, शिक्षा को नहीं पा सके हैं तो स्वतंत्रता की बात बेईमानी ही है। आज भी 'फटा सुथन्ना पहने राष्ट्रगान' को गाने वालों की नियति 'रामदास' वाली ही है। आज जरूरत है हमें प्रतिरोध की भाषा एवं प्रतिरोध की दिशा को संगठित एवं सुव्यवस्थित कर ‘प्रतिरोध की पुनर्रचना’ करने की। ऐसा इसलिए भी जरूरी है कि
"भारतीय समाज गहरे भँवर में फँस चुका है। भारतीय खेतिहर आबादी की अस्मिता और अस्तित्व उसके प्रकृति और संस्कृति से निर्मित सतत संबंध, जल, जंगल, जमीन-सब कुछ दाँव पर है।"जबकि श्रमिक वर्ग का बड़ा हिस्सा असंगठित क्षेत्र के मजदूरों एवं किसानों का है और अंग्रेजी साम्राज्यवाद से लेकर अमेरिकी साम्राज्यवाद तक सबने औपनिवेशीकरण की प्रक्रिया के तहत इसे ही सबसे ज्यादा नुकसान पहुँचाया है। दूसरी तरफ इन शक्तियों के खिलाफ सर्वाधिक प्रतिरोध के स्वर इन्हीं मजदूरों एवं किसानों के यहाँ से आई है। चाहे वर्तमान में पास्को, वेदांता के खिलाफ आदिवासियों का प्रतिरोध हो या फिर स्वाधीनता संग्राम के समय अंग्रेजी राज के खिलाफ किसानों का संगठित प्रतिरोध। दरअसल, इन साम्राज्यवादी शक्तियों के अधीन सिर्फ हमारी भौगोलिक सीमा ही नहीं रही, इन्होंने 'हमारी भाषा, स्मृति और कल्पना’ को भी 'औपनिवेशिक वर्चस्व' के साये में रखा है।
'औपनिवेशिक वर्चस्व' के साये में अब धूप की सर्वाधिक जरूरत है। और ये धूप किसानों-मजदूरों के संगठित प्रतिरोध की जमीन से ही आयेगी। इस जमीन की एक ठोस वैचारिक पृष्ठभूमि की आवश्यकता है और बतौर लेखक-
"यह किताब इस दिशा में केवल पारिभाषिक लफ्फाजी न होकर एक ठोस सांस्कृतिक-वैचारिक जमीन देने की शुरूआती पहल है।"'किसान आंदोलन की साहित्यिक जमीन' किताब, भूमिका सहित छह अध्यायों में विभक्त है और प्रत्येक अध्याय, कई-कई उप-अध्यायों में। अध्याय विभाजन नामवर सिंह की किताब 'छायावाद' के अध्याय विभाजन की याद दिलाता है जहाँ नामवर जी ने अध्याय का नामकरण छायावाद की प्रवृत्तिगत विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए किया है। यहाँ भी आपको वर्गीकरण का वह रूप दिखलाई पड़ेगा। कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं - चौथा अध्याय 'मुक्ति का सामाजिक-सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य' है, उसके उप-अध्याय को देखिए - (1) साँझ जमींदारन के सेज (2) पकड़ि पकड़ि बेगार करावत (3) गाजी मियाँ मुर्गा माँगे (4) गाँवे-गाँवे संगठनमा। इस वर्गीकरण को प्रवृत्तिगत विशेषताओं और खामियों के उभार को सामने लाने के सार्थक प्रसास के रूप में देखा जाना चाहिए।
डॉ.रामाज्ञा शशिधर |
यह किताब किसान आंदोलन और उसको मिलने वाली वैचारिक ऊष्मा की जमीन की खोज करती है। साथ ही आंदोलन के समय निर्मित होने वाली कविता के स्वरूप को सामने लाती है। इस कविता को लेखक हिन्दी कविता की परम्परा में अलग पहचान के साथ 'किसान कविता' कहकर संबोधित करता है। इस संबोधन में हिन्दी आलोचना के रूख पर एक प्रश्न-चिह्न भी है, जिसने 'किसान कविता' को परिदृश्य से बाहर रखा भी और देखा भी :
"जैसे प्रभुत्त्वशाली सत्ता के लिए किसान वर्ग 'अन्य' है ठीक वैसे ही वर्चस्वमूलक हिन्दी आलोचना के लिए किसान कविता 'अन्य' रही है।"प्रभुत्त्व और वर्चस्व की संस्कृति हमेशा प्रतिरोध की शक्ति को तोड़ने का प्रयास करती है या फिर नजरअंदाज करते हुए आगे चलती है -
"किसान आंदोलन और किसान कविता दोनों ऐसी 'सांस्कृतिक संरचना और रचना' है जहाँ मुख्यधारा के 'प्रभुत्व और वर्चस्व' को चुनौती देनेवाले प्रतिरोध और मुक्ति के भरपूर यूटोपियन मसौदे मौजूद हैं।"प्रभुत्त्व और वर्चस्व को चुनौती देने वाले प्रतिरोध और मुक्ति के स्वर को 'हिन्दी क्षेत्र में किसान आंदोलन' वाले अध्याय में देखा जा सकता है। इसमें स्वाधीनता संग्राम में किसानों की भूमिका का विस्तार से जिक्र है। राजस्थान, अवध, चम्पारण क्षेत्र में चल रहे किसान आंदोलन के बहाने सम्पूर्ण हिन्दी प्रदेश में चलने वाले आन्दोलन के केन्द्र में किसानों की केन्द्रीय भूमिका को चिह्नित किया गया है। स्वाधीनता आंदोलन की केन्द्रीय भूमिका को भी रेखांकित किया गया है।
स्वाधीनता आंदोलन के समय किसानों की लड़ाई दो-तरफा थी, एक तरफ ब्रिटिश साम्राज्यवाद से तो दूसरी तरफ भारतीय सामंतवाद से। भारतीय सामंतवाद का सर्वोच्च और क्रूर रूप जमींदारों के यहाँ थी -
"औपनिवेशिक जमींदारी एक राजसत्ता के भीतर दूसरी राजसत्ता थी। सामंती शक्तियों का साम्राज्यवाद और कांग्रेस से संबंध था। जमींदार और उसका अमला तंत्र ऐय्याश प्रभुवर्ग था जो किसान समुदाय के आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक शोषण से निचोड़े गए रस का भरपूर भोग करता था। जमींदार वर्ग राज्य की रचना था। इसलिए वह राजभक्त और देशद्रोही था। वह विक्टोरियन नैतिकता का समर्थक था।"जमींदारों की सामंती क्रूरता और विक्टोरियन नैतिकता के फ्यूजन को किसान आंदोलन ने चुनौती पेश की और "इन संगठनों के प्रति किसानों में घृणा और प्रतिरोध की चेतना का विस्तार किया।" किसान आंदोलन ने अपने संगठित प्रयास से औपनिवेशिक शक्ति के देशी आधार सामंतवाद को वर्गीय प्रतिरोधी चेतना के आधार पर चुनौती दी। इस चुनौती का एक सिरा सामंतवाद के खिलाफ वर्ग मुक्ति का था तो दूसरा सिरा साम्राज्यवाद के विरूद्ध राष्ट्रीय मुक्ति का। मुक्ति के इन प्रयासों को 'किसान कविता' के स्वरूप में देखा जा सकता है।
'किसान कविता का स्वरूप' इस किताब का सबसे महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। किसान कविता के स्वरूप निर्धारण में किसान कविता की परम्परा, किसान कविता की वैचारिकी, किसान कविता की पृष्ठभूमि के साथ आजादी के दौर में किसान कविता की उपस्थिति और उसके प्रभाव को विश्लेषित किया गया है। किसान कविता की अवधारण को व्याख्यायित करते हुए लेखक कहता है
"किसान कविता एक व्यापक अवधारणा है जिसमें किसानों या किसान कवियों के द्वारा रचे गए जनगीत, लोकगीत और काव्य के अतिरिक्त किसान जीवन से सहानुभूति रखने वाले कवियों की कविता भी शामिल हो सकती है तथा किसी अन्य विषय वस्तु पर रचित कविता का एक हिस्सा भी हो सकती है। अपने स्वायत्त एवं अधीनस्थ दोनों रूपों में किसान कविता किसान चेतना के अनुभव, उमंग, शोषण एवं स्वप्न के प्रतिरोध की अभिव्यक्ति है।"किसान कविता की यह अवधारणा एकांगी न होकर व्यापक परिप्रेक्ष्य को अपने में समेटे हुए है।
किसान कविता के स्वरूप निर्धारण वाले अध्याय में अपनी परम्परा में किसान और उससे जुड़ी कविताओं की उपस्थिति का इतिहास है। इसमें परम्परा के निषेध का स्वर न होकर उसके सकारात्मक निषेध का स्वर है। किसान और उसके जीवन का एक बड़ा हिस्सा लोक से संबद्ध होता है। लोकसंबद्धता से लेकर दस्तावेजों तक में सिमटे किसान कविता के व्यापक प्रसार को दूसरे अध्याय में विश्लेषित किया गया है। घाघ, डाक और भड्डरी से लेकर आजादी के समय निकलने वाले विभिन्न समाचार-पत्रों में फैले किसान मन के गीत, जो जनगीत, लोकगीत के रूप में अपनी व्यापक सर्वस्वीकार्यता को लिये हुए है, का गहरे आलोचनात्मक विवेक के माध्यम से लेखक व्याख्यायित करता है।
हिन्दी प्रदेश में आजादी की लड़ाई, किसान संगठन और तत्कालीन समाचार पत्र-पत्रिकाओं की भूमिका पर विस्तार से बात करते हुए लेखक किसान आंदोलन और कविता की गहरी संबद्धता की ओर इशारा करते हुए कहता है-
"1917 से 47 के बीच बिहार, राजस्थान और युक्त-प्रांत में चले विभिन्न किसान आंदोलनों से हिन्दी कविता का गहरा संबंध रहा। आंदोलन और कविता दोनों ने एक-दूसरे के निर्माण, विकास, विस्तार और रचनात्मक भूमिका तय करने में प्रेरणा और प्रभाव का काम किया।"
'मुक्ति का आर्थिक-राजनीतिक परिप्रेक्ष्य' और 'मुक्ति का सामाजिक-सांस्कृतिक प्ररिप्रेक्ष्य' आंदोलन के निर्माण और विस्तार के बीच की रचनात्मकता के सहारे मुक्ति के आर्थिक-राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक विकल्प की तलाश है। हिन्दी क्षेत्र में औपनिवेशिक तथा सामंती प्रभुत्त्व का आधार किसानों का आर्थिक लूट और राजनीतिक गुलामी था। इसलिए किसान कविता ने आर्थिक शोषण और राजनीतिक परवशता से मुक्ति का व्यापक आख्यान रचा। आख्यान के इस प्रक्रिया में उसने बेदखली, नजराना, कर्ज, सूदखोरी, लगान जैसे शोषणकारी प्रक्रिया का जबरदस्त विरोध किया। इस विरोध में सर्वाधिक उग्र स्वर देशी सामंतवाद के खिलाफ था क्योंकि औपनिवेशिक सत्ता का आर्थिक-सामाजिक आधार प्राथमिक स्तर पर यही सामंती ढाँचा था। इसीलिए अपनी मुक्ति के आर्थिक-राजनीतिक प्रश्न को लेकर जब किसान सामने आये तो उन्होंने सबसे पहले स्थायी बंदोबस्ती,अस्थाई बंदोबस्त और जागीरदारी प्रथा का तीखा प्रतिवाद किया। किसान आंदोलन के संगठित स्वरूप और विस्तार ने आजादी के आंदोलन की दिशा को भी प्रभावित किया। इस प्रभाव ने केवल मुक्ति के स्वप्न की आकांक्षा को ही नहीं वरन् उसके रूपांतरण की दशा और दिशा भी तय की, साथ ही 'जनराष्ट्रवाद' जैसे हथियार की खोज भी जिसका उपयोग साम्राज्यवादी-सामंती शक्तियों को उखाड़ फेंकने के लिए किया गया।
'मुक्ति का सामाजिक-सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य' गहरे रूप से 'मुक्ति के आर्थिक-राजनीतिक परिप्रेक्ष्य' से जुड़ा होता है। आर्थिक-राजनीतिक मुक्ति का अगला चरण सामाजिक-सांस्कृतिक मुक्ति के प्रश्न पर जाकर खत्म होता है। मुक्ति का संबंध, साम्राज्यवादी-सामंती शक्तियों के व्यापक चंगुल से मुक्ति का है। किसान आंदोलन ने आर्थिक-राजनीतिक मुक्ति के प्रश्न के साथ सामाजिक-सांस्कृतिक मुक्ति के विकल्प को भी प्रस्तुत किया। इसका सबसे बड़ा उदाहरण किसान आंदोलन के भीतर श्रमशील स्त्रियों की मौजूदगी है।
राजस्थान से बिहार तक फैले उत्तर भारत के किसान आंदोलन के गीतों और कविताओं में स्त्री-शोषण के प्रश्न के साथ इससे मुक्ति के सवाल प्रमुखता से आये हैं। राजपूताने, बिजोलिया के किसानों और मगध के किसानों की लड़ाई में स्त्रियों की गहरी संबद्धता रही है। शारीरिक- मानसिक शोषण के साथ श्रम-संबंधी शोषण का शिकार अधिकांश मजदूर स्त्रियाँ हुआ करती थीं। इस शोषण का प्रतिकार स्त्रियों ने संगठित रुप से किया है और इसके कई उदाहरण मौजूद हैं। सामाजिक-सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य का सबसे महत्त्वपूर्ण पक्ष यह रहा है कि
"किसान आंदोलन की तत्कालीन राजनीतिक विचारधारा से इस मुद्दे पर अग्रगामी है कि वह वर्ग संघर्ष और वर्ण संघर्ष का एक ही सांस्कृतिक मोर्चे पर हल करना चाहती है।"इस प्रक्रिया में संगठित-असंगठित दोनों प्रकार के किसानों ने व्यापक संगठन के निर्माण का कार्य किया। संगठन निर्माण और इसके प्रसार ने किसान आंदोलन के संगठित प्रतिरोधी चेतना को विस्तार दिया, साथ ही 'सौन्दर्य मूल्य निर्मित' करने का कार्य भी किया।
अंतिम अध्याय 'कला की राजनीति' शीर्षक से है। 'कला और लोकप्रियता का द्वंद', 'रूप की धरती', 'भाषा का यथार्थ', 'अन्य का रूपक' और 'मिथक की विचारधारा' उपशीर्षक के जरिये साहित्य के भीतर 'कला की राजनीति' को सामने लाने का प्रयास लेखक करता है :
"साहित्य के भीतर कला और लोकप्रियता का प्रश्न हमेशा से अनिवार्य विचारधारात्मक प्रश्न रहा है। ...कविता में कला और लोकप्रियता का प्रश्न एक ही सिक्के के दोनों पहुलओं जैसा है। कलात्मकता और लोकप्रियता दोनों अविभाज्य, सहजात और अंतर्गठित सृजनात्मक उपलब्धियाँ हैं।"उपलब्धियों का यह रूप संघर्ष की नई अंतर्वस्तु, नए रूप और नई भाषिक संरचना की माँग करता है, जबकि इन उपब्धियों की श्रेणीबद्धता की माँग या फिर उपलब्धियों को विभाजित कर देखने की प्रवृत्ति, वस्तुतः इसके स्वरुप और पहचान को धूमिल करने का प्रयास भर है, ये प्रयास कई स्तरों पर होता आ रहा है। इन्हीं स्तरीकरण के कारण किसान कविता की संरचनागत और विचारधारात्मक निर्धारण का कोई रूप नहीं बन पाया। जबकि "किसान कविता की कलात्मकता और लोकप्रियता के निर्धारण में किसान आंदोलन के स्वरूप, संरचना और लोकप्रियता की गहरी भूमिका है।" इस भूमिका ने किसान कविता के व्यापक आधार क्षे़त्र को निर्मित किया है, जहाँ से चलकर कविता ने साम्राज्यवाद और सामंतवाद का कड़ा प्रतिवाद किया। वर्गमुक्ति और राष्ट्रमुक्ति के प्रयास के साथ-साथ किसान-मजदूर वर्ग की चेतना को गहरे स्तर तक प्रभावित किया।
किसान कविता के रूप, उसकी भाषा एवं उसके मिथकों के निर्माण में लिखित और मौखिक दोनों प्रकार की रचनाओं की भूमिका रही है। क्योंकि इस कविता का एक हिस्सा लिखित है तो एक हिस्सा मौखिक रचनाओं का भी है जो चली आती परम्परा से किसान कविता के पास पहुँची है। विभिन्न बोलियों यथा अवधी, भोजपुरी, मगही, मैथिली, बुंदेली, ब्रज, राजस्थानी आदि में फैली लिखित और मौखिक रचनाओं के व्यापक हिस्से ने किसान कविता के स्वरूप को निर्मित किया है। इसलिए इस कविता में किसानों-मजदूरों के मन के गीत बहुत संख्या में मिलते हैं, ये गीत उस व्यापक अनुभव लोक की संवेदना और सौन्दर्यबोध का संवहन करती है जो संघर्ष के समय में उनके कण्ठों से फूटती है -
"किसान कविता की भाषिक संरचना सामूहिकता, लयबद्धता, लोकधर्मिता और सामाजिकता से लैस है। इसका कारण किसान समुदाय का मौखिक लोकजीवन है। किसान कविता में लयबद्धता उसकी सामूहिक जीवन-पद्धति से आती है और उसके छंदों, धुनों और लय का धीमापन उसकी धीमी उत्पादन पद्धति से आता है। उसमें उपस्थित सामूहिक आवेग भी उसकी सामाजिक सौन्दर्यबोधीय और प्रतिरोधी दृष्टि से उपजता है।"किसान आंदोलन की कविताओं पर आंदोलनों एवं असंगठित व्यापक किसान-मजदूर वर्ग की चेतना का गहरा प्रवाह है। इनमें मौजूद 'जनता मूर्त, संघर्ष-शील और वास्तविक है।' इसीलिए किसान कविता औपनिवेशिक शक्ति संरचना के विरुद्ध सक्रिय अभिजन मिथकों के समानांतर जन मिथकों का चित्रण करती है।
'किसान आंदोलन की साहित्यिक जमीन' के बहाने रामाज्ञा शशिधर ने हाशिए की वैचारिकी को सामने लाने का प्रयास किया है। साहित्य की मुख्यधारा ने किसान कविता और उसकी वैचारिकी पर कभी इस तरह से विचार नहीं किया है। यह प्रयास मुख्यधारा आलोचना को न केवल विस्तार देता है वरन् उसको समृद्ध भी करता है। हिन्दी आलोचना के भीतर इसका स्वागत किया जाना चाहिए।
पुस्तक : किसान आंदोलन की साहित्यिक जमीन
लेखक : रामाज्ञा शशिधर
प्रकाशक :
अंतिका प्रकाशन,
सी-56/यूजीएफ-4, शालीमार गॉर्डन, एक्सटेंसन-2
ग़ाज़ियाबाद - 201 005