अगर आप कहानियाँ लिखना चाहते हैं और वह भी हिन्दी में तो इस बात के लिए तैयार रहिए कि आप को बहुतेरी कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा। हिन्दी में कहानी लेखक के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त करना वैतरिणी पार करने से कम कठिन नहीं है। प्रेमचंद जी इसी प्रयत्न में स्वर्गवासी हो गए, सुदर्शन जी सूख गए और पाँडेय बेचन शर्मा को काफ़ी बेशर्मी अख्तियार करनी पड़ी। मतलब यह कि ख्याति और वाहवाही से सब वंचित रहे। गुस्ताखी मुआफ़ कीजिए, यदि मैं कहूँ कि इस दिशा में प्रसिद्धि प्राप्त करने के लिए मैंने भी कोशिशें कीं। पर जहाँ बड़ों बड़ों की नहीं चली वहाँ भला मैं नौसिखिया किस गिनती में था।
इतने पर भी आख़िर मुझे क्या सूझी जो मैं अपना गुण गाने आज बैठ गया। मैं कहानी-लेखक कैसे बना? यह असल में उसके बताने की बात है जो सचमुच कहानी-लेखक बन गया हो। अपनी दृष्टि में नहीं, समालोचकों की दृष्टि में, पाठकों की दृष्टि में, जनता की दृष्टि में यह सौभाग्य मुझे पूरा प्राप्त नहीं है। पर मैं हताश भी नहीं हूँ। हताश होने की कोई जरूरत भी नहीं समझता। इसलिए कि मुझे अपने ऊपर भरोसा पैदा हो गया है। और यही वजह है कि कहानी लेखक के रूप में मैं अब तक ज़िंदा हूँ। हिन्दी के हितैषी अन्य कहानी-लेखकों की भाँति मुझे - मार नहीं सके और शायद आगे उनका यह काम और कठिन होगा।
कहानी-लेखक के अपने ये अनुभव मैं इसलिए लिख रहा हूँ कि हिन्दी के नवयुवक कहानी-लेखक इस क्षेत्र की कठिनाइयों को समझें और उनसे पराजित न किए जा सकें। अब मैं भूमिका में व्यर्थ का समय न लगा कर मुख्य विषय पर आता हूँ।
सन् 1925-26 की बात है। मैं 'गृहलक्ष्मी' के संपादकीय विभाग में काम करता था। 'गृहलक्ष्मी' में कहानियाँ भी कम नहीं छपतीं थीं। पर मेरी कहानी छापने के लिए उसके संपादक तैयार न थे।
मौलिक कहानी की अपेक्षा वे अनुवाद कहीं अधिक पसंद करते थे। उनका ख़याल था, मौलिक हिन्दी में कोई लिख ही नहीं सकता। लेकिन मैंने उनसे आग्रह किया कि नहीं वे कृपापूर्वक मेरी रद्दी ही सही एक-आध कहानी छाप दें। अंत में वे इस शर्त पर राज़ी हुए कि वे मेरे नाम से नहीं छाप सकते क्योंकि मुझे कोई नहीं जानता। हाँ कल्पित नामों से छाप सकते हैं। मैं राज़ी हो गया। मैं तो अपनी लिखी चीज़ को छपा देखना चाहता था। मैंने कहानियाँ लिखनी शुरू कीं, नाम चुने गये। लक्ष्मीकांत वर्मा, अल्लाह बख़्श, कुसुमकुमारी देवी, श्यामाबाई आदि आदि। कुछ कहानियों पर 'गृहलक्ष्मी' की सम्पादिका स्वयं गोपाल देवी ने अपना नाम देने की कृपा की! इस तरह चार साल मैंने अज्ञात नामों से गृहलक्ष्मी में कहानियाँ लिखीं। पर कहानी-लेखक के रूप में जहाँ का तहाँ रहा।
यह मैं मानूँगा कि अन्तिम दिनों में कुछ कहानियाँ मैं अपने नाम से भी छपा सका पर मेरा उत्साह बैठ गया। यह वह समय था जब मैं अपना नाम पत्र-पत्रिकाओं में छपा हुआ देखना चाहता था। पर मेरे नाम में आकर्षण न था। वही चीज़ कल्पित नाम से छप सकती थी पर मेरे नाम से नहीं। इस तरह चार साल तक सैकड़ों कहानियाँ लिखने पर भी मैं कहानी-लेखक के रूप में अज्ञात रहा।
गृहलक्ष्मी के बाद मैंने 'सरस्वती' में अपना भाग्य आज़माइश करने की कोशिश की। 'सरस्वती' हिन्दी की श्रेष्ठ पत्रिका थी। मौलिक कहानी-लेखक के पनपने की यहाँ और भी सम्भावना नहीं थी। उन दिनों नाम छपा हुआ देखने की लालसा इतनी बढ़ी कि मैंने अनुवाद ही करना शुरू कर दिया। लेखक श्रीनाथ सिंह न सही अनुवादक श्रीनाथ सिंह सही। 'सरस्वती' में मैंने विदेशी विद्वानों की बढ़िया बढ़िया कहानियाँ अनुवाद करके छपवाईं - अनुवादक के रूप में मेरा नाम भी हो चला। एक अमरीकन पादरी दार्जिलिंग से ख़त लिखकर मेरे अनुवादों के लिए मुझे बधाई भेजी। तब मैंने सोचा कि अब मुझे अनुवाद करना बंद कर देना चाहिए। मैंने 'सरस्वती' - संपादक से कहा - 'कृपापूर्वक एक मेरी मौलिक कहानी भी सरस्वती में छाप दीजिये।' उन्होंने कहा "नहीं, नहीं सरस्वती का स्टैंडर्ड मैं गिराना नहीं चाहता। तुमको कौन जानता है? तुम्हारी कहानी कौन पढ़ेगा!" मैं ख़ामोश रह गया।
मैंने फिल्मों, कहानियों, पत्र-पत्रिकाओं के द्वारा इस बीच में योरुपीय समाज का काफ़ी परिचय प्राप्त कर लिया था। उसी अनुभव के सहारे मैंने लंदन-नगर की एक कहानी लिखी। कहानी बिलकुल मेरी अपनी थी और सर्वथा मेरी कल्पना पर आश्रित थी। उसके अंत में मैंने यह वाक्य लगाकर सरस्वती-संपादक को भेंट किया - "अंग्रेजी कहानी के आधार पर।" उन्होंने उसे स्वीकार कर लिया और कहा "तुमने इतना सुन्दर अनुवाद किया है कि यह मौलिक हिंदी रचना जान पड़ती है।" मैंने नम्रतापूर्वक उन्हें धन्यवाद दिया और उदास मुख घर लौटा। उस दिन मैं बराबर यही सोचता रहा कि मौलिक हिन्दी-लेखक की हिन्दी में यह उपेक्षा क्यों है? उसका इतना तिरस्कार और अनादर क्यों है? उसे किसी ओर से कोई प्रोत्साहन क्यों नहीं मिलता? खैर, इस घटना के बाद पंडित देवीदत्त शुक्ल ने 'सरस्वती' में मेरी एक मौलिक कहानी छापी। उससे मुझे कितना प्रोत्साहन मिला यह मैं कह नहीं सकता?
उस दिन मुझे यह निश्चय हो गया कि मैं हिन्दी में कहानी लिख सकता हूँ। अख़बार वाले मेरी कहानी जो छापने से हिचकते हैं वह इसलिए कि मेरा कोई नाम नहीं है। यह ठीक ही है। दुनिया में नाम देखकर चीज़ें छापी जाती हैं। सिर्फ़ हिन्दी ही एक ऐसी भाषा है जहाँ चीज़ नहीं सिर्फ़ नाम देखा जाता है और यही वजह है कि हिन्दी में वही नाम सामने आता है जो वर्षों उपेक्षा की मिट्टी अपने ऊपर से हटा सकता है।
अब वह समय आ गया है जब कितने ही संपादक मुझसे कहानियाँ माँगते हैं। लेकिन दुःख है कि अब लिखने कि वह उमंग नहीं रही। कितने संपादक अब भी समझते हैं कि मैं कहानी नहीं लिख सकता हूँ। पर कहानी-लेखक के रूप में सम्मानित होने की इच्छा अभी दिल से नहीं गई। इसलिए मौक़ा निकाल कर कुछ न कुछ लिखता ही जाता हूँ।
गृहलक्ष्मी और सरस्वती ने ही नहीं और भी कितने ही पत्र-पत्रिकाओं ने इसी तरह मेरे उत्साह की हत्या की है। पर उन सबका ज़िक्र करके मैं इस प्रसंग को लम्बा नहीं करना चाहता। प्रोत्साहन मुझे सिर्फ़ दो पत्र-पत्रिकाओं से मिला है। 'सैनिक' से और 'अर्जुन' से। मेरा ख़याल है कि हिन्दी में यही दो पत्र अपने नवयुवक लेखकों को प्रोत्साहित करते हैं। इस दृष्टि से ये ज़िन्दा पत्र हैं और नवयुवक लेखकों को इनसे निराशा नहीं हो सकती। व्यक्तियों में मुझे सबसे अधिक प्रोत्साहन पूज्य पंडित वेंकटेश नारायण तिवारी से मिला है। किन्तु उन्होंने कहानियाँ नहीं अन्य रचनाओं के लिए मुझे प्रोत्साहित किया है। तिवारी जी के बाद श्रीरामरखसिंह सहगल, श्री पदुमलाल बख़्शी और श्री पुरुषोत्तमदास टंडन का नाम मैं ले सकता हूँ। परन्तु मेरा ख़याल है कि इन लोगों ने मेरी रचनाएँ तब पढ़ीं और उसकी प्रशंसा की जब उन्होंने सोचा कि अब उनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। श्रीरामरखसिंह सहगल का एक पत्र मैंने अपने पास रख छोड़ा है जिसमें उन्होंने लिखा है कि मेरी एक कहानी ने उन्हें इतना व्यथित किया कि वे घंटों रोते रहे।
बाबू पुरुषोत्तमदास टंडन ने एक दिन स्वयं मेरे घर पधार कर कहा - "श्रीनाथ सिंह, मैं तुम्हें धन्यवाद देने आया हूँ। तुम्हारी 'ग़रीबों का स्वर्ग' नामक कहानी मुझे बहुत पसन्द आई।" मैं नहीं कह सकता कि टंडनजी के ये वाक्य सुनकर मुझे कितनी ख़ुशी हुई? उनके एक वाक्य की आँच में हिन्दी वालों का सारा उपेक्षा भाव मुझे भस्म हो गया-सा प्रतीत हुआ।
कुछ लोग अब भी मेरी कहानियों की चर्चा से घबराते हैं। जिनमें जैनी अधिक हैं। कुछ लोग अब भी मेरी कहानियों की उपेक्षा करते चले जाते हैं। पर पिछले दिनों मेरी कहानियों के गुजराती, मराठी और तामिल के अनुवादकों ने मेरे पास जो पत्र भेजे हैं और हिन्दी के पाठकों ने मेरे पास जो पत्र भेजे हैं उनसे मुझे विश्वास ही चला है कि हिन्दी के मुल्लाओं द्वारा अब मेरी उपेक्षा नहीं हो सकती। उनका यह प्रयास अब स्वयं उनके लिए घातक होगा।
इस प्रकार लड़ता झगड़ता मैं हिन्दी का सफ़ल नहीं तो एक असफल कहानी लेखक ज़रूर बन गया हूँ। पर अभी आगे भविष्य उज्वल दिखाई पड़ता है और यह असफलता का अन्धकार टिकता नज़र नहीं आता। मेरे प्रेमियों को इससे अवश्य प्रसन्नता होगी।
(जुलाई, 1940)
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श्रीनाथ सिंह : जन्म 1903 ई. मानपुर, इलाहाबाद में। 'सती पद्मिनी' काव्य-ग्रन्थ 1925 ई. में प्रकाशित। 'उलझन' (1934), 'क्षमा' (1925), 'एकाकिनी' या 'अकेली स्त्री' (1937), 'प्रेम परीक्षा' (1927), 'जागरण' (1937), 'प्रजामण्डल' (1941),'एक और अनेक' (1951), 'अपहृता' (1952) आदि प्रसिद्ध कृतियाँ हैं। कुछ समय तक 'सरस्वती' का संपादन किया। 'बालसखा' व 'दीदी' के भी संपादक रहे।
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