Friday, August 28, 2020

भोजपुरीका वियोगी कवि 'विश्राम' : श्री परमेश्वरीलाल गुप्त


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आयल बाटे सावन क महिनवां मोरे भइया,
रहि-रहि उठे बदरा घनघोर। 

तमसाके उस पार, दूरसे आते हुए करुणासे ओत-प्रोत बिरहे* को सुनकर चलते हुए पाँव ठिठक गए। साथीने कहा - 'कितना सुन्दर गा रहा है!' और हम दोनों सुननेमें तन्मय हो गए :-

उड़ैला    पपीहा   आपन    गितिया   सुनावत;
चलैले     बयार     जियरा     के     लहरावत।
 जोन्हरीके   पात  हिल्ले    मड़ुआ   कै  चोटी;
रहि-रहि   खहरालीं   उखिया   ज मोटी-मोटी।
उड़ैलँ    बकुलवा   जइसे   बेइली  क  गजरा;
बदरा  कै    टुकड़ी    नभवामें    कर   झगरा।
पड़ल बाटै झुलवा वोप्पर झुल्लति बाँटीं नारी;
रहि-रहिके    हिल्ले    वोहो   पेड़वाकै  डारी।
चारों   ओरसे   कजरी   सुनाले   मोरे  भइया;
 जेहि   सुनिके   फाटेला  करेज  मोरे  दइया।
कहैं   'बिसराम'  दुनियाँ  करत  बाय  अराम;
                    नाचत बाटें बनवामें खूब मोर।
राम!   मोरी  रानी   भइलीं  स्वाती  कै  पानी।
                मोर करकैला करेजवा कै कोर।।

- सावनका महीना आया हुआ है। रह-रहकर घनघोर बदल उठ रहे हैं। पपीहा अपना गीत सुनाता उड़ता है। मनमोहक वायु चल रही है, जिससे मक्केके पत्ते और मड़वाकी चोटी हिल रही है; रह-रहकर मोटी ईख खड़खड़ा उठती है। आकाशमें बगुले इस प्रकार उड़ रहे हैं, मानो बेलेके हार हों। (कितनी सुन्दर कल्पना है!) नभमें बादलोंकी सेना युद्ध कर रही है। बागमें झूला पड़ा है, जिसपर स्त्रियाँ झूल रही हैं, जिससे रह-रहकर पेड़की डाली हिल उठती है। चारों ओर कजलीकी ध्वनि सुनाई पड़ रही है, जिसको सुनकर मेरा हृदय फटा जा रहा है। सारा संसार आनन्द कर रहा है और वनमें मोर नाच रहे हैं; किन्तु मेरे मनमें हूक-सी उठ रही है, क्योंकि मेरी रानी तो स्वातीकी बूँद हो चुकी है। 

कितना सुन्दर-सजीव सावनका चित्रण है और साथ ही है वियोगीके हृदयकी मर्मभरी वेदना! गायकके विषयमें जाननेको मन उत्सुक हो उठा। साथीने बतलाया, इन पंक्तियोंका गायक है भोजपुरीका वियोगी कवि 'विश्राम'** एक पतला-दुबला 24 वर्षका अपढ़ ग्रामीण, जिसने अपनी 'सोनेकी-सी रानी' को खोकर पाया है कविता रानीका वरदान। उसीको लेकर तमसा-तटपर बैठा वह अपना मन बहलाया करता है। लोग उसे दीवाना समझते हैं। वह कहता है :-
 
        मोके त  बिपतिया सतावै मोरे दैवा,
गउवाँ  कहे   कि   मेहरबस  हउवै  सार।
बुढ़वा त कहैं, हमरो मरलि बाय मेहरिया,
कबहूँ ना तोरलीं  आपन अइसे सरिरिया।
कहै लँ  जवनका  मेहरी मरे बहुत जग में,
उनकर  मरदवा  नाहीं  रोवें  अइसे मगमें।
इनहीं कै सीता   जनूँ मरलि बाटीं  जगमें,
            इतअ रोवें नित  जरिया बेजार।
एकठे     मेहरियाके    मरतई    बेहँगवा,
       गयल अपनो हिमतिया अइसे हार। 

- मैं तो विपत्तिसे पीड़ित हूँ; मगर गाँववाले समझते हैं कि मैं स्त्रीके वशीभूत हूँ। बुड्ढे कहते हैं कि हमारी भी स्त्रियाँ मरी हैं; पर हमने कभी भी इस प्रकार अपना शरीर नष्ट नहीं किया। युवकोंका कहना है कि संसारमें बहुत-सी पत्नियाँ मरती हैं; पर उनके पति इस तरह रास्तेमें रोया नहीं करते। वे मुझपर व्यंग करते हैं - 'जान पड़ता है, संसारमें एक इसीकी सीता मरी है, जो इस प्रकार रोता है। कायर है, तभी तो एक ही स्त्रीके मरनेसे निराश हो गया है।'

बात कितनी साधारण है;  पर है चुभती हुई। संसारमें कितने ऐसे व्यक्ति हैं, जो पत्नीकी मृत्युपर इस प्रकार क्रन्दन करें? इन पंक्तियों को पढ़कर 'बच्चन' की निम्न-पंक्तियाँ स्मरण हो आती हैं :-
आज मुझसे दूर दुनिया,
हाय कितनी क्रूर दुनिया,
है चिताकी राख करमें माँगती सिन्दूर दुनिया। 
पर हमारा कवि 'दिवंगता श्यामा' के शोकको 'बेदी' के प्रणय में भूल नहीं जाना चाहता। वह कहता है :-
पिताजी कहें, बेटा, करबै बिअहवा दूसर,
                   काहें होल वम्में लवलीन।
एतनी त बतिया नाहीं  जनता मोरे दादा,
         उनकै सूरति मनवामें हौ आसीन।
तूहैं  हउवै  काम  तिलकी  में  लेबै  दाम,
          हमरी दुसरी   नियतियाँ हईं तात!
जनम गँवइबै उनकै नऊँवा हम रटि-रटि,
       दादा, न हो करबै दुसरी कअ बात।
कहैं  'बिसराम'   लखिके   हमराई  काम,
        गउँवा कहै कि करत बाय उत्पात।
हमरा  त दिलवा  सुनगै  अगियाकी  नाईं,
लोगन का हो जनब हमरे दिल कअ बात। 

-पिताजी कहते हैं, उसमें (दिवंगता पत्नीमें) व्यर्थ इतने अनुरक्त हो रहे हो, मैं तुम्हारा दूसरा विवाह कर दूँगा। 
-लेकिन पिताजी, आप यह बात नहीं जानते हैं कि उसकी सूरत मेरे हृदय में आसीन है। आपको तो तिलकमें रुपए लेनेसे मतलब है; लेकिन मैं दूसरी पत्नीकी कल्पना भी नहीं कर सकता। मैं तो उसीके नामको रट-रटकर अपना जीवन समाप्त कर दूँगा। 
-मेरी इस अवस्था को देखकर गाँववाले समझते हैं कि मैं उत्पात कर रहा हूँ; पर मेरे हृदय में तो आग लगी हुई है। गाँववाले मेरे दिलकी बात क्या समझ सकेंगे?

और सचमुच 'विश्राम' अपनी 'सीता' का नाम रट-रटकर  ही जीवन बिता रहा है। होली हो, दीवाली हो, वसंत हो, पावस हो - सब उसको उसकी 'स्वातीकी बूँद बनी रानी' का ही स्मरण कराते हैं। आज दीवाली है, 'विश्राम' गा रहा है :-
आइल बाय दिवाली, जगमें फइललि उजियाली,
                    मोरे मनवामें छवले बाय अन्हार।
जुगुर-जुगुर   दीया  बरे,   होति  बाय  अन्हरिया;
मैं  तो  बइठल  बाटों  अपनी  सूनी रे कोठरिया।
अँचराके    तरे    लेइके     फूल    कै   थरियवा;
गउँवाकै   नारी    बारै    चलति   बाटीं  दियवा।
मोरे    हियमें   उठे    उनके   यादकै   बयरिया;
सिहर-सिहर    मोर   उठे    दुखिया   सरिरिया।
सबके   घरवामें     दियवाकै   बाती   लहराती;
मोरे घरमें पीटति  बाय  अन्हरिया अब्बो छाती।
गाँवकै   जवान    ले    मिठाई     आवैं   घरमें;
देखिके  आपनि  धनियाँ   हरसत   बाटें मनमें।
कहैं  'बिसराम'     हमके     दाना   हौ   हराम,
                 देखि मिठवा कुढ़त हौ जी हमार।
सब   कर   घरनी     घरमें     दियवा   सजावै,
                 मोरे रानी  बिनु  घर  हौ अन्हार।। 
 -दीवाली आई है और संसारमें उजियाली फैली हुई है; किन्तु मेरे मनमें तो अन्धकार ही व्याप्त है। एक ओर रात्रि बढ़ती जा रही है,दूसरी ओर दीपक जगमग-जगमग जल रहे हैं; किन्तु मैं अपनी सूनी कोठरीमें ही बैठा हुआ हूँ। गाँवकी स्त्रियाँ आँचलके नीचे फूलकी थाली लिए दीपक जलाने जा रही है; पर मेरे हृदय में उसकी स्मृति-बयार चल रही है, जिससे मेरा दुखी शरीर सिहर उठता है। सबके घरोंमें दीपकोंकी बत्तियां लहरा रही हैं; पर मेरे घरमें तो अन्धकार भी शोक मना रहा है (छाती पीट रहा है।)  ग्रामके युवक मिठाई लेकर घर आ रहे हैं और अपनी प्रेयसीको देखकर मन-ही-मन प्रसन्न हो रहे हैं; किन्तु मुझे तो खाना तक हराम हो रहा है - मिठाई देखते ही जी जल उठता है। सब लोगोंकी स्त्रियाँ तो घरोंमें दीपक सजा रही हैं; किन्तु मेरा घर रानीके अभावमें अँधेरा पड़ा है!


कितनी मार्मिक वेदना है 'विश्राम' के हृदयमें ! वसन्तको देखते ही वह एक तीखी कसक बनकर प्रकट हो उठती है :-
अइलैं बसन्त,  महक  फइलल बाय दिगन्त,
                  भइया धीरे-धीरे चलैलै बयार।
फुललैं   गुलाब,   फुललीं  उजरी  बेइलिया;
अमवाके   डरियनपर   बोलेलीं  कोइलिया।
बोले   पपीहा   मदमस्त   आपन   बोलिया;
महकिया  लुटावै आम ले बउर कै झोलिया।
उड़ि-उड़ि   भँवरा   कलियन    पै  मड़रालैं;
हउवा  के   सङ॒   मिलीके   पात   लहरालैं।
बढ़ि-बढ़िके   लतवा    पेड़वनसे  लिपटालीं;
उड़ि-उड़ि   खंजन   अपने  देसवाके जालीं।
कहैं   'बिसराम'  कुदरत   भइल   अभिराम,
           चिड़िया गावत बाटीं नदियाके तीर।
चलि-चलि   बतास  उनकै   यदिया   जगावै,
            मोरे   मनवामें   उठति  बाटीं  पीर।
 -वसन्त आया है, चारों ओर सुगन्ध फैली हुई। है वायु मन्द-मन्द चल रही है। गुलाब और श्वेत बेला फूले हुए हैं। आमकी डालपर कोयल कूक रही है। पपीहा मदमस्त होकर अपनी बोली बोल रहा है। आम बौरकी झोली लेकर महक लुटा रहा है। भ्रमर उड़-उड़कर कलियोंपर मँडरा रहे हैं। हवाके संग पत्ते लहरा रहे हैं। लतायें बढ़-बढ़कर पेड़ोंसे लिपट रही हैं। खंजन अपने देश वापस जा रहे हैं और नदीके किनारे पक्षी कलरव कर रहे हैं। इस प्रकार प्रकृति अभिराम-सी हो रही है; किन्तु यह वायु तो रह-रहकर उसकी स्मृति जगा देती है और हृदयमें एक कसक होने लगती है। 

करुणा-मिश्रित यह प्रकृतिका स्वाभाविक चित्रण किस कविके चित्रणसे कम सजीव है? अँधेरी रात और बरसातका मौसम प्रेमीको प्रेयसीके लिए कितना व्याकुल कर देता है, यह 'विश्राम' के दिल से पूछिए। वह कहता है :-

 राति अन्हिअरिया, बाटीं सूनि मोरी सेजरिया,
                    मोरे दिलवामें  उठेला तुफान।
 बोलेलअ    सियार     कुचकुचवा     बहरवाँ;
 रेंउआँ   चिल्लात   बाटें   तालके   किनरवाँ।
उड़ि-उड़ि भगजोगिनी  पिपरन पर मँडरालीं;
नभावासे    टूटिके   तरई   रातमें   बिलालीं।
चलि-चलि   पुरुअवा    पेड़वनके   झकझोरे;
मेघवन   कै    बोली    मोके   चिन्तामें   बोरे।
उमड़ - घुमड़के     बदरा     पानी    बरसावे;
तड़प - तड़पके   मोरा      जियरा   तड़पावे।
आइ - आइ   बउछार   मोर  खटिया भिगोवे;
टूटल     ओसार     मोरा     टुप - टुप    चूवे।
यहि बिच   यदिया  उनकै  अइलीं  अचानक;
           मोरा   मनवा    मसोस   रहि   जाय।
कहैं  'बिसराम'का    बिगड़लीं   तोहरा  राम;
          मोरी  बसली मड़इयाँ  देहला जराय।।

-रात अँधेरी है, पर मेरी शय्या सूनी है। मेरे हृदय में तूफ़ान उठ रहा है। बाहर सियार और उल्लू बोल रहे हैं। तालाबके किनारे झींगुर झंकार कर रहे हैं। पीपलके पेड़पर उड़-उड़कर जुगनू मँडरा रहे हैं। तारे आकाशसे टूट-टूटकर रात्रिमें विलीन हो रहे हैं। पुरवा हवा चलकर पेड़ोंको झकझोर रही है। मेढककी बोली सुनकर मेरा मन चिंतित हो उठता है। बादल उमड़-घुमड़कर पानी बरसाते हैं, साथ ही तड़पकर मेरे जीको भी तड़पाते हैं। बौछार आ-आकर मेरी खाटको भिगो देती है। मेरा टूटा हुआ ओसारा (बरामदा) टप-टप चूता है। ऐसी अवस्थामें अचानक उसकी याद आ गई और मन मसोसकर रह जाता है। हे भगवान ! मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा था कि तुमने मेरे बसे हुए झोपड़ेंको उजाड़ दिया?

प्रकृति कितनी दुःखदायिनी  रही है 'विश्राम'को, यह प्रकृति-निरीक्षक कोई कवि-हृदय ही बता सकता है।

दूर, नदी-किनारे, एक चिता जल रही है। 'विश्राम'के कवि-मनमें हठात उस दिनकी याद आ जाती है, जब उसने इसी नदीके किनारे अपने ही हाथों अपने अरमानोंको जला डाला था। वह कह उठता है :-

नदिया    के   किनारे  एकठे   चिता    धुँधुँआले,
               लुतिया उड़ि-उड़ि  गगनवा में  जाय।
धधकि-धधकि    के    चिता   लकड़ी    जलावे;
लहकि-लहकिके      नदीके     सनवाँ   दिखावे।
चलिके      बतास         अँचियनके      लहरावै;
नदिया   कै    पानी    आपन   देहिंयाँ   हिलावै।
चटकि - चटकिके  चितामें जरति बाय सरिरिया;
ना   जानी कि   पुरुस   जरै   या  जरै  मेहरिया।
चितवातर     बइठल   एकठे     मनई    दुखारी;
अपने     अरमनवनके    डालत    बाटै    जारी।
कहैं    'बिसराम'   लखिके    चितवनकै    काम,
           मोरा   मनवां  हो   जाला   ई    बेकाम।
अइसनै    चिता हो    एक   दिन  हमहूँ जरवलीं; 
         वोहि सङ् फूँकि देहलीं आपन अरमान।

-नदीके किनारे एक चिता धू-धू करके जल रही है और चिनगारी उड़-उड़कर आकाशमें जाती है। धधक-धधककर चिता लकड़ियोंको जला रही हैं और लपटें बढ़-बढ़कर नदीको अपनी शान दिखाती है। वायु चलकर आँचको लहरा देती है। और नदी अपने शरीरको हिला रही है। चितामें चटक-चटककर शरीर जल रहा है। पता नहीं, उसमें नर जल रहा है अथवा नारी। हाँ, इतना अवश्य है कि उसके किनारे बैठा एक दु:खी व्यक्ति अपने अरमानोंकी आहुति दे रहा है। चिताका यह कार्य देखकर मेरा हृदय बेकार हुआ जाता है। एक दिन मैंने भी ऐसी ही चिता प्रज्वलित की थी और उसीमें फूँक दिए थे सारे अरमान।

इन सजल पंक्तियोंको देखकर किसे पन्तकी निम्न पंक्तियाँ स्मरण न हो आयँगी :-
वियोगी होगा पहला कवि,
विरहसे उपजा होगा गान। 
और याद आ जायगी क्रौंच पक्षीकी वह कथा, जिसने वधिक वाल्मीकिको महाकवि वाल्मीकि बना दिया।
कौन कह सकता है, 'विश्राम' किसी महाकविसे कम हैं? उसमें महाकवियों-सी प्रतिभा है, भाव हैं, भावुकता है, कल्पना है और उनके उपयुक्त भाषा। काश, वह पढ़ा-लिखा होता ! फिर भी, इस अवस्थामें ही वह सत्कवियों से कम नहीं है। अन्तर केवल इतना है कि पढ़े-लिखे कवि लोक-प्रसिद्ध हैं और वह तमसाके किनारे बैठा मूक साधना किया करता है।

[ गोपाल-निकेत, आज़मगढ़ ]

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  * पुरुषों द्वारा गाया जानेवाला गान।
** भोजपुरीका यह तरुण गायक आजमगढ़ नगरसे डेढ़ मील दक्षिण-पूरब, तमसाके किनारे जयरामपुर नामक ग्रामका निवासी है। - ले.

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