Saturday, August 15, 2020

पुरुषार्थवती देवी और रामेश्वरी देवी गोयल की कविताएँ

 



पुरुषार्थवती देवी  (1911 - 1931) 


उद्वोधन

उठो !  ललनाओं भारत की। 


मत समझो हा ! हम हैं अबला 

तुम तो शत्रु घातिनी सबला 

शक्ति और साहस में प्रबला 


सुगति विधायिनी भारत की। 

उठो ललनाओं  भारत की।। 


सोचो, समझो, गम्भीर हो 

निज-बल पहचानो धीरा हो 

रक्ष - चंडी  होवो  वीरा  हो


शक्ति दायिनी  भारत  की। 

जगो ललनाओं भारत की।।


भय  शंका   को  दूर भगाओ

कष्ट  जान   के  दूर   हटाओ 

वास्तव में फिर से बन जाओ 


सौख्य प्रदायिनी भारत की। 

आर्य्य ललनाओ भारत की।। 

(मनोरमा, सितंबर 1927)

***


प्रश्न 

सांध्य - गगन  की ललति-लालिमा 
विहँग - वृन्द का  कल रव - वाद। 
शीत, मन्द, शुचि, मलय - प्रभंजन,
किसकी   अहो!    दिलाते   याद?

बाल - सूर्य्य   की   किरण - राशियाँ,
उषा     सुन्दरी      का     वर - वेष।
चपल - सरित का अविरत - भाषण,
देते         क्या       अतीत - सन्देश?

निशा   काल   का   नीरव  गायन,
सुप्त - विश्व     की    मुद्रा - मौन। 
चन्द्र  देव   की   मृदुल   रश्मियाँ,
क्या   कर  देती   हैं,   मैं   कौन?

व्यथित    हृदयतंत्री   झंकृत   कर,
कौन    अहो !    गाता    है    गान?
किस  अतीत  की  याद दिला कर,
बेसुध     कर     देता    अनजान।।

(मनोरमा, दिसंबर 1927)
***

सप्त - स्वर 

प्रकृति - नटी यह  सात रँगों से करती है नित नव श्रृंगार;
सप्त - स्वरों से यह जग- वीणा करती है मुदमय झंकार। 

सूर्य  रूप में  सप्त -रंग ये  करते जग - जीवन - संचार;
सात  वर्ष की  अभिव्यक्ति में  झूल  रहा  सारा संसार। 

उसी सप्त - स्वर - लहरी में मुझको निमग्न हो जाने दो;
विश्व चित्र  के  चतुर  चितेरे   प्रेम -सुधा - रस  पाने दो। 

(सुधा, मई 1928)
***

जीवन नौका 

पथ अज्ञात, कठिन; जीवन - नौका डगमग हो जाती थी;
विश्व - सरित  की   चपल  तरंगों  में  डूबी  उतराती  थी। 

कभी निराशा  की छाया  निज  अंचल से  ढक  लेती थी;
अश्रु - माल इस दग्ध हृदय का क्लेश - ताप हर लेती थी। 

दुखिया  की  इस  दीन   दशा पर  चन्द्र - देव  मुसकाते  थे;
नभ - मंडल से चुए सुधा - कण भी बलि - बलि हो जाते थे। 

तब  भी  इस  मुरझाए मन  में  आश - लहर  लहराती  थी;
भावों  की  मंजुल  आभा  बस  क्षीण  प्रकाश  दिखाती थी। 

अनिल - झकोरों से तम में वह झिलमिल ज्योति विलीन हुई;
मेरी     जीवन - नैया   भी    उस   अंतराल   में   लीन   हुई। 

(सुधा, अक्टूबर  1928)
***

वेदना 

हो सुंदर, सुरभित उपवन, जग को मोहित करता हो;
पर   मेरा सूखा  पतझड़  ही  मुझको  रम्य  बना हो। 

सज्जित गृह - द्वार खड़े हों, करते हों नभ का चुम्बन;
अपनी  सूनी  कुटिया  में  ही  मेरा  ध्यान  लगा  हो। 

बहता हो सुखद समीरण, संचारक प्राण जगत का;
पर मेरी जीवन - लड़ियाँ उसमें भी उलझ रही हों। 

विशदांगन  में  पृथ्वी  के  क्रीड़ा  करते  हों  प्राणी;
पर  मेरा स्थान  कहाँ  है, यह कोई  जान न पावे। 

उपमेय  न हो  कोई  भी, उपमान  न  कोई  मेरा;
मैं भी 'निज' पता न पाऊं, तब जग कैसे पहचाने?

(सुधा, जुलाई 1929)
***

ओ परदेशी !

खट - खटाया    द्वार    मेरा    रात   ने 
क्या  कहूँ  वह रात  या शुभ - प्रात ने। 
जब अचानक तू ने उर - कम्पन किया 
मैंने   देखा  एक   अद्भुत  जग  नया। 

भूलती  थी  मैं,  अज़ब  वह  दृश्य  था 
यदपि  इन  आँखों  से  तू अदृश्य था। 
भर   चुकी  थी  आंसुओं  से  गगन के
यह मही, जिनको  लिए वह यतन से। 

मुसकराती    थी,  घने  अंधकार   में 
व्यक्त  कर  आनंद  इस  व्यापार  में। 
उस  लजीले  नयन  के मृदु - हास में 
देखा तुम्हीं को, थे  तुम्हीं बस पास में। 

स्तब्ध - सी औ' ज्ञान इससे व्यस्त - सी 
रह गयी मैं  चौंककर फिर मस्त - सी। 
मैं   तुम्हें   नहिं  जानती  थी  और  ना -
जानती   थी   है   तुम्हारा  नाम   क्या। 

किन्तु  उसके  बाद, अब तु म तो गए 
पूर्ण  तुमने  कौन - से  थे  स्थल  किये?
दृष्टि  के उस  एक  ही  बस  मूल्य  में
निरत  झरने  बरसते  स्मृति - कूल में। 

(विशाल भारत, अक्टूबर 1937)

[ नोट - श्रीमती पुरुषार्थवती ने यह कविता 4 फ़रवरी सन् 1931 की साँझ को लिखी थी। अपने नाम पर आयी किसी चिट्ठी के ख़ाली भाग पर ये पंक्तियाँ लिखकर वे भूल गयीं कि वह चिट्ठी किधर हो गयी। इसके सिर्फ़ सात ही दिन बाद, 11 फ़रवरी 1931 के प्रात:काल को, उनका स्वर्गवास हो गया। उसके सवा छः साल बाद वह चिट्ठी उनके समान में पायी गयी है।  इस कविता को वे दुबारा देख भी नहीं पायीं।  - सम्पादक, विशाल भारत ]

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रामेश्वरी देवी गोयल  (1911 - 1935)



आशा 

पीड़ा का मूक रूदन बन शर, दुष्टों का रक्त बहाएगा। 
निर्धन प्राणों का आह पुंज, भूतल पर क्रान्ति मचाएगा। 

अत्याचारी  का  प्रबल  वेग, अबलाओं  के आंसू - कण ले,
आरत भारत पर एक बार, विद्युत् - सा बल चमकाएगा। 

देशानुराग का पागलपन, रग रग में फड़काकर धड़कन,
बलि - वेदी पर बलि दे  जीवन, भारत स्वाधीन बनाएगा। 

(सुधा, अक्टूबर 1930)
***

अरे ... इस ओर ...!

भग्न  हृदय   का  स्वप्न - राज़  है,
मुरझाया सुख - सुमन - साज है,
पथिक - रहित पथ शून्य पड़ा है,
                           मिलता      और      न      छोर। 
                           अरे  ...               इस ओर  ... !

भूमि कठिन, कंटकमय अतिशय,
स्मृति में है विस्मृति का विस्मय !
नियति, हास करती, विषाद -तम
                       छाया     है       अति         घोर। 
                       अरे  ...               इस ओर  ... !

टूटी - फूटी    कहीं     कुटी    है,
सुषमा   जिसकी  सभी   लुटी  है,
छुटी सकल ममता जग की, बस 
                       लगे        वहीं          दृग - कोर। 
                       अरे  ...               इस ओर  ... !

अश्रु     निरंतर    नृत्य     रचाते,
झर - झर हृदय - व्यथा बरसाते,
गाते - गाते   राग   अलख    का 
                       करते         रहते            भोर। 
                       अरे  ...             इस ओर  ... !

सिसक रहीं जीवन की घड़ियाँ,
टूट गयीं मानस की कड़ियाँ,
बिखरीं आशाओं की लडियां,
                       आओ      अब       चित -चोर। 
                       अरे  ...             इस ओर  ... !

(सुधा, अप्रैल 1931)
***


आदेश 

...निराली साध !
विकल मानस का राग अगाध ?
अरी मतवाली !
देव - दुर्लभ अनुपम अभिलाष;
विषम उपहास,
नहीं है पीड़ा से खाली !

... निपट अनजान !
वृथा मत कर दिन का अभिमान,
अरी अविचलित !
बनेगा मानस शून्य श्मसान 
छोड़ दे आ  न 
न खो देना निधि यह संचित !

... सुनहला प्यार -
मधुरतम जीवन यह, कटु भार 
बनेगा, भोली !
नवल विकसित कलियों के साथ 
हृदय कर क्षार 
जलेगी प्राणों की होली !

... साधना विमल,
प्राण का है संकल्प, अचल,
लालसा भारी,
किन्तु ठुकराना मत वह क्षार,
प्यार का सार,
अरे ! हे, निष्ठुर व्यापारी। 

(सुधा, अक्टूबर 1932)
***


पागलपन 


सजनि ! है कैसा पागलपन ?

नीरव आँधी   शून्य   गगन में 
मचल  मचल    वह     जाती। 
शुष्क अधर की संचित लाली 
झर  झर   झर  झर    जाती।। 

न रहता है   किंचित् अपनापन,
सजनि ! है यह कैसा पागलपन ?

नयन हठीले   सो सो जाते 
मधुमय   के   मधुवन   में। 
मनभावन आकर खो जाते 
स्वप्नों   की   उलझन    में। 

न    खोने   पाता    यों   सूनापन 
सजनि ! है यह कैसा पागलपन ?

पीड़ामय तन्द्रा में भी, सखि !
याद    उसी     की    आती। 
निठुराई    निर्मम    के   उर 
चुभती, पर  खोज  न  पाती।।

सजनि ! क्या   ऐसा ही है बन्धन?
सजनि ! है यह कैसा पागलपन ?

(सरस्वती, जनवरी 1934)
***

उपालम्भ

तुम्हारी  संजीवन  मुस्कान,  जगा  देती  मद  का  संसार। 
पुलक, भावुक नभ भी अनजान, लुटा देता अपना श्रृंगार।।

लुभा  लेता  तटस्थ  के  प्राण, बिछा  मायावी   मुक्ता - जाल। 
बना देता पागल - सा कौन, व्यथा की अविकल मदिरा ढाल?

श्रमित कलियों का  कोमल गात, ढूंढ़ता व्याकुल हो विश्राम। 
सुला देता सुधांशु निज अंक, बिछा कर शीतलता अभिराम।।

छोड़  जाता  आंसू  कोई -- दुखद - सा  स्वप्न;   दीन नैराश्य। 
पोंछ  लेता  चुम्बन  में  एक,   हँसा  जाता  प्राची  का  हास्य।।

किन्तु   मानस   का  टूटा  तार,  छेदते  र हते  आकुल  प्राण।
स्वप्न - सा खो जाता मतिमान, सुखद जीवन का सुमधुर गान।।

न आने देता पुनः वसन्त, छेड़ कर अपनी आकुल तान। 
ढहा  देता  आशा  के  स्वप्न; बहा  देता  विवेक  नादान !!

(सरस्वती, फ़रवरी 1934)
***

गीत

घन - कण क्यों वसंत नभ छाये?

कौंध रही अलि चंचल दामिनि,
उमड़ - घुमड़ दल बादल छाये,
काँप   रही   आतुर   शैवालिनी;
पिय - बिछोह  की  धुनी रमाये। 

तुमुल द्वंद्व से श्रान्त, व्यथित, चल 
ज्यों ही सखि मधु - बाल सुलाये
गरज  पड़े   निष्ठुर  सोये  नभ -
कड़क - तड़क सुकुमार जगाये। 

प्रलय  प्रभंजन   से  टकरा  अलि,
गृह - विहीन, अरु प्रिय विलगाये -
बिखर गये, आकुल, अति निष्प्रभ 
मिटे   प्रीति   की   रीति  निभाये। 

क्यों घन - कण  वसंत नभ छाये?

(सरस्वती, सितम्बर 1934)
***

उस पार 

अ       ह:     ह:    ह: ................ !

उस पार जाना चाहते हो, पथिक ! .....

यह गठरी ले कर    ................ ?
इस गम्भीर - अथाह जल - प्रवाह को पार करना चाहते हो, ........ हँसते - हँसते ? ........... स्मृति की छाया में ? ...... और; --- यह भेंट लेकर स्नेहाकांक्षा में ? .......

नादान पथिक ! ठहरो, ---    लौ   .........  ट      जाओ सुकुमार ........

यह क्या    ...........? ममत्व की अपेक्षा, उत्सर्ग का निश्चय कर आगे बढ़ना --- तुम्हारा प्रेमी निर्म्मोही है। 

कामना, प्रेम - जनित अभिलाषा, प्रत्याशा और अपने धन को वहीं छोड़ आना --- तुम केवल फ़क़ीर बन कर उसके पास पहुँच सकते हो  --- वह तो योगी है। 

क्या तुम्हें विश्वास है कि मार्ग की कोई भी कठिनाई --- भयंकर झंझा, मृत्युवाहिनी भँवर, --- विकराल अन्धकार, जीवन - नैराश्य, तथा अनन्त संताप --- तुम्हें विचलित न कर सकेंगे? .......

क्या तुम ढृढ़तापूर्वक कह सकते हो कि तुम्हारे पास तुम्हारा कुछ भी नहीं है? यदि हाँ तो तुम सच्चे प्रेमी हो ---

पथिक ! उस पार मिलन नहीं है --- वहां है आत्मविसर्जन   ..............  चलोगे?


(सरस्वती, मई 1934)
***

गद्य - काव्य 

उसका हृदय अनेक आघातों से पीड़ित था - वे सभी अपनी छाप छोड़ गए थे।  अपने जर्जर प्राणों को सहानुभूति की आशा से वहाँ सँभाल रही थी।  किन्तु व्यथा से बेसुध, संताप से विकल और दुराशाओं से पीड़ित वह जीवन का छोर छूने का प्रयत्न कर रही थी। 

तुम आये  ....... , शरीर में कंपकंपी फ़ैल गयी - उसने आँखें खोलीं और मुस्करा दिया। 

तुम भूल गये -

चमचमाती रजनी के जगमग प्रकाश में तुमने केवल उसका स्मित अधर ही देखा ....... !

पल भर की इस सफलता पर वह प्रसन्न थी। इतनी कठोर यन्त्रणा पर वह विजय पा सकी ! क्षितिज ने भी मुस्करा दिया। 

............पर रोग असाध्य था। 

काल का कौतूहल बढ़ता ही गया।  क्षण क्षण के हृत्कम्पन एक भयानक आघात पहुँचाते।  वे इनी - गिनी श्वासें भी क्षण में विलीन होने वाले जीवन की शत्रु बन बैठीं। उसकी तड़फ देखकर हृदय सिहर उठता था। पर उस पीड़ा को बांटने वाला था ही कौन?

तुमने उसकी नाड़ी थाम ली। उसने आँखें बंद कर लीं। तुम्हारी स्नेह - पूर्ण थपकियों से कदाचित् कुछ आराम मिला - तुम्हारा हृदय आनन्द से विभोर हो गया - जीवन की कुछ आशा बंधी। 

.............एक बार उसने फिर आँख खोली - तुमने सोचा, वह कुछ कह रही है - उसकी पुतलियों को देखकर तुम रो क्यों उठे? क्या उनमें तुम्हारा चित्र न था?

उसने मुस्कराने की चेष्टा की, पर अधर खुलकर रह गए।  उसकी आँखों से दो आंसू चू गए।  उन्हीं में उसके हृदय का, प्राणों का और असफल जीवन का रहस्य था !

(सरस्वती, मार्च 1935)
***


स्वप्न 

(हमें यह लिखते हुए दुःख होता है कि सरस्वती की इन होनहार लेखिका श्रीमती रामेश्वरी देवी गुप्त, एम.ए. का प्रसूति - ज्वर से असमय में ही स्वर्गवास हो गया। अपनी मृत्यु से कुछ दिन पूर्व आपने एक गद्य गीत लिखा था उसे हम यहाँ प्रकाशित करते हैं।  - संपादक, सरस्वती




प्रियतम का मुक्त द्वार था - न कोई प्रहरी न द्वारपाल। मैंने स्वच्छन्दता-पूर्वक उसमें प्रवेश किया।  असंख्य तारों की शीतल चन्द्रिका में अगणित पथ दिखाई दिये - मैं चलते चलते थक गई। ढूंढ़ते ढूंढ़ते विकल हो गई, पर उस प्रासाद के स्वामी का पता न था। 

रजत - रश्मियों की मुस्कान धूमिल हो गई। रजनी ने अपना विस्तृत प्रसार समेटा। और काले मेघों ने वक्ररूप धारण कर लिया। श्रान्त गात, आहत-सा गिर पड़ा - हताश हो मन ने श्रृंखलायें तोड़ दीं। अचेत शरीर में हृत्कम्पन का वेग बढ़ गया - जीवन का काल मन्द नाड़ी छू गया - किन्तु टिमटिमाते दीपक की अन्तिम लपटों की भांति नयनों में ज्योति घूम गई। प्रतीक्षा के उस नन्हें पल में जीवन भर का सम्पूर्ण उत्साह छलक गया - अमिट आशा भर गई। 

अदम्य उत्सुकता से द्वार की ओर देखा - वह मेरे पास था .............. ! !

सब आश्चर्य्य में थे - प्रफुल्ल हो हृदय-गति की परीक्षा की। वह निस्पन्द थी। नाड़ी की गति रूक गई - जीवन का अमर प्रसाद पा आत्मा मुक्त हो गई। 

किन्तु जीवन का स्वप्न टूट गया। आभा बिखर गई - निखरे हुए युगल रत्नों के समान वे नेत्र खुले रह गए - कदाचित् अभी वे अतृप्त ही अपलक दृष्टि से तृष्णा बुझा रहे हैं ! अथवा अपनी सहज सफलता पर अविश्वास कर निर्निमेष दृष्टि गड़ाये प्रियतम का आह्वान कर रहे हैं !!

(सरस्वती, जनवरी 1936) 

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प्रस्तुति : सुजीत कुमार सिंह 

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