'विशाल भारत' के सितम्बरके अंकमें श्री परमेश्वरीलाल गुप्तने अपने पड़ोसके एक अपढ़ कवि विश्रामकी कविताओं (विरहों) पर एक लेख लिखा था। मैंने इस कविके बारेमें कुछ और जाननेके लिए उनको लिखा, जिसके उत्तरमें उन्होंने यह भी लिखा -
"विश्रामके (न) पढ़े-लिखे होनेसे मेरा तात्पर्य अक्षर-ज्ञानसे था। इस प्रदेशमें विश्राम-सरीखे न जाने कितने कवियोंने ऐसे विरहे लिखे हैं, जो किसी भी महाकविकी रचनाओंसे टक्कर ले सकते हैं। पर वे सब अज्ञात और उपेक्षित हैं। इस विषयमें मैं थोड़ा प्रयत्न कर रहा हूँ। 'शुकदूत', 'दयाराम', 'वनजरवा', 'चनैनी' सरीखे कुछ काव्य और महाकाव्योंका पता लगता है, जो विरहियोंकी जिह्वापर हैं। और उन्हें प्रकाशित कौन करेगा?"
परमेश्वरी बाबूके इस पत्रने कई प्रश्न हमारे सामने रखे हैं : हिन्दी-साहित्यके सम्बन्ध में नहीं, मातृभाषाओंके साहित्के बारेमें। काशिका (बनारस सम्पूर्ण तथा मिर्ज़ापुर, जौनपुर, आजमगढ़के कितने ही भागोंमें बोली जानेवाली भाषा), भोजपुरी, अवधी, बुन्देलखंडी आदि भाषाओंको ग्रामीण भाषा कहना बतलाता है कि लोग इनकी अहमियतको नहीं समझते। ग्रामीण भाषाका अर्थ है असभ्य, असंस्कृत, फूहड़ अथवा दयापात्र भिक्षुक भाषा। जिस वक़्त सिर्फ़ अपनी ही भाषा बोल-समझ सकनेवाले इन प्रान्तोंके किसी आदमीको देखते हैं, तो हमारे शिक्षितोंके मनमें यही भाव पैदा होता है।
वह भूल जाते हैं कि यह भाषाएँ मृत नहीं, जीवित हैं। यह अधिकार-च्युत हैं। शोषकोंको हटाकर आज जनताको अधिकार प्राप्त हो जाने दीजिए, फिर देखिए कि कल ही यह भाषाएँ कितनी नागर, सभ्य और ललित दिखाई देने लगती हैं। जनताकी राजनीतिक परतन्त्रताको जो लोग सनातन - त्रिकालव्यापी - मानते हैं, वे निराशावादी हैं। हमारी निराशावादिता समझती है कि यह भाषाएँ मरने जा रही हैं, इसलिए जल्दी करनी चाहिए। मूल कारणोंके बारेमें माथापच्ची न करके जो रतन चुन लिए जा सकें, उन्हें चुन लेना चाहिए। संग्रहके लिए जल्दी करना ज़रूरी है। सुस्ती किसी काममें नहीं होनी चाहिए; मगर यह ख़याल करके नहीं कि यह भाषाएँ मरने जा रही हैं।
इन भाषाओं का समय आ रहा है। इनकी सहायताके बिना शत-प्रतिशत जनता दस-पाँच वर्षोंमें साक्षर-शिक्षित नहीं हो सकती। कोई स्वतन्त्र समझदार जाति पराई भाषामें आजके ज्ञान-विज्ञानको प्राप्त करनेकी चेष्टा नहीं करेगी। हिन्दी भी हममें से अधिकोंकी मातृभाषा नहीं, सीखी हुई भाषा है, और ऐसी सीखी हुई कि चौदह वर्ष लगानेपर भी कितने ही बिहारी हिन्दीके व्याकरणपर अधिकार प्राप्त नहीं कर सकते।
एक भाषा-भाषी जनताको एक प्रान्त या प्रजातन्त्र न बनने दिया जाय, जिसमें आन्तरिक झगड़े बरकरार रहें। नहीं, यह हर्गिज़ नहीं होने जा रहा। भारत और संसारका अबकी बार स्वतन्त्र होना इन भाषाओंके लिए भी कुछ मतलब रखता है, और वह यह कि इनके स्वतन्त्र अस्तित्त्वको स्वीकार किया जाय - मल्ली (भोजपुरी) - भाषा-भाषी आरा-छपरा-मोतिहारी-बलिया ज़िलोंके सम्पूर्ण तथा गोरखपुर-आज़मगढ़-गाज़ीपुर ज़िलोंके कितने ही भागोंको मिलाकर एक अलग मल्ल-प्रजातन्त्र क़ायम किया जाय। काशिका (बनारसी) भाषा-भाषी बनारस आदि ज़िलोंको मिलाकर काशी-प्रजातन्त्र क़ायम किया जाय।
फिर सवाल होता है हिन्दीका। हिन्दीको हम अन्तर्प्रान्तीय भाषा मान सकते हैं; पर वह हमारी मातृभाषा नहीं है। उसे कभी किसी भी मातृभाषाको मारकर पूतना बननेका अधिकार नहीं है। हिन्दी-भाषाको शिक्षितकी कसौटी बनाना ग़लत है।मातृभाषाओं के अधिकारको स्वीकार कर लेनेपर भी जनता-युग में हिन्दीको क्षति नहीं पहुँचेगी, उसके अनेक साहित्यिक तब भी दूसरे भाषा-क्षेत्रोंमें पैदा होते रहेंगे। और यदि क्षति हो भी, तो हमें जनताके साकार लाभको देखना है।
गुप्तजीने विश्राम-जैसे कितने ही विस्मृत कवियोंका ख़याल करके बहुत खेद प्रकट किया है। मगर यहाँ यह समझनेकी ग़लती नहीं करनी चाहिए कि इन विस्मृत कवियोंकी कविताएँ अकारथ गईं। यदि उनकी कविता वास्तविक कविता रही है, तो उसने अनेक हृदयोंको झंकृत किया होगा, जिसके परिणामस्वरूप ही नए विश्राम पैदा होते रहेंगे। जिस अनामिका कविता-स्रोतने विश्रामको पैदा किया, वह सूखा नहीं है। विश्राम-जैसे कवियोंको पैदा करनेवाली भाषा बन्ध्या नहीं हो सकती।
मातृभाषाके उत्साही सेवकोंसे मैं कहूँगा कि वे अपनेको अनाथ न समझें। भविष्य उनके ही हाथोंमें है। संग्रहका काम बहुत मुश्किल है। संग्रह करके उसकी दो-दो प्रतियाँ लिखी जा सकती हैं - प्रति तैयार करनेमें उस विषयके विशेष जानकारोंके सलाह-परामर्शसे भी फ़ायदा उठाया जा सकता है।
[ पटना ]
राहुल जी हिंदी वालों ने ठीक से पढ़ा ही नहीं। और जिन्होंने पढ़ा भी होगा वे भाषिक साम्राज्यवाद से अपनी उन्नति में लगे रहे, मातृभाषा के सवालों को कुचलते हुए । राहुल जी जितने साहित्य में प्रगतिशील है उससे अधिक ही भाषा के मामले में। आपने उनके मातृभाषा संबंधित विचारों को तरजीह दी इसके लिए भी आपको भी धन्यवाद बनता है। सुजीत भैया जिन्दाबाद 😊
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