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Wednesday, July 22, 2020

किसान आंदोलन की साहित्यिक जमीन : विउपनिवेशित-वैकल्पिक परिप्रेक्ष्य की खोज


डाॅ. नीलेश कुमार



एक रचनाकार से 'रचना' की मौलिकता की माँग जितनी जायज है, उतनी ही जायज माँग एक आलोचक से 'आलोचना' की मौलिकता से है। पर इन दिनों 'आलोचना' और 'समीक्षा' की मौलिकता संदेह के साये में ज्यादा रहना पसंद करती है। आज की हिन्दी आलोचना 'समीक्षा-संग्रह'  की प्रवृत्ति का शिकार ज्यादा लगती है। अच्छी समीक्षाओं का संग्रह भी महत्त्वपूर्ण होता है, बशर्ते उसमें नवीनता और निरन्तरता मौजूद हों। लेकिन संग्रह में  लिखे का दुःख और उसका विलाप ज्यादा दिखलाई पड़ता है उसके हर्ष का हिस्सा बहुत कम।

कविता, कहानी,उपन्यास आदि की कुछ प्रवृत्तिगत विशेषताओं के सहारे आलोचना को प्रस्तुत किया जाता है। वे समय और उसके परिवर्तन को महसूस नहीं करते, बस समय को परिवर्तित करने में लगे रहते हैं। लेकिन कुछ आलोचक और उनकी आलोचना न केवल समय और उसके परिवर्तन को महसूस करती है वरन् उसके द्वारा अपने समय और उसमें आये परिवर्तन की गहरी शिनाख्त भी करती है। निराशा से भरे समय में उनका प्रयास सामर्थ्य से भरा होता है। सामर्थ्य से भरा ऐसा ही एक प्रयास रामाज्ञा शशिधर की किताब 'किसान आंदोलन की साहित्यिक जमीन' है।



आजादी के इतने वर्ष बीत जाने के बावजूद हम अपनी बुनियादी जरूरतों भोजन, वस्त्र, आवास, स्वास्थ्य, शिक्षा को नहीं पा सके हैं तो स्वतंत्रता की बात बेईमानी ही है। आज भी 'फटा सुथन्ना पहने राष्ट्रगान' को गाने वालों की नियति 'रामदास' वाली ही है। आज जरूरत है हमें प्रतिरोध की भाषा एवं प्रतिरोध की दिशा को संगठित एवं  सुव्यवस्थित कर ‘प्रतिरोध की पुनर्रचना’ करने की। ऐसा इसलिए भी जरूरी है कि
"भारतीय समाज गहरे भँवर में फँस चुका है। भारतीय खेतिहर आबादी की अस्मिता और अस्तित्व उसके प्रकृति और संस्कृति से निर्मित सतत संबंध, जल, जंगल, जमीन-सब कुछ दाँव पर है।" 
जबकि श्रमिक वर्ग का बड़ा हिस्सा असंगठित क्षेत्र के मजदूरों एवं किसानों का है और अंग्रेजी साम्राज्यवाद से लेकर अमेरिकी साम्राज्यवाद तक सबने औपनिवेशीकरण की प्रक्रिया के तहत इसे ही सबसे ज्यादा नुकसान पहुँचाया है। दूसरी तरफ इन शक्तियों के खिलाफ सर्वाधिक प्रतिरोध के स्वर इन्हीं मजदूरों एवं किसानों के यहाँ से आई है। चाहे वर्तमान में पास्को, वेदांता के खिलाफ आदिवासियों का प्रतिरोध हो या फिर स्वाधीनता संग्राम के समय अंग्रेजी राज के खिलाफ किसानों का संगठित प्रतिरोध। दरअसल, इन साम्राज्यवादी शक्तियों के अधीन सिर्फ हमारी भौगोलिक सीमा ही नहीं रही, इन्होंने 'हमारी भाषा, स्मृति और कल्पना’ को भी 'औपनिवेशिक वर्चस्व' के साये में रखा है।

'औपनिवेशिक वर्चस्व' के साये में अब धूप की सर्वाधिक जरूरत है। और ये धूप किसानों-मजदूरों के संगठित प्रतिरोध की जमीन से ही आयेगी। इस जमीन की एक ठोस वैचारिक पृष्ठभूमि की आवश्यकता है और बतौर लेखक-
"यह किताब इस दिशा में केवल पारिभाषिक लफ्फाजी न होकर एक ठोस सांस्कृतिक-वैचारिक जमीन देने की शुरूआती पहल है।" 
'किसान आंदोलन की साहित्यिक जमीन' किताब, भूमिका सहित छह अध्यायों में विभक्त है और प्रत्येक अध्याय, कई-कई उप-अध्यायों में। अध्याय विभाजन नामवर सिंह की किताब 'छायावाद' के अध्याय विभाजन की याद दिलाता है जहाँ नामवर जी ने अध्याय का नामकरण छायावाद की प्रवृत्तिगत विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए किया है। यहाँ भी आपको वर्गीकरण का वह रूप दिखलाई पड़ेगा। कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं - चौथा अध्याय 'मुक्ति का सामाजिक-सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य' है, उसके उप-अध्याय को देखिए - (1) साँझ जमींदारन के सेज (2) पकड़ि पकड़ि बेगार करावत (3) गाजी मियाँ मुर्गा माँगे (4) गाँवे-गाँवे संगठनमा। इस वर्गीकरण को प्रवृत्तिगत विशेषताओं और खामियों के उभार को सामने लाने के सार्थक प्रसास के रूप में देखा जाना चाहिए।


डॉ.रामाज्ञा शशिधर 

यह किताब किसान आंदोलन और उसको मिलने वाली वैचारिक ऊष्मा की जमीन की खोज करती है। साथ ही आंदोलन के समय निर्मित होने वाली कविता के स्वरूप को सामने लाती है। इस कविता को लेखक हिन्दी कविता की परम्परा में अलग पहचान के साथ 'किसान कविता' कहकर संबोधित करता है। इस संबोधन में हिन्दी आलोचना के रूख पर एक प्रश्न-चिह्न  भी है, जिसने 'किसान कविता' को परिदृश्य से बाहर रखा भी और देखा भी :
"जैसे प्रभुत्त्वशाली सत्ता के लिए किसान वर्ग 'अन्य' है ठीक वैसे ही वर्चस्वमूलक हिन्दी आलोचना के लिए किसान कविता 'अन्य' रही है।" 
 प्रभुत्त्व और वर्चस्व की संस्कृति हमेशा प्रतिरोध की शक्ति को तोड़ने का प्रयास करती है या फिर नजरअंदाज करते हुए आगे चलती है -
"किसान आंदोलन और किसान कविता दोनों ऐसी 'सांस्कृतिक संरचना और रचना' है जहाँ मुख्यधारा के 'प्रभुत्व और वर्चस्व' को चुनौती देनेवाले प्रतिरोध और मुक्ति के भरपूर यूटोपियन मसौदे मौजूद हैं।"
प्रभुत्त्व और वर्चस्व को चुनौती देने वाले प्रतिरोध और मुक्ति के स्वर को 'हिन्दी क्षेत्र में किसान आंदोलन' वाले अध्याय में देखा जा सकता है। इसमें स्वाधीनता संग्राम में किसानों की भूमिका का विस्तार से जिक्र है। राजस्थान, अवध, चम्पारण क्षेत्र में चल रहे किसान आंदोलन के बहाने सम्पूर्ण हिन्दी प्रदेश में चलने वाले आन्दोलन के केन्द्र में किसानों की केन्द्रीय भूमिका को चिह्नित किया गया है। स्वाधीनता आंदोलन की केन्द्रीय भूमिका को भी रेखांकित किया गया है।

स्वाधीनता आंदोलन के समय किसानों की लड़ाई दो-तरफा थी, एक तरफ ब्रिटिश साम्राज्यवाद से तो दूसरी तरफ भारतीय सामंतवाद से। भारतीय सामंतवाद का सर्वोच्च और क्रूर रूप जमींदारों के यहाँ थी -
"औपनिवेशिक जमींदारी एक राजसत्ता के भीतर दूसरी राजसत्ता थी। सामंती शक्तियों का साम्राज्यवाद और कांग्रेस से संबंध था। जमींदार और उसका अमला तंत्र ऐय्याश प्रभुवर्ग था जो किसान समुदाय के आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक शोषण से निचोड़े गए रस का भरपूर भोग करता था। जमींदार वर्ग  राज्य की रचना था। इसलिए वह राजभक्त और देशद्रोही था। वह विक्टोरियन नैतिकता का समर्थक था।" 
जमींदारों की सामंती क्रूरता और विक्टोरियन नैतिकता के फ्यूजन को किसान आंदोलन ने चुनौती पेश की और "इन संगठनों के प्रति किसानों में घृणा और प्रतिरोध की चेतना का विस्तार किया।" किसान आंदोलन ने अपने संगठित प्रयास से औपनिवेशिक शक्ति के देशी आधार सामंतवाद को वर्गीय प्रतिरोधी चेतना के आधार पर चुनौती दी। इस चुनौती का एक सिरा सामंतवाद के खिलाफ वर्ग मुक्ति का था तो दूसरा सिरा साम्राज्यवाद के विरूद्ध राष्ट्रीय मुक्ति का। मुक्ति के इन प्रयासों को 'किसान कविता' के स्वरूप में देखा जा सकता है।

'किसान कविता का स्वरूप' इस किताब का सबसे महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। किसान कविता के स्वरूप निर्धारण में किसान कविता की परम्परा, किसान कविता की वैचारिकी, किसान कविता की पृष्ठभूमि के साथ आजादी के दौर में किसान कविता की उपस्थिति और उसके प्रभाव को विश्लेषित किया गया है। किसान कविता की अवधारण को व्याख्यायित करते हुए लेखक कहता है
"किसान कविता एक व्यापक अवधारणा है जिसमें किसानों या किसान कवियों के द्वारा रचे गए जनगीत, लोकगीत और काव्य के अतिरिक्त किसान जीवन से सहानुभूति रखने वाले कवियों की कविता भी शामिल हो सकती है तथा किसी अन्य विषय वस्तु पर रचित कविता का एक हिस्सा भी हो सकती है। अपने स्वायत्त एवं अधीनस्थ दोनों रूपों में किसान कविता किसान चेतना के अनुभव, उमंग, शोषण एवं स्वप्न के प्रतिरोध की अभिव्यक्ति है।"
किसान कविता की यह अवधारणा एकांगी न होकर व्यापक परिप्रेक्ष्य को अपने में समेटे हुए है।

किसान कविता के स्वरूप  निर्धारण वाले अध्याय में अपनी परम्परा में किसान और उससे जुड़ी कविताओं की उपस्थिति का इतिहास है। इसमें परम्परा के निषेध का स्वर न होकर उसके सकारात्मक निषेध का स्वर है। किसान और उसके जीवन का एक बड़ा हिस्सा लोक से संबद्ध होता है। लोकसंबद्धता से लेकर दस्तावेजों तक में सिमटे किसान कविता के व्यापक प्रसार को दूसरे अध्याय में विश्लेषित किया गया है। घाघ, डाक और भड्डरी से लेकर आजादी के समय निकलने वाले विभिन्न समाचार-पत्रों में फैले किसान मन के गीत, जो जनगीत, लोकगीत के रूप में अपनी व्यापक सर्वस्वीकार्यता को लिये हुए है, का गहरे आलोचनात्मक विवेक के माध्यम से लेखक व्याख्यायित करता है।

हिन्दी प्रदेश में आजादी की लड़ाई, किसान संगठन और तत्कालीन समाचार पत्र-पत्रिकाओं की भूमिका पर विस्तार से बात करते हुए लेखक किसान आंदोलन और कविता की गहरी संबद्धता की ओर इशारा करते हुए कहता है-
"1917 से 47 के बीच बिहार, राजस्थान और युक्त-प्रांत में चले विभिन्न किसान आंदोलनों से हिन्दी कविता का गहरा संबंध रहा। आंदोलन और कविता दोनों ने एक-दूसरे के निर्माण, विकास, विस्तार और रचनात्मक भूमिका तय करने में प्रेरणा और प्रभाव का काम किया।"

'मुक्ति का आर्थिक-राजनीतिक परिप्रेक्ष्य' और 'मुक्ति का सामाजिक-सांस्कृतिक प्ररिप्रेक्ष्य' आंदोलन के निर्माण और विस्तार के बीच की रचनात्मकता के सहारे मुक्ति के आर्थिक-राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक विकल्प की तलाश है। हिन्दी क्षेत्र में औपनिवेशिक तथा सामंती प्रभुत्त्व का आधार किसानों का आर्थिक लूट और राजनीतिक गुलामी था। इसलिए किसान कविता ने आर्थिक शोषण और राजनीतिक परवशता से मुक्ति का व्यापक आख्यान रचा। आख्यान के इस प्रक्रिया में उसने बेदखली, नजराना, कर्ज, सूदखोरी, लगान जैसे शोषणकारी प्रक्रिया का जबरदस्त विरोध किया। इस विरोध में सर्वाधिक उग्र स्वर देशी सामंतवाद के खिलाफ था क्योंकि औपनिवेशिक सत्ता का आर्थिक-सामाजिक आधार प्राथमिक स्तर पर यही सामंती ढाँचा था। इसीलिए अपनी मुक्ति के आर्थिक-राजनीतिक प्रश्न को लेकर जब किसान सामने आये तो उन्होंने सबसे पहले स्थायी बंदोबस्ती,अस्थाई बंदोबस्त और जागीरदारी प्रथा का तीखा प्रतिवाद किया। किसान आंदोलन के संगठित स्वरूप और विस्तार ने आजादी के आंदोलन की दिशा को भी प्रभावित किया। इस प्रभाव ने केवल मुक्ति के स्वप्न की आकांक्षा को ही नहीं वरन् उसके रूपांतरण की दशा और दिशा भी तय की, साथ ही 'जनराष्ट्रवाद' जैसे हथियार की खोज भी जिसका उपयोग साम्राज्यवादी-सामंती शक्तियों को उखाड़ फेंकने के लिए किया गया।

'मुक्ति का सामाजिक-सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य' गहरे रूप से 'मुक्ति के आर्थिक-राजनीतिक परिप्रेक्ष्य' से जुड़ा होता है। आर्थिक-राजनीतिक मुक्ति का अगला चरण सामाजिक-सांस्कृतिक मुक्ति के प्रश्न पर जाकर खत्म होता है। मुक्ति का संबंध, साम्राज्यवादी-सामंती शक्तियों के व्यापक चंगुल से मुक्ति का है। किसान आंदोलन ने आर्थिक-राजनीतिक मुक्ति के प्रश्न के साथ सामाजिक-सांस्कृतिक मुक्ति के विकल्प को भी प्रस्तुत किया। इसका सबसे बड़ा उदाहरण किसान आंदोलन के भीतर श्रमशील स्त्रियों की मौजूदगी है।

राजस्थान से बिहार तक फैले उत्तर भारत के किसान आंदोलन के गीतों और कविताओं में स्त्री-शोषण के प्रश्न के साथ इससे मुक्ति के सवाल प्रमुखता से आये हैं। राजपूताने, बिजोलिया के किसानों और मगध के किसानों की लड़ाई में स्त्रियों की गहरी संबद्धता रही है। शारीरिक- मानसिक शोषण के साथ श्रम-संबंधी शोषण का शिकार अधिकांश मजदूर स्त्रियाँ हुआ करती थीं। इस शोषण का प्रतिकार स्त्रियों ने संगठित रुप से किया है और इसके कई उदाहरण मौजूद हैं। सामाजिक-सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य का सबसे महत्त्वपूर्ण पक्ष यह रहा है कि
"किसान आंदोलन की तत्कालीन राजनीतिक विचारधारा से इस मुद्दे पर अग्रगामी है कि वह वर्ग संघर्ष और वर्ण संघर्ष का एक ही सांस्कृतिक मोर्चे पर हल करना चाहती है।" 
इस प्रक्रिया में संगठित-असंगठित दोनों प्रकार के किसानों ने व्यापक संगठन के निर्माण का कार्य किया। संगठन निर्माण और इसके प्रसार ने किसान आंदोलन के संगठित प्रतिरोधी चेतना को विस्तार दिया, साथ ही 'सौन्दर्य मूल्य निर्मित' करने का कार्य भी किया।

अंतिम अध्याय 'कला की राजनीति' शीर्षक से है। 'कला और लोकप्रियता का द्वंद', 'रूप की धरती', 'भाषा का यथार्थ', 'अन्य का रूपक' और 'मिथक की विचारधारा' उपशीर्षक के जरिये साहित्य के भीतर 'कला की राजनीति' को सामने लाने का प्रयास लेखक करता है :
"साहित्य के भीतर कला और लोकप्रियता का प्रश्न हमेशा से अनिवार्य विचारधारात्मक प्रश्न रहा है। ...कविता में कला और लोकप्रियता का प्रश्न एक ही सिक्के के दोनों पहुलओं जैसा है। कलात्मकता और लोकप्रियता दोनों अविभाज्य, सहजात और अंतर्गठित सृजनात्मक उपलब्धियाँ हैं।" 
उपलब्धियों का यह रूप संघर्ष की नई अंतर्वस्तु, नए रूप और नई भाषिक संरचना की माँग करता है, जबकि इन उपब्धियों की श्रेणीबद्धता की माँग या फिर उपलब्धियों को विभाजित कर देखने की प्रवृत्ति, वस्तुतः इसके स्वरुप और पहचान को धूमिल करने का प्रयास भर है, ये प्रयास कई स्तरों पर होता आ रहा है। इन्हीं स्तरीकरण के कारण किसान कविता की संरचनागत और विचारधारात्मक निर्धारण का कोई रूप नहीं बन पाया। जबकि "किसान कविता की कलात्मकता और लोकप्रियता के निर्धारण में किसान आंदोलन के स्वरूप, संरचना और लोकप्रियता की गहरी भूमिका है।" इस भूमिका ने किसान कविता के व्यापक आधार क्षे़त्र को निर्मित किया है, जहाँ से चलकर कविता ने साम्राज्यवाद और सामंतवाद का कड़ा प्रतिवाद किया। वर्गमुक्ति और राष्ट्रमुक्ति के प्रयास के साथ-साथ किसान-मजदूर वर्ग की चेतना को गहरे स्तर तक प्रभावित किया।

किसान कविता के रूप, उसकी भाषा एवं उसके मिथकों के निर्माण में लिखित और मौखिक दोनों प्रकार की रचनाओं की भूमिका रही है। क्योंकि इस कविता का एक हिस्सा लिखित है तो एक हिस्सा मौखिक रचनाओं का भी है जो चली आती परम्परा से किसान कविता के पास पहुँची है। विभिन्न बोलियों यथा अवधी, भोजपुरी, मगही, मैथिली, बुंदेली, ब्रज, राजस्थानी आदि में फैली लिखित और मौखिक रचनाओं के व्यापक हिस्से ने किसान कविता के स्वरूप को निर्मित किया है। इसलिए इस कविता में किसानों-मजदूरों के मन के गीत बहुत संख्या में मिलते हैं, ये गीत उस व्यापक अनुभव लोक की संवेदना और सौन्दर्यबोध का संवहन करती है जो संघर्ष के समय में उनके कण्ठों से फूटती है -
"किसान कविता की भाषिक संरचना सामूहिकता, लयबद्धता, लोकधर्मिता और सामाजिकता से लैस है। इसका कारण किसान समुदाय का मौखिक लोकजीवन है। किसान कविता में लयबद्धता उसकी सामूहिक जीवन-पद्धति से आती है और उसके छंदों, धुनों और लय का धीमापन उसकी धीमी उत्पादन पद्धति से आता है। उसमें उपस्थित सामूहिक आवेग भी उसकी सामाजिक सौन्दर्यबोधीय और प्रतिरोधी दृष्टि से उपजता है।"
 किसान आंदोलन की कविताओं पर आंदोलनों एवं असंगठित व्यापक किसान-मजदूर वर्ग की चेतना का गहरा प्रवाह है। इनमें मौजूद 'जनता मूर्त, संघर्ष-शील और वास्तविक है।' इसीलिए किसान कविता औपनिवेशिक शक्ति संरचना के विरुद्ध सक्रिय अभिजन मिथकों के समानांतर जन मिथकों का चित्रण करती है।

'किसान आंदोलन की साहित्यिक जमीन' के बहाने रामाज्ञा शशिधर ने हाशिए की वैचारिकी को सामने लाने का प्रयास किया है। साहित्य की मुख्यधारा ने किसान कविता और उसकी वैचारिकी पर कभी इस तरह से विचार नहीं किया है। यह प्रयास मुख्यधारा आलोचना को न केवल विस्तार देता है वरन् उसको समृद्ध भी करता है। हिन्दी आलोचना के भीतर इसका स्वागत किया जाना चाहिए।



पुस्तक :  किसान आंदोलन की साहित्यिक जमीन
लेखक : रामाज्ञा शशिधर

प्रकाशक :
अंतिका प्रकाशन,
सी-56/यूजीएफ-4, शालीमार गॉर्डन, एक्सटेंसन-2
ग़ाज़ियाबाद - 201 005

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बीएचयू से पढ़े-लिखे नीलेश कुमार से अगर आप बातचीत करेंगे तो ये आपको ख़ूब हँसायेंगे। विश्वास न हो रहा हो तो आप अभी  96443 76749 पर कॉल करके परीक्षा ले सकते हैं। बेगूसराय के एस.बी.एस.एस. काॅलेज में हिंदी पढ़ाते हैं। अध्ययन इनका गंभीर है।



          

Sunday, June 7, 2020

किसान आन्दोलन की साहित्यिक ज़मीन


रामाज्ञा शशिधर की किताब किसान आंदोलन की साहित्यिक ज़मीन  का आरंभ 1917 से होता है। इसके पहले सिर्फ 1857 की चर्चा जगह-जगह वे करते हैं। कहीं-कहीं भारतेंदु, प्रताप नारायण मिश्र, बालमुकुंद गुप्त आदि उपस्थित हैं। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध और बीसवीं सदी के दूसरे दशक तक के किसानों पर इसमें कम बातचीत है। किताब की ख़ास और महत्त्वपूर्ण उपलब्धि मौखिक स्रोत और साक्षात्कार हैं। प्राथमिक स्रोतों में जहाँ प्रताप, अभ्युदय, जनता, आज, नवशक्ति, रूपाभ, हल  और किसान  जैसी पत्रिकाएं हैं, वहीं 'बिहार किसान सभा के कार्यकर्ता त्रिवेणी शर्मा सुधाकर', सहजानंद साहित्य विशेषज्ञ राघव शरण शर्मा, लखोरी शर्मा (95 वर्ष, जहानाबाद), जुगेश्वर शर्मा से लिए गए महत्त्वपूर्ण साक्षात्कार शामिल हैं। ज़ाहिर है कि ये साक्षात्कार बैठे-बैठे नहीं लिया गया है अपितु इसके लिए  लेखक को गांव-गांव भ्रमण करना पड़ा होगा, चप्पल घसीटना पड़ा होगा।


लेखक के अनुसार इस किताब को लिखने में किसान साहित्य से जुड़ी पुस्तिकाओं, पत्र-पत्रिकाओं, ट्रैक्टों, इश्तिहारों, पर्चों, साक्षात्कारों, किताबों और पांडुलिपियों पर निर्भर रहना पड़ा। 'दस साल तक यह खोजबीन चलती रही।'

दस साल बहुत होते हैं। दस साल में इन्होंने बहुत कम सामग्री खोजी है। हिंदी की मुख्यधारा की पत्र-पत्रिकाओं को तो बिलकुल ही छोड़ दिया है। इस किताब को लिखने में कविताओं का खूब उपयोग किया गया है। कहीं-कहीं दो-चार कहानियों का ज़िक्र भर हैं। मुख्यधारा की पत्रिकाओं में किसान जीवन पर आधारित जो लेख या निबंध हैं, उसे लेखक ने स्पर्श तक नहीं किया है। किसान आधारित पुस्तिकाओं को भी नज़र अंदाज़ किया गया है। दस साल में लेखक के हाथ सामग्री क्यों नहीं आई, इसका कारण 'अदृश्य'प्रतिरोध की पुनर्रचना  शीर्षक भूमिका में स्पष्ट है-
हिंदी बौद्धिकों की दो विशेषताएं हैं - माल उड़ाओ पर सन्दर्भ मत बताओ तथा ज्ञान को निजी मिलकियत की तरह उपयोग करो। 
स्पष्ट है कि हिंदी बुद्धिजीवी मक्कार होते हैं। शोषक होते हैं। अगर वे किसी शोधार्थी से कोई बहुमूल्य दस्तावेज़ हासिल कर लेते हैं, तो वे उस ग़रीब और लाचार शोधार्थी का नाम तक नहीं लेते। मेरे साथ भी ऐसा हो चुका है।  बालकराम शास्त्री की किताब प्रकृति-पूजा की भूमिका आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखी है। छद्म संपादक ने चिरौरी करके भूमिका मुझसे ले ली। जब किताब में हमने अपना नाम खोजना शुरू किया तो अपन को अपना नाम ही नहीं मिला। रामाज्ञा शशिधर ने जब काम करना शुरू किया होगा तो तथाकथित बुद्धिजीवियों ने अपना मुंह बंद कर लिया होगा। एक जगह लिखते हैं -
वीर भारत तलवार की यह थीसिस जाँच की मांग करती है कि 1917 से 1920 तक हिंदी में किसानों पर लिखी गयी कविताओं में संघर्षशील किसान का चित्र कहीं नहीं मिलता।*** भगवान से करुणा की पुकार इन सभी कविताओं  मिलती है। 
वीर भारत तलवार की जिस थीसिस का जिक्र रामाज्ञा जी कर रहे हैं, उसका नाम 'किसान,राष्ट्रीय आंदोलन और प्रेमचंद' है। ज़ाहिर है कि तलवार जी ने भी बहला-फुसला दिया होगा।

तो मामला यह है कि हम स्रोत सन्दर्भ और उपलब्ध सामग्री के बारे में क्यों बताएं? लेकिन यह गलत है। शोधार्थी अगर गरीब है, निरीह है तो बताना चाहिए और संबंधित विषय पर बातचीत करनी चाहिए। भाई, ईमानदारी भी कुछ होती है।

लेकिन नहीं! हिंदी बौद्धिक झपसट और उद्दंड होते हैं।

इस किताब में कुल पांच अध्याय और करीब चालीस उपशीर्षक हैं। किताब के केंद्र में 'असली किसान' हैं। 'असली किसान' का मतलब अहीर, कुर्मी, चमार, पासी, कोयरी, धोबी, बिंद जाति के किसान। रामाज्ञा जी के निशाने पर वे सामंत और ज़मींदार हैं जो 'असली किसान' का शोषण करते हैं। जनकवि रामावतार यादव 'शक्र' की एक कविता के हवाले से लिखते हैं -
कविता में मालिक कौन है? रूपनगर और सिमरिया के आसपास के भूमिहार काश्तकार और ज़मींदार। हलवाहे कौन हैं? यादव, कुर्मी, पासवान, धोबी, बिंद, चमार आदि जाति के खेतिहर मज़दूर। कविता के खेत मज़दूर सामाजिक और आर्थिक दोनों उत्पीड़नों के शिकार हैं। बड़हिया टाल पड़ोसी इलाका है जहाँ के रैयान सवर्ण ज़मींदारों के खिलाफ भीषण बकाश्त संघर्ष कर रहे हैं।  
इस किताब में चम्पारण, अवध और बिजोलिया के निम्न जाति के किसानों के शोषण का जैसा चित्रण किया गया है, उसे पढ़कर दिमाग़ झनझना जाता है। लेखक ने कांग्रेस, गांधी, नेहरू आदि के दुचित्तापन का भी पर्दाफाश किया है -
कांग्रेस का सामंतवाद और साम्राज्यवाद से समझौतापरस्त संबंध था *** कांग्रेस नेतृत्व की नज़र में प्रधान मुद्दा साम्राज्यवाद से संघर्ष था। वह सामंतवाद और साम्राज्यवाद विरोधी क्रांतिकारी किसान संघर्ष का या तो दमन करता था या दमन में योगदान देता था या उसका अपहरण कर लेता था। 

 किताब का आवरण 
                                                   

मैं जिस उद्देश्य से इस किताब को पढ़ रहा था वह मुझे दूसरे अध्याय में मिला। करीब 65 पृष्ठ में लिखा गया किसान कविता का स्वरुप  हिंदी कविता की एक उपलब्धि है। इस पाठ में किसान कविता की अवधारणा पर बातचीत की गयी है। जहाँ तक मैं समझता  हूँ इस अवधारणा पर अब तक किसी आलोचक का ध्यान  नहीं गया है। भारतेंदु, द्विवेदी, छायावाद, प्रगति-प्रयोग युग में लिखी गयी कविताओं पर तो अभिजात वर्ग सीना तानकर बातचीत करता है लेकिन किसानों की कविता पर मौन साध लेता है।

रामाज्ञा जी ने भानु, रामनारायण रावत, विपतुआ, जानकी बल्लभ सिंह, अनिरुद्ध लाल, रामानुज दास, सीताराम देव, ब्रजकिशोर प्रसाद सिंह, रामावतार यादव 'शक्र', सलाम मछलीशहरी, सैयद मुहम्मद खलील, राजू मंडल सहित तमाम कवियों को हिंदी जगत के सामने प्रस्तुत कर स्तुत्य कार्य किया है।

इस अध्याय में भोजपुरी कविताओं पर भी अच्छी सामग्री है -
फिरंगिया के राज जब देसवा से मिट जाई / ज़मींदारी परथा ख़तम जब होई जाई / खेतवा के मालिक किसान सब होई जाई / करखाना के मालिक मजूर सब होई जाई / एकरे के कह हे सुराज हो बुधन भाई। 
भोजपुरी के अतिरिक्त मैथिली, ब्रज, बुंदेली, राजस्थानी, मगही में लिखित कविताओं का भी विश्लेषण किया गया है। किताब में मार्क्स, गांधी और माओ हैं तो स्थानीय किसान नेता सहजानंद, राहुल, रामचंद्र और मदारी पासी जैसे लोग भी उपस्थित हैं।

अवध में रामचंद्र ने ब्राह्मणवादी और सामंतवादी मनोवृत्ति की किताब रामचरितमानस का क्रांतिकारी प्रयोग कैसे किया था, इस जिज्ञासा को भी यह किताब शांत करती है।

बेगार प्रथा से किसान त्रस्त थे। हरिहर प्रसाद की कविता सिर्फ दलित ही नहीं पढ़ते थे अपितु उनकी कविताएं सवर्णों की ज़बाँ पर भी थीं। हरिहर प्रसाद की कविता अछूतों की पुकार (1930) रामाज्ञा शशिधर को राघव शरण शर्मा से प्राप्त हुयी थी -
हमका बिना मजूरी बैलों के संग जोते / गाली व मार उस पर हमको दिला रही है / लेते बेगार खाना तक पेट भर न देते / बच्चे तड़पते भूखों क्या ज़ुल्म ढा रही है। 
किताब में दोहराव बहुत है। एक ही कविता को कई बार उद्धृत किया गया है। यह दोहराव किताब को बोझिल बनाता है। अगर मुख्यधारा की सामग्री के साथ-साथ किसान  जीवन पर लिखित अन्य सामग्री को भी सहेजा गया होता तो इस दोहराव से बचा जा सकता था।

बहरहाल, किसान आंदोलन में रुचि रखने वाले पाठकों और शोधार्थियों के लिए यह एक महत्त्वपूर्ण किताब है। यह किताब हमें अनेक रास्ता सुझाती है। इस काम को आगे बढ़ाने की जरुरत है।



किसान आंदोलन की साहित्यिक जमीन : रामाज्ञा शशिधर

मूल्य : 225 रुपये (पेपरबैक)

प्रकाशक :
अंतिका प्रकाशन
सी-56/यूजीएफ-4 , शालीमार गार्डन, एक्सटेंशन-2
गाज़ियाबाद - 201 005

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सुजीत कुमार सिंह

07 जून 2020