रामाज्ञा शशिधर की किताब किसान आंदोलन की साहित्यिक ज़मीन का आरंभ 1917 से होता है। इसके पहले सिर्फ 1857 की चर्चा जगह-जगह वे करते हैं। कहीं-कहीं भारतेंदु, प्रताप नारायण मिश्र, बालमुकुंद गुप्त आदि उपस्थित हैं। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध और बीसवीं सदी के दूसरे दशक तक के किसानों पर इसमें कम बातचीत है। किताब की ख़ास और महत्त्वपूर्ण उपलब्धि मौखिक स्रोत और साक्षात्कार हैं। प्राथमिक स्रोतों में जहाँ प्रताप, अभ्युदय, जनता, आज, नवशक्ति, रूपाभ, हल और किसान जैसी पत्रिकाएं हैं, वहीं 'बिहार किसान सभा के कार्यकर्ता त्रिवेणी शर्मा सुधाकर', सहजानंद साहित्य विशेषज्ञ राघव शरण शर्मा, लखोरी शर्मा (95 वर्ष, जहानाबाद), जुगेश्वर शर्मा से लिए गए महत्त्वपूर्ण साक्षात्कार शामिल हैं। ज़ाहिर है कि ये साक्षात्कार बैठे-बैठे नहीं लिया गया है अपितु इसके लिए लेखक को गांव-गांव भ्रमण करना पड़ा होगा, चप्पल घसीटना पड़ा होगा।
लेखक के अनुसार इस किताब को लिखने में किसान साहित्य से जुड़ी पुस्तिकाओं, पत्र-पत्रिकाओं, ट्रैक्टों, इश्तिहारों, पर्चों, साक्षात्कारों, किताबों और पांडुलिपियों पर निर्भर रहना पड़ा। 'दस साल तक यह खोजबीन चलती रही।'
दस साल बहुत होते हैं। दस साल में इन्होंने बहुत कम सामग्री खोजी है। हिंदी की मुख्यधारा की पत्र-पत्रिकाओं को तो बिलकुल ही छोड़ दिया है। इस किताब को लिखने में कविताओं का खूब उपयोग किया गया है। कहीं-कहीं दो-चार कहानियों का ज़िक्र भर हैं। मुख्यधारा की पत्रिकाओं में किसान जीवन पर आधारित जो लेख या निबंध हैं, उसे लेखक ने स्पर्श तक नहीं किया है। किसान आधारित पुस्तिकाओं को भी नज़र अंदाज़ किया गया है। दस साल में लेखक के हाथ सामग्री क्यों नहीं आई, इसका कारण 'अदृश्य'प्रतिरोध की पुनर्रचना शीर्षक भूमिका में स्पष्ट है-
हिंदी बौद्धिकों की दो विशेषताएं हैं - माल उड़ाओ पर सन्दर्भ मत बताओ तथा ज्ञान को निजी मिलकियत की तरह उपयोग करो।
स्पष्ट है कि हिंदी बुद्धिजीवी मक्कार होते हैं। शोषक होते हैं। अगर वे किसी शोधार्थी से कोई बहुमूल्य दस्तावेज़ हासिल कर लेते हैं, तो वे उस ग़रीब और लाचार शोधार्थी का नाम तक नहीं लेते। मेरे साथ भी ऐसा हो चुका है। बालकराम शास्त्री की किताब प्रकृति-पूजा की भूमिका आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखी है। छद्म संपादक ने चिरौरी करके भूमिका मुझसे ले ली। जब किताब में हमने अपना नाम खोजना शुरू किया तो अपन को अपना नाम ही नहीं मिला। रामाज्ञा शशिधर ने जब काम करना शुरू किया होगा तो तथाकथित बुद्धिजीवियों ने अपना मुंह बंद कर लिया होगा। एक जगह लिखते हैं -
वीर भारत तलवार की यह थीसिस जाँच की मांग करती है कि 1917 से 1920 तक हिंदी में किसानों पर लिखी गयी कविताओं में संघर्षशील किसान का चित्र कहीं नहीं मिलता।*** भगवान से करुणा की पुकार इन सभी कविताओं मिलती है।
वीर भारत तलवार की जिस थीसिस का जिक्र रामाज्ञा जी कर रहे हैं, उसका नाम 'किसान,राष्ट्रीय आंदोलन और प्रेमचंद' है। ज़ाहिर है कि तलवार जी ने भी बहला-फुसला दिया होगा।
तो मामला यह है कि हम स्रोत सन्दर्भ और उपलब्ध सामग्री के बारे में क्यों बताएं? लेकिन यह गलत है। शोधार्थी अगर गरीब है, निरीह है तो बताना चाहिए और संबंधित विषय पर बातचीत करनी चाहिए। भाई, ईमानदारी भी कुछ होती है।
लेकिन नहीं! हिंदी बौद्धिक झपसट और उद्दंड होते हैं।
इस किताब में कुल पांच अध्याय और करीब चालीस उपशीर्षक हैं। किताब के केंद्र में 'असली किसान' हैं। 'असली किसान' का मतलब अहीर, कुर्मी, चमार, पासी, कोयरी, धोबी, बिंद जाति के किसान। रामाज्ञा जी के निशाने पर वे सामंत और ज़मींदार हैं जो 'असली किसान' का शोषण करते हैं। जनकवि रामावतार यादव 'शक्र' की एक कविता के हवाले से लिखते हैं -
कविता में मालिक कौन है? रूपनगर और सिमरिया के आसपास के भूमिहार काश्तकार और ज़मींदार। हलवाहे कौन हैं? यादव, कुर्मी, पासवान, धोबी, बिंद, चमार आदि जाति के खेतिहर मज़दूर। कविता के खेत मज़दूर सामाजिक और आर्थिक दोनों उत्पीड़नों के शिकार हैं। बड़हिया टाल पड़ोसी इलाका है जहाँ के रैयान सवर्ण ज़मींदारों के खिलाफ भीषण बकाश्त संघर्ष कर रहे हैं।
इस किताब में चम्पारण, अवध और बिजोलिया के निम्न जाति के किसानों के शोषण का जैसा चित्रण किया गया है, उसे पढ़कर दिमाग़ झनझना जाता है। लेखक ने कांग्रेस, गांधी, नेहरू आदि के दुचित्तापन का भी पर्दाफाश किया है -
कांग्रेस का सामंतवाद और साम्राज्यवाद से समझौतापरस्त संबंध था *** कांग्रेस नेतृत्व की नज़र में प्रधान मुद्दा साम्राज्यवाद से संघर्ष था। वह सामंतवाद और साम्राज्यवाद विरोधी क्रांतिकारी किसान संघर्ष का या तो दमन करता था या दमन में योगदान देता था या उसका अपहरण कर लेता था।
किताब का आवरण |
मैं जिस उद्देश्य से इस किताब को पढ़ रहा था वह मुझे दूसरे अध्याय में मिला। करीब 65 पृष्ठ में लिखा गया किसान कविता का स्वरुप हिंदी कविता की एक उपलब्धि है। इस पाठ में किसान कविता की अवधारणा पर बातचीत की गयी है। जहाँ तक मैं समझता हूँ इस अवधारणा पर अब तक किसी आलोचक का ध्यान नहीं गया है। भारतेंदु, द्विवेदी, छायावाद, प्रगति-प्रयोग युग में लिखी गयी कविताओं पर तो अभिजात वर्ग सीना तानकर बातचीत करता है लेकिन किसानों की कविता पर मौन साध लेता है।
रामाज्ञा जी ने भानु, रामनारायण रावत, विपतुआ, जानकी बल्लभ सिंह, अनिरुद्ध लाल, रामानुज दास, सीताराम देव, ब्रजकिशोर प्रसाद सिंह, रामावतार यादव 'शक्र', सलाम मछलीशहरी, सैयद मुहम्मद खलील, राजू मंडल सहित तमाम कवियों को हिंदी जगत के सामने प्रस्तुत कर स्तुत्य कार्य किया है।
इस अध्याय में भोजपुरी कविताओं पर भी अच्छी सामग्री है -
फिरंगिया के राज जब देसवा से मिट जाई / ज़मींदारी परथा ख़तम जब होई जाई / खेतवा के मालिक किसान सब होई जाई / करखाना के मालिक मजूर सब होई जाई / एकरे के कह हे सुराज हो बुधन भाई।
भोजपुरी के अतिरिक्त मैथिली, ब्रज, बुंदेली, राजस्थानी, मगही में लिखित कविताओं का भी विश्लेषण किया गया है। किताब में मार्क्स, गांधी और माओ हैं तो स्थानीय किसान नेता सहजानंद, राहुल, रामचंद्र और मदारी पासी जैसे लोग भी उपस्थित हैं।
अवध में रामचंद्र ने ब्राह्मणवादी और सामंतवादी मनोवृत्ति की किताब रामचरितमानस का क्रांतिकारी प्रयोग कैसे किया था, इस जिज्ञासा को भी यह किताब शांत करती है।
बेगार प्रथा से किसान त्रस्त थे। हरिहर प्रसाद की कविता सिर्फ दलित ही नहीं पढ़ते थे अपितु उनकी कविताएं सवर्णों की ज़बाँ पर भी थीं। हरिहर प्रसाद की कविता अछूतों की पुकार (1930) रामाज्ञा शशिधर को राघव शरण शर्मा से प्राप्त हुयी थी -
हमका बिना मजूरी बैलों के संग जोते / गाली व मार उस पर हमको दिला रही है / लेते बेगार खाना तक पेट भर न देते / बच्चे तड़पते भूखों क्या ज़ुल्म ढा रही है।
किताब में दोहराव बहुत है। एक ही कविता को कई बार उद्धृत किया गया है। यह दोहराव किताब को बोझिल बनाता है। अगर मुख्यधारा की सामग्री के साथ-साथ किसान जीवन पर लिखित अन्य सामग्री को भी सहेजा गया होता तो इस दोहराव से बचा जा सकता था।
बहरहाल, किसान आंदोलन में रुचि रखने वाले पाठकों और शोधार्थियों के लिए यह एक महत्त्वपूर्ण किताब है। यह किताब हमें अनेक रास्ता सुझाती है। इस काम को आगे बढ़ाने की जरुरत है।
किसान आंदोलन की साहित्यिक जमीन : रामाज्ञा शशिधर
मूल्य : 225 रुपये (पेपरबैक)
प्रकाशक :
अंतिका प्रकाशन
सी-56/यूजीएफ-4 , शालीमार गार्डन, एक्सटेंशन-2
गाज़ियाबाद - 201 005
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सुजीत कुमार सिंह
07 जून 2020
बहुत बढ़िया सुजीत जी । ऐसी किताबों से आगे भी परिचय कराते रहें ।
ReplyDeleteबेबाक और बढ़िया समीक्षा। समीक्षा से पता चल रहा है कि वाकई अगर इसमें मुख्यधारा की पत्रिकाओं की मदद ली गई होती तो शायद यह पुस्तक और बढ़िया साहित्यिक जमी़न तैयार करती।समीक्षक और लेखक दोनों के उल्लेख से यह मालूम हो रहा है कि हिंदी साहित्य में संदर्भों की चोरी जमकर होती है। आखिर इसका यही उद्देश्य होता होगा कि'मेरे जैसा या मुझसे बेहतर काम पुनः संदर्भ जानकर अन्य लोग न कर लें?'लेखकों में यह प्रकार का फोबिया है, जिससे वे अपने आने वाली पीढ़ियों के साथ ज्ञान की चोरी ही करते हैं।
ReplyDeleteइस समीक्षा में एक जगह रामावतार यादव'शक्र'का जिक्र किया गया है। जनकवि की उपाधि समीक्षक ने दी है या लेखक ने ही इसका जिक्र किया है?