Saturday, May 23, 2020

क्या सीता त्याग उचित था ? : मायावती जैन




श्रीराम द्वारा सीता त्याग सिर्फ कल्पना का परिणाम तो नहीं मालूम होता, क्योंकि बाल्मीकि रामायण में भी यह घटना वर्णित की गयी है। आदि कवि ने इस प्रसंग का जैसा वर्णन किया है, उससे जाना जाता है कि निस्संदेह सीता का त्याग किया गया था। इस विश्व विदित घटना की चार बातों गौर करना चाहिए -

(1) क्या सीता त्याग उचित था?
(2) इस त्याग के लिए उल्लिखित कारण उचित था?
(3) यह त्याग धर्म था?
(4) उस समय की परिस्थितियों में क्या सीता त्याग आवश्यक था?

यह घटना उस समय हुई, जब राम चौदह वर्ष बाद लौटकर अयोध्या का साम्राज्य वापिस पा लेते हैं तथा आदर्श राजा बनकर प्रजा के हृदय में अमृत सींचते हैं। कवि बतलाते हैं कि राम के राज्य में एक भी अन्याय का काम नहीं हुआ तथा किसी राज सेवक द्वारा प्रजा को कष्ट दिया गया, ऐसा भी कभी नहीं सुना गया।

इस प्रकार राम राज्य में प्रजा निश्चिंत भाव से रहती है, वहां एक शाम को अयोध्यावासी आश्चर्यचकित और किंकर्तव्यविमूढ़ होकर सुनते हैं कि राम ने राजरानी सीता का सदैव के लिए परित्याग कर दिया। वृद्ध प्रजाजन सिर ठोंक रहे हैं, वृद्ध स्त्रियां एकत्र हो यही चर्चा कर रही हैं, युवतियां पतियों से, बालक माताओं से पूछते हैं, क्या हुआ? यहाँ तक कि राज्य के मंत्रियों तक को  त्याग के कारण या सबब का पता तक न था। राज-माताएं भयभीत होकर दासियों द्वारा घटना का कारण जानना चाहती हैं। किसी को कुछ मालूम ही नहीं है। भरत और शत्रुघ्न स्तब्ध हो जाते हैं। राम के पास जाने की किसी की हिम्मत ही नहीं होती। वशिष्ठ की प्रखर बुद्धि भी क्षण भर के लिए स्तब्ध हो जाती है। सिर्फ राम और लक्ष्मण तथा वन में जाने के बाद सीता को इसका कारण मालूम था। रामायणकार ने जो कारण बतलाया था, वह यह है :-

राम का गुप्तचर शहर में क्या-क्या चर्चा होती है, यह जानने के लिए शहर का चक्कर लगा रहा था। उसने धोबी दंपति को बातें करते सुना, उसके कानों में शब्द गए कि रावण के महल में सीता काफी समय तक रही, फिर भी उसे शुद्ध मानकर राम ने स्वीकार कैसे कर लिया? गुप्तचर ने आकर यह बात राम से कही, बस! इसी बात पर राम सीता के त्याग का निश्चय और निश्चय को कार्य रूप में परिणित करते हैं।

राम सोचते हैं, 'मेरी प्रजा मेरी प्रिय देवी के लिए ऐसे विषम शब्द कहती है...देवी तो विशुद्ध है ही, पर...? पर इस समय मेरा धर्म क्या है? इस भयंकर आक्षेप के निवारण के लिए मुझे क्या करना चाहिए? प्रजा के मन में यह बात तो नहीं है कि राम अपनी स्त्री का पक्षपात करता है? मैं पक्षपात नहीं करता, फिर राम के यश:शरीर पर यह दाग क्यों रहे? किसी का पक्षपात किया तो वह राम राज्य क्या, कैसा?


 इस प्रकार विचार-मंथन के उपरान्त बिना किसी से सलाह लिए ही मन की सहायता से राम ने उक्त निश्चय किया कि सीता का त्याग करने से ही छुटकारा है। लक्ष्मण की गद्गद प्रार्थनाओं के बावजूद, कुलगुरु की सम्मति जाने बिना ही, राज्य माता को अंधकार में रखकर तथा सीता को अंतिम दर्शन दिए बिना, राम सीता को लक्ष्मण के साथ महा वन में भिजवा देते हैं।


डेनमार्क के राजकुमार की कुछ कम या ज्यादा ऐसी ही अवस्था हुई थी। शेक्सपीयर ने अपने नाटक में ऐसा ही दिखलाया है। अपनी मां को चाचा के प्रेम  पड़कर पिता का खून कराते देखकर हेमलेट का हृदय चूर-चूर हो जाता है। क्या करे? क्या न करे? वह कुछ भी समझ नहीं पाता। चाचा को मार डालूं या अपनी हत्या कर लूं? उस समय वह To be or not to be के फेर में पड़ जाता है। दुर्भाग्य से हेमलेट को सच्ची सलाह देने वाला नीतिज्ञ नहीं था, अत: हेमलेट का पतन होता है, किन्तु राम के सामने तो सकल शास्त्र विशारद, नीति तत्व के गहन विचारक, महातपस्वी वशिष्ठ उपस्थित थे। राम के पिता और पितामह वशिष्ठ से प्रेरणा पाते थे। राम ने उन वशिष्ठ से भी सलाह न ली! निश्चयात्मक बुद्धि पर कितना असीम, साथ ही कितना अविचारी अंधविश्वास था? उस समय राम को कौन समझाता कि विपत्ति के समय धीर वीरों की मति भी मलिन हो जाती है। शायद किसी ने कहा भी हो तो उस समय राज्य पालन के अभिमान से राम के कान बंद हो गए थे।

साधारणतया एक नज़र में राम का यह कार्य कितना उदात्त, धर्मयुक्त और मर्यादाशील मालूम होता है। प्रजा की शिकायत या नाराजी का  कारण न रहना चाहिए,  महातपस्या के अग्निकुंड में प्राण प्रिय सीता की आहुति देने में भी राम नहीं हिचके। हृदय टूक-टूक हो रहा होगा, दुःख के भर से मन पिस होगा तब भी राज्य पालन और प्रजानुरंजन के लिए राम ने महान बलिदान किया। साम्राज्यवादियों की दृष्टि में सचमुच यह महान बलिदान था, है। राम पर चारों तरफ से फूल बरस रहे होंगे?  राम की दुंदुभि चारों दिशाओं में गूँज उठी होगी, किन्तु राजा राम से पति राम या मनुष्य राम की हैसियत से राम के इस कृत्य पर विचार किया जाए, तो? मनुष्य ताज पहनकर सम्राट बनता है, पर वह मनुष्य ही रहता है। साम्राज्य की सेवा करता हुआ वह मनुष्य धर्म नहीं छोड़ सकता। साम्राज्य आज है कल नहीं। किन्तु मनुष्य तो जन्म से मृत्यु तक अविच्छिन्न है। सम्राट धर्म के पालन के लिए वह मनुष्य धर्म छोड़कर पशु बने, इससे अधम दशा कल्पना में नहीं आ सकती। मनुष्य धर्म के सामने क्षणिक भोगशील सम्राट धर्म की कोई कीमत नहीं हैं। और -

न जातु कामात् न भयात् न लोभात्। 
धर्मत्यजेत्          जीवितस्यापिहेतो:।।


रावण के यहाँ रहने पर, उसके वध के बाद सीता राम से मिलने आती है, राम सीता को स्पर्श नहीं करते  हैं और कहते हैं कि "तुम शुद्ध हो, इसे मैं निश्चय पूर्वक मानता हूँ, किन्तु मैं दुनिया को कैसे मनाऊं और वह कैसे माने? इसलिए अग्नि तुम्हें शुद्ध प्रमाणित करे तो मैं तुम्हें स्वीकार कर लूं।"


हजारों बानरों, राक्षसों, विभीषण आदि के सामने सीता ने अग्नि प्रवेश किया, अग्नि ने सीता को शुद्ध सिद्ध किया और राम ने उसे स्वीकार किया। यह घटना घर के किसी कोने में नहीं हुई थी, उस समय वहां असंख्य समुदाय उपस्थित था। इस घटना के बाद राम अयोध्या आते हैं, उनके साथ हनुमान, सुग्रीव आदि भी अयोध्या आते हैं। इन लोगों ने कम-से-कम राम की प्रशंसा के लिए ही सही, यह बात जरूर कही होगी तथा प्रत्येक अयोध्यावासी यह बात जानता ही होगा। इसके बाद भी धोबी दंपति ऐसी बात करे तो राम से कैसे सहा जाए? वशिष्ठ स्मृति में व्यभिचारिणी स्त्री का वध धर्म माना है, परन्तु राम सीता को निर्दोष मानते थे, इसलिए आजीवन देश निकाले की सजा दी।


राम का यह काम कितना निष्ठुर, कितना दयाहीन, कितना अधम मालूम होता है। इस कृत्य से हम राम को पुरुषोत्तम पद के महाशिखर से गिरते देखते हैं। देश निकाले की सजा पाए हुए अपराधियों को भी राज्य सुरक्षित स्थान पर भेजता है। उनके शरीर और प्राण की रक्षा राज्य की तरफ से की जाती है। किन्तु  सीता को भयंकर वन में जंगली पशुओं के भक्षण के लिए छोड़ दिया जाता है। कवि यह भी लिखते हैं कि राम जानते थे कि सीता उस समय गर्भवती थी। 

जिस सीता ने महाराज्य के ऐश्वर्य को लात मारकर, चौदह वर्षों तक वन में साथ निभाया, निरंतर ब्रह्मचर्य का पालन कर, पतिपरायणा रह, पति की सेवा की, उसे कितना सुन्दर प्रतिफल मिला?

एक बात और भी है, सीता स्वेच्छा से रावण के यहाँ नहीं गयी थीं, नहीं रही थीं। यह बात भी राम जानते थे, फिर भी सीता को वन भेजने के पहले उसे सफाई देने के लिए क्षण भर का समय भी नहीं दिया गया। राम स्वयं ही फरियादी, गवाह, प्रमाण, जज बन बैठे हैं तथा अंत:करण पर दबाव डालकर मनचाहा फैसला कर डालते हैं।

राम धोबी दंपति की बात की अवगणना करते तो अयोध्या की प्रजा के दिलों में तूफ़ान न आ जाता, राम राज्य के यश कमल की एक पंखुरी भी न मुरझाती, धोबी दंपति के भाग्य में दोनों तरह से फटकार ही लिखी थी। सीता त्याग के बाद भी इस दंपति को बेहद तिरस्कृत होना पड़ा होगा तथा राम सीता का त्याग न करते, तब भी प्रजा की फटकार उन्हें सुननी ही पड़ती। सीता सोलहों आने निर्दोष थी और प्रजा कभी भी निर्दोष को सताया जाना पसंद नहीं करती।  इन बातों से लेख के प्रारम्भ के उत्तर ये होते हैं -


  1.  सीता त्याग उचित न था। 
  2.  त्याग का कारण वास्तविक नहीं मालूम होता। 
  3.  त्याग धर्म नहीं था, क्योंकि इस निर्णय के साथ धर्मशास्त्र की स्वीकृति नहीं थी। 
  4.  उस समय की परिस्थिति देखते हुए सीता परित्याग बिल्कुल आवश्यक नहीं था। नीति, धर्म, समानता के सूक्ष्म दर्शक यन्त्र से राम का यह कार्य देखा जाये तो इस कार्य की कोई उचित कैफ़ियत नहीं मिलती, नहीं मिल सकती। 



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(महिला, अक्टूबर 1938)

1 comment:

  1. बहुत सारे बन्द तथ्यों को खोलता हुआ लेख है।

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