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बाबू श्यामसुंदर दास की आत्मकथा सरस्वती पत्रिका में निरंतर तेरह महीनों तक प्रकाशित होकर 1941 ई. में इलाहाबाद के इंडियन प्रेस से पुस्तकाकार छपी। रामस्वरूप चतुर्वेदी ने इसे हिंदी की पहली प्रसिद्ध आत्मकथा कहा है।इधर सोशल मीडिया पर काशी विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के शताब्दी वर्ष पर प्रथम अध्यक्ष को लेकर बिगूचन की स्थिति है। हिंदी विभाग के ही आचार्यगण लाला भगवानदीन को प्रथम अध्यक्ष बता रहे हैं। यह सब हो रहा है विभाग में टंगे एक काष्ठ-पट्टिका पर अंकित नामों के चलते जो चीख-चीख कर बता रहा है कि प्रथम विभागाध्यक्ष लाला भगवानदीन थे। हालाँकि विभाग के ही प्रोफेसर श्रीप्रकाश शुक्ल अपने फेसबुक और प्रिंट मीडिया आदि के माध्यम से लगातार बता रहे हैं कि विभाग के प्रथम अध्यक्ष दीन जी नहीं अपितु बाबू श्यामसुंदर दास थे।
काशी विश्वविद्यालय का हिंदी विभाग अपनी औरेबियत के लिए भी जाना जाता है। प्रोफेसर श्रीप्रकाश शुक्ल उसी औरेबियत के शिकार नज़र आते हैं। उनकी आवाज़ सुनने के लिए कोई तैयार ही नहीं। वे तथ्यों की रोशनी में समझा रहे हैं लेकिन लोग समझने के लिए तैयार ही नहीं।
बाबू साहब ने अपनी आत्मकथा में एक अध्याय 'काशी-विश्वविद्यालय' शीर्षक से लिखा है। अरुण प्रकाश ने कहीं कहा है कि "आत्मकथा की छवि सत्य वाली है।" बाबू साहब की आत्मकथा का प्रस्तुत अंश तत्कालीन विभाग में हो रही राजनीति के तमाम सत्य को उद् घाटित करती है।
- सुजीत कुमार सिंह
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सन् 1905 में जब बनारस में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन हुआ था, पंडित मदनमोहन मालवीय जी ने टाउनहाल में व्याख्यान देकर अपने उस प्रस्ताव की विशद रूप से व्याख्या की थी जिसके अनुसार वे एक ऐसे विश्वविद्यालय की स्थापना करना चाहते थे, जो भारतीय संस्कृति की रक्षा करता हुआ देश में सब के अध्ययन-अध्यापन का एक विशिष्ट केंद्र हो। उस समय तो लोगों ने यही कहा था कि यह मालवीय जी का स्वप्न है जो कभी प्रत्यक्ष भौतिक रूप धारण नहीं कर सकता। कल्पना जब तीव्र होकर मूर्तिवत् प्रतीत होने लगती है तभी संसार में बड़े-बड़े महत्त्वपूर्ण कामों का सूत्रपात होता है। यद्यपि उस समय मालवीय जी की कल्पना स्वप्नवत ही प्रतीत होती थी, पर 10 वर्षों के अनवरत परिश्रम, अदम्य उत्साह और दृढ़ विश्वास ने इस स्वप्न को, प्रत्यक्ष कर दिखाया।
इन दस वर्षों में उनकी आयोजना में भारतवर्ष और विशेषकर संयुक्त-प्रदेश में उत्साह की एक ऐसी लहर बह चली कि सब विघ्न-बाधाएँ उसके सामने विलीन हो गईं और सन् 1916 में काशी में हिंदू-विश्वविद्यालय की स्थापना हो गई। मालवीय जी के उद्योग और उत्साह की जितनी प्रशंसा की जाय, थोड़ी है। यद्यपि इसके पहले सेठ जमशेद जी नौशेरवाँ जी ताता ने तीस लाख रुपये का दान देकर बंगलूर में ताता इंस्टीट्यूट की स्थापना का सूत्रपात किया था पर हिंदू-विश्वविद्यालय की योजना के सामने वह कुछ भी नहीं है। इतना अधिक धन किसी सार्वजनिक संस्था के लिए अब तक इकट्ठा नहीं हुआ था और न भारतवर्ष के किसी और विश्वविद्यालय में शिक्षा के इतने विभागों का आयोजन ही हुआ था जितना इस विश्वविद्यालय में हुआ।
विश्वविद्यालय ने जितनी उन्नति की है उस सबका श्रेय मालवीय जी को है, यद्यपि उनके सहायकों और सहयोगियों की भी संख्या कम नहीं है। समय-समय पर विश्वविद्यालय को जो ऋण लेकर काम चलाना और बढ़ाना पड़ा है उसके लिए भी मालवीय जी का उत्साह ही उत्तरदायी है। कुछ लोगों का कहना है कि सर सुंदरलाल यदि कुछ दिन अधिक जीते रहते तो इसको ऋणग्रस्त न होना पड़ता। यह बात ठीक हो सकती है पर साथ ही यह भी संभव है कि उसकी उन्नति भी इतनी अधिक और इतनी शीघ्र न हो सकती। यहाँ पर कदाचित् यह कह देना भी अनुचित न होगा कि मालवीय जी ने जितने बड़े-बड़े कामों को अपने हाथ में लिया - जैसे अदालतों में नागरी का प्रचार, हिंदू बोर्डिंग हाउस, मिंटो पार्क आदि - उनमें हिंदू-विश्वविद्यालय ही को ऐसा सौभाग्य प्राप्त हुआ कि वह इनके हाथों पूरा हो सका, बाकी सब अधूरे ही रह गए।
मालवीय जी से मेरा पहला परिचय सन् 1894 में हुआ था जब मैं काशी-नागरी-प्रचारिणी सभा के पहले डेपुटेशन में बाबू कार्तिकप्रसाद और बाबू माताप्रसाद के साथ प्रयाग गया था। उस समय तो मैं केवल 19 वर्ष का एक युवा विद्यार्थी था। आगे चलकर उनसे मेरी घनिष्टता बढ़ती गई और अंत में मुझे उनके विश्वविद्यालय में सेवा करने का भी सौभाग्य प्राप्त हुआ। इन अवस्थाओं में मुझे उनके गुणों तथा त्रुटियों से विशेष-रूप से परिचित होने का अवसर प्राप्त हुआ। मैं इन बातों का कुछ उल्लेख यथास्थान इस प्रकरण में करूँगा।
विश्वविद्यालय की स्थापना के अनंतर यह निश्चय हुआ कि एफए और बीए की परीक्षा में प्रत्येक विद्यार्थी के लिये देशी भाषा में एक लेख लिखकर पास करना अनिवार्य होगा। इस पर हिंदी के लिये अध्यापकों की खोज होने लगी तो मालवीय जी ने पंडित रामचंद्र शुक्ल और लाला भगवानदीन को चुना। इन दिनों गर्मी की छुट्टियों में मैं काशी आया हुआ था। शुक्ल जी मुझसे मिले और कहने लगे कि सर्टिफिकेट दे दीजिए तो हम लोगों की नियुक्ति हो जाय। मैंने कहा सर्टिफिकेट तो ले लीजिए, पर वेतन का ध्यान रखिए। यदि कम वेतन पर कार्य करना स्वीकार करेंगे तो आगे चलकर हिंदी-विभाग को बड़ी कठिनाईयों का सामना करना पड़ेगा। पर उन्हें उस समय यह चिंता व्यग्र कर रही थी कि शब्दसागर का कार्य समाप्त हो जाने पर हम क्या करेंगे। अस्तु, मेरी सम्मति की उन्होंने उपेक्षा की और 60) मासिक पर कार्य करना स्वीकार कर लिया।
जैसा कि मैं पहले लिख चुका हूँ, जुलाई सन् 1921 से मैंने कालीचरण स्कूल की हेडमास्टरी से त्यागपत्र दे दिया और मैं काशी चला आया। यहाँ आने के पहले एक महानुभाव ने मुझे यह वचन दिया था कि तुम घर पर बैठे-बैठे हमारे कार्य का निरीक्षण करना, हम तुम्हें 200) मासिक देंगे। मैंने इसे स्वीकार कर लिया और जीविका-निर्वाह की व्यवस्था से निश्चिंत हो गया। पर काशी आ जाने पर उनके ज्येष्ठ पुत्र ने, जो उस समय समस्त कार्य की देख-भाल करने लगे थे, यह कहा कि यह नहीं हो सकता। तुम्हें हमारे कार्यालय में नित्य आकर काम करना होगा। इसे मैंने स्वीकार नहीं किया।
अब मैं बाबू गोविंददास से मिला और उन्हें सब बातें कह सुनाईं। उन्होंने कहा कि तुम चिंता मत करो, मैं व्यवस्था करता हूँ। उन्होंने विश्वविद्यालय में यह प्रस्ताव किया कि हिंदी-साहित्य का अध्ययन युनिवर्सिटी की उच्चतम परीक्षा के लिये एक स्वतंत्र विषय माना जाय। यह प्रस्ताव स्वीकृत हुआ और हिंदी-विभाग खोलने का आयोजन होने लगा। बाबू गोविंददास ने मुझे मालवीय जी के पास भेजा और उपदेश दिया कि वेतन के लिये न अड़ना। हाँ, पद का ध्यान रखना और युक्ति से काम लेना।
मेरी नियुक्ति आश्विन सन् 1921 से युनिवर्सिटी में हो गई और हिंदी-विभाग का पूरा-पूरा आयोजन करने का मुझे आदेश हुआ। पीछे से मुझसे पंडित रामचंद्र शुक्ल ने कहा कि मालवीय जी ने मुझे तथा लाला भगवानदीन को बुलाकर पूछा था कि हम श्यामसुंदरदास को हिंदी-विभाग का अध्यक्ष बनाना चाहते हैं, तुम लोगों की क्या सम्मति है। शुक्ल जी ने उत्तर दिया कि हम लोगों को उनके अध्यक्ष होकर आने में कोई आपत्ति नहीं है। जिस दिन मेरी नियुक्ति का निश्चय हुआ उसी दिन संध्या को बाबू ज्ञानेंद्रनाथ बसु ने, जो उस समय युनिवर्सिटी कौंसिल के उपमंत्री थे, मुझे पत्र लिखकर इसकी सूचना दी।
अब कार्य का आरंभ हुआ। एफए , बीए और एमए क्लासों में हिंदी की स्वतंत्र पढ़ाई का आरंभ तो जुलाई सन् 1922 से ही हो सकता था। इस बीच में इस संबंध का सब कार्य संपन्न किया गया। पाठ्य पुस्तकों का चुनाव हुआ और पढ़ाई का क्रम निश्चित हुआ। इस समय इस विभाग में केवल तीन अध्यापक थे। पर अभी तो केवल फर्स्ट ईयर, थर्ड ईयर और फिफ्थ ईयर में पढ़ाई आरंभ हुई थी, अतएव अधिक अध्यापकों की आवश्यकता भी न थी। पर आगे चलकर इसके लिये बड़ा विकट प्रयत्न करना पड़ा।
पहली कठिनाई, जिसका मुझे सामना करना पड़ा, अध्यापन और परीक्षा का माध्यम था। युनिवर्सिटी का नियम था कि सब विषयों की पढ़ाई और परीक्षा अँगरेजी भाषा के माध्यम द्वारा हो। मुझे यह नियम सर्वथा अनुचित जान पड़ता था कि संस्कृत और हिंदी की पढ़ाई और परीक्षा भी अँगरेजी के द्वारा हो। पर यह मेरी शक्ति के बाहर की बात थी कि मैं इसे तोड़ या बदल सकता। मैंने इसे धैर्यपूर्वक इस बात के सुधार का उद्योग आरंभ किया और किसी को इसका आभास न मिलने दिया।
पंडित रामचंद्र शुक्ल तो अँगरेजी में पढ़ा सकते थे, पर लाला भगवानदीन ऐसा करने में असमर्थ थे। अतएव हम लोगों ने पढ़ाना हिंदी में आरंभ कर दिया। बीच-बीच में अँगरेजी का प्रयोग करते जाते थे। प्रश्नपत्र अभी अँगरेजी ही में छपते थे। आगे चलकर कोई-कोई पत्र हिंदी में भी छपने लगा। यह कार्य क्रमशः हुआ।
एक दिन सेनेट के अधिवेशन में मैंने इस बात को छेड़ा। मैंने कहा कि यह बड़ी अस्वाभाविक बात है कि हिंदी और संस्कृत की पढ़ाई और परीक्षा अँगरेजी में हो। इससे हमारे संस्कृत और हिंदी-साहित्य को जो हानि पहुँचती है वह तो अत्यधिक है, साथ ही विद्यार्थियों को भी भाव समझने और उसे लिखकर स्पष्ट करने में कठिनता होती है। मालवीय जी कह बैठे कि यह अनुचित है। मैंने एक प्रश्नपत्र, जो पंडित केशवप्रसाद मिश्र का बनाया हुआ था, दिखाकर कहा कि देखिए यह हिंदी में कितना सुंदर हुआ है और अँगरेजी में यह कितना भद्दा हो जाता। मालवीय जी ने प्रश्नपत्र लेकर देखा और उसकी प्रशंसा करते हुए कहा कि नहीं हिंदी और संस्कृत के प्रश्नपत्र जहाँ तक संभव हो उन्हीं भाषाओं में हों।
मालवीय जी में भावुकता की मात्रा अधिक थी। भावोन्मेष में आकर वे आगा-पीछा कुछ नहीं सोचते थे और चट कार्य कर बैठते थे। इसमें यदि किसी नियम का भंग होता हो तो उसकी उन्हें चिंता न थी। कदाचित् उनकी यह धारणा थी कि नियम कार्य की व्यवस्था ठीक करने के लिये हैं, न की उसमें बाधा डालने के लिये।
अब तो हम लोग खुलकर हिंदी के माध्यम से पढ़ाने और परीक्षा लेने लगे। अंत में जाकर यह भी निश्चय हो गया कि डाक्टरी की डिग्री के लिये भी संस्कृत और हिंदी से संबंध रखनेवाले हिंदी या संस्कृत में लिखे जा सकते हैं। इस विषय पर किंचित् विस्तार से लिखने की आवश्यकता इसलिये हुई कि आजकल शिक्षा के माध्यम का प्रश्न बड़े जोरों से उठा है। कुछ परीक्षाओं में मातृभाषा माध्यम मान ली गई है, औरों का विषय विचाराधीन है। पर इस माध्यम के प्रश्न में जो हिंदुस्तानी का पुछल्ला जोड़ दिया गया है उससे हिंदी को विशेष हानि की आशंका है तथा उच्च शिक्षा तो हिंदुस्तानी-द्वारा हो ही नहीं सकती। एक संकर भाषा की रचना करने का व्यर्थ उद्योग करके हिंदी की उन्नति के मार्ग में काँटे बोना बुद्धिमत्ता नहीं कही जा सकती।
दूसरी कठिनाई, जिसका हम लोगों को सामना करना पड़ा, उपयुक्त पुस्तकों का अभाव था। पद्य-साहित्य की पुस्तकें तो अच्छी मात्रा में उपलब्ध थीं पर उनके अच्छे संस्करण दुर्लभ थे। भाषा-विज्ञान, आलोचनाशास्त्र, हिंदी भाषा और हिंदी-साहित्य के इतिहास की पुस्तकों का सर्वथा अभाव था; साहित्य के एक-दो छोटे-मोटे इतिहास जैसे ग्रियर्सन के और ग्रीव्स के उपलब्ध थे, पर उनसे पूरा-पूरा काम नहीं निकल सकता था। उपयुक्त गद्य-ग्रंथों का एक प्रकार से अभाव ही था। शुक्ल जी ने जायसी, सूर, तुलसी आदि के ग्रंथों के संस्करण तैयार किए और विद्वत्तापूर्ण भूमिकाएँ लिखीं। मैंने भाषा-विज्ञान, आलोचनाशास्त्र, नाट्यशास्त्र आदि पर ग्रंथ लिखे तथा अन्य लोगों को गद्य-ग्रंथों के लिखने के लिये उत्साहित किया और कुछ संग्रह आप भी तैयार किए। अपने रचित ग्रंथों के विषय में यथास्थान विस्तार से लिखूँगा।
तीसरी कठिनाई अध्यापकों की अल्प संख्या थी। इसके लिये कोई उद्योग सफल होता नहीं दिखाई देता था। संयोग से ओरियंटल-विभाग में हिंदी-निबंध की शिक्षा देने का निश्चय हुआ। इसके लिये पंडित अयोध्यासिंह उपाध्याय चुने गए। उन्हें एक दिन युनिवर्सिटी में देखकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। मैंने उनसे आग्रह किया कि हमारे विभाग में भी वे कुछ कार्य-भार लें। इसको उन्होंने सहर्ष स्वीकार किया। उपाध्याय जी हिंदी के उत्कृष्ट कवि और सुलेखक हैं। उन्होंने हिंदी-साहित्य को अनेक रत्नों से विभूषित किया है। मुझे उनसे बड़ी आशा थी कि एक योग्य व्यक्ति के मिल जाने से हमारा काम भली भाँति चल सकेगा। पर मुझे उनके अध्यापन-कार्य से असंतोष ही रहा। वे यह नहीं समझ सकते थे कि स्कूल की पढ़ाई और कॉलेज की पढ़ाई में क्या अंतर है और कैसे उसे निबाहना चाहिए।
कई उलट-फेर किए गए पर कहीं भी सफलता नहीं मिली। निबंध पढ़ाने को दिया गया तो पुस्तक पढ़ाने की अपेक्षा हिंदू-संगठन और हिंदुओं के ह्रास पर उनके व्याख्यान होने लगे। अंत में हारकर उन्हें उन्हीं के रचित ग्रंथ पढ़ाने को दिए गए पर उस काम को भी वे पूरा न कर सके। साल भर में चौथाई पुस्तक भी न पढ़ा सके। मेरी ही भूल थी कि मैं यह समझता था कि एक विद्वान लेखक अच्छा अध्यापक भी हो सकता है। मालवीय जी को उचित था कि वे स्वयं आकर देखते कि पढ़ाई कैसी होती है तो उनकी आँखें खुल जातीं। पर उन्होंने ऐसा नहीं किया। अस्तु किसी प्रकार काम चलता रहा। जब लड़कियों के लिये अलग कॉलेज बना तब वे वहां हिंदी पढ़ाने के लिए भेजे गए पर मेरे समय तक सप्ताह में दो घंटे की पढ़ाई उनकी आर्ट्स कॉलेज में चलती रही।
कई वर्षों के अनुभव के अनंतर हम लोगों ने हिंदी के पाठ्यक्रम में परिवर्तन करने की आवश्यकता समझी। यथासमय प्रस्ताव किए गए और वे स्वीकृत हुए। इसमें मुख्य परिवर्तन यह था कि एमए के विद्यार्थी को किसी आकर भाषा (संस्कृत, पाली, प्राकृत या अपभ्रंश) या किसी दूसरी देशी भाषा (बँगला, मराठी, गुजराती, उर्दू) में भी एक प्रश्नपत्र का उत्तर देना पड़ता था। आकर भाषा के पढ़ाने का हमारे विभाग में प्रबंध न था। इसलिये मैंने एक नये व्यक्ति की नियुक्ति का प्रस्ताव किया। प्रस्ताव स्वीकृत हुआ और मैंने पंडित केशवप्रसाद मिश्र के नियुक्त किए जाने की सिफारिश की।
पंडित केशवप्रसाद मिश्र हिंदू स्कूल में संस्कृत के अध्यापक थे। मैं इनकी योग्यता पर मुग्ध था। अतएव मैंने इन्हें लेने का भरसक उद्योग किया। अनेक विघ्न उपस्थित हुए पर अंत में केशव जी की नियुक्ति हो गई। केशव जी बड़े सज्जन और सरल चित्त के व्यक्ति हैं, पूरे-पूरे विद्याव्यसनी हैं, पर इनकी रुचि जितनी पढ़ने में है उतनी लिखने में नहीं। एक इन्हीं के आगे मुझे हार माननी पड़ी है। अनेक बेर इन्हें कुछ लिखने के लिये मैंने उत्साहित किया कभी-कभी आग्रह भी किया, पर मेरे सब प्रयत्न निष्फल गए। कदाचित् इनमें आत्मविश्वास की कमी है। ये सदा सोचते हैं कि और पढ़ लें और ज्ञान प्राप्त कर लें तब लिखें। इसी कारण केवल मेघदूत के अनुवाद और कुछ लेखों के अतिरिक्त वे कोई साहित्यिक रचना न कर सके। इनमें एक बड़ी त्रुटि है। ये इतने सरल हैं कि कोई भी होशियार आदमी इन्हें धोखा दे सकता है। मनुष्यों की परख इन्हें प्राय: बिलकुल नहीं है। यदि साक्षात् प्रमाणों के मिल जाने पर भी ये किसी को निकृष्ट समझ लेते हैं तो भी सहृदयता और सज्जनता के मारे उससे संबंध नहीं तोड़ते, वरन् कभी-कभी तो इसके विपरीत भाव का मन से विरोध करते हुए भी साधारणत: उसका साथ देते हैं। उनका यह सिद्धांत जान पड़ता है कि जिसका एक बेर हाथ लिया उसे, अनेक दोष रहने पर भी, छोड़ना मनुष्यता नहीं है। पढ़ाने-लिखाने में तो वे पटु हैं, पर और कामों में कुछ ढीले-ढाले से हैं। इनके कारण मुझे दो-एक ऐसे व्यक्तियों से काम पड़ गया जिन्होंने मुझे बहुत दुःख दिया, पर यह उनका नहीं, उनके मनुष्य को न समझ सकने का दोष है।
लाला भगवानदीन के स्वर्गवासी होने पर किसी को नियुक्त करने का प्रश्न उपस्थित हुआ। मैंने डाक्टर पीतांबरदत्त बड़थ्वाल के नियुक्त होने का प्रस्ताव किया पर इसका विरोध एक दूसरे प्रभावशाली अधिकारी ने किया। इस बेर इंजीनियरिंग कॉलेज के प्रिंसपल मिस्टर किंग ने सहायता की और बड़थ्वाल की नियुक्ति हुई। पीछे एक और व्यक्ति के बढ़ाने का आयोजन हुआ। दो विद्यार्थियों में से चुनाव होने वाला था - एक थे नंददुलारे वाजपेयी और दूसरे थे जगन्नाथप्रसाद शर्म्मा। मैं वाजपेयी जी को हृदय से चाहता था पर मालवीय जी ने यह कहकर जगन्नाथप्रसाद को नियुक्त किया कि वह देश के लिये जेल हो आया है।
आगे चलकर वेतन का प्रश्न उठा। सब अध्यापकों को बहुत कम वेतन मिलता था। किसी को 100) मासिक से अधिक नहीं मिलता था। केवल मुझे 250) मिलते थे। इस अन्याय को हटाने के लिये बहुत दिनों तक प्रयत्न करना पड़ा, तब कहीं जाकर वेतन बढ़ा। सहायक अध्यापकों का वेतन 100)-10)-150) हुआ। मेरे साथ तो विशेष कृपा हुई। जब इस वेतन के प्रश्न ने उत्कट प्रयत्न का रूप धारण किया तब मेरा ग्रेड 150)-10)-300) हुआ। युनिवर्सिटी के किसी प्रोफेसर को यह वेतन नहीं मिलता। केवल असिस्टेंट प्रोफेसरों का यह ग्रेड है। मैं प्रोफेसर था और मेरे भली भाँति कार्य चलाने का उपहार यह मिला कि पद प्रोफेसर का रखकर ग्रेड असिस्टेंट प्रोफेसर का दिया गया। मैंने इसे स्वीकार नहीं किया। अंत में जाकर 400) वेतन मुझे दिया जाने लगा और इसके लिये मैं ध्रुव जी का अनुगृहीत हूँ कि उन्होंने बड़े जोरों से मेरे पक्ष का समर्थन किया था। मुझे यह सब अनुभव करके कभी-कभी यह संदेह हो जाता था कि मालवीय जी में हिंदी के प्रति वास्तविक प्रेम है या नहीं। जहाँ कहीं विद्यालय के विषय में वे व्याख्यान देते वहाँ हिंदी और संस्कृत-विभागों की जी खोलकर प्रशंसा करते पर स्वयं हिंदी-विभाग के प्रति उपेक्षा का भाव रखते। उनके एक अंतरंग पारिपार्श्विक ने एक बेर मुझे सलाह दी कि समाचारपत्रों में मैं इसका आंदोलन करूँ। मैं इनकी चाल समझ गया। मैंने उत्तर दिया कि जब समय आवेगा तब देखा जायगा। मैं अब तक मालवीय जी के इस उपेक्षाभाव को नहीं समझ सका हूँ। कदाचित् 'अतिपरिचयादवज्ञा' ही इसका कारण हो।
जब तक मैं विद्यालय में काम करता रहा, मुझे निरंतर कठिनाइयों का सामना करना पड़ता। दो-एक घटनाओं का मैं उल्लेख करता हूँ।
एक समय पंडित रामचंद्र शुक्ल ने अलवर में नौकरी करने के लिये एक वर्ष की छुट्टी ली। उनके स्थान पर किसी की नियुक्ति आवश्यक थी। मैंने कहा कि एक वर्ष के लिये किसी को चुन लीजिए। मुझे आदेश मिला कि तुम अपने किसी अच्छे विद्यार्थी से काम लो। मालवीय जी के आने पर उसकी नियुक्ति हो जायगी। इस पर मैंने सत्यजीवन वर्म्मा को कार्य का भार दिया। कुछ महीनों तक उसने काम भी किया, पर मालवीय जी ने आकर यह निश्चय किया कि नहीं, कोई नई नियुक्ति न होगी। विभाग के लोग आपस में काम बाँट लें। बेचारे सत्यजीवन को अलग होना पड़ा।
एक बेर मैंने यह सोचा कि एमए के विद्यार्थियों को भाषाविज्ञान पढ़ाने के लिये एक ऐसा नकशा बनवाया जाय जिसमें भिन्न-भिन्न भारतीय देश-भाषाओं की भौगोलिक सीमाएँ भिन्न-भिन्न रंगों में दिखलाई जायँ। नकशा तो मैंने उस धन में से मँगवा लिया जो मुझे पुस्तकें खरीदने के लिये स्वीकृत था, पर रँगवाने के लिये मैंने 15) माँगे। वे मुझे न मिले।
युनिवर्सिटी के मित्रों में मेरे सबसे अधिक प्रिय, अंतरंग और विश्वासपात्र पंडित इंद्रदेव तिवाड़ी थे। उनसे मेरी खूब पटती थी। वे मेरी कठिनाईयों को सुलझाने में सदा सहायता देते थे। ऐसे मित्रों का मिलना कठिन है। मेरे सौभाग्य से मेरे जीवन में एक यही ऐसे मित्र मिले थे जो सब अवस्थाओं में अपने धर्म का पूर्णतया पालन करते थे। लू लग जाने से इनका देहांत हो गया। इनकी स्मृति अभी तक मुझे कभी-कभी विह्वल कर देती है। जब ये रजिस्ट्रार हुए तो उसी दिन रात को आकर मुझे सूचना दी और अपने सपक्ष तथा विपक्षों की बातें सुनाईं। वे अपनी गुप्त से गुप्त बात मुझसे कह देते थे। इनकी रजिस्ट्रारी में मैं तीन बेर युनिवर्सिटी-परीक्षाओं का परिणाम तैयार (Tabulator) करने के लिये नियुक्त हुआ। एक बेर मैंने सिंडिकेट में यह बात कही कि इसके लिये जो पुरस्कार मिलता है वह बहुत थोड़ा है। इस पर कहा गया कि आदमी दूने कर दो। वैसा ही हुआ और 200) वार्षिक का खर्च बढ़ गया। कैसी विचित्र बात है कि उसी काम के लिये धन की कमी थी, पर तुरत ही उसी काम के लिये दो और व्यक्तियों का पुरस्कार देने को धन मिल गया।
उस वर्ष की बात स्मरण आती है जिस वर्ष पीतांबरदत्त को डाक्टर की उपाधि मिलने वाली थी। इस अवसर पर कई महानुभावों को आनरेरी डिग्री देने का उपक्रम किया गया था। युनिवर्सिटी का यह नियम है कि किसी विभाग का कोई विद्यार्थी जो उपाधि पाने के योग्य समझा जाय उसे कानवोकेशन में उपस्थित करने का अधिकार उस व्यक्ति को होगा जो उस विभाग का अध्यक्ष तथा सेनेट का सदस्य होगा। इस नियम के अनुसार मुझे पीतांबरदत्त को उपस्थित करने का अधिकार था, पर उस वर्ष में आचार्य ध्रुव जी के लिये उपस्थित करने को कोई विद्यार्थी न था। अतएव वाइसचैंसलर महोदय ने निश्चय किया कि पीतांबरदत्त को ध्रुव जी ही उपस्थित करें। यह बात मुझे बहुत बुरी लगी पर मैं चुप रह गया।
एक समय मैंने सेनेट में कुछ प्रस्ताव फैकेल्टी के नियमों में संशोधन करने के लिये किए। इन नियमों का संबंध कोर्ट से भी था। अतएव मैंने सूचना दी कि मैं इन प्रस्तावों को कोर्ट में भी उपस्थित करूँगा। मैं उस समय कोर्ट का भी सदस्य था। असिस्टेंट सेक्रेटरी साहब ने, जो बहुत दिनों तक संयुक्त-प्रदेश की दीवानी कचहरी के एक उच्च पद पर रह चुके थे, फतवा निकाला कि मेरी अवधि अब पूरी होनी चाहती थी अतएव मैं कोई प्रस्ताव नहीं उपस्थित कर सकता। मैंने पूछा कि आपको यह कैसे ज्ञात हुआ कि मैं फिर कोर्ट का सदस्य न चुना जाऊँगा। इसका उत्तर न था, पर एक बेर जो जज साहब का फैसला हो गया तो उसकी अपील कहाँ हो सकती थी? जब सेनेट में मैंने प्रस्ताव उपस्थित किया तब मालवीय जी ने कहा कि इसका संबंध कोर्ट से भी है, अतएव यह यहाँ भी उपस्थित होना चाहिए। मैंने जज साहब के फैसले की बात कह सुनाई तब उन्होंने कहा की यह उनकी गलती थी। परिणाम यह हुआ कि काम एक वर्ष के लिये रुक गया। इस प्रकार की धाँधली युनिवर्सिटी में हुआ करती थी।
युनिवर्सिटी में काम करते हुए मुझे अनेक प्रकार के विद्यार्थियों से काम पड़ा। कुछ विद्यार्थी तो बड़े सात्त्विक स्वभाव के अत्यंत श्रद्धालु तथा विद्याव्यसनी थे। इनमें मुख्यत: चार नाम मेरे सामने आते हैं - एक पीतांबरदत्त बड़थ्वाल, दूसरे नंददुलारे वाजपेयी, तीसरे हरिहरनाथ टंडन और चौथे श्रीधरसिंह। इन चारों के स्वभाव में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। वे अब तक मुझे उसी दृष्टि से देखते हैं जिस दृष्टि से अपने पठनकाल में देखते थे। इन चारों के मेरे प्रति अत्यंत श्रद्धा और भक्ति है। इनमें से दो ने मेरे सहयोग में कई काम किए हैं, जिनका उल्लेख यथास्थान किया जायगा। मैं और इतना और कह देना चाहता हूँ कि इनके प्रति मेरे भाव भी अत्यंत स्नेहमय हैं और मैं यथाशक्ति इनकी सहायता करने से कभी पराङ्मुख भी नहीं हुआ।
अधिकांश विद्यार्थी मुझे ऐसे मिले हैं जो अपने स्वार्थसाधन में कोई बात उठा नहीं रखते थे। इनमें से किसी-किसी को तो मैंने महीनों 20) मासिक अपने पास से दिया और अपने मित्रों से दिलाया, पर इनमें से ऐसे नरपिशाचों से भी मुझे काम पड़ा है जो अपने स्वार्थसाधन करने में मेरा अनिष्ट करने से भी नहीं हिचके। हिंदू-विश्वविद्यालय में ही ऐसे विद्यार्थी हों ऐसी बात नहीं है। मुझे कई बेर मौखिक परीक्षा लेने के लिये आगरा जाना पड़ा है। वहाँ परीक्षा के बाद प्राय: विद्यार्थी मुझसे मिलने आते। कोई कहता मैं तो गा या कविता कर सकता हूँ, और कुछ नहीं जानता। ऐसे विद्यार्थियों से भी मुझे काम पड़ा है जो ऊपर से तो मुझ पर बड़ी श्रद्धाभक्ति दिखाते पर भीतर से उनका उद्देश्य स्वार्थसाधन-मात्र रहता। एक विद्यार्थी का मुझे स्मरण आता है जो मौखिक परीक्षा देकर बाहर ठहरा रहा। मेरे कार्य समाप्त होने पर डेरे पर चलने के समय वह मेरे साथ हो लिया और कहने लगा कि मुझे आपसे निवेदन करना है, आज्ञा हो तो कहूँ। उसने कहा कि मैं आपका जीवनचरित लिखना चाहता हूँ। यदि आप सहायता करें तो छुट्टियों में आपके पास काशी आऊँ। मैंने उससे कहा कि मेरे पास जीवनचरित की कोई सामग्री नहीं है जो मैं तुम्हें दिखा या बता सकूँ। मैंने उसकी और परीक्षा करनी चाही। कई वर्षों बाद वह मुझसे काशी में मिला और मेरी जीवनी के नोट्स माँगने लगा। मैंने उसे नोट्स दे दिए। कुछ दिनों के पीछे उसने उन्हें लौटा दिया, पर आज तक वह जीवनी देखने में न आई। वास्तव में बात यह थी कि वह मेरी जीवनी नहीं लिखना चाहता था, उद्देश्य केवल यही था कि मैं अन्य कामों में उसकी सहायता करता रहूँ। यह मैंने किया भी। पर उसके कथनानुसार अस्ताचल में गए हुए सूर्य की कोई पूजा नहीं करता। अतएव अब मुझसे किसी कार्य के निकलने की आशा उसने छोड़ दी और उसके दर्शन भी दुर्लभ हो गए।
एक और विद्यार्थी की करनी मुझे स्मरण आ रही है। वह हिंदी और अँगरेजी में एमए पास था तथा मेरे एक अत्यंत प्राचीन मित्र के आश्रय में उनके यहाँ रहता था। जब जगन्नाथप्रसाद शर्म्मा की नियुक्ति का प्रश्न उठा हुआ था तब उसने भी उसके लिये उद्योग किया। उसके मन में यह भावना उत्पन्न हुई कि यदि वह मेरा विरोध करे और जगह-जगह मेरी निंदा करता फिरे तो मेरे विरोध करने पर भी उसकी नियुक्ति हो जायगी। यह भावना उसके मन में कैसे उत्पन्न हुई अथवा किसके उपदेश से उसने इस मार्ग का अवलंबन किया यह मुझे आज तक ज्ञात नहीं हुआ। मेरे मित्र ने कई बेर मुझसे कहा कि मैंने उसे बहुत डाँटा। पर उनकी डाँट-फटकार का कोई परिणाम न देख पड़ा। मेरे इन मित्र की यशोलिप्सा इतनी बढ़ी हुई है और इसके लिये वे इतना चिंतित रहते हैं कि किसी प्रकार से भी अपनी यशरूपी चादर पर कलंक का एक छींटा भी नहीं लगना देना चाहते। यदि उन्हें कभी कोई आशंका भी हो जाती तो साम, दंड, भेद में से जिस नीति को उपयुक्त समझते उसका अनुसरण कर वे अपना अभीष्ट सिद्ध कर लेते हैं। उन्हें कदाचित् यह आशंका थी कि यदि मैं उसको अपने आश्रय से निकाल देता हूँ तो कहीं वह विद्यार्थी मेरे ही पीछे न पड़ जाय और तब स्थिति सँभालना कठिन हो जायगा।
पंडित रामनारायण मिश्र मेरे बहुत पुराने मित्रों में हैं। अनेक अवसरों पर उन्होंने मेरी बड़ी सहायता की है। मैंने भी यथासाध्य उनका हाथ बटाने का उद्योग किया है। सन् 1905 में जब काशी में सोशल कान्फरेंस हुई थी तब उन्होंने मुझे शिखंडी-रूप में आगे खड़ा करके कान्फरेन्स का काम चलाया था। गालियाँ मैंने खाई थीं और सब कार्य-संचालन परोक्षरूप से पंडित जी करते थे। मुझे इस बात का आंतरिक खेद है कि एक बेर मैंने अपने पुत्र संबंध में उनसे भिक्षा माँगी थी। वे नहीं तो न कर सके, पर एक अन्य व्यक्ति की आड़ में उन्होंने उस प्रस्ताव का विरोध कराया, यद्यपि वहाँ विरोध की आवश्यकता ही न थी। वहाँ पर वे चाहते तो भी मुझे भिक्षा देने में असमर्थ थे। इस स्थिति का उनको पता न था, नहीं तो एक बड़े पुराने मित्र की उपेक्षा करने के दोष से यों ही बच जाते।
अपने जिन शिष्यों से मेरी अधिक घनिष्ठता थी, उनमें हरिहरनाथ टंडन, श्रीधरसिंह, सत्यजीवन वर्म्मा, रमापति शुक्ल, रमेशदत्त पाठक, कृष्णशंकर शुक्ल, बलराम उपाध्याय, पुरुषोत्तम श्रीवास्तव आदि भी थे। उनकी भक्ति और श्रद्धा पूर्ववत् बनी हुई है। उनसे मेरा परम स्नेह है और वे भूलकर भी आक्षेपयोग्य आचरण नहीं करते।
बहुत ही तथ्यपरक व शानदार।बात अगर तार्किक हो तो उसका अकेला प्रस्तोता ही पर्याप्त है।��
ReplyDeleteहिन्दीनवजागरण ब्लाॅग पर पुनः एक जोरदार और भरपूर ज्ञानवर्धक सामग्री। इसमें एक जगह केशवप्रसाद मिश्र जी के बारे में उनके आत्मविश्वास की कमी के कारण, उनके द्वारा लेखन न करना बताया गया है,अर्थात थोड़ा और पढ लूं तब लिखूं।यह भावना सचमुच अधिकांश लोगों में रहती है। हमलोग ख़ुद इसका शिकार हैं।डा०सुजीत कुमार सिंह को इस सामग्री के प्रस्तुतीकरण हेतु बधाई।
ReplyDeleteबहुत ज्ञानवर्धक
ReplyDeleteबहुत ही रोचक व ग्यान बर्धक प्रसंग उठाने लिए मित्र सुजीत बधाई एव साधुवाद।
ReplyDeleteहिन्दी विभाग की प्रारंभिक स्थापना,संरचना और विकास पर बहुत अच्छी जानकारी इस लेख से मिली |इस लेख ने बहुतों के मन की आशंका को दूर कर दिया |विशेष रूप से विभाग के पहले अध्यक्ष को लेकर | बहुत बहुत धन्यवाद भईया !
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