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'जीवन का सपना' में एक विप्लवकारी हृदय का वास्तविक चित्र है। इसकी रचयित्री श्रीमती रामेश्वरी जी से मेरा कुछ परिचय था। ऐसे तो बरसों मुझे उनके निकट रहने का अवसर मिला है; परन्तु उन रामेश्वरी जी से जो अपने जीवन के सपने की चिर-क्रीड़ा में लय हो चुकी थीं, जिनका संघर्ष-पूर्ण हृदय किसी पूर्णता की खोज किया करता था, मेरा परिचय अनेकों में अधिक होने पर भी थोड़ा ही था।
आज चारों ओर करुणानाद ही सुनाई पड़ता है। युवक-हृदय अपने काल्पनिक जीवन की असत्यता के अनुभव से व्याकुल हो उठा है। हमारा सामाजिक जीवन इतना दूषित हो चुका है कि संलग्न होकर चेष्टा करने पर भी जीवन का साधारण सुख अप्राप्य ही रहता है। वर्तमान समाज का मूल-मंत्र 'स्वार्थ' है। रूढ़ि के रूप में या सुधार के नाम से यह विष हमारी उच्च से उच्च भावना की जड़ों तक फैल चुका है। युवक का निर्मल प्रेम-पूर्ण सहज हृदय अपनी और सामाजिक जीवन की स्वाभाविक असफलता को निश्चित देखकर इतना व्यग्र हो उठता है कि वह उस प्रकृति-सौंदर्य-जनित कल्पना-शक्ति की ही हत्या कर डालना चाहता है जिसने उसे अप्राप्य सुख से आभाषित कर अंत में धोखा दिया है। देखिए -
"मधुमास के मधुप थिरक रहे हैं - वसन्त कछारों तक में छाया है। मैं इस करुण-नाद से थक गया हूँ, इस हलचल से विश्राम लेने के लिए मुझे विस्मृत का सङ्गीत सुनाओ। मैं उस अथक संग्राम को भूल जाऊँ - जीवन की निराश घड़ियों को छिपा लूँ...।"
इतना ही नहीं, सामाजिक जीवन की असफलता के चिर-तांडव को देखकर उसको विश्वास हो जाता है कि उसका लक्ष्य, उसका वह पूर्ण-सत्य इस दुःख-कलित संसृति की परिधि से बाहर इस जीवन के अंत में, और उसकी कल्पना के अंत में ही प्राप्त हो सकता है। कहा है -
"पथिक, उस पार मिलन नहीं है - वहाँ है आत्मविसर्जन... चलोगे?"
श्रीमती महादेवी वर्मा ने भी अपनी एक रचना में ऐसे ही विचार व्यक्त किये हैं -
तरी को ले जाओ मझधार,
डूब कर हो जाओगे पार।
विसर्जन की है कर्णाधार,
वही पहुँचा देगा उस पार।।
मुझे याद है कि रामेश्वरी जी का सरल हृदय सांसारिक स्वार्थमय आडंबर से कितना व्याकुल हो उठता था। इतना ही नहीं, उन्हें तो वर्तमान जीवन की असत्यता ने इतना प्रभावित कर दिया था कि कभी कभी तो वे बहुत गंभीरता-पूर्वक सोचने लगती थीं कि कवि-कथित स्वार्थ-रहित सच्चे प्रेम का कोई वास्तविक अस्तित्व है भी या नहीं। वास्तव में आज हमारी सभ्यता और हमारे सामाजिक विचार इतने दूषित हो चुके हैं कि हमने स्वार्थ-जनित आडंबर को ही सभ्यता की कसौटी मान लिया है। यदि किसी ग़रीब की दशा पर हमें दुःख हो या उस पर होने वाले अन्याय को देखकर हमारा हृदय जल ही क्यों न उठे, हमें अपनी उस अन्याय-विरोधी उच्च भावना को लोक-नीति के विकृत नियमों की बलिवेदी पर भेंट करना ही पड़ता है। हमारा जीवन तो प्रतिक्षण स्वाँग रचाने में और मानव-हृदय की सहज सबलता को कुचलने में ही बीतता है। वे लिखती हैं -
"यहाँ विचित्र व्यापार है - कोई वस्तु, अथवा व्यक्ति, तुम्हारी रुचि के अनुकूल होने पर भी तुम उस भाव को व्यक्त करने के अधिकारी नहीं हो। तुम्हें स्नेह-भाव दिखाना ही होगा। लाख अनिच्छा होने पर भी हृदयगत पीड़ा को छिपाकर तुम्हें मुस्कराना ही होगा - रोते हुए हृदय से भी होठों पर कुछ सुख की झलक दिखानी ही होगी! अच्छा यह जीवन है!! संसार में इस ढोंग का कितना अधिक महत्त्व है, यह देखकर हँसी आती है।"
रामेश्वरी जी की इन पंक्तियों में कितना सत्य भरा है? यहाँ हम उनकी उस प्रबल शक्ति का दर्शन करते हैं जिसके सहारे वे जीवन के जटिल बंधनों को काट, उसके ऊपर उठ सांसारिक नाटक पर निर्लिप्त भाव से मनन करती थीं। उनके मानसिक वैराग्य ने उनके विचारों को इतना दृढ़ कर दिया था कि वे साहस-युक्त हृदय से दूसरों को चेतावनी दे सकी हैं -
सुनने को उत्कंठा क्यों,
पीड़ा की अकथ कहानी,
पीछे से पछताओगे
कैसी थी यह नादानी?
परन्तु उनका यह मानसिक वैराग्य केवल कल्पना की कलामात्र ही न था। वह तो वर्तमान सामाजिक जीवन के कटु अनुभवों से उत्पन्न वह सत्य था जिसका प्रकाश चिरकाल तक न जाने कितने भूले हुए पथिकों के जीवन के अंधकारपूर्ण मार्ग में पड़े हुए भीषण कंटकों से बचाएगा।
रामेश्वरी जी का विश्वास था कि हमको सांसारिक बंधनों से मुक्ति पाने के लिए जीवन के संघर्ष को अपनाना ही पड़ेगा - संसार से भागनेवाला व्यक्ति तो कभी भी सच्चा वैराग्य प्राप्त कर ही नहीं सकता। क्योंकि जो केवल अपने व्यक्तिगत सुख और शांति के लिए इस महान संग्राम से भागता है, जिसने अपने ही सुख स्वार्थ के वश में होकर सब कुछ ठुकरा दिया है, वह वैरागी के उच्च पद को पा ही नहीं सकता। रामेश्वरी जी के अनुभव ने तो यह सिद्ध कर दिया था कि हमारे दुखों से ही उस महान सुख का जन्म होता है -
हास्य का मृदु अवगुण्ठन डाल,
राग से सीखा आज विराग,
न जर्जर कर दे यह अभिसार,
वेदना का व्याकुल अनुराग।
स्वदेश-प्रेम तो रामेश्वरी जी में कूट-कूट कर भरा था। जिन दिनों हमारे देश में स्वाधीनता का संग्राम चल रहा था, उनका भावुक हृदय देशानुराग से पागल-सा हो उठा था। वे रात-दिन उस महान यज्ञ में अपनी शक्ति भर आहुति देने में मग्न रहती थीं। उनकी कविता का जिसने कोरी कल्पना का सहारा न लेकर उनके हृदय की वास्तविक स्थिति को ही सदैव चित्रित किया है, उनके उस देश-प्रेम की व्याकुलता से झंकृत हो उठना सर्वथा स्वाभाविक ही था -
देशानुराग का पागलपन,
रग रग में फड़काकर धड़कन,
बलिवेदी पर बलि दे जीवन,
भारत स्वाधीन बनायेगा।
वैसे तो उन दिनों हिन्दी में हज़ारों राष्ट्रीय कवितायें लिखी गईं, और इसमें भी संदेह नहीं कि कुछ तो अवश्य ही बहुत ही सुन्दर हैं, परन्तु अधिकांश ऐसी हैं जिनको स्थायी साहित्य में स्थान नहीं दिया जा सकता, पर रामेश्वरी जी की राष्ट्रीय कविताओं में भाव, भाषा और संगीत का इतना अच्छा सम्मिश्रण हुआ है कि उनकी राष्ट्रीय कवितायें सर्वकालीन और सर्वदेशीय होने का गौरव प्राप्त कर सकती है।
व्यक्तिगत जीवन की असफलता और कष्टों को शांतिपूर्ण भाव से सहन करना उदार और महान हृदयों का सर्वदा से एक साधारण-सा गुण रहा है। रामेश्वरी जी अपने व्यथित और अपमानित हृदय को गंभीरतापूर्वक प्रकार सान्त्वना दे सकती थीं -
नीरव जीवन पतझड़ का
ऋतुराज नहीं फिर आता,
भूली-सी तू फिरती क्यों
जग का थोड़ा यह नाता?
जग हँसता है...ले सो जा !
आ ..! आ..! मतवाली सो जा !
पर सामाजिक रूप से होनेवाले अत्याचारों और दूसरों के दुःख को देखकर उनके पवित्र हृदय में उस पाप लंका का दहन करने के लिए क्रान्ति की वह महान ज्वाला धधक उठती थी जिसके शाब्दिक प्रतिबिंब में इतना बल है कि वह असंख्य निर्बलों को सबल बनाता रहेगा -
पीड़ा का मूक रुदन बन शर,
दुष्टों का रक्त बहायेगा,
निर्धन प्राणों का आह-पुंज,
भूतल पर क्रान्ति मचायेगा।
रामेश्वरी जी के एक-एक शब्द में जीवन का रस भरा हुआ है। उन्होंने अपनी रचनाओं के द्वारा हिंदी को नये जीवन का सन्देश दिया है।
(सरस्वती, अप्रैल 1938)
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रामेश्वरी गोयल (1910 - 1935) : "छायावादी युग की उन सशक्त कवयित्रियों में से हैं, जिनका कवि-व्यक्तित्व और सौंदर्यदृष्टि उस युग के अधिकांश कवियों की अपेक्षा अधिक स्पष्ट और संयमित और संवेदनपूर्ण रही है। रामेश्वरी गोयल के गीतों में व्याप्त करुणा और एक मर्मान्तक वेदना हमें उसी कोटि और उतनी ही हृदयग्राह्य रूप में मिलती है जितनी कि अंग्रेज़ी के कवि कीट्स की कविताओं में। अनुभूति की गहराई के साथ-साथ बिम्बों और अनुभूतियों के मानवीय वैयक्तिक स्वर को जो संवेदना हमें गोयल की कविताओं में मिलती हैं, वह इस बात की सूचक थी कि वे आगे चलकर हिंदी के गीत साहित्य को नया स्वर और नयी भावभूमि प्रदान करतीं। लेकिन जैसा कि होना था, उनकी मृत्यु इतने अल्पकाल में हो गयी कि उनकी प्रतिभा का पूर्ण योगदान हिंदी की गीत-शैली को नहीं मिल सका।" (लक्ष्मीकांत वर्मा)
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प्रस्तुति : सुजीत कुमार सिंह