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Wednesday, August 12, 2020

काशी-नागरी-प्रचारिणी सभा : पं. रामनारायण मिश्र




 

यह संस्थाओं का युग है। संसारके समस्त सभ्य देशोंमें सार्वजनिक जीवनके प्रत्येक पहलूसे सम्बन्ध रखनेवाली संस्थाएँ  हैं। हमारे भारतमें भी हैं। संस्थाएँ देशकी संघशक्तिकी साक्षी-स्वरूप हैं; पर भारतकी संस्थाओंमें दृढ़ता, एकता और चिरजीवी होनेके गुण प्राय: कम पाए जाते हैं। अन्य देशोंमें ऐसी सभा-समितियाँ  हैं, जो सैकड़ों बरसोंसे चली आ रही हैं। उनके संचालक सोचते रहते हैं कि किस प्रकार उनका भविष्य अधिकसे अधिक उज्ज्वल बनाया जा सकता है; किन्तु हमारे देशमें समस्या यह रहती है कि किस प्रकार हम एक संस्थाको जीवित रखें! ऐसी अवस्थामें यदि कोई संस्था 50 वर्ष की आयु प्राप्त कर ले, तो वह बधाई और प्रोत्साहन पानेकी पात्र है। परमेश्वरकी कृपासे काशी-नागरी-प्रचारिणी सभा आज इसी कोटिमें पहुँच गई है। 

पचास वर्ष पहले हिन्दीको कौन पूछता था। संस्कृतके विद्वान्, जो निसन्देह सरस्वती देवीके सच्चे उपासक रहते आए हैं; हिन्दीको 'भाखा' कहकर उन दिनों उसका निरादर किया करते थे। 5 अगस्त सन् 1843 में डा. बैलन्टाइनको, जो काशीके गवर्नमेन्ट संस्कृत-कालेज के प्रिन्सिपल थे, हिन्दीमें यह आज्ञा निकालनी पड़ी थी -

"संस्कृत-पाठशालामें  विद्यार्थी हिन्दी-भाषा प्राय: बहुत अशुद्ध लिखते हैं। जो विद्यार्थी पंडितके समान संस्कृत लिख सकता है, सो भी हिन्दीभाषा एक गँवार के समान लिखता है और हमारी दृष्टिमें यह निपट अयोग्यता है और चाहते हैं कि यह लज्जाका कारण पाठशालासे उठ जाए। इस निमित्त यह आज्ञा देते हैं कि जो लड़के तीसरी व्याकरण शालामें पढ़ते हैं, सो प्रति दिवस 10 बजेसे 11 बजे तक अंगरेज़ी शालामें आकर हिन्दी-पंडित की शालामें पढ़ा करें।"

जब ब्राह्मण विद्वानोंको, जो उस समय हमारी संस्कृतिकी रक्षा करनेवाले एकमात्र नेता थे, एक विदेशीको बतलाना पड़ा कि हिन्दी -भाषा को भलीभाँति न जानना लज्जाकी बात है, तब अन्य श्रेणीके लोगोंकी क्या अवस्था रही होगी!

अंगरेज़ी स्कूलोंमें पढ़नेवाले बालकोंके अभिभावक यही चाहते थे कि उनके बच्चे विदेशी फ़ारसी-लिपिमें लिखी हुई पुस्तकें पढ़ें। अंगरेज़ी पर तो लोग लट्टू थे। उस समय काशीके सरकारी स्कूलमें पं. मथुराप्रसाद मिश्र एक प्रसिद्ध और प्रतिष्ठित हेडमास्टर थे। उनमें बड़े गुण थे; परन्तु देशमें उनका यश उनके गुणोंके कारण नहीं था, बल्कि इसलिए था कि वे अंगरेज़ोंके समान अंगरेज़ी बोल सकते थे। हम लोग भी विद्यार्थी-अवस्थामें आपसमें अंगरेज़ी ही में बातचीत करना गौरवकी बात समझते थे। छावनीमें गोरोंकी बैरकमें इसलिए घुस जाते थे कि वहाँ अंगरेज़ोंसे अंगरेज़ी बोलेंगे। 

ऐसे समय 8-10  स्कूली विद्यार्थियोंका नागरीके नामसे एक सभा खोलना साहसकी बात थी; पर इसके कार्यक्रममें एकमात्र वाद-विवाद ही को स्थान दिया गया था। सौभाग्यसे इन बालकोंका सम्पर्क बाबू राधाकृष्ण दास, महामहोपाध्याय पं.सुधाकर द्विवेदी, पं.लक्ष्मीशंकर मिश्र, बाबू कार्त्तिकप्रसाद, बाबू प्रमदादास मित्र ऐसे महानुभावों से हो गया, जिनके कारण रूखे वाद-विवादसे हटकर इन लोगोंकी रुचि साहित्यकी ओर झुकी। उन दिनों देशमें हिन्दी-साहित्यके प्रति प्रेम उत्पन्न करनेका श्रेय भारतेन्दु हरिश्चन्द्र को था और हिन्दीको आर्यभाषा कहकर राष्ट्रभाषाका रूप देनेका श्रेय स्वामी दयानन्दको। पर जब यह सभा स्थापित हुई थी, उसके कुछ ही पहले ये दोनों विभूतियाँ स्वर्गगत हो चुकी थीं। वायुमण्डलमें ये दोनों अपना सन्देश अवश्य छोड़ गए थे। 

यह सभा कैसे बढ़ी, इसके सामने कितनी कठिनाइयाँ आईं, इसको किससे कितनी सहायता मिली - ये बातें तो सभाके 50 बरसके विवरणमें मिलेंगी (जो अर्द्धशताब्दी-उत्सवपर प्रकाशित होगा); पर एक बात अवश्य उल्लेखनीय है। वह यह कि इसमें कभी साम्प्रदायिक अथवा व्यक्तिगत भेद-भाव नहीं उत्पन्न हुआ। झगड़े हुए; पर दलबन्दी नहीं हुई। मनुष्योंके स्वभावमें अन्तर होता ही है। एकमें तमोगुण प्रधान , तो दूसरेमें रजोगुण, तीसरेमें सत्वगुण और किसी-किसीमें सब गुणोंका समन्वय। वही संस्था चिरजीवी हो सकती है, जिसमें भिन्न-भिन्न स्वभावके लोग शिष्टताकी सीमाका उल्लंघन नहीं करते और परस्पर प्रेम और श्रद्धा बनाए रखते हैं। मत-भेद हुआ ही करता है - होना स्वाभाविक भी है - पर 'बुद्धि-भेद' न होना चाहिए। इस सभामें ऐसा ही रहा है। यही कारण है कि देखते-देखते इसने 50 बरस बिता दिए और इतना  कार्य किया। 

'सभा' का मुख्य भवन 

सभाका मुख्य उद्देश्य आरम्भसे दो ही रहे -  हिन्दी साहित्यको सम्पन्न करना और देवनागरी-लिपिका प्रचार करना।  नाम तो इसका नागरी-प्रचारिणी सभा रखा गया; पर इसका अधिकतर कार्य साहित्यिक रहा है। प्रचारका कार्य इसने केवल यह किया कि संयुक्त-प्रान्तकी कचहरियोंमें देवनागरी अक्षरोंको, महामना मालवीयके सबल सहयोगसे, स्थान दिलाया। हिन्दी-साहित्य-सम्मेलनको जन्म देकर सभाने प्रचारका एक बहुत बड़ा साधन खड़ा कर दिया। सम्मेलनका कार्यक्षेत्र भारत है। सभाके सभासद उपनिवेशोंमें और यूरोप तथा अमेरिकामें भी मिलते हैं। इसकी एक सम्बद्ध शाखा ईरान की खाड़ीमें भी है। 

साहित्यिक कार्योंमें इसके प्रकाशनोंको सबसे पहला स्थान मिलना चाहिए। इसका शब्दसागर, वैज्ञानिक कोश और इसकी भिन्न-भिन्न विषयोंकी पुस्तकमालाएँ हिन्दी-जगत् में ऊँचा स्थान पा चुकी हैं। कई ग्रन्थ ऐसे हैं, जिनके प्रकाशन करनेसे व्यापारिक दृष्टिसे सभाको हानि हुई है; पर साहित्यिक दृष्टिसे वे बड़े महत्त्व के हैं। सभाकी त्रैमासिक पत्रिका शोध-सम्बन्धी हिन्दीमें एक ही पत्रिका है।  प्रचारकी दृष्टिसे 'हिन्दी' नामकी मासिक पत्रिका जितनी सस्ती कोई दूसरी नहीं। 

सभाका पुस्तकालय हिन्दी-पुस्तकोंका सबसे बड़ा संगठन है। साहित्यिक ग्रन्थ बहुत कम होंगे, जो इसमें न हों। सभा प्रतिवर्ष लेखकोंको पदक-पुरस्कार देती है और समय-समयपर विद्वानोंको निमन्त्रित करके ऐतिहासिक, साहित्यिक और वैज्ञानिक विषयोंपर व्याख्यान कराती है। सभाका एक अनुशीलन विभाग है। इसके अन्तर्गत बहुत-से हस्तलिखित-ग्रन्थ हैं। सभाने हस्तलिखित-ग्रन्थोंकी खोजकर जो काम किया है, बड़े महत्त्व का है। 

साहित्यके साथ कलाका भी सम्बन्ध है, इसलिए 'कला-भवन' सभाकी शोभा और उपयोगिता दोनोंको बढ़ाता है। 

सभाका साधारण जनता, सरकार और राजा-महाराजाओंसे बराबर आर्थिक सहायता मिलती आई है। इसकी अर्द्ध-शताब्दी हिन्दीके लिए युग-प्रवर्त्तक होनी चाहिए; परन्तु यह तभी हो सकता है, जब इसको हिन्दी-जगत् से प्रोत्साहन प्राप्त हो। ईश्वरकी इच्छा होगी, तो इसका भविष्य उज्ज्वल ही होगा। 


(जनवरी, 1944)