Saturday, September 5, 2020

जब गांधी हुए क्वारंटीन! : उमेश यादव

                   

                    

                                        

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जब गांधी हुए क्वारंटीन!  

उमेश यादव 


साहित्य देश,काल और परिस्थितियों को समझने का आईना होता है। किसी समय और जगह विशेष की घटना-परिघटना को जानने के लिए हमेशा ही यह मददगार रहा है। आज ‘कोरोना’ जैसी भयावह महामारी ने पूरी दुनिया को अपनी चपेट में ले लिया है। विश्व के सभी देशों के शीर्ष वैज्ञानिक और अनुसंधानकर्ताओं की ओर हमारी आशा भरी निगाहें टिकी हैं। आज समय की मांग है कि शीघ्र इसका निदान हो और दुनिया फिर से इस भयावह माहौल से निकल सके। आखिर विश्व के तमाम ताकतवर देशों से लेकर गरीब देश भी इस आपदा के आगे पंगु बन गए हैं। भारत में भी ‘कोविड-19’ से पीड़ित व्यक्तियों की संख्या एक लाख प्रतिदिन होने को है, अर्थात् 24 घंटे में एक लाख व्यक्ति संक्रमित हो रहे हैं। कुल पीड़ितों की संख्या भी 50 लाख का आँकड़ा बस छूने ही वाला है। इससे मरने वालों की संख्या भी प्रतिदिन अर्थात् 24 घंटे में 1200 तक पहुँच चुकी है। कोविड-19 ने हमसे बहुत कुछ छीना है और लगातार छीनती जा रही है। धीरे-धीरे यह अब परिचितों, रिश्तेदारों से होते हुए परिजनों तक पहुँच चुकी है। यह आपदा भयंकर महामारी की तरफ बढ़ती ही जा रही है।

भारत में भी जब मा. प्रधानमंत्री मोदी जी ने 22 मार्च 2020 ई० को ‘जनता कर्फ्यू’ का ऐलान किया तो इस महामारी के बारे में देश एलर्ट हुआ। फिर 24 मार्च से पूरी तरह ‘लाकडाऊन’ लगा देने के कारण बहुत से नए शब्द अचानक से चर्चा में आ गए। बहुत से लोगों ने लाकडाऊन, क्वारांटाइन, आइसोलेशन, पैनडेमिक, सोशल डिस्टेशिंग, कोविड और कोविड वारियर्स जैसे शब्दों को पहली बार सुना। कोविड-19 या कोरोना वायरस को ग्रामीण इलाकों में ‘किरौना’ कहा गया। इसको भगाने के लिए लोकगीत गाया गया तथा पूजा-पाठ तक किया गया। साहित्य जगत में भी महामारी की खोजबीन शुरू हो गई। लोगों ने कविता, कहानियों, उपन्यासों और अन्य विधाओं में जहाँ कहीं भी महामारी पर सामग्री उपलब्ध थी, उसकी चर्चा-परिचर्चा शुरु की।

साहित्य में रुचि लेने वालों ने अल्बेयर कामू का बहुचर्चित उपन्यास ‘प्लेग’ और निराला का आत्मकथात्मक उपन्यास ‘कुल्लीभाट’, रेणु का उपन्यास ‘मैला आंचल’ और कहानी ‘पहलवान की ढोलक’ , उर्दू के ख्यातिलब्ध साहित्यकार राजिंदर सिंह बेदी की कहानी ‘क्वारंटीन’, मास्टर भगवानदास की कहानी ‘प्लेग की चुड़ैल’ और प्रेमचंद की बहुचर्चित कहानी ‘ईदगाह’ में महामारियों को खोजना,पढ़ना और लिखना शुरू किया। गंगा प्रसाद विमल ने ‘हिंदी की आरंभिक कहानियाँ’  में लिखा है कि- 

“सन् 1901 में प्रयाग में पहिले-पहिल प्लेग फैली थी। प्लेग का वह आक्रमण बहुत भयंकर था। इस कहानी (प्लेग की चुड़ैल) का महत्व यह प्रदर्शित करती है कि हिंदी कहानी के उस आरंभिक युग में भी हिंदी कहानीकार इतने सजग थे कि तत्कालीन घटनाओं की उनके संचेत्य मन पर तुरंत प्रतिक्रिया होती थी। प्लेग के छुतिहा रोग का इतना आतंक था कि स्वजन और प्रियजन भी रोगी को छोड़कर भाग जाते थे।” 

इससे प्लेग जैसी भयावह महामारी का तो पता चलता ही है, इसके साथ साहित्यकारों की संजीदगी का भी पता चलता है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि महात्मा गांधी भी एक बार क्वारांटाइन हुए थे? महात्मा गांधी ने अपनी आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ में स्वयं अपने ‘क्वारांटाइन’ होने का जिक्र किया है। गांधी जी दक्षिण अफ्रीका से 1896 ई. में भारत वापस आए थे। उन्होंने दिसंबर में कलकत्ता के ‘कांग्रेस अधिवेशन’ में भाग लिया और प्रयाग होते हुए वापस हुए। 1897 ई. के शुरुआती दिनों में मुंबई उन दिनों ‘प्लेग’ महामारी से ग्रसित था। गांधी जी अपनी आत्मकथा में लिखते हैं- 

“इन्हीं दिनों मुंबई में पहली बार प्लेग का प्रकोप हुआ। चारों तरफ घबराहट फैल रही थी। राजकोट में भी प्लेग फैलने का डर था। मैंने सोचा कि मैं आरोग्य-विभाग में अवश्य काम कर सकता हूँ। मैंने अपनी सेवा राज्य को अर्पण करने के लिए पत्र लिखा। राज्य ने जो कमेटी नियुक्त की उसमें मुझे भी स्थान दिया। मैंने पाखानों की सफाई पर जोर दिया और कमेटी ने निश्चय किया कि गली-गली जाकर पाखानों का निरीक्षण किया जाए। गरीब लोगों ने अपने पाखानों का निरीक्षण करने देने में बिलकुल आनाकानी नहीं की; यही नहीं, बल्कि जो सुधार उन्हें सुझाये गये वे भी उन्होंने कर लिये। पर जब हम मुत्सद्दी वर्ग के यानी बड़े लोगों के घरों का मुआयना करने निकले, तो कई जगहों में तो हमें पाखाने का निरीक्षण करने की इजाजत तक न मिली, सुधार की तो बात ही क्या की जाय? हमारा साधारण अनुभव यह रहा कि धनिक समाज के पाखाने ज्यादा गन्दे थे। उनमें अँधेरा, बदबू और बेहद गंदगी थी। खुड्डी पर कीड़े बिलबिलाते थे। जीते-जी रोज नरक में ही प्रवेश करने-जैसी वह स्थिति थी। हमारे सुझाये हुए सुधार बिलकुल साधारण थे। मैला जमीन पर न गिराकर कूंडे़ में गिरायें। पानी की व्यवस्था ऐसी की जाए कि वह जमीन में जज्ब होने के बदले कूंडे में इकट्ठा हो। खुड्डी और भंगी के आने की जगह के बीच जो दीवार रखी जाती है वह तोड़ दी जाय, जिससे भंगी सारी जगह को अच्छी तरह साफ कर सके, पाखाने कुछ बड़े हो जाएँ तथा उनमें हवा-उजेला पहुँच सके। बड़े लोगों ने इन सुधारों को स्वीकार करने में बहुत आपत्ति की, और आखिर में उन पर अमल तो किया ही नहीं।”

इसके उलट जब गांधी जी भंगियों की बस्ती में जाने के लिए कमेटी वालों से कहे तो सिवाय एक व्यक्ति के अन्य कोई तैयार न हुआ। स्वयं गांधी भी अपने जीवन में पहली बार भंगियो की बस्ती में पहुँचे थे। बकौल गांधी जी – 

“भंगी भाई-बहनों को हमें देखकर अचम्भा हुआ। मैंने उनके पाखाने देखने की इच्छा प्रकट की।” 

उन्होंने कहा : 

“हमारे यहाँ पाखाने कैसे? हमारे पाखाने तो जंगल में हैं। पाखाने तो आप बड़े आदमियों के यहाँ होते हैं।”

मैंने पूछा, 

“तो क्या आप अपने घर हमें देखने देंगे?”

“आइये न भाई साहब! जहाँ भी आपकी इच्छा हो, जाइए। ये ही हमारे घर हैं।"

गांधी जी कहते हैं कि- 

मैं अंदर गया और घर की तथा आँगन की सफाई देख कर खुश हो गया। घर के अंदर सब लिपा-पुता देखा। आँगन झाड़ा-बुहारा था; और जो इने-गिने बरतन थे, वह सब साफ और चमचमाते हुए थे। मुझे इस बस्ती में बीमारी के फैलने का डर नहीं दिखायी दिया।”

इस प्रकार गांधी ने राजकोट में फैले प्लेग का तथा निम्न जातियों या अछूतों द्वारा उच्च जातियों की अपेक्षा अधिक साफ-सफाई का वर्णन अपनी आत्मकथा में किया है। अब गांधी जी को दिसंबर 1897 ई. में ही दक्षिण अफ्रीका वापस जाना था। वे पहली बार सपरिवार दक्षिण अफ्रीका के लिए ‘बा और बच्चों संग’ रवाना हो गए। कुल अठारह दिनों के यात्रा में समुद्री तूफानों से बचते-बचाते उनका जहाज जब अफ्रीका के बंदरगाह पर डेरा डाला तो वहाँ उन्हें एक नई मुसीबत से सामना करना पड़ गया। मुंबई में फैले प्लेग के कारण गांधी जी सहित किसी भी यात्री को बंदरगाह पर जहाज से नीचे नहीं उतरने दिया गया। क्योंकि मुंबई में फैली प्लेग महामारी के मद्देनजर सरकार किसी भी प्रकार के रिस्क लेने के मूड में नहीं थी।

गांधी जी कहते हैं कि-

“अठारह दिसम्बर के आस-पास दोनों स्टिमरों ने लंगर डाले। दक्षिण अफ्रीका के बंदरगाहों में यात्रियों के स्वास्थ्य की पूरी जाँच की जाती है। यदि रास्ते में किसी को कोई छूतवाली बीमारी हुई हो, तो स्टीमर को सूतक में - क्वारण्टीन  में - रखा जाता है। हमारे बम्बई छोड़ते समय वहां प्लगे की शिकायत थी, इसलिए हमें इस बात का डर जरूर था कि सूतक की कुछ बाधा होगी। बंदर में लंगर डालने के बाद स्टीमर को सबसे पहले पीला झण्डा फहराना होता है। डॉक्टरी जाँच के बाद डॉक्टर के मुक्ति देने पर पीला झंडा उतरता है और फिर यात्रियों के रिश्तेदारों आदि को स्टीमर पर आने की इजाजत मिलती है।

तदनुसार हमारे स्टीमर पर भी पीला झंडा फहरा रहा था। डॉक्टर आये। जाँच करके उन्होंने पाँच दिन का सूतक घोषित किया, क्योंकि उनकी यह धारणा थी कि प्लेग के कीटाणु तेईस दिन तक जिंदा रह सकते हैं। इसलिए उन्होंने ऐसा आदेश दिया कि बम्बई छोड़ने के बाद तेईस दिन की अवधि पूरी होने तक स्टीमरों को सूतक में रखा जाए।

इस पर सूतक की आज्ञा का हेतु केवल स्वास्थ्य-रक्षा न था। डरबन के गोरे नागरिक हमें उलटे पैरों लौटा देने का जो आंदोलन कर रहे थे, वह भी इस आज्ञा के मूल में एक कारण था।”

ज्ञात हो कि गांधी जी अफ्रीका में ‘गोरों’ के बराबर भारतीयों को अधिकार दिए जाने के पक्ष में थे किन्तु गोरे लगातार गांधी का विरोध कर रहे थे। गोरों को जब गांधी के भारत से वापस आने की सूचना मिली तो वे बंदरगाह के इर्द-गिर्द जमा हो गये तथा उन्हें हर हाल में वापस भेजने पर आमदा थे। गांधी जी कहते हैं- 

“मतलब कि हमारा सूतक केवल स्वास्थ्य रक्षा के नियमों के ही कारण न था। उसका हेतु किसी भी तरह एजेंट को अथवा यात्रियों को दबा कर हमें वापस भेजना था। एजेंट को तो धमकी मिल ही रही थी। अब हमारे नाम भी धमकियां आने लगी:

“अगर तुम वापस न गये तो तुम्हें समुद्र में डुबो दिया जाएगा। लौट जाओगे तो लौटने का भाड़ा भी शायद तुम्हें मिल जाए।”

आखिरकार काफी टालमटोल के बाद अब गांधी जी के क्वारंटीन का समय समाप्त होने को आया। गांधी जी कहते हैं- 

“इस प्रकार हमारे दिन बीतते और लंबे होते गये। सूतक समाप्त करने की अवधि अन्त तक निश्चित नहीं हुई। इस विभाग के अधिकारी से इस पहुँचने पर वह कहता, “यह मेरी शक्ति से बाहर की बात है सरकार मुझे आदेश दे, तो मैं आप लोगों को उतरने की इजाजत दे दूं।” 

“अंत में यात्रियों को और मुझे अल्टिमेटम मिले। दोनों को धमकी दी गयी कि तुम्हारी जान खतरे में है। दोनों ने नेटाल के बंदर पर उतरने के अपने अधिकार के विषय में लिखा, और अपना यह निश्चय घोषित किया कि कैसा भी संकट क्यों न हो, हम अपने इस अधिकार पर डटे रहेंगे।

आखिर तेईसवें दिन अर्थात १३ जनवरी, १८९७ के दिन, स्टीमरों को मुक्ति मिली और यात्रियों को उतरने का आदेश मिला।”

अब उतरने के बाद गांधी जी का सामना गोरों के आक्रोश से हुआ। बकौल गांधी जी- 

“...मुझ पर कंकरों और सड़े अण्डों की वर्षा शुरू हुई। किसी ने मेरी पगड़ी उछाल कर फेंक दी। फिर लातें शुरू हुईं। मुझे गश आ गया। मैंने पास के घर की जाली पकड़ ली और दम लिया। वहाँ खड़ा रहना तो संभव ही न था। तमाचे पड़ने लगे। इतने में पुलिस अधिकारी की स्त्री, जो मुझे पहचानती थी, उस रास्ते से गुजरी। मुझे देखते ही वह मेरी बगल में आकर खड़ी हो गयी और धूप के न रहते भी उसने अपनी छत्री खोल ली। इससे भीड़ कुछ नरम पड़ी।अब मुझ पर प्रहार करने हों, तो मिसेज एलेक्जेण्डर को बचाकर ही किये जा सकते थे।” 

इस प्रकार तमाम झंझावातों से बचते-बचाते गांधी जी अपने अफ्रीका के आवास पहुंचे।


भारत में भी जब लगभग तीन महीने का लंबा लाकडाऊन लगा तो बाल बनाने वाले ‘नाईयों’ की दुकानें भी बंद थीं। इन दुकानों पर आने वाले ग्राहकों से संक्रमण फैलने का खतरा सबसे ज्यादा था। स्वाभाविक रूप से इतने दिनों तक
नाईं की दुकानों के बंद रहने से लोग बाल कटाने और दाढ़ी बनाने को व्याकुल हो गये। ज्यादातर लोगों ने इसका विकल्प ‘टकला’ होना खोजा और परस्पर एक दूसरे का टकला बनाने लगे। गांधी जी को भी अफ्रीका में इस तरह की असहज स्थिति का सामना करना पड़ा था। कोई भी नाईं उनका बाल बनाने को तैयार न था। नाईं को डर था कि गांधी जी के कारण उसकी दुकान पर ‘गोरों’ का आना बंद हो जायेगा। अतः गांधी जी ने अपने हाथ से ही अपना बाल बनाया। गांधी जी बताते हैं कि – 
“एक बार प्रिटोरिया में मैं एक अंग्रेज हज्जाम की दुकान पर पहुंचा। उसने मेरी हजामत बनाने से साफ इनकार कर दिया और इनकार करते हुए जो तिरस्कार प्रकट किया, सो घाते में रहा। मुझे दु:ख हुआ। मैं बाजार पहुँचा। मैंने बाल काटने की मशीन खरीदी और आईने के सामने खड़े रहकर बाल काटे। बाल जैसे-तैसे कट हो गये, पर पीछे के बाल काटने में बड़ी कठिनाई हुई। सीधे तो वे कट ही न पाये। कोर्ट में खूब कहकहे लगे। ‘तुम्हारे बाल ऐसे क्यों हो गए हैं? सिर पर चूहे तो नहीं चढ़ गये थे?’ मैंने कहा : “जी नहीं, मेरे काले सिर को गोरा हज्जाम कैसे छू सकता है ? इसलिए कैसे भी क्यों न हों, अपने हाथ से काटे हुए बाल मुझे अधिक प्रिय हैं।”

अंततः कुछ दिनों बाद दक्षिण अफ्रीका में भी प्लेग की यह महामारी फूट ही पड़ी। गांधी जी कहते हैं कि – 

“यह महामारी प्राणघातक थी। यह फेफड़ों की महामारी थी। गाँठवाली महामारी की तुलना में यह अधिक भयंकर मानी जाती थी।”

यद्यपि इस महामारी का प्रकोप भारतीय लोकेशनों पर नहीं था। अतः भारतीय इससे प्रभावित नहीं हुए, परन्तु सोने की खानों में काम करने वाले 23 हब्शी अफ्रीकी नागरिक गंभीर रूप से संक्रमण की स्थिति में भारतीय लोकेशंस की जगहों पर ही लाए गए। गांधी जी ने अपने हिन्दुस्तानी सहयोगियों के साथ-साथ अफ्रीकी सहयोगियों की भी मदद लेकर इन प्लेग पीड़ितों की खूब मदद की। गांधी जी उन दिनों को याद करते हुए लिखते हैं- 

“मैंने बहुत से बीमारों की सेवा सुश्रुषा की थी, पर प्लेग के बीमारों की सेवा-सुश्रुषा करने का अवसर मुझे कभी नहीं मिला था। डॉ.गॉडफ्रे की हिम्मत ने हमें निडर बना दिया था। बीमारों की विशेष सेवा-चाकरी कर सकने जैसी स्थिति नहीं थी। उन्हें दवा देना, ढाढ़स बँधाना, पानी पिलाना और उनका मल-मूत्र आदि साफ करना, इसके सिवा विशेष कुछ करने को था ही नहीं।”

अफ्रीका के म्युनिसिपालिटि के टाउन क्लर्क ने गांधी जी के मदद की सराहना की तथा उनसे कहा कि – ‘आपको जो मदद चाहिए, आप माँगिये। टाउन-कौंसिल से जितनी मदद बन सकेगी उतनी वह करेगी। इन परिस्थितियों में गांधी जी ने खुद एक गोदाम को साफ किया, जो काफी मैला व गंदा था। भारतीयों ने खटिया वगैरह से मदद की। इस प्रकार एक चलता-फिरता अस्पताल तैयार हो गया। म्युनिसपैलिटी ने एक नर्स भेजा और उसके साथ ब्राण्डी की बोतल और बीमारों के लिए अन्य आवश्यक वस्तुएं भेजीं।

अब प्लेग महामारी से पीड़ितों का इलाज़ चलने लगा था। गांधी जी बताते है कि-  

“बीमारों को समय-समय पर ब्राण्डी देने की सूचना थी। रोग की छूत से बचने के लिए नर्स हमें भी थोड़ी ब्राण्डी लेने को कहती और खुद भी लेती थी। हममें कोई ब्राण्डी लेनेवाला न था। मुझे तो बीमारों को भी ब्राण्डी देने में श्रद्धा न थी। डॉ.ग्रॉडफ्रे की इजाजत से तीन बीमारों पर, जो ब्राण्डी के बिना रहने को तैयार थे और मिट्टी के प्रयोग करने को राजी थे, मैंने मिट्टी का प्रयोग शुरू किया और उनके माथे और छाती में जहाँ-जहाँ दर्द होता था वहाँ-वहाँ मिट्टी की पट्टी रखी। इन तीन बीमारों में से दो बचे। बाकी सब बीमारों का देहांत हो गया। बीस बीमार तो इस गोदाम में ही चल बसे।”

गांधी जी ने आत्मकथा में आगे बताया है कि इस महामारी को रोकने के लिए सरकार ने जोहांसबर्ग में एक जगह तय कर दी। यह आज के कोविड-वार्ड जैसा था। परन्तु यह शहरों से बहुत दूर होता था। वहाँ बिना इजाजत के जाना संभव न था। उस पर कड़ा पहरा रहता था और बेहद चौकसी। इन प्लेग पीड़ितों को तम्बू में रखा गया था। तीन हफ्ते रखने के बाद ज्यादातर मरीजों को लाभ हुआ और वे इस जगह से मुक्त हुए। सरकार ने इन तम्बूओं की नगरी को बाद में जला दिया। सरकार ने इस संक्रामक महामारी को रोकने के लिए खूब पानी की तरह पैसे को बहाया। अफ्रीकी सरकार ने भारतीयों और गांधी जी को प्लेग महामारी में इस नि:स्वार्थ सेवा और सहायता के लिए धन्यवाद दिया।

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(यह लेख बनारस से उमेश यादव  ने भेजा है। उनसे 9451337577 पर संपर्क किया जा सकता है।)

Thursday, September 3, 2020

'सभा'के कार्य और कार्यकर्त्ता : श्री 'जनार्दन'






'सभा' का लोगो 


काशी-नागरी-प्रचारिणी सभाके कार्यों और कार्यकर्त्ताओंका विस्तृत विवरण, जो उसके पिछले 50 वर्षोंका इतिहास होगा, यहाँ दे सकना स्थानाभावके कारण हमारी सामर्थ्यके बाहर है। अतः पाठकोंकी सामान्य जानकारी के लिए हम उसके कुछ संस्थापकों तथा विभागोंके कार्योंपर ही यहाँ संक्षेपमें प्रकाश डालेंगे। वैसे सभाका विस्तृत इतिहास श्री वेदव्रत शास्त्री बी.ए. ने लिखा है, जो उसके अर्द्धशताब्दी महोत्सवपर प्रकाशित होने जा रहा है।

सभाके संस्थापक 

काशी-नागरी-प्रचारिणी सभाको स्थापित हुए पूरे 50 वर्ष बीत गए। इसे ईश्वरकी कृपा ही कहना चाहिए कि उसके संस्थापक तीनों प्रमुख व्यक्ति 'सभा'का जयन्ती-उत्सव देखनेको प्रस्तुत ही नहीं हैं, वरन् एक (मिश्रजी) इस उत्सवको सफल बनानेके लिए इस चौथेपनमें भी ऐसा उद्योग कर रहे हैं कि कोई नवयुवक क्या करेगा। अर्थ-संग्रहके लिए दूर-दूरकी यात्राएँ कर रहे हैं, सभाएँ करते हैं, व्याख्यान देते हैं और कार्यालयका संचालन करते हैं। इससे प्रथम अच्छे स्वास्थ्यकी दशामें रायबहादुर श्यामसुन्दरदास तन-मनसे 'सभा'की सेवा किया करते थे। उनके सम्बन्धमें पं. रामनारायण मिश्रने एक व्याख्यानमें कहा था -
"सारा कार्य-भार श्री श्यामसुन्दरदास ही पर था। अधिवेशनोंकी कार्यवाही और दैनिक पत्र आदि वे अपने हाथसे लिखा करते थे। युवावस्थामें वे बड़े प्रभावशाली व्याख्यानदाता थे। उन्होंने अपनी सारी शक्ति सभाके उत्थान में लगा दी थी। भिन्न-भिन्न समयपर कुल मिलाकर 17 वर्ष तक वे सभाके प्रधानमन्त्री रहे, 9 वर्ष सभापति, 10 वर्ष उपसभापति और 2 वर्ष सहायक अथवा अर्थ-मन्त्री - अर्थात् 38 वर्ष तक पदाधिकारी रहकर उन्होंने सभाकी अमूल्य सेवा की। विशेष प्रशंसाकी बात तो यह है कि संवत् 1950 से 1952 तक मन्त्री रहकर जब 1954 में सहायक-मन्त्री चुने गए और संवत् 1985 से 1987 तक सभापति रहकर संवत् 1990 में जब अर्थ-मन्त्री चुने गए, तब उन्होंने उच्चपदसे निम्नपदपर आकर सभाकी सेवा करनेमें तनिक भी हेठी नहीं समझी। उन्होंने जितने काम किए, सभाके यशको बढ़ानेवाले प्रमाणित हुए।... कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो कार्य तो स्वयं करते हैं, पर सफल कार्योंका यश दूसरोंको अर्पण कर देते हैं; कुछ ऐसे होते हैं, जो कार्य दूसरोंसे कराते हैं और स्वयं यश लूट लेते हैं; तथा कुछ ऐसे होते हैं, जो स्वयं भी परिश्रम करते हैं और दूसरोंसे भी कार्य लेनेकी क्षमता रखते हैं। बाबू श्यामसुन्दरदास इसी श्रेणीके कर्मठ हैं। डा. श्यामसुन्दरदासमें स्वाभिमानकी मात्रा अवश्य अधिक है; परन्तु अभ्युदयकी आकांक्षाके साथ मिलकर स्वाभिमान मनुष्यको ऊँचा उठाता है। कोरा स्वाभिमान तो निरा अभिमान है।"

पं. रामनारायण मिश्रको सरकारी नौकरीमें रहनेके कारण अधिक समय तक काशीसे बाहर रहना पड़ा, फिर भी वे बीच-बीचमें काशी आ जाते और सभाके कार्योंमें सम्मिलित होते रहते थे। वे बाहर रहते समय भी सभा और हिंदीकी उन्नतिके लिए सचेष्ट रहते थे। काशीमें स्थायी रूपसे आ जानेपर उनके अधिकांश समयका उपयोग शिक्षण संस्थाओं और सामाजिक कार्योंमें होता रहा। इससे सभा उनके उद्योगसे तादृश लाभ नहीं उठा सकी थी, यद्यपि मिश्रजीका ध्यान सभाकी उन्नतिके लिए सदा रहता था। इधर अन्य संस्थाओंकी सेवासे समय निकलकर वे सभाकी सेवामें ऐसे कटिबद्ध हो गए हैं, जैसे अच्छे स्वास्थ्यकी दशामें बाबू श्यामसुन्दरदास रहा करते थे। आजकल मिश्रजी दिन-रात सभाकी उन्नतिके लिए प्रयत्नशील रहा करते हैं। अर्द्धशताब्दी-उत्सवको सम्पन्न करने और सभाकी आर्थिक दशा सुधारनेमें उन्होंने जैसा प्रयत्न किया है, वह अतुलनीय है।

रायसाहब ठा. शिवकुमारसिंह भी नौकरीके सिलसिलेमें अधिकतर काशीसे बाहर ही रहे। इसके अतिरिक्त पारिवारिक कार्य भी उनका समय ले लेते थे, जिससे उनकी भरपूर सहायता सभाको नहीं मिल सकी। इधर नौकरीसे अवकाश ले चुकने और काशी आ जानेपर सभाको उनसे बहुत आशा हुई थी; पर उनकी घरेलू कठिनाइयाँ उनको फुरसत बहुत कम दे रही हैं। नौकरीके सिलसिलेमें वे जहाँ-जहाँ गए, वहीं हस्तलिपि-परीक्षाका चलन उन्होंने यथेष्ट किया, जिससे सभाका एक उद्देश्य पर्याप्त रूपसे पूर्ण हुआ और इस दिशामें ठाकुर साहब अद्वितीय हैं। हिन्दीका पक्ष समर्थन करनेमें भी उन्होंने कुछ उठा नहीं रखा, यहाँ तक कि कभी-कभी सरकारी अधिकारियोंसे इस मामलेमें कहा-सुनी हो जानेपर भी वे दबे नहीं। और अन्तमें ऐसे अधिकारियोंको अपने पक्षका प्रबल समर्थक बनाकर मित्र बना लिया।

तीनों ही संस्थापकोंका सभाकी सेवा करनेका एक-एक विशिष्ट अंग है और उसको उन्होंने बड़ी उत्तमतासे सम्पन्न किया है। यदि सभीका सभाकी सेवा करनेका एक ही मार्ग होता, तो सभाकी सर्वांगीण उन्नति होनेमें इतना सुभीता न हुआ होता। बाबू श्यामसुन्दरदासकी सेवा सर्वांगीण थी, जैसा कि पं. रामनारायण मिश्रने एक अवसरपर कहा था कि
'सभाकी एक-एक ईंटपर श्यामसुन्दरदास का नाम अंकित है।'
उन्होंने न केवल स्वयं साहित्य-सेवा ही की, वरन् दूसरोंको साहित्य-सेवी बनानेका सफल प्रयत्न भी किया। साहित्यके अपूर्ण अंगोंके निर्माणमें बहुत सफलता प्राप्त की। किसी अंगरेज़ ग्रन्थ-प्रणेताका कथन है कि किसी पुस्तकको एक बार बाजार में बिकते देखो, तो बारह वर्ष बीतनेपर फिर उसकी खोज करो। यदि वह पुस्तक फिर बाज़ार में दिखाई दे, तो उसे साहित्यकी स्थायी सम्पत्ति समझो। बाबू साहबकी कई पुस्तकें क्या, बीसों वर्षसे चल रही हैं।


खोज और उसके निरीक्षक 

हस्तलिखित हिन्दी-पुस्तकोंकी खोजका काम बाबू राधाकृष्णदास की सूझ का फल है। उन्हींके उद्योग और पथप्रदर्शनमें यह काम आरम्भ हुआ। इसके निरीक्षक प्रथम आठ वर्षों तक बाबू श्यामसुन्दरदास रहे। उनकी लिखी रिपोर्टोंकी प्रशंसा विद्वानोंने की है। बाबू साहबके इस सिद्धान्तके अनुसार कि 'पथ-प्रदर्शनका कार्य करके दूसरोंको उसे सौंप देना ही अनेक व्यक्तियोंको कार्यमें लगाकर साहित्यकी उन्नति करना है।' डा. श्यामबिहारी मिश्र निरीक्षक हुए। उनके अनन्तर पं.सुखदेवबिहारी मिश्रने एक वर्ष तक यह कार्य किया। फिर स्वर्गीय रायबहादुर डा.हीरालाल निरीक्षक हुए, जिन्होंने बड़ी महत्त्वपूर्ण रिपोर्टें लिखीं। उनकी लिखी पहली रिपोर्टोंमें मिश्र-बंधुओंकी लिखी अंतिम रिपोर्टका सम्पादन भी था। इसके विवेचनको देखनेसे हीरालालजीकी विद्वत्ता, सूझ और अनुसंधानके कार्यमें योग्यताका पूरा परिचय मिल जाता है। उन्होंने जितनी रिपोर्टें लिखी हैं, वे बड़े महत्त्वकी हैं। उन्हींका अनुसरण करके डा.पीताम्बरदत्त बड़थ्वालने एक बृहदाकार रिपोर्ट लिखी है, जो छप तो गई है; पर अभी सरकारी प्रेससे प्रकाशित नहीं हुई। सारांश यह कि इस कामको चलाया श्यामसुन्दर बाबूने; पर सबसे महत्त्वका कार्य रायबहादुर डा.हीरालालका है। बात यह है कि खोजके काममें वे सरकारी पदपर बहुत समयसे लगे हुए थे और उसमें पूर्णतया दक्ष गए थे। आजकल डा.वासुदेवशरण अग्रवाल इस कार्यके निरीक्षक हैं। आशा है, इनका कार्य भी परम्पराके अनुरूप महत्त्वपूर्ण होगा। 


आर्यभाषा-पुस्तकालय 

आर्यभाषा-पुस्तकालय 'सभा'से भी पुराना है - अर्थात् कोई 59 वर्ष पहले स्व.ठाकुर गदाधरसिंहने इसे मिर्ज़ापुरमें 'आर्यभाषा -पुस्तकालय'नामसे, संवत् 1941 में, स्थापित किया था। उस समय इसमें कुल 102 पुस्तकें थीं। ये ठाकुर साहब 'चीनमें तरह मास' आदि पुस्तकोंके लेखकसे भिन्न थे। ये क़ानूनगो थे। इन्होंने 'दुर्गेशनन्दिनी', 'बंगविजेता', 'कादम्बरी' आदि बँगला-पुस्तकोंका हिन्दीमें उल्था किया था। सरकारी नौकरीसे छुट्टी लेकर थोड़े दिनोंके लिए जब ये बनारस आए थे, तब सभाके सभासद हो गए थे। सभाके प्रबन्धसे सन्तुष्ट होकर इन्होंने अपना पुस्तकालय सभाको सौंप दिया। तब तक उसमें हज़ार पुस्तकें हो चुकी थीं। संवत् 1953 में 'नागरी-भण्डार' इसी पुस्तकालयमें सम्मिलित हो गया, जो सभाका था। उक्त ठाकुर साहबने पुस्तकालय तो सभाको दिया ही, साथ ही सभाके पक्षमें अपनी वसीयत भी कर दी, जिससे सभाको दो हज़ार मिला। इस वसीयतनामेके झगड़ेका निपटारा सभाको हाईकोर्टसे कराना पड़ा था। सभाके पुस्तकालयमें उत्कृष्ट ग्रन्थोंकी कमी नहीं है। अनेक विद्वान् और विश्वविद्यालयोंके छात्र इस पुस्तकालयमें अनुशीलनके लिए आया करते हैं। 

सभाको समय-समयपर विशिष्ट उदार सज्जनोंसे महत्त्वपूर्ण संग्रह प्राप्त होते आये हैं। वास्तवमें यह पुस्तकालय ऐसे ही विशेष संग्रहोंका बृहत् संग्रहालय है। इसे पहला संग्रह तो पूर्वोल्लिखित ठाकुर साहबका प्राप्त हुआ, फिर संवत् 1990 में आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदीका संग्रह मिला। उनके दिवंगत हो जानेपर द्विवेदीजीके भानजे पं.कमलाकिशोरजीने संग्रहके अवशिष्ट ग्रन्थ भी सभाको सौंप दिए। द्विवेदीजी इसकी आज्ञा उन्हें पहले ही दे गए थे। 'द्विवेदी-संग्रह'में 4280 पुस्तकें हैं, जो 12 आलमारियोंमें रक्षित हैं। इसमें छोटीसे छोटी और बड़ीसे बड़ी अलभ्य पुस्तकें हैं। प्राय: प्रत्येक पुस्तकके मुखपृष्ठपर द्विवेदीजीके हस्ताक्षर और प्राप्तिकी तिथि भी है। पुस्तकोंपर द्विवेदीजीके पढ़नेके चिह्न भी हैं - कहीं भूल-चूक सुधारी गई है, कहीं दूसरी बातोंके लिए संकेत हैं। 

तीसरा 'रत्नाकर'जीका संग्रह है, जो स्वर्गीय बाबू जगन्नाथदासजी 'रत्नाकर' बी.ए. के सुपुत्र बाबू राधाकृष्णदासने संवत् 1989 में प्रदान किया था। इसमें 1189 पुस्तकें हैं, जो 4 आलमारियोंमें सुरक्षित हैं। बिहारी और सूर-संबंधी साहित्य किसी अन्य स्थानमें दुर्लभ है। इसमें बिहारीपर सन् 1819 की छपी हुई एक पुस्तक है। इसके अतिरिक्त हिन्दी, फ़ारसी, अंगरेज़ी और गुजरातीमें बिहारीपर जितनी टीकाएँ मुद्रित हैं, वे सभी इस संग्रहमें हैं। प्राकृतपर कई ग्रन्थ हैं। चौथा संग्रह डा.हीरानन्द शास्त्री एम.ए. का है। इसकी 1012 पुस्तकें 4 आलमारियोंमें हैं। इस संग्रहमें जैन विद्वानोंके संस्कृत-ग्रन्थ, आत्मानन्द, वुलनर, आशुतोष और दयानन्द आदि सम्बन्धी स्मारक ग्रन्थ, नागरीमें गुरुग्रन्थ साहबकी एक सुन्दर प्रति और चित्रकला आदिपर अच्छी-अच्छी पुस्तकें हैं। रत्नाकरजी और शास्त्रीजीके संग्रहोंमें हस्तलिखित पुस्तकें भी हैं। 

सरकारी सहायतासे हिन्दी-पुस्तकोंकी खोज सभाका खोज-विभाग करता है। इस प्रान्तके बाहर दतिया, चरखारी, पन्ना, दिल्ली और पंजाबमें भी खोज की गई थी। यों सभाको सैकड़ों हस्तलिखित ग्रन्थ उपलब्ध होते जा रहे हैं। सभाको कला-सम्बन्धी बहुमूल्य सामग्री संवत् 1985 में राय कृष्णदासजीने दी। 'भारत-कला-भवन'में पुरातत्त्व-सम्बन्धी बहुत-से ग्रन्थ आते रहे हैं। बाबू शिवप्रसाद गुप्त जब अमेरिका गए थे, तब ऐसा प्रबन्ध कर आए थे, जिससे वहाँकी प्रतिष्ठित संस्था 'स्मिथ सोनियन इंस्टीट्यूशन'के सभी बहुमूल्य प्रकाशन सभाको बराबर मिल रहे हैं। इसी प्रकार हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन प्रयाग, गुजरात वर्नाक्यूलर सोसाइटी, हिन्दुस्तानी एकेडेमी, सार्वदेशिक आर्यप्रतिनिधि-सभा तथा अन्य नामी-गिरामी पुस्तक-प्रकाशक लोग सभाको अपने प्रकाशन भेंट किया करते हैं। 

रायबहादुर कौशलकिशोरने अपने स्वर्गीय पिता लाला सीताराम 'अवधवासी'के सब ग्रन्थोंकी एक-एक प्रति, सुन्दर ज़िल्द बँधवाकर, सभाको भेंट की है। पाँचवाँ संग्रह रायबहादुर डा.श्यामसुन्दरदासका है। इसमें उनकी रचित पुस्तकें हैं, जिनपर मूल्यवान् ज़िल्दें हैं। इसमें हिन्दी-साहित्यके अन्य अनेक उत्तम ग्रन्थ हैं। पं.रामनारायण मिश्रजीने अपना संग्रह सभाको दिया है, जिसमें शिक्षा और समाज-सुधार-विषयक पुस्तकें अधिक हैं। इन संग्रहोंकी संख्या इस वर्ष याज्ञिक-बन्धुओंने बढ़ा दी। उन्होंने अपने चचा स्वर्गीय पं.मयाशंकरजी याज्ञिकका हस्तलिखित पुस्तकोंका संग्रह सभाके अर्पण किया है। इसमें अधिकतर ब्रजभाषा-काव्यका भाण्डार है। यह ऐसी वस्तु है, जिसको प्राप्त करनेके लिए अनेक संस्थाएँ प्रयत्न कर रही थीं। इसमें 1178 पुस्तकें हैं। इनमें से मुख्य ग्रंथोंके प्रकाशनके लिए पं.जीवनशंकरजीने 1000)की निधि भी सभाको भेंट की है। इस समय पुस्तकालयमें 27637 छपी और 3357 हस्तलिखित पुस्तकें हैं। इनकी रक्षा कृमि-कीटोंसे तो करनी ही पड़ती है। इनके आक्रमण विविध रूपोंमें शिष्टतापूर्वक होते हैं। 

पुस्तकालयके ग्रन्थियों (लाइब्रेरियनों) में पं.केदारनाथ पाठक बहुत ही नामी थे। लाइब्रेरियनकी अपेक्षा वे एक आधार-ग्रन्थ थे। कौन-सा विषय किस-किस पुस्तकमें है, वह पुस्तक कहाँ-कब छपी है, उसके कितने संस्करण हुए हैं, इसके वे मानो कोष थे। बीस वर्षसे अधिक समय तक वे पुस्तकालयमें पुस्तकाध्यक्षके रूपमें सभाकी सेवा करते रहे। छोटे लाटको अदालतोंमें नागरीका प्रचलन करानेके लिए सभाने जो मेमोरियल दिया था, उसपर विभिन्न ज़िलोंमें हस्ताक्षर करानेके लिए उन्होंने यात्रा की थी और कहीं-कहीं कठिनाई भी झेली थी। जान पड़ता है, इनकी कर्णेन्द्रियकी शक्तिने खसककर स्मरणशक्तिको द्विगुणित कर दिया था। अनेक प्रसिद्ध लेखकोंसे आपका व्यक्तिगत परिचय था। स्वभावके आप खरे थे। वर्त्तमान ग्रन्थी पं.शम्भुनारायण चौबे बड़े त्यागी और मिलनसार हैं। गोस्वामीजीके ग्रन्थोंके आप पारखी और भक्त हैं। आशा है, आपकी इस योग्यताका समुचित उपयोग होगा। 

 
बाबू गोपालदासने सभाका कार्य करना स्वल्प वेतन लेकर आरम्भ किया था। किन्तु अपनी योग्यता, लगन और ईमानदारीके कारण धीरे-धीरे सभाकी आर्थिक दशा सँभलनेपर उनके वेतनमें ही वृद्धि नहीं हुई, अपितु वे सहायक मन्त्री भी बना दिए गए। यह पद बड़े दायित्त्वका है; क्योंकि पदाधिकारी तो प्राय: अदलते-बदलते रहते हैं; पर स्थायी कर्मचारियोंको आनुपूर्विक कार्य सँभालना पड़ता है - इसमें उन्हें यशकी अपेक्षा अपयशका अधिक डर रहता है। ऐसे गुरुत्त्वके कार्यको उन्होंने मुद्दत तक सँभाला, यह प्रशंसाकी बात है। उक्त पदपर इतने अधिक समय तक कार्य करनेका धैर्य और लोगोंमें कदचित् ही हो। 


सभाकी सन्तति 

सभाका ज्येष्ठ पुत्र है हिन्दी-साहित्य-सम्मलेन, जो आरम्भके बादसे ही प्रयागके जल-वायुमें प्रतिपालित होकर वयस्क हो गया है और समूचे भारतमें हिन्दीकी ध्वजा धूमधामसे उड़ाता हुआ अपनी जननीके उद्देश्योंको पूर्ण करनेमें तन-मनसे लगा हुआ है। यह संतानवान् भी हो गया है। सभाका दूसरा दत्तक पुत्र है 'कला-भवन', जो हो तो गया है वयस्क; पर रहता है जननीके कन्धेपर और सब प्रकारसे माताका दुलार पा रहा है। साथ रहनेसे दोनोंकी शोभा है। इस साल अपनी 50 वर्षकी अवस्था हो जानेपर एक और पुत्रका पालन-पोषण सभा करने लगी है। इसका नाम है 'सत्यज्ञान-निकेतन'। यह बालक हरद्वारके समीप ज्वालापुरमें खेल रहा है। अभी इसके पालन-पोषण और रक्षणावेक्षणका भार सभाको ही सँभालना है। आशा है, यह पुत्र उत्तर-भारतका सम्बन्ध इन प्रान्तोंसे घनिष्ट करके सभाके उद्देश्योंको पूर्ण करनेका भरसक प्रयत्न करेगा। 

फ़रवरी, 1931 में 'विशाल भारत' सम्पादकने हिन्दी-साहित्य-सम्मेलनके सम्बन्धमें ऐसी कुछ बातें लिखी थीं, जिनको तनिक परिवर्त्तित करके 'सभा'के सम्बन्धमें कह सकते हैं -
जिस भाषाके बोलनेवाले तेरह करोड़से ऊपर और समझनेवाले बीस करोड़से भी अधिक हैं, उसकी सर्वश्रेष्ठ संस्थाको ऐसा त्यागी व्यक्ति मिलना चाहिए, जो अपनी सम्पूर्ण शक्ति और अपना सारा समय उसीके लिए अर्पित कर दे।... जिन मदोंमें सभाकी आय बढ़ सकती है, उनकी भरपूर जाँच होनी चाहिए। सभाके पास इस समय जितने रुपएकी लागत और मूल्यकी पुस्तकें हैं, उनके यथोचित विज्ञापन और मूल्यकी सुव्यवस्था होनी चाहिए। सभाका माल प्रतिनिधि पुस्तक-विक्रेता हड़प न कर जायँ, इसपर सदा चौकस दृष्टि रहे। लोगोंको अन्धाधुन्ध पुस्तक न बँटें। कार्यालयके वेतनका व्यय इतना अधिक न होने पावे कि मँझधारमें नावके डूबनेकी आशंका  लगे। प्रकाशन हो, तो महत्त्वका; पर ऐसा न हो कि जो सभामें पड़ा-पड़ा दीमकोंका आहार बनने लग जाय, या जिसमें लगाई गई पूँजी वसूल ही न हो। हम हिन्दीवाले चाहे जितनी शेखी बघारते रहें; पर सच तो यह है कि हम लोगोंमें आदर्शवादिताकी बड़ी कमी है। अध्यापक, वकील, पुस्तक-विक्रेता या छापेखानेवाले अपने समयका सर्वोत्तम भाग तो अपने पेशेके लिए ही अर्पण कर सकते हैं और जिनके पास दुहरा-तिहरा काम है, वे सभाको और भी कम समय दे सकते हैं। इनकी सहायताका सम्मान अवश्य होगा, फिर भी कुछ लोग ऐसे हों, जिनका जीवन सभाके लिए अर्पित हो और सभाके पदाधिकारी तथा वेतनभोगी कर्मचारी लोग ऐसी उदात्त भावनावालोंके सहयोगसे सभाका हित होने दें। बिना त्यागके संस्थाओंका हित नहीं होता। अतः इस अंगकी पूर्ति अवश्य होनी चाहिए। 


 [ जनवरी, 1944 ]

Friday, August 28, 2020

मातृभाषाओंका साहित्य : राहुल सांकृत्यायन





'विशाल भारत' के सितम्बरके अंकमें श्री परमेश्वरीलाल गुप्तने अपने पड़ोसके एक अपढ़ कवि विश्रामकी कविताओं (विरहों) पर एक लेख लिखा था। मैंने इस कविके बारेमें कुछ और जाननेके लिए उनको लिखा, जिसके उत्तरमें उन्होंने यह भी लिखा -
"विश्रामके (न) पढ़े-लिखे होनेसे मेरा तात्पर्य अक्षर-ज्ञानसे था। इस प्रदेशमें विश्राम-सरीखे न जाने कितने कवियोंने ऐसे विरहे लिखे हैं, जो किसी भी महाकविकी रचनाओंसे टक्कर ले सकते हैं। पर वे सब अज्ञात और उपेक्षित हैं। इस विषयमें मैं थोड़ा प्रयत्न कर रहा हूँ। 'शुकदूत', 'दयाराम', 'वनजरवा', 'चनैनी' सरीखे कुछ काव्य और महाकाव्योंका पता लगता है, जो विरहियोंकी जिह्वापर हैं। और उन्हें प्रकाशित कौन करेगा?"
परमेश्वरी बाबूके इस पत्रने कई प्रश्न हमारे सामने रखे हैं : हिन्दी-साहित्यके सम्बन्ध में नहीं, मातृभाषाओंके साहित्के बारेमें। काशिका (बनारस सम्पूर्ण तथा मिर्ज़ापुर, जौनपुर, आजमगढ़के कितने ही भागोंमें बोली जानेवाली भाषा), भोजपुरी, अवधी, बुन्देलखंडी आदि भाषाओंको ग्रामीण भाषा कहना बतलाता है कि लोग इनकी अहमियतको नहीं समझते। ग्रामीण भाषाका अर्थ है असभ्य, असंस्कृत, फूहड़ अथवा दयापात्र भिक्षुक भाषा। जिस वक़्त सिर्फ़ अपनी ही भाषा बोल-समझ सकनेवाले इन प्रान्तोंके किसी आदमीको देखते हैं, तो हमारे शिक्षितोंके मनमें यही भाव पैदा होता है।

वह भूल जाते हैं कि यह भाषाएँ मृत नहीं, जीवित हैं। यह अधिकार-च्युत हैं। शोषकोंको हटाकर आज जनताको अधिकार प्राप्त हो जाने दीजिए, फिर देखिए कि कल ही यह भाषाएँ कितनी नागर, सभ्य और ललित दिखाई देने लगती हैं। जनताकी राजनीतिक परतन्त्रताको जो लोग सनातन - त्रिकालव्यापी - मानते हैं, वे निराशावादी हैं। हमारी निराशावादिता समझती है कि यह भाषाएँ मरने जा रही हैं, इसलिए जल्दी करनी चाहिए। मूल कारणोंके बारेमें माथापच्ची न करके जो रतन चुन लिए जा सकें, उन्हें चुन लेना चाहिए। संग्रहके लिए जल्दी करना ज़रूरी है। सुस्ती किसी काममें नहीं होनी चाहिए; मगर यह ख़याल करके नहीं कि यह भाषाएँ मरने जा रही हैं।

इन भाषाओं का समय आ रहा है। इनकी सहायताके बिना शत-प्रतिशत जनता दस-पाँच वर्षोंमें साक्षर-शिक्षित नहीं हो सकती। कोई स्वतन्त्र समझदार जाति पराई भाषामें आजके ज्ञान-विज्ञानको प्राप्त करनेकी चेष्टा नहीं करेगी। हिन्दी भी हममें से अधिकोंकी मातृभाषा नहीं, सीखी हुई भाषा है, और ऐसी सीखी हुई कि चौदह वर्ष लगानेपर भी कितने ही बिहारी हिन्दीके व्याकरणपर अधिकार प्राप्त नहीं कर सकते।

एक भाषा-भाषी जनताको एक प्रान्त या प्रजातन्त्र न बनने दिया जाय, जिसमें आन्तरिक झगड़े बरकरार रहें। नहीं, यह हर्गिज़ नहीं होने जा रहा। भारत और संसारका अबकी बार स्वतन्त्र होना इन भाषाओंके लिए भी कुछ मतलब रखता है, और वह यह कि इनके स्वतन्त्र अस्तित्त्वको स्वीकार किया जाय - मल्ली (भोजपुरी) - भाषा-भाषी आरा-छपरा-मोतिहारी-बलिया ज़िलोंके सम्पूर्ण तथा गोरखपुर-आज़मगढ़-गाज़ीपुर ज़िलोंके कितने ही भागोंको मिलाकर एक अलग मल्ल-प्रजातन्त्र क़ायम किया जाय। काशिका (बनारसी) भाषा-भाषी बनारस आदि ज़िलोंको मिलाकर काशी-प्रजातन्त्र क़ायम किया जाय।

फिर सवाल होता है हिन्दीका। हिन्दीको हम अन्तर्प्रान्तीय भाषा मान सकते हैं; पर वह हमारी मातृभाषा नहीं है। उसे कभी किसी भी मातृभाषाको मारकर पूतना बननेका अधिकार नहीं है। हिन्दी-भाषाको शिक्षितकी कसौटी बनाना ग़लत है।मातृभाषाओं के अधिकारको स्वीकार कर लेनेपर भी जनता-युग में हिन्दीको क्षति नहीं पहुँचेगी, उसके अनेक साहित्यिक तब भी दूसरे भाषा-क्षेत्रोंमें पैदा होते रहेंगे। और यदि क्षति हो भी, तो हमें जनताके साकार लाभको देखना है।

गुप्तजीने विश्राम-जैसे कितने ही विस्मृत कवियोंका ख़याल करके बहुत खेद प्रकट किया है। मगर यहाँ यह समझनेकी ग़लती नहीं करनी चाहिए कि इन विस्मृत कवियोंकी कविताएँ अकारथ गईं। यदि उनकी कविता वास्तविक कविता रही है, तो उसने अनेक हृदयोंको झंकृत किया होगा, जिसके परिणामस्वरूप ही नए विश्राम पैदा होते रहेंगे। जिस अनामिका कविता-स्रोतने विश्रामको पैदा किया, वह सूखा नहीं है। विश्राम-जैसे कवियोंको पैदा करनेवाली भाषा बन्ध्या नहीं हो सकती।

मातृभाषाके उत्साही सेवकोंसे मैं कहूँगा कि वे अपनेको अनाथ न समझें। भविष्य उनके ही हाथोंमें है। संग्रहका काम बहुत मुश्किल है। संग्रह करके उसकी दो-दो प्रतियाँ लिखी जा सकती हैं - प्रति तैयार करनेमें उस विषयके विशेष जानकारोंके सलाह-परामर्शसे भी फ़ायदा उठाया जा सकता है।



[ पटना ]

भोजपुरीका वियोगी कवि 'विश्राम' : श्री परमेश्वरीलाल गुप्त


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आयल बाटे सावन क महिनवां मोरे भइया,
रहि-रहि उठे बदरा घनघोर। 

तमसाके उस पार, दूरसे आते हुए करुणासे ओत-प्रोत बिरहे* को सुनकर चलते हुए पाँव ठिठक गए। साथीने कहा - 'कितना सुन्दर गा रहा है!' और हम दोनों सुननेमें तन्मय हो गए :-

उड़ैला    पपीहा   आपन    गितिया   सुनावत;
चलैले     बयार     जियरा     के     लहरावत।
 जोन्हरीके   पात  हिल्ले    मड़ुआ   कै  चोटी;
रहि-रहि   खहरालीं   उखिया   ज मोटी-मोटी।
उड़ैलँ    बकुलवा   जइसे   बेइली  क  गजरा;
बदरा  कै    टुकड़ी    नभवामें    कर   झगरा।
पड़ल बाटै झुलवा वोप्पर झुल्लति बाँटीं नारी;
रहि-रहिके    हिल्ले    वोहो   पेड़वाकै  डारी।
चारों   ओरसे   कजरी   सुनाले   मोरे  भइया;
 जेहि   सुनिके   फाटेला  करेज  मोरे  दइया।
कहैं   'बिसराम'  दुनियाँ  करत  बाय  अराम;
                    नाचत बाटें बनवामें खूब मोर।
राम!   मोरी  रानी   भइलीं  स्वाती  कै  पानी।
                मोर करकैला करेजवा कै कोर।।

- सावनका महीना आया हुआ है। रह-रहकर घनघोर बदल उठ रहे हैं। पपीहा अपना गीत सुनाता उड़ता है। मनमोहक वायु चल रही है, जिससे मक्केके पत्ते और मड़वाकी चोटी हिल रही है; रह-रहकर मोटी ईख खड़खड़ा उठती है। आकाशमें बगुले इस प्रकार उड़ रहे हैं, मानो बेलेके हार हों। (कितनी सुन्दर कल्पना है!) नभमें बादलोंकी सेना युद्ध कर रही है। बागमें झूला पड़ा है, जिसपर स्त्रियाँ झूल रही हैं, जिससे रह-रहकर पेड़की डाली हिल उठती है। चारों ओर कजलीकी ध्वनि सुनाई पड़ रही है, जिसको सुनकर मेरा हृदय फटा जा रहा है। सारा संसार आनन्द कर रहा है और वनमें मोर नाच रहे हैं; किन्तु मेरे मनमें हूक-सी उठ रही है, क्योंकि मेरी रानी तो स्वातीकी बूँद हो चुकी है। 

कितना सुन्दर-सजीव सावनका चित्रण है और साथ ही है वियोगीके हृदयकी मर्मभरी वेदना! गायकके विषयमें जाननेको मन उत्सुक हो उठा। साथीने बतलाया, इन पंक्तियोंका गायक है भोजपुरीका वियोगी कवि 'विश्राम'** एक पतला-दुबला 24 वर्षका अपढ़ ग्रामीण, जिसने अपनी 'सोनेकी-सी रानी' को खोकर पाया है कविता रानीका वरदान। उसीको लेकर तमसा-तटपर बैठा वह अपना मन बहलाया करता है। लोग उसे दीवाना समझते हैं। वह कहता है :-
 
        मोके त  बिपतिया सतावै मोरे दैवा,
गउवाँ  कहे   कि   मेहरबस  हउवै  सार।
बुढ़वा त कहैं, हमरो मरलि बाय मेहरिया,
कबहूँ ना तोरलीं  आपन अइसे सरिरिया।
कहै लँ  जवनका  मेहरी मरे बहुत जग में,
उनकर  मरदवा  नाहीं  रोवें  अइसे मगमें।
इनहीं कै सीता   जनूँ मरलि बाटीं  जगमें,
            इतअ रोवें नित  जरिया बेजार।
एकठे     मेहरियाके    मरतई    बेहँगवा,
       गयल अपनो हिमतिया अइसे हार। 

- मैं तो विपत्तिसे पीड़ित हूँ; मगर गाँववाले समझते हैं कि मैं स्त्रीके वशीभूत हूँ। बुड्ढे कहते हैं कि हमारी भी स्त्रियाँ मरी हैं; पर हमने कभी भी इस प्रकार अपना शरीर नष्ट नहीं किया। युवकोंका कहना है कि संसारमें बहुत-सी पत्नियाँ मरती हैं; पर उनके पति इस तरह रास्तेमें रोया नहीं करते। वे मुझपर व्यंग करते हैं - 'जान पड़ता है, संसारमें एक इसीकी सीता मरी है, जो इस प्रकार रोता है। कायर है, तभी तो एक ही स्त्रीके मरनेसे निराश हो गया है।'

बात कितनी साधारण है;  पर है चुभती हुई। संसारमें कितने ऐसे व्यक्ति हैं, जो पत्नीकी मृत्युपर इस प्रकार क्रन्दन करें? इन पंक्तियों को पढ़कर 'बच्चन' की निम्न-पंक्तियाँ स्मरण हो आती हैं :-
आज मुझसे दूर दुनिया,
हाय कितनी क्रूर दुनिया,
है चिताकी राख करमें माँगती सिन्दूर दुनिया। 
पर हमारा कवि 'दिवंगता श्यामा' के शोकको 'बेदी' के प्रणय में भूल नहीं जाना चाहता। वह कहता है :-
पिताजी कहें, बेटा, करबै बिअहवा दूसर,
                   काहें होल वम्में लवलीन।
एतनी त बतिया नाहीं  जनता मोरे दादा,
         उनकै सूरति मनवामें हौ आसीन।
तूहैं  हउवै  काम  तिलकी  में  लेबै  दाम,
          हमरी दुसरी   नियतियाँ हईं तात!
जनम गँवइबै उनकै नऊँवा हम रटि-रटि,
       दादा, न हो करबै दुसरी कअ बात।
कहैं  'बिसराम'   लखिके   हमराई  काम,
        गउँवा कहै कि करत बाय उत्पात।
हमरा  त दिलवा  सुनगै  अगियाकी  नाईं,
लोगन का हो जनब हमरे दिल कअ बात। 

-पिताजी कहते हैं, उसमें (दिवंगता पत्नीमें) व्यर्थ इतने अनुरक्त हो रहे हो, मैं तुम्हारा दूसरा विवाह कर दूँगा। 
-लेकिन पिताजी, आप यह बात नहीं जानते हैं कि उसकी सूरत मेरे हृदय में आसीन है। आपको तो तिलकमें रुपए लेनेसे मतलब है; लेकिन मैं दूसरी पत्नीकी कल्पना भी नहीं कर सकता। मैं तो उसीके नामको रट-रटकर अपना जीवन समाप्त कर दूँगा। 
-मेरी इस अवस्था को देखकर गाँववाले समझते हैं कि मैं उत्पात कर रहा हूँ; पर मेरे हृदय में तो आग लगी हुई है। गाँववाले मेरे दिलकी बात क्या समझ सकेंगे?

और सचमुच 'विश्राम' अपनी 'सीता' का नाम रट-रटकर  ही जीवन बिता रहा है। होली हो, दीवाली हो, वसंत हो, पावस हो - सब उसको उसकी 'स्वातीकी बूँद बनी रानी' का ही स्मरण कराते हैं। आज दीवाली है, 'विश्राम' गा रहा है :-
आइल बाय दिवाली, जगमें फइललि उजियाली,
                    मोरे मनवामें छवले बाय अन्हार।
जुगुर-जुगुर   दीया  बरे,   होति  बाय  अन्हरिया;
मैं  तो  बइठल  बाटों  अपनी  सूनी रे कोठरिया।
अँचराके    तरे    लेइके     फूल    कै   थरियवा;
गउँवाकै   नारी    बारै    चलति   बाटीं  दियवा।
मोरे    हियमें   उठे    उनके   यादकै   बयरिया;
सिहर-सिहर    मोर   उठे    दुखिया   सरिरिया।
सबके   घरवामें     दियवाकै   बाती   लहराती;
मोरे घरमें पीटति  बाय  अन्हरिया अब्बो छाती।
गाँवकै   जवान    ले    मिठाई     आवैं   घरमें;
देखिके  आपनि  धनियाँ   हरसत   बाटें मनमें।
कहैं  'बिसराम'     हमके     दाना   हौ   हराम,
                 देखि मिठवा कुढ़त हौ जी हमार।
सब   कर   घरनी     घरमें     दियवा   सजावै,
                 मोरे रानी  बिनु  घर  हौ अन्हार।। 
 -दीवाली आई है और संसारमें उजियाली फैली हुई है; किन्तु मेरे मनमें तो अन्धकार ही व्याप्त है। एक ओर रात्रि बढ़ती जा रही है,दूसरी ओर दीपक जगमग-जगमग जल रहे हैं; किन्तु मैं अपनी सूनी कोठरीमें ही बैठा हुआ हूँ। गाँवकी स्त्रियाँ आँचलके नीचे फूलकी थाली लिए दीपक जलाने जा रही है; पर मेरे हृदय में उसकी स्मृति-बयार चल रही है, जिससे मेरा दुखी शरीर सिहर उठता है। सबके घरोंमें दीपकोंकी बत्तियां लहरा रही हैं; पर मेरे घरमें तो अन्धकार भी शोक मना रहा है (छाती पीट रहा है।)  ग्रामके युवक मिठाई लेकर घर आ रहे हैं और अपनी प्रेयसीको देखकर मन-ही-मन प्रसन्न हो रहे हैं; किन्तु मुझे तो खाना तक हराम हो रहा है - मिठाई देखते ही जी जल उठता है। सब लोगोंकी स्त्रियाँ तो घरोंमें दीपक सजा रही हैं; किन्तु मेरा घर रानीके अभावमें अँधेरा पड़ा है!


कितनी मार्मिक वेदना है 'विश्राम' के हृदयमें ! वसन्तको देखते ही वह एक तीखी कसक बनकर प्रकट हो उठती है :-
अइलैं बसन्त,  महक  फइलल बाय दिगन्त,
                  भइया धीरे-धीरे चलैलै बयार।
फुललैं   गुलाब,   फुललीं  उजरी  बेइलिया;
अमवाके   डरियनपर   बोलेलीं  कोइलिया।
बोले   पपीहा   मदमस्त   आपन   बोलिया;
महकिया  लुटावै आम ले बउर कै झोलिया।
उड़ि-उड़ि   भँवरा   कलियन    पै  मड़रालैं;
हउवा  के   सङ॒   मिलीके   पात   लहरालैं।
बढ़ि-बढ़िके   लतवा    पेड़वनसे  लिपटालीं;
उड़ि-उड़ि   खंजन   अपने  देसवाके जालीं।
कहैं   'बिसराम'  कुदरत   भइल   अभिराम,
           चिड़िया गावत बाटीं नदियाके तीर।
चलि-चलि   बतास  उनकै   यदिया   जगावै,
            मोरे   मनवामें   उठति  बाटीं  पीर।
 -वसन्त आया है, चारों ओर सुगन्ध फैली हुई। है वायु मन्द-मन्द चल रही है। गुलाब और श्वेत बेला फूले हुए हैं। आमकी डालपर कोयल कूक रही है। पपीहा मदमस्त होकर अपनी बोली बोल रहा है। आम बौरकी झोली लेकर महक लुटा रहा है। भ्रमर उड़-उड़कर कलियोंपर मँडरा रहे हैं। हवाके संग पत्ते लहरा रहे हैं। लतायें बढ़-बढ़कर पेड़ोंसे लिपट रही हैं। खंजन अपने देश वापस जा रहे हैं और नदीके किनारे पक्षी कलरव कर रहे हैं। इस प्रकार प्रकृति अभिराम-सी हो रही है; किन्तु यह वायु तो रह-रहकर उसकी स्मृति जगा देती है और हृदयमें एक कसक होने लगती है। 

करुणा-मिश्रित यह प्रकृतिका स्वाभाविक चित्रण किस कविके चित्रणसे कम सजीव है? अँधेरी रात और बरसातका मौसम प्रेमीको प्रेयसीके लिए कितना व्याकुल कर देता है, यह 'विश्राम' के दिल से पूछिए। वह कहता है :-

 राति अन्हिअरिया, बाटीं सूनि मोरी सेजरिया,
                    मोरे दिलवामें  उठेला तुफान।
 बोलेलअ    सियार     कुचकुचवा     बहरवाँ;
 रेंउआँ   चिल्लात   बाटें   तालके   किनरवाँ।
उड़ि-उड़ि भगजोगिनी  पिपरन पर मँडरालीं;
नभावासे    टूटिके   तरई   रातमें   बिलालीं।
चलि-चलि   पुरुअवा    पेड़वनके   झकझोरे;
मेघवन   कै    बोली    मोके   चिन्तामें   बोरे।
उमड़ - घुमड़के     बदरा     पानी    बरसावे;
तड़प - तड़पके   मोरा      जियरा   तड़पावे।
आइ - आइ   बउछार   मोर  खटिया भिगोवे;
टूटल     ओसार     मोरा     टुप - टुप    चूवे।
यहि बिच   यदिया  उनकै  अइलीं  अचानक;
           मोरा   मनवा    मसोस   रहि   जाय।
कहैं  'बिसराम'का    बिगड़लीं   तोहरा  राम;
          मोरी  बसली मड़इयाँ  देहला जराय।।

-रात अँधेरी है, पर मेरी शय्या सूनी है। मेरे हृदय में तूफ़ान उठ रहा है। बाहर सियार और उल्लू बोल रहे हैं। तालाबके किनारे झींगुर झंकार कर रहे हैं। पीपलके पेड़पर उड़-उड़कर जुगनू मँडरा रहे हैं। तारे आकाशसे टूट-टूटकर रात्रिमें विलीन हो रहे हैं। पुरवा हवा चलकर पेड़ोंको झकझोर रही है। मेढककी बोली सुनकर मेरा मन चिंतित हो उठता है। बादल उमड़-घुमड़कर पानी बरसाते हैं, साथ ही तड़पकर मेरे जीको भी तड़पाते हैं। बौछार आ-आकर मेरी खाटको भिगो देती है। मेरा टूटा हुआ ओसारा (बरामदा) टप-टप चूता है। ऐसी अवस्थामें अचानक उसकी याद आ गई और मन मसोसकर रह जाता है। हे भगवान ! मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा था कि तुमने मेरे बसे हुए झोपड़ेंको उजाड़ दिया?

प्रकृति कितनी दुःखदायिनी  रही है 'विश्राम'को, यह प्रकृति-निरीक्षक कोई कवि-हृदय ही बता सकता है।

दूर, नदी-किनारे, एक चिता जल रही है। 'विश्राम'के कवि-मनमें हठात उस दिनकी याद आ जाती है, जब उसने इसी नदीके किनारे अपने ही हाथों अपने अरमानोंको जला डाला था। वह कह उठता है :-

नदिया    के   किनारे  एकठे   चिता    धुँधुँआले,
               लुतिया उड़ि-उड़ि  गगनवा में  जाय।
धधकि-धधकि    के    चिता   लकड़ी    जलावे;
लहकि-लहकिके      नदीके     सनवाँ   दिखावे।
चलिके      बतास         अँचियनके      लहरावै;
नदिया   कै    पानी    आपन   देहिंयाँ   हिलावै।
चटकि - चटकिके  चितामें जरति बाय सरिरिया;
ना   जानी कि   पुरुस   जरै   या  जरै  मेहरिया।
चितवातर     बइठल   एकठे     मनई    दुखारी;
अपने     अरमनवनके    डालत    बाटै    जारी।
कहैं    'बिसराम'   लखिके    चितवनकै    काम,
           मोरा   मनवां  हो   जाला   ई    बेकाम।
अइसनै    चिता हो    एक   दिन  हमहूँ जरवलीं; 
         वोहि सङ् फूँकि देहलीं आपन अरमान।

-नदीके किनारे एक चिता धू-धू करके जल रही है और चिनगारी उड़-उड़कर आकाशमें जाती है। धधक-धधककर चिता लकड़ियोंको जला रही हैं और लपटें बढ़-बढ़कर नदीको अपनी शान दिखाती है। वायु चलकर आँचको लहरा देती है। और नदी अपने शरीरको हिला रही है। चितामें चटक-चटककर शरीर जल रहा है। पता नहीं, उसमें नर जल रहा है अथवा नारी। हाँ, इतना अवश्य है कि उसके किनारे बैठा एक दु:खी व्यक्ति अपने अरमानोंकी आहुति दे रहा है। चिताका यह कार्य देखकर मेरा हृदय बेकार हुआ जाता है। एक दिन मैंने भी ऐसी ही चिता प्रज्वलित की थी और उसीमें फूँक दिए थे सारे अरमान।

इन सजल पंक्तियोंको देखकर किसे पन्तकी निम्न पंक्तियाँ स्मरण न हो आयँगी :-
वियोगी होगा पहला कवि,
विरहसे उपजा होगा गान। 
और याद आ जायगी क्रौंच पक्षीकी वह कथा, जिसने वधिक वाल्मीकिको महाकवि वाल्मीकि बना दिया।
कौन कह सकता है, 'विश्राम' किसी महाकविसे कम हैं? उसमें महाकवियों-सी प्रतिभा है, भाव हैं, भावुकता है, कल्पना है और उनके उपयुक्त भाषा। काश, वह पढ़ा-लिखा होता ! फिर भी, इस अवस्थामें ही वह सत्कवियों से कम नहीं है। अन्तर केवल इतना है कि पढ़े-लिखे कवि लोक-प्रसिद्ध हैं और वह तमसाके किनारे बैठा मूक साधना किया करता है।

[ गोपाल-निकेत, आज़मगढ़ ]

________________________________

  * पुरुषों द्वारा गाया जानेवाला गान।
** भोजपुरीका यह तरुण गायक आजमगढ़ नगरसे डेढ़ मील दक्षिण-पूरब, तमसाके किनारे जयरामपुर नामक ग्रामका निवासी है। - ले.

Saturday, August 15, 2020

पुरुषार्थवती देवी और रामेश्वरी देवी गोयल की कविताएँ

 



पुरुषार्थवती देवी  (1911 - 1931) 


उद्वोधन

उठो !  ललनाओं भारत की। 


मत समझो हा ! हम हैं अबला 

तुम तो शत्रु घातिनी सबला 

शक्ति और साहस में प्रबला 


सुगति विधायिनी भारत की। 

उठो ललनाओं  भारत की।। 


सोचो, समझो, गम्भीर हो 

निज-बल पहचानो धीरा हो 

रक्ष - चंडी  होवो  वीरा  हो


शक्ति दायिनी  भारत  की। 

जगो ललनाओं भारत की।।


भय  शंका   को  दूर भगाओ

कष्ट  जान   के  दूर   हटाओ 

वास्तव में फिर से बन जाओ 


सौख्य प्रदायिनी भारत की। 

आर्य्य ललनाओ भारत की।। 

(मनोरमा, सितंबर 1927)

***


प्रश्न 

सांध्य - गगन  की ललति-लालिमा 
विहँग - वृन्द का  कल रव - वाद। 
शीत, मन्द, शुचि, मलय - प्रभंजन,
किसकी   अहो!    दिलाते   याद?

बाल - सूर्य्य   की   किरण - राशियाँ,
उषा     सुन्दरी      का     वर - वेष।
चपल - सरित का अविरत - भाषण,
देते         क्या       अतीत - सन्देश?

निशा   काल   का   नीरव  गायन,
सुप्त - विश्व     की    मुद्रा - मौन। 
चन्द्र  देव   की   मृदुल   रश्मियाँ,
क्या   कर  देती   हैं,   मैं   कौन?

व्यथित    हृदयतंत्री   झंकृत   कर,
कौन    अहो !    गाता    है    गान?
किस  अतीत  की  याद दिला कर,
बेसुध     कर     देता    अनजान।।

(मनोरमा, दिसंबर 1927)
***

सप्त - स्वर 

प्रकृति - नटी यह  सात रँगों से करती है नित नव श्रृंगार;
सप्त - स्वरों से यह जग- वीणा करती है मुदमय झंकार। 

सूर्य  रूप में  सप्त -रंग ये  करते जग - जीवन - संचार;
सात  वर्ष की  अभिव्यक्ति में  झूल  रहा  सारा संसार। 

उसी सप्त - स्वर - लहरी में मुझको निमग्न हो जाने दो;
विश्व चित्र  के  चतुर  चितेरे   प्रेम -सुधा - रस  पाने दो। 

(सुधा, मई 1928)
***

जीवन नौका 

पथ अज्ञात, कठिन; जीवन - नौका डगमग हो जाती थी;
विश्व - सरित  की   चपल  तरंगों  में  डूबी  उतराती  थी। 

कभी निराशा  की छाया  निज  अंचल से  ढक  लेती थी;
अश्रु - माल इस दग्ध हृदय का क्लेश - ताप हर लेती थी। 

दुखिया  की  इस  दीन   दशा पर  चन्द्र - देव  मुसकाते  थे;
नभ - मंडल से चुए सुधा - कण भी बलि - बलि हो जाते थे। 

तब  भी  इस  मुरझाए मन  में  आश - लहर  लहराती  थी;
भावों  की  मंजुल  आभा  बस  क्षीण  प्रकाश  दिखाती थी। 

अनिल - झकोरों से तम में वह झिलमिल ज्योति विलीन हुई;
मेरी     जीवन - नैया   भी    उस   अंतराल   में   लीन   हुई। 

(सुधा, अक्टूबर  1928)
***

वेदना 

हो सुंदर, सुरभित उपवन, जग को मोहित करता हो;
पर   मेरा सूखा  पतझड़  ही  मुझको  रम्य  बना हो। 

सज्जित गृह - द्वार खड़े हों, करते हों नभ का चुम्बन;
अपनी  सूनी  कुटिया  में  ही  मेरा  ध्यान  लगा  हो। 

बहता हो सुखद समीरण, संचारक प्राण जगत का;
पर मेरी जीवन - लड़ियाँ उसमें भी उलझ रही हों। 

विशदांगन  में  पृथ्वी  के  क्रीड़ा  करते  हों  प्राणी;
पर  मेरा स्थान  कहाँ  है, यह कोई  जान न पावे। 

उपमेय  न हो  कोई  भी, उपमान  न  कोई  मेरा;
मैं भी 'निज' पता न पाऊं, तब जग कैसे पहचाने?

(सुधा, जुलाई 1929)
***

ओ परदेशी !

खट - खटाया    द्वार    मेरा    रात   ने 
क्या  कहूँ  वह रात  या शुभ - प्रात ने। 
जब अचानक तू ने उर - कम्पन किया 
मैंने   देखा  एक   अद्भुत  जग  नया। 

भूलती  थी  मैं,  अज़ब  वह  दृश्य  था 
यदपि  इन  आँखों  से  तू अदृश्य था। 
भर   चुकी  थी  आंसुओं  से  गगन के
यह मही, जिनको  लिए वह यतन से। 

मुसकराती    थी,  घने  अंधकार   में 
व्यक्त  कर  आनंद  इस  व्यापार  में। 
उस  लजीले  नयन  के मृदु - हास में 
देखा तुम्हीं को, थे  तुम्हीं बस पास में। 

स्तब्ध - सी औ' ज्ञान इससे व्यस्त - सी 
रह गयी मैं  चौंककर फिर मस्त - सी। 
मैं   तुम्हें   नहिं  जानती  थी  और  ना -
जानती   थी   है   तुम्हारा  नाम   क्या। 

किन्तु  उसके  बाद, अब तु म तो गए 
पूर्ण  तुमने  कौन - से  थे  स्थल  किये?
दृष्टि  के उस  एक  ही  बस  मूल्य  में
निरत  झरने  बरसते  स्मृति - कूल में। 

(विशाल भारत, अक्टूबर 1937)

[ नोट - श्रीमती पुरुषार्थवती ने यह कविता 4 फ़रवरी सन् 1931 की साँझ को लिखी थी। अपने नाम पर आयी किसी चिट्ठी के ख़ाली भाग पर ये पंक्तियाँ लिखकर वे भूल गयीं कि वह चिट्ठी किधर हो गयी। इसके सिर्फ़ सात ही दिन बाद, 11 फ़रवरी 1931 के प्रात:काल को, उनका स्वर्गवास हो गया। उसके सवा छः साल बाद वह चिट्ठी उनके समान में पायी गयी है।  इस कविता को वे दुबारा देख भी नहीं पायीं।  - सम्पादक, विशाल भारत ]

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रामेश्वरी देवी गोयल  (1911 - 1935)



आशा 

पीड़ा का मूक रूदन बन शर, दुष्टों का रक्त बहाएगा। 
निर्धन प्राणों का आह पुंज, भूतल पर क्रान्ति मचाएगा। 

अत्याचारी  का  प्रबल  वेग, अबलाओं  के आंसू - कण ले,
आरत भारत पर एक बार, विद्युत् - सा बल चमकाएगा। 

देशानुराग का पागलपन, रग रग में फड़काकर धड़कन,
बलि - वेदी पर बलि दे  जीवन, भारत स्वाधीन बनाएगा। 

(सुधा, अक्टूबर 1930)
***

अरे ... इस ओर ...!

भग्न  हृदय   का  स्वप्न - राज़  है,
मुरझाया सुख - सुमन - साज है,
पथिक - रहित पथ शून्य पड़ा है,
                           मिलता      और      न      छोर। 
                           अरे  ...               इस ओर  ... !

भूमि कठिन, कंटकमय अतिशय,
स्मृति में है विस्मृति का विस्मय !
नियति, हास करती, विषाद -तम
                       छाया     है       अति         घोर। 
                       अरे  ...               इस ओर  ... !

टूटी - फूटी    कहीं     कुटी    है,
सुषमा   जिसकी  सभी   लुटी  है,
छुटी सकल ममता जग की, बस 
                       लगे        वहीं          दृग - कोर। 
                       अरे  ...               इस ओर  ... !

अश्रु     निरंतर    नृत्य     रचाते,
झर - झर हृदय - व्यथा बरसाते,
गाते - गाते   राग   अलख    का 
                       करते         रहते            भोर। 
                       अरे  ...             इस ओर  ... !

सिसक रहीं जीवन की घड़ियाँ,
टूट गयीं मानस की कड़ियाँ,
बिखरीं आशाओं की लडियां,
                       आओ      अब       चित -चोर। 
                       अरे  ...             इस ओर  ... !

(सुधा, अप्रैल 1931)
***


आदेश 

...निराली साध !
विकल मानस का राग अगाध ?
अरी मतवाली !
देव - दुर्लभ अनुपम अभिलाष;
विषम उपहास,
नहीं है पीड़ा से खाली !

... निपट अनजान !
वृथा मत कर दिन का अभिमान,
अरी अविचलित !
बनेगा मानस शून्य श्मसान 
छोड़ दे आ  न 
न खो देना निधि यह संचित !

... सुनहला प्यार -
मधुरतम जीवन यह, कटु भार 
बनेगा, भोली !
नवल विकसित कलियों के साथ 
हृदय कर क्षार 
जलेगी प्राणों की होली !

... साधना विमल,
प्राण का है संकल्प, अचल,
लालसा भारी,
किन्तु ठुकराना मत वह क्षार,
प्यार का सार,
अरे ! हे, निष्ठुर व्यापारी। 

(सुधा, अक्टूबर 1932)
***


पागलपन 


सजनि ! है कैसा पागलपन ?

नीरव आँधी   शून्य   गगन में 
मचल  मचल    वह     जाती। 
शुष्क अधर की संचित लाली 
झर  झर   झर  झर    जाती।। 

न रहता है   किंचित् अपनापन,
सजनि ! है यह कैसा पागलपन ?

नयन हठीले   सो सो जाते 
मधुमय   के   मधुवन   में। 
मनभावन आकर खो जाते 
स्वप्नों   की   उलझन    में। 

न    खोने   पाता    यों   सूनापन 
सजनि ! है यह कैसा पागलपन ?

पीड़ामय तन्द्रा में भी, सखि !
याद    उसी     की    आती। 
निठुराई    निर्मम    के   उर 
चुभती, पर  खोज  न  पाती।।

सजनि ! क्या   ऐसा ही है बन्धन?
सजनि ! है यह कैसा पागलपन ?

(सरस्वती, जनवरी 1934)
***

उपालम्भ

तुम्हारी  संजीवन  मुस्कान,  जगा  देती  मद  का  संसार। 
पुलक, भावुक नभ भी अनजान, लुटा देता अपना श्रृंगार।।

लुभा  लेता  तटस्थ  के  प्राण, बिछा  मायावी   मुक्ता - जाल। 
बना देता पागल - सा कौन, व्यथा की अविकल मदिरा ढाल?

श्रमित कलियों का  कोमल गात, ढूंढ़ता व्याकुल हो विश्राम। 
सुला देता सुधांशु निज अंक, बिछा कर शीतलता अभिराम।।

छोड़  जाता  आंसू  कोई -- दुखद - सा  स्वप्न;   दीन नैराश्य। 
पोंछ  लेता  चुम्बन  में  एक,   हँसा  जाता  प्राची  का  हास्य।।

किन्तु   मानस   का  टूटा  तार,  छेदते  र हते  आकुल  प्राण।
स्वप्न - सा खो जाता मतिमान, सुखद जीवन का सुमधुर गान।।

न आने देता पुनः वसन्त, छेड़ कर अपनी आकुल तान। 
ढहा  देता  आशा  के  स्वप्न; बहा  देता  विवेक  नादान !!

(सरस्वती, फ़रवरी 1934)
***

गीत

घन - कण क्यों वसंत नभ छाये?

कौंध रही अलि चंचल दामिनि,
उमड़ - घुमड़ दल बादल छाये,
काँप   रही   आतुर   शैवालिनी;
पिय - बिछोह  की  धुनी रमाये। 

तुमुल द्वंद्व से श्रान्त, व्यथित, चल 
ज्यों ही सखि मधु - बाल सुलाये
गरज  पड़े   निष्ठुर  सोये  नभ -
कड़क - तड़क सुकुमार जगाये। 

प्रलय  प्रभंजन   से  टकरा  अलि,
गृह - विहीन, अरु प्रिय विलगाये -
बिखर गये, आकुल, अति निष्प्रभ 
मिटे   प्रीति   की   रीति  निभाये। 

क्यों घन - कण  वसंत नभ छाये?

(सरस्वती, सितम्बर 1934)
***

उस पार 

अ       ह:     ह:    ह: ................ !

उस पार जाना चाहते हो, पथिक ! .....

यह गठरी ले कर    ................ ?
इस गम्भीर - अथाह जल - प्रवाह को पार करना चाहते हो, ........ हँसते - हँसते ? ........... स्मृति की छाया में ? ...... और; --- यह भेंट लेकर स्नेहाकांक्षा में ? .......

नादान पथिक ! ठहरो, ---    लौ   .........  ट      जाओ सुकुमार ........

यह क्या    ...........? ममत्व की अपेक्षा, उत्सर्ग का निश्चय कर आगे बढ़ना --- तुम्हारा प्रेमी निर्म्मोही है। 

कामना, प्रेम - जनित अभिलाषा, प्रत्याशा और अपने धन को वहीं छोड़ आना --- तुम केवल फ़क़ीर बन कर उसके पास पहुँच सकते हो  --- वह तो योगी है। 

क्या तुम्हें विश्वास है कि मार्ग की कोई भी कठिनाई --- भयंकर झंझा, मृत्युवाहिनी भँवर, --- विकराल अन्धकार, जीवन - नैराश्य, तथा अनन्त संताप --- तुम्हें विचलित न कर सकेंगे? .......

क्या तुम ढृढ़तापूर्वक कह सकते हो कि तुम्हारे पास तुम्हारा कुछ भी नहीं है? यदि हाँ तो तुम सच्चे प्रेमी हो ---

पथिक ! उस पार मिलन नहीं है --- वहां है आत्मविसर्जन   ..............  चलोगे?


(सरस्वती, मई 1934)
***

गद्य - काव्य 

उसका हृदय अनेक आघातों से पीड़ित था - वे सभी अपनी छाप छोड़ गए थे।  अपने जर्जर प्राणों को सहानुभूति की आशा से वहाँ सँभाल रही थी।  किन्तु व्यथा से बेसुध, संताप से विकल और दुराशाओं से पीड़ित वह जीवन का छोर छूने का प्रयत्न कर रही थी। 

तुम आये  ....... , शरीर में कंपकंपी फ़ैल गयी - उसने आँखें खोलीं और मुस्करा दिया। 

तुम भूल गये -

चमचमाती रजनी के जगमग प्रकाश में तुमने केवल उसका स्मित अधर ही देखा ....... !

पल भर की इस सफलता पर वह प्रसन्न थी। इतनी कठोर यन्त्रणा पर वह विजय पा सकी ! क्षितिज ने भी मुस्करा दिया। 

............पर रोग असाध्य था। 

काल का कौतूहल बढ़ता ही गया।  क्षण क्षण के हृत्कम्पन एक भयानक आघात पहुँचाते।  वे इनी - गिनी श्वासें भी क्षण में विलीन होने वाले जीवन की शत्रु बन बैठीं। उसकी तड़फ देखकर हृदय सिहर उठता था। पर उस पीड़ा को बांटने वाला था ही कौन?

तुमने उसकी नाड़ी थाम ली। उसने आँखें बंद कर लीं। तुम्हारी स्नेह - पूर्ण थपकियों से कदाचित् कुछ आराम मिला - तुम्हारा हृदय आनन्द से विभोर हो गया - जीवन की कुछ आशा बंधी। 

.............एक बार उसने फिर आँख खोली - तुमने सोचा, वह कुछ कह रही है - उसकी पुतलियों को देखकर तुम रो क्यों उठे? क्या उनमें तुम्हारा चित्र न था?

उसने मुस्कराने की चेष्टा की, पर अधर खुलकर रह गए।  उसकी आँखों से दो आंसू चू गए।  उन्हीं में उसके हृदय का, प्राणों का और असफल जीवन का रहस्य था !

(सरस्वती, मार्च 1935)
***


स्वप्न 

(हमें यह लिखते हुए दुःख होता है कि सरस्वती की इन होनहार लेखिका श्रीमती रामेश्वरी देवी गुप्त, एम.ए. का प्रसूति - ज्वर से असमय में ही स्वर्गवास हो गया। अपनी मृत्यु से कुछ दिन पूर्व आपने एक गद्य गीत लिखा था उसे हम यहाँ प्रकाशित करते हैं।  - संपादक, सरस्वती




प्रियतम का मुक्त द्वार था - न कोई प्रहरी न द्वारपाल। मैंने स्वच्छन्दता-पूर्वक उसमें प्रवेश किया।  असंख्य तारों की शीतल चन्द्रिका में अगणित पथ दिखाई दिये - मैं चलते चलते थक गई। ढूंढ़ते ढूंढ़ते विकल हो गई, पर उस प्रासाद के स्वामी का पता न था। 

रजत - रश्मियों की मुस्कान धूमिल हो गई। रजनी ने अपना विस्तृत प्रसार समेटा। और काले मेघों ने वक्ररूप धारण कर लिया। श्रान्त गात, आहत-सा गिर पड़ा - हताश हो मन ने श्रृंखलायें तोड़ दीं। अचेत शरीर में हृत्कम्पन का वेग बढ़ गया - जीवन का काल मन्द नाड़ी छू गया - किन्तु टिमटिमाते दीपक की अन्तिम लपटों की भांति नयनों में ज्योति घूम गई। प्रतीक्षा के उस नन्हें पल में जीवन भर का सम्पूर्ण उत्साह छलक गया - अमिट आशा भर गई। 

अदम्य उत्सुकता से द्वार की ओर देखा - वह मेरे पास था .............. ! !

सब आश्चर्य्य में थे - प्रफुल्ल हो हृदय-गति की परीक्षा की। वह निस्पन्द थी। नाड़ी की गति रूक गई - जीवन का अमर प्रसाद पा आत्मा मुक्त हो गई। 

किन्तु जीवन का स्वप्न टूट गया। आभा बिखर गई - निखरे हुए युगल रत्नों के समान वे नेत्र खुले रह गए - कदाचित् अभी वे अतृप्त ही अपलक दृष्टि से तृष्णा बुझा रहे हैं ! अथवा अपनी सहज सफलता पर अविश्वास कर निर्निमेष दृष्टि गड़ाये प्रियतम का आह्वान कर रहे हैं !!

(सरस्वती, जनवरी 1936) 

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प्रस्तुति : सुजीत कुमार सिंह 

Wednesday, August 12, 2020

काशी-नागरी-प्रचारिणी सभा : पं. रामनारायण मिश्र




 

यह संस्थाओं का युग है। संसारके समस्त सभ्य देशोंमें सार्वजनिक जीवनके प्रत्येक पहलूसे सम्बन्ध रखनेवाली संस्थाएँ  हैं। हमारे भारतमें भी हैं। संस्थाएँ देशकी संघशक्तिकी साक्षी-स्वरूप हैं; पर भारतकी संस्थाओंमें दृढ़ता, एकता और चिरजीवी होनेके गुण प्राय: कम पाए जाते हैं। अन्य देशोंमें ऐसी सभा-समितियाँ  हैं, जो सैकड़ों बरसोंसे चली आ रही हैं। उनके संचालक सोचते रहते हैं कि किस प्रकार उनका भविष्य अधिकसे अधिक उज्ज्वल बनाया जा सकता है; किन्तु हमारे देशमें समस्या यह रहती है कि किस प्रकार हम एक संस्थाको जीवित रखें! ऐसी अवस्थामें यदि कोई संस्था 50 वर्ष की आयु प्राप्त कर ले, तो वह बधाई और प्रोत्साहन पानेकी पात्र है। परमेश्वरकी कृपासे काशी-नागरी-प्रचारिणी सभा आज इसी कोटिमें पहुँच गई है। 

पचास वर्ष पहले हिन्दीको कौन पूछता था। संस्कृतके विद्वान्, जो निसन्देह सरस्वती देवीके सच्चे उपासक रहते आए हैं; हिन्दीको 'भाखा' कहकर उन दिनों उसका निरादर किया करते थे। 5 अगस्त सन् 1843 में डा. बैलन्टाइनको, जो काशीके गवर्नमेन्ट संस्कृत-कालेज के प्रिन्सिपल थे, हिन्दीमें यह आज्ञा निकालनी पड़ी थी -

"संस्कृत-पाठशालामें  विद्यार्थी हिन्दी-भाषा प्राय: बहुत अशुद्ध लिखते हैं। जो विद्यार्थी पंडितके समान संस्कृत लिख सकता है, सो भी हिन्दीभाषा एक गँवार के समान लिखता है और हमारी दृष्टिमें यह निपट अयोग्यता है और चाहते हैं कि यह लज्जाका कारण पाठशालासे उठ जाए। इस निमित्त यह आज्ञा देते हैं कि जो लड़के तीसरी व्याकरण शालामें पढ़ते हैं, सो प्रति दिवस 10 बजेसे 11 बजे तक अंगरेज़ी शालामें आकर हिन्दी-पंडित की शालामें पढ़ा करें।"

जब ब्राह्मण विद्वानोंको, जो उस समय हमारी संस्कृतिकी रक्षा करनेवाले एकमात्र नेता थे, एक विदेशीको बतलाना पड़ा कि हिन्दी -भाषा को भलीभाँति न जानना लज्जाकी बात है, तब अन्य श्रेणीके लोगोंकी क्या अवस्था रही होगी!

अंगरेज़ी स्कूलोंमें पढ़नेवाले बालकोंके अभिभावक यही चाहते थे कि उनके बच्चे विदेशी फ़ारसी-लिपिमें लिखी हुई पुस्तकें पढ़ें। अंगरेज़ी पर तो लोग लट्टू थे। उस समय काशीके सरकारी स्कूलमें पं. मथुराप्रसाद मिश्र एक प्रसिद्ध और प्रतिष्ठित हेडमास्टर थे। उनमें बड़े गुण थे; परन्तु देशमें उनका यश उनके गुणोंके कारण नहीं था, बल्कि इसलिए था कि वे अंगरेज़ोंके समान अंगरेज़ी बोल सकते थे। हम लोग भी विद्यार्थी-अवस्थामें आपसमें अंगरेज़ी ही में बातचीत करना गौरवकी बात समझते थे। छावनीमें गोरोंकी बैरकमें इसलिए घुस जाते थे कि वहाँ अंगरेज़ोंसे अंगरेज़ी बोलेंगे। 

ऐसे समय 8-10  स्कूली विद्यार्थियोंका नागरीके नामसे एक सभा खोलना साहसकी बात थी; पर इसके कार्यक्रममें एकमात्र वाद-विवाद ही को स्थान दिया गया था। सौभाग्यसे इन बालकोंका सम्पर्क बाबू राधाकृष्ण दास, महामहोपाध्याय पं.सुधाकर द्विवेदी, पं.लक्ष्मीशंकर मिश्र, बाबू कार्त्तिकप्रसाद, बाबू प्रमदादास मित्र ऐसे महानुभावों से हो गया, जिनके कारण रूखे वाद-विवादसे हटकर इन लोगोंकी रुचि साहित्यकी ओर झुकी। उन दिनों देशमें हिन्दी-साहित्यके प्रति प्रेम उत्पन्न करनेका श्रेय भारतेन्दु हरिश्चन्द्र को था और हिन्दीको आर्यभाषा कहकर राष्ट्रभाषाका रूप देनेका श्रेय स्वामी दयानन्दको। पर जब यह सभा स्थापित हुई थी, उसके कुछ ही पहले ये दोनों विभूतियाँ स्वर्गगत हो चुकी थीं। वायुमण्डलमें ये दोनों अपना सन्देश अवश्य छोड़ गए थे। 

यह सभा कैसे बढ़ी, इसके सामने कितनी कठिनाइयाँ आईं, इसको किससे कितनी सहायता मिली - ये बातें तो सभाके 50 बरसके विवरणमें मिलेंगी (जो अर्द्धशताब्दी-उत्सवपर प्रकाशित होगा); पर एक बात अवश्य उल्लेखनीय है। वह यह कि इसमें कभी साम्प्रदायिक अथवा व्यक्तिगत भेद-भाव नहीं उत्पन्न हुआ। झगड़े हुए; पर दलबन्दी नहीं हुई। मनुष्योंके स्वभावमें अन्तर होता ही है। एकमें तमोगुण प्रधान , तो दूसरेमें रजोगुण, तीसरेमें सत्वगुण और किसी-किसीमें सब गुणोंका समन्वय। वही संस्था चिरजीवी हो सकती है, जिसमें भिन्न-भिन्न स्वभावके लोग शिष्टताकी सीमाका उल्लंघन नहीं करते और परस्पर प्रेम और श्रद्धा बनाए रखते हैं। मत-भेद हुआ ही करता है - होना स्वाभाविक भी है - पर 'बुद्धि-भेद' न होना चाहिए। इस सभामें ऐसा ही रहा है। यही कारण है कि देखते-देखते इसने 50 बरस बिता दिए और इतना  कार्य किया। 

'सभा' का मुख्य भवन 

सभाका मुख्य उद्देश्य आरम्भसे दो ही रहे -  हिन्दी साहित्यको सम्पन्न करना और देवनागरी-लिपिका प्रचार करना।  नाम तो इसका नागरी-प्रचारिणी सभा रखा गया; पर इसका अधिकतर कार्य साहित्यिक रहा है। प्रचारका कार्य इसने केवल यह किया कि संयुक्त-प्रान्तकी कचहरियोंमें देवनागरी अक्षरोंको, महामना मालवीयके सबल सहयोगसे, स्थान दिलाया। हिन्दी-साहित्य-सम्मेलनको जन्म देकर सभाने प्रचारका एक बहुत बड़ा साधन खड़ा कर दिया। सम्मेलनका कार्यक्षेत्र भारत है। सभाके सभासद उपनिवेशोंमें और यूरोप तथा अमेरिकामें भी मिलते हैं। इसकी एक सम्बद्ध शाखा ईरान की खाड़ीमें भी है। 

साहित्यिक कार्योंमें इसके प्रकाशनोंको सबसे पहला स्थान मिलना चाहिए। इसका शब्दसागर, वैज्ञानिक कोश और इसकी भिन्न-भिन्न विषयोंकी पुस्तकमालाएँ हिन्दी-जगत् में ऊँचा स्थान पा चुकी हैं। कई ग्रन्थ ऐसे हैं, जिनके प्रकाशन करनेसे व्यापारिक दृष्टिसे सभाको हानि हुई है; पर साहित्यिक दृष्टिसे वे बड़े महत्त्व के हैं। सभाकी त्रैमासिक पत्रिका शोध-सम्बन्धी हिन्दीमें एक ही पत्रिका है।  प्रचारकी दृष्टिसे 'हिन्दी' नामकी मासिक पत्रिका जितनी सस्ती कोई दूसरी नहीं। 

सभाका पुस्तकालय हिन्दी-पुस्तकोंका सबसे बड़ा संगठन है। साहित्यिक ग्रन्थ बहुत कम होंगे, जो इसमें न हों। सभा प्रतिवर्ष लेखकोंको पदक-पुरस्कार देती है और समय-समयपर विद्वानोंको निमन्त्रित करके ऐतिहासिक, साहित्यिक और वैज्ञानिक विषयोंपर व्याख्यान कराती है। सभाका एक अनुशीलन विभाग है। इसके अन्तर्गत बहुत-से हस्तलिखित-ग्रन्थ हैं। सभाने हस्तलिखित-ग्रन्थोंकी खोजकर जो काम किया है, बड़े महत्त्व का है। 

साहित्यके साथ कलाका भी सम्बन्ध है, इसलिए 'कला-भवन' सभाकी शोभा और उपयोगिता दोनोंको बढ़ाता है। 

सभाका साधारण जनता, सरकार और राजा-महाराजाओंसे बराबर आर्थिक सहायता मिलती आई है। इसकी अर्द्ध-शताब्दी हिन्दीके लिए युग-प्रवर्त्तक होनी चाहिए; परन्तु यह तभी हो सकता है, जब इसको हिन्दी-जगत् से प्रोत्साहन प्राप्त हो। ईश्वरकी इच्छा होगी, तो इसका भविष्य उज्ज्वल ही होगा। 


(जनवरी, 1944)


Thursday, August 6, 2020

मैं कहानी-लेखक कैसे बना? : ठाकुर श्रीनाथ सिंह






अगर आप कहानियाँ लिखना चाहते हैं और वह भी हिन्दी में तो इस बात के लिए तैयार रहिए कि आप को बहुतेरी कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा। हिन्दी में कहानी लेखक के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त करना वैतरिणी पार करने से कम कठिन नहीं है। प्रेमचंद जी इसी प्रयत्न में स्वर्गवासी हो गए, सुदर्शन जी सूख गए और पाँडेय बेचन शर्मा को काफ़ी बेशर्मी अख्तियार करनी पड़ी। मतलब यह कि ख्याति और वाहवाही से सब वंचित रहे। गुस्ताखी मुआफ़ कीजिए, यदि मैं कहूँ कि इस दिशा में प्रसिद्धि प्राप्त करने के लिए मैंने भी कोशिशें कीं। पर जहाँ बड़ों बड़ों की नहीं चली वहाँ भला मैं नौसिखिया किस गिनती में था। 
इतने पर भी आख़िर मुझे क्या सूझी जो मैं अपना गुण गाने आज बैठ गया। मैं कहानी-लेखक कैसे बना? यह असल में उसके बताने की बात है जो सचमुच कहानी-लेखक बन गया हो। अपनी दृष्टि में नहीं, समालोचकों की दृष्टि में, पाठकों की दृष्टि में, जनता की दृष्टि में यह सौभाग्य मुझे पूरा प्राप्त नहीं है। पर मैं हताश भी नहीं हूँ। हताश होने की कोई जरूरत भी नहीं समझता। इसलिए कि मुझे अपने ऊपर भरोसा पैदा हो गया है। और यही वजह है कि कहानी लेखक के रूप में मैं अब तक ज़िंदा हूँ। हिन्दी के हितैषी अन्य कहानी-लेखकों की भाँति मुझे - मार नहीं सके और शायद आगे उनका यह काम और कठिन होगा। 

कहानी-लेखक के अपने ये अनुभव मैं इसलिए लिख रहा हूँ कि हिन्दी के नवयुवक कहानी-लेखक इस क्षेत्र की कठिनाइयों को समझें और उनसे पराजित न किए जा सकें। अब मैं भूमिका में व्यर्थ का समय न लगा कर मुख्य विषय पर आता हूँ। 

सन् 1925-26 की बात है। मैं 'गृहलक्ष्मी' के संपादकीय विभाग में काम करता था। 'गृहलक्ष्मी' में कहानियाँ भी कम नहीं छपतीं थीं। पर मेरी कहानी छापने के लिए उसके संपादक तैयार न थे। 
                                                              


मौलिक कहानी की अपेक्षा वे अनुवाद कहीं अधिक पसंद करते थे। उनका ख़याल था, मौलिक हिन्दी में कोई लिख ही नहीं सकता। लेकिन मैंने उनसे आग्रह किया कि नहीं वे कृपापूर्वक मेरी रद्दी ही सही एक-आध कहानी छाप दें। अंत में वे इस शर्त पर राज़ी हुए कि वे मेरे नाम से नहीं छाप सकते क्योंकि मुझे कोई नहीं जानता। हाँ कल्पित नामों से छाप सकते हैं। मैं राज़ी हो गया। मैं तो अपनी लिखी चीज़ को छपा देखना चाहता था। मैंने कहानियाँ लिखनी शुरू कीं, नाम चुने गये। लक्ष्मीकांत वर्मा, अल्लाह बख़्श, कुसुमकुमारी देवी, श्यामाबाई आदि आदि। कुछ कहानियों पर 'गृहलक्ष्मी' की सम्पादिका स्वयं गोपाल देवी ने अपना नाम देने की कृपा की! इस तरह चार साल मैंने अज्ञात नामों से गृहलक्ष्मी में कहानियाँ लिखीं। पर कहानी-लेखक के रूप में जहाँ का तहाँ रहा। 
यह मैं मानूँगा कि अन्तिम दिनों में कुछ कहानियाँ मैं अपने नाम से भी छपा सका पर मेरा उत्साह बैठ गया। यह वह समय था जब मैं अपना नाम पत्र-पत्रिकाओं में छपा हुआ देखना चाहता था। पर मेरे नाम में आकर्षण न था। वही चीज़ कल्पित नाम से छप सकती थी पर मेरे नाम से नहीं। इस तरह चार साल तक सैकड़ों कहानियाँ लिखने पर भी मैं कहानी-लेखक के रूप में अज्ञात रहा। 

गृहलक्ष्मी के बाद मैंने 'सरस्वती' में अपना भाग्य आज़माइश करने की कोशिश की। 'सरस्वती' हिन्दी की श्रेष्ठ पत्रिका थी। मौलिक कहानी-लेखक के पनपने की यहाँ और भी सम्भावना नहीं थी। उन दिनों नाम छपा हुआ देखने की लालसा इतनी बढ़ी कि मैंने अनुवाद ही करना शुरू कर दिया। लेखक श्रीनाथ सिंह न सही अनुवादक श्रीनाथ सिंह सही। 'सरस्वती' में मैंने विदेशी विद्वानों की बढ़िया बढ़िया कहानियाँ अनुवाद करके छपवाईं - अनुवादक के रूप में मेरा नाम भी हो चला। एक अमरीकन पादरी दार्जिलिंग से ख़त लिखकर मेरे अनुवादों के लिए मुझे बधाई भेजी। तब मैंने सोचा कि अब मुझे अनुवाद करना बंद कर देना चाहिए। मैंने 'सरस्वती' - संपादक से कहा - 'कृपापूर्वक एक मेरी मौलिक कहानी भी सरस्वती में छाप दीजिये।' उन्होंने कहा "नहीं, नहीं सरस्वती का स्टैंडर्ड मैं गिराना नहीं चाहता। तुमको कौन जानता है? तुम्हारी कहानी कौन पढ़ेगा!" मैं ख़ामोश रह गया। 
                                             
मैंने फिल्मों, कहानियों, पत्र-पत्रिकाओं के द्वारा इस बीच में योरुपीय समाज का काफ़ी परिचय प्राप्त कर लिया था। उसी अनुभव के सहारे मैंने लंदन-नगर की एक कहानी लिखी। कहानी बिलकुल मेरी अपनी थी और सर्वथा मेरी कल्पना पर आश्रित थी। उसके अंत में मैंने यह वाक्य लगाकर सरस्वती-संपादक को भेंट किया - "अंग्रेजी कहानी के आधार पर।" उन्होंने उसे स्वीकार कर लिया और कहा "तुमने इतना सुन्दर अनुवाद किया है कि यह मौलिक हिंदी रचना जान पड़ती है।" मैंने नम्रतापूर्वक उन्हें धन्यवाद दिया और उदास मुख घर लौटा। उस दिन मैं बराबर यही सोचता रहा कि मौलिक हिन्दी-लेखक की हिन्दी में यह उपेक्षा क्यों है? उसका इतना तिरस्कार और अनादर क्यों है? उसे किसी ओर से कोई प्रोत्साहन क्यों नहीं मिलता? खैर, इस घटना के बाद पंडित देवीदत्त शुक्ल ने 'सरस्वती' में मेरी एक मौलिक कहानी छापी। उससे मुझे कितना प्रोत्साहन मिला यह मैं कह नहीं सकता?

उस दिन मुझे यह निश्चय हो गया कि मैं हिन्दी में कहानी लिख सकता हूँ। अख़बार वाले मेरी कहानी जो छापने से हिचकते हैं वह इसलिए कि मेरा कोई नाम नहीं है। यह ठीक ही है। दुनिया में नाम देखकर चीज़ें छापी जाती हैं। सिर्फ़ हिन्दी ही एक ऐसी भाषा है जहाँ चीज़ नहीं सिर्फ़ नाम देखा जाता है और यही वजह है कि हिन्दी में वही नाम सामने आता है जो वर्षों उपेक्षा की मिट्टी अपने ऊपर से हटा सकता है। 

अब वह समय आ गया है जब कितने ही संपादक मुझसे कहानियाँ माँगते हैं। लेकिन दुःख है कि अब लिखने कि वह उमंग नहीं रही। कितने संपादक अब भी समझते हैं कि मैं कहानी नहीं लिख सकता हूँ। पर कहानी-लेखक के रूप में सम्मानित होने की इच्छा अभी दिल से नहीं गई। इसलिए मौक़ा निकाल कर कुछ न कुछ लिखता ही जाता हूँ। 

गृहलक्ष्मी और सरस्वती ने ही नहीं और भी कितने ही पत्र-पत्रिकाओं ने इसी तरह मेरे उत्साह की हत्या की है। पर उन सबका ज़िक्र करके मैं इस प्रसंग को लम्बा नहीं करना चाहता। प्रोत्साहन मुझे सिर्फ़ दो पत्र-पत्रिकाओं से मिला है। 'सैनिक' से और 'अर्जुन' से। मेरा ख़याल है कि हिन्दी में यही दो पत्र अपने नवयुवक लेखकों को प्रोत्साहित करते हैं। इस दृष्टि से ये ज़िन्दा पत्र हैं और नवयुवक लेखकों को इनसे निराशा नहीं हो सकती। व्यक्तियों में मुझे सबसे अधिक प्रोत्साहन पूज्य पंडित वेंकटेश नारायण तिवारी से मिला है। किन्तु उन्होंने कहानियाँ नहीं अन्य रचनाओं के लिए मुझे प्रोत्साहित किया है। तिवारी जी के बाद श्रीरामरखसिंह सहगल, श्री पदुमलाल बख़्शी और श्री पुरुषोत्तमदास टंडन का नाम मैं ले सकता हूँ। परन्तु मेरा ख़याल है कि इन लोगों ने मेरी रचनाएँ तब पढ़ीं और उसकी प्रशंसा की जब उन्होंने सोचा कि अब उनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। श्रीरामरखसिंह सहगल का एक पत्र मैंने अपने पास रख छोड़ा है जिसमें उन्होंने लिखा है कि मेरी एक कहानी ने उन्हें इतना व्यथित किया कि वे घंटों रोते रहे। 
                                                               

                                          
बाबू पुरुषोत्तमदास टंडन ने एक दिन स्वयं मेरे घर पधार कर कहा - "श्रीनाथ सिंह, मैं तुम्हें धन्यवाद देने आया हूँ। तुम्हारी 'ग़रीबों का स्वर्ग' नामक कहानी मुझे बहुत पसन्द आई।" मैं नहीं कह सकता कि टंडनजी के ये वाक्य सुनकर मुझे कितनी ख़ुशी हुई? उनके एक वाक्य की आँच में हिन्दी वालों का सारा उपेक्षा भाव मुझे भस्म हो गया-सा प्रतीत हुआ। 

कुछ लोग अब भी मेरी कहानियों की चर्चा से घबराते हैं। जिनमें जैनी अधिक हैं। कुछ लोग अब भी मेरी कहानियों की उपेक्षा करते चले जाते हैं। पर पिछले दिनों मेरी कहानियों के गुजराती, मराठी और तामिल के अनुवादकों ने मेरे पास जो पत्र भेजे हैं और हिन्दी के पाठकों ने मेरे पास जो पत्र भेजे हैं उनसे मुझे विश्वास ही चला है कि हिन्दी के मुल्लाओं द्वारा अब मेरी उपेक्षा नहीं हो सकती। उनका यह प्रयास अब स्वयं उनके लिए घातक होगा। 

इस प्रकार लड़ता झगड़ता मैं हिन्दी का सफ़ल नहीं तो एक असफल कहानी लेखक ज़रूर बन गया हूँ। पर अभी आगे भविष्य उज्वल दिखाई पड़ता है और यह असफलता का अन्धकार टिकता नज़र नहीं आता। मेरे प्रेमियों को इससे अवश्य प्रसन्नता होगी।

(जुलाई, 1940)

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श्रीनाथ सिंह : जन्म 1903 ई. मानपुर, इलाहाबाद में। 'सती पद्मिनी' काव्य-ग्रन्थ 1925 ई. में प्रकाशित। 'उलझन' (1934), 'क्षमा' (1925), 'एकाकिनी' या 'अकेली स्त्री' (1937), 'प्रेम परीक्षा' (1927), 'जागरण' (1937), 'प्रजामण्डल' (1941),'एक और अनेक' (1951), 'अपहृता' (1952) आदि प्रसिद्ध कृतियाँ हैं। कुछ समय तक 'सरस्वती' का संपादन किया। 'बालसखा' व 'दीदी' के भी संपादक रहे।