Saturday, September 5, 2020

जब गांधी हुए क्वारंटीन! : उमेश यादव

                   

                    

                                        

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जब गांधी हुए क्वारंटीन!  

उमेश यादव 


साहित्य देश,काल और परिस्थितियों को समझने का आईना होता है। किसी समय और जगह विशेष की घटना-परिघटना को जानने के लिए हमेशा ही यह मददगार रहा है। आज ‘कोरोना’ जैसी भयावह महामारी ने पूरी दुनिया को अपनी चपेट में ले लिया है। विश्व के सभी देशों के शीर्ष वैज्ञानिक और अनुसंधानकर्ताओं की ओर हमारी आशा भरी निगाहें टिकी हैं। आज समय की मांग है कि शीघ्र इसका निदान हो और दुनिया फिर से इस भयावह माहौल से निकल सके। आखिर विश्व के तमाम ताकतवर देशों से लेकर गरीब देश भी इस आपदा के आगे पंगु बन गए हैं। भारत में भी ‘कोविड-19’ से पीड़ित व्यक्तियों की संख्या एक लाख प्रतिदिन होने को है, अर्थात् 24 घंटे में एक लाख व्यक्ति संक्रमित हो रहे हैं। कुल पीड़ितों की संख्या भी 50 लाख का आँकड़ा बस छूने ही वाला है। इससे मरने वालों की संख्या भी प्रतिदिन अर्थात् 24 घंटे में 1200 तक पहुँच चुकी है। कोविड-19 ने हमसे बहुत कुछ छीना है और लगातार छीनती जा रही है। धीरे-धीरे यह अब परिचितों, रिश्तेदारों से होते हुए परिजनों तक पहुँच चुकी है। यह आपदा भयंकर महामारी की तरफ बढ़ती ही जा रही है।

भारत में भी जब मा. प्रधानमंत्री मोदी जी ने 22 मार्च 2020 ई० को ‘जनता कर्फ्यू’ का ऐलान किया तो इस महामारी के बारे में देश एलर्ट हुआ। फिर 24 मार्च से पूरी तरह ‘लाकडाऊन’ लगा देने के कारण बहुत से नए शब्द अचानक से चर्चा में आ गए। बहुत से लोगों ने लाकडाऊन, क्वारांटाइन, आइसोलेशन, पैनडेमिक, सोशल डिस्टेशिंग, कोविड और कोविड वारियर्स जैसे शब्दों को पहली बार सुना। कोविड-19 या कोरोना वायरस को ग्रामीण इलाकों में ‘किरौना’ कहा गया। इसको भगाने के लिए लोकगीत गाया गया तथा पूजा-पाठ तक किया गया। साहित्य जगत में भी महामारी की खोजबीन शुरू हो गई। लोगों ने कविता, कहानियों, उपन्यासों और अन्य विधाओं में जहाँ कहीं भी महामारी पर सामग्री उपलब्ध थी, उसकी चर्चा-परिचर्चा शुरु की।

साहित्य में रुचि लेने वालों ने अल्बेयर कामू का बहुचर्चित उपन्यास ‘प्लेग’ और निराला का आत्मकथात्मक उपन्यास ‘कुल्लीभाट’, रेणु का उपन्यास ‘मैला आंचल’ और कहानी ‘पहलवान की ढोलक’ , उर्दू के ख्यातिलब्ध साहित्यकार राजिंदर सिंह बेदी की कहानी ‘क्वारंटीन’, मास्टर भगवानदास की कहानी ‘प्लेग की चुड़ैल’ और प्रेमचंद की बहुचर्चित कहानी ‘ईदगाह’ में महामारियों को खोजना,पढ़ना और लिखना शुरू किया। गंगा प्रसाद विमल ने ‘हिंदी की आरंभिक कहानियाँ’  में लिखा है कि- 

“सन् 1901 में प्रयाग में पहिले-पहिल प्लेग फैली थी। प्लेग का वह आक्रमण बहुत भयंकर था। इस कहानी (प्लेग की चुड़ैल) का महत्व यह प्रदर्शित करती है कि हिंदी कहानी के उस आरंभिक युग में भी हिंदी कहानीकार इतने सजग थे कि तत्कालीन घटनाओं की उनके संचेत्य मन पर तुरंत प्रतिक्रिया होती थी। प्लेग के छुतिहा रोग का इतना आतंक था कि स्वजन और प्रियजन भी रोगी को छोड़कर भाग जाते थे।” 

इससे प्लेग जैसी भयावह महामारी का तो पता चलता ही है, इसके साथ साहित्यकारों की संजीदगी का भी पता चलता है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि महात्मा गांधी भी एक बार क्वारांटाइन हुए थे? महात्मा गांधी ने अपनी आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ में स्वयं अपने ‘क्वारांटाइन’ होने का जिक्र किया है। गांधी जी दक्षिण अफ्रीका से 1896 ई. में भारत वापस आए थे। उन्होंने दिसंबर में कलकत्ता के ‘कांग्रेस अधिवेशन’ में भाग लिया और प्रयाग होते हुए वापस हुए। 1897 ई. के शुरुआती दिनों में मुंबई उन दिनों ‘प्लेग’ महामारी से ग्रसित था। गांधी जी अपनी आत्मकथा में लिखते हैं- 

“इन्हीं दिनों मुंबई में पहली बार प्लेग का प्रकोप हुआ। चारों तरफ घबराहट फैल रही थी। राजकोट में भी प्लेग फैलने का डर था। मैंने सोचा कि मैं आरोग्य-विभाग में अवश्य काम कर सकता हूँ। मैंने अपनी सेवा राज्य को अर्पण करने के लिए पत्र लिखा। राज्य ने जो कमेटी नियुक्त की उसमें मुझे भी स्थान दिया। मैंने पाखानों की सफाई पर जोर दिया और कमेटी ने निश्चय किया कि गली-गली जाकर पाखानों का निरीक्षण किया जाए। गरीब लोगों ने अपने पाखानों का निरीक्षण करने देने में बिलकुल आनाकानी नहीं की; यही नहीं, बल्कि जो सुधार उन्हें सुझाये गये वे भी उन्होंने कर लिये। पर जब हम मुत्सद्दी वर्ग के यानी बड़े लोगों के घरों का मुआयना करने निकले, तो कई जगहों में तो हमें पाखाने का निरीक्षण करने की इजाजत तक न मिली, सुधार की तो बात ही क्या की जाय? हमारा साधारण अनुभव यह रहा कि धनिक समाज के पाखाने ज्यादा गन्दे थे। उनमें अँधेरा, बदबू और बेहद गंदगी थी। खुड्डी पर कीड़े बिलबिलाते थे। जीते-जी रोज नरक में ही प्रवेश करने-जैसी वह स्थिति थी। हमारे सुझाये हुए सुधार बिलकुल साधारण थे। मैला जमीन पर न गिराकर कूंडे़ में गिरायें। पानी की व्यवस्था ऐसी की जाए कि वह जमीन में जज्ब होने के बदले कूंडे में इकट्ठा हो। खुड्डी और भंगी के आने की जगह के बीच जो दीवार रखी जाती है वह तोड़ दी जाय, जिससे भंगी सारी जगह को अच्छी तरह साफ कर सके, पाखाने कुछ बड़े हो जाएँ तथा उनमें हवा-उजेला पहुँच सके। बड़े लोगों ने इन सुधारों को स्वीकार करने में बहुत आपत्ति की, और आखिर में उन पर अमल तो किया ही नहीं।”

इसके उलट जब गांधी जी भंगियों की बस्ती में जाने के लिए कमेटी वालों से कहे तो सिवाय एक व्यक्ति के अन्य कोई तैयार न हुआ। स्वयं गांधी भी अपने जीवन में पहली बार भंगियो की बस्ती में पहुँचे थे। बकौल गांधी जी – 

“भंगी भाई-बहनों को हमें देखकर अचम्भा हुआ। मैंने उनके पाखाने देखने की इच्छा प्रकट की।” 

उन्होंने कहा : 

“हमारे यहाँ पाखाने कैसे? हमारे पाखाने तो जंगल में हैं। पाखाने तो आप बड़े आदमियों के यहाँ होते हैं।”

मैंने पूछा, 

“तो क्या आप अपने घर हमें देखने देंगे?”

“आइये न भाई साहब! जहाँ भी आपकी इच्छा हो, जाइए। ये ही हमारे घर हैं।"

गांधी जी कहते हैं कि- 

मैं अंदर गया और घर की तथा आँगन की सफाई देख कर खुश हो गया। घर के अंदर सब लिपा-पुता देखा। आँगन झाड़ा-बुहारा था; और जो इने-गिने बरतन थे, वह सब साफ और चमचमाते हुए थे। मुझे इस बस्ती में बीमारी के फैलने का डर नहीं दिखायी दिया।”

इस प्रकार गांधी ने राजकोट में फैले प्लेग का तथा निम्न जातियों या अछूतों द्वारा उच्च जातियों की अपेक्षा अधिक साफ-सफाई का वर्णन अपनी आत्मकथा में किया है। अब गांधी जी को दिसंबर 1897 ई. में ही दक्षिण अफ्रीका वापस जाना था। वे पहली बार सपरिवार दक्षिण अफ्रीका के लिए ‘बा और बच्चों संग’ रवाना हो गए। कुल अठारह दिनों के यात्रा में समुद्री तूफानों से बचते-बचाते उनका जहाज जब अफ्रीका के बंदरगाह पर डेरा डाला तो वहाँ उन्हें एक नई मुसीबत से सामना करना पड़ गया। मुंबई में फैले प्लेग के कारण गांधी जी सहित किसी भी यात्री को बंदरगाह पर जहाज से नीचे नहीं उतरने दिया गया। क्योंकि मुंबई में फैली प्लेग महामारी के मद्देनजर सरकार किसी भी प्रकार के रिस्क लेने के मूड में नहीं थी।

गांधी जी कहते हैं कि-

“अठारह दिसम्बर के आस-पास दोनों स्टिमरों ने लंगर डाले। दक्षिण अफ्रीका के बंदरगाहों में यात्रियों के स्वास्थ्य की पूरी जाँच की जाती है। यदि रास्ते में किसी को कोई छूतवाली बीमारी हुई हो, तो स्टीमर को सूतक में - क्वारण्टीन  में - रखा जाता है। हमारे बम्बई छोड़ते समय वहां प्लगे की शिकायत थी, इसलिए हमें इस बात का डर जरूर था कि सूतक की कुछ बाधा होगी। बंदर में लंगर डालने के बाद स्टीमर को सबसे पहले पीला झण्डा फहराना होता है। डॉक्टरी जाँच के बाद डॉक्टर के मुक्ति देने पर पीला झंडा उतरता है और फिर यात्रियों के रिश्तेदारों आदि को स्टीमर पर आने की इजाजत मिलती है।

तदनुसार हमारे स्टीमर पर भी पीला झंडा फहरा रहा था। डॉक्टर आये। जाँच करके उन्होंने पाँच दिन का सूतक घोषित किया, क्योंकि उनकी यह धारणा थी कि प्लेग के कीटाणु तेईस दिन तक जिंदा रह सकते हैं। इसलिए उन्होंने ऐसा आदेश दिया कि बम्बई छोड़ने के बाद तेईस दिन की अवधि पूरी होने तक स्टीमरों को सूतक में रखा जाए।

इस पर सूतक की आज्ञा का हेतु केवल स्वास्थ्य-रक्षा न था। डरबन के गोरे नागरिक हमें उलटे पैरों लौटा देने का जो आंदोलन कर रहे थे, वह भी इस आज्ञा के मूल में एक कारण था।”

ज्ञात हो कि गांधी जी अफ्रीका में ‘गोरों’ के बराबर भारतीयों को अधिकार दिए जाने के पक्ष में थे किन्तु गोरे लगातार गांधी का विरोध कर रहे थे। गोरों को जब गांधी के भारत से वापस आने की सूचना मिली तो वे बंदरगाह के इर्द-गिर्द जमा हो गये तथा उन्हें हर हाल में वापस भेजने पर आमदा थे। गांधी जी कहते हैं- 

“मतलब कि हमारा सूतक केवल स्वास्थ्य रक्षा के नियमों के ही कारण न था। उसका हेतु किसी भी तरह एजेंट को अथवा यात्रियों को दबा कर हमें वापस भेजना था। एजेंट को तो धमकी मिल ही रही थी। अब हमारे नाम भी धमकियां आने लगी:

“अगर तुम वापस न गये तो तुम्हें समुद्र में डुबो दिया जाएगा। लौट जाओगे तो लौटने का भाड़ा भी शायद तुम्हें मिल जाए।”

आखिरकार काफी टालमटोल के बाद अब गांधी जी के क्वारंटीन का समय समाप्त होने को आया। गांधी जी कहते हैं- 

“इस प्रकार हमारे दिन बीतते और लंबे होते गये। सूतक समाप्त करने की अवधि अन्त तक निश्चित नहीं हुई। इस विभाग के अधिकारी से इस पहुँचने पर वह कहता, “यह मेरी शक्ति से बाहर की बात है सरकार मुझे आदेश दे, तो मैं आप लोगों को उतरने की इजाजत दे दूं।” 

“अंत में यात्रियों को और मुझे अल्टिमेटम मिले। दोनों को धमकी दी गयी कि तुम्हारी जान खतरे में है। दोनों ने नेटाल के बंदर पर उतरने के अपने अधिकार के विषय में लिखा, और अपना यह निश्चय घोषित किया कि कैसा भी संकट क्यों न हो, हम अपने इस अधिकार पर डटे रहेंगे।

आखिर तेईसवें दिन अर्थात १३ जनवरी, १८९७ के दिन, स्टीमरों को मुक्ति मिली और यात्रियों को उतरने का आदेश मिला।”

अब उतरने के बाद गांधी जी का सामना गोरों के आक्रोश से हुआ। बकौल गांधी जी- 

“...मुझ पर कंकरों और सड़े अण्डों की वर्षा शुरू हुई। किसी ने मेरी पगड़ी उछाल कर फेंक दी। फिर लातें शुरू हुईं। मुझे गश आ गया। मैंने पास के घर की जाली पकड़ ली और दम लिया। वहाँ खड़ा रहना तो संभव ही न था। तमाचे पड़ने लगे। इतने में पुलिस अधिकारी की स्त्री, जो मुझे पहचानती थी, उस रास्ते से गुजरी। मुझे देखते ही वह मेरी बगल में आकर खड़ी हो गयी और धूप के न रहते भी उसने अपनी छत्री खोल ली। इससे भीड़ कुछ नरम पड़ी।अब मुझ पर प्रहार करने हों, तो मिसेज एलेक्जेण्डर को बचाकर ही किये जा सकते थे।” 

इस प्रकार तमाम झंझावातों से बचते-बचाते गांधी जी अपने अफ्रीका के आवास पहुंचे।


भारत में भी जब लगभग तीन महीने का लंबा लाकडाऊन लगा तो बाल बनाने वाले ‘नाईयों’ की दुकानें भी बंद थीं। इन दुकानों पर आने वाले ग्राहकों से संक्रमण फैलने का खतरा सबसे ज्यादा था। स्वाभाविक रूप से इतने दिनों तक
नाईं की दुकानों के बंद रहने से लोग बाल कटाने और दाढ़ी बनाने को व्याकुल हो गये। ज्यादातर लोगों ने इसका विकल्प ‘टकला’ होना खोजा और परस्पर एक दूसरे का टकला बनाने लगे। गांधी जी को भी अफ्रीका में इस तरह की असहज स्थिति का सामना करना पड़ा था। कोई भी नाईं उनका बाल बनाने को तैयार न था। नाईं को डर था कि गांधी जी के कारण उसकी दुकान पर ‘गोरों’ का आना बंद हो जायेगा। अतः गांधी जी ने अपने हाथ से ही अपना बाल बनाया। गांधी जी बताते हैं कि – 
“एक बार प्रिटोरिया में मैं एक अंग्रेज हज्जाम की दुकान पर पहुंचा। उसने मेरी हजामत बनाने से साफ इनकार कर दिया और इनकार करते हुए जो तिरस्कार प्रकट किया, सो घाते में रहा। मुझे दु:ख हुआ। मैं बाजार पहुँचा। मैंने बाल काटने की मशीन खरीदी और आईने के सामने खड़े रहकर बाल काटे। बाल जैसे-तैसे कट हो गये, पर पीछे के बाल काटने में बड़ी कठिनाई हुई। सीधे तो वे कट ही न पाये। कोर्ट में खूब कहकहे लगे। ‘तुम्हारे बाल ऐसे क्यों हो गए हैं? सिर पर चूहे तो नहीं चढ़ गये थे?’ मैंने कहा : “जी नहीं, मेरे काले सिर को गोरा हज्जाम कैसे छू सकता है ? इसलिए कैसे भी क्यों न हों, अपने हाथ से काटे हुए बाल मुझे अधिक प्रिय हैं।”

अंततः कुछ दिनों बाद दक्षिण अफ्रीका में भी प्लेग की यह महामारी फूट ही पड़ी। गांधी जी कहते हैं कि – 

“यह महामारी प्राणघातक थी। यह फेफड़ों की महामारी थी। गाँठवाली महामारी की तुलना में यह अधिक भयंकर मानी जाती थी।”

यद्यपि इस महामारी का प्रकोप भारतीय लोकेशनों पर नहीं था। अतः भारतीय इससे प्रभावित नहीं हुए, परन्तु सोने की खानों में काम करने वाले 23 हब्शी अफ्रीकी नागरिक गंभीर रूप से संक्रमण की स्थिति में भारतीय लोकेशंस की जगहों पर ही लाए गए। गांधी जी ने अपने हिन्दुस्तानी सहयोगियों के साथ-साथ अफ्रीकी सहयोगियों की भी मदद लेकर इन प्लेग पीड़ितों की खूब मदद की। गांधी जी उन दिनों को याद करते हुए लिखते हैं- 

“मैंने बहुत से बीमारों की सेवा सुश्रुषा की थी, पर प्लेग के बीमारों की सेवा-सुश्रुषा करने का अवसर मुझे कभी नहीं मिला था। डॉ.गॉडफ्रे की हिम्मत ने हमें निडर बना दिया था। बीमारों की विशेष सेवा-चाकरी कर सकने जैसी स्थिति नहीं थी। उन्हें दवा देना, ढाढ़स बँधाना, पानी पिलाना और उनका मल-मूत्र आदि साफ करना, इसके सिवा विशेष कुछ करने को था ही नहीं।”

अफ्रीका के म्युनिसिपालिटि के टाउन क्लर्क ने गांधी जी के मदद की सराहना की तथा उनसे कहा कि – ‘आपको जो मदद चाहिए, आप माँगिये। टाउन-कौंसिल से जितनी मदद बन सकेगी उतनी वह करेगी। इन परिस्थितियों में गांधी जी ने खुद एक गोदाम को साफ किया, जो काफी मैला व गंदा था। भारतीयों ने खटिया वगैरह से मदद की। इस प्रकार एक चलता-फिरता अस्पताल तैयार हो गया। म्युनिसपैलिटी ने एक नर्स भेजा और उसके साथ ब्राण्डी की बोतल और बीमारों के लिए अन्य आवश्यक वस्तुएं भेजीं।

अब प्लेग महामारी से पीड़ितों का इलाज़ चलने लगा था। गांधी जी बताते है कि-  

“बीमारों को समय-समय पर ब्राण्डी देने की सूचना थी। रोग की छूत से बचने के लिए नर्स हमें भी थोड़ी ब्राण्डी लेने को कहती और खुद भी लेती थी। हममें कोई ब्राण्डी लेनेवाला न था। मुझे तो बीमारों को भी ब्राण्डी देने में श्रद्धा न थी। डॉ.ग्रॉडफ्रे की इजाजत से तीन बीमारों पर, जो ब्राण्डी के बिना रहने को तैयार थे और मिट्टी के प्रयोग करने को राजी थे, मैंने मिट्टी का प्रयोग शुरू किया और उनके माथे और छाती में जहाँ-जहाँ दर्द होता था वहाँ-वहाँ मिट्टी की पट्टी रखी। इन तीन बीमारों में से दो बचे। बाकी सब बीमारों का देहांत हो गया। बीस बीमार तो इस गोदाम में ही चल बसे।”

गांधी जी ने आत्मकथा में आगे बताया है कि इस महामारी को रोकने के लिए सरकार ने जोहांसबर्ग में एक जगह तय कर दी। यह आज के कोविड-वार्ड जैसा था। परन्तु यह शहरों से बहुत दूर होता था। वहाँ बिना इजाजत के जाना संभव न था। उस पर कड़ा पहरा रहता था और बेहद चौकसी। इन प्लेग पीड़ितों को तम्बू में रखा गया था। तीन हफ्ते रखने के बाद ज्यादातर मरीजों को लाभ हुआ और वे इस जगह से मुक्त हुए। सरकार ने इन तम्बूओं की नगरी को बाद में जला दिया। सरकार ने इस संक्रामक महामारी को रोकने के लिए खूब पानी की तरह पैसे को बहाया। अफ्रीकी सरकार ने भारतीयों और गांधी जी को प्लेग महामारी में इस नि:स्वार्थ सेवा और सहायता के लिए धन्यवाद दिया।

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(यह लेख बनारस से उमेश यादव  ने भेजा है। उनसे 9451337577 पर संपर्क किया जा सकता है।)

1 comment:

  1. महामारी में गांधीजी जी की साफ़-सफाई और उनके क्वारंटीन के किस्से एतिहासिक साहित्यिक दस्तावेजों की पृष्ठभूमि से गुजरते हुए पढ़कर अच्छा लगा. उमेश यादव जी को बधाई 🌹

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