Friday, July 10, 2020

भारतीय मुसलमान : परम्परा और नवजागरण


(भारतीय मुसलमान : इतिहास का सन्दर्भ विषयक संवाद)


समीर कुमार पाठक


(यह लेख कर्मेन्दु शिशिर की मुस्लिम नवजागरण विषयक 'भारतीय मुसलमान : इतिहास का सन्दर्भ'  शीर्षक किताब पर लम्बे संवाद और बहस का प्रारंभिक प्रारूप है।  समीर कुमार पाठक ने 'भारतीय मुसलमान' को केंद्र में रखकर आधुनिक भारतीय समाज में मुस्लिम सवाल को परंपरा और नवजागरण के आलोक में जानने-समझने की कोशिश की है। यह कोशिश अपनी सहमति-असहमति के साथ नवजागरण के पारंपरिक विवेचन का प्रतिपक्ष है और पूरक भी। यह 'भारतीय मुसलमान :परंपरा और नवजागरण' शीर्षक  समीर कुमार पाठक की किताब का संक्षिप्त रूप है।)



राष्ट्र, राष्ट्रवाद और देशभक्ति की उत्सवी कीर्तन-लीला करने वाले लोग ‘एकांतिक इस्लामी राजनीति... अलगाववाद, विशेषाधिकारवाद और उग्रवाद’ के सवाल पर बात करते हुए यह निष्कर्ष निकाल लेते हैं कि :‘शरीयत और कुरान को राजनीति का सिद्धान्त बना देने के कारण मुस्लिमों में लोकतंत्र और देशभक्ति जैसे मूल्य खारिज करने का बीज स्वतः निहित है।’ मुसलमानों के बारे में कई बार बहुसंख्यकवादी मानसिकता और स्कूली पाठ्यक्रमों की संकीर्णता के कारण हम अल्पसंख्यक सवाल, योगदान और उपलब्धियों को न सिर्फ नज़रअन्दाज करते हैं बल्कि अपनी साझी सहादत और साझी विरासत को भी गड्डमड्ड कर देते हैं। ‘इस्लाम, मुसलमान और आतंकवाद’ को घालमेल कर पर्यायवाची-सा बना दिया जाता है। चाहे यह जानबूझकर किया जाता है या नासमझी के कारण होता है- पर है यह बेहद खतरनाक!

आज देश में जो दौर चल रहा है, उसमें राजसत्ता की साम्प्रदायिक विद्रूपताओं और बौद्धिक-अकादमिक महत्वाकांक्षाओं का गठजोड़ जोर-शोर से कहने लगा है कि अतीत में मुसलमान बादशाहों ने हिन्दुस्तान में इस्लाम को लादने और इसकी गलत और नाजायज़ तबलीग़ करने की कोशिश की और इस सिलसिले में तरह-तरह के जुल्म भी किये। इस सोच के विकास में आज की मीडिया और राजनीति ने अभूतपूर्व योगदान दिया है। दरअसल ये लोग सिर्फ अपनी ज़ात, अपनी क़ौम और अपने कारनामों के अलावा और कुछ भी नहीं देखते और न देखना चाहते हैं। इस तरह वे एक तरफ सांस्कृतिक लम्पटता का प्रदर्शन करते हैं तो दूसरी तरफ भारतीय सांस्कृतिक चेतना को सीमित करने का अक्षम्य अपराध भी करते हैं। अली सरदार जाफरी ने कहीं लिखा है कि ‘‘हम दरअसल नैरो नेश़नलिज़्म के शिकार हो गये हैं। कल्चर का हाॅरिजन, नैरो नेशनलिज़्म से बड़ा हुआ करता है। नैरो नेशनलिज़्म हमेशा कल्चर के परों को कुतरना चाहता है और ख़ानों में बाँटकर देखता है और यही इन दिनों हो रहा है, जिसकी सख़्त मज़म्मत की जानी चाहिए।’’ इस दिशा में भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित कर्मेन्दु शिशिर की किताब ‘भारतीय मुसलमानः इतिहास का संदर्भ’  एक महत्वपूर्ण हस्तक्षेप है। भारतीय मुस्लिम चेतना के बारे में कर्मेन्दु शिशिर ने इस किताब में अत्यन्त सारगर्भित, तार्किक और वस्तुनिष्ठ विश्लेषण किया है। वे इस्लाम सम्बन्धी इन पूर्वाग्रहों से मुक्त हैं, जिनसे हमारे अकदामिक बौद्धिक भी यदाकदा ग्रस्त रहते हैं। कर्मेन्दु शिशिर ‘विषय-प्रवेश’ के रूप में फ्रेंच अमेरिकन स्तंभकार गाय सोर्मन के उद्धरण से ‘अपनी बात’ प्रारम्भ करते हैंः
‘‘मुसलमान सभ्यताओं के आधार पर जितने बँटे हुए हैं, उतने धर्म की डोर से नहीं बँधे हैं...भारतीय मुसलमान उतने ही अपने सांस्कृतिक परिवेश की उपज हैं, जितने कि इस्लाम के। एक अरब मुसलमान भारतीय मुसलमान से बिल्कुल अलग है... ये पश्चिम की इस धारणा का मजाक है कि मुस्लिम तथाकथित इस्लामी संस्कृति के अतिरिक्त किसी भी स्थानीय संस्कृति में रच-बस नहीं पाते... भारत में रहने वाले मुसलमानों ने इस मिथक की धज्जियाँ उड़ा दी हैं कि इस्लाम धर्मनिरपेक्ष राज्य या लोकतंत्र के साथ सामंजस्य नहीं बिठा पाता। भारतीय लोकतंत्र में उन्होंने दिलोजान से शिरकत की है।"[1]
यह उद्धरण सिर्फ एक पुस्तक का उद्धरण भर नहीं हैं बल्कि भारतीय समाज की बहुधार्मिकता एवं बहु-संस्कृतिवाद के बीच मुस्लिम समाज की उपस्थिति, इतिहास और पहचान को समझने की कुंजी भी।

 श्री कर्मेन्दु शिशिर 

भारतीय समाज में हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच बहुत दिलचस्प किस्म के रिश्ते रहे हैं, जहाँ का धार्मिक-साम्प्रदायिक तानाबाना काफी कुछ इन दो बड़े धर्मों के आपसी सम्बन्धों से निर्मित होता है। भारत में इस्लाम के आगमन से ही दोनों के बीच खट्टे-मीठे रिश्तों की शुरूआत होती है। इनके रिश्ते में सहयोग-सद्भाव और संघर्ष का अजीब त्रिकोण है। दोनों ने एक-दूसरे से बहुत कुछ लिया और दिया परंतु सैकड़ों सालों से परस्पर लड़ते-झगड़ते भी रहे। साहित्य, संगीत, स्थापत्य, चित्रकला, मूर्तिकला, पाकशास्त्र, दर्शन, युद्धशास्त्र - जीवन का कोई क्षेत्र ऐसा नहीं था, जिसमें इन दोनों धर्मों ने एक-दूसरे को प्रभावित न किया हो। इसलिए यह कहना वाजिब है कि
‘‘इस्लाम के आने के बाद भारत वही नहीं रह गया जो उसके आने के पहले था और इसी तरह भारत में इस्लाम के तौर-तरीकों में जो फर्क आया वे उसे उसके उद्गम मध्यपूर्व और दूसरे भूखण्डों पर फल-फूल रहे इस्लाम से काफी हद तक भिन्न बना देते हैं।’’[2] 
 बावजूद इसके भारतीय समाज में साम्प्रदायिक मानसिकता का संस्थानीकरण मजबूती के साथ आगे बढ़ा है। साम्प्रदायिक मानसिकता का यह विकास अत्यन्त खतरनाक है। यह खतरनाक इसलिए नहीं है कि इससे अल्पसंख्यकों के बारे में पूर्वग्रहों में बढ़ोत्तरी हुई है बल्कि यह खतरा इससे अधिक है क्योंकि इसी अवधि में अल्पसंख्यकों का दानवीकरण हो रहा है; बहुसंख्यक आबादी के एक बड़े हिस्से को उग्र विजयोन्माद के लिए प्रशिक्षित किया जा रहा है; धर्मनिरपेक्षता के प्रचलित अर्थ को प्रश्नांकित किया जा रहा है साथ ही मुख़्तलिफ धर्मों के वाजिब पर्सनल लाॅ विधान को प्रजातंत्र से असंगत निरुपित किया जा रहा है और इससे आगे बढ़कर राष्ट्रवाद की किसिम-किसिम की व्याख्याओं द्वारा भय और उन्माद की हवा भी बहाई जा रही है। ऐसा नहीं है कि यह पहली बार हो रहा है बल्कि पहले भी यह उन्मादी हवा चल चुकी है और इसका प्रतिरोधी मूल्यांकन भारतीय बौद्धिकों ने किया भी है।

इस विषय पर लगभग डेढ़ दर्जन से ऊपर पुस्तकें निकली हैं:-''India’s Social Crisis : an essay on capitalism, socialism, individualism and Indian civilization' (Arun Bose; Oxford University Press, Delhi, 1989); ‘भारतीय संस्कृति पर इस्लाम का प्रभाव’ (डाॅ0 तारचन्द, हिन्दुस्तानी एकेडमी, इलाहाबाद, 1922); ‘इस्लामी दुनिया के सिरताज’ (पं0 कमलापति त्रिपाठी, इण्डियन प्रेस, इलाहाबाद, 1976); ‘बढ़ती दुरियाँ: गहराती दरार’ (रफीक जकरिया, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2003); ‘मुस्लिम नशनलिज़्म इन इण्डिया एण्ड पाकिस्तान’ (हफीज मलिक: पब्लिक अफेयर प्रेस, वाशिंगटन, 1963), ‘मुस्लिम मन का आईना’ (राजमोहन गाँधी, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2008); 'Democracy in India : A hollow shell' (Arthur Bonner; The American University Press, Washington, 1994); ‘इतिहासकार का मतान्तर’ (मुबारक अली, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2002); ‘फतवे, उलेमा और उनकी दुनिया’ (अरूण शौरी, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2001); ‘भारत में राष्ट्रवाद और साम्प्रदायिक राजनीति’ (मुशीरुल हसन, ग्रंथ शिल्पी प्रकाशन, दिल्ली, 2008); ‘इस्लामिक कल्चर इन दि इंडियन इनवाॅरनमेंट’ (अजीज अहमद, आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, लन्दन, 1964); ‘इस्लाम में धार्मिक चिंतन की पुनर्रचना’ (मुहम्मद इकबाल, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 1996), ‘धर्म और साम्प्रदायिकता’ (असगर अली इंजीनियर, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2012) तथा ‘धर्मनिरपेक्ष प्रजातंत्र को साम्प्रदायिक खतरा’ (राम पुनियानी, अगोरा प्रकाशन, वाराणसी, 2019) के माध्यम से भारतीय समाज के भीतर सद्भाव, सह-अस्तित्व और धर्मनिरपेक्षता के व्यापक दृश्य इस बात की उम्मीद जगाते थे कि आधुनिक धर्मनिरपेक्ष राज्य में साम्प्रदायिकता अन्ततः इतिहास की वस्तु हो जायेगी और हिन्दू-मुसलमान मिलकर एक प्रगतिशील धर्मनिरपेक्ष राज्य बनाने का साझा प्रयास करेंगे।

दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हुआ और न ऐसा होता दिखायी देता है। इसके बहुत सारे कारणों में एक कारण यह भी है कि हिन्दू और मुसलमान एक दूसरे की सांस्कृतिक महत्ता को कम से कम जानते हैं, बल्कि नहीं जानते हैं कहना ज्यादा सही है। हालाँकि भारतीय चिन्तन परम्परा और संस्कृति के संदर्भ में हिन्दू-मुस्लिम सद्भाव व सह-अस्तित्व के प्रश्न पर के. दामोदरन और रामधारी सिंह 'दिनकर' ने भी व्यवस्थित ढंग से विचार करते हुए धर्म-संस्कृति की आपसी संगतता स्थापित करने की पहल की है लेकिन यह पहल जमीनी हकीकत में न बदल सकी। कर्मेन्दु शिशिर का मुस्लिम नवजागरण विषयक यह परियोजना कार्य इस दिशा में न सिर्फ ठोस पहल है बल्कि भारतीय समाज के भीतर मुस्लिम मानस सम्बन्धी ‘वर्तमान एकांगी समझ के बरक्स बेहतर समझ-संवाद’ विकसित कर सकने का श्रमसाध्य महनीय कार्य भी है।

कर्मेन्दु शिशिर के काम से परिचित लोग जानते हैं कि वे न सिर्फ कहानीकार-उपन्यासकार एवं आलोचक हैं बल्कि हिन्दी नवजागरण के गंभीर अध्येता और बौद्धिक विमर्शकार भी हैं। हिन्दी नवजागरण के शोध-विश्लेषण एवं आधुनिक भारतीय परिदृश्य में उसकी महत्ता का मूल्यांकन करने के कारण हिन्दी समाज में उनकी अलहदा सम्मानजनक विशिष्ट पहचान है। उनकी वैचारिक परिधि नवजागरण के बीहड़ अरण्य की ओझल स्मृतियों और हिन्दी भाषा-भाषी समाज की महत्वपूर्ण प्रस्थान बिन्दुओं की खोज करती है। उनके आलोचनात्मक चिंतन का बड़ा हिस्सा नवजागरण सम्बन्धी अध्ययन-विवेचन से सम्बन्धित है। अपनी तथ्यपरक अनुसंधान दृष्टि एवं गहरी अन्वेषण दृष्टि के कारण विस्तृत हिन्दी जगत् में उनका अपना खास पाठक वर्ग है। देश की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं के अतिरिक्त सुदूर अंचलों तक में भारतीय नवजागरण के प्रगतिशील मूल्यों की स्मृति संजोये लोगों या उसकी सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि का अध्ययन करने वाले युवा शोधार्थियों तक उनका जीवन्त संपर्क कायम है। वे नियमित ढंग से विभिन्न क्षेत्रों में सक्रिय युवा विद्यार्थियों-शोधार्थियों तथा शोध-समीक्षा में दिलचस्पी रखने वाले मुख़्तलिफ लोगों का न सिर्फ हालचाल लेते हैं बल्कि उनके कार्य के सिलसिले में सामग्री-संकलन से तर्क-विश्लेषण तक में मददगार बन जाते हैं। उनका यह विमर्श परिवार कई महानगरों, शहरों, कस्बों और गाँवों तक में फैला है और उनके सहयोग-मार्गदर्शन में भारतीय नवजागरण की अनन्त संभावनाओं एवं अज्ञात-अल्पज्ञात पक्षों के अनुसंधान में सक्रिय है।

भारतीय क्रांतिकारी आन्दोलन और जनपदीय इतिहास लेखन से सम्बद्ध सुधीर विद्यार्थी के लेखन पर टिप्पणी करते हुए कर्मेन्दु जी ने लिखा है कि :
‘‘भारतीय नवजागरण की एक सशक्त धारा उन लोगों की थी, जिन्होंने सशस्त्र संघर्ष से देश को आजाद कराने की दुर्लभ कोशिश की... इनका लिखा तथा इन पर लिखा साहित्य नवजागरण की दुर्लभ थाती है। यह भारत के आधुनिक इतिहास की शर्मनाक विडंबना ही है कि इस समझौताविहीन क्रांतिकारी धारा को सायास परिधि से बाहर या पास रखने की कोशिश की गई। यह सुखद बात है कि अत्यन्त कर्मठ और समर्पित रचनाकार सुधीर विद्यार्थी ने इस दिशा में उल्लेखनीय कार्यों के द्वारा अपनी एक पहचान कायम की है। वे नवजागरण के एक जरूरी अध्याय को पूरा कर रहे हैं... अपनी एक पहचान कायम की है। उन्होंने उसके प्रति रचनात्मक दायित्वबोध को इस रूप में संभव किया, जो बेशक एक उपलब्धि है। हिन्दी के समकालीन साहित्यकारों के आत्ममुग्ध और अनेक प्रवंचनाओं से भरे इस परिदृश्य में सुधीर विद्यार्थी उन लोगों में हैं, जो आत्म-प्रचार और यशाकांक्षा से अधीर हुए बिना चुपचाप इस जरूरी कार्य को सम्पन्न और विस्तार देने में लगे रहे। उन्हें इस बात की कभी चिंता नहीं रही कि उनके सप्रयोजन और सकर्मक प्रयत्नों की साहित्य के इस उदारीकरण वाले रंगारंग बाज़ार में कितनी गुंजाइश होगी। दरअसल उनका कार्य उन बीहड़ रास्तों की ओर ले जाने को प्रेरित करने वाला है, जिन पर चलने की कूवत आज की पीढ़ी में बड़ी तेजी से क्षीण होती जा रही है।’’[3] 

असल में कर्मेन्दु शिशिर की यह बात जितना सुधीर विद्यार्थी के लिए सच है, उतनी ही स्वयं उनके बारेे में भी। वे हिन्दी भाषा-भाषी समाज की जातीय-सांस्कृतिक परम्परा और पृष्ठभूमि का वस्तुनिष्ठ अध्ययन करने वाले थोड़े से लोगों में हैं, जिन्होंने अनुसंधानपरक चिंतन से भारतीय समाज के विचार-भूगोल के बनने, बिगड़ने और बदलने की ऐतिहासिक प्रक्रिया का विश्लेषण किया। ‘नवजागरण और संस्कृति’; ‘राधामोहन गोकुल और हिन्दी नवजागरण’; ‘हिन्दी नवजागरण और जातीय गद्य परम्परा’; ‘भारतीय नवजागरण और समकालीन संदर्भ’ और ‘1857 की राज्यक्रांति : विचार और विश्लेषण’ जैसी आलोचनात्मक पुस्तकों के द्वारा उन्होंने सन् '57 की पृष्ठभूमि में हिन्दी नवजागरण का महत्व स्थापित करते हुए हिन्दी प्रदेश के दुर्लभ उन्नायकों की खोज की है और ‘राधामोहन गोकुल समग्र’ (दो भाग); ‘नवजागरण, पत्रकारिता और मतवाला’ (तीन खण्ड) तथा ‘नवजागरणकालीन पत्रकारिता और मर्यादा’ (छह खण्ड) जैसे सम्पादित ग्रंथों के माध्यम से नवजागरणकालीन परिवेश और विचारबोध से सम्बन्धित दुर्लभ सामग्री का दस्तावेजीकरण कर नवजागरण विमर्श के विचार क्षेत्र का विस्तार भी किया है; साथ ही बँधे-बँधायें पैटर्न से अलग अध्ययन-अनुसंधान के नये गवाक्ष खोले हैं। उनके प्रयास से इस दिशा में सक्रिय बहुत सारे लोग न सिर्फ एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं बल्कि अपने अध्ययन क्षेत्र में एक दूसरे के सहयोगी भी हैं।

भारतीय नवजागरण के अध्ययन-विश्लेषण और महत्वपूर्ण संदर्भ सामग्री का संकलन-सम्पादन वर्तमान पीढ़ी के सम्मिलित सहयोग का उपक्रम है। यह अकारण नहीं है कि पुस्तक की भूमिका में अपने मित्रों-सहयोगियों के प्रति कृतज्ञता-ज्ञापन करते हुए उन्होंने विनम्रता से कहा है कि: ‘‘मैं इन तमाम मित्रों, शुभेच्छुओं में किसी के प्रति कोई कृतज्ञता प्रकट नहीं कर रहा, क्योंकि ये सभी इस काम के भागीदार हैं और इन सबके सामूहिक उपक्रम का ही यह सुफल है।’’ ‘सबकी भागीदारी’ और ‘सामूहिक उपक्रम’ की बात इसलिए भी कि अरबी-फारसी के दस्तावेज, उर्दू की टिप्पणियाँ तथा भारतीय समाज की धार्मिक संरचना के बीच मुस्लिम समाज की सामाजिक-धार्मिक संरचना एवं धर्मशास्त्रीय विधि-निषेध सम्बन्धी निष्पत्तियों पर राय कायम करने, तार्किक निष्कर्ष पर पहुँचने या अपने तर्क-विश्लेषण की सही दिशा में तय करने में कर्मेन्दु जी ने न जाने कितने लोगों से अकादमिक स्तर पर सहयोगी रिश्ता कायम किया होगा। मैं व्यक्तिगत रूप से जानता हूँ कि फारसी की किसी सामग्री की दूसरी प्रति की उपलब्धता जानकर या मूल सामग्री में हल्का पाठ-भेद मिलने पर भी कर्मेन्दु जी ने बहुत सारा अतिरिक्त धन खर्च कर, अपने दैनिक कामकाज का नुकसान कर इस पुस्तक के लिए अपना सर्वोत्तम झोंक दिया लेकिन अपने स्तर से विषय निरुपण और महत्व-मूल्यांकन में किसी तरह की कमी नहीं आने दी और इस तरह भारतीय समाज के भीतर मुस्लिम समाज की निर्मिति, संगति और परिणति का बृहद लेखा-जोखा के रुप में ‘भारतीय मुसलमान: इतिहास का संदर्भ’ विषयक दो खण्ड कर्मेन्दु शिशिर की जीवटता और ज्ञान साधना के महत्वपूर्ण पड़ाव हैं।

यह किताब ‘भारत में इस्लाम की शुरूआत’ से प्रारम्भ होती है और गुलाम वंश, खिलजी वंश, तुगलक वंश, मुगलवंश से होते हुए आधुनिक भारत और भारतीयता के निर्माण में सक्रिय मुस्लिम बौद्धिकों के अवदान पर खत्म होती है। कर्मेन्दु शिशिर ने पहले खण्ड में भारत में इस्लाम की शुरूआत (7वीं सदी) से उत्तर औरंगजेब काल (1857ई0) और दूसरे खण्ड में ‘1857 की राज्यक्रांति, नवजागरण और आधुनिकता’ से शुरू करके मुस्लिम नवजागरण के महानायकों की दास्तान सुनाते हैं और इस तरह भारतीय समाज और मुस्लिम मानस की सामाजिक-राजनीतिक पृष्ठभूमि और वैचारिक संगति-असंगति की इतिहास-यात्रा का बयान करते हैं। कर्मेन्दु शिशिर इस इतिहास-यात्रा में बहुत सचेत ढंग से यह कहते हुए कि: धर्म हमारे मानस, सोच और व्यवहार को प्रभावित करता है लेकिन ‘‘धर्म अपनी कौम को समरूप और एकरेखीय शक्ल में प्रभावित करता है अथवा पूरी तरह ढाल देता है- ऐसा हरगिज नहीं होता।’’[4]  वह इतिहास विवेचन में धर्म, राष्ट्र और संस्कृति का घालमेल नहीं करते हैं।

एक गहरी सांस्कृतिक समझ और आलोचनात्मक विवेक के साथ मुस्लिम विचारलोक और समाजबोध का इतिहास बयान करते हुए भी कर्मेन्दु शिशिर ‘इतिहास लेखन’ से अपने का अलगाने की कोशिश करते हैं। उन्हें शायद इस बात का डर है या सहज अकादमिक संकोच कि जो लोग इतिहास को एक विशिष्ट ज्ञान-अनुशासन के रूप में देखते हैं (और ऐसा देखना वाजिब भी है), वे उन्हें न इतिहासकार मानेंगे, न उनके विश्लेषण को प्रमाणिक क्योंकि अकादमिक अर्थ में इतिहास से संबद्धता रखने वाले लोगों ने डाॅ. रामविलास शर्मा जैसी महत्वपूर्ण शख्सियत को भी इतिहासकार नहीं माना जबकि उनकी स्थापनाएँ पेशेवर इतिहासकारों के लिए चुनौती सी हैं। इसलिए कर्मेन्दु शिशिर ने कहा कि : ‘‘इतिहास में अनधिकृत अतिक्रमण की मेरी कोई मंशा नहीं, न कोई दावा- यह सिर्फ और सिर्फ इतिहास का एक निजी सफर है और इस सफर के अपने संस्मरण हैं।... मैं फिर दुहराऊँ- यह इतिहास नहीं हैं; इतिहास का एक सफर है, निजी और नितांत निजी सफर!’’[5]  यह सही है कि कर्मेन्दु शिशिर के लेखन की तुलना सतीशचन्द्र, हरवंश मुखिया, इरफान हबीब के लेखन से नहीं कर सकते लेकिन सिर्फ इसी कारण से उनके लेखन को खारिज भी नहीं कर सकते। उन्होंने मध्यकालीन समय समाज के परिप्रेक्ष्य की निर्मिति, सामाजिक परिवर्तन की दिशा तथा बदलाव की परिस्थितियों का तथ्यान्वेषण बहुत सूक्ष्मता से और तथ्य-दस्तावेजों के साथ किया है। दरअसल उनका उद्देश्य इतिहासकारों की कतार में खड़ा होना नहीं है, उनका लेखन इतिहासकारों या इतिहास मात्र में दिलचस्पी रखने वाले लोगों के लिए नहीं बल्कि सामान्यजन को सम्बोधित है।


(एक)


‘भारतीय मुसलमान: इतिहास का संदर्भ’ का पहला खण्ड आज के दौर में सुनियोजित ढंग से फैलाये जाने वाले भ्रामक मान्यताओं का खण्डन है बल्कि आगे बढ़कर इस बात का भी खण्डन है कि मध्यकालीन भारतीय समाज में हिन्दुओं के मुसलमान बनने के पीछे मुस्लिम राजाओं की ताकत और आतंक की भावना थी। यह सच है कि कुछ व्यक्तियों और जमींदारों ने डर के मारे या इनाम-वो-इकराम की उम्मीद से इस्लाम को अपनाया होगा परंतु ऐसे लोगों की संख्या उन दलित-शूद्रों से बहुत कम थी जो काफी बड़ी संख्या में मुसलमान बने। कई समुदायों ने इस्लाम और हिन्दू दोनों धर्मों की परम्परा को अपनाया लेकिन धार्मिक-साम्प्रदायिक भ्रान्तियाँ ने इस्लाम और हिन्दू दोनों धर्मों की परम्परा को अपनाया लेकिन धार्मिक-साम्प्रदायिक भ्रान्तियाँ लगातार बढ़ती रहीं। इसका कारण यह भी रहा कि हिन्दू साम्प्रदायिक शक्तियों द्वारा फैलाये गए झूठी किंवदन्तियों का मुकाबला, मुस्लिम फिरकापरस्त ताकतों ने उतनी ही झूठी और उतनी ही शरारतपूर्ण अफवाहों से किया और इस तरह फिरकापरस्ती का यह गठजोड़ एक-दूसरे समुदाय के बारे में बेसिर-पैर की अफवाहें फैलाने में कामयाब रहा बल्कि आज भी जब तब एक-दूसरे के लिए खाद-पानी उपलब्ध कराता रहता है। कर्मेन्दु शिशिर ने सही लिखा है किः
‘‘ज्यों ही हम यह मान लेते हैं कि भारतीय मध्यकाल के शासक, सामन्त शासक नहीं बल्कि एक कौम विशेष के प्रतिनिधि थे, बस... मामला आर-पार का बन जाता है। इसमें एक कौम बादशाहों को मुसलमान मानकर खुद को शासक जाति से जोड़कर एक मूर्खता भरे अहंकार में डूब जाता है तो दूसरा उस समूचे दौर के एक-एक मामले का बदला लेने को उद्धत हो जाता है।’’[6]  

और फिर यह मोटी बात हम भूल जाते हैं कि कुतुबुद्दीन ऐबक से लेकर बहादुरशाह जफर तक की हुकूमत मुसलमान बादशाहों की जरूर थी, लेकिन उन्हें इस्लामी हुकूमत करार देना सरासर ग़लत है। वे बादशाह मुसलमान ज़रूर थे लेकिन सबसे पहले बादशाह थे। कर्मेन्दु शिशिर का जोर इस बात पर है कि
‘यह कहना कि मुस्लिम कौम में परिवर्तन और गतिशीलता अनुपस्थित रही है - एकदम गलत बात होगी।... पूरे इस्लामी समाज में एकरेखीयता जैसी बात नहीं रही... इस्लाम के नाम पर स्थापित राज्यों में भी कुरानशरीफ के आदेशों का हू-ब-हू अनुपालन नहीं हुआ।’’[7] 
भारतीय समाज में मुसलमानों के आगमन और महमूद गजनवी के बारे में तरह-तरह की किंवदन्तियाँ कही-बताई जाती हैं, जो आज भी भारतीयों को कसमसाती, उत्तेजित और विचलित करती हैं पर कर्मेन्दु शिशिर 7वीं शताब्दी में ईरानी-अरब व्यापारियों, सैलानियों के आवागमन के सिलसिले से लेकर मुहम्मद गोरी के आक्रमण तक के समय का मूल्यांकन करते हुए एक तरफ यह कहने का साहस करते हैं कि भारत में इस्लामी राज्य स्थापित करने का यशोगान किया जाता है लेकिन क्रूरता, कत्लेआम और तलवार की नोंक पर धर्म परिवर्तन की घटनाओं को प्रयत्न पूर्वक ढंका जाता है लेकिन दूसरी तरफ यह भी कहना नहीं भूलते कि भारत और मुसलमानों के आक्रमण मंदिर ध्वंस और बेशुमार लूट-खसोट को लेकर जिस धनीभूत घृणा का इजहार किया जाता है, उसमें आवेग-उत्तेजना ज्यादा और विवेक तथा समझदारी कम दिखाई देती है। इस संदर्भ में महमूद गजनवी से सम्बन्धित डाॅ0 आर.सी. मजूमदार और प्रो0 इरफान हबीब के विवेचन में ‘लूटेरा’ और ‘धर्मयोद्धा’ वाली छवि के लिए कर्मेन्दु शिशिर ने इतिहासकारों के अन्तर्विरोध को जिम्मेदार माना है।

दरअसल मध्यकालीन इतिहास की मूल स्रोत-सामग्री से गुजरते हुए कर्मेन्दु शिशिर कई जगह प्रो0 इरफान हबीब, हरवंश मुखिया, सतीश चन्द्र और खलिक अहमद निजामी की स्थापनाओं से असहमति जाहिर करते हैं लेकिन कोशिश सार्थक और रचनात्मक यथार्थ तक पहुँचने की करते हैं। यह सच है कि इस्लाम के जन्म के काफी पहले से अरब के निवासियों का भारतीय जनता के साथ संपर्क कायम हो चुका था। सन् 630 ई. तक भारतीय समुद्रों में मुस्लिम बेड़ा आ चुका था। अरबों से भारतीय जनता का सम्पर्क आक्रमणकारी के रूप में नहीं बल्कि तिजारत करने वाले लोगों के रूप में हुआ था। चावल, सिल्क, हाथी दाँत, भारतीय शिल्प-दस्तकारी के सामान और भारतीय मसालों की अरब और पश्चिमी देशों में जबर्दस्त मांग थी। इसलिए भारतीय राजा अरबों का स्वागत करते थे उनके व्यापार में वृद्धि के लिए हर संभव प्रोत्साहन देते थे। मालाबार के शासक ने तो उन्हें अपने क्षेत्र में मस्जिदें बनाने की इजाजत दी और बिना किसी रूकावट के धर्म-प्रचार की छूट भी और इससे आगे बढ़कर शासन-सत्ता से जुड़े कुछ लोगों ने इस्लाम धर्म स्वीकार करने तक का साहस किया। यहाँ आये अरबों को हिन्दू महिलाओं से विवाह करने की अनुमति मिली और इस तरह मुसलमानों की संख्या तेजी से बढ़ी।

इस तरह कर्मेन्दु शिशिर ने पं0 जवाहरलाल नेहरू, डाॅ. ताराचन्द, प्रो. इरफान हबीब एवं प्रो. हरबंश मुखिया के हवाले से ‘भारत में इस्लाम के उदय’ की पृष्ठभूमि समझने की कोशिश की है लेकिन उनका उद्देश्य राजसत्ता और धर्मसत्ता का वर्चस्व बयान करना नहीं है, न धार्मिक हठीलेपन के खूनी संघर्ष का वर्णन करना है। वहाँ कर्मेन्दु शिशिर का जोर इस्लाम के आगमन और भारतीय समाज के साथ उसकी अन्तःक्रिया को समझने का है जिसके कारण ‘उत्तर भारत’ के कितने ही हिन्दू राज्य और और कुछ दक्षिण भारत के राज्य भी, दिल्ली में स्थापित मुस्लिम सत्ता के अधीन हो गये थे और उन्होंने सल्तनत की सर्वोच्च सत्ता को स्वीकार कर लिया था।’

दिल्ली सल्तनत का विवेचन करते हुए कर्मेन्दु शिशिर मध्यकालीन इतिहास में घटित संयोग और भाग्य की भूमिकाओं के बीच ‘इल्तुतमिश’ की राजनीतिक दूरदर्शिता; अपने तमाम अवगुणों के बाद भी इतिहास में महानायक बना गयासुद्दीन बलबन; त्याग-धर्मनिष्ठा और राजसत्ता के प्रति अनासक्त, कलाप्रेमी जलालुद्दीन खिलजी; मध्यकाल के इतिहास में घात-प्रतिघात की दोहरी जुगलबंदी की दहलीज पर खड़ा अलाउद्दीन खिलजी; संतुलित मध्यमार्ग का अनुगामी गयासुद्दीन तुलगक तथा षड्यन्त्र, विश्वासघात, लूट, विध्वंस और अत्याचारों के इतिवृतात्मक उदाहरणों से भरे सैयद वंश की नियति एवं दिल्ली सल्तनत के अन्तिम महत्वपूर्ण शासक इब्राहिम लोदी का न सिर्फ महत्व बताते हैं बल्कि राजसत्ता और भारतीय समाज व्यवस्था की अन्दरूनी दुविधा कशमकश, आर्थिक आधिपत्य की कोशिशों एवं राजनीतिक प्रभुत्व की टकराहटों का भी विवेचन करते हैं। उनका स्पष्ट मानना है कि :
‘‘यह बात खास तौर से गौर करने वाली है कि भारत में बाहर से आये तुर्क, ईरानी या अरब मुसलमान न सिर्फ खुद को श्रेष्ठ समझते थे बल्कि राज्य के ऊँचे पदों और संचालन में वे किसी स्थानीय मुसलमान की बहाली के सख़्त खिलाफ थे। वे तमाम धर्मान्तरित मुसलमानों को न सिर्फ हेय दृष्टि से देखते थे बल्कि उन पर संदेह भी करते थे... मसलन सत्ता के सामने मुस्लिम बराबरी के धार्मिक सिद्धान्त और विश्वास की रत्तीभर भी अहमियत नहीं होती थी। इसलिए... सत्ता और शासक के साथ इस्लाम धर्म और मुस्लिम अवाम को समेटकर एक साथ नहीं देखा जाना चाहिए। इस मुस्लिम राज में धर्म गौण था और ताकत और सेना प्रमुख थी।’’[8]  
कर्मेन्दु शिशिर एकाधिक बार बहुत जोर देकर यह प्रस्तावित करना चाहते हैं कि ‘हत्या और रक्तपात से भरे मध्यकाल की दीर्घ कालावधि को आप गौर से देखें तो उसमें जितनी हत्या मुसलमानों ने मुसलमानों की की है, उससे ज्यादा ग़ैरमुसलमानों की नहीं की होगी। जो बादशाह राजसत्ता के लिए अपने पिता, भाई और बच्चों को सता सकता है, मार सकता है, उसके लिए क्या दीन, क्या धर्म? हम-आप उन्हें मुसलमान समझते रहे, मगर वे शासक थे, सामन्त थे, इसके अलावे और कुछ नहीं।’ इसलिए मध्यकालीन इतिहास में इस्लामिक अत्याचार की मनगढ़न्त किवदन्तियाँ बनाना और हिन्दुओं को मुसलमान बनाने का हौव्वा खड़ा करना नितान्त भ्रामक धारणा है। मुस्लिम आक्रमण और हिन्दू समाज के सन्दर्भ पर विचार करते हुए ‘संस्कृति के चार अध्याय’ में रामधारी सिंह 'दिनकर' भी स्वीकार करते हैं कि
‘‘सच यही है कि मुसलमान तलवार के जोर से नहीं बढ़े, भारतवासियों ने उनका सामना ही नहीं किया ... इस्लाम भारत में खड्ग बल से नहीं फैला। हिन्दू समाज में वेद विरोधी आन्दोलन इस्लाम के उदय से कम से कम एक हजार वर्ष पहले ही छिड़ चुका था और बहुत से लोग वेद, ब्राह्मण, प्रतिमा और व्रत अनुष्ठानों में विश्वास खो चुके थे। धर्म परिवर्तन के अधिक आसान शिकार यही लोग हुए। इस्लाम ने बहुत से ऐसे लोगों को भी अपने वृत्त में खींच लिया जो अछूत होने के कारण अपमानित हो रहे थे और बहुत से लोग इसलिए भी मुसलमान हो गये, चूँकि प्रायश्चित के नियम हिन्दुओं के यहाँ थे ही नहीं। हिन्दुत्व छुई-मुई सा नाजुक धर्म हो गया था। इसलिए गाँव के कुएँ में मुसलमान पानी डाल देता तो सारा गाँव स्वतः मुसलमान हो जाता और शास्त्रों के प्रहरियों को यह सूझता ही नहीं कि पानी के समान मनुष्य भी शुद्ध किया जा सकता है। आक्रमण के रास्ते में गाय पड़ जाती तो हिन्दुओं की स्वतः पराजय हो जाती। फौज की जद में अगर मंदिर पड़ जाते तो हिन्दुओं को कँपकपी छूटने लगती थी।’’[9]  
धार्मिक अंधविश्वास की दुराग्रही मान्यताओं और हिन्दू समाज की विकृतियों के बहुत सारे प्रसंगों के बारे में बीसवीं शताब्दी में जाति-पांति तोड़क मण्डल स्थापित करने वाले प्रसिद्ध लेखक संतराम बी.ए. ने भी विस्तार से लिखा है।

यहाँ यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि भारतीय समाज में धार्मिक-साम्प्रदायिक पूर्वाग्रही मान्यताओं की जड़ें मध्यकालीन इतिहास में हैं, उनका आधार अंग्रेजी राज में इतिहास से अनावश्यक छेड़छाड़ है। औपनिवेशिक भारत में जनमानस को इस तरह बदलने की कोशिश की गई ताकि साम्प्रदायिक विभेद को बढ़ावा मिले। संभवतः सबसे पहले जेम्स मिल ने भारतीय इतिहास का धर्म के आधार पर वर्गीकरण किया। औपनिवेशिक शासन ने इस धारणा को मजबूती दी कि- ‘प्राचीन भारत, हिन्दू राष्ट्र था, जिस पर हिन्दू राजा शासन करते थे।’ यह अकारण नहीं है कि हिन्दू राष्ट्रवाद के महत्वपूर्ण प्रस्तावक एम.एस. गोलवलकर- ‘आर्य इस देश के मूल निवासी हैं’- की धारणा पर दृढ़ता से बढ़ रहे थे। यह अलग बात है कि न तो राजा या सेनापति किसी देश के धर्म का निर्धारण करते हैं और न ही इतिहास का इस आधार पर विभाजन किया जा सकता है कि उस वक्त किस धर्म का राजा शासक था।

वैसे भी भारतीय इतिहास में ऐसा कोई काल शायद ही हो जब पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर एक ही धर्म के राजाओं का प्रभुत्व हो। यह सब जानते हुए भी अंग्रेजों ने हिन्दू-मुस्लिम विभाजन को मजबूत करने के लिए भ्रांत धारणाओं के राजनीतिक इस्तेमाल की शुरूआत की और साम्प्रदायिक मानसिकता का क्रमशः विकास किया। इस संदर्भ में कर्मेन्दु शिशिर ने अंग्रेज इतिहासकार सर हेनरी इलियट के फारसी स्रोत-सामग्री आधारित ग्रंथ History of India as told by its own historians (1879या एस.एच. होडीवाला की Studies in Indo-Muslim History (1939जैसी पुस्तकों का हवाला देते हुए भारतीय भाषाओं में आधारभूत ग्रंथों के अतिशय अभाव की चर्चा की है और इस संदर्भ में गंभीर अकादमिक काम को बहुत जरूरी माना है :
‘‘यह कार्य एक तरह से राष्ट्रीय कार्य है, क्योंकि भारत में हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य और नफरत के सारे हथियार इसी कालखण्ड से चुराये जाते हैं।’’[10]  
इसलिए इस कालखण्ड की मूलस्रोत सामग्री को आदितुर्ककालीन भारत से लेकर मुगलकालीन भारत  तक की सम्पूर्ण सामग्री को नौ खण्ड में उपलब्ध कराने वाले डाॅ0 सैयद अतहर अब्बास रिजवी के असाधारण ऐतिहासिक योगदान के प्रति कर्मेन्दु शिशिर का सम्मान व्यक्त करना किसी व्यक्ति के प्रति औपचारिक सम्मान व्यक्त करना भर नहीं है बल्कि गुणवत्तापूर्ण शोध और मूल स्रोत सामग्री को एकत्र करने की एकनिष्ठ संकल्प साधना के प्रति आदर और सम्मान निवेदन करना है। यह सही है कि ‘आदितुर्ककालीन भारत’ - विषयक सामग्री के चयन, सम्पादन, अनुवाद, जरूरी भूमिका, पाद-टिप्पणियों और पूरी प्रस्तुति ही सैयद अतहर अब्बास रिजवी की असाधारण श्रम-साधना और योग्यता का कायल बना देती है। कहना न होगा कि भारतीय मुसलमान और इतिहास का संदर्भ विषयक इस किताब से सम्बन्धित विषयवार तथ्य-संकलन, आधार सामग्री का निर्धारण एवं साम्प्रदायिक अंतर्द्वद्व व राजनीतिक-सांस्कृतिक जीवन के विविध संदर्भों का वस्तुनिष्ठ आकलन करके स्वयं कर्मेन्दु शिशिर ने भी राष्ट्रीय महत्व का कार्य किया है- और इस कार्य के लिए उनकी जितनी प्रशंसा की जाय, वह कम है।

कर्मेन्दु शिशिर ने दिल्ली सल्तनत और मुगलकाल के परिवेश में अन्तर करते हुए बहुत मार्के की बात की है :
‘‘अगर आप बाबर और उसके बाद के शासकों और पूर्व के शासकों और शासन की तुलना करते हुए भारतीय समाज को देखें तो एक किस्म का गुणात्मक अन्तर दिखाई पड़ेगा... यह इतिहास का ठोस यथार्थ है कि सम्राट अशोक के बाद दूसरी बार मुगलिया सल्तनत ने भारत को आमूलचूल बदल दिया और उसी की कोख से एक अभिन्न भारत का जन्म हुआ।’’[11]  
क्योंकि बाबर ने जिस मुगलशासन की नींव रखी, वह पहले से बिल्कुल भिन्न थी। वे एक भरी-पूरी समृद्ध और समानान्तर संस्कृति के साथ आये और उसे भारत पर बलात थोपने की कोई कोशिश भी नहीं की। मुगल बेहद तहजीब वाले और अपेक्षाकृत खुले थे। उन्होंने एक तरफ न सिर्फ धर्म, साहित्य, संगीत, कला, स्थापत्य, भवन-निर्माण, दस्तकारी, शिल्पकारी की सारी खिड़कियाँ खोल दीं बल्कि दूसरी तरफ खान-पान और रहन-सहन की बंदिशें भी तोड़ दीं। जब मुसलमान मध्य एशिया से भारत पहुँचे थे तो अरबी अमामा, जुब्बह, कुलाह, मोज़ा वगैरह पहनते थे लेकिन हिन्दुस्तान में आते ही धीरे-धीरे यह सब गायब होता गया और उनकी जगह कुर्ता, अंगरखा, अचकन, शेरवानी, पगड़ी, दुपट्टा वगैरह ने ले ली। जो मुसलमान अरब से आये थे, उनकी मादरी जबान अरबी थी। महज एशिया के मुसलमानों की ज़बान तुर्की थी लेकिन मुगल हुकूमत की सरकारी ज़बान फारसी थी। इसलिए इतिहास का ईमानदार मूल्यांकन करते और मध्यकालीन सांस्कृतिक वीथियों से गुजरते हुए यह बात स्मरण रखने की है कि आज हम जिस प्राचीन संस्कृति के असाधारण वैभव का आत्ममुग्ध पाठ करते हैं, उसे बचाये रखने में मुगलकाल के शासकों की भी बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका है। बेशक उनमें कुछ ने मूर्तियाँ तोड़ी, मंदिर भी ढाये साथ ही इस देश की महानता से रूबरू हुए, सीखे, सराहे और बहुत कुछ सँवारे भी और अन्ततः उन्होंने सारा कुछ मटियामेट नहीं किया और न होने दिया। इस तथ्य को जानते हुए भी कि बाबर को भारत पर आक्रमण के लिए आमंत्रण जिसने भी दिया हो लेकिन भारत की तरफ से भारत के लिए लड़ने वाला पहला महत्वपूर्ण व्यक्ति इब्राहिम लोदी था बावजूद इसके बाबर का व्यक्तित्व विलक्षण था और हिन्दुस्तान के बारे में उसकी असाधारण दिलचस्पी आश्चर्यजनक! वह एक असाधारण योद्धा और महान बादशाह ही नहीं, असाधारण लेखक भी था।

‘बाबरनामा’ तुर्की साहित्य में ही नहीं विश्वसाहित्य की आत्मकथाओं में अनुपम महत्व की कृत्ति है। वह अपनी विलक्षण अन्तदृष्टि से हिन्दुस्तान की भौगोलिक बनावट को देखता समझता है, सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन के अन्दरूनी गह्वरों में प्रवेश करता है, गोया वह इस मुल्क से बहुत आत्मीय रिश्ता कायम करना चाहता हो। वह युद्ध जीतकर बादशाह बन गया है फिर भी फूलों, फलों, पक्षियों, जानवरों, जलचरों, ऋतुओं तक ही नहीं सिंचाई, कृषि, माप-तौल, भूमि, नदियों, पहाड़ों सहित देश के समग्र गुण-दोष को समझना चाहता है। मानो उसके भीतर देश को जानने की सतत प्रक्रिया चल रही है। अबुल फजल के हवाले से कर्मेन्दु जी ने लिखा है कि मृत्यु से पूर्व उसने सभी अमीरों को बुलाकर एक तरफ हुमायूँ को बादशाह घोषित किया तो दूसरी तरफ हुमायूँ को सख़्त हिदायत दी कि :‘‘तुझे तेरे भाईयों एवं अपने सभी सम्बन्धियों तथा आदमियों को ईश्वर को सौंपता हूँ और इन लोगों को तुझे सुपुर्द करता हूँ... अपने भाईयों की हत्या का चाहे वे इसका जितना भी पात्र क्यों न हों, विचार न करना।’’ जाहिर था कि बाबर को न सिर्फ मध्यकालीन सत्ता का स्वभाव मालूम था बल्कि उसे यह भी मालूम था कि किस तरह सत्ता के वर्चस्व में भाई और बेटों का कत्ल होता है।

यह विडम्बना ही है कि मुगल शासन के संस्थापक बाबर की सख़्त हिदायत के बाद भी यह सिलसिला मुगलवंश का चरित्र बनता गया। कर्मेन्दु शिशिर ने इस प्रसंग में बाबर और हुमायूँ से सम्बन्धित कुछ और दस्तावेजों का उल्लेख किया है, जो मुगल शासन की अलग प्रस्तावना और बाबर के अलहदा व्यक्तित्व का निदर्शन हैं। 27 नवम्बर 1528 को हुमायूँ के नाम एक ख़त में बाबर कहता है- ‘बादशाह से बड़ा बंधन कोई दूसरा बंधन नहीं। यह याद रखना, हुकूमत बेपरवाही से नहीं चलती।’ वह हुमायूँ को सावधान करते हुए यह भी कहता है कि ‘अब वक्त आ गया है कि तुम जिन्दगी में खतरे उठाओ। किस्मत ने जो जिम्मेवारी तुम्हें सौंपी है, उसकी तरह लापरवाही न बरतना। हुकूमत के साथ सुस्ती और आरामतलबी का मेल नहीं।’ वह बार-बार अपने अनुरूप हिन्दुस्तान पर शासन की बात को प्राथमिकता देता है। यह भावना उसकी वसीयत में भी मुखर है :
‘‘हिन्दुस्तान का मुल्क भिन्न-भिन्न धर्मों का गहवारा है। यह मुनासिब है कि तू अपने दिल से सभी धर्मों की तरफ अगर कोई बदगुमानी है तो उसे निकाल दे और हर मिल्लत अथवा सम्प्रदाय के साथ उनके अपने तरीके से उनका न्याय कर और विशेषकर गाय की कुर्बानी से परहेज कर। क्योंकि इससे तू हिन्दुस्तान के दिल को जीत लेगा और इस मुल्क की रैयत का दिल इस अहसान से दबकर तेरी बादशाही के साथ रहेगा। तेरे साम्राज्य में हर धर्म के जितने मंदिर और पूजा घर हैं, उनको नुकसान न हो। इस तरह अदल और इन्साफ करना जिससे रैयत शाह से और शाह रैयत से आसूदा रहे।’’ 
जाहिर है कि यह भावना मुगल शासन की संकल्प-प्रस्तावना भी है, जिसका विकास अकबर के शासन में दिखाई पड़ता है। कर्मेन्दु शिशिर बाबर से लेकर औरंगजेब तक के काल का मूल्यांकन करते हुए राजनीतिक-संदर्भ का ही आकलन नहीं करते है बल्कि उसके साथ-साथ हिन्दू-मुस्लिम सद्भाव और सह-अस्तित्व की कड़ियाँ भी तलाशते हैं, जिसके माध्यम से हिन्दू और मुसलमान इस तरह करीब आये बल्कि दोनों के बीच परस्पर इतना मेल-जोल बढ़ा कि रहन-सहन, रस्म-रिवाज, अकीदत-व-मुहब्बत और हद यह कि पूजा और इबादत में नाम भर का फर्क रह गया। यह अकारण नहीं है कि उसी दौर में मंदिर का कलश और मस्जिद का गुम्बद एक रंग में रंग गया। मंदिर कलश में ईरानी कला की झलक नज़र आयी तो दूसरी तरफ मस्जिद के गुम्बदों में कमल का फूल नज़र आने लगा। इस परम्परा को स्थापित करने का श्रेय नसीरूद्दीन मुहम्मद हुमायूँ मिर्जा को जाता है, जो अपनी धार्मिकता के बावजूद कट्टर बिल्कुल नहीं था बल्कि सदाशयता, उदारता और क्षमाशीलता में वह मध्यकालीन बादशाहों में अद्वितीय था। मुगल साम्राज्य में समृद्ध संगीत परम्परा की नींव रखने वाला बादशाह हुमायूँ ही था। कर्मेन्दु शिशिर ने इन महान मानवीय गुणों के कारण हुमायूँकालीन राजनीतिक संकट के समय में हुमायूँ की नीतियों को कमजोर माना है। उन्होंने बार-बार यह रेखांकित करने की कोशिश की है कि ‘‘उसमें मनुष्यता के कुछ ऐसे दुर्लभ गुण थे, जो उसके व्यक्तित्व को उस दौर में आकर्षक तो बनाते हैं, लेकिन प्रभावशाली नहीं [12]... विलास और बादशाहियत हुमायूँ के अन्दर प्रवेश कर चुके थे। उसे न तो बहादुरशाह की बढ़ती जा रही ताकत की चिंता थी और न नये सिरे से अफगानों के संगठित होने की कोई परवाह थी। नाजुक दौर से गुजरते साम्राज्य के अगल-बगल दुश्मनों की तैयारी से ऐसी बेखबरी हुमायूँ की राजत्व क्षमता पर कलंक थी [13]... हुमायूँ सोच के स्तर पर बार-बार बचकाना और फिसड्डी साबित होता रहा। वह बहादुर योद्धा तो था; चपल और दूरदर्शी सेनानायक नहीं था।’’[14]  लेकिन यह भी सच है कि अपनी सफलता-असफलता की सीमाओं के बाद भी उसने टूट चुके मुगल शासन की कड़ी को जोड़ा और अकबर जैसे महान सम्राट के शासन का संयोग मुहैया कराया।

अकबर का समय मध्यकालीन भारतीय इतिहास का स्वर्णकाल है। विन्सेंट स्मिथ की पुस्तक ‘Akbar the Grate Mughal’ का पहला वाक्य है: ‘Akbar was a foreigner in India’. स्मिथ की औपनिवेशिक-दृष्टि में अकबर विदेशी इसलिए था कि इसकी रगों में भारतीय रक्त की एक बूँद भी नहीं थी। पिता की तरफ से सात पीढ़ियों बाद वह तैमूर का वंशज था, ध्यान रहे तैमूर मध्य एशिया का तुर्क था। बाबर की माँ की ओर से वह मंगोल था। डाॅ0 रामविलास शर्मा ने विन्सेंट स्मिथ की औपनिवेशिक-दृष्टि की सीमाओं को रेखांकित करते हुए सही कहा है कि अकबर ऐसा तुर्क था, जो सात पीढ़ियों के बाद पूरी तरह हिन्दुस्तानी हो गया था :
‘‘अकबर के पहले तुर्क मूलतः लूटेरे थे। अकबर व्यवस्थित साम्राज्य का निर्माता था। मूर्तियों को तोड़ना, मंदिरों को ध्वस्त करना, इस्लाम का प्रचार करना उसका उद्देश्य न था। एक बड़े क्षेत्र में साम्राज्य के व्यवस्थित होने से उद्योग, व्यापार और इनके साथ संस्कृति में अभूतपूर्व उन्नति हुई।’’[15]  
अकबर ने अपने शासकीय तौर-तरीकों, राजनीतिक नीतियों के माध्यम से साझी संस्कृति का विकास किया साथ ही साहित्य-संगीत एवं कला-स्थापत्य में वास्तविक राष्ट्रीय शैली (Really national indian style) की स्थापना की। यह अकारण नहीं है कि आज भी भारतीय आमजन में अकबर की महानता वाली छवि लगभग महफूज है। कर्मेन्दु शिशिर ने अकबर के बारे में इतिहासकारों में व्याप्त दो तरह की मान्यताओं का जिक्र किया है; पहला, जो उसकी महानता का गुणगान करते हैं और दूसरा, जो उसकी महानता पर जमकर नुक्ताचीनी करते हैं बल्कि कुछ तो उसे काफिर बादशाह मानते हैं, जिसने इस्लामी सल्तनत को कलंकित किया।


यह जानते हुए कि ‘अकबर को लेकर हिन्दी, उर्दू, फारसी और अंग्रेजी में विपुल मात्रा में उसके एक-एक पक्ष पर काम हुआ है’- कर्मेन्दु शिशिर ने अकबर सम्बन्धी ऐतिहासिक-सांस्कृतिक महत्ता का पिष्टपेषण नहीं किया है बल्कि उन्होंने अकबर के समय में उसके महत्वपूर्ण आलोचकों के विचारों का मूल्यांकन किया है और इसके माध्यम से भारतीय प्रायद्वीप में धार्मिक सद्भाव और सहिष्णुता का विरोध करने वाली मानसिकता का भी मूल्यांकन किया है। अकबर की साम्प्रदायिक सहिष्णुता और उदार नीतियों के सबसे मुखर आलोचक शेख अहमद सरहिन्दी थे। वे अकबर के खिलाफ न सिर्फ मुखर और सक्रिय थे बल्कि मुसलमानों को लगातार भड़का भी रहे थे। साथ ही उस दौर में बंगाल और जौनपुर के काजियों ने फतवा दिया था कि अकबर ने अपना मजहब छोड़ दिया है, इसलिए उसके खिलाफ बगावत बिल्कुल जायज है। लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि इस तरह की आन्तरिक स्थितियों के बीच भी अकबर लगातार मध्यकालीन बर्बरता का अतिक्रमण करते हुए मजहबी यकजहती की मिसाल कायम कर रहा था। पं0 जवाहरलाल नेहरू ने ‘हिन्दुस्तान की कहानी’ में अकबर की शख्सियत की खुलकर प्रशंसा की है। उनके अनुसार -
‘‘उसकी दिलचस्पी बहुत सी बातों में थी और वह उन सबके बारे में जानकारी हासिल करने का यत्न करता था ... अपने ज्ञान के शौक में वह सभी चीजों को एकसाथ सीख लेना चाहता था - इस तरह जैसे कोई भूखा आदमी अपना खाना एक ही निवाले में खा लेना चाह लेता है।’’ 
लेकिन जवाहरलाल नेहरू ने अपने  तमाम सकारात्मक रुख के बावजूद विज्ञान एवं तकनीकी के प्रति उसकी लापरवाही को हिन्दुस्तान की रचनात्मक शक्ति को अपंग करने का जिम्मेदार भी माना है क्योंकि वह समुद्री ताकत के प्रति बेखबर रहा, विदेशियों के उत्पात की अनदेखी करना उसकी अदूरदर्शिता थी और इस तरह बहुत मामूली से फर्क में एशिया को पीछे और यूरोप को आगे कर दिया। नेहरू ने आगे लिखा कि
‘‘जब एशिया मुर्छित और अपनी पुरानी कोशिशें की वजह से थक गया था, उस वक्त यूरोप में, जो बहुत सी बातों में पिछड़ा हुआ था तब्दीलियों के आसार दिख रहे थे। वहाँ एक नई चेतना पैदा हो गई, एक नया जोश काम कर रहा था, जो वहाँ के साहसियों को समुद्र पार भेज रहा था और वहाँ के विचारकों के दिमाग को नई-नई दिशाओं में ले जा रहा था।’’ 
जाहिर है कि ऐसी पहल अकबर ने नहीं की जबकि वह कर सकता था। कर्मेन्दु शिशिर ने अकबर के बारे में जवाहरलाल नेहरू के लम्बे उद्धरण का हवाला देकर एक तरफ उसकी विवेकशील आलोचनात्मक छवि उकेरी है तो दूसरी तरफ मानो यह स्मरण रखने की सलाह भी दी है कि भारत में धार्मिक-साम्प्रदायिक विभेद की नीति राज्य की दृढ़ता के लिए घातक है और स्वस्थ जनमत निर्माण के लिए भी।

भारतीय समाज में धार्मिक सद्भाव, संगीत, स्थापत्य, कला-कौशल और कारीगरी की जो उन्नति अकबर के शासन में हुई थी; वह जहाँगीर के शासन में यथावत  बनी रही जो सामान्यतः अपने पिता की शासन पद्धति पर ही चलता रहा। कर्मेन्दु शिशिर ने बहुत बारीकी से जहाँगीर की राजनीतिक दूरदर्शिता और मुस्लिम जन की भावनाओं की समझदारी का आकलन करते हुए उसे अकबर की धर्मनिरपेक्ष सोच का ही विस्तारक माना है :
‘‘जहाँगीर थोड़ा आज़ादख्याल तबियत का बादशाह था... हर समुदाय के त्योहारों में खुलकर भाग लेता था... दशहरा और दीपावली में वह खुशी से शरीक होता। ईस्टर और क्रिसमस भी उसे अच्छा लगता और वह उसमें शामिल भी होता था। उसने जैन सन्त सिद्धिचन्द्र मुनि को नादिर-ए-जमाँ की उपाधि दी... बनारस में तो उसके शासनकाल में 70 से भी अधिक मंदिरों का निर्माण हुआ... उदारता की लगातार तीखी आलोचना करने वाले कट्टरपंथी सन्त शेख अहमद सरहिन्दी को तो उसने बंदी भी बना लिया था... उसकी शासन-व्यवस्था और संचालन-पद्धति बेहतर थी। उसने अपने पिता की विरासत का विस्तार ही किया; कम-से-कम रेखांकित करने वाली किसी अवनति के प्रमाण तो नहीं मिलते।’’[16]  
मुगल साम्राज्य जहाँगीर और शाहजहाँ तक आते-आते अपने उत्कर्ष के चरम पर था। डाॅ0 रामविलास शर्मा का मानना है कि ‘‘जिसे इतिहासकार मध्यकाल कहते हैं, वह इंग्लैण्ड, फ्रांस, जर्मनी या इटली के समकालीन कलात्मक विकास से घटकर नहीं है। खासतौर से इंग्लैण्ड में इस तरह का चौमुखी विकास 16वीं सदी में न हुआ था।’’[17]  मानो शाहजहाँ अपने समय में विश्व का शीर्ष बादशाह बन चुका था। कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाय तो जहाँगीर को अपने शासन के कार्यकाल में स्वयं युद्ध नहीं लड़ना पड़ा था क्योंकि उसके शासन के उत्तरार्द्ध में कांगड़ा, मेवाड़ और अहमदनगर का युद्ध उसके बहादुर बेटे खुर्रम (जो बाद में शाहजहाँ के रूप में विख्यात हुआ) के नेतृत्व में लड़ा गया और उस फतह के बाद जहाँगीर ने ‘दुनिया के बादशाह’ के रूप में उसे शाहजहाँ की उपाधि दी लेकिन यह इतिहास की त्रासदी है कि सत्ता-संघर्ष का कड़वा अभिशाप मुगल साम्राज्य के सबसे ‘रेशमी बादशाह’ शाहजहाँ को ही झेलना पड़ा। उसके जीवन के आखिरी दस वर्ष दारुण कष्ट में गुजरे, उसके हिस्से में साम्राज्य के सौभाग्य और दुर्भाग्य दोनों की अतियाँ आयीं। कर्मेन्दु शिशिर शाहजहाँ का मूल्यांकन करते हुए यह कहते हैं कि वह जहाँगीर की तुलना में बड़ा योद्धा था लेकिन इस्लाम के प्रति अपनी कट्टर आस्था को दिखाने के लिए तीर्थाटन कर के साथ-साथ हिन्दुओं के ऊपर नैतिक पाबन्दियाँ भी जारी कर दीं। लेकिन धीरे-धीरे उसकी नीतियों में नरमी आने लगी। यह अकारण नहीं है कि दाराशिकोह के प्रभाव वाले काल में राज्य की धार्मिक नीतियाँ पूरी तरह बदल गयी थीं। इसलिए कर्मेन्दु शिशिर का यह कहना सही है कि
‘‘मुगलकाल के बादशाओं में शाहजहाँ के व्यक्तित्व को समझना सबसे मुश्किल काम है... कामुकता और रतिकांक्षा उसकी ऐसी बड़ी कमजोरी थी, जिससे वह मुगलवंश का सबसे विवादास्पद और शायद एक हद तक कलंकित बादशाह बन गया।’’[18]

कर्मेन्दु शिशिर की यह इतिहास-यात्रा जिसे वे इतिहास का ‘निजी सफ़र’ कहते हैं; यह निजी इस अर्थ में भी है कि यहाँ ‘इतिहास’ का संदर्भ राजा या राजवंश के विवरण-विश्लेषण तक सीमित नहीं है बल्कि भारतीय मुस्लिम चेतना की निर्मिति और उसकी सांस्कृतिक जीवन-यात्रा को समग्रता में विश्लेषित करने की कोशिश की गई है। दरअसल महत्व हुमायूँ, अकबर, जहाँगीर, शाहजहाँ या औरंगजेब का नहीं है; असल महत्व है- इन राजनीतिक प्रतीकों के मार्फत भारत, भारतीयता और धार्मिक सह-अस्तित्व की पहचान और उसकी परिधि के विस्तार का। इस अर्थ में कर्मेन्दु शिशिर का यह काम-भारतीय संस्कृति और हिन्दू-मुस्लिम सवाल में दिलचस्पी लेने वाले किसी भी भारतीय के लिए खासे संदर्भवान हैं।
       
(प्रथम खंड)

अकबर, जहाँगीर, शाहजहाँ, औरंगजेब- इन सबके शासन व्यवस्था की प्रमुख विशेषता यह थी कि अधिकांश हिन्दू सामन्त बादशाह का साथ दे रहे थे, यह राज्य के गैर-साम्प्रदायिक स्वरूप का प्रमाण है। कर्मेन्दु शिशिर का मानना है कि ‘‘मुगलवंश का कोई भी शासक वह चाहे औरंगजेब ही क्यों न रहा हो, पूरी तरफ इस्लाम और मुसलमान पर निर्भर होकर न साम्राज्य कायम रख सकता था और न ही विस्तार कर सकता था। न ही ऐसा हुआ। इस आसंग में सारी गड़बड़ियों की जड़ में ये उलेमा ही थे; जो जड़, संकीर्ण, महत्वाकांक्षी, अकृतज्ञ और परम स्वार्थी थे।’’[19]  और इस तरह सन् 1657 तक मुगल साम्राज्य के भीतर परस्पर अविश्वास, ईर्ष्या, घात-प्रतिघात और षड्यन्त्रों का सिलसिला प्रारम्भ हो चुका था, जिसका परिणाम था - दाराशिकोह, सुल्तान शुजा, औरंगजेब और मुरादबख़्श के बीच उत्तराधिकार का संघर्ष। कर्मेन्दु शिशिर यहाँ ‘उत्तराधिकार का संघर्ष’ और ‘औरंगजेब की जीत’ के संदर्भ में औरंगजेब को नायक या खलनायक बनाने जैसे विवेचन से बचते हैं। उनका मानना है कि
‘‘औरंगजेब मुगल शासन के इतिहास में सबसे अधिक जटिल व्यक्तित्व वाला बादशाह है। आप उसके बारे में जो राय रखेंगे ठीक उसके विपरीत तथ्य-तर्क उसके जीवन या कार्यों से तुरत मिल जायेंगे। आप उसे कट्टर सिद्ध करेंगे तो उदारता के साक्ष्य मिल जायेंगे, हिन्दू विरोधी मानेंगे तो इसके विपरीत उदाहरण भी... उसकी धार्मिकता ऐसी की बिना नागा पाँचों वक्त की नमाज तो पढ़ता ही था, युद्धभूमि में भी बिना सुरक्षा के चादर डाल घुटने टेक नमाज पढ़ने लगता था। उसका निजी जीवन अत्यन्त सादगी से भरा-कुरान की नकल (किताबत) और टोपियाँ सीकर गुजारे की रकम जुटाता। लेकिन वहीं औरंगजेब कुरान को बीच में रखकर अपने सहोदर छोटे भाई मुरादबख्श से समझौता करता है और मौका आते ही विश्वासघात भी कर देता है।’’[20]  
इन सबके बीच औरंगजेब सम्बन्धी इतिहास लेखन में इतिहासकारों के अपने पक्ष-प्रतिपक्ष हैं, जिनका क्रमशः उल्लेख कर्मेन्दु शिशिर ने किया है। वे अल्लामा शिब्ली नोमानी, मुंशी जकाउल्ला, सर यदुनाथ सरकार, इरफान हबीब और सतीशचन्द्र के विवेचन-विश्लेषण के प्रति अपनी सहमति-असहमति दर्ज करते हैं लेकिन इस बात का बराबर ध्यान रखते हैं कि औरंगजेब की पहली प्राथमिकता सत्ता-साम्राज्य पर वर्चस्व स्थापित करना था। वह धार्मिक नीतियों का कार्यान्वयन भी साम्राज्य का ख़याल करके करता था। औरंगजेब के समय तक भारतीय सामन्तवाद युद्धनीति और रणकौशल के मुकाबले घूस, बेईमानी और षड्यन्त्र की दलदल में डूब चुका था। औरंगजेब समर्थक हिन्दू राजाओं के लिए Political Cunning और His agent in all intrigues with Hindu Princes लिखने वाले सर यदुनाथ सरकार जानते थे कि औरंगजेब के अत्याचारों के कारण उसके राज्य में विद्रोह हो रहे थे। मराठों के खिलाफ वह जसवन्त सिंह को पहले ही इस्तेमाल कर चुका था... शिवाजी को घेरने के लिए उसने पूर्तगालियों से दुरभि संधि की। यह अकारण नहीं है कि जहाँ-जहाँ हिन्दू राजाओं से वास्ता पड़ता था, औरंगजेब उन्हें फुसलाने और मिलाने के लिए जयसिंह को आगे कर देता था। इस शातिराना चालबाजी और सामन्ती पतनशीलता का गठजोड़ औरंगजेब को शक्तिशाली बना रहा था। लेकिन औरंगजेब के रणकौशल की प्रशंसा करने वाले यदुनाथ सरकार के अनुसार ‘दारा परास्त हुआ, औरंगजेब विजयी।’ डाॅ0 रामविलास शर्मा ने सर यदुनाथ सरकार की स्थापना पर व्यंग्य करते हुए टिप्पणी की है :
‘‘दारा यदि कुशल सेनापति होता तो हारता ही क्यों? जीतने वाला कुशल सेनापति होना ही चाहिए। दारा वास्तव में औरंगजेब की कुटिल नीति से परास्त हुआ था, उसके रणकौशल से नहीं। जैसे अलाउद्दीन खिलजी ने अपने चाचा के बहुत-से अमीरों और सिपहसालारों को खरीद लिया था, वैसे ही औरंगजेब ने अपने पिता शाहजहाँ और भाई दारा के बहुत से सेनानायकों और अमीरों को मिला लिया था।’’[21]  
औरंगजेब और दाराशिकोह के बीच संघर्ष-प्रतिरोध की विभिन्न दन्तकथाओं की लोक व्याप्ति भिन्न-भिन्न है। एक तरफ हिन्दू जनमानस में धार्मिक सद्भाव के कारण दाराशिकोह के प्रति सम्मान का भाव और धार्मिक कट्टरता के कारण औरंगजेब के प्रति घृणा का भाव है तो दूसरी तरफ आम मुस्लिम जनमानस में दाराशिकोह काफिर है और औरंगजेब इस्लाम का तारणहार! महत्वपूर्ण यह है कि कर्मेन्दु शिशिर इस प्रसंग में दाराशिकोह के प्रति किसी भी तरह के बौद्धिक भाववाद से प्रभावित हुए बिना साफ-साफ कहते हैं कि
‘‘बेशक दाराशिकोह बहुत उदार था... लेकिन उदात्त सोच के बावजूद मुगल बादशाह की गद्दी को लेकर उसकी महत्वाकांक्षा और लिप्सा में कोई कमी नहीं थी... उसमें महत्वाकांक्षा चाहे जितनी प्रबल हो, उसमें युग के राजत्व की कोई योग्यता नहीं थी... युद्ध की रणनीति में वह बिल्कुल अनाड़ी था... दाराशिकोह विश्वासघातियों से घिरा था। उसके जीवन में पग-पग पर ऐसे कृतघ्न लोग आये और उन्होंने अपना बदला चुका लिया। उसे कत्ल करने के लिए जिस नज़ीर नामक गुलाम को चुना गया था, वह शाहजहाँ के यहाँ ही पला था।’’[22]  
इस तरह कर्मेन्दु शिशिर दाराशिकोह और औरंगजेब या औरंगजेब की शासन नीति पर किसी तरह के सरलीकरण से बचते हुए तथ्य और सत्य के साथ रहते हैं। यही कारण है कि वर्तमान समय में मन्दिर तोड़ने के लिए कुख्यात औरंगजेब के बारे में वे हिन्दुओं और उनके मंदिरों के प्रति औरंगजेब के उदार रवैये की दुर्लभ मिसालें प्रस्तुत करते हैं। औरंगजेब को भारतीय संस्कृति और हिन्दुत्व के ठेकेदारों ने भारत में मुस्लिम हुकूमत का प्रतीक सा बना दिया है या जबतब बनाना चाहते हैं। कभी इस प्रसंग में शिब्ली नोमानी ने कहा था : ‘तुम्हें ले-दे के सारी दास्तां में याद है इतना/कि औरंगजेब हिन्दू-कुश था, जालिम था, सितमगर था।’ औरंगजेब पर हिन्दू-दुश्मनी के आरोप के सम्बन्ध में जिन फरमानों के बारे में बोला बताया जाता है, उसमें ‘फरमान-ए-बनारस’ प्रसिद्ध है। कर्मेन्दु शिशिर ने ‘फरमान-ए-बनारस’ सहित अन्य दस्तावेजों को परिशिष्ट में रखकर बिना कुछ कहे तथ्य-दस्तावेजों को स्वयं बोलने दिया है- बेलाग एवं बेलौस। ये फरमान इस बात के गवाह हैं कि औरंगजेब हिन्दू प्रजा के खिलाफ किसी तरह की जबरदस्ती के खिलाफ था। औरंगजेब स्वभाव से न्यायप्रिय था, वह जायदादों के बँटवारें में हिन्दू धार्मिक सेवकों के साथ भेदभाव नहीं करता। इसलिए इतिहास को मनगढ़ंत किस्सागोई वाले अंदाज में परोसने वाले मौसमी बुद्धिजीवियों के सांस्कृतिक अभियान के खिलाफ कर्मेन्दु शिशिर का यह गंभीर काम-सार्थक, सोद्देश्य और रचनात्मक प्रतिरोध का प्रमाण है।

प्रसंगवश, यह कहना आवश्यक है कि भारत में इस्लाम की शुरूआत से लेकर अन्तिम मुगल सम्राट बहादुरशाह जफ़़र और प्रसिद्ध इस्लामी धर्मवेत्ता शाह वलीउल्लाह देहलवी तक के समय, परिवेश और प्रकृति का विश्लेषण करते हुए कर्मेन्दु शिशिर ने शेरशाह सूरी और दाराशिकोह को यथोचित स्थान नहीं दिया है जबकि भारतीय समाज और मुस्लिम मानस की आन्तरिक संरचना के निर्माण में दोनों की खास भूमिका है और अविस्मरणीय महत्व भी। एक तरफ शासन-सत्ता, न्याय व्यवस्था, राज्य-प्रबंध की दृष्टि से शेरशाह सूरी का अल्पकालीन शासन अविस्मरणीय है तो दूसरी तरफ हिन्दू-मुस्लिम बिरादराने यकज़हती और कौमी हमअहंगी के विराट प्रतीक दाराशिकोह का विचार चिन्तन सर्वधर्मसमभाव की दृष्टि से आज के लिए भी अत्यन्त प्रासंगिक है। इसलिए मध्यकालीन भारत के सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में शेरशाह सूरी और दाराशिकोह का स्वतंत्र रूप से विधिवत विश्लेषण न कर प्रसंगवश उल्लेख भर होना खटकता है।

दाराशिकोह जिस Ellectic Philosophy के आधार पर धर्म की सामान्य भावभूमि तलाश रहा था, उसकी जरूरत पहले के मुकाबले आज अधिक है। इसलिए दाराशिकोह जैसे सांस्कृतिक प्रस्थान-प्रतीकों का अलग से स्वतंत्र विश्लेषण भारतीय मुस्लिम चेतना की समझ के लिए आवश्यक था। कर्मेन्दु शिशिर ने ऐसा क्यों नहीं किया है? यह अनावधानता में हुआ या जानबूझकर किया गया है? इसका ठीक-ठीक उत्तर तो लेखक ही देगा लेकिन इस वजह से लेखक की विचार-परिधि से मध्यकालीन भारतीय समाज में धर्म-संस्कृति की टकराहट वाली अन्तर्कथा बाहर हो गई है। दाराशिकोह और औरंगजेब का संघर्ष मात्र सत्ता के लिए संघर्ष भर नहीं है बल्कि दो संस्कृतियों की टक्कर भी है। डाॅ0 रामविलास शर्मा ने सही लिखा है कि
‘‘एक है कर्मकाण्ड वाला सामन्ती धर्म और दूसरा है नैतिक आचरण पर जोर देने वाला लोकधर्म। कर्मकाण्ड वाली धार्मिक रूढ़ियों और लोकधर्म के बीच अकबर के समय में टक्कर थी और वह औरंगजेब के समय में भी थी। अकबर के समय में दोनों की टक्कर विचारधारा तक सीमित न रहकर सशस्त्र संघर्ष में बदल गई थी। कुछ ऐसा ही औरंगजेब के समय में हुआ। दारा की पराजय किसी एक व्यक्ति की पराजय नहीं थी। औरंगजेब की विजय किसी एक व्यक्ति की विजय नहीं थी। दारा पर औरंगजेब की विजय लोक-धर्म पर रूढ़िवादी कर्मकाण्ड की विजय थी, वह पतनशील मानसिकता की विजय थी। वह भारतीय समाज की प्रगति को रोकने वाली थी और उसके दूरगामी परिणाम हुए।’’[23]  
और अन्ततः यह रूढ़िवादी कर्मकाण्ड एवं पतनशील मानसिकता ही मुगल साम्राज्य के पतन का कारण बनी। शासकों के निकम्मेपन और व्यवस्था की अराजकता-मुहम्मद शाह रंगीला, आलमगीर द्वितीय, शाह आलम और बहादुरशाह ज़फ़र (1837-57) तक न सिर्फ बढ़ रही थी बल्कि पूरी मुस्लिम कौम निराशा और अंधकार के दलदल में डूबी हुई थी। यहाँ कर्मेन्दु शिशिर को दाद देनी चाहिए कि उन्होंने ‘मुगल काल का पतन’ बयान करते हुए राजनीतिक सांस्कृतिक वर्चस्व (औपनिवेशिक वर्चस्व) की पृष्ठभूमि का विश्लेषण करते हैं और नाममात्र के बादशाहों के मुकाबले शाह वलीउल्लाह देहलवी के माध्यम से मुस्लिम नवजागरण और आधुनिक भारत में मुस्लिम अन्तश्चेतना के भीतर परिवर्तन की सुगबुगाहट की पहचान करते हैं। कर्मेन्दु शिशिर के विश्लेषण में 18वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध एवं 19वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध की मुस्लिम सांस्कृतिक छवि, धर्म-शिक्षा एवं न्याय के स्तर पर आहत हो रही थी। उन्हें एक तरफ हिन्दुओं के वर्चस्व से डर लग रहा था तो दूसरी तरफ ब्रिटिश शासन का उत्तरोत्तर विस्तार भी डरावना था। इस संदर्भ में यह महत्वपूर्ण है कि एक धर्मशास्त्रीय विद्वान शाह वलीउल्लाह देहलवी नयी ताजगी और ऊर्जा के साथ कुछ राजनीतिक सवाल करते हैं। वे पहले महत्वपूर्ण धर्मचिंतक हैं, जो उलेमा को लेकर गंभीर लेकिन बेहद तल्ख़ टिप्पणी करते हैं। शाह वलीउल्लाह की टिप्पणी गौरतलब है :
‘‘मैं आध्यात्मिक गुरुओं के वंशजों से पूछता हूँ, जिन्होंने पात्रता के बिना ही उनकी गद्दी पर कब्जा जमा लिया है। आपने मजहब को अपने पूर्वग्रहों और अपनी सनक का खिलौना क्यों बनाया लिया है? और आप सबने उस जीवन पथ को क्यों त्याग दिया है, जिसका फरमान और शिक्षा अल्लाह ने अपने रसूल मुहम्मद के माध्यम से दी है? आप में से हर एक आत्मकेन्द्रित नेता बन गया है और लोगों को अपनी ओर बुला रहा है। आप में से हर एक खुद को सही मार्ग पर चलने वाला और महदीर मानता है, जबकि उसने अपना सही रास्ता खो दिया है और वह दूसरों को गुमराह कर रहा है।’’
 शाह वलीउल्लाह की यह प्रश्नवाचकता मुस्लिम धर्मसंरचना और चिन्तन के इतिहास को तिलमिलाने वाला था लेकिन नई जागृति और विचार दृष्टि का प्रस्थान भी था। उन्होंने आगे बढ़कर यहाँ तक कहा कि ‘‘वे सब वस्तुतः डाकू, धोखेबाज और झूठे हैं। उन्होंने अपने को धोखा दिया है और दूसरों को भी धोखा दे रहे हैं।’’[24] 

कर्मेन्दु शिशिर ने मध्यकालीन मुस्लिम मनःस्थिति के भीतर की परिवर्तनशील आकांक्षा को शाह वलीउल्लाह के माध्यम से न सिर्फ पहचान दी है बल्कि वलीउल्लाह की वैचारिक संक्रमणशीलता के भीतर ही आधुनिकता की आकांक्षा को खोजने की कोशिश भी की है। यह कोशिश ही नवजागरण की परम्परा का उत्स है और सामाजिक परिवर्तन का प्रस्थान भी।


(दो)


भारतीय नवजागरण में अपनी सांस्कृतिक गौरव की चेतना के साथ औपनिवेशिक दमन के खिलाफ असंतोष की भावना आकार लेती है। बांग्ला, मराठी, तमिल, तेलुगू और हिन्दी भाषा-भाषी क्षेत्र में असंतोष की अकुलाहट अपने-अपने ढंग से मुखर होती है। नवजागरण की यह चेतना सामाजिक-सांस्कृतिक पक्षधरता के साथ 1857 की हिन्दू-मुस्लिम संयुक्त मोर्चेबंदी के लिए भी विख्यात है। इस परम्परा का विकास एक तरफ राजा राममोहन राय, दादाभाई नौरोजी, बालगंगाधर तिलक, बदरूद्दीन तैय्यबजी, महादेव गोविन्द रानाडे, गोपाल गणेश अगरकर, गोपाल कृष्ण गोखले, गुरजाडा अप्पाराव, सर सैयद अहमद खाँ तथा महात्मा गाँधी में दिखता है तो दूसरी तरफ जमालुद्दीन अफगानी, मौलाना महमुदूल हसन, ओबैदुल्लाह सिन्धी, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद और मौलाना हुसैन अहमद मदनी के यहाँ भी पूरी प्रखरता से मौजूद है।

लेकिन दुःखद यह है कि हिन्दी प्रदेश के नवजागरण की चर्चा करने वाले बुद्धिजीवी हिन्दू-मुस्लिम संयुक्त मोर्चेबंदी की बातें बहुत करते हैं, पर अपने अध्ययन विश्लेषण और विचार-विमर्श से मुस्लिम बौद्धिकता को बाहर रखते हैं। यह समस्या इतनी भर होती तो काम चल जाता पर असल समस्या इससे अधिक है और खतरनाक भी। यह खतरनाक इसलिए है कि हिन्दी प्रदेश के नवजागरण को ‘हिन्दू नवजागरण’ तक रिड्यूज करने वाले लोग एक तरफ नवजागरण सम्बन्धी बहस में मुस्लिम बौद्धिकता की उपेक्षा का आरोप लगाते हैं तो दूसरी तरफ आधी-अधूरी सामग्री के आधार पर ‘पूरी बहस’ का दावा करते हुए हिन्दू-मुस्लिम वर्चस्व की अनोखी थीसिस भी रखते हैं। यह सही है कि भारतीय उपमहाद्वीप में हिन्दू-मुस्लिम वर्चस्व-विरोध, सहयोग और सह-अस्तित्व के प्रश्न 19वीं सदी के नवजागरण से संदर्भित हैं और आज भी नवजागरण के संदर्भों का ही विस्तार हैं और वास्तविकता तो यह है कि आज की ‘हिन्दुत्व वाली पताका’ और ‘इस्लामिक श्रेष्ठताबोध’ की जड़ें भी 19वीं सदी के नवजागरण में हैं लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हम मनचाहे को विस्तार दें और अनचाहे को गोल कर दें। हिन्दू-उर्दू भाषा भाषी क्षेत्र के नवजागरण पर काम करने वाले अधिकांश बौद्धिकों ने - धर्म, इतिहास, भाषा, संस्कृति के सवाल पर किसिम-किसिम की बातें करके सांस्कृतिक बौद्धिकता की विरासत को गड्डमड्ड करने की कोशिश की है। उनका सारा जोर हिन्दी प्रदेश के नवजागरण में आज की साम्प्रदायिक मानसिकता का उत्स खोजना है। कर्मेन्दु शिशिर का ‘भारतीय मुसलमान और नवजागरण संदर्भित’ यह काम इस तरह की इकहरी अकादमिक बौद्धिकता के लिए जवाबी चुनौती है।

‘भारतीय मुसलमान’ का दूसरा खण्ड आधुनिकता का सवाल और 19वीं शताब्दी की मुस्लिम बौद्धिकता से जुड़ा हुआ है। यह विषय कर्मेन्दु शिशिर के चिंतन और समूचे अध्ययन-विश्लेषण का नाभिक है। उनके अध्ययन-विश्लेषण का बड़ा हिस्सा नवजागरण और उसके उन्नायकों से सम्बन्धित है। कर्मेन्दु शिशिर के नवजागरण सम्बन्धी अध्ययन की महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि वह एक तरफ नवजागरण की एकांगी विश्लेषण दृष्टि की अपर्याप्तता साबित करते हैं तो दूसरी तरफ मूल स्रोत सामग्री के साथ हिन्दू-वर्चस्व और मुस्लिम-विरोध की उत्साही अवधारणा की व्यर्थता भी साबित करते हैं। इस दृष्टि से ‘भारतीय मुसलमान : इतिहास का संदर्भ’ का दूसरा खण्ड भारतीय नवजागरण के समग्र पाठ का विशिष्ट अध्याय है। बल्कि कहना चाहिए कि 19वीं सदी के भारतीय नवजागरण के आसंग में मुस्लिम अस्मिता की परम्परा, पहचान और ¬प्रतिष्ठा को रेखांकित करने वाली दृष्टि का आधार दूसरा खण्ड ही है और पहला खण्ड इस आधारभूमि का प्रस्तावना मात्र है। जहाँ पहला खण्ड इतिहास की विकास-यात्रा का प्रस्तुतीकरण है तो दूसरा खण्ड इतिहास-निर्माण का विश्लेषण। कर्मेन्दु शिशिर ‘नवजागरण और आधुनिकता’ के सवाल को हिन्दी-उर्दू भाषा भाषी क्षेत्र में व्यापक संदर्भ में उठाते है और बहुत सावधानी से उन सवालों का हल तलाशते हैं क्योंकि उन्हें मालूम है कि ‘समग्रता और सकारात्मकता के अभाव में नजरिया दोषपूर्ण होगा तो आकलन में भी निर्दोषिता नहीं आ सकेगी।’ उनका दृष्टिकोण साफ है कि :
‘‘नवजागरण हमारे निकटतम अतीत का समग्र साक्ष्य है- उसे सहेजते या उकेरते समय हमें अपना आशय और नजरिया बिल्कुल दुरुस्त रखना होगा... कोई अध्येता विचार करते समय थोड़ी मनमानी करता है तो उसका हठ भी दिखने लगता है... हमें हमेशा समय सापेक्ष गतिशीलता का ध्यान रखकर नवजागरण को पूरी समग्रता में सारे वैविध्य के साथ समझना चाहिए... यह नहीं भूलना चाहिए कि अतीत झगड़ने या कब्जाने से अपने अनुकूल नहीं हो जाता। ऐसा करने से जटिलताएँ बढ़ती हैं और अतीत की प्रेत-छाया समकालीनता पर भी बड़ा घातक असर डालती है... आज की भिन्नता से उपजे तनावों को हमें नवजागरण पर आरोपित नहीं करना चाहिए। यह एक अस्वस्थ बात होगी, जो इतिहास में कीचड़ पैदा करेगी और इससे आज की सकारात्मक धाराएँ और प्रवृत्तियाँ भी प्रभावित होंगी।’’[25]  
जाहिर हैै कि विचार चिंतन के सरलीकरण के कारण आधुनिक बौद्धिक भी धार्मिक श्रेष्ठता और साम्प्रदायिक चेतना की मनोरचना को नवजागरण के भीतर तलाशने लगते हैं। 19वीं शताब्दी के नवजागरण को हिन्दू-मुस्लिम वर्चस्व की लड़ाई सिद्ध करना वर्तमान राजनीतिक हड़बोंग के लिए शायद जायज हो लेकिन यह धारणा जितनी भ्रांत है, उससे अधिक मूल स्रोत से दूर भी है। कर्मेन्दु शिशिर की यह किताब इस तरह के सरलीकरण का मुकम्मल प्रतिपाठ है। इस प्रतिपाठ का महत्व इसलिए है कि किसी भी तरह के सरलीकरण से उन्नीसवीं शताब्दी के नवजागरण को साम्प्रदायिक राजनीति के हवाले करना उसके व्यापक राष्ट्रीय निहितार्थों को भोथरा करना है। इस अभियान में हिन्दू और मुस्लिम साम्प्रदायवादियों की अपनी-अपनी भूमिका है और अपनी-अपनी रणनीति भी। लेकिन इन सबके बीच अब सेकुलर और प्रगतिशील बुद्धिजीवी भी नवजागरण के सामाजिक-सांस्कृतिक मुद्दे को भाषा और धर्म के चश्मे से देखने के लिए कमर कसे हुए हैं। इस तरह का सरलीकृत विमर्श साम्प्रदायिक पृष्ठभूमि के लिए असली खलनायक को अपराधमुक्त घोषित कर नवजागरण के उन्नायकों को ही खलनायक साबित करने पर तुल जाता है।

 द्वितीय खंड 

हिन्दू-मुस्लिम दंगों का सीधा सम्बन्ध नवजागरणकालीन हिन्दू-मुस्लिम वर्चस्व-विरोध की थीसिस से है, इसका ब्रिटिश कूटनीति से कोई सम्बन्ध नहीं है- यह अवधारणा साम्राज्यवादी-पूँजीवादी विचारकों और सांस्कृतिक राष्ट्रवादी विचारकों दोनों के राजनीतिक दर्शन के अनुकूल है क्योंकि पहले को अपनी सभ्यता प्रतिष्ठापक भूमिका सिद्ध करने का वाजिब तर्क मिल जाता है तो दूसरे को अपने लंपट चरमपंथ को जारी रखने का नैतिक आधार हासिल होता है। इसलिए कर्मेन्दु शिशिर दोनों तरह की चेतना से निश्चित दूरी बनाकर नवजागरणकालीन प्रतीकों का अलग मूल्यांकन करते हैं। वे नवजागरण के महानायकों की फेहरिश्त में सर सैयद अहमद ख़ान, मौलवी ज़काउल्ला, अल्ताफ हुसैन हाॅली, बदरूद्दीन तैयब जी सहित ओबैदुल्ला सिंधी, अल्लामा इकबाल, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, सैफुद्दीन किचलू और हसरत मोहानी के माध्यम से नवजागरण की विविध विचार सरणियों में मुस्लिम मनःश्चेतना और विचार-यात्रा का प्रतिनिधि रूप प्रस्तुत करते हैं। इस तरह का काम बहुत पहले हो जाना चाहिए था लेकिन यह आज तक नहीं हुआ। यह हमारी अकादमिक दिलचस्पी पर गंभीर टिप्पणी है। यहाँ कर्मेन्दु शिशिर ने विलियम डेलरिम्पल के बहाने भारतीय बौद्धिकता की अन्यमनस्कता पर भी टिप्पणी की है :
‘‘उर्दू-फारसी में 1857 की राज्यक्रांति से जुड़ी विपुल सामग्री का अभी तक पूरी तरह इस्तेमाल ही नहीं हुआ है। फारसी और उर्दू के दस्तावेज पड़े-पड़े नष्ट हो रहे हैं... 1857 की राज्यक्रान्ति की डेढ़ सौवीं जयन्ती पर जब विलियम डेलरिम्पल की पुस्तक ‘द लास्ट मुगल’ छपकर आयी तो उसकी भूमिका में उन्होंने लिखा कि लगभग बीस हजार उर्दू-फारसी के ऐसे दस्तावेजों का उन्होंने अध्ययन किया जिसे उनके पहले किसी ने नहीं देखा था... दिल्ली में मौजूद अथाह दस्तावेज... विद्वानों के लिए सुलभ हैं .. इसके बावजूद किसी भारतीय लेखक ने उनको देखने-पढ़ने छानबीन करने और विश्लेषण करने की कोशिश नहीं की। डेलरिंपल साहब को कौन समझाये कि भारतीय लेखक कोई बेवकूफ नहीं हैं। वे जानते हैं कि डेलरिम्पल जैसे कई यूरोपीय विद्वान आएँगे, वे मशक्कत करेंगे ओर लिखेंगे। तब भारतीय लेखक जो बड़ी संख्या में अंग्रेजी जानते हैं, उसे पढ़ लेंगे। जो अंग्रेजी नहीं जानते हैं, वे अनुवाद होने पर पढ़ लेंगे... भारतीय बुद्धिजीवियों का काम ऐसे ही चलता है और खूब मजे से चलता है।’’[26]  
यह टिप्पणी हमारी अध्ययन पद्धति, ज्ञान-मीमांसा के प्रति ललक, अकादमिक उत्साह और जवाबदेह बौद्धिकता की स्थिति बयान करती है। इस अकादमिक उदासीनता के दौर में कर्मेन्दु शिशिर द्वारा इस महत्वपूर्ण परियोजना का पूरा करना इस दिशा में नये उत्साह का संचार करने वाला है और ज्ञान-साधना के प्रति विश्वसनीय पड़ाव भी।


आधुनिक भारत के निर्माण में मुस्लिम बौद्धिकता की भूमिका स्थापित करने वाली इस किताब में शाह वलीउल्लाह से लेकर मौलाना अबुल कलाम आज़ाद तक मुस्लिम नवजागरण का एक वृहद अवलोकन और गंभीर विश्लेषण न सिर्फ इस पुस्तक को अर्थवान बनाता है बल्कि भारतीय समाज में हिन्दू-मुस्लिम प्रश्न की बहुत सारी गलतफहमियों को नया संदर्भ देता है। कर्मेन्दु शिशिर ने मुस्लिम नवजागरण के विचारकों और चिंतकों की वैचारिक-चिंताओं के साथ-साथ नवजागरणकालीन मुद्दों, उपलब्धियों और सीमाओं का विस्तारपूर्वक वर्णन करने में पूरी ईमानदारी बरती है। जो लोग यह मानते हैं कि मुस्लिम कौम दूसरी कौमों की तुलना में चेतना के स्तर पर पिछड़ी थी और राष्ट्रीय स्वाधीनता आन्दोलन के प्रति अनुत्साहित थी। उन्हें ‘भारतीय मुसलमान : इतिहास का संदर्भ’ - के माध्यम से उर्दू साहित्य और मुस्लिम चेतना के भीतर राष्ट्रीय नवजागरण की साझी चिंताओं की अटूट परम्परा को न सिर्फ देखना चाहिए बल्कि ठहर कर विचार करना चाहिए। अन्यथा हम अपनी भूल-चूक और कमियों को इतिहास के कन्धे पर डालकर खुद आत्ममुग्ध बने रहने पर विवश होंगे। यह अकारण नहीं है कि सर सैय्यद अहमद ख़ाँ और अलीगढ़ तहरीक को आज भी भारत विभाजन और पाकिस्तान की बुनियाद के लिए जिम्मेदार माना-बताया जाता है जबकि कर्मेन्दु शिशिर के लिए सर सैयद अहमद ख़ाँ नवजागरण के महानायक हैं :
‘‘आधुनिक युग में भारतीय उपमहाद्वीप में उनकी हैसियत का कोई मुस्लिम नायक नहीं हुआ। वे राजा राममोहन राय की परम्परा के मुस्लिम संस्करण थे और कई मायने में ईश्वरचन्द्र विद्यासागर से उनकी उपलब्धियाँ बड़ी थीं। उनके अवदानों का ईमानदारी से आकलन किया जाय तो उनके योगदान में मदनमोहन मालवीय और भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के कार्यों का भी समाहार मिलेगा। इस नजरिये से विचार ही नहीं किया गया कि अगर वे नहीं होते तो मुस्लिम कौम और हिन्दुस्तान की क्या तस्वीर होती, भारतीय उपमहाद्वीप के क्या हालात होते!’’[27]  
यह प्रश्न भारतीय समाज में सर सैयद अहमद के महत्व का प्रमाण है। यह सही है कि सर सैयद अहमद पश्चिमी शिक्षा से अभिभूत थे। वे अच्छी तरह समझते थे कि आधुनिक पश्चिमी शिक्षा से जुड़े बिना उनका समुदाय अंग्रेजों की सद्भावना, सहानुभूति और विश्वास अर्जित नहीं कर सकेगा। वह अपने समकालीनों में अंग्रेजों के अनन्य प्रशंसक थे। 1869 में इंग्लैण्ड सहित पश्चिमी यूरोप की उनकी यात्रा और वहाँ प्रवास ने अंग्रेजों की महानता में उनकी आस्था और दृढ़ कर दी। बावजूद इसके 19वीं सदी के नवजागरण में सर सैयद को मुस्लिम अलगाववाद का जनक मानने वाले हफ़ीज मलिक और उनकी तरह के अन्य इतिहासकारों से असहमति व्यक्त करते हुए कर्मेन्दु शिशिर एक तरफ उनकी बुद्धिधर्मिता स्थापित करते हैं तो दूसरी तरफ उनके वैचारिक अन्तर्विरोध और अंग्रेजी राज की राजनीति के अन्तःसम्बन्ध को भी खोजने की कोशिश भी करते हैं। वे एक-एक कर उन प्रसंगों, व्यक्तियों, घटनाओं का अन्तःसम्बन्ध बयान करते हुए इतिहास के भीतर सर सैयद अहमद ख़ाँ को समग्रता में देखते हैं- तथ्यता और तार्किकता के साथ इस प्रसंग में कर्मेन्दु शिशिर के विश्लेषण का दो कारणों से अन्यतम महत्व है।

पहला कारण यह है कि वे 19वीं सदी के नवजागरण पर काम करने वाले बहुत सारे बुद्धिजीवियों की तरह मुस्लिम अस्मिता के प्रतीक के रूप में सर सैयद अहमद को स्थापित नहीं करते हैं बल्कि सर सैयद अहमद खाँ की विचार-चेतना के समानान्तर देवबंदी उलेमा मौलाना मोहम्मद कासिम नानौतवी, मौलाना महमूद-उल-हसन, मौलाना रशीद अहमद गंगोही, ओबैदुल्ला सिन्धी की शानदार ताकतवर राष्ट्रवादी परम्परा को उटकेरते हैं और नये ढंग से उसे विमर्श में लाते हैं। इससे पहले अकादमिक बौद्धिक बहसों में भारतीय राष्ट्रीयता के निर्माण की यह शानदार ताकतवर परम्परा लगभग उपेक्षित रही है और विमर्श-वंचित भी। महत्त्व का दूसरा कारण यह है कि मुस्लिम नवजागरण की राजनीतिक-सामाजिक पृष्ठभूमि के बीच कर्मेन्दु शिशिर पहली बार उर्दू नवजागरण और मुस्लिम मनःस्थिति का आकलन करते हुए - शम्सुल उल्मा मौलवी ज़काउल्ला, अल्ताफ हुसैन हाली, बदरूद्दीन तैयबजी, अल्लामा इकबाल, हसरत मोहानी और अल्लामा शिब्ली नोमानी के माध्यम से नवजागरण की ज्ञान साधना और उसकी सांस्कृतिक विशिष्टता को स्थापित करते हैं।


यह जानना दिलचस्प है कि दिल्ली कालेज (1824-25ई.) और देहली वर्नाकुलर ट्रांसलेशन सोसाइटी (1841ई.) की स्थापना के साथ उर्दू में ‘दुर्लभ ज्ञानराशि’ के प्रकाशन का प्रारम्भ होता है। इस पूरे अभियान में विज्ञान आन्दोलन के पुरस्कर्ता मास्टर रामचन्द्र की केन्द्रीय भूमिका थी और इस तरह यह नवजागरण अपनी प्रखर मेघा, प्रगतिशील वैचारिक दृष्टि और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से उर्दू में यथार्थवादी गद्यलेखन का बीजारोपण करता है। प्रख्यात गद्य लेखक डिप्टी नजीर अहमद, मुहम्मद हुसैन आज़ाद और मौलवी ज़काउल्ला - मास्टर रामचन्द्र की चेतना के ही विस्तार हैं। उस दौर में गणित, भूगोल और विज्ञान सम्बन्धी ज्ञान चेतना का अनुवाद और मौलिक लेखन हिन्दी और उर्दू दोनों भाषाओं में हो रहा था, जिसकी चर्चा 19वीं शताब्दी के नवजागरण में काफी कम हुई। नवजागरण की चेतना में हिन्दू-मुस्लिम वर्चस्व का सवाल ढूँढने वाले भूल जाते हैं कि एक तरफ मौलवी ज़काउल्ला ‘आज़यब-ए-रोजगार’ लिखते हैं तो दूसरी तरफ पं. सुधाकर द्विवेदी ‘चलन-कलन’ या ‘चलराशि-कलन’ क्योंकि उन्हें यूरोप के विराट ज्ञान वैभव का आभास था और अपनी भाषा की दयनीयता का अहसास भी। इसलिए सर सैय्यद अहमद ख़ान, जकाउल्लाह वगैरह के योगदान का महत्व अधिक बढ़ जाता है। कर्मेन्दु शिशिर ने अल्ताफ हुसैन हाली के गद्य की प्रखरता, ऊँचाई और ‘मुसद्दस’ के माध्यम से इस्लाम की महान विरासत की पुनर्प्रतिष्ठा  की कोशिश को नवजागरण की चेतना का वाहक माना है :
‘‘हाली जिस मुस्लिम कौम में नवजागरण की चेतना के वाहक थे, उसे हर हाल में सचेत और जागरूक करने के हिमायती थे। वे इस्लाम और मुस्लिम कौम की तत्कालीन दुर्दशा से आहत थे... उनके भीतर गहरी पीड़ा है, सघन दुःख है और इसे बदल देने की ईमानदार छटपटाहट भी है... उनकी रचनाओं का मुख्य स्वर नैतिक सुधार और राष्ट्रीयता का ही है... जहाँ तक उनकी सोच का मसला है, उनमें राजभक्ति और देशभक्ति के द्वैत मौजूद हैं। दरअसल यह उस युग की ही प्रवृत्ति थी जो हिन्दी-उर्दू भाषाओं के लेखकों में समान रुप से देखने को मिलती है।’’[28]
भारतीय उपमहाद्वीप में मुस्लिम अस्मिता और राष्ट्रीयता पर बात करते हुए शेख़ मोहम्मद इकराम, हफ़ीज मलिक तथा सी.एम. नईम जैसे पाकिस्तान संदर्भित इतिहासकारों द्वारा सर सैयद अहमद ख़ाँ को हिन्दुस्तान में धर्म के आधार पर दो राष्ट्रों के सिद्धान्त का प्रारम्भिक प्रतिपादक और उसके आधार पर भारतीय उपमहाद्वीप के विभाजन का पुरोधा साबित करने की कोशिशें की जाती रही हैं लेकिन अब भारत में भी ऐसी शक्तियाँ हावी हुई हैं, जो बहुत आक्रामकता के साथ पाकिस्तान के निर्माण या पृथक मुस्लिम अस्मिता के संदर्भ में सर सैयद अहमद ख़ाँ, अल्लामा इकबाल और मोहम्मद अली जिन्ना को मुस्लिम मनःश्चेतना का प्रतिनिधि स्थापित करने की तथाकथित ‘राष्ट्रीय-सांस्कृतिक अभियान’ में सक्रिय हैं। इस संदर्भ में यह जानना आवश्यक है कि कर्मेन्दु शिशिर का यह विश्लेषण उस तथाकथित राष्ट्रीय-सांस्कृतिक अभियान की तार्किक आलोचना है, रचनात्मक असहमति है और वाजिब हस्तक्षेप भी।

सवाल यह है कि क्या भारतीय मुस्लिम विचार चेतना को अखण्ड इकाई माना जाय या उसके भीतर विचार-चिंतन की विविध सारणियों का अलग-अलग मूल्यांकन किया जाय। सवाल यह भी है कि भारतीय मुस्लिम अस्मिता के लिहाज से अकेले सर सैयद अहमद को प्रतीक मानना-बनाना या तहरीक-ए-हिजरत को मुस्लिम पृथकतावाद का सीधा उदाहरण मानना क्या वाजिब है? कर्मेन्दु शिशिर सर सैयद अहमद को मुस्लिम अस्मिता का एकमात्र प्रतीक मानकर आधुनिक भारतीय मुस्लिम बौद्धिकता के आकलन के न सिर्फ खिलाफ हैं बल्कि मुस्लिम बौद्धिकता की परस्पर विरोधी विचार-सरणियों को ज्यादा महत्व देते हैं। आज के दौर में सर सैयद अहमद ख़ान या किसी अन्य के बहाने राजनीतिक-सांस्कृतिक दरगाहों का निर्माण और फिर उस पर चादरपोशी न मुस्लिम अस्मिता का मूल्यांकन है, न जातीय सांस्कृतिक इतिहास की पहचान। दरअसल ऐसा करना ‘वर्तमान’ राजनीतिक व्याकरण या सांस्कृतिक ध्रुवीकरण के लिहाज से जरूरी हो सकता है लेकिन अन्ततः यह पद्धति नवजागरणकालीन चेतना की महत्ता और जातीय चेतना की निरंतरता को नुकसान पहुँचाने वाली है और हिन्दू-मुस्लिम संयुक्त राष्ट्रीयता के आख्यान को आहत करने वाली भी। इसलिए तथ्य और सत्य दोनों को तोड़-मरोड़कर व्याख्यायित-विश्लेषित करने का दुराग्रह पालने वाले बौद्धिकों के बरक्श कर्मेन्दु शिशिर ने नवजागरण के संभ्रान्त नायक के रुप में बदरूद्दीन तैयबजी को 19वीं शताब्दी के नवजागरण के संदर्भ में सर सैयद से पर्याप्त असहमति के बाद भी बृहदतर परिप्रेक्ष्य में सर सैयद का पूरक माना है। यह अलग बात है कि दोनों के बीच ‘ठोस मतभेद’ रहे और आजीवन बने रहे लेकिन एक तरफ जहाँ सर सैयद अहमद के यहाँ मुस्लिम पक्षधरता का स्वर मुखर है वहीं दूसरी तरफ बदरूद्दीन तैय्यबजी का स्पष्ट मानना था कि जिन सवालों का सम्बन्ध सभी समुदायों अथवा देश से हो, वहाँ सभी के साथ मिलकर ही काम करना उचित होगा। एक-दूसरे से अलग अथवा विरोधी बनकर रहना ठीक नहीं होगा।

यह ध्यान रखना आवश्यक है कि 19वीं शताब्दी के नवजागरण और मुस्लिम अस्मिता निर्माण की पूरी बहस सर सैयद से शुरू होती है और ‘उनके रफ़का’ के आसपास चक्कर काटती है। दरअसल पूरी बहस सर सैयद अहमद ख़ान और उनके रफ़का की वैचारिकी को अखण्ड विचार चेतना का समूह मानकर होती है जबकि सर सैयद अहमद और उनके समकालीनों के बीच विभिन्न विचार समूहों की संगठित सक्रियता बनी हुई थी। इसलिए विचारणीय यह है कि सर सैयद अहमद ख़ाँ और उनके समकालीन लेखकों - अल्ताफ हुसैन हाली, मौलवी चिराग अली, मौलाना मोहम्मद हुसैन आज़ाद, डिप्टी नजीर अहमद, अल्लामा शिब्ली नोमानी - इन सबका अपना विशिष्ट महत्व है। सबके वैचारिक चिंतन का अपना अलग परिप्रेक्ष्य है। एक के विचार से निकलकर दूसरे के विचार क्षेत्र में प्रवेश करना नवजागरण की अलग-अलग ‘दुनिया’ को जानना-समझना है। कर्मेन्दु शिशिर के विश्लेषण का महत्व इसलिए भी है कि वे आधुनिक भारतीय समाज के मुस्लिम महानायकों की वैचारिक भाव-भूमि, लोकव्याप्ति और कौमी खुशहाली की आकांक्षा को अलग-अलग सुनते-समझते हैं बल्कि आज के संदर्भ में ‘महानायकों’ की वैचारिक चिंताओं को अलग-अलग सुनने-समझने की सार्थक तमीज विकसित करते हैं। कर्मेन्दु शिशिर ने अल्ताफ हुसैन हाली के मार्फत आधुनिक मुस्लिम मनोलोक के भीतर की कसमकश और रचनात्मक उत्साह को उकेरने की कोशिश करते हैं क्योंकि हाली अपने दौर से अलग बहुत आगे की बात कर रहे थे :


‘‘हिन्द में इत्तफाक होता अगर, खाते गैरों की ठोकरें क्योंकर
कौम जब इत्तफाक खो बैठी, अपनी पूंजी से हाथ धो बैठी’

एक का एक हो गया बदख़्वाह, लगी गैरों की तुम पर पड़ने निगाह
फिर गये भाइयों से जब भाई, जो न आयी थी वो बला आयी

पाँव इकबाल के उखड़ने लगे, मुल्क पर सबके हाथ पड़ने लगे
कभी नादिर ने कत्लेआम किया, कभी महमूद ने गुलाम किया

मुल्क रौंदे गये हैं पैरों से, चैन किसको मिला हैं गैरों से।’’


कर्मेन्दु जी ने सही लिखा है कि ‘‘हाली को न दुविधा है न कोई हिचक। एकता के अभाव में हम सर्वस्व हार गये... वे सर सैयद अहमद की तरह विदेशी सत्ता को वरदान नहीं मानते। उनकी शरणस्थली नहीं तलाशते। वे तो उसे बला मानते हैं। भारत-पाकिस्तान के विभाजन के वक्त नादिर और मुहम्मद गजनी की तारीफ में कशीदे पढ़ने वालों के खिलाफ हाली उनकी भर्त्सना करते हैं... ये अंग्रेज ग़ैर हैं, इनसे सुख नहीं मिल सकता, ये शांति नहीं ला सकते।’’[29]  सर सैयद के साथ रहते हुए भी हाली सर सैयद अहमद से अलग हैं और आगे बढ़े हुए भी। जिस कौम को झकझोर कर सर सैयद ने जगाया था, हाली ने उसमें नयी जागरूकता और जोश पैदा किया और ‘मुसद्दस-ए-हाली’ के माध्यम से एक ऐसी लहर पैदा कर दी कि लोक इसे चौक-चौपाल में ढोल-मंजीरे के साथ गाने लगे। यह अलग बात है कि ‘मुसद्दस’ की रचना सर सैयद अहमद के आग्रह पर हुई लेकिन हाली पूरी तरह सैयद अहमद के हमजबान न थे। उन्होंने स्वयं स्वीकार किया है कि ‘‘मैं न कभी पहले उनका हमजबान हुआ और न अब हूँ और उम्मीद है कि आगे को भी न हूँगा।’’[30]  हालांकि हाली और सर सैयद अहमद के बीच का आत्मीय रिश्ता काफी मशहूर है और तत्कालीन उर्दू के दिग्गजों के लिए परेशानी का शबब भी। सज्जाद हुसैन का हाली के बारे में प्रसिद्ध शेर है : ‘सैयद सरगुजिश्त को हाली से पूछिये/गाजी मियाँ का हाल उफाली से पूछिये।’ उन पर यह आरोप लगता रहा है कि वे सर सैयद अहमद ख़ाँ के विचारों के अन्धसमर्थक थे लेकिन कर्मेन्दु शिशिर ने उनकी रचनाओं, कारनामों और जिन्दगी के पहलुओं का बारीक विश्लेषण करते हुए बहुत स्पष्टता से कहा है कि
‘‘सर सैयद यूरोप को इस्लाम से श्रेष्ठ समझते थे। इसलिए वे चाहते थे कि हाली इस्लाम का ऐसा रूप सामने लाये, जो यूरोप की कसौटी पर खरा उतरे। लेकिन हाली बिना मुखर प्रतिवाद किये इस्लाम को इस्लाम की कसौटी पर रखकर ही उसकी श्रेष्ठता सिद्ध करने के पक्षधर थे... वे मौजूदा पस्ती, निराशा और पतन से उबारकर इस्लाम की महान विरासत की पुनर्प्रतिष्ठा चाहते थे... वे इस्लाम और मुस्लिम कौम की तत्कालीन दुर्दशा से आहत थे... उनके भीतर गहरी पीड़ा है, सघन दुःख है और उसे बदलने की ईमानदार छटपटाहट भी है।’’[31]  
और इस तरह हाली न परम्परा के प्रति आग्रही थे, न नासमझी में नये जमाने के प्रति उत्साही। वे हर हाल में मुस्लिम कौम को सचेत और जागरूक करने के हिमायती थे।

                                         
 अपने साहित्यिक मित्रों के साथ कर्मेन्दु जी 

भारतीय उपमहाद्वीप में हिन्दू-मुस्लिम चेतना के बीच वर्चस्व-विरोध की थीसिस का जो प्रारूप 19वीं शताब्दी में तैयार हुआ, उसमें मोहम्मडन एंग्लो ओरियेंटल कालेज के प्रिंसिपल आर्चबोल्ड, हैदराबाद निजाम के विश्वस्त बिलग्रामी और भारतंत्री मार्ले-जैसे बहुत सारे किरदार जुड़ते जा रहे थे। इन संदर्भों को जाने-समझे बिना मुस्लिम मानस की वैचारिक अन्तर्कथा को जानना नामुमकिन है। यह गौर करने वाली बात है कि सर सैयद अहमद ख़ाँ के प्रभामण्डल में पले बढ़े बहुत से ऐसे मुस्लिम बौद्धिक आगे आये जिन्होंने परम्परागत उलेमा के पूर्वग्रहों और अवरोधों को नजरअंदाज किया साथ ही साम्प्रदायिक विभेद की ब्रिटिश दुरभिसंधि को समझते हुए संयुक्त राष्ट्रीयता की पुरजोर वकालत की। अल्लामा शिब्ली नोमानी इस चेतना की महत्वपूर्ण कड़ी थे। दरअसल शिब्ली नोमानी के नकलनवीस से उल्लामा बनने तक में सर सैयद की महत्वपूर्ण भूमिका है और उन्होंने खुद इसे स्वीकार भी किया है बल्कि उन अहसानों के लिए वे जीवनभर सर सैयद के प्रति कृतज्ञ रहे। पर इस हद दर्जे की कृतज्ञता के बाद भी नवजागरण के आसंग में उन्होंने अपना अलग रास्ता चुना और अपनी वैचारिक निष्ठा से कभी रत्ती भर भी नहीं लचे। उन्होंने सर सैयद के सामने ही सन् 1892 में अलीगढ़ की एक सभा में लोकतंत्र की पुरजोर वकालत की, जो सर सैयद की वैचारिक लाइन का खुला विरोध था। उस सभा में सर सैयद बैठे थे लेकिन उन्होंने किसी तरह का त्वरित कोई प्रतिवाद नहीं किया बल्कि उसके बाद लोकतंत्र के विरोध में लेख लिखा और उसे प्रकाशित करा दिया। इस प्रसंग में कर्मेन्दु जी का आकलन बेहद महत्वपूर्ण और आज की वैचारिक असहिष्णुता की आंधी में ठहरकर विचारने का मौका देता है :
‘‘यह एक विडम्बना ही है कि लोकतंत्र के प्रति वैचारिक विरोध के बावजूद सर सैयद साहब अपने आचरण में लोकतांत्रिक रहे। बिना ऊँचे मानसिक क्षितिज के आप युग में इंकलाब नहीं ला सकते। न सिर्फ इतना ही, बल्कि 1887 में लखनऊ में सैयद साहब ने जो तकरीर की थी, उसमें मुसलमानों को कांग्रेस से दूर रहने की अपील भी थी... शिब्ली नोमानी ने इसका बेहिचक विरोध किया। वे इस सोच के दूसरे छोर पर खड़े थे। वे खुलेआम कहते कि मुसलमानों को कांग्रेस में शामिल होकर हिन्दू कौम के साथ मिलकर राजनीतिक और आर्थिक प्रगति के लिए काम करना चाहिए।’’[32]  
इसलिए नवजागरण के महानायकों के बारे में सम्पूर्णता में जाने बिना आधुनिक भारतीय समाज के बारे में मुस्लिम चेतना की एकरूपतावाली बनायी गयी सरलीकृत छवि गलत ही नहीं, आपत्तिजनक भी है।

यह सही है कि भारतीय नवजागरण में मुस्लिम समाज के भीतर जागृति के बड़े प्रतीक सर सैयद अहमद ख़ाँ हैं इसलिए अलीगढ़ तहरीक के जरिये उनकी आधुनिकता, विवेकशीलता और ब्रिटिश हुकूमत की पक्षधरता पर सार्थक संदर्भ-चर्चा आवश्यक है। पर यह चर्चा सर सैयद अहमद को केन्द्र में रखकर होती है और अलीगढ़ तहरीक को ही भारतीय मुस्लिम चेतना का मिथ मान लिया जाता है (वैसे अलीगढ़ तहरीक के भीतर भी पर्याप्त विचार विविधता है और तीव्र वैचारिक अन्तर्विरोध भी) जबकि भारतीय समाज में मुस्लिम नवोत्थान की दृष्टि से शाह वलीउल्लाह देहलवी (1703-1763) पहले महत्वपूर्ण विचारक हैं। शाह वलीउल्लाह ने अपने दौर के धर्म चिंतकों को ललकारते हुए कहा था कि
‘‘मैं आध्यात्म गुरूओं से पूछता हूँ, जिन्होंने पात्रता के बिना ही उनकी गद्दी पर कब्जा जमा लिया है। आपने अपने मज़हब को अपने पूर्वग्रहों और सनक का खिलौना क्यों बना लिया है और आप सबने उस जीवन को क्यों त्याग दिया है जिसका फरमान और शिक्षा अल्लाह ने अपने रसूल मोहम्मद (खुदा उन्हें सुकून बख़्शे) के माध्यम से दी थी।’’[33]  
शाह वलीउल्लाह भारत में इस्लाम की उदारतापूर्ण व्याख्या के समर्थक थे। उन्होंने इस्लामी सिद्धान्तों की तर्कसंगत व्याख्या की वकालत करते हुए कहा कि ‘‘समय आ गया है कि शरिया के प्रत्येक आदेश और इस्लाम के प्रत्येक नियम को संसार के सामने तर्कसंगत रूप से प्रस्तुत किया जाय... शरिया को सूत्रबद्ध करते समय उसे अपने समकालीन समाज में प्रचलित नियमों और प्रथाओं, लोगों की सामान्य रूचियों और उनकी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को भी ध्यान में रखना चाहिए।’’ सवाल यह है कि क्या आज भी इस्लाम पर बात करते हुए समकालीन समाज और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि का विश्लेषण उलेमा समाज में स्वीकृत हो पाया है? शाह वलीउल्लाह देहलवी का महत्व इसलिए भी है कि देवबंद तहरीक और अलीगढ़ तहरीक दोनों की जड़ें शाह वलीउल्लाह की तहरीक में हैं। शाह वलीउल्लाह की विचार चेतना से तालीमी तरक्की और कौमी खुशहाली का सवाल अलीगढ़ ने चुना और राष्ट्रीय जागरण और विद्रोह की क्रांतिकारी चेतना का विकास देवबंद तहरीक और जमालुद्दीन अफगानी (1838-1897 ई.) ने किया। मुस्लिम नवजागरण के व्यापक संदर्भ में सर सैयद अहमद ख़ाँ और जमालुद्दीन अफगानी की परस्पर भिन्न धाराओं के मतभेदों और अन्तर्विरोधों के आसंग में शिब्ली नोमानी दोनों को जोड़ने वाले महत्वपूर्ण कड़ी हैं। उनके महत्व के संदर्भ में यह पृष्ठभूमि जानना आवश्यक है कि
‘‘1886 से 1893 तक सैयद अहमद की पुरजोर कोशिशों के बावजूद कांग्रेस अधिवेशनों में मुस्लिम प्रतिनिधियों की संख्या लगातार बढ़ती गई थी... उनके पत्रों, व्याख्यानों के अलावा अलीगढ़ काॅलेज में भी कुछ ऐसा हो रहा था, जिसमें बात मुसलमानों के कांग्रेस से दूर रहने से आगे निकल गई थी। 1902 में अहमदाबाद अधिवेशन के बाद तो मुस्लिम प्रतिनिधियों को रोकने में स्पष्ट सफलता मिलने लगी थी। इसमें सबसे प्रमुख किरदार आगा ख़ाँ साहब निभा रहे थे, जिन्हें मौलाना शिब्ली सख़्त नापसन्द करते थे। सर सैयद अहमद के इन्तकाल के बाद अलीगढ़ काॅलेज के सेक्रेटरी नवाब मोहसिन-उल-मुल्क अंग्रेजों के सबसे विश्वस्त की भूमिका में थे ... 1905 को हुए बंग-भंग ने हिन्दू-मुस्लिम समुदाय को साफ-साफ दो खेमों में बाँट दिया था। इतिहास में अमूमन यह बात जिस सरलीकृत तरीके से लिखी जाती है, यथार्थ उससे अलग था... असल बात यह थी कि अंग्रेजों के ब्लूप्रिंट में बंग-भंग एक अहम एजेण्डा था और वे जैसा चाहते थे, उनके समर्थक उसे उसी रूप में प्रचारित कर रहे थे... इसमें मध्यस्थ की भूमिका अलीगढ़ काॅलेज के प्राचार्य आर्चबोल्ड निभा रहे थे।’’[34]  
चूँकि मौलाना शिब्ली नोमानी अलीगढ़ प्रवास के दिनों से ही वहाँ हो रही गतिविधियों से वाकिफ थे। इसलिए आगा खाँ के नेतृत्व में शिमला प्रतिनिधिमण्डल को उन्होंने ‘साम्प्रदायिक मंच पर आयोजित किया जाने वाला सबसे बड़ा प्रदर्शन’ कहा। उनका स्पष्ट मानना था कि ‘मुस्लिम लीग निहित स्वार्थों और अंग्रेज पिछलग्गुओं की पार्टी है, जिसका मुस्लिम जनता से कोई लेना-देना नहीं है।’ राष्ट्रीय चेतना और अंग्रेजी राज विरोधी बौद्धिक चेतना के अतिरिक्त अल्लामा शिब्ली नोमानी का महत्व उनके विस्तृत और वैविध्यपूर्ण ज्ञान के कारण भी हैं। वे इतिहास, जीवनी, आलोचना और शायरी के अतिरिक्त नवजागरण की ज्ञानराशि का विस्तार करते हैं, औपनिवेशिक बौद्धिक गुलामी के बरक्श अपनी समृद्ध विरासत को रेखांकित करते हैं; धार्मिक- सांस्कृतिक भ्रांतियों का निराकरण करते हैं और इस तरह अन्ततः नवजागरण की ज्ञान साधना के मार्गदर्शक-संरक्षक हैं।

कर्मेन्दु शिशिर ने ‘भारतीय मुसलमान’ की अन्तश्चेतना को आधुनिक भारत के इतिहास के संदर्भ में शाह वलीउल्लाह से लेकर मौलाना अबुल कलाम आज़ाद तक मुस्लिम नवजागरण का विस्तृत विश्लेषण करते हुए नवजागरण में सक्रिय महानायकों के महत्व का बयान भर नहीं किया है बल्कि मुस्लिम बौद्धिकता के भीतर सक्रिय विचारों, मुद्दों, उपलब्धियों और सीमाओं का बहुत बारीकी से विश्लेषण किया है - उन महानायकों की उपलब्धियाँ और सीमाएँ न सिर्फ उनकी बल्कि 19वीं सदी के नवजागरण की उपलब्धियाँ और सीमाएँ भी हैं। भारतीय नवजागरण और स्वाधीनता संग्राम के आसंग में राष्ट्रवाद पर विचार करते हुए यह ध्यान रखने योग्य है कि भले ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस धार्मिक पहचानों से इनकार करती थी और धर्मनिरपेक्ष दिशा का दावा करती थी लेकिन एक तरफ बालगंगाधर तिलक, मदनमोहन मालवीय, अरविन्द घोष तथा लाला लाजपत राय जैसे लोग धार्मिक प्रतीकों, ऐतिहासिक मिथकों तथा हिन्दू प्रतीकों का राजनीतिक इस्तेमाल कर रहे थे तो दूसरी तरफ ‘मुसलमानों को ब्रिटिश राज के प्रति वफादार होना चाहिए और स्वतंत्रता आन्दोलन से दूर रहना चाहिए’- सर सैयद अहमद ख़ा की यह राजनीतिक लाइन धीरे-धीरे मुस्लिम समुदाय में प्रभावकारी होने लगी थी।

लेकिन भारतीय समाज में मुस्लिम मनःस्थिति और राजनीतिक चेतना की विकास-यात्रा को समझने के लिए इस पर विचार करना आवश्यक है कि कैसे हिन्दुओं और मुसलमानों को ‘एक खूबसूरत दुल्हन की दो आँखें’ कहने वाले सर सैयद अहमद ख़ाँ आगे चलकर पृथक मुस्लिम हितों की वकालत करने लगे और इस परम्परा का अगला पड़ाव अल्लामा इकबाल की ‘हिन्दुस्तान के अन्दर एक मुसलमान हिन्दुस्तान’ - जैसी प्रस्ताव निष्पतियों के रुप में दिखलाई पड़ता है। इस संदर्भ में अबुल कलाम आजाद, सैफुद्दीन किचलू, मोहम्मद अली और हसरत मोहानी के माध्यम से कर्मेन्दु शिशिर ने धर्मनिरपेक्ष संयुक्त राष्ट्रीयता के परम्परा-प्रस्थान को खोजने की कोशिश भी की है। यह अकारण नहीं है कि मुस्लिम नवजागरण के विस्तृत परिदृश्य में अल्लामा इकबाल : ‘अपने समय के रहनुमा’; मौलाना मज़हरूल हक : ‘राजनीतिक फकीर’ हैं; हकीम अजमल खाँ : ‘नवजागरण के कोहिनूर’ हैं तो धर्म से राजसत्ता को निरपेक्ष मानने वाले विलक्षण योद्धा ओबैदुल्ला सिन्धी भी हैं और ‘उर्दू-ए-मुअल्ला’ के आजादख़याल सम्पादक हसरत मोहानी भी।

कर्मेन्दु शिशिर ने मुस्लिम कौम के भीतर परम्परा और आधुनिकता, पिछड़ापन और सुधारवाद तथा जड़ता और गतिशीलता के द्वन्द्व के प्रति वस्तुपरक नजरिये से मुस्लिम बौद्धिक मानस के भीतर सामाजिक-राजनीतिक जागरूकता के साथ-साथ नये भारत की पुनर्रचना की आकांक्षा देखते हैं। यह मानते हुए कि ‘इकबाल की बौद्धिकता असाधारण थी’; वे धर्म की तत्त्व-मीमांसा के गहरे जानकार थे और ज्ञान की विविध उपलब्धियों का इस्लाम में संश्लेष कर रहे थे। लेकिन लेखक का जोर इस बात पर अधिक है कि इकबाल के दर्शन और विचारों में परस्पर विरोधी धाराएँ हैं... वे बेशक यूरोप की वैज्ञानिक प्रगति चिन्तन परम्परा और आधुनिक युग की तमाम समस्याओं को बखूबी समझते थे, लेकिन उनके पास एक ही समाधान था- ‘इस्लाम और कुरान’ और अन्ततः तमाम आधुनिकता, बौद्धिकता के बावजूद इकबाल का विश्वास इस्लाम के पुनरुत्थान पर था। यह अकारण नहीं है कि ‘राम’ को इमाम-उल-हिन्द कहने वाला कवि बाद में औरंगजेब की तारीफ में लिखने लगा और अकबर की आलोचना करते हुए औरंगजेब को ‘हिन्दुस्तान के बुतखाने का इब्राहीम’ कहा। डाॅ0 ताराचन्द ने सही कहा है कि इकबाल की इस्लाम के प्रति सराहना और अन्य संस्कृतियों को हीन बताने की प्रवृत्ति आर्य नीति और संस्कृति को सर्वश्रेष्ठ बताने की नाजी पद्धति के खतरनाक ढंग से समीप थी।

कर्मेन्दु शिशिर ने मुस्लिम राष्ट्रीयता के प्रस्तावक अल्लामा इकबाल की प्रेमिका अतिया फैज़ी (जिनके साथ बिना निकाह वे लंदन और जर्मनी में साथ रहे लेकिन कभी शादी नहीं की) का एक कथन उद्धृत किया है : ‘इकबाल भारत में वही नहीं हैं जो वे यूरोप में थे। यहाँ उनकी काबिलियत कम और संकुचित हो गयी’। आगे उन्होंने इकबाल के अन्दरूनी मानस का आकलन करते हुए - पाकिस्तान का विचार, इस्लाम का आग्रह और मुसलमानों की एकाग्र पक्षधरता के बाद भी - उनके अन्दर तरल, निष्पाप और एक किस्म की आध्यात्मिकता से भरे इन्सान को देखा है लेकिन अल्लामा इकबाल को लेकर सबसे बड़ी शिकायत उनके यूरोप से लौटने पर आये राष्ट्रीय सोच को लेकर रही है। जो शख्स आज़ादी के आन्दोलन की आवाज इतनी बुलन्दियों से उठाता रहा, वह सिर्फ मुस्लिम तक क्यों सिमट गया? वह भी इस हद तक कि भारत-पाक विभाजन का पूर्व प्रमुख शिल्पकार तक बन गया... इस मामले में यह बात सबसे अधिक आश्चर्य में डालती है कि पश्चिमी शिक्षा में पले-बढ़े अल्लामा इकबाल इस कदर इस्लाम के प्रति मूलतत्ववादी बन गये थे कि स्त्रियों को लेकर भी उनके विचार दकियानूसी हो गये थे। उनके अनुसार स्त्रियों को इबादत, पति की सेवा और उसके आदेशों का पालन करते हुए घर के सारे कार्य करने की जिम्मेदारी उठानी चाहिए। उनका कहना था कि प्रकृति ने ही स्त्री-पुरुष में अंतर किया है। यह एक किस्म का भयावह विचार था। एक कविता में वे लिखते हैं : ‘‘जोहर-ए-मर्द अयाँ होता है बेमिन्नते गैर/मर्द की जाँ से है जौहर-ए-औरत का नमूद/न परदा न तालीम नयी हो कि पुरानी/ निसवा नियते जन का निगहबाँ है फक्त मर्द।’’[35]

बावजूद इसके दार्शनिक वीथियों में भटकने और निरंतर बौद्धिक जद्दोजहद से जूझते रहने वाले इकबाल को आज भी भारत-पाकिस्तान की बड़ी मुस्लिम बौद्धिक जमात में क्लासिक-सा दर्जा हासिल है क्योंकि ‘‘इकबाल (1876-1938) आधुनिक इस्लामी जगत का वह एकमात्र दार्शनिक है जिसने इस्लाम तथा इस्लामी संस्कृति के वैचारिक आधारों को अपने चिंतन का विषय बनाया है। इकबाल की धारणा में धर्म मानवीय अनुभूति का एक जैविक तथ्य है जिसका उद्देश्य मनुष्य के आन्तरिक एवं बाह्य जीवन का रूपान्तरण एवं मार्गदर्शन है।... इकबाल द्वारा इस्लामी चिंतन की पुनर्रचना में धार्मिक अनुभूति मूलधारात्मक है।’’[36]  अल्लामा इकबाल के प्रति जबर्दस्त अंधभक्ति रखने वाले कुछ लोग तो उनकी धर्म दृष्टि से इतने अभिभूत हैं कि उनके गैर-मुस्लिम समकालीनों - रवीन्द्रनाथ टैगोर, अरविन्द घोष और जवाहरलाल नेहरू पर संकीर्णता का आरोप लगाते हैं और द्विराष्ट्रवादी विचार के लिए जिम्मेदार मानते हुए सर सैयद अहमद ख़ाँ, मोहम्मद अली जिन्ना और अल्लामा इकबाल को पूरी तरह क्लीन चिट दे देते हैं। राष्ट्रीय-सांस्कृतिक अतीत के प्रति यह गैर-आलोचनात्मक रवैया नवजागरण सम्बन्धी अध्ययन के लिए अत्यन्त घातक है। स्वयं नवजागरणकालीन समाज के भीतर एक गहरी आलोचनात्मक चेतना व्याप्त है। कर्मेन्दु शिशिर ने इकबाल के विरुद्ध हसरत मोहानी की तीखी टिप्पणी का उल्लेख कर नवजागरण की वैचारिक आलोचनात्मकता को ही स्पष्ट किया है। जब साइमन कमीशन का देशभर में जबरदस्त विरोध चल रहा था तब इकबाल ने 1930 में उसके सामने गवाही देकर उसे वैधता प्रदान की। इस प्रसंग में बुरी तरह नाराज हसरत मोहानी ने इकबाल पर तीखी टिप्पणी की थी :

‘माँगकर अहबाब से रजअत-पसन्दी की कुदाल
कब्र आजादी की खोदी किसने? सर इकबाल ने। 

काट  ली  पंजाब  की  नाक  आप  अपने हाथ से
 आबरू मिल्लत की खोदी किसने? सर इकबाल ने।’

यहाँ यह देखना दिलचस्प है कि इस तरह की वैचारिक लड़ाई अलीगढ़ आन्दोलन से जुड़े लोगों के भीतर भी चल रही थी। यह सही है कि अलीगढ़ से सम्बद्ध सभी छात्र सर सैयद के प्रभामण्डल से प्रभावित थे लेकिन अंग्रेजी राज के प्रति निष्ठा के सवाल पर सर सैयद की वैचारिक लाइन से अपना विरोध भी रखते थे। यही कारण है कि सर सैयद के मेरठ वाले भाषण की तारीफ बहुतेरे अलीगढ़ी छात्रों ने नहीं की। अलीगढ़ के एक ग्रेजुएट इनायतुल्ला के मुताबिक तो मेरठ के भाषण में जबर्दस्त ‘चापलूसी की बू’ और ‘एडवोकेट’[37]  अखबार से सम्बद्ध कैम्ब्रिज के ग्रेजुएट रफ़ीक ने तो साफ-साफ लिखा कि : ‘‘पहली नज़र में एकताबद्ध भारत की संभावना काल्पनिक और अव्यवहारिक लग सकती है। लेकिन यह ऐसा आदर्श है जिसके लिए कोशिश करनी चाहिए।’’[38]  इतना ही नहीं मीर मुहम्मद हुसैन ने तो अप्रैल 1988 में थियोडोर बेक के सामने स्पष्टता से कह दिया था कि : ‘‘जब तक आप मुझसे सिर्फ मुसलमानों के हित की बात करेंगे, मैं नहीं सुनूंगा। मैं केवल देशहित की परवाह करता हूँ और देश से मेरा अर्थ उन 90 फीसदी गरीब किसानों से है, जो खस्ताहाल हैं। अगर आप हिन्दुओं और मुसलमानों के बच बैर भाव पैदा करेंगे तो देश को बर्बाद कर देंगे।’’[39]  इस संदर्भ में ‘विकल्प की तलाश’ पर विचार करते हुए प्रो0 मुशरूल हसन ने सही लिखा है कि
‘‘पंजाब में रौलट सत्याग्रह के नायक सैफुद्दीन किचलू, सैय्यद अहमद, अब्दुल माजिद ख़्वाजा और तसद्दुक अहमद शेरवानी आदि कैम्ब्रिज में जवाहरलाल नेहरू के समकालीन थे। ये सभी व्यापक दृष्टिकोण और उदारवादी चेतना लेकर भारत लौटे थे। वे कांग्रेस आन्दोलन के साथ रहकर ही प्रसिद्धि की ऊँचाई पर पहुँचे और शायद ही कभी साम्प्रदायिकता के मोहक जाल में फँसे। इसके अलावा अन्य लोग भी थे - अली बंधु, जफर अली खान, शोएब कुरैशी, खलीकुज़्जमाँ, अब्दुलर्रहमान सिद्दकी, राजा गुलाम हुसैन, विलायत अली और हसरत मोहानी - जो सभी अलीगढ़ कालेज से पढ़े थे। फिर मोहम्मद अली जिन्ना भी थे जो 1940 के दशक में मुस्लिम लीग के अभियान की अगुवाई करने के पहले पूरी तरह उदारपंथी राष्ट्रवादी के बतौर राजनीति में आये और भारत लौटने पर जल्दी ही कांग्रेस में शामिल हो गये।’’[40]  
और इस तरह भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में अलीगढ़ के कुछ बेहतरीन छात्र मुहम्मद अली, हसरत मोहानी, जफर अली खान, शौकत अली, राजा गुलाम हुसैन, गुलाम मुस्सकलैन और विलायत अली बम्बूक राजनीति में नई ऊर्जा, उत्साह, मानसिकता और नई शैली के साथ नई वैचारिकी का निर्माण कर रहे थे। इसलिए सर सैयद अहमद खाँ की विचार चेतना के समानान्तर कर्मेन्दु शिशिर ने मौलाना मोहम्मद अली, सफुद्दीन किचलू और हसरत मोहानी के माध्यम से सार्थक विकल्प और राष्ट्रीय संदर्भ को समझने-समझाने की कोशिश की है।
कर्मेन्दु जी ने मोहम्मद अली के माध्यम से हिन्दू-मुस्लिम एकता की अनोखी मिसाल के दर्जनों प्रसंग बयान किया हैं लेकिन उसके साथ ही भारतीय राजनीति में साम्प्रदायिक चेतना के विस्तार की कहानी भी बयान की है। उनके शब्दों में
‘‘मोहम्मद अली हर मसले को तार्किक नजरिये से विश्लेषित करते हैं और पूरी निर्भीकता से रखते थे। मोहम्मद अली अपनी सोच में किसी अतिवाद के शिकार नही थे ... उन्होंने कलकत्ता से अपनी अंग्रेजी साप्ताहिक पत्रिका ‘कामरेड’ निकालनी शुरू की। उसका आदर्शवाक्य रखा - ‘सीधे खड़ा होना, सीधी बात करना, सच्चाई बताना, दिलेरी से हर कहीं अपनी बात रखना।’ यह मोटो दरअसल उनकी पत्रिका का ही नहीं, बल्कि इसमें उनके स्वभाव और व्यक्तित्व की भी अभिव्यक्ति थी।’’[41]  
एक राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में विशाल भीड़ को सम्मोहित करने वाले मोहम्मद अली, ‘मैं जेल से आया हूँ- वापसी का टिकट साथ लेकर’ इस नारे से बलिदान का जज़्बा भर रहे थे और गांधी जी के प्रति असीम श्रद्धा में मोहम्मद अली ने यहाँ तक कहा कि - ‘मैं यह जानता हूँ कि रसूल (मुहम्मद साहब) के बाद मुझपर गांधीजी का आदेश मानना फर्ज है’ लेकिन वही मुहम्मद अली बाद में यह कहने लगे कि - ‘गांधी सात करोड़ मुसलमानों को हिन्दू महासभा का गुलाम बनाना चाहते हैं।’ यह वही दौर हैं, जब प्रतिक्रियावादी लोग न सिर्फ सक्रिय हो रहे थे बल्कि शुद्धि आन्दोलन और गोरक्षा के बहाने आज के अंधराष्ट्रवाद की बुनियाद रख रहे थे। कर्मेन्दु शिशिर ने राजमोहन गांधी के हवाले से यहाँ असल सवाल उठाया है : ‘‘गाय का सवाल उनके छद्म राष्ट्रवाद की असलियत को दिखाने के लिए सबसे बेहतरीन है, क्योंकि राष्ट्रवाद के नाम पर वे अपने देशवासियों से इतनी बेतुकी माँगे करते हैं जैसी दुनिया में किसी और देश या राष्ट्र में कभी सुनी नहीं गयीं और यही समय है जब उनका राष्ट्रवाद पूरी तरह से नंगा हो जाता है।’’ आज सौ साल बाद भी अपने देशवासियों से बेतुकी मांगें करने वाला ‘राष्ट्रवाद’ अचानक उठ खड़ा हुआ है और बहुत संस्थागत ढंग से आगे बढ़ रहा है। इसलिए यह समय इतिहास से सीखने-समझने और इतिहास को पुनर्विश्लेषित करने का भी है।

नवजागरण के इस विमर्श में कर्मेन्दु शिशिर ने मौलाना मजहरूल हक़, हकीम अजमल ख़ाँ, हसरत मोहानी तथा सैफुद्दीन किचलू के माध्यम से मुस्लिम नवजागरण के भीतर त्याग, समर्पण, निर्भीकता और प्रगतिशील शक्तियों की वकालत करने वाली परम्परा को स्थापित करने की कोशिश की है। मुस्लिम नवजागरण की इस बहुरंगी परम्परा में ब्रिटिश ठाठ-बाट और राजसी दबदबे वाले मौलाना मजहरूल हक का सादगी स्वीकार करना ऐतिहासिक परिस्थिति और मानसिकता बदलाव के साथ-साथ राष्ट्रीय आन्दोलन में त्याग का श्रेष्ठ उदाहरण है; वे सच्चे अर्थों में ‘राजनीतिक फ़कीर’ हैं।

हकीम अज़मल खाँ नवजागरण के उस संकल्प चेतना के वारिस थे जिसमें राष्ट्रीय चेतना के साथ-साथ देशज ज्ञान पद्धति के आधुनिकीकरण की भी हिमायत करना था। चिकित्सा के क्षेत्र में अरब-यूनानी और भारतीय आयुर्वेदिक पद्धति को स्थापित करने की उनकी लड़ाई दोहरी थी। अज़मल खाँ देशी चिकित्सा पद्धति को बचाने और राजनीतिक तरक्की हासिल करने की लड़ाई एक साथ लड़ रहे थे। अलीगढ़ का तिब्बिया काॅलेज उनकी कीर्ति का स्तम्भ है। सामान्य स्त्री शिक्षा से आगे बढ़कर वे चिकित्सा क्षेत्र में भी स्त्रियों को लाने की कोशिश कर रहे थे। भारतीय चिकित्सा पद्धति और यूरोप की आधुनिक चिकित्सा पद्धति के बीच न सिर्फ बेहतर तालमेल के लिए संकल्पबद्ध थे बल्कि उसी उत्साह से हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए भी तत्पर रहे। कार्मेन्दु शिशिर ने ठीक ही उन्हें ‘भारतीय नवजागरण का कोहिनूर’ कहा है।

मुस्लिम नवजागरण की इस परम्परा में हसरत मोहानी भी हैं, जो इस्लामी उसूलों के प्रति दृढ़ लेकिन विचारों में इतने आजादख्याल कि किसी तरह की संकीर्णता को पास फटकने नही दिया। वह उर्दू साहित्य में प्राचीन और नवीन साहित्य धारा को मिलाने वाले शायर थे और उर्दू गद्य में राजनीतिक संग्राम की संघर्ष चेतना भरने वाले विलक्षण शैलीकार भी। वे सर सैयद अहमद के अलीगढ़ काॅलेज से ही निकले थे मगर ब्रिटिश हुकूमत के प्रति वफादारी वाली सोच के खिलाफ थे। ‘उर्दू-ए-मुअल्ला’ (1903 ई.) के माध्यम से उन्होंने न सिर्फ मुस्लिम कौम के अवसरवादी रवैये पर चोट की बल्कि ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध जनगोलबन्दी की अपील करते हुए यह कहने का साहस रखते थे कि ‘‘अगर आप हिन्दुओं से अच्छा सलूक चाहते हैं, तो आप भी उनसे अच्छा सलूक कीजिए। ये नहीं कि इन सारे अख़बारात में जो खास इस्लामी जोश के नमूने और इस्लामी प्रेस के तारा व सितारा समझे जाते हैं हर वक्त और हर मौका पर हिन्दुओं को गालियाँ दी जावें। पालिटिकल एजीटेशन को बुरा कहकर और गवर्नमेंट से हर मौका पर हिन्दुओं को बागीे, नमकहलाल बतलाकर अपना रसूख जतलावा जावे और हिन्दुओं से उम्मीद की जावे कि वे बावजूद इन बातों के हमको कौंसिल की मेम्बरी के लिए मुन्तखब कर देंगे।’’ हसरत मोहानी बाल गंगाधर तिलक के अनुयायी थे, गांधीवाद के आलोचक भी थे लेकिन उनके विचारों की स्वाभाविक परिणति कम्यूनिस्ट पार्टी भी संगठनात्मक भागीदारी में हुई :

‘दुश्मन के मिटाने से मिटा हूँ न मिटूंगा
आज यूँ तो मैं फानी हूँ फना मेरे लिए है

लाज़िम है कि हो हिन्द में आईन-ए-सोवियत
दो-चार बरस में हो कि दस-बीस बरस में।’

1921 के अहमदाबाद कांग्रेस अधिवेशन में ‘पूर्ण स्वाधीनता’ का प्रस्ताव पेश करने वाले हसरत मोहानी परम्परागत अर्थ में साम्यवादी नहीं थे। कर्मेन्दु शिशिर ने उन्हें नवजागरण का आज़ादख्याल नायक  कहा है, जिसकी उम्मीद इन्कलाब में थी। स्वयं हसरत के शब्दों में ‘‘मैं न तो कम्यूनिस्ट हूँ, न सोशलिस्ट। मेरा प्रोग्राम एशिया से अंग्रेजों को बाहर खदेड़ना है। यूरोपीय सरमायादारी का मैं बेहतरीन दुश्मन हूँ जिसके सच्चे प्रतिनिधि अंग्रेज हैं। इस बात में मुझे कम्युनिस्टों से सहमती है और हम सब एक दूसरे के सहयोगी हैं।’’ कर्मेन्दु शिशिर मुस्लिम नवजागरण की इस विमर्श-यात्रा में राष्ट्रीय विरासत के रोशन ख्याल लोगों से मिलवाते हैं, जिनके सहारे आज की सामाजिक-राजनीतिक विचारों की तंग अंधेरी गलियों से निकलने की रोशनी मिलती है।

ऐसे ही दुर्लभ और ओझल नायक हैं - डाॅ. सैफुद्दीन किचलू। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में हिन्दू-मुस्लिम एकता की दुर्लभ मिसालें बहुतों ने पेश की लेकिन उन सबके बीच सैफुद्दीन किचलू विलक्षण थे। वे तिलक के कट्टर समर्थक थे, गांधी की नीतियों से असहमत लेकिन उनके पक्के मुरीद भी थे। अपनी तमाम वैचारिक असहमतियों के बावजूद मुहम्मद अली जिन्ना के जिगरी दोस्त और पंडित नेहरू के अन्तरंग साथी भी थे। कर्मेन्दु शिशिर ने सही लिखा है कि
‘‘इस आदमी के व्यक्तित्व में वाकई जादूई चमत्कार था। मुस्लिम लीग और कांग्रेस की दोहरी सदस्यता और दोनों से दूरी भी। क्या मज़ाल जो इन तमाम अन्तर्विरोधी सन्तुलनों में कभी कोई समझौता किया हो! अपनी सोच में एकदम खरे। सहमति और असहमति में हमेशा चट्टानी दृढ़ता। अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ आग उगलती तहरीरों का ऐसा अटूट सिलसिला कि इतिहास ने उन्हें जलियाँवाला बाग का नायक बना दिया। समझौतावादियों, अवसरवादियों और छुपे अंग्रेज समर्थकों से सीधी मुठभेड़। मुल्तान के दंगे में कट्टरवादियों ने सरिया से हाथ काट डाले। हिन्दू कट्टरपंथियों ने भी बार-बार निशाने पर लिया, गन्दी तोहमते लगायी। लानत-मलामत किये, षड्यंत्र किये, चुनाव में साम्प्रदायिक गोलबन्दी कर पराजित किया लेकिन डाॅ. किचलू कभी प्रतिक्रिया में नहीं आये। कश्मीर मसले पर मध्यस्थता के दौरान पं0 नेहरू से जा भिड़े। भिड़ने और भिड़ाने के ऐसे अनगिनत उदाहरणों में एक भी डिगने का सबूत कोई उनके जीवन में नहीं खोज पाये। प्रगतिशील विचारों, वामपंथी संगठनों और विश्वशान्ति के अभियान में सक्रिय ... वे ऐसी धातु के बने थे कि न लचे, न टूटे। आजादी की लड़ाई में अकूत पैतृक सम्पत्ति लुटाकर फकीर बन गये। बावजूद इसके न कोई पद लिया, न कोई सुविधा ... आजाद भारत में उनके जीवन का यह ऐसा वक्त था, जब उन्हें अपने मित्रों और शुभेच्छुओं की मदद पर निर्भर रहना पड़ रहा था। ऐसे विरल व्यक्तित्वों ने रची है वह साझी विरासत, जिसे छाती फुलाकर आज हम फ़ख्र से बार-बार दुहराते हैं।’’[42]
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में राष्ट्रीय चेतना और हिन्दू-मुस्लिम सह-अस्तित्व की अवधारणा का विचार और विश्लेषण आज भी जारी है। हिन्दी प्रदेश 1857 के विद्रोह का मुख्य क्षेत्र रहा है साथ ही हिन्दी और उर्दू भाषा-भाषी विशाल जनता के द्वारा ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ संयुक्त मोर्चेबंदी का कर्मक्षेत्र भी। लेकिन दुःखद यह है कि हिन्दी-उर्दू समाज के भीतर ‘साझी सहादत, साझी विरासत’ की समवेत् समझ कम से कम है बल्कि परस्पर गलत समझ व्याप्त है - कहना ज्यादा सही है। बेशक इसका असर परस्पर के आपसी रिश्ते पर भी पड़ा है। इतिहास और समाजविज्ञान से जुड़े लोग भारतीय भाषाओं में नवजागरण की अवधारणा पर ही प्रश्नचिन्ह खड़ा कर देते हैं और उसकी खिल्ली उड़ाते हैं। लेकिन ऐसे समय में कर्मेन्दु शिशिर जैसे गंभीर अध्येता का बिना किसी संस्थागत मदद के हिन्दुस्तानी सहजीवन का गौरवशाली वृतांत प्रस्तुत करना गैरमामूली उपलब्धि है। उनकी यह कोशिश उर्दू भाषा-भाषी समुदाय की राष्ट्रीय विरासत का भारतीय नवजागरण से अन्तःसम्बन्ध स्थापित करने और उसकी महत्ता प्रमाणित करने की सार्थक पहल है। कर्मेन्दु शिशिर दुःखी हैं कि
‘‘हिन्दी में ज्यादातर विचारक मुस्लिम समाज के नवजागरण को पूरी तरह सर सैयद अहमद ख़ाँ तक ही महदूद रखते हैं और उन्हीं के अलीगढ़ आन्दोलन के पक्ष-विपक्ष तक अपना विमर्श सीमित रखते हैं, इसका बड़ा ही घातक असर हिन्दी नवजागरण और हिन्दी समाज के नवजागरण की समझ पर भी पड़ा है। पूरा विमर्श एकरेखीय या एकांगी होकर रह गया है। हिन्दी समाज के साथ अभिन्न रूप से रह रही एक बड़ी कौम से सम्बद्ध नवजागरण के नायकों के जीवन, कार्य और उपलब्धियों पर कोई रोशनी ही नहीं पड़ती। हिन्दी समाज यह देख-जान ही नहीं पाता कि उनकी सहभागी कौम में भी नवजागरण की निरंतरता और उत्कर्ष के ऐसे शिखर हैं - जिनके बिना हम भारतीय नवजागरण की समग्र तस्वीर को समझ ही नहीं सकते।’’[43]  
यही कारण है कि हिन्दी प्रदेश में झूठी आत्ममुग्धता और नासमझ घृणा की लपटें जब-तब जलने-भभकने लगती हैं और परस्पर की महानता और उपलब्धियों से अनजान लोग इस घृणा आधारित श्रेष्ठताबोध की आँच में जलने-झुलसने के लिए अभिशिप्त से हैं। हम एक ही पाठ की बार-बार आवृत्ति के बीच यह भूल जाते हैं कि सर सैयद अहमद ख़ाँ के मुकाबले राष्ट्रीय चेतना से सम्बद्ध स्वाधीनचेता उलेमा की महान परम्परा ने मौलाना महमूद-उल-हसन (1851-1921) तथा मौलाना रशीद गंगोही (1882-1905) द्वारा स्थापित देवबंद उत्तर प्रदेश के मशहूर धर्मविज्ञान शिक्षण संस्था दारूल उलूम से प्रेरणा ग्रहण की थी। सर सैयद अहमद ख़ाँ के समानान्तर देवबंद का महत्व इसलिए है कि दारुल उलूम से सम्बद्ध उलेमा ने ‘‘अक्टूबर 1888 में एक फतवा जारी कर मुसलमानों के कांग्रेस की गतिविधयों में सहभागी होने के काम को न्यायसंगत ठहराया था। उनके उत्तराधिकारियों ने उनका अनुकरण किया और अपने अनुयायियों के दिलो-दिमाग पर यह सच्चाई अंकित की कि हिन्दुस्तानी मुसलमानों के व्यापक हितों की रक्षा के लिए हिन्दू-मुस्लिम सहयोग जरूरी है।"[44] आगे चलकर जीमयत-उलमा-ए-हिन्द ने कांग्रेस के साथ मिलकर एक ऐसे स्वतंत्र, धर्मनिरपेक्ष हिन्दुस्तान के लिए काम किया, जहाँ मुसलमानों को हिन्दुओं के समकक्ष ही धार्मिक स्वतंत्रताएँ प्राप्त थीं।

लेकिन यह दुखद है कि भारतीय नवजागरण सम्बन्धी अध्ययन और राष्ट्रीय स्वाधीनता आन्दोलन के मूल्यांकन विमर्श में मुस्लिम पक्ष की उपेक्षा आजतक यथावत बनी हुई है। नवजागरण का एक महत्वपूर्ण संदर्भ आलोकित होने की जगह ओझल होने लगा और अन्ततः इस दुर्दशा का असर पूरे भारतीय नवजागरण के स्वरूप पर पड़ा। जिसके कारण भारतीय नवजागरण का अपेक्षित स्वरूप आजतक समग्रता में उभकर सामने नहीं आ सका। इसलिए कर्मेन्दु शिशिर की यह चिंता वाजिब है कि ‘‘हम यह भूल गये कि बिना उर्दू और मुस्लिम नवजागरण के हम न सिर्फ हिन्दी बल्कि पूरे भारतीय नवजागरण की भव्यता को कभी नहीं उकेर सकते।’’[45]  इस दिशा में सार्थक पहल करते हुए वे इस बात पर भी चिंता व्यक्त करते हैं कि
‘‘इस कालखण्ड में हमने जितनी जगह अलीगढ़ आन्दोलन और उसके नायकों को दी, उतनी उसके समानान्तर चली देवबंद आन्दोलन की धारा को नहीं दे सके। उसके महान नायकों को इतिहास के पन्नों में हमने उल्लेख तक ही सीमित कर दिया, जबकि उनकी जगह निःसन्देह हमारी स्मृतियों, विचारों और चेतना में होनी चाहिए थी। हम यह भूल गये कि असफल होने के बावजूद उनकी अहमियत और प्रासंगिकता कहीं ज्यादा थी। हम यह भी भूल गये कि आज हमारी सोच और चेतना का नाभिनाल रिश्ता उन्हीं से जुड़कर अर्थवान हो सकता है। आज अलीगढ़ आन्दोलन से जुड़ी एक-एक सामग्री जितनी आसानी से उपलब्ध हो जाती है, देवबंद आन्दोलन की सामग्री उतनी ही अप्राप्य और दुर्लभ हो गयी है।’’[46]  
कर्मेन्दु शिशिर ने भारतीय मुसलमान की वैचारिक विकास यात्रा में लगभग अप्राप्य, दुर्लभ और अचर्चित सामग्री के सहारे ‘देवबंद आन्दोलन और नवजागरण’ के भव्य रुप को जिस ढंग से प्रस्तुत किया है, उसका ऐतिहासिक महत्व है। भारतीय नवजागरण के प्रसंग में मुस्लिम मनःस्थिति और मुस्लिम नवोत्थान पर विचार करते हुए सर सैयद अहमद ख़ाँ के मुकाबले देवबंद से सम्बद्ध स्वाधीनचेता उलेमा की परम्परा पर जोर देना और उस परम्परा की कड़ियों को शैखुल हिन्द मौलाना महमूद हसन के रुप में रेखांकित करना सर सैयद अहमद के महत्व को कम आँकना नहीं है बल्कि शेख जमालुद्दीन अफगानी, हाजी हमदादुल्लाह मुहाजिर मक्की (1817-1899), मौलाना मुहम्मद गनी (1819-1878); मौलाना रशीद अहमद गंगोही (1828-1905) तथा मौलाना शिब्ली नोमानी (1857-1914) जैसी अंग्रेजी राज विरोधी महत्वपूर्ण हस्तियों पर नये सिरे से विचार की अपील करना है।
कर्मेन्दु शिशिर ने देवबंद आन्दोलन की बुनियादी पृष्ठभूमि की चर्चा करते हुए सही लिखा है कि :
‘‘1857 के संग्राम में भारतीय सैनिकों की पराजय से नानौतवी साहब और गंगोही साहब बहुत दुःखी हुए। युद्ध के बाद हिन्दुस्तान की हुकूमत सीधे अंग्रेज़ कौम के हाथों में आ गयी और दिल्ली में महारानी विक्टोरिया की ताजपोशी के जश्न की तैयारियाँ होने लगी। नानौतवी साहब उस समय दिल्ली में ही थे। उन्हें यह सब देखकर अन्दर से कुढ़न हो रही थी। वे भारी मन से अपने गाँव नानौता आ गये... नानौतवी साहब की ससुराल देवबंद के दीवान मुहल्ले में ही थी। उसी के पास मस्जिद में उनका आना-जाना था। वही हाजी मुहम्मद आदिब और मौलाना रफीउद्दीन साहब भी टिका करते थे। देवबंद के बुजुर्ग दानिशमंद मौलाना जुल्फिकार अली और फजलुर्रहमान भी अक्सर आकर वहीं बैठते थे। इन सबसे तब के हालात पर गुफ्तगू होती। दरअसल वह पूरा दौर ही पस्ती का था। ब्रिटिश दमनचक्र चरम पर था। ईसाई पादरी बाइबिल सोसाइटी बनाकर लोगों को अपने धर्म में दीक्षित करने का अभियान चला रहे थे, जिनको ब्रिटिश सरकार का भरपूर संरक्षण मिला हुआ था। वे खुलेआम हिन्दूधर्म और इस्लाम का उपहास उड़ाया करते थे। मैकाले की नयी शिक्षा प्रणाली का प्रसार हो रहा था... उन्हें मुसलमानों की ओर से एक बड़े नायक सर सैयद अहमद ख़ाँ का जबर्दस्त समर्थन मिल रहा था - जो मुसलमानों को अंग्रेजों के पक्ष में लाने के लिए बेहद प्रयत्नशील थे।’’[47]  
मुस्लिम अस्मिता के सवाल को लगातार प्रश्नांकित करने वाले और देवबंद आन्दोलन की विराट छवि को इस्लामिक कट्टरतावाद में रिड्यूज करने वाले ध्यान दें और ठहरकर सुन लें - देवबंद, दारूल उलूम (ज्ञान का घर) की स्थापना मई 1867 में सहारनपुर के एक छोटे से कस्बे देवबंद में हुई थी। मौलाना मोहम्मद कासिम नानौतवी और मौलाना रशीद अहमद गंगोही ने 1857 में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ जबर्दस्त लड़ाइयाँ लड़ीं और ब्रिटिश सेना को कड़ी शिकस्त दी। इसकी प्रतिक्रिया में अंग्रेजों ने इस इलाके में बड़ी भयंकर तबाही मचायी और 50 लोगों को बर्बरता पूर्वक फाँसी पर लटका दिया। इस बगावत के एक रणनीतिकार हाजी इमदादुल्लाह मुहाजिर मक़्की थे, जो कुरान और इदीस के बढ़े आलिम थे और ब्रिटिश साम्राज्यवाद के कट्टर विरोधी भी। दारुल उलूम देवबंद की स्थापना की पृष्ठभूमि में 1857 के विद्रोह की गूंज सुनी जा सकती है। 1857 के विद्रोह की असफलता के बाद का पूरा दौर पस्ती का था, ब्रिटिश दमन चक्र चरम पर था, इसलिए अंग्रेजीराज के खिलाफ संगठनात्मक तैयारी के उद्देश्य से देवबंद की नींव पड़ी।

याद करिए 1857 के बाद तीव्र औपनिवेशिक दमन के दौर में ‘असबाबे बगावत-ए-हिन्द’ लिखने वाले सर सैयद अहमद इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि ‘‘मैं उनमें से नहीं हूँ जो मानते हैं कि राजनीतिक मामलों में दिलचस्पी लेने से मुसलमानों का भला होगा क्योंकि मेरी सम्मति में उन्हें जिस चीज की जरूरत है, वह शिक्षा है।’’ लेकिन इस बदली सियासी दशा से चिंतित पारम्परिक उलेमा के भीतर क्रांति की ज्वाला धधक रही थी - इस कड़ी में 31 मई 1867 जुमेरात के दिन मस्जिद छत्ता के खुले आँगन में अनार के पेड़ के साये में दारूल उलूम की स्थापना हुई। हजरत मौलाना मुल्ला महमूद देवबंदी को पहला मुदर्रिस बनाया गया और महमूद हसन नामक बच्चा इस मदरसे का पहला विद्यार्थी बना, जो बाद में शैखुल हिन्द मौलाना महमूद हसन नाम से विख्यात हुआ। यह एक छोटा सा मदरसा था लेकिन भारत में दीनी तालिम और दीनी दावत के एक नये दौर की शुरुआत थी। वह नया दौर था - ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफत का, राष्ट्रीयता के विकास का, जनभागीदारी का और हिन्दू-मुस्लिम सहअस्तित्व का, जिसके प्रस्थान- प्रस्तावक मौलाना मोहम्मद कासिम नानौतवी हैं। यह अलग बात है कि देवबन्द में दी जाने वाली धार्मिक शिक्षा पर उलेमा का पूरा नियंत्रण था इसलिए वह एक तरफ पश्चिमी सभ्यता द्वारा प्रस्तुत आधुनिक विचारों का विरोधी था तो दूसरी तरफ पुनरूत्थानवादी रवैये के साथ-साथ हर गैर-इस्लामी चीज का, विशेषकर आधिपत्य का भी विरोधी था। उस दौर में हिन्दू-मुस्लिम प्रश्न पर विचार करते हुए यह ध्यान रखने की बात है कि तब शिक्षित मुसलमानों के भीतर एक और दल भी सक्रिय था, जो एक ओर सर सैयद अहमद खाँ के विवेकशील तर्कवाद का विरोधी था और दूसरी ओर, भारतधर्म महामण्डल के नेताओं के गतिविधियों का भी विरोध करता था। इस दल की स्थापना कांग्रेस की स्थापना के साल ही सन् 1885 ई. में लाहौर में हुई थी, इसका नाम अंजुमन-ए-हिमायत-ए-इस्लाम था। इसका उद्देश्य था : ‘इस्लाम के विरुद्ध किसी भी आक्षेप का बुद्धिमत्तापूर्ण उत्तर देना; मुस्लिम लड़के-लड़कियों को अपने धर्म से भटकने से बचाना और मुसलमानों को ब्रिटिश हुकूमत की वफादारी के फायदे समझाना।’ 

मिर्जा गुलाम अहमद (1838-1908 ई.) द्वारा स्थापित अहमदिया आन्दोलन भी इसी तरह का पुनरुत्थानवादी संगठन था, जो सर सैयद अहमद और उनके सहयोगियों द्वारा इस्लाम की प्राकृतिक व्याख्या की प्रतिक्रिया में ही आगे बढ़ रहा था। लेकिन आज लगभग डेढ़ सौ साल बाद इतिहास के उस खास कालखण्ड पर बात करते हुए असल सवाल उसकी धार्मिक-सामाजिक प्रगतिशीलता और पुनरुत्थानवादी चेतना को कटघरे में खड़ा करना नहीं है बल्कि इस बात को विश्लेषित करना आवश्यक है कि एक तरफ अलीगढ़ आन्दोलन ने सामाजिक और शिक्षा सम्बन्धी सुधारों पर जोर देकर उस समय एक उपयोगी और प्रगतिशील भूमिका अदा की, जिससे मुसलमानों को घिसी-पिटी सामंती विचारों के दलदल से निकलने में मदद मिली तो दूसरी तरफ देवबन्द आन्दोलन से सम्बद्ध नेताओं ने आम मुसलमानों का आह्वान किया कि वे न सिर्फ राजनीतिक आन्दोलनों में खुलकर भाग लें बल्कि अलीगढ़ में स्थापित इण्डियन पैट्रियाटिक एसोसिएशन से अपने को अलग रखें। उस दौर में दोनों की अपने-अपने ढंग से खास भूमिका है, जिसे विश्लेषित करना नवजागरण की समग्र समझ के लिए आवश्यक है। कर्मेन्दु शिशिर ने सही लिखा है कि
‘‘यह संस्था सिर्फ धार्मिक शिक्षण तक ही महदूद नहीं थी। धीरे-धीरे यह संस्था एक प्रभावशाली और सक्रिय आन्दोलन के रुप में विकसित होती गयी। इस संस्था से उठे आन्दोलन ने मुसलमानों के विचार और आचरण से तमाम कूड़ा-कचरा साफ कर दिया और उन्हें शुद्ध और सच्चे इस्लाम से परिचित कराया। वे कई तरह के अंधविश्वासों से मुक्त हुए। सबसे बड़ी बात यह थी कि इसने सच्चे इस्लाम से राष्ट्रीयता और देशप्रेम को जोड़ा। इस्लामी मान्यताओं के प्रति अपनी आस्था को बनाये रखते हुए दूसरी कौम के साथ एक साझी संस्कृति का आदर्श प्रस्तुत किया।... किसी देवबंदी ने साम्प्रदायिक संकीर्णता का न तो कभी समर्थन किया और न ही बढ़ावा दिया। देवबंद से शिक्षित किसी भारतीय मुस्लिम नेता ने कभी पाकिस्तान का समर्थन नहीं किया। आगे चलकर धार्मिक स्तर पर भी इसमें इतनी उदारता आयी कि हमने अलीगढ़ आन्दोलन के प्रति भी नरम रुख रखा और मुसलमानों को कांग्रेस से जुड़ने की अपील की।’’[48]  
दारूल उलूम की स्थापना का घोषित उद्देश्य इस्लामी सिद्धान्त और दर्शन का अध्ययन-अध्यापन था लेकिन सियासी इरादे भी स्पष्ट थे। यह बात साफ तब हुई जब इस केन्द्र से सम्बद्ध शैखुल हिन्द मौलाना महमूद हसन और उनके क्रांतिकारी छात्रों ने रेशमी रुमाल तहरीक के रूप में अपनी विस्तृत राजनीतिक कार्ययोजना प्रस्तुत की। सन् 1889 में शैखुल हिन्द के सदर मुदर्रिस बनने के बाद इस राजनीतिक चेतना का उत्तरोत्तर विकास हुआ। यह अकारण नहीं है कि देवबंद ने, 1885 में कांग्रेस की स्थापना का खुला समर्थन किया। यह बात ध्यान देने की है कि देवबंद की परम्परा से सम्बद्ध उलेमा के भीतर यह स्वप्न एकदम साफ था कि भारत की स्वतंत्रता हिन्दू-मुस्लिम एकता के बिना नहीं प्राप्त की जा सकती। इसलिए जब 1888 में सर सैयद अहमद ख़ाँ ने मुसलमानों को कांग्रेस से न जुड़ने की सलाह दी और अपने प्रस्ताव के समर्थन में देवबंद से अपील की तो देवबंद ने न सिर्फ सैयद अहमद के दृष्टिकोण की आलोचना की बल्कि उनके अभियान की निंदा करते हुए मोहम्मडन एंग्लो ओरियेंटल कालेज के प्राचार्य थियोडोर बेक के खिलाफ धार्मिक फतवा भी दिया और इससे आगे बढ़कर देवबंद के नेतृत्व में देशभर के उलेमा ने फतवे जारी कर मुसलमानों को कांग्रेस की सदस्यता लेने के लिए कहा। उलेमा ने ऐसे 100 फतवों को इकट्ठा कर एक पुस्तिका का रूप दिया, जिसका शीर्षक था - ‘नुसरत-अल-अहरार’ - स्वतंत्रता सेनानियों की सहायतार्थ। नुसरत-अल-अहरार से स्पष्ट है कि देवबंद के उलेमा कांग्रेस को सभी धर्मों की पार्टी मानते थे और ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ संयुक्त मोर्चेबंदी के भागीदार थे। इस एकता की प्रतिक्रिया में ब्रिटिश सत्ता ने मुस्लिम लीग का निर्माण कराया और जमींदारों के आधार पर लीग को लगातार भड़काया भी। यह सच है कि अपने धार्मिक दृष्टिकोण में वे कट्टरतावादी थे लेकिन राजनीतिक मामलों में बेहद धर्मनिरपेक्ष भी थे। इसका श्रेष्ठ उदाहरण यह है कि देवबंद से सम्बद्ध मौलाना हुसैन अहमद मदनी (1879-1957) ने भी ‘मुत्तहिदा कौमियत और इस्लाम’ पर विचार करते हुए हिन्दुओं और मुसलमानों को पृथक् राष्ट्र मानने-बनाने के सवाल पर अल्लामा इकबाल तक का विरोध किया। जाहिर है कि स्वाधीनता संग्राम में कांग्रेस के समर्थन की यह परम्परा सर सैयद अहमद ख़ाँ की परम्परा का मुकम्मल प्रतिपक्ष थी लेकिन भारतीय जातीयता की प्रबल पक्षधर थी।

इसलिए भारतीय नवजागरण और स्वाधीनता संग्राम पर विचार करने वाले विद्वानों से मेरा निवेदन है कि मुस्लिम नवोत्थान और सर सैयद अहमद ख़ाँ के बहाने मुस्लिम अलगाववाद की विचार चेतना को द्वि-राष्ट्र सिद्धान्त तक खींचने के बजाय मुस्लिम नवोत्थान की नई जागृति-मौलाना अबुल कलाम आजाद, हसरत मोहानी, मौलाना हुसैन अहमद मदनी की संयुक्त राष्ट्रीयता की मजबूत पृष्ठभूमि पर विचार करें। इस पृष्ठभूमि में कुछ उलेमा थे, खासकर देवबंद के- उनमें प्रमुख थे, शैखुल हिन्द मौलाना महमूद हसन और उनके शिष्य ओबैदुल्ला सिन्धी। दोनों ‘रेशमी रूमाल षड्यंत्र’ के मुख्य किरदार थे। अपने अनुयायियों में उपनिवेशवाद विरोधी चेतना जगाने में इन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और ब्रिटिश शासन के खिलाफ आन्दोलन खड़ा करने के लिए दूर-दूर तक सफर किया। उनके ही प्रभाव से दारुल उलूम, फिरंगी महल और नदवतुलउलूम जैसी संस्थाओं में उपनिवेशवाद विरोधी लहर बनी और व्यापक क्रांतिकारी मोर्चे का निर्माण हुआ।

यह सुखद आश्चर्य है कि कर्मेन्दु शिशिर ने भारतीय मुस्लिम विवेकशीलता की चिंतन परम्परा में ओबैदुल्ला सिन्धी के स्वतंत्र क्रांतिकारी महत्व को उद्घाटित किया है। सन् 1871 में जन्मे ओबैदुल्ला सिन्धी जन्म से सिंध के खत्री थे; पिता रामसिंह उप्पल खत्री के निधन के बाद उनका बचपन झंझावातों में बीता लेकिन शाह वलीउल्लाह देहलवी की पुस्तकें पढ़कर वे इस्लाम से प्रभावित हुए और देवबंद के विद्वानों की शागिर्दी में न सिर्फ इस्लाम में दीक्षित हुए बल्कि इस्लाम के अत्यन्त विश्वस्त सिपहसालार बन गये। धर्मान्तरित मुसलमान होने के कारण उनको लेकर देवबंद के भीतर संगठनात्मक स्तर पर मतभेद भी उभरे लेकिन शैखुल हिन्द की जरूरी हिदायतों, निर्देशों के साथ ओबैदुल्ला सिन्धी को देवबंद से दिल्ली भेज दिया गया। कर्मेन्दु शिशिर ने लिखा है कि
‘‘ओबैदुल्ला सिन्धी ने दिल्ली आकर अपनी राजनीतिक सक्रियता और तेज कर दी। यहाँ उनकी मुलाकात हकीम अजमल ख़ाँ, मौलाना मुहम्मद अली और डाॅ. मुख्तार अहमद अंसारी जैसे बड़े नेताओं से हुई और वे बड़ी राजनीतिक जमात में शामिल हुए।... उन्होंने राजनीतिक दूरदर्शिता और चतुराई से काम लेते हुए एक मदरसे की आड़ में राजनीतिक तंजीम कायम की - नजरत उल मुआरिफ। अनेक क्रांतिकारी सोच वाले लोग इसके सदस्य बने... दिल्ली प्रवास में ओबैदुल्ला सिन्धी अपनी सक्रियता के कारण कुछ दिनों में इतने महत्वपूर्ण हो गये कि खान अब्दुल गफ़्फ़ार खान जब भी दिल्ली आते, उनसे मिलने फतेहपुरी मस्जिद जरूर जाते।’’[49]  
प्रथम विश्वयुद्ध के आस-पास जब आटोमन साम्राज्य के खिलाफ ईसाई प्रान्तों ने बाल्कन में युद्ध छेड़ दिया और तुर्की ने ब्रिटेन सहित मित्र देशों के खिलाफ जर्मनी का साथ दिया तो भारतीय मुसलमान दुविधाग्रस्त थे। यह दुविधा इसलिए थी कि एक तरफ प्रत्येक मुस्लिम को तुर्की से गहरा लगाव था तो दूसरी तरफ अलीगढ़ आन्दोलन ने ब्रिटिश वफादारी का पाठ पढ़ाकर सरकार के समर्थन की पृष्ठभूमि तैयार कर रखी थी लेकिन इस घटना ने भारत के मुसलमानों का ब्रिटिश साम्राज्य से रिश्ता तल्ख कर दिया। अन्ततः खलीफा के समर्थन में भारत के मुसलमान गहरी उत्तेजना में आ गये। इस उद्देश्य से योजनाबद्ध ढंग से अफगानिस्तान के रास्ते विद्रोह की रणनीति बनी और एक अस्थायी सरकार कायम करके अपना शिष्टमण्डल चीन, वर्मा, जापान, फ्रांस और अमेरिका तक भेजा गया कि भारत में ब्रिटिश आधिपत्य के विरुद्ध विद्रोह हो गया है। रेशमी रूमाल की योजना के अनुसार  ओबैदुल्ला सिन्धी काबूल में थे और कबाइलियों को भारत पर आक्रमण के लिए उकसा रहे थे। सन् 1914 ई. में मौलाना ओबैदुल्ला सिन्धी ने अफगानिस्तान जाकर अंग्रेजों के खिलाफ अभियान चलाया और काबुल में रहते हुए भारत की स्वतंत्र सरकार का गठन किया, जिसका राष्ट्रपति राजा महेन्द्र प्रताप और प्रधानमंत्री मौलाना बरकतुल्ला भोपाली थे। यहीं रहकर इण्डियन नेशनल कांग्रेस की एक शाखा भी कायम की।

सन् 1915 ई. में जब शैखुल हिन्द हिजाज चले गये और वहाँ से इस्ताम्बुल जाना चाहते थे। मदीने में उस समय तुर्की का गवर्नर गालिब़पाशा तैनात था उसी समय तुर्की के युद्धमंत्री अनवरपाशा भी हिजाज पहुँचे जहाँ शैखुल हिन्द से युद्ध की रणनीति पर चर्चा हुई। अनवरपाशा ने भारतीयों के प्रति सहानुभूति प्रकट की और ब्रिटिश सरकार के खिलाफ युद्ध की गुप्त योजना भी साझा की। हिजाज से यह गुप्त योजना बहुत गोपनीय ढंग से शैखुल हिन्द महमुदूल हसन ने अपने शिष्य ओबैदुल्ला सिन्धी को भेजी और ओबैदुल्ला सिन्धी ने इसका उत्तर रेशमी रूमाल पर लिखकर हिजाज भेजा। रेशमी रूमालों पर चलने वाला यह पत्र-व्यवहार ही रेशमी रूमाल तहरीक के रूप में विख्यात है। इसके सम्बन्ध में पंजाब के गवर्नर सर रौलेट ने लिखा था ‘ब्रिटिश सरकार इन पत्राचार की गतिविधियों पर हक्का-बक्का थी।’  शैखुल हिन्द द्वारा भेजे गये ‘गालिबपाशा’ और ‘अनवरपाशा’ के कागजात तथा क्रांतिकारी गतिविधियों की सूचना मौलाना महमूद हसन को हेजाज में देना आवश्यक समझा गया ताकि उन्हें मालूम हो कि क्रांति की जमीन तैयार है। इसलिए दो ख़त बेलबूटेदार अक्षरों में रेशमी कपड़े पर काबुल की कार्रवाइयाँ लिखकर मौलाना ओबैदुल्ला सिन्धी ने शेख अब्दुल हक़ नामक एक नव-मुस्लिम को दिए जिसे अब्दुर्रहीम को सिंध में देना था। रेशमी रूमाल के साथ सख्त हिदायत देते हुए 10 जुलाई 1916 को शेख अब्दुर्रहीम के नाम अपने ख़त में ओबैदुल्ला सिन्धी ने लिखा कि
‘‘बराए मेहरबानी जो जिम्मेदारी आपको सिपुर्द की जा रही है। उसे किसी मोतबर हाजी के जरिए पाक मदीना में हजरत मौलाना तक हर हाल में पहुँचा दें। यह एक ऐसा काम है जिसके लिए मुस्तकिल सफर करने में कोई हर्ज नहीं। अगर वह शख्स कालिबेएतबार है तो उन्हें जुबानी यह भी कह दें कि हजरत मौलाना को यहाँ तशरीफ लाने की कोशिश भी नहीं करनी चाहिए।’’ 
लेकिन वह पत्र अब्दुल हक़ और ख़ान बहादुर रब नवाज ख़ाँ के मार्फत पंजाब के गवर्नर सर माइकल ओडायर के हाथ लग गये और पूरी योजना विफल हो गयी। भारी पैमाने पर गिरफ्तारियाँ हुईं और शैखुल हिन्द माल्टा द्वीप भेज दिए गये। ओबैदुल्ला सिंधी इटली, स्वीट्जरलैण्ड, हेजाज, सोवियत रूस में लम्बे प्रवास के बाद सन् 1939 में भारत वापस आ सके। भारत आकार ओबैदुल्ला सिंधी ने ‘शाह वलीउल्लाह और उनकी सियासी तहरीक’ शीर्षक पुस्तिका लिखी और ‘महाभारत सर्वराज्यीय पार्टी’ का गठन किया। कर्मेन्दु शिशिर ने क्रांतिकारी संघर्ष से इतर ओबैदुल्ला सिन्धी का अलग महत्व भी स्थापित किया है। उनको मानना है कि
‘‘ओबैदुल्ला सिन्धी के कारनामे और विचार अपने समकालीन में अलग मौलिक किस्म के थे। उनमें कम्युनिज़्म और इस्लाम का एक अलग मेल था... वे इंसानियत को धर्म का मूल मानते थे... वे भारत में मुस्लिम समाज के अन्तर्विरोधों और गैर-मुस्लिमों से अलगाव को अच्छी तरह समझ रहे थे।’’[50]  
यहाँ कर्मेन्दु शिशिर ने भारतीयता और इस्लाम के अन्तर्विरोध पर बात करते हुए पाकिस्तान के प्रसिद्ध इतिहासकार मुबारक अली के हवाले से ओबैदुल्ला सिंधी का प्रसिद्ध कथन उद्धृत किया, जिसके माध्यम से ‘इस्लाम और राष्ट्रीयता’ का द्वन्द समझा जा सकता है। ओबैदुल्ला सिन्धी का मानना था कि :
‘‘जब एक भारतीय मुसलमान किसी इस्लामी देश में जाता है तो उसे अपने भारतीय होने पर घिन आती है। उसके लिए इस्लाम और भारतीयता दो अलग-अलग चीजें हैं। वह मानता है कि सच्चा मुसलमान होने का मतलब है सारी भारतीय वस्तुओं से घृणा। इस मानसिकता के कारणों को जानना कठिन नहीं है। बात दरअसल यह है कि भारतीय मुसलमान उन उलेमा और इमामों की किताबों और शिक्षा से इस्लाम सीखते हैं, जो भारतीय नहीं थे। इसके फलस्वरूप जाने-अनजाने उन्हें यह विश्वास होता है कि भारत में इस्लाम की जडे़ नहीं बल्कि इस्लाम सम्बन्धी हर वस्तु का उद्गम भारत से बाहर है।’’[51]  
ओबैदुल्ला सिन्धी मुस्लिम तत्ववादियों और उलेमा से सीधी मुठभेड़ लेते हुए यह कहने वाले बौद्धिक व्यक्ति थे कि जो राजनीतिक या आर्थिक संस्थाएँ पहले चार खलीफाओं के समय स्थापित थीं, उन्हें आधुनिक समय में यथावत नहीं लाइक किया जा सकता। बेशक हमारा लक्ष्य तो वही रहेगा जो कुरआन कहता है, लेकिन आज हालात बदल गये हैं क्योंकि जीवन और समाज की जरूरतें भी बदल गई हैं।

भारतीय नवजागरण के अन्तर्गत स्त्री स्वर की पहचान का विश्लेषण अत्यन्त महत्वपूर्ण है और यह अलग से स्वतंत्र अध्ययन का विषय भी है। संभव है कि इस दिशा में सावित्रीबाई फुले, पंडिता रमाबाई, ताराबाई शिंदे, डाॅ. एनी बेसेन्ट, रूक्माबाई जैसी महत्वपूर्ण स्त्री संदर्भों भर पर्याप्त चर्चा भी हुई है लेकिन मुस्लिम समाज और स्त्री नवजागरण के प्रसंग में बहुत कम चर्चा होती है। मुस्लिम समाज को अपेक्षाकृत धीमी गति से बदलने वाला और कठोर बन्धनों को मानने वाला समाज समझा जाता है लेकिन सर सैयद अहमद ख़ाँ और उनके कुछ दूसरे समकालीन समाजसुधारकों ने इस दिशा में सार्थक पहल की है।

मौलवी मुमताज अली ख़ान मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों के हिमायती थे। वे अपने समय के जाने-माने आलिम थे और देवबंद के मदरसे में पढ़े थे परन्तु महिला अधिकारों के मसले पर परम्परागत उलेमा से पूरी तरह असहमत थे। उन्होंने परम्परागत उलेमा की पुरुष वर्चस्व और श्रेष्ठताबोध की मानसिकता को चुनौती देते हुए ‘हुकूक अल निस्वां’ नामक महत्वपूर्ण पुस्तक लिखी और कुरान और हदीथ के आधार पर लिंग समानता की जमकर वकालत की। मुमताज अली, अलीगढ़ तहरीक के समर्थक थे; उनकी शैली और समझ आधुनिक थी परन्तु उन्होंने कुरान की सीमाओं का अतिक्रमण नहीं किया। महिला अधिकारों के सवाल पर उनकी सोच इतनी प्रगतिशील थी कि सर सैयद अहमद ने उन्हें किताब प्रकाशित न करने की सलाह दी थी। सर सैयद अहमद स्वयं महिला अधिकारों के हिमायती थे, यह उनकी कुरान की अधूरी तफसीर से स्पष्ट है। कट्टरपंथी उलेमा के दबाव में सर सैयद अहमद ने तफसीर अधूरी छोड़ दी क्योंकि उन्हें एम.ए.ओ. काॅलेज की स्थापना के लिए उलेमा के सहयोग की आवश्यकता थी लेकिन मुमताज अली इस चेतावनी से जरा भी न घबराए। महिला अधिकारों और लिंग समानता के प्रति उनके विचार इतने दृढ़ थे कि उन्होंने अपनी किताब प्रकाशित कर दी। इसी तरह शेख अब्दुल्ला भी स्त्री शिक्षा के पक्षधर थे और उन्होंने अलीगढ़ में लड़कियों के लिए एक स्कूल की स्थापना की जो अब काॅलेज (अब्दुल्ला काॅलेज) बन गया है और अलीगढ़ विश्वविद्यालय का हिस्सा है। मौलवी चिराग अली ने भी मुस्लिम पर्सनल लाॅ में सुधारों की बात की और अपने समय-समाज में व्यापक फेरबदल की वकालत की।

परम्परागत उलेमा के विचारों के खिलाफ संघर्षशील समाजसुधारकों के बीच धर्म और समाज की नैतिक मर्यादाओं का पालन करते हुए मुस्लिम महिलाओं में नयी प्रेरणा की प्रतीक - बी. अम्मा का स्मरण आवश्यक है। कर्मेन्दु शिशिर ने बी. अम्मा के माध्यम से न सिर्फ मुस्लिम महिलाओं की ज़ज़्बाती दास्तान को बयान किया है बल्कि स्वाधीनता संग्राम के स्त्री पक्ष का सुनहरा अध्याय भी प्रस्तुत किया है। मुस्लिम समाज की कठोर मर्यादाओं और मजहबी बंदिशों के बाद भी वे अबदी बानो (मुहम्मद अली और शौकत अली की माँ) से बी.अम्मा (तमाम स्वाधीनता सेनानियों की माँ) बन गई और खिलाफत तहरीक के वक्त अंग्रेजीराज की कट्टर शत्रु भी। अली बंधुओं की गिरफ्तारी पर उन्होंने गर्मजोशी से कहा कि : ‘‘मैं यह चाहती हूँ कि गवर्नमेण्ट यह जान ले कि अगर अपनी तकलीफों से बचने के लिए वे किसी ऐसी बात को स्वीकार करेंगे जो उनकी धार्मिक भावनाओं या देशहित के तनिक विरुद्ध हो तो मुझे यकीन है कि अल्लाह पाक मेरे दिल को इतनी मजबूती और इन सूखी झुर्रियों पड़े हाथों में इतनी ताकत देगा कि मैं उसी वक्त इन दोनों का गला घोंट दूँगी।’’ कर्मेन्दु शिशिर ने सही लिखा है कि बी. अम्मा कोई पढ़ी-लिखी महिला नहीं थी लेकिन ब्रिटिश क्रूरताओं से वाकिफ थीं इसलिए उन्होंने स्वराज और साम्प्रदायिक एकता के लिए अथक संघर्ष किया। यह अकारण नही है कि महात्मा गाँधी उन्हें अपनी सगी माँ का दर्जा देते हैं।

कर्मेन्दु शिशिर ने भारतीय मुसलमान और आधुनिक भारत के समय-संदर्भ और परिप्रेक्ष्य को शाह वलीउल्लाह देहलवी से लेकर मौलाना अबुल कलाम आजाद तक के विचारकों के माध्यम से समझने की कोशिश की है। उनका ‘भारतीय मुसलमान और नवजागरण’ विषयक विमर्श ‘मुस्लिम नवजागरण के महानायक : मौलाना अबुल कलाम आजाद’ के साथ पूरा होता है। यह सही भी है क्योंकि आधुनिक भारतीय समाज की समन्वित विवेक परम्परा, उदार चिन्तनशीलता और धार्मिक सहिष्णुता के संदर्भ में यदि महात्मा गांधी के बाद किसी दूसरे का नाम लिया जा सकता है तो वे मौलाना आज़ाद हैं। कर्मेन्दु शिशिर ने मुस्लिम नवजागरण की महान विरासत की उपलब्धियों और अन्तर्विरोधों को मौलाना अबुल कलाम आज़ाद के माध्यम से स्वाधीनता आन्दोलन के दौर में आजाद भारत की निर्माण प्रक्रिया में बहुत खूबसूरती से रेखांकित किया है। यह सही है कि सर सैयद अहमद ख़ान की वैचारिक चेतना के समानान्तर मुस्लिम समाज के भीतर अंग्रेजी राज विरोधी आवाज मुखर होने लगी थी लेकिन तब भी ‘मुसलमानों की भलाई अंग्रेजी शासन के तहत आराम से रहने में हैं’ - यह चेतना खत्म नहीं हुई थी। बल्कि ‘मुस्लिम यूनिवमुसलमानों का राजनीतिक लक्ष्य और कार्यक्रम’ र्सिटी’ की मांग वाले दौर में मुस्लिम अस्मिता का सवाल सबसे अहम सवाल बन गया था। अंग्रेजीराज के प्रति वफादारी और निष्ठा की वैचारिकी का विरोध बहुत सारे देवबंदी उलेमा भी कर रहे थे लेकिन इस जड़ पर असली चोट की - ‘अल हिलाल’ के मार्फत से मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने। उन्होंने मुस्लिम अस्मिता के सवाल पर ही हमला बोला : ‘‘मुसलमानों की सारी मुसीबत उनकी गफलत और गलत एत्माद की लाई हुई है। वे रुपया देने के लिए तो तैयार रहते हैं लेकिन फिर कभी मुड़कर देखते ही नहीं कि उनसे जो चूना गारा लिया गया है वो मस्जिद की तामीर में लगाया जा रहा है या मयखानों की दीवारों में।’’ महत्वपूर्ण यह है कि मौलाना अबुल कलाम आज़ाद भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौर में - 'मुसलमानों का राजनीतिक लक्ष्य और कार्यक्रम' - निर्धारित करते हैं, मुसलमानों की राष्ट्रीयता का लेखा-जोखा लेते हैं और इस्लाम के बिरादराना यकजेहती के मजबूत रिश्तों का बार-बार हवाला देते हुए मुल्क व कौम की खुशहाली एवं नवनिर्माण के लिए हिन्दू-मुस्लिम संयुक्त मोर्चा बनाने का प्रयास करते हैं और स्वतंत्र भारत में उस स्वप्न-संकल्प को साकार करने की जद्दोजहद करते हैं।

हिन्दू-मुस्लिम रिश्तों से जुड़े सवाल तकरीबन हजार साल से भारत और भारत की पहचान से बहुत गहरे संदर्भित हैं। दुःखद यह है कि तमाम तरह की आध्यात्मिक, भावनात्मक और बौद्धिक-अकादमिक कोशिश के बावजूद हिन्दू-मुस्लिम बिरादराना यकजेहती का वास्तविक लक्ष्य आज भी नहीं हासिल हो पाया है। बल्कि वर्तमान समय में तो मध्यकालीन सवालों के प्रेत नयी-नयी शक्लों में आने लगे हैं या लाये जाने लगे हैं - इसलिए धार्मिक सद्भाव, वैचारिक सहिष्णुता और विवेकशील आधुनिकता के आलोक में भारतीय मुसलमान और नवजागरण के सवाल को समझना आवश्यक है। कर्मेन्दु शिशिर ने इस भारी भरकम किताब (दोनों खण्ड मिलाकर लगभग 850 पृष्ठ) के माध्यम से मुस्लिम समाज की धार्मिक सांस्कृतिक परम्परा, ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य और नवजागरणकालीन कशमकश को विवेकसंगत ढंग से विश्लेषित करने का प्रयास किया है। उनके विश्लेषण की विशेषता यह है कि वे तथ्यों का विश्लेषण मनोनुकूल ढंग से नहीं करते बल्कि एक आब्जेक्टिविटी उनके पूरे विवेचन में व्याप्त है। हालांकि दूसरे खण्ड में कर्मेन्दु शिशिर ने नवजागरण के बौद्धिकों में - कवि, राजनेता, सम्पादक, पत्रकार, विद्वान, समाजसुधारक - जैसे विचार-चिंतन के महत्वपूर्ण प्रतीकों को चुना है और विश्लेषण में पर्याप्त स्थान दिया है, लेकिन आधुनिक भारत और मुस्लिम बौद्धिकता की दृष्टि से - डिप्टी नज़ीर अहमद, मिर्जा अबु तालिब, मोहम्मद अली जिन्ना, अकबर इलाहाबादी और डाॅ0 जाकिर हुसैन का इस किताब में न होना खटकता है। लेकिन जो नहीं है, उस पर बहस करना बेकार है। जो है, उसका निर्वाह और विश्लेषण - कर्मेन्दु शिशिर के लेखन को महत्वपूर्ण बनाता है। आज सूचना क्रांति और बौद्धिक-अकादमिक तरक्की के बाद भी भारतीय हिन्दू मन में यह धारणा बद्धमूल है कि मुस्लिम समाज यथास्थितिवादी है। मुसलमान बहुपत्नी प्रथा में विश्वास रखते हैं। मुसलमान, देशभक्त नहीं हैं। वे परिवार नियोजन का पालन नहीं करते हैं। उनकी वफादारी पाकिस्तान के साथ है। उनके लिए इस्लाम पहले हैं, राष्ट्रवाद बाद में है। मुसलमान विश्वव्यापी इस्लामवाद से प्रतिबद्ध है। वे हिन्दुओं को ‘काफिर’ कहते हैं। स्वाधीनता आन्दोलन में मुसलमानों ने अंग्रेजों से मिलकर भारत का विभाजन कराया। वे भारत को फिर से तोड़ना चाहते हैं। इस तरह की विद्वेषपूर्ण भ्रांतियाँ बहुसंख्यक समाज के एक बड़े हिस्से के दिलो-दिमाग में बैठी हैं या बैठायी गई हैं, जिन्हें निकालना किसी भी अकादमिक विमर्श का लक्ष्य होना चाहिए।

जाहिर है कि कर्मेन्दु शिशिर ने पूरी ईमानदारी से एक तरफ भारतीय समाज में व्याप्त एकरेखीय मुस्लिम चेतना की छवि को तोड़ने की कोशिश की है तो दूसरी तरफ नवजागरण के मुस्लिम महानायकों के माध्यम से स्वाधीनता आन्दोलन और भारतीय नवजागरण के आलोक में मुस्लिम अन्तःश्चेतना के प्रति व्याप्त विद्वेषपूर्ण भ्रांतियों का निराकरण भी किया है। वैसे शाह वलीउल्लाह से लेकर मौलाना आजाद कलाम आजाद तक के मुस्लिम नवजागरण की अन्तर्धाराओं की पड़ताल करने वाली एक महत्वपूर्ण कृति (मुस्लिम नवजागरण और अकबर इलाहाबादी का ‘गांधीनामा’) वीरेन्द्र कुमार बरनवाल ने भी लिखी है, जहाँ मुस्लिम नवजागरण के महत्वपूर्ण विचारकों, चिन्तकों के माध्यम से उन्नीसवीं शताब्दी की मुस्लिम मानसिकता को समझने की कोशिश भी है लेकिन इस संदर्भ में भी कर्मेन्दु शिशिर के मुस्लिम नवजागरण विषयक अध्ययन का अपना अलग महत्व है, क्योंकि जहाँ वीरेन्द्र कुमार बरनवाल बहुत परिचयात्मक ढंग से मुस्लिम नायकों का महत्व स्थापित करते हैं लेकिन न स्रोत सामग्री का हवाला देते हैं और न नवजागरण के भीतर परस्पर भिन्न विचार सन्दर्भों को समझने की जरूरत महसूस करते हैं, वहीं कर्मेन्दु शिशिर मुस्लिम नवजागरण के महानायकों के माध्यम से भारतीय समाज की मुस्लिम बौद्धिकता की उपलब्धियों और सीमाओं का मूल स्रोत सामग्री के साथ विश्लेषण करते हैं। मूल सन्दर्भ सामग्री के साथ इस कार्य के लिए कर्मेन्दु शिशिर की श्रमसाध्य तैयारी और पूर्वाग्रह मुक्त विचारदृष्टि ने उनकी नवजागरण विषयक इस पुस्तक को अधिक अर्थवान बना दिया है।


एक तरह से यह किताब हिन्दू-मुस्लिम समाज की शताब्दियों पुरानी आपसदारी के प्रति भरोसा जगाती है तो दूसरी तरफ उस धार्मिक सद्भाव के बीच कौमी खुशहाली का भविष्य देखती है। भारत में इस्लाम का आगमन, शासन-सत्ता में भागीदारी, मुगल सत्ता के भीतर भारतीय कला संस्कृति का उत्कर्ष, मुस्लिम समाज में समाजसुधार की नई करवट और इस्लाम और भारतीय राष्ट्रीयता का संश्लेष - यह भारतीय मुस्लिम मनःस्थिति के आकलन के कुछ महत्वपूर्ण पड़ाव हैं। जिसे कर्मेन्दु शिशिर ने बिना किसी हड़बड़ी के बहुत तटस्थापूर्वक संदर्भों केे साथ विश्लेषित किया है। दोनों खण्डों में परिशिष्ट के अन्तर्गत-मुस्लिम परम्परा की ‘विशिष्ट शब्दावली’, इस्लाम के भीतरी विभाजन के प्रतीक, विभिन्न मत-मान्यताएँ तथा आधुनिक काल के वैचारिक उथल-पुथल से संदर्भित आनुषंगिक सामग्री का इस्तेमाल कर मानो लेखक अपने पाठकों के विवेक को अधिकाधिक स्वतंत्र बनाना चाहता है ताकि विश्लेषण-संदर्भ और परिशिष्ट की सामग्री का मिलान कर पाठक अर्थग्रहण के लिए स्वतंत्र हो।

दरअसल कर्मेन्दु शिशिर यहाँ दोहरे दायित्व का निर्वहन कर रहे हैं। एक तो वे मुस्लिम परम्परा के भीतर विनम्र और संवादी धार्मिकता को खोजते हैं और दूसरे भारतीय नवजागरण के भीतर मुस्लिम बौद्धिक चेतना के लिए गह की तलाश करते हैं। यह दोनों कार्य भारतीय इतिहास के लिए महत्वपूर्ण कदम हैं और इस अभूतपूर्व कार्य के लिए कर्मेन्दु शिशिर आदर और बधाई के पात्र हैं। इस किताब की एक अन्य अहम बात यह है कि कर्मेन्दु शिशिर ने इतिहास को बहुत रोचक ढंग से प्रस्तुत किया है, जो पाठक को सहज ही बाँध लेता है। इस विषय और कालखण्ड में अपनी अकादमिक दिलचस्पी के कारण मुझे डाॅ0 रफीक जकरिया, प्रो0 मुशीरूल हसन, वीरेन्द्र कुमार बरनवाल जैसे कुछ और लोगों की किताबें पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। लेकिन जितनी रोचकता, पठनीयता और तथ्य-विश्लेषण की यथार्थता का अपूर्व संतुलन कर्मेन्दु शिशिर की किताब में है, उतनी किसी दूसरी किताबों में नहीं है। यह किताब एक तरफ हिन्दी पाठकों को बेहद जरूरी लेकिन अल्पज्ञात दुनिया का सम्यक परिचय कराती है तो दूसरी तरफ हिन्दी भाषा-भाषी समाज की ज्ञानराशि को समृद्ध भी करती है।

नवजागरण सम्बन्धी अध्ययन विश्लेषण के क्रम में कर्मेन्दु शिशिर की मान्यता रही है कि इस तरह का कार्य हम सबकी जिम्मेदारी है और उसे सामूहिक भागीदारी से पूरा किया जाना चाहिए। वे अध्ययन विश्लेषण के क्रम में अपनी धारणाओं का न सिर्फ संशोधन-परिमार्जन करते हैं बल्कि भिन्न तथ्य सामग्री के आलोक में पुनर्लेखन हेतु तत्पर भी रहते हैं। यहाँ प्रस्तुत पुस्तक में प्रकाशित अधिकांश लेख स्वतंत्र रूप से विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होकर चर्चित-प्रशंसित हो चुके हैं और सहमति-असहमति की पर्याप्त गुंजाइश रखते हैं क्योंकि ‘अपने तरीके से एतराज का हक़ सभी को हासिल है’- यह कर्मेन्दु शिशिर के बौद्धिक अकादमिक विमर्श का उद्देश्य वाक्य है।

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सन्दर्भ/टिप्पणी :

 1. सोर्मन, गाय, 2003, भारत की आत्मा, दिल्ली, राजकमल प्रकाशन, पृ. 51-52
 2. राय, विभूति नारायण, 2012 (भूमिका), धर्म और साम्प्रदायिकता, असगर अली इंजीनियर, दिल्ली, वाणी प्रकाशन, पृ. 01
 3. शिशिर, कर्मेन्दु, 2013, सुधीर विद्यार्थी : नवजागरण का मिशन, जमीन को देखती आँखें (संपादकः कविता  भारत), प्रतिमान प्रकाशन, शाहजहाँपुर, पृ. 18-19                                                                                     
4. शिशिर कर्मेन्दु (अपनी बात) : 2017; भारतीय नवजागरण : इतिहास का संदर्भ, खण्ड-2, दिल्ली; भारतीय       ज्ञानपीठ, पृ. 09
 5. वही, खण्ड-1, पृ. 14-15
 6. वही, पृ. 12
 7. वही, पृ. 19
 8. वही, पृ. 63-64
 9. दिनकर, रामधारी सिंह (2008), संस्कृति के चार अध्याय; इलाहाबाद; लोकभारती प्रकाशन, पृ. 264. 
10. शिशिर कर्मेन्दु (अपनी बात) : 2017; भारतीय नवजागरण : इतिहास का संदर्भ, खण्ड-1, पृ. 159
11. वही, पृ. 163-64
12. वही, पृ. 185
13. वही, पृ. 191-192
14. वही, पृ. 197
15. डाॅ. रामविलास शर्मा (1999),भारतीय संस्कृति और हिन्दी प्रदेश,भाग-2, दिल्ली, किताबघर प्रकाशन, पृ. 200
16. भारतीय मुसलमान : इतिहास का संदर्भ, भाग-1, पृ. 272
17. भारतीय संस्कृति और हिन्दी प्रदेश, भाग-2, पृ. 221
18. भारतीय मुसलमान : इतिहास का संदर्भ, भाग-1, पृ. 301
19. वही, पृ. 300
20. वही, पृ. 344
21. भारतीय संस्कृति और हिन्दी प्रदेश, भाग-2, पृ. 234
22. भारतीय मुसलमान : इतिहास संदर्भ, भाग-1, पृ. 334
23. भारतीय संस्कृति और हिन्दी प्रदेश, भाग-2, पृ. 230
24. भारतीय मुसलमान : इतिहास का संदर्भ, भाग-1, पृ0 379
25. कर्मेन्दु शिशिर, 2017, भारतीय मुसलमान : इतिहास का संदर्भ, भाग-2, दिल्ली, भारतीय ज्ञानपीठ, पृ. 28-29
26. वही, पृ. 31
27. वही, पृ. 39
28. वही, पृ. 121-122
29. वही, पृ. 118
30. वही, पृ. 119
31. वही, पृ. 121
32. वही, पृ. 166
33. वही, पृ. 166
34. शाह वलीउल्लाह देहलवी (1986),हुज्जतुल बालिगः,  मकतबा थानवी, देवबंद, पृ. 26-27
35. कर्मेन्दु शिशिर, भारतीय मुसलमान : इतिहास का संदर्भ, भाग-2, पृ. 252-53
36. मुहम्मद शीस ख़ान (अनुवादक) 1986; प्राक्कथन, डाॅ0 मुहम्मद इकबाल, इस्लाम में धार्मिक चिंतन की पुनर्रचना, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, पृ. 11-12

 37. ‘एडवोकेट’ का प्रकाशन लखनऊ से बाबू गंगा प्रसाद वर्मा ने सन् 1888 में किया। एडवोकेट के अन्तर्गत ही इलाहाबाद से ‘इण्डियन यूनियन’ भी प्रकाशित होता था। एडवोकेट ऐसा महत्वपूर्ण पत्र था जो विश्व भर की गतिविधियों तथा भारत से प्रकाशित नेशन, सटर्डे रिव्यू एवं स्पेक्टेटर जैसे पत्रों की राय से उत्तर भारतीय पाठकों को परिचित कराता था। ‘एडवोकेट’ में भारत की मुस्लिम बौद्धिकता के स्वतंत्रचेता लोग भी खुलकर अपनी राय रखते थे। यह पत्र राष्ट्रीय आन्दोलन का समर्थक था।

38. उद्धृतः मौलाना अबुल कलाम आजाद : नवजागरण और मुस्लिम मनःस्थिति , (लेख) समीर कुमार पाठक, साखी; अंक 28, मार्च 2018, पृ. 115
39. उद्धृत, प्रो. मुशीरूल हसन; 2008; भारत में राष्ट्रवाद और साम्प्रदायिक राजनीति, दिल्ली, ग्रंथ शिल्पी, पृ. 75
40. वही, पृ. 43-44
41. भारतीय मुसलमान : इतिहास का सन्दर्भ; भाग-2; पृ. 261.
42. भारतीय मुसलमान : इतिहास का सन्दर्भ; भाग-2; पृ. 306-307.
43. भारतीय मुसलमान : इतिहास का संदर्भ, भाग-2, पृ. 276
44. डाॅ. रफ़ीक जकरिया; 2003; बढ़ती दूरियाँ : गहराती दरार, दिल्ली, राजकमल ¬प्रकाशन, पृ. 64
45. भारतीय मुसलमान : इतिहास का संदर्भ, भाग-2, पृ. 71
46. वही, पृ. 72
47. वही, पृ. 75
48. वही, पृ. 78
49. वही, पृ. 220
50. वही, पृ. 229-230.
51. भारतीय मुसलमान : इतिहास का संदर्भ; भाग-2; पृ. 230.



भारतीय मुसलमान : इतिहास का संदर्भ (भाग 1 एवं 2) : कर्मेन्दु शिशिर 

भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, 2017




समीर कुमार पाठक नवजागरणकालीन साहित्य के गंभीर अध्येता के रूप में जाने जाते हैं। बालकृष्ण भट्ट, महामना मदनमोहन मालवीय, मौलाना अबुल क़लाम आज़ाद पर किए गए इनके कार्यों को हिंदी-जगत् ने पर्याप्त सराहा है। समीर कुमार पाठक एक उम्मीद हैं, एक किरण हैं। बनारस में रहते हैं। इनसे 9453114192 या samirbababanaras@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है। 



Saturday, July 4, 2020

मैं भगवान दास मोरवाल बोल रहा हूँ !





27 जून 2020 को श्री भगवान दास जी मोरवाल ने अपने फेसबुक वॉल पर लिखा -
अक्सर आदमी जाने-अनजाने दूसरों के द्वारा बड़ी बारीकी से इस्तेमाल होता रहता है। जब पता चलता है तब तक वह एक विदूषक बन चुका होता है। 
यह बहुत ही मार्के की बात है। यहाँ 'आदमी' और 'दूसरों' शब्द पर ध्यान देने की आवश्यकता है। इस्तेमाल होने वाला कौन है और इस्तेमाल करने वाला कौन है? यह एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण सवाल है क्योंकि हिंदी जगत् में गंभीर शोध के नाम पर कूड़ा-करकट परोसा जा रहा है। बहरहाल...

मोरवाल जी के कमेंट बॉक्स में मैंने लिखा -
जैसे आपने मेरा इस्तेमाल किया। 'समयमान' के बहाने।
 कमेंट बॉक्स में उन्होंने लिखा -
अरे भइये, मैंने आपकी कौन-सी सल्तनत छीन ली?
सुजीत कुमार सिंह -
अगर आप सल्तनत माँगते तो मैं झुककर दे देता। लेकिन जिस तरह भयंकर गर्मी में, बिना रिजर्वेशन के, बनारस तक दौड़ाया, उसे मैं नहीं भूल सकता।  

भगवान दास मोरवाल -
किसलिए दौड़ कर आए, यह तो स्पष्ट करो?
सुजीत कुमार सिंह -
मैं आपके झाँसे में आ गया था। इसलिए दौड़कर आपके पास गया कथासम्राट ! 
भगवान दास मोरवाल -
ग़लती तो मुझसे हो गई जो एक प्रतिभाहीन ठग को प्रमोट करने चला था वरना दिल्ली एक से एक प्रतिभाशाली से भरी हुई है। अगर वो काम सिरे चढ़ जाता तो भयंकर गरमी और बिना रिजर्वेशन कोई मायने नहीं रखता और नहीं चढ़ा तो झाँसे में आ गया। लेकिन भइये इस भयंकर गरमी और बिना रिजर्वेशन के मैंने तुम्हारा इस्तेमाल कैसे किया?
 सुजीत कुमार सिंह -
प्रतिभाहीन कौन है - यह 'अबलाओं का इन्साफ़' से स्पष्ट है। एक फ़र्जी किताब को प्रथम आत्मकथा बता रहे हैं। 
सुजीत कुमार सिंह -
सामग्री हथिया लिए और पूछ रहे हैं कि तुम्हारा इस्तेमाल कैसे किया? कुछ तो शर्म करिए कथासम्राट! 
भगवान दास मोरवाल -
मूर्ख ठग उससे ज़्यादा वैसी ही सामग्री तो जानकीपुल पर भी आ चुकी है। मुझे तो यह भी नहीं पता कि आज वह सामग्री कहाँ पड़ी है। रही बात इस्तेमाल की तो इतने भोले तुम भी नहीं हो  बनारस से दिल्ली तक दौड़े हुए आए थे। मुझे लगता है तुम जैसे बनारसी बदतमीज ठग को अपनी मित्र सूची से बाहर खदेड़ना पड़ेगा। 
भगवान दास मोरवाल -
मूर्ख ठग, अबलाओं या सबलाओं का इंसाफ़ से मेरा क्या लेना-देना। फ़र्ज़ी है या असली? तुम जानो। 
अबलाओं का इंसाफ़ का नाम आते ही मोरवाल साहब ने मुझे फेसबुक पर ब्लॉक कर दिया।

मोरवाल साहब ने मुझे प्रतिभाहीन,बनारसी ठग, मूर्ख वग़ैरह कहा है। अगर मैं ऐसा हूँ तो उन्होंने मेरी प्रशंसा क्यों की? आप सोच रहे होंगे कैसी प्रशंसा? प्रशंसा जानने के लिए इस लिंक पर जाइए -

https://aajtak.intoday.in/story/collection-of-stories-about-dalits-1-771546.html

यह भी देखें -

https://www.dainiktribuneonline.com/2015/01/%E0%A4%8F%E0%A4%95-%E0%A4%AD%E0%A4%B0%E0%A5%8B%E0%A4%B8%E0%A4%BE-%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AF-%E0%A4%9C%E0%A4%97%E0%A4%A4-%E0%A4%95%E0%A5%8B/


इसे पढ़कर आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि प्रतिभाहीन, मूर्ख, ठग कौन है ! दरअसल वे अबलाओं का इंसाफ़    
को प्रमोट कर रहे थे। 'इंडिया टुडे' और 'दैनिक ट्रिब्यून' दोनों में इसका ज़िक्र है।


दिल्ली दरबार जिसे चाहता है, उसे ऊँचा उठाता है, उसके लेखन को ऐतिहासिक बताता है और पुरस्कृत करता है। यह एक खतरनाक प्रवृत्ति है जो बढ़ती ही जा रही है।


भगवान दास मोरवाल आत्ममुग्ध कथाकार हैं। समकालीन हिन्दी कथा साहित्य में वे भोजपुरी सिनेमा के दगाबाज़ बलमा हैं। वे साम,दाम,दण्ड में विश्वास करने वाले लेखक हैं। अगर किसी शोधार्थी से दुर्लभतम सामग्री हासिल करनी हो तो इसका तरीक़ा मोरवाल जी से सीखना चाहिए।


जनवरी 2013 से मैं जोया (अमरोहा) में मुदर्रिसी कर रहा था। यह सिलसिला दिसम्बर 2017 तक चला। जोया कस्बे से मेरा विद्यालय नौ किमी दूर एक गाँव में था। रोजी-रोटी के लिए क्या शहर, क्या गाँव! मार्च 2014 की बात है। एक काम से मैं मुरादाबाद गया था। रेलवे स्टेशन रोड से गुज़र ही रहा था कि मोबाइल बजा। मैंने रिसीव किया।

"मैं दिल्ली से भगवान दास मोरवाल बोल रहा हूँ।"

"जी।  नमस्कार!"

फिर लंबी बातचीत। करीब पचास मिनट। दरअसल विश्व पुस्तक मेला-2014 में शिल्पायन पब्लिशर्स से मेरी शोधपरक संपादित किताब अछूत  (राष्ट्रवादयुगीन दलित समाज की कहानियाँ) आई थी। मोरवाल जी उसी की प्रशंसा कर रहे थे। मुझे भी अच्छा लगा कि हिन्दी के एक प्रतिष्ठित कथाकार से मेरी बातचीत हो रही है। जी हाँ, प्रतिष्ठित। हमारी पीढ़ी मोरवाल जी को सम्मान की निग़ाह से देखती है।

बातचीत के दौरान मोरवाल जी के मनसपिण्ड के नियामक तत्त्वों के बारे में भी पता चला। उनकी दृष्टि में आज़मगढ़, पिथौरागढ़, अमरोहा छोटे शहर हैं। यानी छोटे शहरों में रहने वाले लोग साहित्य सेवा नहीं कर सकते। आश्चर्य व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा कि 'छोटी जगह रहते हुए भी तुमने इतना भारी कार्य कैसे कर डाला?' महानगर की महत्ता बताते हुए उन्होंने कहा कि 'तुम्हारा सारा कार्य व्यर्थ है। तुम्हारे काम की कोई नोटिस नहीं लेगा।' मतलब अगर मैं दिल्ली जैसे शहर में होता और मोरवाल साहब जैसे लोगों की मुसाहिबी करता तो मेरा कार्य महान् होता। छह साल बाद भी दिल्ली वाला कांसेप्ट अभी भी मोरवाल साहब के ज़ेहन में कुंडली मारे बैठा है।


भगवान दास मोरवाल की विदुषी पुत्री नैया जेएनयू से डाक्टरेट हैं। हिन्दी नवजागरण में उनकी गहरी रुचि है। उनके एकाध काम दिल्ली के आलोचकों द्वारा सराहे गये हैं। डॉ. नैया संपादित अबलाओं का इन्साफ़  (राधाकृष्ण प्रकाशन,नयी दिल्ली) का विमोचन 2013 के विश्व पुस्तक मेले में नामवर सिंह के हाथों हुआ था। उसकी रपट हंस  में छपी थी।

आवरण 

वार्तालाप में मोरवाल जी ने नैया संपादित उक्त किताब की चर्चा करते हुए बड़े ही आत्मविश्वास के साथ बताया कि यह 'आधुनिक हिन्दी की पहली आत्मकथा' है। हमने कहा कि 'उस किताब को मैंने देखा नहीं है। उसे पढ़ना चाहता हूँ।' बात यह है कि अबलाओं का इन्साफ़ को लेकर 1927-1930 के मध्य एक विवाद ने जन्म लिया था कि इस किताब का लेखक कौन है? पुरुष है या स्त्री? उन बहसों और विवादों को पढ़ने से पता चलता है कि यह एक फर्जी किताब है। 'फर्जी' सुनकर वे चकराए। उनके और नैया जी के लिए यह प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया। फ़ोन पर ही वे इसके पक्ष में तमाम स्थापनाएँ देने लगे कि 'यह एक स्त्री लिखित आत्मकथा ही है।'


बात आई और गयी। मैं इस प्रसंग को भूल गया। मुझे नहीं पता कि 'फर्जी किताब' सुनकर भगवान दास मोरवाल बेचैन हो उठेंगे। उन्होंने एक दिन फिर फोन किया। इस बार पत्रिका निकालने का एक आकर्षक प्रस्ताव मेरे समक्ष रक्खा और कहा कि 'आप इसके संयुक्त संपादक बन जाइए।' हमने प्रस्ताव सहर्ष स्वीकार कर लिया।


कुछ दिन बाद एक ई-मेल आया। इस मेल की सूचना उन्होंने फ़ोन से दिया। किसी जमाने में वन्दना सिंह समयमान  नामक पत्रिका निकालती थीं। किन्हीं कारणों से पत्रिका बंद हो गयी। पूर्व में हो चुके वार्तालाप के अनुसार मोरवाल जी मुझे और अपनी विदुषी पुत्री को इस पत्रिका से जोड़ना चाहते थे। उसी से संबंधित यह मेल था। यह एक दिल्ली दरबारिया चाल  थी जिसमें वन्दना सिंह जी ने, मोरवाल साहब के इशारे पर, सुश्री नैया संबोधित पत्र में लिखा -


26.03.2014

समयमान
संपादकीय कार्यालय 
गाजियाबाद।

प्रिय नैया,
हमें इस बात कि ख़ुशी है कि आपने समयमान के साथ कार्यकारी संपादक के तौर पर जुड़ने का हमारा प्रस्ताव स्वीकार कर लिया है। हमें उम्मीद है कि आप समयमान को नये कलेवर और नये रूप में पाठकों के सामने पेश करने में सफल होंगी। आपको यह भी बताना है कि श्री सुजीत कुमार सिंह भी हमारे साथ संयुक्त संपादक के तौर पर जुड़ रहे हैं।

शुभकामनाओं सहित

वन्दना सिंह।


दिल्ली दरबार में यह प्रपंच इसलिए रचा जा रहा था ताकि अबलाओं का इन्साफ़ पर और उसके अतिरिक्त जो अन्य दुर्लभ सामग्री मेरे पास है, उसे हासिल किया जा सके। मोरवाल साहब! सिर्फ़ एक बार आप मुझसे कह देते कि वह सारी सामग्री मुझे दे दीजिए तो क्या मैं मुकर जाता! हकीक़त यह है कि वह सामग्री मेरे लिए कूड़ा था।

             
तथाकथित पत्र 


अप्रैल 2014 का अंतिम सप्ताह। सबेरे-सबेरे मोरवाल जी का फोन आया - 'सुजीत जी! आप समयमान के लिए क्या कर रहे हैं? जल्दी से निर्धारित सामग्री जुटाइए। ताकि पत्रिका समय से निकल सके।' वे मुझ पर जबरदस्त दबाव बना रहे थे। हमने कहा कि 'सामग्री के लिए बनारस जाना पड़ेगा।' 'तो जाइए न! कल निकल जाइए।' अमरोहा रेलवे स्टेशन से बनारस तक की यात्रा।  मैं कांप उठा कि इस भीषण गर्मी में बिना रिजर्वेशन के कैसे जाऊँ? बहरहाल, वेटिंग टिकट लेकर मैं निकल पड़ा। बिना आरक्षण के रेल-यात्रा नरक है। जिस कोच में मैं था, उसमें कुछ असभ्य यात्री थे जो शराब और कबाब का सेवन कर रहे थे जिसके कारण डब्बा गन्हा रहा था। रात में जब सभी लोग सो गये तो मैं भी नीचे चादर बिछाकर सो गया। छह दिन का आकस्मिक अवकाश लेकर मैंने उन दुर्लभ सामग्रियों को एकत्र किया था। भागम-भाग में तबियत भी बिगड़ गयी थी।


मई 2014। दिल्ली दरबार से पुनः फ़ोन। 9 मई को सामग्री लेकर मैं दिल्ली गया। अपने दरबार में वे मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे। स्वागत-सत्कार में पोहा और कोका-कोला परोसा गया। काम सम्पन्न हो जाने पर उन्होंने अपनी स्कूटी से मुझे द्वारका मेट्रो स्टेशन तक छोड़ा। आनंद विहार से बस पकड़कर मैं जोया चला आया। यह भी याद है कि 'अछूत' की दो-तीन प्रतियां यह कहते हुए उन्होंने ले लिया कि मैं इसकी समीक्षा फलाँ-फलाँ से लिखवाऊंगा।


भगवान दास मोरवाल के अनुसार 'आधुनिक हिन्दी की प्रथम स्त्री आत्मकथा' उपशीर्षक मैनेजर पाण्डेय ने सुझाया था। किताब आते ही दिल्ली दरबार के आलोचकों ने इसकी प्रशंसा में लेख लिखे।

हंस,पुस्तकवार्ता,उम्मीद सहित तमाम पत्रिकाओं में प्रायोजित समीक्षाएं प्रकाशित हुईं। स्वयं राजेन्द्र यादव ने हंस के संपादकीय पृष्ठ पर इसकी चर्चा की।


अबलाओं का इन्साफ़ जल्दबाजी में संपादित की गई किताब है। अगर चाँद, विशाल भारत, सुधा और सरस्वती की जर्जर फाइलों को धैर्य के साथ सूक्ष्मता से अवलोकन किया गया होता तो इस फर्जी किताब का संपादन करने से नैया जी बचतीं। हिन्दी नवजागरण पर कार्य करना तलवार की धार पर चलना है। एक फ़र्जी किताब को प्रथम आत्मकथा बताना और पूरे हिंदी समुदाय को अँधेरे में रखना घनघोर अपराध की श्रेणी में आता है।

मेरे जैसे गंवई और गंवार व्यक्ति को अपने जाल में फंसाने के बाद एक दिन 'डब्ल्यू जेड - 745 जी, दादादेव रोड, बाटा चौक के पास, पालम, नयी दिल्ली' दरबार से फ़ोन आता है - 'सुजीत जी! पत्रिका निकालने की योजना स्थगित की जाती है।' यह सुनकर मैं सन्न रह गया। सारा मैटर इकट्ठा हो चुका था।अनुक्रम भी तैयार था। सामग्री इकट्ठा करने में मैंने हज़ारों रुपये खर्च किए थे। स्थगित करने का क्या कारण हो सकता है? कुछ देर मैं शांत होकर सोचता रहा।


जब वस्तुस्थिति को समझा तो एक जोरदार ठहाका लगाया और कान पकड़ा कि अब दिल्ली दरबार से दूर ही रहूँगा। उस जोरदार ठहाके में भी एक पीड़ा थी। एक दर्द था जिसे व्यक्त करना मेरे लिए मुश्किल है। अभी पिछले साल दिल्ली से ही एक चर्चित लेखक का फ़ोन आया था। उन्होंने कहा कि 'अछूत की समस्त मूल फोटोकापी मुझे दे दीजिए। बदले में मैं आपको उचित राशि दूँगा।' सुनकर उबकाई-सी आ गयी थी।


भगवान दास मोरवाल का मैं आलोचक नहीं। जिस तरह का उन्होंने मेरे साथ व्यवहार किया, वह स्तब्ध कर देने वाला था। हिन्दी नवजागरण पर मेरे पास एक लाख से अधिक पृष्ठों की सामग्री है। मैं इसे ही सहेज नहीं पा रहा हूँ। अबलाओं का इन्साफ़ पर प्राप्त सामग्री मेरे लिए महत्त्वहीन था। मेरे मित्र डॉ. बृजराज सिंह 'मन्नन द्विवेदी गजपुरी रचनावली' पर काम कर रहे हैं। अपने शोध के दौरान मुझे गजपुरी लिखित सैकड़ों रचनाएँ मिलीं। मैंने उदारतापूर्वक उन्हें दे दिया। बृजराज जी की भी यह भलमनसाहत है कि साहित्य अकादमी से छपे मोनोग्राफ़ में मेरे लिए आभार व्यक्त किया है। मनुष्य को उदार होना चाहिए। छल, प्रपंच, कपट, ईर्ष्या से बचना चाहिए। मैं मोरवाल जी का आभारी हूँ कि अछूत की समीक्षा 'इण्डिया टुडे' में लिखी, चाहे उनका मन्तव्य जो भी रहा हो।

भगवान दास मोरवाल का अनैतिक व्यवहार उनके सम्पूर्ण लेखन पर प्रश्न उठाता है। उनका व्यवहार उनके लेखन पर शक और अविश्वास पैदा करता है। उनके शोधात्मक उपन्यासों पर अँगुली उठाई जा सकती है कि उसमें दिए गए तथ्य ग़लत हैं। यह शोध का विषय है कि कितना ग़लत है?

हिंदी-जगत् में उनकी छवि एक ख़लनायक की बनती नज़र आ रही है। मैंने उनके लिखे कमेंट का स्क्रीन शॉट लेकर जब अपने फेसबुक पर चिपकाया तो लोग भरभराकर उन पर टूट पड़े।

मुसाफ़िर बैठा जी ने लिखा -
बहुत बेहूदा जीव है, सवर्णों का पिछलग्गू है, तीन-तेरह में रहता है। उसे लगता है कि लेखक हो गया तो वह अपने भक्तों, खुशामदियों के बाड़े में ही बंद रहेगा। उसने एक बार  बिहारियों पर, बिहारीपन का मज़ाक भी उड़ाया। हरियाणा का ...रामी है। पटना के किसी कार्यक्रम में आया तो सीधा करता हूँ उसे। 
जितेन्द्र विसारिया -
काला पहाड़ पहला उपन्यास पढ़ा बहुत पसंद आया था, उसमें भी उनका दलितद्रोह एक जगह उभर आया है...उसने जहाँ इनके भाव बढ़ाए पर आगे यह खुद ही अपने आप गिरते चले गए... लेखक के रूप में यह अब किसी की पहली छोड़िए कोई पसंद नहीं रहे। 
संतोष पटेल -
महा घटिया इंसान है।  
सुशील सुमन -
महा लम्पट व्यक्ति है।  
उमाशंकर सिंह परमार -
तमाम जोड़ जुगाड़ के बाद जब राजकमल ने इनकी उपन्यास का कवर जारी किया इन्होंने दो लाख रुपये पार्टी में उड़ा डाले। बेहद आत्ममुग्ध और जड़वादी आदमी है। बुद्धिजीवी कहने से चिढ़ जाते हैं इसलिए इन्हें मैं कुबुद्धिजीवी कहता हूँ। 
अवनीश पांडेय -
आत्ममुग्ध इंसान हैं। बेहद घटिया लेखक।  
जगन्नाथ दुबे -
एक बार मेरे साथ भी ऐसा ही कर चुके हैं। इधर खुद  फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजा है। मुझे भी ब्लॉक करने से पहले इसी तरह की भाषा में मेरे बारे में लिखा था।  
अमित मनोज -
भाई साहब, आप ध्यान मत दीजिए इन पर। इनका स्वभाव है ऐसा।  
वाद-विवाद हिंदी की परंपरा है। महावीर प्रसाद द्विवेदी, बालमुकुंद गुप्त, श्यामसुंदर दास, आचार्य शुक्ल, बनारसीदास चतुर्वेदी, पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र' आदि-आदि के विवादों से हम परिचित ही हैं। इनकी भाषा सदैव संयत रहती थी। मोरवाल जी को भी संयत भाव से साहित्य की साधना करनी चाहिए। अन्यथा इनकी जो छवि हिंदी समाज में बन रही है या बन चुकी है, उसके चलते हिंदी साहित्य के इतिहास से एक सिरे से ख़ारिज हो सकते हैं।


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सुजीत कुमार सिंह

स्टेट इंस्टीट्यूट ऑफ़ एजुकेशन उत्तर प्रदेश
25, एलनगंज, इलाहाबाद - 211 002

मोबाइल :  + 91 94543 51608


Sunday, June 28, 2020

काशी-विश्वविद्यालय : श्यामसुंदर दास

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बाबू श्यामसुंदर दास की आत्मकथा सरस्वती  पत्रिका में निरंतर तेरह महीनों तक प्रकाशित होकर 1941 ई. में इलाहाबाद के इंडियन प्रेस से पुस्तकाकार छपी। रामस्वरूप चतुर्वेदी ने इसे हिंदी की पहली प्रसिद्ध आत्मकथा कहा है।

इधर सोशल मीडिया पर काशी विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के शताब्दी वर्ष पर प्रथम अध्यक्ष को लेकर बिगूचन की स्थिति है। हिंदी विभाग के ही आचार्यगण लाला भगवानदीन को प्रथम अध्यक्ष बता रहे हैं। यह सब हो रहा है विभाग में टंगे एक काष्ठ-पट्टिका पर अंकित नामों के चलते जो चीख-चीख कर बता रहा है कि प्रथम विभागाध्यक्ष लाला भगवानदीन थे। हालाँकि विभाग के ही प्रोफेसर श्रीप्रकाश शुक्ल अपने फेसबुक और प्रिंट मीडिया आदि के माध्यम से लगातार बता रहे हैं कि विभाग के प्रथम अध्यक्ष दीन जी नहीं अपितु बाबू श्यामसुंदर दास थे।

काशी विश्वविद्यालय का हिंदी विभाग अपनी औरेबियत के लिए भी जाना जाता है। प्रोफेसर श्रीप्रकाश शुक्ल उसी औरेबियत के शिकार नज़र आते हैं। उनकी आवाज़ सुनने के लिए कोई तैयार ही नहीं। वे तथ्यों की रोशनी में समझा रहे हैं लेकिन लोग समझने के लिए तैयार ही नहीं।

बाबू साहब ने अपनी आत्मकथा में एक अध्याय 'काशी-विश्वविद्यालय' शीर्षक से लिखा है। अरुण प्रकाश ने कहीं कहा है कि "आत्मकथा की छवि सत्य वाली है।" बाबू साहब की आत्मकथा का प्रस्तुत अंश तत्कालीन विभाग में हो रही राजनीति के तमाम सत्य को उद् घाटित करती है।

- सुजीत कुमार सिंह 

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सन् 1905 में जब बनारस में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन हुआ था, पंडित मदनमोहन मालवीय जी ने टाउनहाल में व्याख्यान देकर अपने उस प्रस्ताव की विशद रूप से व्याख्या की थी जिसके अनुसार वे एक ऐसे विश्वविद्यालय की स्थापना करना चाहते थे, जो भारतीय संस्कृति की रक्षा करता हुआ देश में सब के अध्ययन-अध्यापन का एक विशिष्ट केंद्र हो। उस समय तो लोगों ने यही कहा था कि यह मालवीय जी का स्वप्न है जो कभी प्रत्यक्ष भौतिक रूप धारण नहीं कर सकता। कल्पना जब तीव्र होकर मूर्तिवत् प्रतीत होने लगती है तभी संसार में बड़े-बड़े महत्त्वपूर्ण कामों का सूत्रपात होता है। यद्यपि उस समय मालवीय जी की कल्पना स्वप्नवत ही प्रतीत होती थी, पर 10 वर्षों के अनवरत परिश्रम, अदम्य उत्साह और दृढ़ विश्वास ने इस स्वप्न को, प्रत्यक्ष कर दिखाया।

इन दस वर्षों में उनकी आयोजना में भारतवर्ष और विशेषकर संयुक्त-प्रदेश में उत्साह की एक ऐसी लहर बह चली कि सब विघ्न-बाधाएँ उसके सामने विलीन हो गईं और सन् 1916 में काशी में हिंदू-विश्वविद्यालय की स्थापना हो गई। मालवीय जी के उद्योग और उत्साह की जितनी प्रशंसा की जाय, थोड़ी है। यद्यपि इसके पहले सेठ जमशेद जी नौशेरवाँ जी ताता ने तीस लाख रुपये का दान देकर बंगलूर में ताता इंस्टीट्यूट की स्थापना का सूत्रपात किया था पर हिंदू-विश्वविद्यालय की योजना के सामने वह कुछ भी नहीं है। इतना अधिक धन किसी सार्वजनिक संस्था के लिए अब तक इकट्ठा नहीं हुआ था और न भारतवर्ष के किसी और विश्वविद्यालय में शिक्षा के इतने विभागों का आयोजन ही हुआ था जितना इस विश्वविद्यालय में हुआ।

विश्वविद्यालय ने जितनी उन्नति की है उस सबका श्रेय मालवीय जी को है, यद्यपि उनके सहायकों और सहयोगियों की भी संख्या कम नहीं है। समय-समय पर विश्वविद्यालय को जो ऋण लेकर काम चलाना और बढ़ाना पड़ा है उसके लिए भी मालवीय जी का उत्साह ही उत्तरदायी है। कुछ लोगों का कहना है कि सर सुंदरलाल यदि कुछ दिन अधिक जीते रहते तो इसको ऋणग्रस्त न होना पड़ता। यह बात ठीक हो सकती है पर साथ ही यह भी संभव है कि उसकी उन्नति भी इतनी अधिक और इतनी शीघ्र न हो सकती। यहाँ पर कदाचित् यह कह देना भी अनुचित न होगा कि मालवीय जी ने जितने बड़े-बड़े कामों को अपने हाथ में लिया - जैसे अदालतों में नागरी का प्रचार, हिंदू बोर्डिंग हाउस, मिंटो पार्क आदि - उनमें हिंदू-विश्वविद्यालय ही को ऐसा सौभाग्य प्राप्त हुआ कि वह इनके हाथों पूरा हो सका, बाकी सब अधूरे ही रह गए।

मालवीय जी से मेरा पहला परिचय सन् 1894 में हुआ था जब मैं काशी-नागरी-प्रचारिणी सभा के पहले डेपुटेशन में बाबू कार्तिकप्रसाद और बाबू माताप्रसाद के साथ प्रयाग गया था। उस समय तो मैं केवल 19 वर्ष का एक युवा विद्यार्थी था। आगे चलकर उनसे मेरी घनिष्टता बढ़ती गई और अंत में मुझे उनके विश्वविद्यालय में सेवा करने का भी सौभाग्य प्राप्त हुआ। इन अवस्थाओं में मुझे उनके गुणों तथा त्रुटियों से विशेष-रूप से परिचित होने का अवसर प्राप्त हुआ। मैं इन बातों का कुछ उल्लेख यथास्थान इस प्रकरण में करूँगा।

विश्वविद्यालय की स्थापना के अनंतर यह निश्चय हुआ कि एफए और बीए की परीक्षा में प्रत्येक विद्यार्थी के लिये देशी भाषा में एक लेख लिखकर पास करना अनिवार्य होगा। इस पर हिंदी के लिये अध्यापकों की खोज होने लगी तो मालवीय जी ने पंडित रामचंद्र शुक्ल और लाला भगवानदीन को चुना। इन दिनों गर्मी की छुट्टियों में मैं काशी आया हुआ था। शुक्ल जी मुझसे मिले और कहने लगे कि सर्टिफिकेट दे दीजिए तो हम लोगों की नियुक्ति हो जाय। मैंने कहा सर्टिफिकेट तो ले लीजिए, पर वेतन का ध्यान रखिए। यदि कम वेतन पर कार्य करना स्वीकार करेंगे तो आगे चलकर हिंदी-विभाग को बड़ी कठिनाईयों का सामना करना पड़ेगा। पर उन्हें उस समय यह चिंता व्यग्र कर रही थी कि शब्दसागर का कार्य समाप्त हो जाने पर हम क्या करेंगे। अस्तु, मेरी सम्मति की उन्होंने उपेक्षा की और 60) मासिक पर कार्य करना स्वीकार कर लिया।

जैसा कि मैं पहले लिख चुका हूँ, जुलाई सन् 1921 से मैंने कालीचरण स्कूल की हेडमास्टरी से त्यागपत्र दे दिया और मैं काशी चला आया। यहाँ आने के पहले एक महानुभाव ने मुझे यह वचन दिया था कि तुम घर पर बैठे-बैठे हमारे कार्य का निरीक्षण करना, हम तुम्हें 200) मासिक देंगे। मैंने इसे स्वीकार कर लिया और जीविका-निर्वाह की व्यवस्था से निश्चिंत हो गया। पर काशी आ  जाने पर उनके ज्येष्ठ पुत्र ने, जो उस समय समस्त कार्य की देख-भाल करने लगे थे, यह कहा कि यह नहीं हो सकता। तुम्हें हमारे कार्यालय में नित्य आकर काम करना होगा। इसे मैंने स्वीकार नहीं किया।

अब मैं बाबू गोविंददास से मिला और उन्हें सब बातें कह सुनाईं। उन्होंने कहा कि तुम चिंता मत करो, मैं व्यवस्था करता हूँ। उन्होंने विश्वविद्यालय में यह प्रस्ताव किया कि हिंदी-साहित्य का अध्ययन युनिवर्सिटी की उच्चतम परीक्षा के लिये एक स्वतंत्र विषय माना जाय। यह प्रस्ताव स्वीकृत हुआ और हिंदी-विभाग खोलने का आयोजन होने लगा। बाबू गोविंददास ने मुझे मालवीय जी के पास भेजा और उपदेश दिया कि वेतन के लिये न अड़ना। हाँ, पद का ध्यान रखना और युक्ति से काम लेना।



मेरी नियुक्ति आश्विन सन् 1921 से युनिवर्सिटी में हो गई और हिंदी-विभाग का पूरा-पूरा आयोजन करने का मुझे आदेश हुआ। पीछे से मुझसे पंडित रामचंद्र शुक्ल ने कहा कि मालवीय जी ने मुझे तथा लाला भगवानदीन को बुलाकर पूछा था कि हम श्यामसुंदरदास को हिंदी-विभाग का अध्यक्ष बनाना चाहते हैं, तुम लोगों की क्या सम्मति है।  शुक्ल जी ने उत्तर दिया कि हम लोगों को उनके अध्यक्ष होकर आने में कोई आपत्ति नहीं है। जिस दिन मेरी नियुक्ति का निश्चय हुआ उसी दिन संध्या को बाबू ज्ञानेंद्रनाथ बसु ने, जो उस समय युनिवर्सिटी कौंसिल के उपमंत्री थे, मुझे पत्र लिखकर इसकी सूचना दी।

अब कार्य का आरंभ हुआ। एफए , बीए और एमए क्लासों में हिंदी की स्वतंत्र पढ़ाई का आरंभ तो जुलाई सन् 1922 से ही हो सकता था। इस बीच में इस संबंध का सब कार्य संपन्न किया गया। पाठ्य पुस्तकों का चुनाव हुआ और पढ़ाई का क्रम निश्चित हुआ। इस समय इस विभाग में केवल तीन अध्यापक थे। पर अभी तो केवल फर्स्ट ईयर, थर्ड ईयर और फिफ्थ ईयर में पढ़ाई आरंभ हुई थी, अतएव अधिक अध्यापकों की आवश्यकता भी न थी। पर आगे चलकर इसके लिये बड़ा विकट प्रयत्न करना पड़ा।

पहली कठिनाई, जिसका मुझे सामना करना पड़ा, अध्यापन और परीक्षा का माध्यम था। युनिवर्सिटी का नियम था कि सब विषयों की पढ़ाई और परीक्षा अँगरेजी भाषा के माध्यम द्वारा हो। मुझे यह नियम सर्वथा अनुचित जान पड़ता था कि संस्कृत और हिंदी की पढ़ाई और परीक्षा भी अँगरेजी के द्वारा हो। पर यह मेरी शक्ति के बाहर की बात थी कि मैं इसे तोड़ या बदल सकता। मैंने इसे धैर्यपूर्वक इस बात के सुधार का उद्योग आरंभ किया और किसी को इसका आभास न मिलने दिया।

पंडित रामचंद्र शुक्ल तो अँगरेजी में पढ़ा सकते थे, पर लाला भगवानदीन ऐसा करने में असमर्थ थे। अतएव हम लोगों ने पढ़ाना हिंदी में आरंभ कर दिया। बीच-बीच में अँगरेजी का प्रयोग करते जाते थे। प्रश्नपत्र अभी अँगरेजी ही में छपते थे। आगे चलकर कोई-कोई पत्र हिंदी में भी छपने लगा। यह कार्य क्रमशः हुआ।

एक दिन सेनेट के अधिवेशन में मैंने इस बात को छेड़ा। मैंने कहा कि यह बड़ी अस्वाभाविक बात है कि हिंदी और संस्कृत की पढ़ाई और परीक्षा अँगरेजी में हो। इससे हमारे संस्कृत और हिंदी-साहित्य को जो हानि पहुँचती है वह तो अत्यधिक है, साथ ही विद्यार्थियों को भी भाव समझने और उसे लिखकर स्पष्ट करने में कठिनता होती है। मालवीय जी कह बैठे कि यह अनुचित है। मैंने एक प्रश्नपत्र, जो पंडित केशवप्रसाद मिश्र का बनाया हुआ था, दिखाकर कहा कि देखिए यह हिंदी में कितना सुंदर हुआ है और अँगरेजी में यह कितना भद्दा हो जाता। मालवीय जी ने प्रश्नपत्र लेकर देखा और उसकी प्रशंसा करते हुए कहा कि नहीं हिंदी और संस्कृत के प्रश्नपत्र जहाँ तक संभव हो उन्हीं भाषाओं में हों।

मालवीय जी में भावुकता की मात्रा अधिक थी। भावोन्मेष में आकर वे आगा-पीछा कुछ नहीं सोचते थे और चट कार्य कर बैठते थे। इसमें यदि किसी नियम का भंग होता हो तो उसकी उन्हें चिंता न थी। कदाचित् उनकी यह धारणा थी कि नियम कार्य की व्यवस्था ठीक करने के लिये हैं, न की उसमें बाधा डालने के लिये।

अब तो हम लोग खुलकर हिंदी के माध्यम से पढ़ाने और परीक्षा लेने लगे। अंत में जाकर यह भी निश्चय हो गया कि डाक्टरी की डिग्री के लिये भी संस्कृत और हिंदी से संबंध रखनेवाले हिंदी या संस्कृत में लिखे जा सकते हैं। इस विषय पर किंचित् विस्तार से लिखने की आवश्यकता इसलिये हुई कि आजकल शिक्षा के माध्यम का प्रश्न बड़े जोरों से उठा है। कुछ परीक्षाओं में मातृभाषा माध्यम मान ली गई है, औरों का विषय विचाराधीन है। पर इस माध्यम के प्रश्न में जो हिंदुस्तानी का पुछल्ला जोड़ दिया गया है उससे हिंदी को विशेष हानि की आशंका है तथा उच्च शिक्षा तो हिंदुस्तानी-द्वारा हो ही नहीं सकती। एक संकर भाषा की रचना करने का व्यर्थ उद्योग करके हिंदी की उन्नति के मार्ग में काँटे बोना बुद्धिमत्ता नहीं कही जा सकती।


दूसरी कठिनाई, जिसका हम लोगों को सामना करना पड़ा, उपयुक्त पुस्तकों का अभाव था। पद्य-साहित्य की पुस्तकें तो अच्छी मात्रा में उपलब्ध थीं पर उनके अच्छे संस्करण दुर्लभ थे। भाषा-विज्ञान, आलोचनाशास्त्र, हिंदी भाषा और हिंदी-साहित्य के इतिहास की पुस्तकों का सर्वथा अभाव था; साहित्य के एक-दो छोटे-मोटे इतिहास जैसे ग्रियर्सन के और ग्रीव्स के उपलब्ध थे, पर उनसे पूरा-पूरा काम नहीं निकल सकता था। उपयुक्त गद्य-ग्रंथों का एक प्रकार से अभाव ही था। शुक्ल जी ने जायसी, सूर, तुलसी आदि के ग्रंथों के संस्करण तैयार किए और विद्वत्तापूर्ण भूमिकाएँ लिखीं। मैंने भाषा-विज्ञान, आलोचनाशास्त्र, नाट्यशास्त्र आदि पर ग्रंथ लिखे तथा अन्य लोगों को गद्य-ग्रंथों के लिखने के लिये उत्साहित किया और कुछ संग्रह आप भी तैयार किए। अपने रचित ग्रंथों के विषय में यथास्थान विस्तार से लिखूँगा।

तीसरी कठिनाई अध्यापकों की अल्प संख्या थी। इसके लिये कोई उद्योग सफल होता नहीं दिखाई देता था। संयोग से ओरियंटल-विभाग में हिंदी-निबंध की शिक्षा देने का निश्चय हुआ। इसके लिये पंडित अयोध्यासिंह उपाध्याय चुने गए। उन्हें एक दिन युनिवर्सिटी में देखकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। मैंने उनसे आग्रह किया कि हमारे विभाग में भी वे कुछ कार्य-भार लें। इसको उन्होंने सहर्ष स्वीकार किया। उपाध्याय जी हिंदी के उत्कृष्ट कवि और सुलेखक हैं। उन्होंने हिंदी-साहित्य को अनेक रत्नों से विभूषित किया है। मुझे उनसे बड़ी आशा थी कि एक योग्य व्यक्ति के मिल जाने से हमारा काम भली भाँति चल सकेगा। पर मुझे उनके अध्यापन-कार्य से असंतोष ही रहा। वे यह नहीं समझ सकते थे कि स्कूल की पढ़ाई और कॉलेज की पढ़ाई में क्या अंतर है और कैसे उसे निबाहना चाहिए।

कई उलट-फेर किए गए पर कहीं भी सफलता नहीं मिली। निबंध पढ़ाने को दिया गया तो पुस्तक पढ़ाने की अपेक्षा हिंदू-संगठन और हिंदुओं के ह्रास पर उनके व्याख्यान होने लगे। अंत में हारकर उन्हें उन्हीं के रचित ग्रंथ पढ़ाने को दिए गए पर उस काम को भी वे पूरा न कर सके। साल भर में चौथाई पुस्तक भी न पढ़ा सके। मेरी ही भूल थी कि मैं यह समझता था कि एक विद्वान लेखक अच्छा अध्यापक भी हो सकता है। मालवीय जी को उचित था कि वे स्वयं आकर देखते कि पढ़ाई कैसी होती है तो उनकी आँखें खुल जातीं। पर उन्होंने ऐसा नहीं किया। अस्तु किसी प्रकार काम चलता रहा। जब लड़कियों के लिये अलग कॉलेज बना तब वे वहां हिंदी पढ़ाने के लिए भेजे गए पर मेरे समय तक सप्ताह में दो घंटे की पढ़ाई उनकी आर्ट्स कॉलेज में चलती रही।


कई वर्षों के अनुभव के अनंतर हम लोगों ने हिंदी के पाठ्यक्रम में परिवर्तन करने की आवश्यकता समझी। यथासमय प्रस्ताव किए गए और वे स्वीकृत हुए। इसमें मुख्य परिवर्तन यह था कि एमए के विद्यार्थी को किसी आकर भाषा (संस्कृत, पाली, प्राकृत या अपभ्रंश) या किसी दूसरी देशी भाषा (बँगला, मराठी, गुजराती, उर्दू) में भी एक प्रश्नपत्र का उत्तर देना पड़ता था। आकर भाषा के पढ़ाने का हमारे विभाग में प्रबंध न था। इसलिये मैंने एक नये व्यक्ति की नियुक्ति का प्रस्ताव किया। प्रस्ताव स्वीकृत हुआ और मैंने पंडित केशवप्रसाद मिश्र के नियुक्त किए जाने की सिफारिश की।

पंडित केशवप्रसाद मिश्र हिंदू स्कूल में संस्कृत के अध्यापक थे। मैं इनकी योग्यता पर मुग्ध था। अतएव मैंने इन्हें लेने का भरसक उद्योग किया। अनेक विघ्न उपस्थित हुए पर अंत में केशव जी की नियुक्ति हो गई। केशव जी बड़े सज्जन और सरल चित्त के व्यक्ति हैं, पूरे-पूरे विद्याव्यसनी हैं, पर इनकी रुचि जितनी पढ़ने में है उतनी लिखने में नहीं। एक इन्हीं के आगे मुझे हार माननी पड़ी है। अनेक बेर इन्हें कुछ लिखने के लिये मैंने उत्साहित किया  कभी-कभी आग्रह भी किया, पर मेरे सब प्रयत्न निष्फल गए। कदाचित् इनमें आत्मविश्वास की कमी है। ये सदा सोचते हैं कि और पढ़ लें और ज्ञान प्राप्त कर लें तब लिखें। इसी कारण केवल मेघदूत के अनुवाद और कुछ लेखों के अतिरिक्त वे कोई साहित्यिक रचना न कर सके। इनमें एक बड़ी त्रुटि है। ये इतने सरल हैं कि कोई भी होशियार आदमी इन्हें धोखा दे सकता है। मनुष्यों की परख इन्हें प्राय: बिलकुल नहीं है। यदि साक्षात् प्रमाणों के मिल जाने पर भी ये किसी को निकृष्ट समझ लेते हैं तो भी सहृदयता और सज्जनता के मारे उससे संबंध नहीं तोड़ते, वरन् कभी-कभी तो इसके विपरीत भाव का मन से विरोध करते हुए भी साधारणत: उसका साथ देते हैं।  उनका यह सिद्धांत जान पड़ता है कि जिसका एक बेर हाथ  लिया उसे, अनेक दोष रहने पर भी, छोड़ना मनुष्यता नहीं है। पढ़ाने-लिखाने में तो वे पटु हैं, पर और कामों में कुछ ढीले-ढाले से हैं। इनके कारण मुझे दो-एक ऐसे व्यक्तियों से काम पड़ गया जिन्होंने मुझे बहुत दुःख दिया, पर यह उनका नहीं, उनके मनुष्य को न समझ सकने का दोष है।

लाला भगवानदीन के स्वर्गवासी होने पर किसी को नियुक्त करने का प्रश्न उपस्थित हुआ। मैंने डाक्टर पीतांबरदत्त बड़थ्वाल के नियुक्त होने का प्रस्ताव किया पर इसका विरोध एक दूसरे प्रभावशाली अधिकारी ने किया। इस बेर इंजीनियरिंग कॉलेज के प्रिंसपल मिस्टर किंग ने सहायता की और बड़थ्वाल की नियुक्ति हुई। पीछे एक और व्यक्ति के बढ़ाने का आयोजन हुआ। दो विद्यार्थियों में से चुनाव होने वाला था - एक थे नंददुलारे वाजपेयी और दूसरे थे जगन्नाथप्रसाद शर्म्मा।  मैं वाजपेयी जी को हृदय से चाहता था पर मालवीय जी ने यह कहकर जगन्नाथप्रसाद को नियुक्त किया कि वह देश के लिये जेल हो आया है।


आगे चलकर वेतन का प्रश्न उठा। सब अध्यापकों को बहुत कम वेतन मिलता था। किसी को 100) मासिक से अधिक नहीं मिलता था। केवल मुझे 250) मिलते थे। इस अन्याय को हटाने के लिये बहुत दिनों तक प्रयत्न करना पड़ा, तब कहीं जाकर वेतन बढ़ा। सहायक अध्यापकों का वेतन 100)-10)-150) हुआ। मेरे साथ तो विशेष कृपा हुई। जब इस वेतन के प्रश्न ने उत्कट प्रयत्न का रूप धारण किया तब मेरा ग्रेड 150)-10)-300) हुआ। युनिवर्सिटी के किसी प्रोफेसर को यह वेतन नहीं मिलता। केवल असिस्टेंट प्रोफेसरों का यह ग्रेड है। मैं प्रोफेसर था और मेरे भली भाँति कार्य चलाने का उपहार यह मिला कि पद प्रोफेसर का रखकर ग्रेड असिस्टेंट प्रोफेसर का दिया गया। मैंने इसे स्वीकार नहीं किया। अंत में जाकर 400) वेतन मुझे दिया जाने लगा और इसके लिये मैं ध्रुव जी का अनुगृहीत हूँ कि उन्होंने बड़े जोरों से मेरे पक्ष का समर्थन किया था। मुझे यह सब अनुभव करके कभी-कभी यह संदेह हो जाता था कि मालवीय जी में हिंदी के प्रति वास्तविक प्रेम है या नहीं। जहाँ कहीं विद्यालय के विषय में वे व्याख्यान देते वहाँ हिंदी और संस्कृत-विभागों की जी खोलकर प्रशंसा करते पर स्वयं हिंदी-विभाग के प्रति उपेक्षा का भाव रखते। उनके एक अंतरंग पारिपार्श्विक ने एक बेर मुझे सलाह दी कि समाचारपत्रों में मैं इसका आंदोलन करूँ। मैं इनकी चाल समझ गया। मैंने उत्तर दिया कि जब समय आवेगा तब देखा जायगा। मैं अब तक मालवीय जी के इस उपेक्षाभाव को नहीं समझ सका हूँ। कदाचित् 'अतिपरिचयादवज्ञा' ही इसका कारण हो।

जब तक मैं विद्यालय में काम करता रहा, मुझे निरंतर कठिनाइयों का सामना करना पड़ता। दो-एक घटनाओं का मैं उल्लेख करता हूँ।

एक समय पंडित रामचंद्र शुक्ल ने अलवर में नौकरी करने के लिये एक वर्ष की छुट्टी ली। उनके स्थान पर किसी की नियुक्ति आवश्यक थी। मैंने कहा कि एक वर्ष के लिये किसी को चुन लीजिए। मुझे आदेश मिला कि तुम अपने किसी अच्छे विद्यार्थी से काम लो। मालवीय जी के आने पर उसकी नियुक्ति हो जायगी। इस पर मैंने सत्यजीवन वर्म्मा को कार्य का भार दिया। कुछ महीनों तक उसने काम भी किया, पर मालवीय जी ने आकर यह निश्चय किया कि नहीं, कोई नई नियुक्ति न होगी। विभाग के लोग आपस में काम बाँट लें। बेचारे सत्यजीवन को अलग होना पड़ा।

एक बेर मैंने यह सोचा कि एमए के विद्यार्थियों को भाषाविज्ञान पढ़ाने के लिये एक ऐसा नकशा बनवाया जाय जिसमें भिन्न-भिन्न भारतीय देश-भाषाओं की भौगोलिक सीमाएँ भिन्न-भिन्न रंगों में दिखलाई जायँ। नकशा तो मैंने उस धन में से मँगवा लिया जो मुझे पुस्तकें खरीदने के लिये स्वीकृत था, पर रँगवाने के लिये मैंने 15) माँगे। वे मुझे न मिले।

युनिवर्सिटी के मित्रों में मेरे सबसे अधिक प्रिय, अंतरंग और विश्वासपात्र पंडित इंद्रदेव तिवाड़ी थे। उनसे मेरी खूब पटती थी। वे मेरी कठिनाईयों को सुलझाने में सदा सहायता देते थे। ऐसे मित्रों का मिलना कठिन है। मेरे सौभाग्य से मेरे जीवन में एक यही ऐसे मित्र मिले थे जो सब अवस्थाओं में अपने धर्म का पूर्णतया पालन करते थे। लू लग जाने से इनका देहांत हो गया। इनकी स्मृति अभी तक मुझे कभी-कभी विह्वल कर देती है। जब ये रजिस्ट्रार हुए तो उसी दिन रात को आकर मुझे सूचना दी और अपने सपक्ष तथा विपक्षों की बातें सुनाईं। वे अपनी गुप्त से गुप्त बात मुझसे कह देते थे। इनकी रजिस्ट्रारी में मैं तीन बेर युनिवर्सिटी-परीक्षाओं का परिणाम तैयार (Tabulator) करने के लिये नियुक्त हुआ। एक बेर मैंने सिंडिकेट में यह बात कही कि इसके लिये जो पुरस्कार मिलता है वह बहुत थोड़ा है। इस पर कहा गया कि आदमी दूने कर दो। वैसा ही हुआ और 200) वार्षिक का खर्च बढ़ गया। कैसी विचित्र बात है कि उसी काम के लिये धन की कमी थी, पर तुरत ही उसी काम के लिये दो और व्यक्तियों का पुरस्कार देने को धन मिल गया।

उस वर्ष की बात स्मरण आती है जिस वर्ष पीतांबरदत्त को डाक्टर की उपाधि मिलने वाली थी। इस अवसर पर कई महानुभावों को आनरेरी डिग्री देने का उपक्रम किया गया था। युनिवर्सिटी का यह नियम है कि किसी विभाग का कोई विद्यार्थी जो उपाधि पाने के योग्य समझा जाय उसे कानवोकेशन में उपस्थित करने का अधिकार उस व्यक्ति को होगा जो उस विभाग का अध्यक्ष तथा सेनेट का सदस्य होगा। इस नियम के अनुसार मुझे पीतांबरदत्त को उपस्थित करने का अधिकार था, पर उस वर्ष में आचार्य ध्रुव जी के लिये उपस्थित करने को कोई विद्यार्थी न था। अतएव वाइसचैंसलर महोदय ने निश्चय किया कि पीतांबरदत्त को ध्रुव जी ही उपस्थित करें। यह बात मुझे बहुत बुरी लगी पर मैं चुप रह गया।

एक समय मैंने सेनेट में कुछ प्रस्ताव फैकेल्टी के नियमों में संशोधन करने के लिये किए। इन नियमों का संबंध कोर्ट से भी था। अतएव मैंने सूचना दी कि मैं इन प्रस्तावों को कोर्ट में भी उपस्थित करूँगा। मैं उस समय कोर्ट का भी सदस्य था। असिस्टेंट सेक्रेटरी साहब ने, जो बहुत दिनों तक संयुक्त-प्रदेश की दीवानी कचहरी के एक उच्च पद पर रह चुके थे, फतवा निकाला कि मेरी अवधि अब पूरी होनी चाहती थी अतएव मैं कोई प्रस्ताव नहीं उपस्थित कर सकता। मैंने पूछा कि आपको यह कैसे ज्ञात हुआ कि मैं फिर कोर्ट का सदस्य न चुना जाऊँगा। इसका उत्तर न था, पर एक बेर जो जज साहब का फैसला हो गया तो उसकी अपील कहाँ हो सकती थी? जब सेनेट में मैंने प्रस्ताव उपस्थित किया तब मालवीय जी ने कहा कि इसका संबंध कोर्ट से भी है, अतएव यह यहाँ भी उपस्थित होना चाहिए। मैंने जज साहब के फैसले की बात कह सुनाई तब उन्होंने कहा की यह उनकी गलती थी। परिणाम यह हुआ कि काम एक वर्ष के लिये रुक गया। इस प्रकार की धाँधली युनिवर्सिटी में हुआ करती थी।


युनिवर्सिटी में काम करते हुए मुझे अनेक प्रकार के विद्यार्थियों से काम पड़ा। कुछ विद्यार्थी तो बड़े सात्त्विक स्वभाव के अत्यंत श्रद्धालु तथा विद्याव्यसनी थे। इनमें मुख्यत: चार नाम मेरे सामने आते हैं - एक पीतांबरदत्त बड़थ्वाल, दूसरे नंददुलारे वाजपेयी, तीसरे हरिहरनाथ टंडन और चौथे श्रीधरसिंह। इन चारों के स्वभाव में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। वे अब तक मुझे उसी दृष्टि से देखते हैं जिस दृष्टि से अपने पठनकाल में देखते थे। इन चारों के मेरे प्रति अत्यंत श्रद्धा और भक्ति है। इनमें से दो ने मेरे सहयोग में कई काम किए हैं, जिनका उल्लेख यथास्थान किया जायगा। मैं और इतना और कह देना चाहता हूँ कि इनके प्रति मेरे भाव भी अत्यंत स्नेहमय हैं और मैं यथाशक्ति इनकी सहायता करने से कभी पराङ्मुख भी नहीं हुआ।

अधिकांश विद्यार्थी मुझे ऐसे मिले हैं जो अपने स्वार्थसाधन में कोई बात उठा नहीं रखते थे। इनमें से किसी-किसी को तो मैंने महीनों 20) मासिक अपने पास से दिया और अपने मित्रों से दिलाया, पर इनमें से ऐसे नरपिशाचों से भी मुझे काम पड़ा है जो अपने स्वार्थसाधन करने में मेरा अनिष्ट करने से भी नहीं हिचके। हिंदू-विश्वविद्यालय में ही ऐसे विद्यार्थी हों ऐसी बात नहीं है। मुझे कई बेर मौखिक परीक्षा लेने के लिये आगरा जाना पड़ा है। वहाँ परीक्षा के बाद प्राय: विद्यार्थी मुझसे मिलने आते। कोई कहता मैं तो गा या कविता कर सकता हूँ, और कुछ नहीं जानता। ऐसे विद्यार्थियों से भी मुझे काम पड़ा है जो ऊपर से तो मुझ पर बड़ी श्रद्धाभक्ति दिखाते पर भीतर से उनका उद्देश्य स्वार्थसाधन-मात्र रहता। एक विद्यार्थी का मुझे स्मरण आता है जो मौखिक परीक्षा देकर बाहर ठहरा रहा। मेरे कार्य समाप्त होने पर डेरे पर चलने के समय वह मेरे साथ हो लिया और कहने लगा कि मुझे आपसे निवेदन करना है, आज्ञा हो तो कहूँ। उसने कहा कि मैं आपका जीवनचरित लिखना चाहता हूँ। यदि आप सहायता करें तो छुट्टियों में आपके पास काशी आऊँ। मैंने उससे कहा कि मेरे पास जीवनचरित की कोई सामग्री नहीं है जो मैं तुम्हें दिखा या बता सकूँ। मैंने उसकी और परीक्षा करनी चाही। कई वर्षों बाद वह मुझसे काशी में मिला और मेरी जीवनी के नोट्स माँगने लगा। मैंने उसे नोट्स दे दिए। कुछ दिनों के पीछे उसने उन्हें लौटा दिया, पर आज तक वह जीवनी देखने में न आई। वास्तव में बात यह थी कि वह मेरी जीवनी नहीं लिखना चाहता था, उद्देश्य केवल यही था कि मैं अन्य कामों में उसकी सहायता करता रहूँ। यह मैंने किया भी। पर उसके कथनानुसार अस्ताचल में गए हुए सूर्य की कोई पूजा नहीं करता। अतएव अब मुझसे किसी कार्य के निकलने की आशा उसने छोड़ दी और उसके दर्शन भी दुर्लभ हो गए।

एक और विद्यार्थी की करनी मुझे स्मरण आ रही है। वह हिंदी और अँगरेजी में एमए पास था तथा मेरे एक अत्यंत प्राचीन मित्र के आश्रय में उनके यहाँ रहता था। जब जगन्नाथप्रसाद शर्म्मा की नियुक्ति का प्रश्न उठा हुआ था तब उसने भी उसके लिये उद्योग किया। उसके मन में यह भावना उत्पन्न हुई कि यदि वह मेरा विरोध करे और जगह-जगह मेरी निंदा करता फिरे तो मेरे विरोध करने पर भी उसकी नियुक्ति हो जायगी। यह भावना उसके मन में कैसे उत्पन्न हुई अथवा किसके उपदेश से उसने इस मार्ग का अवलंबन किया यह मुझे आज तक ज्ञात नहीं हुआ। मेरे मित्र ने कई बेर मुझसे कहा कि मैंने उसे बहुत डाँटा। पर उनकी डाँट-फटकार का कोई परिणाम न देख पड़ा। मेरे इन मित्र की यशोलिप्सा इतनी बढ़ी हुई है और इसके लिये वे इतना चिंतित रहते हैं कि किसी प्रकार से भी अपनी यशरूपी चादर पर कलंक का एक छींटा भी नहीं लगना देना चाहते। यदि उन्हें कभी कोई आशंका भी हो जाती तो साम, दंड, भेद में से जिस नीति को उपयुक्त समझते उसका अनुसरण कर वे अपना अभीष्ट सिद्ध कर लेते हैं। उन्हें कदाचित् यह आशंका थी कि यदि मैं उसको अपने आश्रय से निकाल देता हूँ तो कहीं वह विद्यार्थी मेरे ही पीछे न पड़ जाय और तब स्थिति सँभालना कठिन हो जायगा।


पंडित रामनारायण मिश्र मेरे बहुत पुराने मित्रों में हैं। अनेक अवसरों पर उन्होंने मेरी बड़ी सहायता की है। मैंने भी यथासाध्य उनका हाथ बटाने का उद्योग किया है। सन् 1905 में जब काशी में सोशल कान्फरेंस हुई थी तब उन्होंने मुझे शिखंडी-रूप में आगे खड़ा करके  कान्फरेन्स का काम चलाया था। गालियाँ मैंने खाई थीं और सब कार्य-संचालन परोक्षरूप से पंडित जी करते थे। मुझे इस बात का आंतरिक खेद है कि एक बेर मैंने अपने पुत्र संबंध में उनसे भिक्षा माँगी थी। वे नहीं तो न कर सके, पर एक अन्य व्यक्ति की आड़ में उन्होंने उस प्रस्ताव का विरोध कराया, यद्यपि वहाँ विरोध की आवश्यकता ही न थी। वहाँ पर वे चाहते तो भी मुझे भिक्षा देने में असमर्थ थे। इस स्थिति का उनको पता न था, नहीं तो एक बड़े पुराने मित्र की उपेक्षा करने के दोष से यों ही बच जाते।


अपने जिन शिष्यों से मेरी अधिक घनिष्ठता थी, उनमें हरिहरनाथ टंडन, श्रीधरसिंह, सत्यजीवन वर्म्मा, रमापति शुक्ल, रमेशदत्त पाठक, कृष्णशंकर शुक्ल, बलराम उपाध्याय, पुरुषोत्तम श्रीवास्तव आदि भी थे। उनकी भक्ति और श्रद्धा पूर्ववत् बनी हुई है। उनसे मेरा परम स्नेह है और वे भूलकर भी आक्षेपयोग्य आचरण नहीं करते।

Saturday, June 20, 2020

अब्दुर्रहीम ख़ानेख़ाना : काव्य-सौन्दर्य और सार्थकता



1905 ई. के भारत मित्र  में बाबू बालमुकुंद गुप्त ने अकबर की पुण्यतिथि के तीन सौ वर्ष पूर्ण होने पर 'अकबर बादशाह' शीर्षक एक लेख लिखा था। यह लेख अकबर की प्रशंसा में है। 115 साल पहले हम किसी मुसलमान शासक की प्रशंसा कर सकते थे लेकिन आज नहीं। अगर करते हैं तो उसके खतरे हैं। बालमुकुंद गुप्त ने लिखा है -
"शान्ति और सुशासन का वह बड़ा पक्षपाती था।...अकबर दुनिया के नेकनाम बादशाहों में से था। उसने नेकी और नेकनामी के बड़े बड़े काम किये, जिनके कारण आज तक लोग उसका नाम बड़े प्रेम से लेते हैं। उसे लोगों ने सुलहकुल की उपाधि दी थी, जिसका अर्थ है सबसे मिलकर चलने वाला। अकबर में सबसे बड़ा गुण यह था कि उसे किसी जाति, किसी सम्प्रदाय और किसी धर्म्म से द्वेष नहीं था। हिंदुओं को उसने ऐसा प्रसन्न किया कि वह उस पर जी जान से मोहित थे। हिंदुओं ने उसको 'जगद्गुरु' तक की उपाधि दे डाली थी। हिंदी और संस्कृत पुस्तकों में अकबर की बहुत कुछ प्रशंसा लिखी गयी है।...पोथियों में ही नहीं, अमीर से कंगाल तक के झोपड़े में अकबर का यश गाया जाता था। वह जीते जी यशस्वी हुआ और आज उसको मरे तीन सौ वर्ष हो गए; अब भी लोग उसे भूले नहीं हैं।...अकबर के समय में बड़ा अमन चैन था। अन्न सस्ता था, प्रजा सुखी थी। सब सुख के दिन बिताते थे।..."
तीन सौ पूरे होने पर,अकबर की याद में, पढ़े-लिखे लोगों का एक तबका कुछ योजनाएं बना रही थीं लेकिन बंगाल विभाजन ने उनकी योजना पर तुषारापात कर दिया -
"ता. 16 अक्टूबर अकबर बादशाह के मरने की तिथि कही जाती है। उक्त तिथि को अकबर बादशाह को मरे पूरे 300 वर्ष हो गए। कई महीने पहले कुछ शिक्षित लोगों के जी में यह विचार उठा था कि उक्त तिथि को अकबर के स्मरणार्थ कुछ उत्सव किया जाए। कई एक मासिक पत्र वालों ने अकबर नम्बर निकालने की बात भी सोची थी। पर वही 16 अक्टूबर की तिथि बंगाल के टुकड़े होने की तिथि निकल आई। उससे एक नई बात खड़ी हो गई। अकबर को उसके सामने लोग याद न रख सके। अपनी विपद् में मनुष्य और की बात भूल जाता है।"
मुझे नहीं पता कि बाद में 'अकबरोत्सव' हुआ या नहीं? किसी पत्रिका ने 'अकबर नम्बर' निकाला या नहीं? नवजागरणकालीन  इतिहास की किताबों, पाठ्यपुस्तकों आदि में अकबर का मूल्यांकन अलग-अलग ढंग से होता रहा। लोकमानस में अकबर अभी भी ज़िंदा हैं। अकबर-बीरबल के किस्से अभी भी गॉंव-गॉंव, घर-घर बड़े चाव से कहे और सुने जाते हैं। अकबर संबंधी तमाम लोकप्रिय और सस्ती किताबें फुटपाथों और मेलों में बिकती हुई आप देख सकते हैं। यह सब बातें इसलिए कि इसी अकबर के दरबार में रहीम थे। बालमुकुंद गुप्त की लिखी हुईं उपर्युक्त बातें इसलिए उद्धृत किया कि यह अकबर-कालीन समाज का एक चित्र हमारे मानस-पटल पर अंकित करता है कि अकबर महान क्यों था?

प्रेमचंद ने अपने 'हंस' में श्यामनारायण कपूर का छह पृष्ठ का एक लेख 'कविवर रहीम और उनका पुस्तकालय' शीर्षक से छापा था। इस लेख में कपूर साहब बताते हैं -
तत्कालीन अनेक लब्धप्रतिष्ठ कवियों ने तो आप ही के पुस्तकालय में बैठकर साहित्य का पाठ पढ़ा और कविता करना सीखा था। उरफी, नज़ीरी और सकबी आदि अपने समय के प्रतिभाशाली कवि थे। उन्होंने सम्राट अकबर, जहाँगीर और शाहज़ादे मुराद की प्रशंसा में अच्छी कविता की है; परन्तु इन्हीं कवियों ने उससे कहीं बढ़कर कविता कविवर रहीम की प्रशंसा में लिखी थी।
श्यामनारायण कपूर के अनुसार - मुल्ला शकेवी को 'मीरजानी' पर विजय पाने के समय एक मसनवी के लिए दो हज़ार अशर्फियां रहीम ने पुरस्कार स्वरुप दी थीं। महवी हमदानी, उर्फी, अमीर मुगीसुद्दीन अली और मुल्ला अब्दुल बाकी नहाबंदी जैसे विद्वान् रहीम के आश्रय में रहते थे। नहाबंदी ने रहीम का जीवन-चरित्र 'मुआसिरे रहीम' शीर्षक से लिखा। मुग़लकाल में  रहीम का पुस्तकालय अन्य भारतीय पुस्तकालयों में अग्रगण्य माना जाता है। अकबर के समय के प्राय: प्रत्येक सुप्रसिद्ध एवं प्रतिभाशाली महापुरुष की जीवनी पुस्तकालय में देखने को मिल सकती थी। जिन महापुरुषों के जीवन-चरित्र लिखे हुए नहीं मिल सकते थे, उन्हें रहीम प्रचुर धन खर्च करके लिखवाते थे।

'मुआसिरे रहीम' से पता चलता है कि लगभग 95 विद्वान् रहीम के आश्रय में रहते थे। मुहम्मद शरीफ बकुई नेशापुरी खुरासान का प्रतिष्ठित विद्वान् और कवि था। वह रहीम का पुस्तकालय देखने के लिए खुरासान से भारत आया था। नेशापुरी ने रहीम की प्रशंसा में बहुत-सी रचनाएं की थीं। इराक़ का मशहूर शायर सओजी सूरफी ने भी रहीम की प्रशंसा में कविताएं लिखीं।

इसी तरह अगस्त 1910 की सरस्वती  में चार पृष्ठ का एक लेख मिश्र बंधुओं ने 'रहीम खानखाना' शीर्षक से लिखा है जो बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। बहरहाल...

हरीश त्रिवेदी ने अकबर के नवरत्नों में एक अब्दुर्रहीम ख़ानेख़ाना पर एक अच्छी-सी किताब सम्पादित की है अब्दुर्रहीम ख़ानेख़ाना : काव्य-सौंदर्य और सार्थकता  नाम से। हिन्दू-मुसलमान के इस भयावह समय में इस तरह की किताब का आना साहित्य और समाज के लिए जरुरी भी है। गोपीचंद नारंग ने पेश-ए-लफ्ज़  में ठीक ही कहा है : "आज के विषम और संकीर्णता अथवा भेदभाव के समय में ऐसी ज़रूरी कृति का आना प्रशंसनीय है।"

यह किताब महत्त्वपूर्ण क्यों है? इसे गुलज़ार के दो शब्द  में लिखे इस वाक्य से समझा जा सकता है : "ख़ानेख़ाना अब्दुर्रहीम पर यह किताब देखकर मुझे हैरत हुई। ब्रह्माण्ड जैसा बड़ा विषय दो गत्तों की जिल्द में यहाँ कैसे समेट लिया गया है। मेरी जानकारी ख़ानेख़ाना अब्दुर्रहीम की बहुत महदूद थी। लेकिन इस किताब में हरीश त्रिवेदी जी और उनके सभी और लिखने वाले साथी मेरी उँगली पकड़कर बड़ी दूर तक ले गए।"

किताब इंटरग्लोब फाउंडेशन और आग़ा खान ट्रस्ट फॉर कल्चर के सहयोग से प्रकाशित है। इसमें रामचंद्र शुक्ल, नामवर सिंह, मैनेजर पांडेय के अतिरिक्त उदयशंकर दुबे, सदानंद शाही, सुधीश पचौरी, अनामिका, प्रताप कुमार मिश्र, चंद्रशेखर के शोधपरक लेख हैं जो रहीम की कविताई के साथ-साथ उनके व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व संबंधी दुर्लभतम जानकारी देते हैं।

अपने 'हिंदी साहित्य का इतिहास' में आचार्य शुक्ल ने रहीम के अनुभव, भाषा आदि पर जो कुछ लिखा है, उसे पहले लेख के रूप में यहाँ प्रस्तुत किया गया है। नामवर सिंह का लेख 1995 में प्रकाशित शेख़ सलीम अहमद  की पुस्तक 'अब्दुर्रहीम ख़ानेख़ाना' में छपे 'दो शब्द' को  'रहीम की उदात्त भाव-भूमि' शीर्षक से दिया गया है।

मैनेजर पांडेय ने रहीम को 'सांस्कृतिक संगम का कवि' कहा है। रहीम को तत्कालीन मुग़ल संस्कृति के केंद्र में रखते हुए वे लिखते हैं : "रहीम मध्यकाल में भारत की सांस्कृतिक बहुलता, भाषिक बहुलता के प्रतिनिधि कवि हैं।"  'रहीम और रामायण' शीर्षक लेख में उदयशंकर दुबे ने दतिया राज्य की रामलीला की पांडुलिपियों में प्रयुक्त रहीम के छंदों पर विचार किया है।

सदानंद शाही का लेख 'लोक और शास्त्र में कबीर, रहीम व तुलसी' दिलचस्प है। शाही जी अपने स्कूली जीवन में पढ़ाई जाने वाली हिंदी की पाठ्यपुस्तक को याद करते हैं जिसमें 'कबीर-रहीम-तुलसी' एक साथ मौजूद हैं। यह मौज़ूदगी अभी तक बनी हुई है। शाही जी के अनुसार प्राथमिक-माध्यमिक तक की किताबों में ये तीनों कवि साथ-साथ चलते हैं लेकिन उच्च शिक्षा में रहीम बिछुड़ जाते हैं।

सदानंद शाही उक्त कवियों में संगति ढूंढ़ने का प्रयास करते हैं। हालांकि उन्हें कोई समानता मिलती नहीं। अंततः वे उनके घर में प्रवेश कर उनका हालचाल लेते हैं और वे पाते हैं कि
"कबीर घर फूँक मस्ती वाले कवि हैं।  फूँक मस्ती का अर्थ है - मौजूद घर को असाध्य मानकर नये घर की तलाश करने वाला। ऐसा नहीं है कि कबीर को घर की ज़रुरत नहीं है। पर उन्हें ग़ालिब की तरह बे-दरो दीवार वाला घर चाहिए। वे नितान्त नि:छद्म हैं। कबीर को पहले से मिला घर स्वीकार्य नहीं है, वे नया घर तामीर करना चाहते हैं। जब तक नया घर नहीं बनता तब तक घर के ख़याल से ही खुश हैं। 
तुलसीदास अपने मौजूदा घर को असाध्य नहीं मानते। उसे थोड़ा रंग रोगन करके दुरुस्त कर लेना चाहते हैं। वे संग्रह और त्याग के विवेक के साथ कुछ को छोड़कर और कुछ को लेकर आगे बढ़ जाते हैं। उन्होंने अपने साहब राम की गुलामी स्वीकार कर ली है। 
रहीम की स्थिति इन दोनों से फ़र्क़ है। वे लगभग खानाबदोश हैं। उनके पास न तो बेदरो-दीवार वाला घर है  न ही तुलसी का विधि-विधान वाला। उन्हें कब कौन-सा घर छोड़ कर किस घर में जाना पड़े, कह नहीं सकते।" 
आगे लिखते हैं :
"घर के साथ तीनों कवियों के तीन तरह के रिश्ते हैं - कबीर घर को जलाकर नया बनाने को उद्यत हैं, तुलसी घर की मरम्मत कराकर उसके एक हिस्से में आसन जमा लेते हैं और रहीम घर की तलाश में एक सराय से दूसरी सराय में भटक रहे हैं।"

यहाँ तीनों कवियों के जीवन-दर्शन को घर के माध्यम से लेखक ने बखूबी प्रस्तुत किया है।

प्रताप कुमार मिश्र का लेख - रहीम ने संस्कृत कैसे सीखी? संस्कृत में उनकी रुचि कैसे हुई? - जैसे पक्षों को उद्घाटित करता है। लेख की शुरुआत दो इतिहास प्रसिद्ध घटनाओं से होती है। इसे पढ़कर निस्तब्ध हो जाना पड़ता है। माथा श्रद्धा से झुक जाता है। इसे पढ़ते हुए यह भी पता चलता है कि मुसलमानों ने संस्कृत कैसे सीखी? यह भी शोध का विषय है कि जब पहली बार किसी ब्राह्मण ने किसी मुसलमान को संस्कृत पढ़ाया होगा तो पंडितों के संसार में किस तरह की हलचल हुई? मुझे महावीर प्रसाद द्विवेदी की सर विलियम जोन्स ने संस्कृत कैसे सीखी?  लेख की याद आ रही है जिसमें द्विवेदी जी बताते हैं कि बंगाल के पंडितों ने जोन्स को संस्कृत पढ़ाने से सामूहिक रूप से कैसे इंकार कर दिया था?       
किताब का आवरण

चंद्रशेखर अपने लेख में रहीम के कर्तृत्व का अवलोकन करने के पश्चात लिखते हैं : "ख़ान-ए-ख़ाना की शायरी, प्रेमालाप, प्रेमाख्यान, इश्क़-ए-हक़ीक़ी या प्राकृतिक वातावरण, बाग़ों, इमारतों की प्रशंसा के अतिरिक्त उस दौर की राजसी संस्कृति का पूरा हाल, आपसी रंजिश एवं प्रतिद्वन्द्विता तथा बादशाह-ए-वक़्त की बहुमुखी चालों का संग्रह है।"

हरीश त्रिवेदी का गद्य तो बहता नीर है। बहते नीर में इन्होंने रहीम का मूल्यांकन किया है। रहीम की ज़िन्दगी के उतार-चढ़ाव का ऐसा वर्णन कि हम उसमें बहने लगते हैं। 'महाबत ख़ाँ को रहीम से छीनकर ख़ानेख़ाना की पदवी दी गई जिसने रहीम के पुत्र दाराब ख़ाँ का सिर काटकर रहीम को सौगात के रूप में भेजा कि यह तरबूज़ है।'

कटा हुआ तरबूज़ - चक्षु के सामने कैसा भयावह चित्र निर्मित करता है। एक ऐसा ही बिम्ब सबीर हका अपनी कविता में प्रस्तुत करते हैं - मैंने कितने ही मज़दूरों को देखा है/इमारतों से गिरते हुए/गिरकर शहतूत बन जाते हुए।  तरबूज़ और शहतूत। ओह!

हरीश त्रिवेदी रहीम को भक्ति, रीति या नीति का कवि मानने से इंकार करते हैं। उनका कहना है कि "रहीम की कविता का एक बड़ा भाग भक्ति-कविता जैसा लग तो सकता है पर स्पष्ट है कि उसमें हिन्दू कवियों वाली भक्ति-भावना को आरोपित करना रहीम के साथ ज्यादती होगी।" रहीम की नीतिपरक कविताओं को उपदेशात्मक नहीं बल्कि निष्कर्षात्मक माना है।

हरीश त्रिवेदी ने 'नगर शोभा' को शृंगार रस का अनूठा और अद्भुत ग्रन्थ कहा है।

यहाँ मैं थोड़ा-सा रुकना चाहूँगा।

मैनेजर पांडेय अपने लेख में कहते हैं :
"'नगर शोभा' समाजशास्त्रीय दृष्टि से अत्यंत महत्त्व की पुस्तक है। उसमें लगभग 50-60 जातियों का उल्लेख है। मध्यकाल में शायद ही किसी और किताब में इतनी जातियों का कविता में उल्लेख है। यह समाजशास्त्रीय दिलचस्पी और अध्ययन का विषय है।"

मैनेजर पांडेय के कथन को स्वीकार करते हुए हरीश त्रिवेदी भी लिखते हैं :
"अगर हिंदी के किसी अन्य कवि ने भी इस प्रकार का या इस विधा में कोई ग्रन्थ लिखा है तो सुनने में नहीं आता है, अर्थात रहीम का यह ग्रन्थ  मिसाल आप खुद है।" 

इस किताब में रामचंद्र शुक्ल को बार-बार उद्धृत किया गया है। इसके बावजूद मैनेजर पांडेय और हरीश त्रिवेदी कह रहे हैं कि 'नगर शोभा' की तरह और किताब हिंदी में नहीं हैं। आचार्य  शुक्ल का इतिहास ध्यान से पढ़ा जाय तो उसमें देव, भिखारीदास और यशोदानन्दन का नाम मिलेगा जिन्होंने 'नगर शोभा' की तरह की किताब लिखी है।

आचार्य शुक्ल ने इन किताबों के संबंध में क्या लिखा है - इसे जानना दिलचस्प होगा। देव की किताब जातिविलास  को उनकी घुमक्कड़ी-प्रवृत्ति के संबंध में याद किया है -
"ये बराबर अनेक प्रदेशों में भ्रमण करते रहे। इस यात्रा के अनुभव का इन्होंने अपने 'जातिविलास' नामक ग्रन्थ में कुछ उपयोग किया। इस ग्रन्थ में भिन्न भिन्न जातियों और भिन्न भिन्न प्रदेशों की स्त्रियों का वर्णन है।" 
भिखारीदास के रससारांश  पर टिप्पणी करते हुए आचार्य शुक्ल पुनः जातिविलास  को  याद करते हैं -
"देव ने भिन्न भिन्न देशों और जातियों की स्त्रियों के वर्णन के लिए जातिविलास लिखा, जिसमें नाइन, धोबिन सब आ गईं, पर दास जी ने रसाभास के डर से या मर्यादा के ध्यान से इनको आलम्बन के रूप में न रखकर दूती के रूप में रखा है। इनके रससारांश  में नाईन, नटिन, धोबिन, कुम्हारिन, बरइन सब प्रकार की दूतियाँ मौजूद हैं।" 
यशोदानन्दन पर शुक्ल जी की टिप्पणी है :
"इनका एक छोटा सा ग्रन्थ 'बरवै नायिका भेद' ही मिलता है जो निःसंदेह अनूठा है और रहीम वाले से अच्छा नहीं तो उसकी टक्कर का है।" 
 शुक्ल जी ने यशोदानंदन की निम्न पंक्तियाँ भी दी हैं -
अहिरिन मन की गहिरिन उतरु न देई।
           नैना   करे  मथनिया,  मन  मथ  लेई।।
                *                    *                    *
           तुरकिनि जाति हुरुकिनी अति इतराइ।

            छुवन न देइ   इजरवा मुरि मुरि जाइ।।

मज़ेदार बात यह कि आचार्य शुक्ल ने 'नगर शोभा' से जो पंक्तियाँ अपने इतिहास में उद्धृत की हैं उसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य की औरतें तो हैं लेकिन अनुसूचित और पिछड़ी जाति की नहीं। यहाँ यशोदानंदन के सन्दर्भ में इस कमी को वे दूर करते नज़र आते हैं।


उपर्युक्त रचनाएं उत्तर मध्यकाल की हैं। 'नगर शोभा' की तरह की ही उक्त रचनाएं हैं। यानी रहीम का प्रभाव देव, दास और यशोदानन्दन जैसे न जाने कितने कवियों पर था। इनका नाम न लेकर मैनेजर पांडेय और हरीश त्रिवेदी ने भारी गलती की है। हरीश जी ने तुरकिन के सन्दर्भ में रहीम-विद्यापति की कविता को व्याख्यायित किया है। अनभिज्ञता के चलते यशोदानंदन की कविता को छोड़ दिया है।


सुधीश पचौरी और अनामिका का लेख 'नगर शोभा' पर केंद्रित है। सुधीश पचौरी के लेख का कुछ अंश देखिये :

"ये दबंग औरतें हैं और इनके वर्णन के लिए चाहिए वैसी ही खुली नई भाषा। ऐसी 'सजग सेक्सुअलिटी' को सेक्सिस्ट भाषा में ही कहा जा सकता है। 
आज के ज़माने में जो टीवी के विज्ञापन, बाज़ार में मिस यूनिवर्स, मिस वर्ल्ड, मिस ये, मिस वो करती हैं अपने वक़्त में कमोबेश ये भी ऐसे ही काम कर रही हैं। कल की मिस वर्ल्ड और आज की मॉडलें जिस तरह स्त्री की सुंदरता को बनाये रखने के लिए नए-नए सोप या शैम्पू स्किन क्रीम या बिकिनी, पेंटीज या व्हिस्पर टाइप नैपकिन बेचकर जो काम करती हैं, उसी तरह का काम नगर शोभा की ये नाना 'प्रोफेशनल' औरतें करती हैं।  
एक सौ उन्नीस दोहों में पचासियों प्रकार की स्त्रियां हैं, वे नगर की शोभा हैं क्योंकि वे नगर की सुंदरता में चार चाँद लगाती हैं, वे उसकी कंज्यूमर मार्केट को, उसकी इकोनॉमी को चलाती हैं, उसके रसिकों (कंज्यूमरों) को लुभाती हैं और कंट्रोल करती हैं। इस मानी में वे हिंदी साहित्य की पहली 'एम्पावर्ड' स्त्रियां हैं, 'ज़ोरदार' स्त्रियां हैं। 
सारे दोहों में एक से एक छबीली, हिम्मती, सेक्सी, विक्रेता स्त्रियां हैं। रहीम इस बाज़ार के डेली विजिटर या कस्टमर लगते हैं। 
ये सेल्स वीमेन तत्कालीन ज़रूरी मध्यवर्ती धन्धों में लगी औरते हैं जो अपने माल को बनाती हैं और बेचती हैं।
इस तरह यह हाट जो रूप की हाट थी जो बिजनेस भी थी, नगर की शोभा थी शान थी। जिन्हें हम आज पिछड़ी जातियां और अनुसूचित जातियां कहते हैं उनमें से बहुत सी इस बाज़ार की शान हैं।" 

पचौरी साहब ने पिछड़ी और अनुसूचित जाति की औरतों को यहाँ करोड़पति बना दिया है। यह शर्मनाक है। टीवी विज्ञापन आदि से जोड़कर पचौरी जी ने इनका मज़ाक उड़ाया है। सबको पता है कि विज्ञापनों आदि में किस वर्ग की महिलाओं का वर्चस्व है! दरअसल इस तरह के दिमाग़ी लोग यही चाहते हैं कि वर्ण-व्यवस्था बनी रहे। वर्ण-व्यवस्था में तनिक भी टूट-फूट हुई कि ये लोग छनमनाने लगते हैं। ये लोग हाशिए पर खड़ी स्त्रियों की शिक्षा के भी घोर विरोधी होते हैं।

इस प्रसंग में साँवल जी नागर के एक लेख की याद आ रही है जिसे उन्होंने 1914 ई. में लिखा था। इस लेख में वे हिन्दू सभ्यता, संस्कृति, वर्ण-व्यवस्था को बचाने की अपील करते हैं। दरअसल अंग्रेज़ी शिक्षा के चलते दलित-पिछड़ी जाति की लड़कियां अपने पैतृक पेशे को त्याग कर अध्यापिका, नर्स आदि का काम करने लगी थीं। नागर जी विभिन्न जाति की कन्याओं को एक ही प्रकार की शिक्षा दिए जाने के विरुद्ध थे। नागर जी के उस सुदीर्घ लेख का कुछ हिस्सा मैं यहाँ प्रस्तुत करना चाहूँगा -
"आधुनिक-शिक्षा-क्रम में दूसरा बड़ा दोष यह है कि हर एक जाति, हर एक समुदाय की कन्याओं को एक तरह की शिक्षा दी जाती है। निर्धन वा धनी, ब्राह्मण वा वैश्य, सुनार वा हलवाई, लोहार या कुम्हार, क्षत्रिय वा चमार - इन सबों की कन्याओं को एक ही स्थान पर, समान शिक्षा दी जाती है। 
...परन्तु आजकल वह बात नहीं है। सामाजिक शिक्षा का पृथक पृथक प्रबंध न होने के कारण हमारे व्यवसाय industry का दिवाला निकल गया है। पढ़ी लिखी स्त्रियां अपने पैतृक उद्योग को करना पसंद नहीं करतीं। कैसे कर सकती हैं? जब उन्हें उस प्रकार की शिक्षा ही नहीं दी गयी तब वह कैसे कर सकेंगी। परन्तु उनके न करने से उनकी संतान नहीं कर सकती और इस तरह हमारी कारीगरी का ह्रास  होते होते हम लोग यहाँ तक गिर गए हैं कि भोजन का भी ठिकाना नहीं रहा। 
...क्या एक सोनार वा लोहार की लड़की, जिसने मिडिल, मेट्रिकुलेशन तक की नव्य शिक्षा प्राप्त की हो, अपने उन सम्बन्धियों के प्रति जो दिन रात टक टक कर गहने और संदूक आदि बनाया करते हैं और जिनके प्रति श्रद्धा, भक्ति और प्रेम करना उस बालिका का धर्म है, कभी कर सकती है? क्या वह चमार की पुत्री जिसने आधुनिक प्रणाली के अनुसार शिक्षा प्राप्त की हो, अपने उन भाईयों के प्रति जो पादत्राण आदि बनाते हों - श्रद्धा, भक्ति और प्रेम के पूज्य उत्पन्न कर सकती है? क्या वह ब्राह्मण बालिका जो एक पवित्र याज्ञिक के यहाँ व्याही गई हो, और जिसने 10, 12 वर्ष तक धोबी और ईसाईयों की लड़कियों के साथ बैठकर शिक्षा प्राप्त की हो अपने उस धूआँ लगने वाले याज्ञिक धर्म के प्रति उच्च भाव धारण कर सकती है?"
कुछ ऐसे ही विचार बनारस के श्रीप्रकाश ने भी व्यक्त किये थे। श्रीप्रकाश 'गरीब स्त्रियों' की शिक्षा का सीधे विरोध करते हैं।

तो साँवल जी नागर की दृष्टि एवं विचारों की मूर्ति हैं श्री सुधीश जी पचौरी। 'नगर शोभा' में विकृत वर्ण-व्यवस्था संबंधी व्यवसाय सुरक्षित होने के कारण यह रचना हिन्दू-आलोचकों को प्रिय है। दरअसल भद्र वर्ग अपनी काम-लिप्सा को शांत करने के लिए पिछड़ी/अनुसूचित वर्ग की स्त्रियों का सदियों से भोग करता रहा है। अभी भी स्थानीय हाटों या लाटघाट जैसे बाज़ार में सब्ज़ी आदि बेचने वाली 'नान जात' की औरतों को घूरते हुए या मज़ाक करते हुए आप पा सकते हैं। जैसे रहीम 'डेली कस्टमर' थे, वैसे ही भद्र वर्ग इनका डेली कस्टमर है। यह वर्ग अपनी आजीविका तो किसी तरह चला ले रहा है लेकिन अब वह नहीं चाहता है कि उसके बच्चे पुस्तैनी धंधे करें। पूर्वी उत्तर प्रदेश में मनरेगा आने के बाद महिलाओं ने भद्र वर्ग के खेतों में काम करने से जब मना कर दिया था तो बबुआने के लोग बौखला गए थे। खेत यौन शोषण के अड्डे हैं।

इलाहाबाद के आनन्दि प्रसाद श्रीवास्तव ने 1928 ई. में 'अछूत' शीर्षक एक सामाजिक नाटक लिखा था। इसमें पुजारी और सदानंद के बीच बातचीत के दौरान रहीम का एक दोहा सदानंद के मुख से कहलवाया है। नाटक के एक दृश्य में मठ के महंत और एक अछूत औरत के बीच लगान को लेकर बहस को दिखाया गया है जिसमें मठ का महंत अछूत औरत से लगान न चुका पाने के बदले शरीर मांगता है। इस पर अछूत-स्त्री कहती है -
चमारनिउ का छुवै में? महराज हम तोहार लगान कुछ दिन माँ दै देब, जाय देव, काहे हमरे जिउ के भूखे भये हौ?
अनामिका जी का भी ध्यान 'पतियों के व्यवसाय' पर है। उनका दुःख यह है कि "जितनी तरह के व्यवसाय वहाँ चित्रित हैं, उनमें से कई तो अब लुप्तप्राय हैं।"

इस पुस्तक में एकाध लेख किसी दलित चिंतक का होता तो 'नगर शोभा' का भावार्थ अन्य तरह से स्पष्ट होता।

इस किताब की सबसे ख़ास बात यह है कि इसमें रहीम की कविताओं के भावार्थ दिए गए हैं। 'दोहावली' से 100 दोहे के व्याख्याकार माधव प्रसाद मिश्रा हैं। 'नगर शोभा' से 75 दोहे, 'बरवै नायिका-भेद' से 112 बरवै, 'शृंगार सोरठा', 'फुटकर छंद', 'मदनाष्टक' की व्याख्याकार दीपा गुप्ता हैं। हरीश त्रिवेदी लिखते हैं : "इस पुस्तक की एक विशेषता यह भी है कि इसमें दी हुई रहीम के दोहों इत्यादि की व्याख्याएं किन्हीं विख्यात विशेषज्ञों द्वारा नहीं लिखी गई हैं अपितु रहीम-काव्य के प्रेमी रसिकों द्वारा प्रस्तुत की गई हैं। विशेषज्ञ जिसे सर्वग्राह्य समझते हैं उसे कई जगह फिर समझाने की ज़रूरत होती है पर यहाँ यह खतरा नहीं है।"

अंत में, एक बात पोइए और पोहिए के संबंध में। इस किताब में माधव प्रसाद मिश्रा की व्याख्या में 'पोइए' है -

टूटे   सुजन   मनाइए,  जो   टूटे   सौ  बार।
रहिमन फिरि फिरि पोइए, टूटे मुक्ताहार।।

गोपीचंद नारंग और सदानंद शाही ने भी 'पोइए' ही लिखा है। लेकिन नामवर सिंह 'पोहिए' लिखते हैं। पृष्ठ 64 पर मोटे अक्षरों में लिखित दोहे में भी पोहिए है। यहाँ संपादक को स्पष्ट करना चाहिए था कि शुद्ध क्या है?

बहरहाल, रहीम काव्य में रुचि रखने वाले अध्येताओं के लिए यह एक महत्त्वपूर्ण किताब है।





अब्दुर्रहीम ख़ानेख़ाना : काव्य-सौन्दर्य और सार्थकता - (संपादक) हरीश त्रिवेदी

प्रथम संस्करण - 2019
मूल्य - 495 रुपये (पेपरबैक, रॉयल अठपेजी, सचित्र)

प्रकाशक :
वाणी प्रकाशन
4695, 21-ए, दरियागंज, नयी दिल्ली - 110 002


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सुजीत कुमार सिंह

20 जून 2020

(इलाहाबाद )

***
ई-मेल : sujeetksingh16@gmail.com

मोबाइल : +91  94543 51608

Saturday, June 13, 2020

स्त्री अलक्षित

श्रीकान्त यादव संपादित 'स्त्री अलक्षित' किताब में पच्चीस लेखिकाओं के पच्चीस लेख संकलित हैं। लेखों का स्वर विविधता से भरा हुआ है।

इस संकलन का पहला लेख 1912 ई. का है तो अंतिम लेख 1940 ई.का।

इन लेखों को "स्त्री दर्पण, चान्द, मर्यादा, महिला दर्पण, महारथी, आर्य महिला, माधुरी, चाँद, युगान्तर, महिला" पत्रिकाओं से बटोरा गया है।


'बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध का स्त्री-विमर्श' पर काम करने वाले  शोधार्थियों के लिए यह एक पठनीय किताब है।

नवजागरण पर काम कर रहे लोगों को थोड़ा-सा धैर्य रखने की जरूरत है अन्यथा आपके काम को आलोचकगण 'कबाड़ा' घोषित कर सकते हैं। उन्हें कबीर की इस पंक्ति को गाँठ बाँध कर रख लेना चाहिए :

"धीरे धीरे रे मना/धीरे सब कुछ होय/माली सींचे सौ घड़ा/ऋतु आए फल होय।"

रहीम भी कहते हैं  : 'समय पाय फल होत है।'

इस किताब में श्रीमती सरस्वती का एक लेख ''स्त्रियाँ और परदा" शीर्षक से है। किताब के अनुसार संपादक ने इस लेख को 'स्त्री दर्पण-जुलाई 1917' से लिया है।

सरस्वती नाम ने मुझे आकर्षित किया। आकर्षित क्यों किया - उसका एक कारण है। इस लेख का मैंने मूल लेख से मिलान किया। मैं दंग रह गया कि संपादक जिस लेख को 'श्रीमती सरस्वती' लिखित बता रहा है, दरअसल वह लेख 'श्रीमती सरस्वती' का है ही नहीं।

'स्त्रियां और परदा' शीर्षक लेख 'स्त्री दर्पण' के '1 जूलाई 1917' (भाग 17 : अंक 1 : 33-40) में प्रकाशित हुई थी जिसकी लेखिका "श्रीमती सत्यवती" हैं।

अब इसे क्या कहा जाए!

संपादक को 'चान्द' और 'चाँद' पत्रिका का अंतर भी स्पष्ट करना चाहिए।

संपादक ने श्रीमती मनमोहिनी चटर्जी का एक लेख 'इंगलिस्तान की औरतें' अगस्त 1937 की 'मर्यादा' से लिया है।

मुझे जहाँ तक जानकारी है, 'मर्यादा' सन् 1923 में बंद हो गयी थी। प्रेमचंद इसके अंतिम संपादक थे। अगर यह 'मर्यादा' कृष्णकांत मालवीय, संपूर्णानंद और प्रेमचंद से भिन्न है तो इसकी भी सूचना संपादक को देनी चाहिए।

'इनसान', 'दर्वाज़ा', 'कार्य्य' आदि शब्दों के आगे संपादक ने, पुरानी हिन्दी को अपनी विद्वता से सुधारने का प्रयास करते हुए, कोष्ठक में 'इंसान, दरवाजा, कार्य' लिखा है। यह अधिकार आपको किसने दे दिया?

पुरानी हिन्दी के साथ छेड़छाड़ करना मैं अपराध की श्रेणी में रखता हूँ।


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सुजीत कुमार सिंह
इलाहाबाद।

Sunday, June 7, 2020

किसान आन्दोलन की साहित्यिक ज़मीन


रामाज्ञा शशिधर की किताब किसान आंदोलन की साहित्यिक ज़मीन  का आरंभ 1917 से होता है। इसके पहले सिर्फ 1857 की चर्चा जगह-जगह वे करते हैं। कहीं-कहीं भारतेंदु, प्रताप नारायण मिश्र, बालमुकुंद गुप्त आदि उपस्थित हैं। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध और बीसवीं सदी के दूसरे दशक तक के किसानों पर इसमें कम बातचीत है। किताब की ख़ास और महत्त्वपूर्ण उपलब्धि मौखिक स्रोत और साक्षात्कार हैं। प्राथमिक स्रोतों में जहाँ प्रताप, अभ्युदय, जनता, आज, नवशक्ति, रूपाभ, हल  और किसान  जैसी पत्रिकाएं हैं, वहीं 'बिहार किसान सभा के कार्यकर्ता त्रिवेणी शर्मा सुधाकर', सहजानंद साहित्य विशेषज्ञ राघव शरण शर्मा, लखोरी शर्मा (95 वर्ष, जहानाबाद), जुगेश्वर शर्मा से लिए गए महत्त्वपूर्ण साक्षात्कार शामिल हैं। ज़ाहिर है कि ये साक्षात्कार बैठे-बैठे नहीं लिया गया है अपितु इसके लिए  लेखक को गांव-गांव भ्रमण करना पड़ा होगा, चप्पल घसीटना पड़ा होगा।


लेखक के अनुसार इस किताब को लिखने में किसान साहित्य से जुड़ी पुस्तिकाओं, पत्र-पत्रिकाओं, ट्रैक्टों, इश्तिहारों, पर्चों, साक्षात्कारों, किताबों और पांडुलिपियों पर निर्भर रहना पड़ा। 'दस साल तक यह खोजबीन चलती रही।'

दस साल बहुत होते हैं। दस साल में इन्होंने बहुत कम सामग्री खोजी है। हिंदी की मुख्यधारा की पत्र-पत्रिकाओं को तो बिलकुल ही छोड़ दिया है। इस किताब को लिखने में कविताओं का खूब उपयोग किया गया है। कहीं-कहीं दो-चार कहानियों का ज़िक्र भर हैं। मुख्यधारा की पत्रिकाओं में किसान जीवन पर आधारित जो लेख या निबंध हैं, उसे लेखक ने स्पर्श तक नहीं किया है। किसान आधारित पुस्तिकाओं को भी नज़र अंदाज़ किया गया है। दस साल में लेखक के हाथ सामग्री क्यों नहीं आई, इसका कारण 'अदृश्य'प्रतिरोध की पुनर्रचना  शीर्षक भूमिका में स्पष्ट है-
हिंदी बौद्धिकों की दो विशेषताएं हैं - माल उड़ाओ पर सन्दर्भ मत बताओ तथा ज्ञान को निजी मिलकियत की तरह उपयोग करो। 
स्पष्ट है कि हिंदी बुद्धिजीवी मक्कार होते हैं। शोषक होते हैं। अगर वे किसी शोधार्थी से कोई बहुमूल्य दस्तावेज़ हासिल कर लेते हैं, तो वे उस ग़रीब और लाचार शोधार्थी का नाम तक नहीं लेते। मेरे साथ भी ऐसा हो चुका है।  बालकराम शास्त्री की किताब प्रकृति-पूजा की भूमिका आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखी है। छद्म संपादक ने चिरौरी करके भूमिका मुझसे ले ली। जब किताब में हमने अपना नाम खोजना शुरू किया तो अपन को अपना नाम ही नहीं मिला। रामाज्ञा शशिधर ने जब काम करना शुरू किया होगा तो तथाकथित बुद्धिजीवियों ने अपना मुंह बंद कर लिया होगा। एक जगह लिखते हैं -
वीर भारत तलवार की यह थीसिस जाँच की मांग करती है कि 1917 से 1920 तक हिंदी में किसानों पर लिखी गयी कविताओं में संघर्षशील किसान का चित्र कहीं नहीं मिलता।*** भगवान से करुणा की पुकार इन सभी कविताओं  मिलती है। 
वीर भारत तलवार की जिस थीसिस का जिक्र रामाज्ञा जी कर रहे हैं, उसका नाम 'किसान,राष्ट्रीय आंदोलन और प्रेमचंद' है। ज़ाहिर है कि तलवार जी ने भी बहला-फुसला दिया होगा।

तो मामला यह है कि हम स्रोत सन्दर्भ और उपलब्ध सामग्री के बारे में क्यों बताएं? लेकिन यह गलत है। शोधार्थी अगर गरीब है, निरीह है तो बताना चाहिए और संबंधित विषय पर बातचीत करनी चाहिए। भाई, ईमानदारी भी कुछ होती है।

लेकिन नहीं! हिंदी बौद्धिक झपसट और उद्दंड होते हैं।

इस किताब में कुल पांच अध्याय और करीब चालीस उपशीर्षक हैं। किताब के केंद्र में 'असली किसान' हैं। 'असली किसान' का मतलब अहीर, कुर्मी, चमार, पासी, कोयरी, धोबी, बिंद जाति के किसान। रामाज्ञा जी के निशाने पर वे सामंत और ज़मींदार हैं जो 'असली किसान' का शोषण करते हैं। जनकवि रामावतार यादव 'शक्र' की एक कविता के हवाले से लिखते हैं -
कविता में मालिक कौन है? रूपनगर और सिमरिया के आसपास के भूमिहार काश्तकार और ज़मींदार। हलवाहे कौन हैं? यादव, कुर्मी, पासवान, धोबी, बिंद, चमार आदि जाति के खेतिहर मज़दूर। कविता के खेत मज़दूर सामाजिक और आर्थिक दोनों उत्पीड़नों के शिकार हैं। बड़हिया टाल पड़ोसी इलाका है जहाँ के रैयान सवर्ण ज़मींदारों के खिलाफ भीषण बकाश्त संघर्ष कर रहे हैं।  
इस किताब में चम्पारण, अवध और बिजोलिया के निम्न जाति के किसानों के शोषण का जैसा चित्रण किया गया है, उसे पढ़कर दिमाग़ झनझना जाता है। लेखक ने कांग्रेस, गांधी, नेहरू आदि के दुचित्तापन का भी पर्दाफाश किया है -
कांग्रेस का सामंतवाद और साम्राज्यवाद से समझौतापरस्त संबंध था *** कांग्रेस नेतृत्व की नज़र में प्रधान मुद्दा साम्राज्यवाद से संघर्ष था। वह सामंतवाद और साम्राज्यवाद विरोधी क्रांतिकारी किसान संघर्ष का या तो दमन करता था या दमन में योगदान देता था या उसका अपहरण कर लेता था। 

 किताब का आवरण 
                                                   

मैं जिस उद्देश्य से इस किताब को पढ़ रहा था वह मुझे दूसरे अध्याय में मिला। करीब 65 पृष्ठ में लिखा गया किसान कविता का स्वरुप  हिंदी कविता की एक उपलब्धि है। इस पाठ में किसान कविता की अवधारणा पर बातचीत की गयी है। जहाँ तक मैं समझता  हूँ इस अवधारणा पर अब तक किसी आलोचक का ध्यान  नहीं गया है। भारतेंदु, द्विवेदी, छायावाद, प्रगति-प्रयोग युग में लिखी गयी कविताओं पर तो अभिजात वर्ग सीना तानकर बातचीत करता है लेकिन किसानों की कविता पर मौन साध लेता है।

रामाज्ञा जी ने भानु, रामनारायण रावत, विपतुआ, जानकी बल्लभ सिंह, अनिरुद्ध लाल, रामानुज दास, सीताराम देव, ब्रजकिशोर प्रसाद सिंह, रामावतार यादव 'शक्र', सलाम मछलीशहरी, सैयद मुहम्मद खलील, राजू मंडल सहित तमाम कवियों को हिंदी जगत के सामने प्रस्तुत कर स्तुत्य कार्य किया है।

इस अध्याय में भोजपुरी कविताओं पर भी अच्छी सामग्री है -
फिरंगिया के राज जब देसवा से मिट जाई / ज़मींदारी परथा ख़तम जब होई जाई / खेतवा के मालिक किसान सब होई जाई / करखाना के मालिक मजूर सब होई जाई / एकरे के कह हे सुराज हो बुधन भाई। 
भोजपुरी के अतिरिक्त मैथिली, ब्रज, बुंदेली, राजस्थानी, मगही में लिखित कविताओं का भी विश्लेषण किया गया है। किताब में मार्क्स, गांधी और माओ हैं तो स्थानीय किसान नेता सहजानंद, राहुल, रामचंद्र और मदारी पासी जैसे लोग भी उपस्थित हैं।

अवध में रामचंद्र ने ब्राह्मणवादी और सामंतवादी मनोवृत्ति की किताब रामचरितमानस का क्रांतिकारी प्रयोग कैसे किया था, इस जिज्ञासा को भी यह किताब शांत करती है।

बेगार प्रथा से किसान त्रस्त थे। हरिहर प्रसाद की कविता सिर्फ दलित ही नहीं पढ़ते थे अपितु उनकी कविताएं सवर्णों की ज़बाँ पर भी थीं। हरिहर प्रसाद की कविता अछूतों की पुकार (1930) रामाज्ञा शशिधर को राघव शरण शर्मा से प्राप्त हुयी थी -
हमका बिना मजूरी बैलों के संग जोते / गाली व मार उस पर हमको दिला रही है / लेते बेगार खाना तक पेट भर न देते / बच्चे तड़पते भूखों क्या ज़ुल्म ढा रही है। 
किताब में दोहराव बहुत है। एक ही कविता को कई बार उद्धृत किया गया है। यह दोहराव किताब को बोझिल बनाता है। अगर मुख्यधारा की सामग्री के साथ-साथ किसान  जीवन पर लिखित अन्य सामग्री को भी सहेजा गया होता तो इस दोहराव से बचा जा सकता था।

बहरहाल, किसान आंदोलन में रुचि रखने वाले पाठकों और शोधार्थियों के लिए यह एक महत्त्वपूर्ण किताब है। यह किताब हमें अनेक रास्ता सुझाती है। इस काम को आगे बढ़ाने की जरुरत है।



किसान आंदोलन की साहित्यिक जमीन : रामाज्ञा शशिधर

मूल्य : 225 रुपये (पेपरबैक)

प्रकाशक :
अंतिका प्रकाशन
सी-56/यूजीएफ-4 , शालीमार गार्डन, एक्सटेंशन-2
गाज़ियाबाद - 201 005

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सुजीत कुमार सिंह

07 जून 2020