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Saturday, July 4, 2020

मैं भगवान दास मोरवाल बोल रहा हूँ !





27 जून 2020 को श्री भगवान दास जी मोरवाल ने अपने फेसबुक वॉल पर लिखा -
अक्सर आदमी जाने-अनजाने दूसरों के द्वारा बड़ी बारीकी से इस्तेमाल होता रहता है। जब पता चलता है तब तक वह एक विदूषक बन चुका होता है। 
यह बहुत ही मार्के की बात है। यहाँ 'आदमी' और 'दूसरों' शब्द पर ध्यान देने की आवश्यकता है। इस्तेमाल होने वाला कौन है और इस्तेमाल करने वाला कौन है? यह एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण सवाल है क्योंकि हिंदी जगत् में गंभीर शोध के नाम पर कूड़ा-करकट परोसा जा रहा है। बहरहाल...

मोरवाल जी के कमेंट बॉक्स में मैंने लिखा -
जैसे आपने मेरा इस्तेमाल किया। 'समयमान' के बहाने।
 कमेंट बॉक्स में उन्होंने लिखा -
अरे भइये, मैंने आपकी कौन-सी सल्तनत छीन ली?
सुजीत कुमार सिंह -
अगर आप सल्तनत माँगते तो मैं झुककर दे देता। लेकिन जिस तरह भयंकर गर्मी में, बिना रिजर्वेशन के, बनारस तक दौड़ाया, उसे मैं नहीं भूल सकता।  

भगवान दास मोरवाल -
किसलिए दौड़ कर आए, यह तो स्पष्ट करो?
सुजीत कुमार सिंह -
मैं आपके झाँसे में आ गया था। इसलिए दौड़कर आपके पास गया कथासम्राट ! 
भगवान दास मोरवाल -
ग़लती तो मुझसे हो गई जो एक प्रतिभाहीन ठग को प्रमोट करने चला था वरना दिल्ली एक से एक प्रतिभाशाली से भरी हुई है। अगर वो काम सिरे चढ़ जाता तो भयंकर गरमी और बिना रिजर्वेशन कोई मायने नहीं रखता और नहीं चढ़ा तो झाँसे में आ गया। लेकिन भइये इस भयंकर गरमी और बिना रिजर्वेशन के मैंने तुम्हारा इस्तेमाल कैसे किया?
 सुजीत कुमार सिंह -
प्रतिभाहीन कौन है - यह 'अबलाओं का इन्साफ़' से स्पष्ट है। एक फ़र्जी किताब को प्रथम आत्मकथा बता रहे हैं। 
सुजीत कुमार सिंह -
सामग्री हथिया लिए और पूछ रहे हैं कि तुम्हारा इस्तेमाल कैसे किया? कुछ तो शर्म करिए कथासम्राट! 
भगवान दास मोरवाल -
मूर्ख ठग उससे ज़्यादा वैसी ही सामग्री तो जानकीपुल पर भी आ चुकी है। मुझे तो यह भी नहीं पता कि आज वह सामग्री कहाँ पड़ी है। रही बात इस्तेमाल की तो इतने भोले तुम भी नहीं हो  बनारस से दिल्ली तक दौड़े हुए आए थे। मुझे लगता है तुम जैसे बनारसी बदतमीज ठग को अपनी मित्र सूची से बाहर खदेड़ना पड़ेगा। 
भगवान दास मोरवाल -
मूर्ख ठग, अबलाओं या सबलाओं का इंसाफ़ से मेरा क्या लेना-देना। फ़र्ज़ी है या असली? तुम जानो। 
अबलाओं का इंसाफ़ का नाम आते ही मोरवाल साहब ने मुझे फेसबुक पर ब्लॉक कर दिया।

मोरवाल साहब ने मुझे प्रतिभाहीन,बनारसी ठग, मूर्ख वग़ैरह कहा है। अगर मैं ऐसा हूँ तो उन्होंने मेरी प्रशंसा क्यों की? आप सोच रहे होंगे कैसी प्रशंसा? प्रशंसा जानने के लिए इस लिंक पर जाइए -

https://aajtak.intoday.in/story/collection-of-stories-about-dalits-1-771546.html

यह भी देखें -

https://www.dainiktribuneonline.com/2015/01/%E0%A4%8F%E0%A4%95-%E0%A4%AD%E0%A4%B0%E0%A5%8B%E0%A4%B8%E0%A4%BE-%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AF-%E0%A4%9C%E0%A4%97%E0%A4%A4-%E0%A4%95%E0%A5%8B/


इसे पढ़कर आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि प्रतिभाहीन, मूर्ख, ठग कौन है ! दरअसल वे अबलाओं का इंसाफ़    
को प्रमोट कर रहे थे। 'इंडिया टुडे' और 'दैनिक ट्रिब्यून' दोनों में इसका ज़िक्र है।


दिल्ली दरबार जिसे चाहता है, उसे ऊँचा उठाता है, उसके लेखन को ऐतिहासिक बताता है और पुरस्कृत करता है। यह एक खतरनाक प्रवृत्ति है जो बढ़ती ही जा रही है।


भगवान दास मोरवाल आत्ममुग्ध कथाकार हैं। समकालीन हिन्दी कथा साहित्य में वे भोजपुरी सिनेमा के दगाबाज़ बलमा हैं। वे साम,दाम,दण्ड में विश्वास करने वाले लेखक हैं। अगर किसी शोधार्थी से दुर्लभतम सामग्री हासिल करनी हो तो इसका तरीक़ा मोरवाल जी से सीखना चाहिए।


जनवरी 2013 से मैं जोया (अमरोहा) में मुदर्रिसी कर रहा था। यह सिलसिला दिसम्बर 2017 तक चला। जोया कस्बे से मेरा विद्यालय नौ किमी दूर एक गाँव में था। रोजी-रोटी के लिए क्या शहर, क्या गाँव! मार्च 2014 की बात है। एक काम से मैं मुरादाबाद गया था। रेलवे स्टेशन रोड से गुज़र ही रहा था कि मोबाइल बजा। मैंने रिसीव किया।

"मैं दिल्ली से भगवान दास मोरवाल बोल रहा हूँ।"

"जी।  नमस्कार!"

फिर लंबी बातचीत। करीब पचास मिनट। दरअसल विश्व पुस्तक मेला-2014 में शिल्पायन पब्लिशर्स से मेरी शोधपरक संपादित किताब अछूत  (राष्ट्रवादयुगीन दलित समाज की कहानियाँ) आई थी। मोरवाल जी उसी की प्रशंसा कर रहे थे। मुझे भी अच्छा लगा कि हिन्दी के एक प्रतिष्ठित कथाकार से मेरी बातचीत हो रही है। जी हाँ, प्रतिष्ठित। हमारी पीढ़ी मोरवाल जी को सम्मान की निग़ाह से देखती है।

बातचीत के दौरान मोरवाल जी के मनसपिण्ड के नियामक तत्त्वों के बारे में भी पता चला। उनकी दृष्टि में आज़मगढ़, पिथौरागढ़, अमरोहा छोटे शहर हैं। यानी छोटे शहरों में रहने वाले लोग साहित्य सेवा नहीं कर सकते। आश्चर्य व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा कि 'छोटी जगह रहते हुए भी तुमने इतना भारी कार्य कैसे कर डाला?' महानगर की महत्ता बताते हुए उन्होंने कहा कि 'तुम्हारा सारा कार्य व्यर्थ है। तुम्हारे काम की कोई नोटिस नहीं लेगा।' मतलब अगर मैं दिल्ली जैसे शहर में होता और मोरवाल साहब जैसे लोगों की मुसाहिबी करता तो मेरा कार्य महान् होता। छह साल बाद भी दिल्ली वाला कांसेप्ट अभी भी मोरवाल साहब के ज़ेहन में कुंडली मारे बैठा है।


भगवान दास मोरवाल की विदुषी पुत्री नैया जेएनयू से डाक्टरेट हैं। हिन्दी नवजागरण में उनकी गहरी रुचि है। उनके एकाध काम दिल्ली के आलोचकों द्वारा सराहे गये हैं। डॉ. नैया संपादित अबलाओं का इन्साफ़  (राधाकृष्ण प्रकाशन,नयी दिल्ली) का विमोचन 2013 के विश्व पुस्तक मेले में नामवर सिंह के हाथों हुआ था। उसकी रपट हंस  में छपी थी।

आवरण 

वार्तालाप में मोरवाल जी ने नैया संपादित उक्त किताब की चर्चा करते हुए बड़े ही आत्मविश्वास के साथ बताया कि यह 'आधुनिक हिन्दी की पहली आत्मकथा' है। हमने कहा कि 'उस किताब को मैंने देखा नहीं है। उसे पढ़ना चाहता हूँ।' बात यह है कि अबलाओं का इन्साफ़ को लेकर 1927-1930 के मध्य एक विवाद ने जन्म लिया था कि इस किताब का लेखक कौन है? पुरुष है या स्त्री? उन बहसों और विवादों को पढ़ने से पता चलता है कि यह एक फर्जी किताब है। 'फर्जी' सुनकर वे चकराए। उनके और नैया जी के लिए यह प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया। फ़ोन पर ही वे इसके पक्ष में तमाम स्थापनाएँ देने लगे कि 'यह एक स्त्री लिखित आत्मकथा ही है।'


बात आई और गयी। मैं इस प्रसंग को भूल गया। मुझे नहीं पता कि 'फर्जी किताब' सुनकर भगवान दास मोरवाल बेचैन हो उठेंगे। उन्होंने एक दिन फिर फोन किया। इस बार पत्रिका निकालने का एक आकर्षक प्रस्ताव मेरे समक्ष रक्खा और कहा कि 'आप इसके संयुक्त संपादक बन जाइए।' हमने प्रस्ताव सहर्ष स्वीकार कर लिया।


कुछ दिन बाद एक ई-मेल आया। इस मेल की सूचना उन्होंने फ़ोन से दिया। किसी जमाने में वन्दना सिंह समयमान  नामक पत्रिका निकालती थीं। किन्हीं कारणों से पत्रिका बंद हो गयी। पूर्व में हो चुके वार्तालाप के अनुसार मोरवाल जी मुझे और अपनी विदुषी पुत्री को इस पत्रिका से जोड़ना चाहते थे। उसी से संबंधित यह मेल था। यह एक दिल्ली दरबारिया चाल  थी जिसमें वन्दना सिंह जी ने, मोरवाल साहब के इशारे पर, सुश्री नैया संबोधित पत्र में लिखा -


26.03.2014

समयमान
संपादकीय कार्यालय 
गाजियाबाद।

प्रिय नैया,
हमें इस बात कि ख़ुशी है कि आपने समयमान के साथ कार्यकारी संपादक के तौर पर जुड़ने का हमारा प्रस्ताव स्वीकार कर लिया है। हमें उम्मीद है कि आप समयमान को नये कलेवर और नये रूप में पाठकों के सामने पेश करने में सफल होंगी। आपको यह भी बताना है कि श्री सुजीत कुमार सिंह भी हमारे साथ संयुक्त संपादक के तौर पर जुड़ रहे हैं।

शुभकामनाओं सहित

वन्दना सिंह।


दिल्ली दरबार में यह प्रपंच इसलिए रचा जा रहा था ताकि अबलाओं का इन्साफ़ पर और उसके अतिरिक्त जो अन्य दुर्लभ सामग्री मेरे पास है, उसे हासिल किया जा सके। मोरवाल साहब! सिर्फ़ एक बार आप मुझसे कह देते कि वह सारी सामग्री मुझे दे दीजिए तो क्या मैं मुकर जाता! हकीक़त यह है कि वह सामग्री मेरे लिए कूड़ा था।

             
तथाकथित पत्र 


अप्रैल 2014 का अंतिम सप्ताह। सबेरे-सबेरे मोरवाल जी का फोन आया - 'सुजीत जी! आप समयमान के लिए क्या कर रहे हैं? जल्दी से निर्धारित सामग्री जुटाइए। ताकि पत्रिका समय से निकल सके।' वे मुझ पर जबरदस्त दबाव बना रहे थे। हमने कहा कि 'सामग्री के लिए बनारस जाना पड़ेगा।' 'तो जाइए न! कल निकल जाइए।' अमरोहा रेलवे स्टेशन से बनारस तक की यात्रा।  मैं कांप उठा कि इस भीषण गर्मी में बिना रिजर्वेशन के कैसे जाऊँ? बहरहाल, वेटिंग टिकट लेकर मैं निकल पड़ा। बिना आरक्षण के रेल-यात्रा नरक है। जिस कोच में मैं था, उसमें कुछ असभ्य यात्री थे जो शराब और कबाब का सेवन कर रहे थे जिसके कारण डब्बा गन्हा रहा था। रात में जब सभी लोग सो गये तो मैं भी नीचे चादर बिछाकर सो गया। छह दिन का आकस्मिक अवकाश लेकर मैंने उन दुर्लभ सामग्रियों को एकत्र किया था। भागम-भाग में तबियत भी बिगड़ गयी थी।


मई 2014। दिल्ली दरबार से पुनः फ़ोन। 9 मई को सामग्री लेकर मैं दिल्ली गया। अपने दरबार में वे मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे। स्वागत-सत्कार में पोहा और कोका-कोला परोसा गया। काम सम्पन्न हो जाने पर उन्होंने अपनी स्कूटी से मुझे द्वारका मेट्रो स्टेशन तक छोड़ा। आनंद विहार से बस पकड़कर मैं जोया चला आया। यह भी याद है कि 'अछूत' की दो-तीन प्रतियां यह कहते हुए उन्होंने ले लिया कि मैं इसकी समीक्षा फलाँ-फलाँ से लिखवाऊंगा।


भगवान दास मोरवाल के अनुसार 'आधुनिक हिन्दी की प्रथम स्त्री आत्मकथा' उपशीर्षक मैनेजर पाण्डेय ने सुझाया था। किताब आते ही दिल्ली दरबार के आलोचकों ने इसकी प्रशंसा में लेख लिखे।

हंस,पुस्तकवार्ता,उम्मीद सहित तमाम पत्रिकाओं में प्रायोजित समीक्षाएं प्रकाशित हुईं। स्वयं राजेन्द्र यादव ने हंस के संपादकीय पृष्ठ पर इसकी चर्चा की।


अबलाओं का इन्साफ़ जल्दबाजी में संपादित की गई किताब है। अगर चाँद, विशाल भारत, सुधा और सरस्वती की जर्जर फाइलों को धैर्य के साथ सूक्ष्मता से अवलोकन किया गया होता तो इस फर्जी किताब का संपादन करने से नैया जी बचतीं। हिन्दी नवजागरण पर कार्य करना तलवार की धार पर चलना है। एक फ़र्जी किताब को प्रथम आत्मकथा बताना और पूरे हिंदी समुदाय को अँधेरे में रखना घनघोर अपराध की श्रेणी में आता है।

मेरे जैसे गंवई और गंवार व्यक्ति को अपने जाल में फंसाने के बाद एक दिन 'डब्ल्यू जेड - 745 जी, दादादेव रोड, बाटा चौक के पास, पालम, नयी दिल्ली' दरबार से फ़ोन आता है - 'सुजीत जी! पत्रिका निकालने की योजना स्थगित की जाती है।' यह सुनकर मैं सन्न रह गया। सारा मैटर इकट्ठा हो चुका था।अनुक्रम भी तैयार था। सामग्री इकट्ठा करने में मैंने हज़ारों रुपये खर्च किए थे। स्थगित करने का क्या कारण हो सकता है? कुछ देर मैं शांत होकर सोचता रहा।


जब वस्तुस्थिति को समझा तो एक जोरदार ठहाका लगाया और कान पकड़ा कि अब दिल्ली दरबार से दूर ही रहूँगा। उस जोरदार ठहाके में भी एक पीड़ा थी। एक दर्द था जिसे व्यक्त करना मेरे लिए मुश्किल है। अभी पिछले साल दिल्ली से ही एक चर्चित लेखक का फ़ोन आया था। उन्होंने कहा कि 'अछूत की समस्त मूल फोटोकापी मुझे दे दीजिए। बदले में मैं आपको उचित राशि दूँगा।' सुनकर उबकाई-सी आ गयी थी।


भगवान दास मोरवाल का मैं आलोचक नहीं। जिस तरह का उन्होंने मेरे साथ व्यवहार किया, वह स्तब्ध कर देने वाला था। हिन्दी नवजागरण पर मेरे पास एक लाख से अधिक पृष्ठों की सामग्री है। मैं इसे ही सहेज नहीं पा रहा हूँ। अबलाओं का इन्साफ़ पर प्राप्त सामग्री मेरे लिए महत्त्वहीन था। मेरे मित्र डॉ. बृजराज सिंह 'मन्नन द्विवेदी गजपुरी रचनावली' पर काम कर रहे हैं। अपने शोध के दौरान मुझे गजपुरी लिखित सैकड़ों रचनाएँ मिलीं। मैंने उदारतापूर्वक उन्हें दे दिया। बृजराज जी की भी यह भलमनसाहत है कि साहित्य अकादमी से छपे मोनोग्राफ़ में मेरे लिए आभार व्यक्त किया है। मनुष्य को उदार होना चाहिए। छल, प्रपंच, कपट, ईर्ष्या से बचना चाहिए। मैं मोरवाल जी का आभारी हूँ कि अछूत की समीक्षा 'इण्डिया टुडे' में लिखी, चाहे उनका मन्तव्य जो भी रहा हो।

भगवान दास मोरवाल का अनैतिक व्यवहार उनके सम्पूर्ण लेखन पर प्रश्न उठाता है। उनका व्यवहार उनके लेखन पर शक और अविश्वास पैदा करता है। उनके शोधात्मक उपन्यासों पर अँगुली उठाई जा सकती है कि उसमें दिए गए तथ्य ग़लत हैं। यह शोध का विषय है कि कितना ग़लत है?

हिंदी-जगत् में उनकी छवि एक ख़लनायक की बनती नज़र आ रही है। मैंने उनके लिखे कमेंट का स्क्रीन शॉट लेकर जब अपने फेसबुक पर चिपकाया तो लोग भरभराकर उन पर टूट पड़े।

मुसाफ़िर बैठा जी ने लिखा -
बहुत बेहूदा जीव है, सवर्णों का पिछलग्गू है, तीन-तेरह में रहता है। उसे लगता है कि लेखक हो गया तो वह अपने भक्तों, खुशामदियों के बाड़े में ही बंद रहेगा। उसने एक बार  बिहारियों पर, बिहारीपन का मज़ाक भी उड़ाया। हरियाणा का ...रामी है। पटना के किसी कार्यक्रम में आया तो सीधा करता हूँ उसे। 
जितेन्द्र विसारिया -
काला पहाड़ पहला उपन्यास पढ़ा बहुत पसंद आया था, उसमें भी उनका दलितद्रोह एक जगह उभर आया है...उसने जहाँ इनके भाव बढ़ाए पर आगे यह खुद ही अपने आप गिरते चले गए... लेखक के रूप में यह अब किसी की पहली छोड़िए कोई पसंद नहीं रहे। 
संतोष पटेल -
महा घटिया इंसान है।  
सुशील सुमन -
महा लम्पट व्यक्ति है।  
उमाशंकर सिंह परमार -
तमाम जोड़ जुगाड़ के बाद जब राजकमल ने इनकी उपन्यास का कवर जारी किया इन्होंने दो लाख रुपये पार्टी में उड़ा डाले। बेहद आत्ममुग्ध और जड़वादी आदमी है। बुद्धिजीवी कहने से चिढ़ जाते हैं इसलिए इन्हें मैं कुबुद्धिजीवी कहता हूँ। 
अवनीश पांडेय -
आत्ममुग्ध इंसान हैं। बेहद घटिया लेखक।  
जगन्नाथ दुबे -
एक बार मेरे साथ भी ऐसा ही कर चुके हैं। इधर खुद  फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजा है। मुझे भी ब्लॉक करने से पहले इसी तरह की भाषा में मेरे बारे में लिखा था।  
अमित मनोज -
भाई साहब, आप ध्यान मत दीजिए इन पर। इनका स्वभाव है ऐसा।  
वाद-विवाद हिंदी की परंपरा है। महावीर प्रसाद द्विवेदी, बालमुकुंद गुप्त, श्यामसुंदर दास, आचार्य शुक्ल, बनारसीदास चतुर्वेदी, पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र' आदि-आदि के विवादों से हम परिचित ही हैं। इनकी भाषा सदैव संयत रहती थी। मोरवाल जी को भी संयत भाव से साहित्य की साधना करनी चाहिए। अन्यथा इनकी जो छवि हिंदी समाज में बन रही है या बन चुकी है, उसके चलते हिंदी साहित्य के इतिहास से एक सिरे से ख़ारिज हो सकते हैं।


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सुजीत कुमार सिंह

स्टेट इंस्टीट्यूट ऑफ़ एजुकेशन उत्तर प्रदेश
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