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Saturday, June 13, 2020

स्त्री अलक्षित

श्रीकान्त यादव संपादित 'स्त्री अलक्षित' किताब में पच्चीस लेखिकाओं के पच्चीस लेख संकलित हैं। लेखों का स्वर विविधता से भरा हुआ है।

इस संकलन का पहला लेख 1912 ई. का है तो अंतिम लेख 1940 ई.का।

इन लेखों को "स्त्री दर्पण, चान्द, मर्यादा, महिला दर्पण, महारथी, आर्य महिला, माधुरी, चाँद, युगान्तर, महिला" पत्रिकाओं से बटोरा गया है।


'बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध का स्त्री-विमर्श' पर काम करने वाले  शोधार्थियों के लिए यह एक पठनीय किताब है।

नवजागरण पर काम कर रहे लोगों को थोड़ा-सा धैर्य रखने की जरूरत है अन्यथा आपके काम को आलोचकगण 'कबाड़ा' घोषित कर सकते हैं। उन्हें कबीर की इस पंक्ति को गाँठ बाँध कर रख लेना चाहिए :

"धीरे धीरे रे मना/धीरे सब कुछ होय/माली सींचे सौ घड़ा/ऋतु आए फल होय।"

रहीम भी कहते हैं  : 'समय पाय फल होत है।'

इस किताब में श्रीमती सरस्वती का एक लेख ''स्त्रियाँ और परदा" शीर्षक से है। किताब के अनुसार संपादक ने इस लेख को 'स्त्री दर्पण-जुलाई 1917' से लिया है।

सरस्वती नाम ने मुझे आकर्षित किया। आकर्षित क्यों किया - उसका एक कारण है। इस लेख का मैंने मूल लेख से मिलान किया। मैं दंग रह गया कि संपादक जिस लेख को 'श्रीमती सरस्वती' लिखित बता रहा है, दरअसल वह लेख 'श्रीमती सरस्वती' का है ही नहीं।

'स्त्रियां और परदा' शीर्षक लेख 'स्त्री दर्पण' के '1 जूलाई 1917' (भाग 17 : अंक 1 : 33-40) में प्रकाशित हुई थी जिसकी लेखिका "श्रीमती सत्यवती" हैं।

अब इसे क्या कहा जाए!

संपादक को 'चान्द' और 'चाँद' पत्रिका का अंतर भी स्पष्ट करना चाहिए।

संपादक ने श्रीमती मनमोहिनी चटर्जी का एक लेख 'इंगलिस्तान की औरतें' अगस्त 1937 की 'मर्यादा' से लिया है।

मुझे जहाँ तक जानकारी है, 'मर्यादा' सन् 1923 में बंद हो गयी थी। प्रेमचंद इसके अंतिम संपादक थे। अगर यह 'मर्यादा' कृष्णकांत मालवीय, संपूर्णानंद और प्रेमचंद से भिन्न है तो इसकी भी सूचना संपादक को देनी चाहिए।

'इनसान', 'दर्वाज़ा', 'कार्य्य' आदि शब्दों के आगे संपादक ने, पुरानी हिन्दी को अपनी विद्वता से सुधारने का प्रयास करते हुए, कोष्ठक में 'इंसान, दरवाजा, कार्य' लिखा है। यह अधिकार आपको किसने दे दिया?

पुरानी हिन्दी के साथ छेड़छाड़ करना मैं अपराध की श्रेणी में रखता हूँ।


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सुजीत कुमार सिंह
इलाहाबाद।