Sunday, June 28, 2020

काशी-विश्वविद्यालय : श्यामसुंदर दास

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बाबू श्यामसुंदर दास की आत्मकथा सरस्वती  पत्रिका में निरंतर तेरह महीनों तक प्रकाशित होकर 1941 ई. में इलाहाबाद के इंडियन प्रेस से पुस्तकाकार छपी। रामस्वरूप चतुर्वेदी ने इसे हिंदी की पहली प्रसिद्ध आत्मकथा कहा है।

इधर सोशल मीडिया पर काशी विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के शताब्दी वर्ष पर प्रथम अध्यक्ष को लेकर बिगूचन की स्थिति है। हिंदी विभाग के ही आचार्यगण लाला भगवानदीन को प्रथम अध्यक्ष बता रहे हैं। यह सब हो रहा है विभाग में टंगे एक काष्ठ-पट्टिका पर अंकित नामों के चलते जो चीख-चीख कर बता रहा है कि प्रथम विभागाध्यक्ष लाला भगवानदीन थे। हालाँकि विभाग के ही प्रोफेसर श्रीप्रकाश शुक्ल अपने फेसबुक और प्रिंट मीडिया आदि के माध्यम से लगातार बता रहे हैं कि विभाग के प्रथम अध्यक्ष दीन जी नहीं अपितु बाबू श्यामसुंदर दास थे।

काशी विश्वविद्यालय का हिंदी विभाग अपनी औरेबियत के लिए भी जाना जाता है। प्रोफेसर श्रीप्रकाश शुक्ल उसी औरेबियत के शिकार नज़र आते हैं। उनकी आवाज़ सुनने के लिए कोई तैयार ही नहीं। वे तथ्यों की रोशनी में समझा रहे हैं लेकिन लोग समझने के लिए तैयार ही नहीं।

बाबू साहब ने अपनी आत्मकथा में एक अध्याय 'काशी-विश्वविद्यालय' शीर्षक से लिखा है। अरुण प्रकाश ने कहीं कहा है कि "आत्मकथा की छवि सत्य वाली है।" बाबू साहब की आत्मकथा का प्रस्तुत अंश तत्कालीन विभाग में हो रही राजनीति के तमाम सत्य को उद् घाटित करती है।

- सुजीत कुमार सिंह 

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सन् 1905 में जब बनारस में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन हुआ था, पंडित मदनमोहन मालवीय जी ने टाउनहाल में व्याख्यान देकर अपने उस प्रस्ताव की विशद रूप से व्याख्या की थी जिसके अनुसार वे एक ऐसे विश्वविद्यालय की स्थापना करना चाहते थे, जो भारतीय संस्कृति की रक्षा करता हुआ देश में सब के अध्ययन-अध्यापन का एक विशिष्ट केंद्र हो। उस समय तो लोगों ने यही कहा था कि यह मालवीय जी का स्वप्न है जो कभी प्रत्यक्ष भौतिक रूप धारण नहीं कर सकता। कल्पना जब तीव्र होकर मूर्तिवत् प्रतीत होने लगती है तभी संसार में बड़े-बड़े महत्त्वपूर्ण कामों का सूत्रपात होता है। यद्यपि उस समय मालवीय जी की कल्पना स्वप्नवत ही प्रतीत होती थी, पर 10 वर्षों के अनवरत परिश्रम, अदम्य उत्साह और दृढ़ विश्वास ने इस स्वप्न को, प्रत्यक्ष कर दिखाया।

इन दस वर्षों में उनकी आयोजना में भारतवर्ष और विशेषकर संयुक्त-प्रदेश में उत्साह की एक ऐसी लहर बह चली कि सब विघ्न-बाधाएँ उसके सामने विलीन हो गईं और सन् 1916 में काशी में हिंदू-विश्वविद्यालय की स्थापना हो गई। मालवीय जी के उद्योग और उत्साह की जितनी प्रशंसा की जाय, थोड़ी है। यद्यपि इसके पहले सेठ जमशेद जी नौशेरवाँ जी ताता ने तीस लाख रुपये का दान देकर बंगलूर में ताता इंस्टीट्यूट की स्थापना का सूत्रपात किया था पर हिंदू-विश्वविद्यालय की योजना के सामने वह कुछ भी नहीं है। इतना अधिक धन किसी सार्वजनिक संस्था के लिए अब तक इकट्ठा नहीं हुआ था और न भारतवर्ष के किसी और विश्वविद्यालय में शिक्षा के इतने विभागों का आयोजन ही हुआ था जितना इस विश्वविद्यालय में हुआ।

विश्वविद्यालय ने जितनी उन्नति की है उस सबका श्रेय मालवीय जी को है, यद्यपि उनके सहायकों और सहयोगियों की भी संख्या कम नहीं है। समय-समय पर विश्वविद्यालय को जो ऋण लेकर काम चलाना और बढ़ाना पड़ा है उसके लिए भी मालवीय जी का उत्साह ही उत्तरदायी है। कुछ लोगों का कहना है कि सर सुंदरलाल यदि कुछ दिन अधिक जीते रहते तो इसको ऋणग्रस्त न होना पड़ता। यह बात ठीक हो सकती है पर साथ ही यह भी संभव है कि उसकी उन्नति भी इतनी अधिक और इतनी शीघ्र न हो सकती। यहाँ पर कदाचित् यह कह देना भी अनुचित न होगा कि मालवीय जी ने जितने बड़े-बड़े कामों को अपने हाथ में लिया - जैसे अदालतों में नागरी का प्रचार, हिंदू बोर्डिंग हाउस, मिंटो पार्क आदि - उनमें हिंदू-विश्वविद्यालय ही को ऐसा सौभाग्य प्राप्त हुआ कि वह इनके हाथों पूरा हो सका, बाकी सब अधूरे ही रह गए।

मालवीय जी से मेरा पहला परिचय सन् 1894 में हुआ था जब मैं काशी-नागरी-प्रचारिणी सभा के पहले डेपुटेशन में बाबू कार्तिकप्रसाद और बाबू माताप्रसाद के साथ प्रयाग गया था। उस समय तो मैं केवल 19 वर्ष का एक युवा विद्यार्थी था। आगे चलकर उनसे मेरी घनिष्टता बढ़ती गई और अंत में मुझे उनके विश्वविद्यालय में सेवा करने का भी सौभाग्य प्राप्त हुआ। इन अवस्थाओं में मुझे उनके गुणों तथा त्रुटियों से विशेष-रूप से परिचित होने का अवसर प्राप्त हुआ। मैं इन बातों का कुछ उल्लेख यथास्थान इस प्रकरण में करूँगा।

विश्वविद्यालय की स्थापना के अनंतर यह निश्चय हुआ कि एफए और बीए की परीक्षा में प्रत्येक विद्यार्थी के लिये देशी भाषा में एक लेख लिखकर पास करना अनिवार्य होगा। इस पर हिंदी के लिये अध्यापकों की खोज होने लगी तो मालवीय जी ने पंडित रामचंद्र शुक्ल और लाला भगवानदीन को चुना। इन दिनों गर्मी की छुट्टियों में मैं काशी आया हुआ था। शुक्ल जी मुझसे मिले और कहने लगे कि सर्टिफिकेट दे दीजिए तो हम लोगों की नियुक्ति हो जाय। मैंने कहा सर्टिफिकेट तो ले लीजिए, पर वेतन का ध्यान रखिए। यदि कम वेतन पर कार्य करना स्वीकार करेंगे तो आगे चलकर हिंदी-विभाग को बड़ी कठिनाईयों का सामना करना पड़ेगा। पर उन्हें उस समय यह चिंता व्यग्र कर रही थी कि शब्दसागर का कार्य समाप्त हो जाने पर हम क्या करेंगे। अस्तु, मेरी सम्मति की उन्होंने उपेक्षा की और 60) मासिक पर कार्य करना स्वीकार कर लिया।

जैसा कि मैं पहले लिख चुका हूँ, जुलाई सन् 1921 से मैंने कालीचरण स्कूल की हेडमास्टरी से त्यागपत्र दे दिया और मैं काशी चला आया। यहाँ आने के पहले एक महानुभाव ने मुझे यह वचन दिया था कि तुम घर पर बैठे-बैठे हमारे कार्य का निरीक्षण करना, हम तुम्हें 200) मासिक देंगे। मैंने इसे स्वीकार कर लिया और जीविका-निर्वाह की व्यवस्था से निश्चिंत हो गया। पर काशी आ  जाने पर उनके ज्येष्ठ पुत्र ने, जो उस समय समस्त कार्य की देख-भाल करने लगे थे, यह कहा कि यह नहीं हो सकता। तुम्हें हमारे कार्यालय में नित्य आकर काम करना होगा। इसे मैंने स्वीकार नहीं किया।

अब मैं बाबू गोविंददास से मिला और उन्हें सब बातें कह सुनाईं। उन्होंने कहा कि तुम चिंता मत करो, मैं व्यवस्था करता हूँ। उन्होंने विश्वविद्यालय में यह प्रस्ताव किया कि हिंदी-साहित्य का अध्ययन युनिवर्सिटी की उच्चतम परीक्षा के लिये एक स्वतंत्र विषय माना जाय। यह प्रस्ताव स्वीकृत हुआ और हिंदी-विभाग खोलने का आयोजन होने लगा। बाबू गोविंददास ने मुझे मालवीय जी के पास भेजा और उपदेश दिया कि वेतन के लिये न अड़ना। हाँ, पद का ध्यान रखना और युक्ति से काम लेना।



मेरी नियुक्ति आश्विन सन् 1921 से युनिवर्सिटी में हो गई और हिंदी-विभाग का पूरा-पूरा आयोजन करने का मुझे आदेश हुआ। पीछे से मुझसे पंडित रामचंद्र शुक्ल ने कहा कि मालवीय जी ने मुझे तथा लाला भगवानदीन को बुलाकर पूछा था कि हम श्यामसुंदरदास को हिंदी-विभाग का अध्यक्ष बनाना चाहते हैं, तुम लोगों की क्या सम्मति है।  शुक्ल जी ने उत्तर दिया कि हम लोगों को उनके अध्यक्ष होकर आने में कोई आपत्ति नहीं है। जिस दिन मेरी नियुक्ति का निश्चय हुआ उसी दिन संध्या को बाबू ज्ञानेंद्रनाथ बसु ने, जो उस समय युनिवर्सिटी कौंसिल के उपमंत्री थे, मुझे पत्र लिखकर इसकी सूचना दी।

अब कार्य का आरंभ हुआ। एफए , बीए और एमए क्लासों में हिंदी की स्वतंत्र पढ़ाई का आरंभ तो जुलाई सन् 1922 से ही हो सकता था। इस बीच में इस संबंध का सब कार्य संपन्न किया गया। पाठ्य पुस्तकों का चुनाव हुआ और पढ़ाई का क्रम निश्चित हुआ। इस समय इस विभाग में केवल तीन अध्यापक थे। पर अभी तो केवल फर्स्ट ईयर, थर्ड ईयर और फिफ्थ ईयर में पढ़ाई आरंभ हुई थी, अतएव अधिक अध्यापकों की आवश्यकता भी न थी। पर आगे चलकर इसके लिये बड़ा विकट प्रयत्न करना पड़ा।

पहली कठिनाई, जिसका मुझे सामना करना पड़ा, अध्यापन और परीक्षा का माध्यम था। युनिवर्सिटी का नियम था कि सब विषयों की पढ़ाई और परीक्षा अँगरेजी भाषा के माध्यम द्वारा हो। मुझे यह नियम सर्वथा अनुचित जान पड़ता था कि संस्कृत और हिंदी की पढ़ाई और परीक्षा भी अँगरेजी के द्वारा हो। पर यह मेरी शक्ति के बाहर की बात थी कि मैं इसे तोड़ या बदल सकता। मैंने इसे धैर्यपूर्वक इस बात के सुधार का उद्योग आरंभ किया और किसी को इसका आभास न मिलने दिया।

पंडित रामचंद्र शुक्ल तो अँगरेजी में पढ़ा सकते थे, पर लाला भगवानदीन ऐसा करने में असमर्थ थे। अतएव हम लोगों ने पढ़ाना हिंदी में आरंभ कर दिया। बीच-बीच में अँगरेजी का प्रयोग करते जाते थे। प्रश्नपत्र अभी अँगरेजी ही में छपते थे। आगे चलकर कोई-कोई पत्र हिंदी में भी छपने लगा। यह कार्य क्रमशः हुआ।

एक दिन सेनेट के अधिवेशन में मैंने इस बात को छेड़ा। मैंने कहा कि यह बड़ी अस्वाभाविक बात है कि हिंदी और संस्कृत की पढ़ाई और परीक्षा अँगरेजी में हो। इससे हमारे संस्कृत और हिंदी-साहित्य को जो हानि पहुँचती है वह तो अत्यधिक है, साथ ही विद्यार्थियों को भी भाव समझने और उसे लिखकर स्पष्ट करने में कठिनता होती है। मालवीय जी कह बैठे कि यह अनुचित है। मैंने एक प्रश्नपत्र, जो पंडित केशवप्रसाद मिश्र का बनाया हुआ था, दिखाकर कहा कि देखिए यह हिंदी में कितना सुंदर हुआ है और अँगरेजी में यह कितना भद्दा हो जाता। मालवीय जी ने प्रश्नपत्र लेकर देखा और उसकी प्रशंसा करते हुए कहा कि नहीं हिंदी और संस्कृत के प्रश्नपत्र जहाँ तक संभव हो उन्हीं भाषाओं में हों।

मालवीय जी में भावुकता की मात्रा अधिक थी। भावोन्मेष में आकर वे आगा-पीछा कुछ नहीं सोचते थे और चट कार्य कर बैठते थे। इसमें यदि किसी नियम का भंग होता हो तो उसकी उन्हें चिंता न थी। कदाचित् उनकी यह धारणा थी कि नियम कार्य की व्यवस्था ठीक करने के लिये हैं, न की उसमें बाधा डालने के लिये।

अब तो हम लोग खुलकर हिंदी के माध्यम से पढ़ाने और परीक्षा लेने लगे। अंत में जाकर यह भी निश्चय हो गया कि डाक्टरी की डिग्री के लिये भी संस्कृत और हिंदी से संबंध रखनेवाले हिंदी या संस्कृत में लिखे जा सकते हैं। इस विषय पर किंचित् विस्तार से लिखने की आवश्यकता इसलिये हुई कि आजकल शिक्षा के माध्यम का प्रश्न बड़े जोरों से उठा है। कुछ परीक्षाओं में मातृभाषा माध्यम मान ली गई है, औरों का विषय विचाराधीन है। पर इस माध्यम के प्रश्न में जो हिंदुस्तानी का पुछल्ला जोड़ दिया गया है उससे हिंदी को विशेष हानि की आशंका है तथा उच्च शिक्षा तो हिंदुस्तानी-द्वारा हो ही नहीं सकती। एक संकर भाषा की रचना करने का व्यर्थ उद्योग करके हिंदी की उन्नति के मार्ग में काँटे बोना बुद्धिमत्ता नहीं कही जा सकती।


दूसरी कठिनाई, जिसका हम लोगों को सामना करना पड़ा, उपयुक्त पुस्तकों का अभाव था। पद्य-साहित्य की पुस्तकें तो अच्छी मात्रा में उपलब्ध थीं पर उनके अच्छे संस्करण दुर्लभ थे। भाषा-विज्ञान, आलोचनाशास्त्र, हिंदी भाषा और हिंदी-साहित्य के इतिहास की पुस्तकों का सर्वथा अभाव था; साहित्य के एक-दो छोटे-मोटे इतिहास जैसे ग्रियर्सन के और ग्रीव्स के उपलब्ध थे, पर उनसे पूरा-पूरा काम नहीं निकल सकता था। उपयुक्त गद्य-ग्रंथों का एक प्रकार से अभाव ही था। शुक्ल जी ने जायसी, सूर, तुलसी आदि के ग्रंथों के संस्करण तैयार किए और विद्वत्तापूर्ण भूमिकाएँ लिखीं। मैंने भाषा-विज्ञान, आलोचनाशास्त्र, नाट्यशास्त्र आदि पर ग्रंथ लिखे तथा अन्य लोगों को गद्य-ग्रंथों के लिखने के लिये उत्साहित किया और कुछ संग्रह आप भी तैयार किए। अपने रचित ग्रंथों के विषय में यथास्थान विस्तार से लिखूँगा।

तीसरी कठिनाई अध्यापकों की अल्प संख्या थी। इसके लिये कोई उद्योग सफल होता नहीं दिखाई देता था। संयोग से ओरियंटल-विभाग में हिंदी-निबंध की शिक्षा देने का निश्चय हुआ। इसके लिये पंडित अयोध्यासिंह उपाध्याय चुने गए। उन्हें एक दिन युनिवर्सिटी में देखकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। मैंने उनसे आग्रह किया कि हमारे विभाग में भी वे कुछ कार्य-भार लें। इसको उन्होंने सहर्ष स्वीकार किया। उपाध्याय जी हिंदी के उत्कृष्ट कवि और सुलेखक हैं। उन्होंने हिंदी-साहित्य को अनेक रत्नों से विभूषित किया है। मुझे उनसे बड़ी आशा थी कि एक योग्य व्यक्ति के मिल जाने से हमारा काम भली भाँति चल सकेगा। पर मुझे उनके अध्यापन-कार्य से असंतोष ही रहा। वे यह नहीं समझ सकते थे कि स्कूल की पढ़ाई और कॉलेज की पढ़ाई में क्या अंतर है और कैसे उसे निबाहना चाहिए।

कई उलट-फेर किए गए पर कहीं भी सफलता नहीं मिली। निबंध पढ़ाने को दिया गया तो पुस्तक पढ़ाने की अपेक्षा हिंदू-संगठन और हिंदुओं के ह्रास पर उनके व्याख्यान होने लगे। अंत में हारकर उन्हें उन्हीं के रचित ग्रंथ पढ़ाने को दिए गए पर उस काम को भी वे पूरा न कर सके। साल भर में चौथाई पुस्तक भी न पढ़ा सके। मेरी ही भूल थी कि मैं यह समझता था कि एक विद्वान लेखक अच्छा अध्यापक भी हो सकता है। मालवीय जी को उचित था कि वे स्वयं आकर देखते कि पढ़ाई कैसी होती है तो उनकी आँखें खुल जातीं। पर उन्होंने ऐसा नहीं किया। अस्तु किसी प्रकार काम चलता रहा। जब लड़कियों के लिये अलग कॉलेज बना तब वे वहां हिंदी पढ़ाने के लिए भेजे गए पर मेरे समय तक सप्ताह में दो घंटे की पढ़ाई उनकी आर्ट्स कॉलेज में चलती रही।


कई वर्षों के अनुभव के अनंतर हम लोगों ने हिंदी के पाठ्यक्रम में परिवर्तन करने की आवश्यकता समझी। यथासमय प्रस्ताव किए गए और वे स्वीकृत हुए। इसमें मुख्य परिवर्तन यह था कि एमए के विद्यार्थी को किसी आकर भाषा (संस्कृत, पाली, प्राकृत या अपभ्रंश) या किसी दूसरी देशी भाषा (बँगला, मराठी, गुजराती, उर्दू) में भी एक प्रश्नपत्र का उत्तर देना पड़ता था। आकर भाषा के पढ़ाने का हमारे विभाग में प्रबंध न था। इसलिये मैंने एक नये व्यक्ति की नियुक्ति का प्रस्ताव किया। प्रस्ताव स्वीकृत हुआ और मैंने पंडित केशवप्रसाद मिश्र के नियुक्त किए जाने की सिफारिश की।

पंडित केशवप्रसाद मिश्र हिंदू स्कूल में संस्कृत के अध्यापक थे। मैं इनकी योग्यता पर मुग्ध था। अतएव मैंने इन्हें लेने का भरसक उद्योग किया। अनेक विघ्न उपस्थित हुए पर अंत में केशव जी की नियुक्ति हो गई। केशव जी बड़े सज्जन और सरल चित्त के व्यक्ति हैं, पूरे-पूरे विद्याव्यसनी हैं, पर इनकी रुचि जितनी पढ़ने में है उतनी लिखने में नहीं। एक इन्हीं के आगे मुझे हार माननी पड़ी है। अनेक बेर इन्हें कुछ लिखने के लिये मैंने उत्साहित किया  कभी-कभी आग्रह भी किया, पर मेरे सब प्रयत्न निष्फल गए। कदाचित् इनमें आत्मविश्वास की कमी है। ये सदा सोचते हैं कि और पढ़ लें और ज्ञान प्राप्त कर लें तब लिखें। इसी कारण केवल मेघदूत के अनुवाद और कुछ लेखों के अतिरिक्त वे कोई साहित्यिक रचना न कर सके। इनमें एक बड़ी त्रुटि है। ये इतने सरल हैं कि कोई भी होशियार आदमी इन्हें धोखा दे सकता है। मनुष्यों की परख इन्हें प्राय: बिलकुल नहीं है। यदि साक्षात् प्रमाणों के मिल जाने पर भी ये किसी को निकृष्ट समझ लेते हैं तो भी सहृदयता और सज्जनता के मारे उससे संबंध नहीं तोड़ते, वरन् कभी-कभी तो इसके विपरीत भाव का मन से विरोध करते हुए भी साधारणत: उसका साथ देते हैं।  उनका यह सिद्धांत जान पड़ता है कि जिसका एक बेर हाथ  लिया उसे, अनेक दोष रहने पर भी, छोड़ना मनुष्यता नहीं है। पढ़ाने-लिखाने में तो वे पटु हैं, पर और कामों में कुछ ढीले-ढाले से हैं। इनके कारण मुझे दो-एक ऐसे व्यक्तियों से काम पड़ गया जिन्होंने मुझे बहुत दुःख दिया, पर यह उनका नहीं, उनके मनुष्य को न समझ सकने का दोष है।

लाला भगवानदीन के स्वर्गवासी होने पर किसी को नियुक्त करने का प्रश्न उपस्थित हुआ। मैंने डाक्टर पीतांबरदत्त बड़थ्वाल के नियुक्त होने का प्रस्ताव किया पर इसका विरोध एक दूसरे प्रभावशाली अधिकारी ने किया। इस बेर इंजीनियरिंग कॉलेज के प्रिंसपल मिस्टर किंग ने सहायता की और बड़थ्वाल की नियुक्ति हुई। पीछे एक और व्यक्ति के बढ़ाने का आयोजन हुआ। दो विद्यार्थियों में से चुनाव होने वाला था - एक थे नंददुलारे वाजपेयी और दूसरे थे जगन्नाथप्रसाद शर्म्मा।  मैं वाजपेयी जी को हृदय से चाहता था पर मालवीय जी ने यह कहकर जगन्नाथप्रसाद को नियुक्त किया कि वह देश के लिये जेल हो आया है।


आगे चलकर वेतन का प्रश्न उठा। सब अध्यापकों को बहुत कम वेतन मिलता था। किसी को 100) मासिक से अधिक नहीं मिलता था। केवल मुझे 250) मिलते थे। इस अन्याय को हटाने के लिये बहुत दिनों तक प्रयत्न करना पड़ा, तब कहीं जाकर वेतन बढ़ा। सहायक अध्यापकों का वेतन 100)-10)-150) हुआ। मेरे साथ तो विशेष कृपा हुई। जब इस वेतन के प्रश्न ने उत्कट प्रयत्न का रूप धारण किया तब मेरा ग्रेड 150)-10)-300) हुआ। युनिवर्सिटी के किसी प्रोफेसर को यह वेतन नहीं मिलता। केवल असिस्टेंट प्रोफेसरों का यह ग्रेड है। मैं प्रोफेसर था और मेरे भली भाँति कार्य चलाने का उपहार यह मिला कि पद प्रोफेसर का रखकर ग्रेड असिस्टेंट प्रोफेसर का दिया गया। मैंने इसे स्वीकार नहीं किया। अंत में जाकर 400) वेतन मुझे दिया जाने लगा और इसके लिये मैं ध्रुव जी का अनुगृहीत हूँ कि उन्होंने बड़े जोरों से मेरे पक्ष का समर्थन किया था। मुझे यह सब अनुभव करके कभी-कभी यह संदेह हो जाता था कि मालवीय जी में हिंदी के प्रति वास्तविक प्रेम है या नहीं। जहाँ कहीं विद्यालय के विषय में वे व्याख्यान देते वहाँ हिंदी और संस्कृत-विभागों की जी खोलकर प्रशंसा करते पर स्वयं हिंदी-विभाग के प्रति उपेक्षा का भाव रखते। उनके एक अंतरंग पारिपार्श्विक ने एक बेर मुझे सलाह दी कि समाचारपत्रों में मैं इसका आंदोलन करूँ। मैं इनकी चाल समझ गया। मैंने उत्तर दिया कि जब समय आवेगा तब देखा जायगा। मैं अब तक मालवीय जी के इस उपेक्षाभाव को नहीं समझ सका हूँ। कदाचित् 'अतिपरिचयादवज्ञा' ही इसका कारण हो।

जब तक मैं विद्यालय में काम करता रहा, मुझे निरंतर कठिनाइयों का सामना करना पड़ता। दो-एक घटनाओं का मैं उल्लेख करता हूँ।

एक समय पंडित रामचंद्र शुक्ल ने अलवर में नौकरी करने के लिये एक वर्ष की छुट्टी ली। उनके स्थान पर किसी की नियुक्ति आवश्यक थी। मैंने कहा कि एक वर्ष के लिये किसी को चुन लीजिए। मुझे आदेश मिला कि तुम अपने किसी अच्छे विद्यार्थी से काम लो। मालवीय जी के आने पर उसकी नियुक्ति हो जायगी। इस पर मैंने सत्यजीवन वर्म्मा को कार्य का भार दिया। कुछ महीनों तक उसने काम भी किया, पर मालवीय जी ने आकर यह निश्चय किया कि नहीं, कोई नई नियुक्ति न होगी। विभाग के लोग आपस में काम बाँट लें। बेचारे सत्यजीवन को अलग होना पड़ा।

एक बेर मैंने यह सोचा कि एमए के विद्यार्थियों को भाषाविज्ञान पढ़ाने के लिये एक ऐसा नकशा बनवाया जाय जिसमें भिन्न-भिन्न भारतीय देश-भाषाओं की भौगोलिक सीमाएँ भिन्न-भिन्न रंगों में दिखलाई जायँ। नकशा तो मैंने उस धन में से मँगवा लिया जो मुझे पुस्तकें खरीदने के लिये स्वीकृत था, पर रँगवाने के लिये मैंने 15) माँगे। वे मुझे न मिले।

युनिवर्सिटी के मित्रों में मेरे सबसे अधिक प्रिय, अंतरंग और विश्वासपात्र पंडित इंद्रदेव तिवाड़ी थे। उनसे मेरी खूब पटती थी। वे मेरी कठिनाईयों को सुलझाने में सदा सहायता देते थे। ऐसे मित्रों का मिलना कठिन है। मेरे सौभाग्य से मेरे जीवन में एक यही ऐसे मित्र मिले थे जो सब अवस्थाओं में अपने धर्म का पूर्णतया पालन करते थे। लू लग जाने से इनका देहांत हो गया। इनकी स्मृति अभी तक मुझे कभी-कभी विह्वल कर देती है। जब ये रजिस्ट्रार हुए तो उसी दिन रात को आकर मुझे सूचना दी और अपने सपक्ष तथा विपक्षों की बातें सुनाईं। वे अपनी गुप्त से गुप्त बात मुझसे कह देते थे। इनकी रजिस्ट्रारी में मैं तीन बेर युनिवर्सिटी-परीक्षाओं का परिणाम तैयार (Tabulator) करने के लिये नियुक्त हुआ। एक बेर मैंने सिंडिकेट में यह बात कही कि इसके लिये जो पुरस्कार मिलता है वह बहुत थोड़ा है। इस पर कहा गया कि आदमी दूने कर दो। वैसा ही हुआ और 200) वार्षिक का खर्च बढ़ गया। कैसी विचित्र बात है कि उसी काम के लिये धन की कमी थी, पर तुरत ही उसी काम के लिये दो और व्यक्तियों का पुरस्कार देने को धन मिल गया।

उस वर्ष की बात स्मरण आती है जिस वर्ष पीतांबरदत्त को डाक्टर की उपाधि मिलने वाली थी। इस अवसर पर कई महानुभावों को आनरेरी डिग्री देने का उपक्रम किया गया था। युनिवर्सिटी का यह नियम है कि किसी विभाग का कोई विद्यार्थी जो उपाधि पाने के योग्य समझा जाय उसे कानवोकेशन में उपस्थित करने का अधिकार उस व्यक्ति को होगा जो उस विभाग का अध्यक्ष तथा सेनेट का सदस्य होगा। इस नियम के अनुसार मुझे पीतांबरदत्त को उपस्थित करने का अधिकार था, पर उस वर्ष में आचार्य ध्रुव जी के लिये उपस्थित करने को कोई विद्यार्थी न था। अतएव वाइसचैंसलर महोदय ने निश्चय किया कि पीतांबरदत्त को ध्रुव जी ही उपस्थित करें। यह बात मुझे बहुत बुरी लगी पर मैं चुप रह गया।

एक समय मैंने सेनेट में कुछ प्रस्ताव फैकेल्टी के नियमों में संशोधन करने के लिये किए। इन नियमों का संबंध कोर्ट से भी था। अतएव मैंने सूचना दी कि मैं इन प्रस्तावों को कोर्ट में भी उपस्थित करूँगा। मैं उस समय कोर्ट का भी सदस्य था। असिस्टेंट सेक्रेटरी साहब ने, जो बहुत दिनों तक संयुक्त-प्रदेश की दीवानी कचहरी के एक उच्च पद पर रह चुके थे, फतवा निकाला कि मेरी अवधि अब पूरी होनी चाहती थी अतएव मैं कोई प्रस्ताव नहीं उपस्थित कर सकता। मैंने पूछा कि आपको यह कैसे ज्ञात हुआ कि मैं फिर कोर्ट का सदस्य न चुना जाऊँगा। इसका उत्तर न था, पर एक बेर जो जज साहब का फैसला हो गया तो उसकी अपील कहाँ हो सकती थी? जब सेनेट में मैंने प्रस्ताव उपस्थित किया तब मालवीय जी ने कहा कि इसका संबंध कोर्ट से भी है, अतएव यह यहाँ भी उपस्थित होना चाहिए। मैंने जज साहब के फैसले की बात कह सुनाई तब उन्होंने कहा की यह उनकी गलती थी। परिणाम यह हुआ कि काम एक वर्ष के लिये रुक गया। इस प्रकार की धाँधली युनिवर्सिटी में हुआ करती थी।


युनिवर्सिटी में काम करते हुए मुझे अनेक प्रकार के विद्यार्थियों से काम पड़ा। कुछ विद्यार्थी तो बड़े सात्त्विक स्वभाव के अत्यंत श्रद्धालु तथा विद्याव्यसनी थे। इनमें मुख्यत: चार नाम मेरे सामने आते हैं - एक पीतांबरदत्त बड़थ्वाल, दूसरे नंददुलारे वाजपेयी, तीसरे हरिहरनाथ टंडन और चौथे श्रीधरसिंह। इन चारों के स्वभाव में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। वे अब तक मुझे उसी दृष्टि से देखते हैं जिस दृष्टि से अपने पठनकाल में देखते थे। इन चारों के मेरे प्रति अत्यंत श्रद्धा और भक्ति है। इनमें से दो ने मेरे सहयोग में कई काम किए हैं, जिनका उल्लेख यथास्थान किया जायगा। मैं और इतना और कह देना चाहता हूँ कि इनके प्रति मेरे भाव भी अत्यंत स्नेहमय हैं और मैं यथाशक्ति इनकी सहायता करने से कभी पराङ्मुख भी नहीं हुआ।

अधिकांश विद्यार्थी मुझे ऐसे मिले हैं जो अपने स्वार्थसाधन में कोई बात उठा नहीं रखते थे। इनमें से किसी-किसी को तो मैंने महीनों 20) मासिक अपने पास से दिया और अपने मित्रों से दिलाया, पर इनमें से ऐसे नरपिशाचों से भी मुझे काम पड़ा है जो अपने स्वार्थसाधन करने में मेरा अनिष्ट करने से भी नहीं हिचके। हिंदू-विश्वविद्यालय में ही ऐसे विद्यार्थी हों ऐसी बात नहीं है। मुझे कई बेर मौखिक परीक्षा लेने के लिये आगरा जाना पड़ा है। वहाँ परीक्षा के बाद प्राय: विद्यार्थी मुझसे मिलने आते। कोई कहता मैं तो गा या कविता कर सकता हूँ, और कुछ नहीं जानता। ऐसे विद्यार्थियों से भी मुझे काम पड़ा है जो ऊपर से तो मुझ पर बड़ी श्रद्धाभक्ति दिखाते पर भीतर से उनका उद्देश्य स्वार्थसाधन-मात्र रहता। एक विद्यार्थी का मुझे स्मरण आता है जो मौखिक परीक्षा देकर बाहर ठहरा रहा। मेरे कार्य समाप्त होने पर डेरे पर चलने के समय वह मेरे साथ हो लिया और कहने लगा कि मुझे आपसे निवेदन करना है, आज्ञा हो तो कहूँ। उसने कहा कि मैं आपका जीवनचरित लिखना चाहता हूँ। यदि आप सहायता करें तो छुट्टियों में आपके पास काशी आऊँ। मैंने उससे कहा कि मेरे पास जीवनचरित की कोई सामग्री नहीं है जो मैं तुम्हें दिखा या बता सकूँ। मैंने उसकी और परीक्षा करनी चाही। कई वर्षों बाद वह मुझसे काशी में मिला और मेरी जीवनी के नोट्स माँगने लगा। मैंने उसे नोट्स दे दिए। कुछ दिनों के पीछे उसने उन्हें लौटा दिया, पर आज तक वह जीवनी देखने में न आई। वास्तव में बात यह थी कि वह मेरी जीवनी नहीं लिखना चाहता था, उद्देश्य केवल यही था कि मैं अन्य कामों में उसकी सहायता करता रहूँ। यह मैंने किया भी। पर उसके कथनानुसार अस्ताचल में गए हुए सूर्य की कोई पूजा नहीं करता। अतएव अब मुझसे किसी कार्य के निकलने की आशा उसने छोड़ दी और उसके दर्शन भी दुर्लभ हो गए।

एक और विद्यार्थी की करनी मुझे स्मरण आ रही है। वह हिंदी और अँगरेजी में एमए पास था तथा मेरे एक अत्यंत प्राचीन मित्र के आश्रय में उनके यहाँ रहता था। जब जगन्नाथप्रसाद शर्म्मा की नियुक्ति का प्रश्न उठा हुआ था तब उसने भी उसके लिये उद्योग किया। उसके मन में यह भावना उत्पन्न हुई कि यदि वह मेरा विरोध करे और जगह-जगह मेरी निंदा करता फिरे तो मेरे विरोध करने पर भी उसकी नियुक्ति हो जायगी। यह भावना उसके मन में कैसे उत्पन्न हुई अथवा किसके उपदेश से उसने इस मार्ग का अवलंबन किया यह मुझे आज तक ज्ञात नहीं हुआ। मेरे मित्र ने कई बेर मुझसे कहा कि मैंने उसे बहुत डाँटा। पर उनकी डाँट-फटकार का कोई परिणाम न देख पड़ा। मेरे इन मित्र की यशोलिप्सा इतनी बढ़ी हुई है और इसके लिये वे इतना चिंतित रहते हैं कि किसी प्रकार से भी अपनी यशरूपी चादर पर कलंक का एक छींटा भी नहीं लगना देना चाहते। यदि उन्हें कभी कोई आशंका भी हो जाती तो साम, दंड, भेद में से जिस नीति को उपयुक्त समझते उसका अनुसरण कर वे अपना अभीष्ट सिद्ध कर लेते हैं। उन्हें कदाचित् यह आशंका थी कि यदि मैं उसको अपने आश्रय से निकाल देता हूँ तो कहीं वह विद्यार्थी मेरे ही पीछे न पड़ जाय और तब स्थिति सँभालना कठिन हो जायगा।


पंडित रामनारायण मिश्र मेरे बहुत पुराने मित्रों में हैं। अनेक अवसरों पर उन्होंने मेरी बड़ी सहायता की है। मैंने भी यथासाध्य उनका हाथ बटाने का उद्योग किया है। सन् 1905 में जब काशी में सोशल कान्फरेंस हुई थी तब उन्होंने मुझे शिखंडी-रूप में आगे खड़ा करके  कान्फरेन्स का काम चलाया था। गालियाँ मैंने खाई थीं और सब कार्य-संचालन परोक्षरूप से पंडित जी करते थे। मुझे इस बात का आंतरिक खेद है कि एक बेर मैंने अपने पुत्र संबंध में उनसे भिक्षा माँगी थी। वे नहीं तो न कर सके, पर एक अन्य व्यक्ति की आड़ में उन्होंने उस प्रस्ताव का विरोध कराया, यद्यपि वहाँ विरोध की आवश्यकता ही न थी। वहाँ पर वे चाहते तो भी मुझे भिक्षा देने में असमर्थ थे। इस स्थिति का उनको पता न था, नहीं तो एक बड़े पुराने मित्र की उपेक्षा करने के दोष से यों ही बच जाते।


अपने जिन शिष्यों से मेरी अधिक घनिष्ठता थी, उनमें हरिहरनाथ टंडन, श्रीधरसिंह, सत्यजीवन वर्म्मा, रमापति शुक्ल, रमेशदत्त पाठक, कृष्णशंकर शुक्ल, बलराम उपाध्याय, पुरुषोत्तम श्रीवास्तव आदि भी थे। उनकी भक्ति और श्रद्धा पूर्ववत् बनी हुई है। उनसे मेरा परम स्नेह है और वे भूलकर भी आक्षेपयोग्य आचरण नहीं करते।

Saturday, June 20, 2020

अब्दुर्रहीम ख़ानेख़ाना : काव्य-सौन्दर्य और सार्थकता



1905 ई. के भारत मित्र  में बाबू बालमुकुंद गुप्त ने अकबर की पुण्यतिथि के तीन सौ वर्ष पूर्ण होने पर 'अकबर बादशाह' शीर्षक एक लेख लिखा था। यह लेख अकबर की प्रशंसा में है। 115 साल पहले हम किसी मुसलमान शासक की प्रशंसा कर सकते थे लेकिन आज नहीं। अगर करते हैं तो उसके खतरे हैं। बालमुकुंद गुप्त ने लिखा है -
"शान्ति और सुशासन का वह बड़ा पक्षपाती था।...अकबर दुनिया के नेकनाम बादशाहों में से था। उसने नेकी और नेकनामी के बड़े बड़े काम किये, जिनके कारण आज तक लोग उसका नाम बड़े प्रेम से लेते हैं। उसे लोगों ने सुलहकुल की उपाधि दी थी, जिसका अर्थ है सबसे मिलकर चलने वाला। अकबर में सबसे बड़ा गुण यह था कि उसे किसी जाति, किसी सम्प्रदाय और किसी धर्म्म से द्वेष नहीं था। हिंदुओं को उसने ऐसा प्रसन्न किया कि वह उस पर जी जान से मोहित थे। हिंदुओं ने उसको 'जगद्गुरु' तक की उपाधि दे डाली थी। हिंदी और संस्कृत पुस्तकों में अकबर की बहुत कुछ प्रशंसा लिखी गयी है।...पोथियों में ही नहीं, अमीर से कंगाल तक के झोपड़े में अकबर का यश गाया जाता था। वह जीते जी यशस्वी हुआ और आज उसको मरे तीन सौ वर्ष हो गए; अब भी लोग उसे भूले नहीं हैं।...अकबर के समय में बड़ा अमन चैन था। अन्न सस्ता था, प्रजा सुखी थी। सब सुख के दिन बिताते थे।..."
तीन सौ पूरे होने पर,अकबर की याद में, पढ़े-लिखे लोगों का एक तबका कुछ योजनाएं बना रही थीं लेकिन बंगाल विभाजन ने उनकी योजना पर तुषारापात कर दिया -
"ता. 16 अक्टूबर अकबर बादशाह के मरने की तिथि कही जाती है। उक्त तिथि को अकबर बादशाह को मरे पूरे 300 वर्ष हो गए। कई महीने पहले कुछ शिक्षित लोगों के जी में यह विचार उठा था कि उक्त तिथि को अकबर के स्मरणार्थ कुछ उत्सव किया जाए। कई एक मासिक पत्र वालों ने अकबर नम्बर निकालने की बात भी सोची थी। पर वही 16 अक्टूबर की तिथि बंगाल के टुकड़े होने की तिथि निकल आई। उससे एक नई बात खड़ी हो गई। अकबर को उसके सामने लोग याद न रख सके। अपनी विपद् में मनुष्य और की बात भूल जाता है।"
मुझे नहीं पता कि बाद में 'अकबरोत्सव' हुआ या नहीं? किसी पत्रिका ने 'अकबर नम्बर' निकाला या नहीं? नवजागरणकालीन  इतिहास की किताबों, पाठ्यपुस्तकों आदि में अकबर का मूल्यांकन अलग-अलग ढंग से होता रहा। लोकमानस में अकबर अभी भी ज़िंदा हैं। अकबर-बीरबल के किस्से अभी भी गॉंव-गॉंव, घर-घर बड़े चाव से कहे और सुने जाते हैं। अकबर संबंधी तमाम लोकप्रिय और सस्ती किताबें फुटपाथों और मेलों में बिकती हुई आप देख सकते हैं। यह सब बातें इसलिए कि इसी अकबर के दरबार में रहीम थे। बालमुकुंद गुप्त की लिखी हुईं उपर्युक्त बातें इसलिए उद्धृत किया कि यह अकबर-कालीन समाज का एक चित्र हमारे मानस-पटल पर अंकित करता है कि अकबर महान क्यों था?

प्रेमचंद ने अपने 'हंस' में श्यामनारायण कपूर का छह पृष्ठ का एक लेख 'कविवर रहीम और उनका पुस्तकालय' शीर्षक से छापा था। इस लेख में कपूर साहब बताते हैं -
तत्कालीन अनेक लब्धप्रतिष्ठ कवियों ने तो आप ही के पुस्तकालय में बैठकर साहित्य का पाठ पढ़ा और कविता करना सीखा था। उरफी, नज़ीरी और सकबी आदि अपने समय के प्रतिभाशाली कवि थे। उन्होंने सम्राट अकबर, जहाँगीर और शाहज़ादे मुराद की प्रशंसा में अच्छी कविता की है; परन्तु इन्हीं कवियों ने उससे कहीं बढ़कर कविता कविवर रहीम की प्रशंसा में लिखी थी।
श्यामनारायण कपूर के अनुसार - मुल्ला शकेवी को 'मीरजानी' पर विजय पाने के समय एक मसनवी के लिए दो हज़ार अशर्फियां रहीम ने पुरस्कार स्वरुप दी थीं। महवी हमदानी, उर्फी, अमीर मुगीसुद्दीन अली और मुल्ला अब्दुल बाकी नहाबंदी जैसे विद्वान् रहीम के आश्रय में रहते थे। नहाबंदी ने रहीम का जीवन-चरित्र 'मुआसिरे रहीम' शीर्षक से लिखा। मुग़लकाल में  रहीम का पुस्तकालय अन्य भारतीय पुस्तकालयों में अग्रगण्य माना जाता है। अकबर के समय के प्राय: प्रत्येक सुप्रसिद्ध एवं प्रतिभाशाली महापुरुष की जीवनी पुस्तकालय में देखने को मिल सकती थी। जिन महापुरुषों के जीवन-चरित्र लिखे हुए नहीं मिल सकते थे, उन्हें रहीम प्रचुर धन खर्च करके लिखवाते थे।

'मुआसिरे रहीम' से पता चलता है कि लगभग 95 विद्वान् रहीम के आश्रय में रहते थे। मुहम्मद शरीफ बकुई नेशापुरी खुरासान का प्रतिष्ठित विद्वान् और कवि था। वह रहीम का पुस्तकालय देखने के लिए खुरासान से भारत आया था। नेशापुरी ने रहीम की प्रशंसा में बहुत-सी रचनाएं की थीं। इराक़ का मशहूर शायर सओजी सूरफी ने भी रहीम की प्रशंसा में कविताएं लिखीं।

इसी तरह अगस्त 1910 की सरस्वती  में चार पृष्ठ का एक लेख मिश्र बंधुओं ने 'रहीम खानखाना' शीर्षक से लिखा है जो बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। बहरहाल...

हरीश त्रिवेदी ने अकबर के नवरत्नों में एक अब्दुर्रहीम ख़ानेख़ाना पर एक अच्छी-सी किताब सम्पादित की है अब्दुर्रहीम ख़ानेख़ाना : काव्य-सौंदर्य और सार्थकता  नाम से। हिन्दू-मुसलमान के इस भयावह समय में इस तरह की किताब का आना साहित्य और समाज के लिए जरुरी भी है। गोपीचंद नारंग ने पेश-ए-लफ्ज़  में ठीक ही कहा है : "आज के विषम और संकीर्णता अथवा भेदभाव के समय में ऐसी ज़रूरी कृति का आना प्रशंसनीय है।"

यह किताब महत्त्वपूर्ण क्यों है? इसे गुलज़ार के दो शब्द  में लिखे इस वाक्य से समझा जा सकता है : "ख़ानेख़ाना अब्दुर्रहीम पर यह किताब देखकर मुझे हैरत हुई। ब्रह्माण्ड जैसा बड़ा विषय दो गत्तों की जिल्द में यहाँ कैसे समेट लिया गया है। मेरी जानकारी ख़ानेख़ाना अब्दुर्रहीम की बहुत महदूद थी। लेकिन इस किताब में हरीश त्रिवेदी जी और उनके सभी और लिखने वाले साथी मेरी उँगली पकड़कर बड़ी दूर तक ले गए।"

किताब इंटरग्लोब फाउंडेशन और आग़ा खान ट्रस्ट फॉर कल्चर के सहयोग से प्रकाशित है। इसमें रामचंद्र शुक्ल, नामवर सिंह, मैनेजर पांडेय के अतिरिक्त उदयशंकर दुबे, सदानंद शाही, सुधीश पचौरी, अनामिका, प्रताप कुमार मिश्र, चंद्रशेखर के शोधपरक लेख हैं जो रहीम की कविताई के साथ-साथ उनके व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व संबंधी दुर्लभतम जानकारी देते हैं।

अपने 'हिंदी साहित्य का इतिहास' में आचार्य शुक्ल ने रहीम के अनुभव, भाषा आदि पर जो कुछ लिखा है, उसे पहले लेख के रूप में यहाँ प्रस्तुत किया गया है। नामवर सिंह का लेख 1995 में प्रकाशित शेख़ सलीम अहमद  की पुस्तक 'अब्दुर्रहीम ख़ानेख़ाना' में छपे 'दो शब्द' को  'रहीम की उदात्त भाव-भूमि' शीर्षक से दिया गया है।

मैनेजर पांडेय ने रहीम को 'सांस्कृतिक संगम का कवि' कहा है। रहीम को तत्कालीन मुग़ल संस्कृति के केंद्र में रखते हुए वे लिखते हैं : "रहीम मध्यकाल में भारत की सांस्कृतिक बहुलता, भाषिक बहुलता के प्रतिनिधि कवि हैं।"  'रहीम और रामायण' शीर्षक लेख में उदयशंकर दुबे ने दतिया राज्य की रामलीला की पांडुलिपियों में प्रयुक्त रहीम के छंदों पर विचार किया है।

सदानंद शाही का लेख 'लोक और शास्त्र में कबीर, रहीम व तुलसी' दिलचस्प है। शाही जी अपने स्कूली जीवन में पढ़ाई जाने वाली हिंदी की पाठ्यपुस्तक को याद करते हैं जिसमें 'कबीर-रहीम-तुलसी' एक साथ मौजूद हैं। यह मौज़ूदगी अभी तक बनी हुई है। शाही जी के अनुसार प्राथमिक-माध्यमिक तक की किताबों में ये तीनों कवि साथ-साथ चलते हैं लेकिन उच्च शिक्षा में रहीम बिछुड़ जाते हैं।

सदानंद शाही उक्त कवियों में संगति ढूंढ़ने का प्रयास करते हैं। हालांकि उन्हें कोई समानता मिलती नहीं। अंततः वे उनके घर में प्रवेश कर उनका हालचाल लेते हैं और वे पाते हैं कि
"कबीर घर फूँक मस्ती वाले कवि हैं।  फूँक मस्ती का अर्थ है - मौजूद घर को असाध्य मानकर नये घर की तलाश करने वाला। ऐसा नहीं है कि कबीर को घर की ज़रुरत नहीं है। पर उन्हें ग़ालिब की तरह बे-दरो दीवार वाला घर चाहिए। वे नितान्त नि:छद्म हैं। कबीर को पहले से मिला घर स्वीकार्य नहीं है, वे नया घर तामीर करना चाहते हैं। जब तक नया घर नहीं बनता तब तक घर के ख़याल से ही खुश हैं। 
तुलसीदास अपने मौजूदा घर को असाध्य नहीं मानते। उसे थोड़ा रंग रोगन करके दुरुस्त कर लेना चाहते हैं। वे संग्रह और त्याग के विवेक के साथ कुछ को छोड़कर और कुछ को लेकर आगे बढ़ जाते हैं। उन्होंने अपने साहब राम की गुलामी स्वीकार कर ली है। 
रहीम की स्थिति इन दोनों से फ़र्क़ है। वे लगभग खानाबदोश हैं। उनके पास न तो बेदरो-दीवार वाला घर है  न ही तुलसी का विधि-विधान वाला। उन्हें कब कौन-सा घर छोड़ कर किस घर में जाना पड़े, कह नहीं सकते।" 
आगे लिखते हैं :
"घर के साथ तीनों कवियों के तीन तरह के रिश्ते हैं - कबीर घर को जलाकर नया बनाने को उद्यत हैं, तुलसी घर की मरम्मत कराकर उसके एक हिस्से में आसन जमा लेते हैं और रहीम घर की तलाश में एक सराय से दूसरी सराय में भटक रहे हैं।"

यहाँ तीनों कवियों के जीवन-दर्शन को घर के माध्यम से लेखक ने बखूबी प्रस्तुत किया है।

प्रताप कुमार मिश्र का लेख - रहीम ने संस्कृत कैसे सीखी? संस्कृत में उनकी रुचि कैसे हुई? - जैसे पक्षों को उद्घाटित करता है। लेख की शुरुआत दो इतिहास प्रसिद्ध घटनाओं से होती है। इसे पढ़कर निस्तब्ध हो जाना पड़ता है। माथा श्रद्धा से झुक जाता है। इसे पढ़ते हुए यह भी पता चलता है कि मुसलमानों ने संस्कृत कैसे सीखी? यह भी शोध का विषय है कि जब पहली बार किसी ब्राह्मण ने किसी मुसलमान को संस्कृत पढ़ाया होगा तो पंडितों के संसार में किस तरह की हलचल हुई? मुझे महावीर प्रसाद द्विवेदी की सर विलियम जोन्स ने संस्कृत कैसे सीखी?  लेख की याद आ रही है जिसमें द्विवेदी जी बताते हैं कि बंगाल के पंडितों ने जोन्स को संस्कृत पढ़ाने से सामूहिक रूप से कैसे इंकार कर दिया था?       
किताब का आवरण

चंद्रशेखर अपने लेख में रहीम के कर्तृत्व का अवलोकन करने के पश्चात लिखते हैं : "ख़ान-ए-ख़ाना की शायरी, प्रेमालाप, प्रेमाख्यान, इश्क़-ए-हक़ीक़ी या प्राकृतिक वातावरण, बाग़ों, इमारतों की प्रशंसा के अतिरिक्त उस दौर की राजसी संस्कृति का पूरा हाल, आपसी रंजिश एवं प्रतिद्वन्द्विता तथा बादशाह-ए-वक़्त की बहुमुखी चालों का संग्रह है।"

हरीश त्रिवेदी का गद्य तो बहता नीर है। बहते नीर में इन्होंने रहीम का मूल्यांकन किया है। रहीम की ज़िन्दगी के उतार-चढ़ाव का ऐसा वर्णन कि हम उसमें बहने लगते हैं। 'महाबत ख़ाँ को रहीम से छीनकर ख़ानेख़ाना की पदवी दी गई जिसने रहीम के पुत्र दाराब ख़ाँ का सिर काटकर रहीम को सौगात के रूप में भेजा कि यह तरबूज़ है।'

कटा हुआ तरबूज़ - चक्षु के सामने कैसा भयावह चित्र निर्मित करता है। एक ऐसा ही बिम्ब सबीर हका अपनी कविता में प्रस्तुत करते हैं - मैंने कितने ही मज़दूरों को देखा है/इमारतों से गिरते हुए/गिरकर शहतूत बन जाते हुए।  तरबूज़ और शहतूत। ओह!

हरीश त्रिवेदी रहीम को भक्ति, रीति या नीति का कवि मानने से इंकार करते हैं। उनका कहना है कि "रहीम की कविता का एक बड़ा भाग भक्ति-कविता जैसा लग तो सकता है पर स्पष्ट है कि उसमें हिन्दू कवियों वाली भक्ति-भावना को आरोपित करना रहीम के साथ ज्यादती होगी।" रहीम की नीतिपरक कविताओं को उपदेशात्मक नहीं बल्कि निष्कर्षात्मक माना है।

हरीश त्रिवेदी ने 'नगर शोभा' को शृंगार रस का अनूठा और अद्भुत ग्रन्थ कहा है।

यहाँ मैं थोड़ा-सा रुकना चाहूँगा।

मैनेजर पांडेय अपने लेख में कहते हैं :
"'नगर शोभा' समाजशास्त्रीय दृष्टि से अत्यंत महत्त्व की पुस्तक है। उसमें लगभग 50-60 जातियों का उल्लेख है। मध्यकाल में शायद ही किसी और किताब में इतनी जातियों का कविता में उल्लेख है। यह समाजशास्त्रीय दिलचस्पी और अध्ययन का विषय है।"

मैनेजर पांडेय के कथन को स्वीकार करते हुए हरीश त्रिवेदी भी लिखते हैं :
"अगर हिंदी के किसी अन्य कवि ने भी इस प्रकार का या इस विधा में कोई ग्रन्थ लिखा है तो सुनने में नहीं आता है, अर्थात रहीम का यह ग्रन्थ  मिसाल आप खुद है।" 

इस किताब में रामचंद्र शुक्ल को बार-बार उद्धृत किया गया है। इसके बावजूद मैनेजर पांडेय और हरीश त्रिवेदी कह रहे हैं कि 'नगर शोभा' की तरह और किताब हिंदी में नहीं हैं। आचार्य  शुक्ल का इतिहास ध्यान से पढ़ा जाय तो उसमें देव, भिखारीदास और यशोदानन्दन का नाम मिलेगा जिन्होंने 'नगर शोभा' की तरह की किताब लिखी है।

आचार्य शुक्ल ने इन किताबों के संबंध में क्या लिखा है - इसे जानना दिलचस्प होगा। देव की किताब जातिविलास  को उनकी घुमक्कड़ी-प्रवृत्ति के संबंध में याद किया है -
"ये बराबर अनेक प्रदेशों में भ्रमण करते रहे। इस यात्रा के अनुभव का इन्होंने अपने 'जातिविलास' नामक ग्रन्थ में कुछ उपयोग किया। इस ग्रन्थ में भिन्न भिन्न जातियों और भिन्न भिन्न प्रदेशों की स्त्रियों का वर्णन है।" 
भिखारीदास के रससारांश  पर टिप्पणी करते हुए आचार्य शुक्ल पुनः जातिविलास  को  याद करते हैं -
"देव ने भिन्न भिन्न देशों और जातियों की स्त्रियों के वर्णन के लिए जातिविलास लिखा, जिसमें नाइन, धोबिन सब आ गईं, पर दास जी ने रसाभास के डर से या मर्यादा के ध्यान से इनको आलम्बन के रूप में न रखकर दूती के रूप में रखा है। इनके रससारांश  में नाईन, नटिन, धोबिन, कुम्हारिन, बरइन सब प्रकार की दूतियाँ मौजूद हैं।" 
यशोदानन्दन पर शुक्ल जी की टिप्पणी है :
"इनका एक छोटा सा ग्रन्थ 'बरवै नायिका भेद' ही मिलता है जो निःसंदेह अनूठा है और रहीम वाले से अच्छा नहीं तो उसकी टक्कर का है।" 
 शुक्ल जी ने यशोदानंदन की निम्न पंक्तियाँ भी दी हैं -
अहिरिन मन की गहिरिन उतरु न देई।
           नैना   करे  मथनिया,  मन  मथ  लेई।।
                *                    *                    *
           तुरकिनि जाति हुरुकिनी अति इतराइ।

            छुवन न देइ   इजरवा मुरि मुरि जाइ।।

मज़ेदार बात यह कि आचार्य शुक्ल ने 'नगर शोभा' से जो पंक्तियाँ अपने इतिहास में उद्धृत की हैं उसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य की औरतें तो हैं लेकिन अनुसूचित और पिछड़ी जाति की नहीं। यहाँ यशोदानंदन के सन्दर्भ में इस कमी को वे दूर करते नज़र आते हैं।


उपर्युक्त रचनाएं उत्तर मध्यकाल की हैं। 'नगर शोभा' की तरह की ही उक्त रचनाएं हैं। यानी रहीम का प्रभाव देव, दास और यशोदानन्दन जैसे न जाने कितने कवियों पर था। इनका नाम न लेकर मैनेजर पांडेय और हरीश त्रिवेदी ने भारी गलती की है। हरीश जी ने तुरकिन के सन्दर्भ में रहीम-विद्यापति की कविता को व्याख्यायित किया है। अनभिज्ञता के चलते यशोदानंदन की कविता को छोड़ दिया है।


सुधीश पचौरी और अनामिका का लेख 'नगर शोभा' पर केंद्रित है। सुधीश पचौरी के लेख का कुछ अंश देखिये :

"ये दबंग औरतें हैं और इनके वर्णन के लिए चाहिए वैसी ही खुली नई भाषा। ऐसी 'सजग सेक्सुअलिटी' को सेक्सिस्ट भाषा में ही कहा जा सकता है। 
आज के ज़माने में जो टीवी के विज्ञापन, बाज़ार में मिस यूनिवर्स, मिस वर्ल्ड, मिस ये, मिस वो करती हैं अपने वक़्त में कमोबेश ये भी ऐसे ही काम कर रही हैं। कल की मिस वर्ल्ड और आज की मॉडलें जिस तरह स्त्री की सुंदरता को बनाये रखने के लिए नए-नए सोप या शैम्पू स्किन क्रीम या बिकिनी, पेंटीज या व्हिस्पर टाइप नैपकिन बेचकर जो काम करती हैं, उसी तरह का काम नगर शोभा की ये नाना 'प्रोफेशनल' औरतें करती हैं।  
एक सौ उन्नीस दोहों में पचासियों प्रकार की स्त्रियां हैं, वे नगर की शोभा हैं क्योंकि वे नगर की सुंदरता में चार चाँद लगाती हैं, वे उसकी कंज्यूमर मार्केट को, उसकी इकोनॉमी को चलाती हैं, उसके रसिकों (कंज्यूमरों) को लुभाती हैं और कंट्रोल करती हैं। इस मानी में वे हिंदी साहित्य की पहली 'एम्पावर्ड' स्त्रियां हैं, 'ज़ोरदार' स्त्रियां हैं। 
सारे दोहों में एक से एक छबीली, हिम्मती, सेक्सी, विक्रेता स्त्रियां हैं। रहीम इस बाज़ार के डेली विजिटर या कस्टमर लगते हैं। 
ये सेल्स वीमेन तत्कालीन ज़रूरी मध्यवर्ती धन्धों में लगी औरते हैं जो अपने माल को बनाती हैं और बेचती हैं।
इस तरह यह हाट जो रूप की हाट थी जो बिजनेस भी थी, नगर की शोभा थी शान थी। जिन्हें हम आज पिछड़ी जातियां और अनुसूचित जातियां कहते हैं उनमें से बहुत सी इस बाज़ार की शान हैं।" 

पचौरी साहब ने पिछड़ी और अनुसूचित जाति की औरतों को यहाँ करोड़पति बना दिया है। यह शर्मनाक है। टीवी विज्ञापन आदि से जोड़कर पचौरी जी ने इनका मज़ाक उड़ाया है। सबको पता है कि विज्ञापनों आदि में किस वर्ग की महिलाओं का वर्चस्व है! दरअसल इस तरह के दिमाग़ी लोग यही चाहते हैं कि वर्ण-व्यवस्था बनी रहे। वर्ण-व्यवस्था में तनिक भी टूट-फूट हुई कि ये लोग छनमनाने लगते हैं। ये लोग हाशिए पर खड़ी स्त्रियों की शिक्षा के भी घोर विरोधी होते हैं।

इस प्रसंग में साँवल जी नागर के एक लेख की याद आ रही है जिसे उन्होंने 1914 ई. में लिखा था। इस लेख में वे हिन्दू सभ्यता, संस्कृति, वर्ण-व्यवस्था को बचाने की अपील करते हैं। दरअसल अंग्रेज़ी शिक्षा के चलते दलित-पिछड़ी जाति की लड़कियां अपने पैतृक पेशे को त्याग कर अध्यापिका, नर्स आदि का काम करने लगी थीं। नागर जी विभिन्न जाति की कन्याओं को एक ही प्रकार की शिक्षा दिए जाने के विरुद्ध थे। नागर जी के उस सुदीर्घ लेख का कुछ हिस्सा मैं यहाँ प्रस्तुत करना चाहूँगा -
"आधुनिक-शिक्षा-क्रम में दूसरा बड़ा दोष यह है कि हर एक जाति, हर एक समुदाय की कन्याओं को एक तरह की शिक्षा दी जाती है। निर्धन वा धनी, ब्राह्मण वा वैश्य, सुनार वा हलवाई, लोहार या कुम्हार, क्षत्रिय वा चमार - इन सबों की कन्याओं को एक ही स्थान पर, समान शिक्षा दी जाती है। 
...परन्तु आजकल वह बात नहीं है। सामाजिक शिक्षा का पृथक पृथक प्रबंध न होने के कारण हमारे व्यवसाय industry का दिवाला निकल गया है। पढ़ी लिखी स्त्रियां अपने पैतृक उद्योग को करना पसंद नहीं करतीं। कैसे कर सकती हैं? जब उन्हें उस प्रकार की शिक्षा ही नहीं दी गयी तब वह कैसे कर सकेंगी। परन्तु उनके न करने से उनकी संतान नहीं कर सकती और इस तरह हमारी कारीगरी का ह्रास  होते होते हम लोग यहाँ तक गिर गए हैं कि भोजन का भी ठिकाना नहीं रहा। 
...क्या एक सोनार वा लोहार की लड़की, जिसने मिडिल, मेट्रिकुलेशन तक की नव्य शिक्षा प्राप्त की हो, अपने उन सम्बन्धियों के प्रति जो दिन रात टक टक कर गहने और संदूक आदि बनाया करते हैं और जिनके प्रति श्रद्धा, भक्ति और प्रेम करना उस बालिका का धर्म है, कभी कर सकती है? क्या वह चमार की पुत्री जिसने आधुनिक प्रणाली के अनुसार शिक्षा प्राप्त की हो, अपने उन भाईयों के प्रति जो पादत्राण आदि बनाते हों - श्रद्धा, भक्ति और प्रेम के पूज्य उत्पन्न कर सकती है? क्या वह ब्राह्मण बालिका जो एक पवित्र याज्ञिक के यहाँ व्याही गई हो, और जिसने 10, 12 वर्ष तक धोबी और ईसाईयों की लड़कियों के साथ बैठकर शिक्षा प्राप्त की हो अपने उस धूआँ लगने वाले याज्ञिक धर्म के प्रति उच्च भाव धारण कर सकती है?"
कुछ ऐसे ही विचार बनारस के श्रीप्रकाश ने भी व्यक्त किये थे। श्रीप्रकाश 'गरीब स्त्रियों' की शिक्षा का सीधे विरोध करते हैं।

तो साँवल जी नागर की दृष्टि एवं विचारों की मूर्ति हैं श्री सुधीश जी पचौरी। 'नगर शोभा' में विकृत वर्ण-व्यवस्था संबंधी व्यवसाय सुरक्षित होने के कारण यह रचना हिन्दू-आलोचकों को प्रिय है। दरअसल भद्र वर्ग अपनी काम-लिप्सा को शांत करने के लिए पिछड़ी/अनुसूचित वर्ग की स्त्रियों का सदियों से भोग करता रहा है। अभी भी स्थानीय हाटों या लाटघाट जैसे बाज़ार में सब्ज़ी आदि बेचने वाली 'नान जात' की औरतों को घूरते हुए या मज़ाक करते हुए आप पा सकते हैं। जैसे रहीम 'डेली कस्टमर' थे, वैसे ही भद्र वर्ग इनका डेली कस्टमर है। यह वर्ग अपनी आजीविका तो किसी तरह चला ले रहा है लेकिन अब वह नहीं चाहता है कि उसके बच्चे पुस्तैनी धंधे करें। पूर्वी उत्तर प्रदेश में मनरेगा आने के बाद महिलाओं ने भद्र वर्ग के खेतों में काम करने से जब मना कर दिया था तो बबुआने के लोग बौखला गए थे। खेत यौन शोषण के अड्डे हैं।

इलाहाबाद के आनन्दि प्रसाद श्रीवास्तव ने 1928 ई. में 'अछूत' शीर्षक एक सामाजिक नाटक लिखा था। इसमें पुजारी और सदानंद के बीच बातचीत के दौरान रहीम का एक दोहा सदानंद के मुख से कहलवाया है। नाटक के एक दृश्य में मठ के महंत और एक अछूत औरत के बीच लगान को लेकर बहस को दिखाया गया है जिसमें मठ का महंत अछूत औरत से लगान न चुका पाने के बदले शरीर मांगता है। इस पर अछूत-स्त्री कहती है -
चमारनिउ का छुवै में? महराज हम तोहार लगान कुछ दिन माँ दै देब, जाय देव, काहे हमरे जिउ के भूखे भये हौ?
अनामिका जी का भी ध्यान 'पतियों के व्यवसाय' पर है। उनका दुःख यह है कि "जितनी तरह के व्यवसाय वहाँ चित्रित हैं, उनमें से कई तो अब लुप्तप्राय हैं।"

इस पुस्तक में एकाध लेख किसी दलित चिंतक का होता तो 'नगर शोभा' का भावार्थ अन्य तरह से स्पष्ट होता।

इस किताब की सबसे ख़ास बात यह है कि इसमें रहीम की कविताओं के भावार्थ दिए गए हैं। 'दोहावली' से 100 दोहे के व्याख्याकार माधव प्रसाद मिश्रा हैं। 'नगर शोभा' से 75 दोहे, 'बरवै नायिका-भेद' से 112 बरवै, 'शृंगार सोरठा', 'फुटकर छंद', 'मदनाष्टक' की व्याख्याकार दीपा गुप्ता हैं। हरीश त्रिवेदी लिखते हैं : "इस पुस्तक की एक विशेषता यह भी है कि इसमें दी हुई रहीम के दोहों इत्यादि की व्याख्याएं किन्हीं विख्यात विशेषज्ञों द्वारा नहीं लिखी गई हैं अपितु रहीम-काव्य के प्रेमी रसिकों द्वारा प्रस्तुत की गई हैं। विशेषज्ञ जिसे सर्वग्राह्य समझते हैं उसे कई जगह फिर समझाने की ज़रूरत होती है पर यहाँ यह खतरा नहीं है।"

अंत में, एक बात पोइए और पोहिए के संबंध में। इस किताब में माधव प्रसाद मिश्रा की व्याख्या में 'पोइए' है -

टूटे   सुजन   मनाइए,  जो   टूटे   सौ  बार।
रहिमन फिरि फिरि पोइए, टूटे मुक्ताहार।।

गोपीचंद नारंग और सदानंद शाही ने भी 'पोइए' ही लिखा है। लेकिन नामवर सिंह 'पोहिए' लिखते हैं। पृष्ठ 64 पर मोटे अक्षरों में लिखित दोहे में भी पोहिए है। यहाँ संपादक को स्पष्ट करना चाहिए था कि शुद्ध क्या है?

बहरहाल, रहीम काव्य में रुचि रखने वाले अध्येताओं के लिए यह एक महत्त्वपूर्ण किताब है।





अब्दुर्रहीम ख़ानेख़ाना : काव्य-सौन्दर्य और सार्थकता - (संपादक) हरीश त्रिवेदी

प्रथम संस्करण - 2019
मूल्य - 495 रुपये (पेपरबैक, रॉयल अठपेजी, सचित्र)

प्रकाशक :
वाणी प्रकाशन
4695, 21-ए, दरियागंज, नयी दिल्ली - 110 002


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सुजीत कुमार सिंह

20 जून 2020

(इलाहाबाद )

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ई-मेल : sujeetksingh16@gmail.com

मोबाइल : +91  94543 51608

Saturday, June 13, 2020

स्त्री अलक्षित

श्रीकान्त यादव संपादित 'स्त्री अलक्षित' किताब में पच्चीस लेखिकाओं के पच्चीस लेख संकलित हैं। लेखों का स्वर विविधता से भरा हुआ है।

इस संकलन का पहला लेख 1912 ई. का है तो अंतिम लेख 1940 ई.का।

इन लेखों को "स्त्री दर्पण, चान्द, मर्यादा, महिला दर्पण, महारथी, आर्य महिला, माधुरी, चाँद, युगान्तर, महिला" पत्रिकाओं से बटोरा गया है।


'बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध का स्त्री-विमर्श' पर काम करने वाले  शोधार्थियों के लिए यह एक पठनीय किताब है।

नवजागरण पर काम कर रहे लोगों को थोड़ा-सा धैर्य रखने की जरूरत है अन्यथा आपके काम को आलोचकगण 'कबाड़ा' घोषित कर सकते हैं। उन्हें कबीर की इस पंक्ति को गाँठ बाँध कर रख लेना चाहिए :

"धीरे धीरे रे मना/धीरे सब कुछ होय/माली सींचे सौ घड़ा/ऋतु आए फल होय।"

रहीम भी कहते हैं  : 'समय पाय फल होत है।'

इस किताब में श्रीमती सरस्वती का एक लेख ''स्त्रियाँ और परदा" शीर्षक से है। किताब के अनुसार संपादक ने इस लेख को 'स्त्री दर्पण-जुलाई 1917' से लिया है।

सरस्वती नाम ने मुझे आकर्षित किया। आकर्षित क्यों किया - उसका एक कारण है। इस लेख का मैंने मूल लेख से मिलान किया। मैं दंग रह गया कि संपादक जिस लेख को 'श्रीमती सरस्वती' लिखित बता रहा है, दरअसल वह लेख 'श्रीमती सरस्वती' का है ही नहीं।

'स्त्रियां और परदा' शीर्षक लेख 'स्त्री दर्पण' के '1 जूलाई 1917' (भाग 17 : अंक 1 : 33-40) में प्रकाशित हुई थी जिसकी लेखिका "श्रीमती सत्यवती" हैं।

अब इसे क्या कहा जाए!

संपादक को 'चान्द' और 'चाँद' पत्रिका का अंतर भी स्पष्ट करना चाहिए।

संपादक ने श्रीमती मनमोहिनी चटर्जी का एक लेख 'इंगलिस्तान की औरतें' अगस्त 1937 की 'मर्यादा' से लिया है।

मुझे जहाँ तक जानकारी है, 'मर्यादा' सन् 1923 में बंद हो गयी थी। प्रेमचंद इसके अंतिम संपादक थे। अगर यह 'मर्यादा' कृष्णकांत मालवीय, संपूर्णानंद और प्रेमचंद से भिन्न है तो इसकी भी सूचना संपादक को देनी चाहिए।

'इनसान', 'दर्वाज़ा', 'कार्य्य' आदि शब्दों के आगे संपादक ने, पुरानी हिन्दी को अपनी विद्वता से सुधारने का प्रयास करते हुए, कोष्ठक में 'इंसान, दरवाजा, कार्य' लिखा है। यह अधिकार आपको किसने दे दिया?

पुरानी हिन्दी के साथ छेड़छाड़ करना मैं अपराध की श्रेणी में रखता हूँ।


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सुजीत कुमार सिंह
इलाहाबाद।

Sunday, June 7, 2020

किसान आन्दोलन की साहित्यिक ज़मीन


रामाज्ञा शशिधर की किताब किसान आंदोलन की साहित्यिक ज़मीन  का आरंभ 1917 से होता है। इसके पहले सिर्फ 1857 की चर्चा जगह-जगह वे करते हैं। कहीं-कहीं भारतेंदु, प्रताप नारायण मिश्र, बालमुकुंद गुप्त आदि उपस्थित हैं। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध और बीसवीं सदी के दूसरे दशक तक के किसानों पर इसमें कम बातचीत है। किताब की ख़ास और महत्त्वपूर्ण उपलब्धि मौखिक स्रोत और साक्षात्कार हैं। प्राथमिक स्रोतों में जहाँ प्रताप, अभ्युदय, जनता, आज, नवशक्ति, रूपाभ, हल  और किसान  जैसी पत्रिकाएं हैं, वहीं 'बिहार किसान सभा के कार्यकर्ता त्रिवेणी शर्मा सुधाकर', सहजानंद साहित्य विशेषज्ञ राघव शरण शर्मा, लखोरी शर्मा (95 वर्ष, जहानाबाद), जुगेश्वर शर्मा से लिए गए महत्त्वपूर्ण साक्षात्कार शामिल हैं। ज़ाहिर है कि ये साक्षात्कार बैठे-बैठे नहीं लिया गया है अपितु इसके लिए  लेखक को गांव-गांव भ्रमण करना पड़ा होगा, चप्पल घसीटना पड़ा होगा।


लेखक के अनुसार इस किताब को लिखने में किसान साहित्य से जुड़ी पुस्तिकाओं, पत्र-पत्रिकाओं, ट्रैक्टों, इश्तिहारों, पर्चों, साक्षात्कारों, किताबों और पांडुलिपियों पर निर्भर रहना पड़ा। 'दस साल तक यह खोजबीन चलती रही।'

दस साल बहुत होते हैं। दस साल में इन्होंने बहुत कम सामग्री खोजी है। हिंदी की मुख्यधारा की पत्र-पत्रिकाओं को तो बिलकुल ही छोड़ दिया है। इस किताब को लिखने में कविताओं का खूब उपयोग किया गया है। कहीं-कहीं दो-चार कहानियों का ज़िक्र भर हैं। मुख्यधारा की पत्रिकाओं में किसान जीवन पर आधारित जो लेख या निबंध हैं, उसे लेखक ने स्पर्श तक नहीं किया है। किसान आधारित पुस्तिकाओं को भी नज़र अंदाज़ किया गया है। दस साल में लेखक के हाथ सामग्री क्यों नहीं आई, इसका कारण 'अदृश्य'प्रतिरोध की पुनर्रचना  शीर्षक भूमिका में स्पष्ट है-
हिंदी बौद्धिकों की दो विशेषताएं हैं - माल उड़ाओ पर सन्दर्भ मत बताओ तथा ज्ञान को निजी मिलकियत की तरह उपयोग करो। 
स्पष्ट है कि हिंदी बुद्धिजीवी मक्कार होते हैं। शोषक होते हैं। अगर वे किसी शोधार्थी से कोई बहुमूल्य दस्तावेज़ हासिल कर लेते हैं, तो वे उस ग़रीब और लाचार शोधार्थी का नाम तक नहीं लेते। मेरे साथ भी ऐसा हो चुका है।  बालकराम शास्त्री की किताब प्रकृति-पूजा की भूमिका आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखी है। छद्म संपादक ने चिरौरी करके भूमिका मुझसे ले ली। जब किताब में हमने अपना नाम खोजना शुरू किया तो अपन को अपना नाम ही नहीं मिला। रामाज्ञा शशिधर ने जब काम करना शुरू किया होगा तो तथाकथित बुद्धिजीवियों ने अपना मुंह बंद कर लिया होगा। एक जगह लिखते हैं -
वीर भारत तलवार की यह थीसिस जाँच की मांग करती है कि 1917 से 1920 तक हिंदी में किसानों पर लिखी गयी कविताओं में संघर्षशील किसान का चित्र कहीं नहीं मिलता।*** भगवान से करुणा की पुकार इन सभी कविताओं  मिलती है। 
वीर भारत तलवार की जिस थीसिस का जिक्र रामाज्ञा जी कर रहे हैं, उसका नाम 'किसान,राष्ट्रीय आंदोलन और प्रेमचंद' है। ज़ाहिर है कि तलवार जी ने भी बहला-फुसला दिया होगा।

तो मामला यह है कि हम स्रोत सन्दर्भ और उपलब्ध सामग्री के बारे में क्यों बताएं? लेकिन यह गलत है। शोधार्थी अगर गरीब है, निरीह है तो बताना चाहिए और संबंधित विषय पर बातचीत करनी चाहिए। भाई, ईमानदारी भी कुछ होती है।

लेकिन नहीं! हिंदी बौद्धिक झपसट और उद्दंड होते हैं।

इस किताब में कुल पांच अध्याय और करीब चालीस उपशीर्षक हैं। किताब के केंद्र में 'असली किसान' हैं। 'असली किसान' का मतलब अहीर, कुर्मी, चमार, पासी, कोयरी, धोबी, बिंद जाति के किसान। रामाज्ञा जी के निशाने पर वे सामंत और ज़मींदार हैं जो 'असली किसान' का शोषण करते हैं। जनकवि रामावतार यादव 'शक्र' की एक कविता के हवाले से लिखते हैं -
कविता में मालिक कौन है? रूपनगर और सिमरिया के आसपास के भूमिहार काश्तकार और ज़मींदार। हलवाहे कौन हैं? यादव, कुर्मी, पासवान, धोबी, बिंद, चमार आदि जाति के खेतिहर मज़दूर। कविता के खेत मज़दूर सामाजिक और आर्थिक दोनों उत्पीड़नों के शिकार हैं। बड़हिया टाल पड़ोसी इलाका है जहाँ के रैयान सवर्ण ज़मींदारों के खिलाफ भीषण बकाश्त संघर्ष कर रहे हैं।  
इस किताब में चम्पारण, अवध और बिजोलिया के निम्न जाति के किसानों के शोषण का जैसा चित्रण किया गया है, उसे पढ़कर दिमाग़ झनझना जाता है। लेखक ने कांग्रेस, गांधी, नेहरू आदि के दुचित्तापन का भी पर्दाफाश किया है -
कांग्रेस का सामंतवाद और साम्राज्यवाद से समझौतापरस्त संबंध था *** कांग्रेस नेतृत्व की नज़र में प्रधान मुद्दा साम्राज्यवाद से संघर्ष था। वह सामंतवाद और साम्राज्यवाद विरोधी क्रांतिकारी किसान संघर्ष का या तो दमन करता था या दमन में योगदान देता था या उसका अपहरण कर लेता था। 

 किताब का आवरण 
                                                   

मैं जिस उद्देश्य से इस किताब को पढ़ रहा था वह मुझे दूसरे अध्याय में मिला। करीब 65 पृष्ठ में लिखा गया किसान कविता का स्वरुप  हिंदी कविता की एक उपलब्धि है। इस पाठ में किसान कविता की अवधारणा पर बातचीत की गयी है। जहाँ तक मैं समझता  हूँ इस अवधारणा पर अब तक किसी आलोचक का ध्यान  नहीं गया है। भारतेंदु, द्विवेदी, छायावाद, प्रगति-प्रयोग युग में लिखी गयी कविताओं पर तो अभिजात वर्ग सीना तानकर बातचीत करता है लेकिन किसानों की कविता पर मौन साध लेता है।

रामाज्ञा जी ने भानु, रामनारायण रावत, विपतुआ, जानकी बल्लभ सिंह, अनिरुद्ध लाल, रामानुज दास, सीताराम देव, ब्रजकिशोर प्रसाद सिंह, रामावतार यादव 'शक्र', सलाम मछलीशहरी, सैयद मुहम्मद खलील, राजू मंडल सहित तमाम कवियों को हिंदी जगत के सामने प्रस्तुत कर स्तुत्य कार्य किया है।

इस अध्याय में भोजपुरी कविताओं पर भी अच्छी सामग्री है -
फिरंगिया के राज जब देसवा से मिट जाई / ज़मींदारी परथा ख़तम जब होई जाई / खेतवा के मालिक किसान सब होई जाई / करखाना के मालिक मजूर सब होई जाई / एकरे के कह हे सुराज हो बुधन भाई। 
भोजपुरी के अतिरिक्त मैथिली, ब्रज, बुंदेली, राजस्थानी, मगही में लिखित कविताओं का भी विश्लेषण किया गया है। किताब में मार्क्स, गांधी और माओ हैं तो स्थानीय किसान नेता सहजानंद, राहुल, रामचंद्र और मदारी पासी जैसे लोग भी उपस्थित हैं।

अवध में रामचंद्र ने ब्राह्मणवादी और सामंतवादी मनोवृत्ति की किताब रामचरितमानस का क्रांतिकारी प्रयोग कैसे किया था, इस जिज्ञासा को भी यह किताब शांत करती है।

बेगार प्रथा से किसान त्रस्त थे। हरिहर प्रसाद की कविता सिर्फ दलित ही नहीं पढ़ते थे अपितु उनकी कविताएं सवर्णों की ज़बाँ पर भी थीं। हरिहर प्रसाद की कविता अछूतों की पुकार (1930) रामाज्ञा शशिधर को राघव शरण शर्मा से प्राप्त हुयी थी -
हमका बिना मजूरी बैलों के संग जोते / गाली व मार उस पर हमको दिला रही है / लेते बेगार खाना तक पेट भर न देते / बच्चे तड़पते भूखों क्या ज़ुल्म ढा रही है। 
किताब में दोहराव बहुत है। एक ही कविता को कई बार उद्धृत किया गया है। यह दोहराव किताब को बोझिल बनाता है। अगर मुख्यधारा की सामग्री के साथ-साथ किसान  जीवन पर लिखित अन्य सामग्री को भी सहेजा गया होता तो इस दोहराव से बचा जा सकता था।

बहरहाल, किसान आंदोलन में रुचि रखने वाले पाठकों और शोधार्थियों के लिए यह एक महत्त्वपूर्ण किताब है। यह किताब हमें अनेक रास्ता सुझाती है। इस काम को आगे बढ़ाने की जरुरत है।



किसान आंदोलन की साहित्यिक जमीन : रामाज्ञा शशिधर

मूल्य : 225 रुपये (पेपरबैक)

प्रकाशक :
अंतिका प्रकाशन
सी-56/यूजीएफ-4 , शालीमार गार्डन, एक्सटेंशन-2
गाज़ियाबाद - 201 005

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सुजीत कुमार सिंह

07 जून 2020