Sunday, October 18, 2020

असहयोग : एक राष्ट्रीय आत्मा

 








असहयोग 

एक राष्ट्रीय आत्मा 


सुख - समृद्धि की कौन कहे, अब तो दुर्लभ आहार हुआ। 
नित्य   भार   ढोते - ढोते,  दीनों  का   जीवन  भार  हुआ।।
आश्वासन   का  अर्थ    गूढ़   भाषा   में   अत्याचार  हुआ। 
शीतल - मन्द - समीर, हाय, कमलों के लिये तुषार हुआ।।
अमर - लोक  में  असुर - त्रास से भीषण हाहाकार हुआ। 
असहायों  के   लिये  अंत  में   असहयोग  आधार  हुआ।।

यह    कैसा   व्यापार   देश   में   करने  व्यापारी  आये। 
नीति,  न्याय,  विज्ञान,  धर्म   की  गठरी  वे  भारी  लाये।।
प्रेमी   बनकर  भांति  भांति  के  वचन  सुनाये  मनभाये।
क्रमश: नित - नूतन,  विचित्र अपने हथकण्डे दिखलाये।।
वणिकों की दूकान बदल कर दिव्य राज - दरबार हुआ। 
असहायों  के  लिये  अंत  में  असहयोग  आधार  हुआ।।

कर  देंगे   स्वच्छन्द  तुम्हें,  है  अभी  नीति  का  ज्ञान  नहीं। 
सारासार - विचार,  झूठ - सच  क्या है, कुछ पहचान नहीं।।
राज - भक्त रह कर, देना कुछ कूट - नीति पर ध्यान नहीं। 
स्वतन्त्रता    देवी   की   वेदी   पर   होना   बलिदान   नहीं।।
चतुरों  की  इस  चतुर  चाल  को  देख  चकित संसार हुआ। 
असहायों   के   लिये   अंत   में   असहयोग  आधार   हुआ।।

देश - भक्ति   ही  राज - द्रोह है,  लेना  उसका  नाम  नहीं। 
जन्म सिद्ध अधिकार - प्राप्ति की चर्चा का कुछ काम नहीं।।
छेड़ोगे   यदि   तान   मुक्ति   की   पाओगे   विश्राम   नहीं। 
मृत्युलोक   में   जीवित - मृत  पुरुषों  को  है  आराम  नहीं।।
कुशल  कर्मवीरों  का  आश्रम  दुःख-मय  कारागार  हुआ। 
असहायों   के   लिये   अंत   में   असहयोग  आधार  हुआ।।

यूरोपीय  समर  में  जिनने  अपना  रुधिर बहाया है। 
आर्यों का वीरत्व जिन्होंने सब जग को दिखलाया है।। 
है  वह भी  प्रत्यक्ष उन्होंने  जो  उसका फल पाया है। 
देख  लिया  हा हन्त ! दैव  की कैसी निष्ठुर माया है।। 
विजयी वीरों को बदले में रौलट - बिल उपहार हुआ। 
असहायों  के लिये  अंत में असहयोग  आधार  हुआ।।

अति निराश हो बने हाय हम जब सत्याग्रह व्रत - धारी। 
कर  लें   अत्याचार   चैन  से   निबलों  पर  अत्याचारी।।
शान्त  खड़े  हैं, कर  लें जी - भर मनमानी स्वेच्छाचारी। 
दिखला   लें   निश्चिन्त   निरंकुशता  अपनी   सत्ताधारी।।
अमृतसर  में  अमर - वंश  का  शस्त्रों  से  संहार हुआ। 
असहायों   के  लिये  अंत  में असहयोग  आधार  हुआ।।

अनजानों  को  रेंग  रेंग  डायर  ने  चलना  सिखलाया। 
परतन्त्रों को मार और  गम  खाकर पलना सिखलाया।।
अबलाओं की लाज लूट,  गलियों में गलना सिखलाया।
अकर्मण्य पुरुषों को पछताना, कर मलना सिखलाया।।
हाँ, असभ्य भक्तों के प्रति यह सभ्यों का व्यवहार हुआ। 
असहायों   के  लिये  अंत  में असहयोग  आधार  हुआ।।

कायरता - द्योतक  बहादुरी  के  झूठे  पद  छोड़ दिये। 
स्वार्थ,  शृंखला - बद्ध  देख  धोखे  के  टट्टे  तोड़  दिये।।
भेद - भाव विष भरे घड़े  मोहन  ने उठकर फोड़ दिये। 
हिन्दू - यवन, हिन्द - हिन्दी,  चारों के जीवन जोड़ दिये।।
जागृत जीवन मिला, पाप से मुक्त मुक्ति का द्वार खुला। 
असहायों   के  लिये  अंत  में  असहयोग  आधार  हुआ।।


(1921 ई.)

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