(एक)
आज हमारे बीच हिन्दी गद्य की विविध विधाओं में से अधिकतर उपन्यास, कहानी, साक्षात्कार, यात्रा वृतांत , समीक्षा, जीवनी का ही जिक्र ज्यादा मिलता है। हम सोचते हैं और सोचते रह जाते हैं कि पिछली बार किस पत्रिका में कोई विचारपरक निबंध, ललित निबंध या रेखाचित्र जैसे लगभग भुलाई जा रही गद्य विधाओं को पढ़ा था या देखा था। अगर कोई नाम याद आता भी है तो कभी कभार 'यायावर की डायरी ' के लेखक सत्यनारायण जैसे एकाध भूले भटके साहित्यकारों की लेखनी से उभरे शब्दचित्रों तक आकर ठहर जाता है। आखिर इसकी क्या वजहें हो सकती हैं ! मन लगातार सोचता है। क्या आज कहानी -उपन्यास जैसे पहली पंक्ति में दर्ज होने वाली विधायें अपने में ललित निबंध या शब्दचित्र के बहुलांश रूप में समेट ले रही हैं इसीलिए स्वतंत्र रूप से इनकी जगहें सिकुड़ती जा रही हैं या कुछ दूसरी वजहें हैं? रम्य गद्य रचनाओं के जरिए आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, धर्मवीर भारती, विवेकी राय, विद्यानिवास मिश्र, कुबेरनाथ राय जैसे तमाम साहित्यकारों ने अतीत में गंभीर से गंभीर विषय को बेहद संप्रेषणीय सहज लहजे में पाठकों तक पहुंचाने का काम किया है । खैर !
आज जब इस किताब को जिसे आधुनिक हिन्दी साहित्य के अध्येता व पुरानी साहित्यिक पत्रिकाओं के पीले पड़ चुके हर्फो को आहिस्ते-आहिस्ते टटोलकर बाहर लाने की कोशिश में लगे भाई सुजीत कुमार सिंह ने प्रस्तुत किया है, देखकर कुछ कहे बगैर मन मान नहींं रहा। इस किताब पर पहले भी लोगों ने अपनी बातें कही होंगी और आगे भी कहेंगे। इस किताब में मौजूद सामग्री की ऐतिहासिक महत्ता ही नहीं बल्कि हिन्दी भाषा के लिए समर्पित सम्पादकों की अटूट निष्ठा भी हम तक हस्तान्तरित हो रही है। शब्दचित्र, नखचित्र या रेखाचित्र के नाम से जानी जाने वाली चर्चित गद्य विधा के बिल्कुल शुरूआती समय में स्थापित करने की कोशिशों का एक नमूना भी यहाँ देखने को मिलता है। मार्च 1939 का हंस रेखाचित्रांक के रूप में निकला था, जिसके सम्पादक श्रीपत राय जी थे। उन्होंने हिन्दी गद्य में उभरती एक नयी विधा 'रेखाचित्र' को रेखांकित करने के लिए ही हंस का यह अंक प्रकाशित किया था। इस अंक में न केवल तत्कालीन साहित्यिक हस्तियों के व्यक्तिव का रेखांकन मिलता है बल्कि साथ ही साथ उनकी वैचारिकी का सांगोपांग चाक्षुष छवि देखने को मिलती है। जैसे निराला के बारे में आलोचक रामविलास शर्मा "निराला" शीर्षक से लिखे रेखाचित्र में कहते हैं कि
उनकी कविताओं में जो अद्भुत पुरुषार्थ व्यक्त है, जो विद्रोह की, विजय-कामना की भावना वर्तमान है, वह बैसवाड़े की भूमि की श्रेष्ठ देन है। सड़कों पर मैले कुचैले कपड़े पहने, तोहमत में स्याही का भारी धब्बा लगा हुआ, फटे चप्पल या नंगे पैर बड़े बाल रखाये उसे लापरवाही से अमीनाबाद में चलते देखा है। लोगों ने कहा - 'जानबूझकर कहता है सनकी है'। कुछ नहीं, वह सामाजिक विद्रोह की भावना मात्र थी। 'तुमने कपड़ों को पूजना सीखा है ,मनुष्य का आदर करना नहीं। 'देवी' कहानी में 'निराला' ने पगली को देवी बनाके पूजा है।
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का स्केच खींचते हुये जाने-माने अभिनेता व लेखक बलराज साहनी मंद स्मित भावभंगिमा भरी भाषा-शैली का प्रयोग करते हुए अपनी बात कुछ इन शब्दों से शुरू करते हैं :
द्विवेदी जी में एक दोष है। ढीलम-ढालम रहते हैं, हजामत हफ़्ते में एक बार से अधिक नहीं करते; तिस पर जो व्यक्ति पहली नज़र में उन्हें जंच जाए उसकी खैर, जो न जंचे उसे सामने बिठाकर उसके मुंह की ओर देखते रहते हैं। इसलिए कई महानुभाव शान्ति-निकेतन से यह धारणा बनाकर लौटते हैं कि द्विवेदी जी वैरागी आदमी हैं।
'भेड़िए ' कहानी के लेखक और कई एब्सर्ड एकांकी के रचनाकार भुवनेश्वर प्रसाद शब्बीर हसन 'जोश' मलीहाबादी पर लिखते हुए बड़ी मानीखेज तथ्य सामने रखते हैं। वे 'जोश ' को इंकलाबी शायर ही नहीं बल्कि सही मायने में भारतीय परम्परा को देखने वाले शायर बताते हुए कहते हैं कि -
तो जोश के कवित्व के उद्गम की खोज कहाॅं की जाय । 'जोश' अंग्रेजी कविता और साहित्य से अछूता है, इतनी अंग्रेजी कभी जानी नहीं। इक़बाल के "पैन इस्लामिज़्म'' का उस पर असर नहीं पड़ा। वह सन् 1920 तक में खि़लाफत आन्दोलन का कायल न हो सका । उसके प्रिय कवि हैं हजार साल पुराने 'का़वी ' और 'फिरदौसी'।
फिरदौसी ' ईरान का हेलर है। यही नहींं, दसवीं शताब्दी में 'फिरदौसी' ने ही अरबों के विरुद्ध झंडा गाड़ा था, जब उसने इस्लामी बुजुर्गों के गीत न गाकर यारा, नौशेरवां, रुस्तम और सोहराब का राग अलापना शुरु किया। लेकिन वह विद्रोह बहुत निर्बल था। ईरानी जन-समुदाय उससे उदासीन था और अब तक रहा। तभी तो मरने पर 'फिरदौसी' को सार्वजनिक कब्रिस्तान में दफ़न करने की इजाज़त नहींं मिली, और मजबूरन वह अपने घर में दफ़न किया गया। हजार साल तक 'शाहनामा ' ईरान में ही नहींं, भारत तक में, बहुत लोकप्रिय रहा सो भी काव्य रसास्वाद और मनोरंजन के लिये, जातीय जोश को उभारने के लिये नहींं। किन्तु महासमर के बाद ईरान के नवयुग में 'शाहनामा' ईरान का वेद है, 'फिरदौसी' ईरान का ब्रह्मा है। 'फिरदौसी' की क़ब्र को लोग बिलकुल भूल गये थे। बड़ी मुश्किल से तूसी शहर के खंडहरों को खोदकर वह निकाली गई, और ईरान ने अपनी खानों के कीमती संगमरमर से उसका आलीशान मक़बरा बनाया। दरवाजों और दीवारों पर 'शाहनामा' के प्राचीन ईरानी वीरों और सम्राटों की मूर्तियाँ खोदी गई हैं। यह सरासर इस्लाम के खिलाफ है। 'जोश' अगर राष्ट्रीय कवि है तो वह बहुत अंश में 'फिरदौसी' की तरह। वह भी प्राचीन गौरव की दुहाई देता है, वह भी बीते हुये को गर्व और जलन से देखता है और वर्तमान पर आठ-आठ आंसू रोता है, दांत किटकिटाता है। उपमाओं में अर्जुन और अभिमन्यु को याद करता है और तलवार ऐसी चीज़ की याद दिलाता रहता है ।
'जोश ' हिन्दुस्तान का 'फिरदौसी 'ही नहींं है वह विक्टर ह्यूगो भी है।
'जोश' क्रांति का कवि है न।
(दो)
सियारामशरण गुप्त पर लिखते हुए अज्ञेय ने उनके निष्ठा, सहजता और ज्ञान पिपासु छवि का सुंदर रेखांकन प्रस्तुत किया है। राहुल सांकृत्यायन, मैथिलीशरण गुप्त, बच्चन, दिनकर, श्यामसुंदर दास, महादेवी वर्मा, जैनेंद्र, काका कालेलकर, जैसे तमाम हिन्दी सेवियों के साथ ही सम्पूर्णानन्द, बाबूराव विष्णु पराड़कर जैसे पत्रकारों-राजनीतिज्ञों के विचारवान व्यक्तित्व की झांकी प्रस्तुत करते रेखाचित्र भी हैं। अहिन्दी भाषा-भाषी क्षेत्र के लेखकों, विचारकों पर लिखे शब्द चित्र को अनुवाद कराके श्रीपत राय जी ने हंस में प्रकाशित कराया। एक तरह से यह प्रयास रेखाचित्र के तत्कालीन अखिल भारतीय रूप की निशानदेही भी करती है। हमारे पूर्वजों के द्वारा हिन्दी के संवर्धन के लिए किये प्रयासों को याद दिलाती यह प्रस्तुति उल्लेखनीय है। प्रस्तुतकर्ता व सम्पादक सुजीत कुमार सिंह जी का यह काम बड़े महत्व का है ।
और अन्त में भूमिका में उद्धृत एक वाकये का जिक्र किये बगैर मन मान नहीं रहा तथैव वह चित्र व संदर्भ आपके लिए प्रस्तुत है। यह संदर्भ हिन्दी की विविध विधाओं की अधोगति या एकांगी विकास को चिन्हित करती आज भी उतनी ही तीखी टिप्पणी सी लगती है-
हिन्दी की इस अवस्था को ही देखकर आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने फरवरी-मार्च 1903 की 'सरस्वती' में 'साहित्य समालोचना/ साहित्य सभा ' शीर्षक एक व्यंग्य चित्र प्रकाशित किया था। इस चित्र में नौ कुर्सियाँ हैं जिसमें पहली कुर्सी 'इतिहास' की है जो खाली है। दूसरी 'जीवन चरित' की है, वह भी खाली है। तीसरी कुर्सी 'पय् र्यटन' की है जिस पर एक बाबू साहब बैठे हुए हैं। चौथी कुर्सी 'समालोचना' की है जिस पर हाथ में दर्पण लिए मनुष्य वेश में एक बन्दर बैठा है। पांचवी कुर्सी 'उपन्यास' की है। कुर्सी के पास एक बंदर-बकरी लिये एक मदारी को खड़ा दिखलाया गया है। छठीं कुर्सी 'व्याकरण' की है, जिसे महावीरप्रसाद द्विवेदी ने 'व्या-(धि ) -करण' लिखा है। सातवीं 'काव्य' और आठवीं 'नाटक ' की है । 'नाटक' वाली कुर्सी पर एक कृशकाय मनुष्य बैठा है जिसकी ठठरियां दिख रही हैं। नौवीं कुर्सी ' कोश ' की है और खाली है। इस साहित्य-सभा को देखकर सरस्वती माता रो रही हैं। महावीरप्रसाद द्विवेदी की व्यथा को आसानी से समझा जा सकता है।
प्रतीकात्मक तौर पर प्रस्तुत यह व्यंग्यात्मक रेखांकन बहुत कुछ कह दे रहा है। यह उस समय के लेखकों के साहित्य और जीवन को देखने के नजरिए का दर्शन भी कराता है।
अपनी पुरानी पोथियों से खंगाल कर बहिरियाने का उद्यम प्रशंसनीय है, कीमती भी है। हम सब हिन्दी पाठकों के लिए एक जरूरी पुस्तक है यह।
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हंस का रेखाचित्रांक
भूमिका एवं प्रस्तुति : सुजीत कुमार सिंह
प्रकाशक-
शिल्पायन
10295, लेन नं. 1, वेस्ट गोरखपार्क,
शाहदरा, दिल्ली -110032
silpayanbooks@gmail.com
मूल्य - 300 ₹ (पेपरबैक)
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आशीष सिंह
युवा आलोचक,
लखनऊ (उत्तर प्रदेश)
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