Wednesday, October 14, 2020

समय और समाज का भाष्य : विजय विशाल की कविताएँ : शशि कुमार सिंह

                                                 




                                            

 




समय और समाज का भाष्य : विजय विशाल की कविताएँ

शशि कुमार सिंह 


चींटियाँ शोर नहीं करतीं  विजय विशाल का सद्यः प्रकाशित काव्य संग्रह है। यह सच है कि चींटियाँ शोर नहीं करतीं। पर यह अधूरा सच है। पूरा सच यह है कि अनेक ऐसे रचनाकार भी हैं जो बेहद ख़ामोशी से रचनारत रहते हैं।वे भी शोर नहीं करते। विजय विशाल ऐसे ही रचनाकार हैं जो शहरी चकाचौंध से दूर हिमाचल के पहाड़ी गाँव में मौन कवि-कर्म में विश्वास रखते हैं। इस संग्रह की कविताओं से गुजरना एक रोचक यात्रा की तरह है।इन कविताओं का वैविध्य विस्मित करता है। समय और समाज का शायद ही कोई पहलू हो जो इन कविताओं में न सिमट आया हो। यहाँ मज़दूर हैं। किसान हैं। शासक हैं। छात्र हैं।बेरोजगार हैं। स्त्रियां हैं। बुज़ुर्ग हैं। बच्चे हैं। पहाड़ हैं। पहाड़ के संघर्ष हैं। गाँव हैं। लोक संस्कृति है। शहरीकरण है। उसकी विकृतियाँ हैं। यानी यह संग्रह वर्तमान का विराट एलबम है।

इस संग्रह की कविताएं श्रम के सौंदर्य की कविताएं हैं। यहाँ श्रमिक हैं। उनके  श्रम की महत्ता है।  साथ ही उनका अस्थायित्व और शोषण भी। कवि को मजदूरों का श्रम चुरा लिए जाने की चिन्ता है। एक काम पूरा होते ही मज़दूरों को नए काम की तलाश में भटकना पड़ता है। लेकिन विजय विशाल  मज़दूरों की जिजीविषा की प्रशंसा करते हुए कहते हैं -

"न मधुमक्खियां हार मानती हैं

न मजदूर काम तलाशना छोड़ते हैं 

इनकी यह जिजीविषा ही बचाये रखती है

पृथ्वी पर सृजन की संभावनाओं को।" 

श्रम और श्रमिक के प्रतीक के रूप में विजय विशाल प्रकृति के बीच से ही उपमान चुनते हैं। मधुमक्खी के अलावा चींटी उन्हें निरन्तर श्रम करती तथा औरों को प्रेरित करती हुई जान पड़ती है। यह अकारण नहीं है कि पहली कविता में मधुमक्खी आती है और अंतिम में चींटी। मधुमक्खी और चींटी से मिलकर श्रम का ऐसा वितान निर्मित होता है जिसमें कर्म-श्रम की पूरी गाथा है। संग्रह के शीर्षक वाली कविता भी श्रम के सौंदर्य की कविता है। मौन श्रम की - 

''एक साथ एक जगह इकट्ठा होने पर भी चींटियाँ शोर नहीं करतीं 

न ज़ुबान से न क़दमों की थाप से 

चींटियाँ सिर्फ़ कर्म  करती हैं

अपनी पूरी लगन से।" 

कहने की आवश्यकता नहीं कि यहाँ चींटियाँ श्रमिक हैं। मज़दूरों की एकता और तदुपरांत उनकी जीत में कवि को विश्वास है -

"आकार में छोटी चींटियों से 

डरते हैं विशालकाय हाथी भी 

हाथियों का चींटियों से यूँ डरना  

चींटियों की जीवन्तता का प्रमाण है।"

यह जिजीविषा और जीवंतता इस संग्रह में सर्वत्र विद्यमान है -

'यह भरोसा ही तो है

जिसके सहारे 

हर तबाही के बाद भी 

उठ खड़ा होता है आदमी।'

श्रम के प्रति रुझान की वजह से ही कवि सौंदर्य के प्रतिमानों पर प्रश्नचिह्न खड़े करता है। 'बया का घोंसला' ऐसी ही कविता है। इसकी प्रारंभिक पंक्तियां पढ़कर मुक्तिबोध के संग्रह 'चाँद का मुँह टेढ़ा है' की याद आ जाती है। कवि की दृष्टि में सुंदर इमारत 'बया का घोंसला' है क्योंकि वह श्रम से निर्मित है। उसमें विलासिता का अंश नहीं है। 'तुम /जो संसार की / सबसे सुंदर इमारतों की /  सूची बना रहे हो/ इसमें शामिल कर लो/ एक अदद घोंसला।' कवि की नज़र में बया का घोंसला/ जो किसी बुर्ज खलीफा से कम नहीं/न तकनीक में / न बुनावट में/ न कसावट में।' 

कवि यह स्पष्ट करता है कि श्रम की सार्थकता उसके परोपकार में ही निहित है -

"बया हमेशा के लिए  

काबिज़ नहीं रहती 

अपने इन घोंसलों पर

पंद्रह बीस दिन अंडे सेंक 

अपने नवजात बच्चों सहित हो जाती है फुर्र 

पीछे छोड़ देती है घोंसला 

किसी दूसरे पक्षी को जो बना न पाया हो अपना कोई ठौर।' 

यह श्रम का सौंदर्य विजय विशाल 'बूढ़ी औरतों' में भी देखते हैं जो घर के काम के अलावा 'उकड़ू बैठ निगोड़ती हैं खेत।'  विजय विशाल किसान को देखकर कह उठते हैं, "पचास वर्षों की /खेती से/उग आए/शब्दों के समूह/उसके झुर्रीदार चेहरे को/कवि/होने की पहचान/देने में समर्थ हैं।"

बेरोजगारी के प्रति चिन्ता भी इसी श्रम-सौंदर्य की अगली कड़ी है। इसीलिए ऐसी कविताओं में भी बार-बार बेरोजगार आते हैं जो मूलतः बेरोजगारी पर नहीं लिखी गयी हैं। कवि की संवेदनशीलता उसे बेरोजगारों की पीड़ा से असंपृक्त नहीं रहने देती। यह अकारण नहीं है कि 'हुक्के के पलायन' में भी वह कहता है, "गाँव में उपेक्षित हुक्का /किसी बेरोजगार युवक की तरह / महानगर को पलायन कर गया।" 'जब पगडंडी सड़क हुई' में कवि कहता है, "इस तरह बैल ज़मीन से बेदखल हुए/अब सड़कों पर आवारा फिरते हैं/ हज़ारों हज़ार बेरोजगारों की तरह।" 'पढ़ाई बनाम श्रम' में भी बेरोजगारी है। 

विजय विशाल पहाड़ के कवि हैं। गाँव में बसते हैं। इसलिए पहाड़ी जीवन की रीति- नीति और लोक संस्कृति उनकी कविताओं में व्यक्त होती है। धरती उनके लिए माँ है तो पहाड़ पिता। ऐसा पिता जो सदियों से अपने बच्चों का पालन-पोषण कर रहा है। यह आत्मीयता ज़मीन और स्थानीयता से जुड़ाव की परिचायक है। उन्हें पहाड़ी गाँवों में हुक्का याद आता है। कांसे की थाली में माँ के हाथ की बनी गर्मागर्म रोटी याद आती है। इसे सिर्फ़ 'नॉस्टेल्जिया' कहकर नहीं टाला जा सकता। यह एक संवेदनशील मन की पीड़ा है जो तेजी से हो रहे टूटन, विघटन और पलायन पर चिंतित है। गाँवों के विनाश की यह चिन्ता 'जब पगडण्डी सड़क हुई' में पूरे तीखेपन के साथ व्यक्त होती है। पगडण्डी का सड़क हो जाना महज रास्ते का चौड़ा होना भर नहीं है। यह विनाश का सूचक भी है। एक संस्कृति के लोप और दूसरी के उद्गम की प्रस्थान-यात्रा भी है। कवि कहता है, "जब पगडण्डी सड़क हुई/ पहले पेड़ गए/ फिर पत्थर और मिट्टी/ उनकी राह हो लिए और इस तरह पहाड़ हमेशा के लिए रीत गए।'' मगर कवि हार नहीं मानता है।वह विनाशक शक्तियों की शिनाख्त करता है।

विजय विशाल का काव्यात्मक साहस प्रशंसनीय है। वे सत्ता से टकराते हैं।उनके यहाँ अनेक राजनैतिक कविताएँ हैं। इन कविताओं का व्यंग्य नागार्जुन की तरह मारक भले न हो पर लक्ष्य स्पष्ट है। ''ऊँचे कगारों पर पहुँचे कई बौने लोग/घड़ी को रोककर/अपने पक्ष में बदलना चाहते हैं/समय।" यह काव्यांश क्या किसी व्याख्या की अपेक्षा रखता है? सत्ता के शीर्ष पर पहुँचे लोग कौन हैं? ये लोग इतिहास और राजनीति की मनमानी व्याख्या कर रहे हैं। वर्तमान राजनीति के मूल चरित्र पर इससे बड़ी और कड़ी टिप्पणी और क्या हो सकती है? आज कुछ ही कवि यह कहने का साहस जुटा पाते हैं - 

"टुकड़े टुकड़े गैंग कहकर

वे कर दिए गए बहिष्कृत

इस विचारहीन दुनिया में  

आसान नहीं होता शब्दों के नए अर्थ गढ़ना  

या 

पुरानी किताबों को नए दृष्टिकोण से पढ़ना।''

यह कहने की ज़रूरत नहीं कि विजय विशाल ऐसे ही कवि हैं जो सत्ता से टकराते हुए इस विचारहीन दुनिया में प्रगतिशील और मानवतावादी विचारों के साथ हैं। आत्मविश्वास के साथ शब्दों के नए अर्थ गढ़ और पुरानी किताबों को नए दृष्टिकोण से पढ़ रहे हैं। यह अन्याय के विरुद्ध आम आदमी और सचाई के साथ खड़े होने का साहस है। यह साहस उन्हें अन्य कवियों से अलग करता है। तेज़ी से बढ़ रही असहिष्णुता और मॉब लिंचिंग पर कवि क्षुब्ध है। यह उनका साहस ही है कि वे 'सत्ताधीशों के नाम एक पत्र' लिखते हैं। 'अबकी दंगों के बाद' में भी यही साहस है।आम आदमी से जुड़ाव की वजह से ही विजय विशाल की कविताओं में यह ताक़त आ पाई है। 

वर्तमान का विरोधाभास है कि मनुष्य एक साथ कथित रूप से सभ्य और बर्बर दोनों होता जा रहा है। पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह अंधराष्ट्रवाद और युद्धोन्माद का माहौल तैयार किया गया है वह किसी भी सभ्य और संवेदनशील व्यक्ति को चिंतित करने के लिए पर्याप्त है। युद्धोन्माद के सहारे सत्ता अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेंकती है।  उसे व्यापक तबाही की चिंता नहीं। सत्ता को चिन्ता नहीं कि युद्ध सभ्यताओं को लील जाता है। सुहाग उजाड़ देता है। बुजुर्गों से उनकी औलाद छीन लेता है। गोदी में खेलते हज़ारों बच्चे अनाथ हो जाते हैं। सैकड़ों विधवाएँ बेसहारा हो जाती हैं। कवि ऐसे हालात में भी 'आओ युद्ध करें' की चीख-पुकार करने वाली सत्ता को उन्मादी, शातिर और चालाक कहता है। इस उन्मादी माहौल में युद्ध के ख़िलाफ़ बयान देना भी देशद्रोह से कम नहीं है और शान्ति की बात कहना तो  धुर दुश्मनों के एजेंट होना है। ऐसी विकट परिस्थितियों में भी कवि अपनी प्रतिबद्धता दुहराता है -

"युद्ध के विरुद्ध 

मैं पहले भी था 

आज भी हूँ 

और कल भी रहूँगा। अपनी तमाम 

प्रतिरोधक क्षमता के साथ।" 

एक मानवतावादी और अपने कवि-कर्म के प्रति जिम्मेदारी अनुभव करने वाला कवि ही यह कह सकता है कि -

"इस पाषाण होते समय में  

मानुष के भीतर 

बचाये रखनी हैं

सम्वेदनाएँ 

उकेरनी हैं उनमें भावनाएं 

ताकि सृष्टि में 

जिंदा रखा जा सके सद्भाव 

ऐसे कठिन काम

पे जा चुके हैं कविता को।"  

और कवि इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि "प्रेम ही काव्य की आत्मा होगी।'' यह कहना काव्यशास्त्र के मानदंडों को भी चुनौती देना है जो रस, रीति, ध्वनि, वक्रोक्ति आदि को काव्य की आत्मा घोषित कर चुके हैं। प्रेम विजय विशाल की कविता के केन्द्र में है।उनके लिए जीवन और प्रेम एक दूसरे के पर्याय हैं। वे कहते हैं, ''जहाँ जीवन है/ वहाँ प्रेम है/ जहाँ प्रेम है/ वहाँ कविता है/ प्रेम के बिना/ न जीवन है /न कविता है।'' इस तरह एक मानवतावादी कवि की कविता की घोषणा प्रेम है। प्रेम में इसी विश्वास की वजह से कवि कहता है कि ''जो भीतर तक /नफ़रत से भरा है / हद है/अपने को/ कवि कह रहा है।" कवि का विश्वास है कि ''जहाँ कविता होती है /वहाँ नफ़रत नहीं होती।"


'कविता' पर इस संग्रह में कई कविताएँ हैं। ये कविताएँ कवि की काव्य दृष्टि और प्राथमिकता की सूचक हैं। देखना दिलचस्प है कि कवि कैसी कविताओं को अमर और दीर्घायु कहता है। नफ़रत के बीच जीते हुए प्रेम की कविता, अविश्वास के माहौल में विश्वास और मित्रता की कविता, उजड़ते वनों के बीच प्रकृति की कविता, सत्ताधीशों के ज़ुल्म को सहते हुए सत्ता को चुनौती देने वाली कविता और बर्बरता के विरुद्ध कविता अमर और दीर्घायु होती है। यह दृष्टि कविता की जनपक्षधरता से निर्मित होती है। जनपक्षधर कविताएँ अमर होंगी ही। कवि की कविताओं में प्राण इसी जनपक्षधरता, मनुष्य की अदम्य जिजीविषा और सत्ता को चुनौती देने वाली चेतना से आती है। इसके विपरीत उन कवियों और कविता की लानत-मलामत भी है जो ''निहत्थों के विरुद्ध खड़े होते हैं/बर्बरों के साथ/ निज़ाम के ढहने /और कवि के मरने के साथ ही/मर जाती हैं वे कविताएँ जो शोषितों के ख़िलाफ़/ शोषकों के पक्ष में लिखी गई होती हैं।" संग्रह की कविताओं में कठिन समय में परिवर्तन की चाह है। यहाँ विद्रोह की चेतना है। कवि को सर्वहारा में विश्वास है और वह परिवर्तन के प्रति आश्वस्त है। लेकिन कवि यह भी भली-भांति जानता है कि सिर्फ 'शासक बदलने से /व्यवस्था नहीं बदलती।'

संग्रह की कविताएँ अपने समय से संपृक्त हैं। इसलिए यहाँ कोरोना महामारी पर भी कई कविताएँ हैं। उसके तमाम सकारात्मक और नकारात्मक पहलू उनकी कविता में आये हैं। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण है मनुष्य की जिजीविषा जो इस संग्रह में रक्त- मज्जा की तरह है। 'इतिहास गवाह है /अंततः महामारी ही पराजित हुई है/मनुष्य के पराक्रम के आगे।'

चींटियाँ शोर नहीं करतीं की कविताएँ मनुष्यता के महत्व की कविताएँ भी हैं। आज के बाज़ारवादी समय में व्यक्ति रिश्तों से दूर होता जा रहा है। रिश्ते निभाना मनुष्य होना है।कवि कहता है मैं 'जड़ें होना चाहता हूँ/ ताकि पकड़ सकूँ रिश्तों को/सींच सकूँ मनुष्यता को।' 'मन का पीपल हो जाना' भी 'मनुष्य होने के सुख' की कविता है। ये कविताएँ मनुष्यता के साथ उम्मीद की कविताएँ भी हैं।

कलात्मकता की खोज करने वाले पाठक इस संग्रह से थोड़े निराश भी हो सकते हैं। सीधे सरल शब्दों में कवि ने अपनी बात कही है। यह सादगी ही इस संग्रह की पहचान है। कवि का ध्यान कथ्य पर अधिक रहा है। कथ्य की ताज़गी और शिल्प की सादगी इस संग्रह का वैशिष्ट्य है।


प्रकाशक : प्रलेक प्रकाशन प्रा.लि.

मूल्य: 170₹

___________________________________


शशि कुमार सिंह, असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, हिन्दी विभाग, महात्मा गाँधी गवर्नमेंट कॉलेज, मायाबंदर, अंडमान निकोबार द्वीपसमूह

संपर्क : +91 95318 34834



1 comment:

  1. भाग भाग समय असमय ना आगे आए
    वह कविता क्या, जो बस कोने में बैठ लजाए।
    संग्रहणीय पुस्तक। बेहतरीन समीक्षा

    ReplyDelete