Saturday, October 10, 2020

सरजू, सरजू भैया और लल्लू महतो : बलभद्र





सरजू, सरजू भैया और लल्लू महतो : बलभद्र 


(एक)


सरजू


तीन दिन पहले छोटे भाई विमल ने फोन पर बताया कि सरजू अब नहीं रहा। बीमारी की वजह से उसकी मृत्यु हो गई। वह बचपन से ही ममहर रहता था। जब तक नाना-नानी रहे, उनके साथ रहा। उसके छोटे भाई का नाम गरजन है। दोनों शादीशुदा एवं बाल-बच्चेदार हैं। नाना -नानी के मरते ही दोनों भाइयों को नाना-नानी का घर छोड़ना पड़ा। उसके नाना-नानी के पट्टीदारों ने घर छोड़ने को विवश कर दिया। 

नोकझोंक और मारपीट और रोज-रोज के किचकिच से आजिज आ दोनों भाइयों ने वह घर छोड़ पट्टीदारों के छोटे से घर में आकर रहना शुरू किया। और पट्टीदार मय बाल-बच्चे उनके घर आ जमे। दोनों मिहनती, दोनों काम मे लगे रहनेवाले कुशल खेत-मजदूर थे। पर, बड़ा-सा कीता, दुआर-दालान वाला, छोड़ने का दुःख तो था ही। जिस घर में घरनी उतरी हो, रहना-सहना हुआ हो। वह घर छोड़ते मोह भला किसको नहीं होगा।

बहरहाल, दोनों बहुत ही मेहनती और लगनशील थे। जिस काम में हाथ लगाते उसे केवल पूरा ही नहीं करते बल्कि बहुत सज से करते थे कि देखनेवाले तबियत से वाह वाह करने लगते। अपनी तारीफ किसको नही भाती। दोनों बहुत खुश होते और दोनों की गाँव में पूछ बढ़ती गई। गाँव का भगीना होने के नाते ये किसी को नाना-नानी, किसी को मामा-मामी, किसी को मौसा-मौसी तो किसी को भाई-भौजाई निधड़क कहा करते थे। गाँव के लोग भी इन दोनों भाइयों से लगे रहते थे। गरजन तो अपने गोड़ के दरद से पामाल है। 

कामधाम करना मुश्किल हो गया है। सरजू ज्यादा ही सीधा आदमी था और गमखोर भी। कोई दो बात कहे भी तो उलटकर जवाब देना उसके सुभाव में नहीं था। वह कुछ ज्यादा ही लगनशील और कार्यकुशल था। उसकी कार्यकुशलता को लेकर उसके लिए ही खासकर, लोगों ने एक विशेषण गढ़ा था- 'परीना'। उसके करीने से काम करने के चलते यह 'परीना' आया। हल जोतना हो चाहे आर-मेड़ सोझियाना अथवा गोहट फेंकना या करहा बनाना सरजू का कोई जवाब न था। करहा बनाए तो ऐसा कि पानी छलछलाते खेत तक पहुंच जाए। धान रोपाई के वक्त आर को छांटकर ऐसा साज दे कि क्या कहना!

सरजू को समय पर या उससे पहले ही काम पर आने की आदत थी और यह आदत जब तक वह काम करने लायक रहा तबतक बनी रही। और शाम को अगर गाँव-जवार का काम कर रहा होता तो घर जाने की कोई जल्दी भी नहीं होती। काम अगर थोड़ा रुक जाने से पूरा हो जाने लायक होता तो वह बिना कुछ कहे रुक जाता। कोई अगर कह दे कि थोड़ा बचा है, कल इतने के लिए ही आना होगा, तो वह खैनी बनाने को कहता और थोड़ा अगल-बगल ताककर काम में भिर जाता। 

फिर तो थोड़ा और थोड़ा अधिक क्या! पूरा करके ही घर को चलता। उसकी इस भलमनसाहत का कुछ लोग बेजां फायदा उठाने से बाज नहीं आते। उसको मूर्ख समझते। मुँह पर उसकी तारीफों के पुल बांधते।कहते कि गांव का भगीना है, जो कहे सो हाज़िर है। वो समझता सबकुछ था। पर कहता कुछ नहीं था। चुप रह जाता। 

हाँ, कभी-कभार जरूर कह देता कि 'एक खिली खइनी देल त पारे ना लागे, अउर तू का देबऽ!' उसकी इस आदत पर उसकी पत्नी जल-भुनकर रह जाती। पर वह उसका भी कोई जवाब नहीं देता। वह अपनी पत्नी को अपने बेटों के नाम के साथ पुकारता। फलनवा की माई कहकर कुछ कहता। वह पत्नी के लिए 'ओकनी के' का व्यवहार करता। एकवचन  नहीं, हमेशा बहुवचन।




सरजू को तीन बेटे हुए। मंझले बेटे की दो-तीन साल पहले मृत्यु हो गई थी। वह ग़ाज़ियाबाद में मजदूरी करता था।वहीं बीमार पड़ा। बीमारी की हालत में घर आया। पटना के किसी अस्पताल में उसके पेट संबंधी किसी बीमारी का ऑपेरशन हुआ, पर बच नहीं पाया। दहाड़ मारकर रह गए दोनों। इतनी भयावह गरीबी कि सरजू तो कुछ कह भी नहीं पाया किसी से। बेटा शादीशुदा था। कमाने गया था रुपया-पैसा। घर का काम चलाने। पर बीमारी और आखिर में मौत कमाकर आया। सरजू से उस वक्त आंखें मिलाने की हिम्मत मुझमें नहीं थी। कुछ कहना चाहकर भी नहीं कह सका। कुछ कहता भी तो क्या?

आठ-दस साल पहले उसके हाथ की दो अंगुलियां कुट्टी मशीन की भेंट चढ़ गईं। गांव के ही एक महतो जी के यहाँ पुआल की कुट्टी कटवा रहा था। दिनभर की मजूरी पर गया था कि कुछ कमाई हो जाएगी। जिन अंगुलियों से मुट्ठी बँधती है, काम में जोर लगता है, दाल -भात का कौर उठता है, उन्हीं अंगुलियों को गँवा बैठा। 

एक तो छोटा कद, दुबली-पतली देह, ऊपर से अंगुलियां नदारत। जिनके बूते करहे को चिकन-चाकन गढ़ देता था, वो अब गायब। उसकी सारी 'परिनई' (निपुणता) अंगुलियों के साथ ही जाती रही। अब सरजू वो सरजू नहीं रहा। कोई मुआवजा वह पाए तो कहाँ से? इलाज हो पाया किसी तरह। जख्म तो भर गए, पर आत्मा का जख्म कभी नहीं भर पाया।कुदाल की बेंट अब मुँह चिढ़ाने लगी।

सरजू के बच्चे काफी इंतज़ार के बाद हुए। उसकी नानी को हमलोग बचपन में गेल्हिया माई कहते थे। गेल्हिया माई की बेटी जगरखनी के बेटे हुए - सरजू और गरजन। नाना का नाम था जयमंगल कहार। जब तक गेल्हिया माई जिंदा रही आँगन-घर-दुआर सब चमचमाता रहा। मजाल कि कहीं कोई गंदगी दिख जाए। उसके आँगन में एक चबूतरा हुआ करता था और चबूतरे के बगल में तुलसी के पौधे। दुआर पर गुड़हल के फूल। जाड़े में गेंदा और जटाधारी।

कुछ फूल प्रतिदिन उस चबूतरे पर नियमित चढ़े होते थे। दुआर पर एक नीम का पेड़ भी था। जो कि बाद में सरजू और गरजन के वहां से हटने के बाद जो रहने आए, दाम कर कटवा दिया। जयमंगल कहार कलकत्ता कमाते थे।अच्छी स्थिति थी गेल्हिया माई की। बचपन में मैं अपनी ईया (आजी) के साथ हमेशा गेल्हिया माई के घर जाता।अक्सर दोपहर में। 

तब तक वह नदी नहाकर आ चुकी होती और चबूतरे पर कुछ फूल चढ़ गए होते। उसके यहाँ 'सोरठी बृजभार' था ,जिसको हमारी ईया गया-गाकर पढ़ती थी और कुछ औरतें मनाचित लगा सुना करती थीं। तब उस घर में एक और औरत हुआ करती थी जिसको सबलोग सधुआइन कहा करते थे। उस औरत के बारे में तब कहां सुध थी विशेष कुछ जानने की। ये तो बाद में थोड़ा-बहुत मालूम हुआ कि वो उस घर की नहीं थी। किसी दूसरे गाँव के राजपूत परिवार की बहू या कि बेटी थी। शायद भोजपुर ज़िला के जलपूरा गांव की। वो सिंदूर नहीं लगाती थी। शायद विधवा थी। वही लेकर आई थी 'सोरठी बृजभार'। वो बहुत रस ले लेकर सुनती थी। 

संभव है अपने सपाट और बेरंग हुई दुनिया मे कुछ रंग वहीं से ले पाती हो। खैर, सधुआइन गईं, गेल्हिया माई गई, जयमंगल गए, इन दोनों भाइयों का वह घर छूटा, नीम का पेड़ गया और गेल्हिया माई की बेटी का एक बेटा भी अल्लाह का प्यारा हो गया। गेल्हिया माई थी तो हमें नहीं पता कि वो कमकर परिवार है और वहां किसी उच्च जाति के परिवार की औरत और बच्चे को वहाँ इस तरह नहीं जाना चाहिए। हम सब दिन दिन भर रहते और खेलते-खाते थे। आज की तरह तो इतना भेद नहीं था।

तो बात चली थी कि सरजू को बच्चे देर से हुए। और हुए तो तीन हुए। मुदई मुँहे कारिख पुत गई। लेकिन इस देर के कारण लोगों ने, खासकर महिलाओं ने क्या-क्या नहीं कहा, सुझाया। सरजू ने एक बछिया पाल रखी थी। वह बड़ी मरकही निकली। वह भी लंबे समय तक न बाही न बियाई। उसके दुआर पर, नीम के नीचे गोली खेलते लड़कों ने उसका नाम खीरमोहनी रख दिया था। उसके सामने हाथ नचा-नचा काँव-काँव करने लगे थे। 

वह भी ससुरी पक्की खंचरिन। इधर बच्चे खीरमोहनी कहते, उधर वह हूँफने लगती। फनफना उठती  सरजू बो कभी-कभी चिढ़ जाती तो उन गोली जमाये बच्चों को भगाने लगती - 'ना जइबऽ लोग अपना दुआरे।' पर, वे इधर हटे, उधर फिर आ डटे। धीरे-धीरे बच्चों ने खुद सरजू का नाम खीरमोहन रख दिया। और यह नाम चल पड़ा। संग के कामगार भी खीरमोहन कहने लगे। और तो और उसकी पत्नी भी खीरमोहन कहने से बाज़ नहीं आती। काशी, लालबाबू सब खीरमोहन कहने लगे। 

अफसोस कि अब काशी भी नहीं रहे। काशी जो थे, वो कैंसर से गए। काशी उसी परिवार के रहे जिसके चलते सरजू दोनों भाइयों को अपने नाना वाला घर छोड़ना पड़ा था। शुरू में दोनों परिवारों में तनाव जैसा कुछ रहा, पर बाद में सब सामान्य हो गया। काशी के पिता का नाम था सीताराम कहार। खूब गाँजा पीते थे। 

सीताराम जी हमसे उम्र में काफी बड़े थे। कलकत्ता की किसी प्राइवेट कंपनी में काम करते थे। नौकरी से रिटायरमेंट के बाद गांव आ गए और दिन-दिनभर उनकी मड़ई में, दुआर पर टोलाभर के गंजेड़ी बैठकी लगाने लगे। चिलम धकाधक जलती रही। तरह तरह की बोलबाजियों के साथ चिलम के शीर्ष पर लपालप प्रत्येक दम पर लाफें उठतीं रहीं। 

सीताराम गए इस दुनिया से तो इसी गांजे के चलते। खांस खांस के बेदम होते सीताराम जी ने कभी चिलम से मुँह नहीं मोड़ा। अपने आखिरी वक्त में जब उठने बैठने में एकदम लाचार हो गए, करवट बदलना तक मुश्किल हो गया, अपनी बैठकी के लोगों से इशारे में ही गांजे की चिलम थामने की इच्छा जाहिर की। 

साथियों ने सहारा देकर बिठाया, चिलम थमाई, भाय ने दम मारा।आखिरी लाफ़ थी वह चिलम के शीर्ष पर नृत्य के समापन की तरह विराम लेती। सब उनको भाई नहीं, 'भाय' कहते थे। जब उनकी अर्थी उठी तो किसी गंजेड़ी ने अर्थी के सिरहाने एक चिलम, एक साफीऔर गांजे की एक पुड़िया रख अपनी ओर से आखिरी सलाम पेश किया। 

अर्थी उठाने से पहले समाजियों ने चिलम चढ़ाई।श्राद्ध के दिन उनकी जमात के लोगों ने प्रेमपूर्वक दम मारा। सीताराम भाय के बाद उनका बड़ा बेटा जिसका नाम बैजनाथ था, वो भी पिता के नक्शेकदम पर चलते हुए आखिरी साँस ली। वो भी कलकत्ता काम करता था। गाँव वो भी आया नौकरी पूरा कर, मरा वो भी पिता की तरह। सीताराम भाय का एक और बेटा है जो चिलम से बेइंतहां मुहब्बत करता है। वो भी कुछ दिन कलकते में रहा। सीताराम भाय की पत्नी को हमलोग भउजी कहते थे। मोटी थी इसलिए वो 'हथिया भउजी' थी। वो भी गई। जाने की उमर तो नहीं हुई थी पर चली गई। अपने पति के बाद गई।इस पूरे प्रकरण को लिखते हुए मन अज़ीब -सा हुआ जा रहा है। 

यह कलकत्ता जो सो कमाल का है। जो जाता था उस समय वो आज की तरह तो तुरत-तुरत नहीं आ पाता था। साल -साल भर बाद आ पाना होता था। घर-परिवार सब छोड़कर जाते थे और साल साल भर अकेले रहते थे। जैसे तैसे। इसी दोहपंच में ही गांजे और चिलम की जगह बनी। सीताराम भाय सरजू के मामा लगते थे। सरजू के नाना सीताराम भाय के चाचा। सरजू भी दिल्ली-कलकत्ता सब घूम आया था। 

पर उसे कहीं अड़ान नहीं मिल पाया। सो इसी मिट्टी पर खटते हुए बीमार पड़ा और चल बसा।उसके जाने से क्या फरक पड़ेगा किसी पर। कोई बड़ा आदमी तो वह था नहीं। घर-द्वार सब टूटा-फूटा,गरीब की किस्मत की तरह। इंदिरा आवास-योजना का फारम पर फारम भरता रहा,ब्लॉक में कई बार गया,सौ-पचास किसको किसको नहीं दिया,तहसीलदार को, गाँव के चालू-पुरजा लोगों को। पर पाया क्या? कहते-कहते चला गया।सिधवा था, पर जान चुका था कि उसकी कहीं कोई सुनवाई नहीं। पैसा दे तो देता था पर कहता था कि हो जाए तब तो जानें। 

जिस उमर में सरजू गया, वह भी कोई जाने की उमर होती है। पर वह गया। हरेराम यादव गए, सुरेश यादव गए, सभा यादव गए। न जाने कितने गए। सब खेत-मजदूर थे। यह जाना अभी भी जारी है। इनके दुखों का एक अंतहीन सिलसिला दर्ज हो रहा है प्रतिदिन। खेत-मजदूरी छोड़ ये राजमिस्त्री के साथ मजदूरी में लगे। 

अपने गांव से बाहर के गांवों में जाने लगे। गांव के नजदीक के बाजार बिहिया जाने लगे मजदूरी करने। सुबह- सुबह निकलते, देर रात वापस लौटते। काम नहीं मिलने पर मनमार खाली हाथ वापस आते। रोज सुबह बक्सर,पटना मोकामा शटल से जाते और रात में उसी से वापस लौटते। अब बिहिया जानेवालों में न सुरेश रहे, न सभा, न सरजू।



सरजू के नाना का नाम था जयमंगल कहार। पर, कलकत्ता से आने के बाद जब वे स्थायी तौर पर गाँव रहने लगे तो उनका भी एक उपनाम धरा गया। लोग उनको खोंखा कहने लगे।आज भी ऐसे कई लोग हैं जिनके उपनाम हैं।बहरहाल, जो सरजू था न वो बड़ा दिलचस्प भी था कई मामलों में। झगड़ालु तो बिल्कुल नहीं था। पर, एक खास प्रसंग याद आ रहा है। वो यूं है कि एक बार धान की कटाई हो रही थी। सरजू सहित कई कटनिहार लगे हुए थे।सतरह बोझा पर एक बोझा बन्न का होता था। बन्न का बोझा सामान्य बोझे से काफी भारी होता था। 

सरजू ने भी खूब रच-रचकर बन्न का बोझ बांधा था। खेत में मैं ही बोझ उठा रहा था और मुझे ही बन्न फरियाना था। तब मैं इंटर में पढ़ता था। सबसे पहले सरजू का बन्न फरियाने का अवसर आया।मैंने उस बोझे को ले जाने से मना किया। सरजू ने हिला-डोलाकर दिखाया कि कहां बहुत भारी है। फिर भी हमने मना किया। खेत मालिक होने का एक गरूर था और भाषा भी वैसी ही ऐंठ वाली थी। 

सरजू ने आखिर में कहा कि  'रोक लऽ,रोक के राजा हो जा।' फिर जब बात थोड़ी आगे बढ़ी कि सरजू का मिजाज गरम। बहुत कड़ा प्रतिवाद किया था। मुझे याद है वह सब। पूरी एक तसवीर बन-बिगड़ रही है स्मृति पटल पर। इतना शांत सरजू और इतना कड़ा प्रतिवाद। 

बाद में जब मैं पार्टी (CPI - ML) से जुड़ा तो वह प्रतिवाद अनूठा लगने लगा। वह सरजू पार्टी के लिए दस-पाँच रुपये बतौर सहयोग देने लगा। कॉमरेड चंद्रमा प्रसाद को खाना भी खिलाने लगा। उसका छोटा भाई गरजन तब ज्यादा सक्रिय हुआ था।

उसके लिए और गाँव के बच्चों और युवकों के लिए होली का एक अलग आनंद हुआ करता था। एक फगुआ में उसने भंग जमा ली। भंग का रंग जब चढ़ा तो लगा मुँह से फटफटिया (मोटरसाइकिल) की आवाज़ एक सुर में निकालने। उसकी पत्नी और अगल बगल के लोगों को समझते देर नहीं लगी कि यह कुछ और नहीं भंग का रंग चढ़कर बोल रहा है। उसके आँगन में देखनिहार की भीड़ लग गई। और लगी तो देर तक लगी रही। एक दूसरे साल के फगुआ में वह लगा रटने कि 'हम बिआह करब, हम बिआह करब'। 

लड़के तो ताक में थे आ जमे तुरत। 'केकरा से बिआह करबऽ?' कहने लगा कि 'हेमा मालिनी से'। लड़के सब लगे हुहकार मचाने। तब से पत फगुआ उसके आँगन में बोलबाजियों की चलती रही। पर जिस साल उसका मंझला बेटा मरा था, सरजू ने भांग छूने की बात तो दूर, ताका तक नहीं था उधर। मन ही मन रो रहे थे पति-पत्नी। उस दिन कुछ देर सरजू को अपने पास रखा। पर जब तक रहा गुमसुम रहा। बेटे की मौत ने तोड़ दिया था अंदर से।

सरजू हमको मामा कहता था। उसकी पत्नी मामाजी कहती है। उसके चेहरे पर चेचक के चंद दाग थे। पर उसका मन बिलकुल बेदाग था। एकबार की बात है कि मेरे यहाँ एक बारात आई थी। आगंतुकों में नाश्ते का डिब्बा दिया जा रहा था। सरजू बाल्टी और जग लिए पानी चला रहा था। भीड़ कुछ कम हुई तो वह आया मेरे पास अपने एक बेटे को लेकर और कहा 'ऐ मामा एकरा के एगो डिब्बा दिया द।' 

हमने कहा कि 'अरे दे दे जाके अपनहीं।' पर, वह न गया और न उसको डिब्बा दिया। बच्चा उसका उसके आगे-पाछे ठुनुकता रहा। कुछ देर बाद मेरा जब उधर ध्यान गया तो समझ गया कि यह सरजू अपने से तो निकालकर देने से रहा। खुद लाकर मुझे देना पड़ा। सरजू को भी लाकर दिया कि अरे भाई तुम भी कुछ खा लो। ऐसा था वह।

अब वह नहीं है। उसकी पत्नी है। वह मामाजी कहेगी। मामा कहने वाला सरजू चला गया। नाम लेकर मामा कहता था। बलभद्र नहीं, बेलभदर मामा। एक लुंगी और एक कुरता के लिए उसने कह रखा था। धीरे से कहता था कुछ भी। जिस तरह धीरे से कुछ कहता था उसी तरह धीरे से चला गया। धीरे-धीरे वो बिसर जाएगा। पर मैं जबतक रहूँगा,रहेगा मेरे साथ। एक साथ हमने खेतों में काम किया है। पानी बराया है। करहा गढ़ा है। खलिहान की लिपाई की है। दवनी-ओसवनी की है। उसका जाना एक कुशल श्रमिक, एक सच्चे आदमी का जाना है।

 

(दो)

सरजू भैया


बात रामबृक्ष बेनीपुरी के 'सरजू भैया' की नहीं, हमारे गाँव वाले सरजू भैया की है। पूरा नाम सरजू सिंह। ठेहुना ऊपर धोती और आधा बाँह गोल गला वाली कमीज और एक छड़ी। गोड़ में जूता-चप्पल होना कोई जरूरी नहीं। वैसे ससुरारी जब जाना होता है तब तो उसकी दरकार उनको अवश्य समझ आती है। तब पूरी बाँह का कुरता पहनते हैं। लेकिन,छड़ी नहीं छोड़ते हैं। ऐसा नहीं कि छड़ी उनकी आज की जरूरत है। ऐसा नहीं कि वह बुढ़ापे का सहारा है। साँच बात तो यह है कि वे अभी बूढ़े हुए भी नहीं हैं। और उसको वे आज से थोड़े लिए हुए हैं। मैं जब और जहाँ से उनको देखता और पलटकर याद करता हूँ, यह छड़ी अवश्य दिखाई देती है। 

अब की पीढ़ी यानी टटकी पीढ़ी को तो नहीं जानता कि वह सरजू भइया में कितना दिलचस्पी रखती है। पर अपनी और अपनी की तुरंत बाद वाली की तो जानता ही जानता हूँ कि सरजू भइया से बिना लागे-लपिटाए किसी का मन ही नहीं लगता। सबके सब उनको 'राय जी' कहते। गाँव में राय जी मतलब सरजू भइया। जिनके वे बेटा-भतीजा लगते वे भी उनको रायजी ही कहते।भउजी, जो कि अब नहीं रही, उनको राय जी ही कहती थी,और सरजू भइया उसके ऐसा कहने पर कगरी काटते मुसकाते दिखते। जिसने यह दृश्य न देखा,मेरा मानना है कि उसने सरजू भइया को पूरे में नहीं देखा।

वे भइया होने के नाते लोकप्रिय नहीं थे, न चाचा या किसी के भतीजा होने के नाते। आन्ही आए, घटा घेरे, बूनी पड़े, घाम हो या लूक चले, जाड़-ठाड़ हो - किसी को बैल खरीदना-बेंचना हो, या गाय-भैंस - सरजू भइया को चैन नहीं। होत प्रात वे छड़ी लिए आ जाते उसके दुआर। चाहे कोई राजपूत हो या बराभन, अहीर हो कोइरी या कोहार या पासवान या गंडेरी या कोई भी जाति, हिन्दू या मुसलमान - सब उनके लिए एक समान। 

सब उनको खोजते आ जाते। सबके लिए वे निकल जाते। धांग देते पूरा गांव-जवार। सबके खूँटे की जानकारी रखते थे। खूँटे की जानकारी मतलब कि किसके यहाँ बैल है, गाय -भैंस है। बाछा-बाछी है, पाड़ा-पाड़ी है। किसका कितना मुनासिब दाम है। मवेशियों के सुभाव के साथ-साथ वे उनके मालिकों के सुभाव को भी कायदे से जानते थे। अपना हरज-गरज सब उनको कबूल था।


उनकी अपनी एक टीम हुआ करती थी। उस टीम के लोगों का अपना-अपना उपनाम हुआ करता था। एक जन को 'लुटाई सिंह' के नाम से लोग बुलाते थे। जबकि उनका अपना असली नाम अम्बिका सिंह है। इस टीम के एक सदस्य थे शिवधन यादव, एक काशी कहार। अम्बिका सिंह,शिवधन,काशी और सरजू भइया की इस चौकड़ी में से एक काशी छिटक गए हैं। कैंसर के कारण अल्लाह के प्यारे हो गए। 

साल-डेढ़ साल हुआ, भउजी भी सरजू भइया का साथ छोड़कर चली गई। माल-मवेशी का बाज़ार भी ठप है। गाँव के गाँव बैलों से खाली हैं। गाय-भैंस भी अब कोई रखना नहीं चाहता। नाद-चरन, खूँटे सब उड़स गए। दुआर-दालान की बैठकियाँ उड़स गईं। रायजी और लुटाई सिंह भी पहले की तरह नहीं बैठते। लेकिन राय जी की छड़ी अभी भी उनके साथ है। लोग कहते हैं कि कभी-कभी काफी उदास हो जाते हैं सरजू भइया। हफ़्ता-दस दिन गुमसुम। बूनी-बदरी में तो और। लोग छेड़ते हैं तो भी कुछ नहीं बोलते। अबकी जो गाँव गया तो पूछा -

'का हो रायजी, ससुरारी गइला कतना दिन भइल त कहलें तनी कगरी प मुस्कात--गइल रहीं, दू -तीन दिन पहिले।'

                  


(तीन)


लल्लू महतो


आज अपने गाँव पहुंचा, कल होली है। होली परिवार और गाँव के लोगों के साथ मनाने गाँव पहुंचा।  

रात 9:20 मिनट पर गाँव के लोगों ने होलिका दहन किया। इसी बीच मालूम हुआ की पाँच-छह दिन पहले लल्लू महतो का देहांत हो गया है। एक तरफ मेरी नज़रों के सामने होलिका का दृश्य था और दूसरी तरफ लल्लू महतो के गुज़र जाने का दुःख मन में घुमड़ रहा था। लल्लू महतो जब जवान थे तब होलिका दहन वाले स्थान पे ढोलक-झाल लिए हाज़िर रहते थे और होलिका दहन के उपरांत उनके नेतृत्व में उसी जगह पर लोग ताल ठोकते थे, होली के गीत गाया करते थे। आज उनका न रहना अखर रहा है। 

करीबपाँच-सात साल पहले रामनाथ सिंह का देहांत हुआ था।  ये भी गीत-गवनई के शौक़ीन थे। रामनाथ सिंह और लल्लू महतो हमउम्र भी थे। अब कहा जा सकता है कि लल्लू  महतो के जाने के बाद इस तरह का कोई व्यक्तित्व गाँव में नहीं रहा। मैं लल्लू महतो के प्रति अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ। वे किसान थे, गीत-गवनई के शौक़ीन थे,सहज और सरल भी थे। 


होली अब पहले की तरह नहीं मनाई जाती है और लोग पहले की तरह गाते-बजाते भी नहीं है। पर मैं मन ही मन लल्लू महतो के द्वारा गाये गए गीतों की पंक्तियों को दोहरा रहा हूँ -  


'अँखिया भइली लाल

अँखिया भइली लाल

एक नीन सुते द बलमु हो...'

और

'बाबू कुंवर सिंह तेगवा बहादुर / बांग्ला में उड़े ल अबीर।'


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 डाॅ.बलभद्र अपने प्रगतिशील विचारों व देशज अंदाज़ के लिए जाने जाते हैंं। हाशिए के नागरिकोंं से उन्हें बेपनाह मुहब्बत है। उन्हीं के साथ खेत की माटी मेंं लोटने मेंं बलभद्र जी को आनंद आता है। आजकल झारखण्ड के गिरिडीह के एक काॅलेज में अध्यापनकार्य। संपर्क : +91 81272 91103 



अपभ्रंश और हिंदी भाषा : कुछ अनसुलझे सवाल - दीपशिखा सिंह








अपभ्रंश और हिंदी भाषा : कुछ अनसुलझे सवाल

दीपशिखा सिंह 


अपभ्रंश को कुछ विचारकों और भाषा वैज्ञानिकों ने आधुनिक आर्यभाषाओं के विकासक्रम की एक कड़ी माना है। कुछ ऐसे विचारक और भाषा वैज्ञानिक भी हैं जिन्होंने आधुनिक आर्यभाषाओं की पृष्ठभूमि में अपभ्रंश के बजाय ‘देशी’ को महत्त्व दिया है। ‘देशी’ की कल्पना तत्कालीन समाज की प्रादेशिक भाषाओं के रूप में की गयी है। इसे हम लोकभाषा भी कह सकते हैं। ‘देशी’ शब्द का प्रयोग सिर्फ अपभ्रंश के समानांतर ही नहीं किया गया है बल्कि प्राकृत साहित्य के साथ भी ‘देशी’ शब्द मिलता है। ‘देशी’ का प्रयोग दो रूपों में किया गया है - पहला तो शब्द के रूप में दूसरा भाषा के रूप में। भरत, रूद्रट, हेमचंद्र आदि ने ‘देशी’ का प्रयोग शब्द के विशेषण रूप में किया है और पादलिप्त, उद्योतन, कोऊहल, स्वयंभू आदि ने इसका प्रयोग भाषा के संदर्भ में किया है। शब्द और भाषा दोनों रूपों में ‘देशी’ का प्रयोग लम्बे समय से संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश के साथ चला आ रहा है। रामविलास शर्मा ने ‘देशी’ प्रयोग के इसी साक्ष्य के आधार पर ‘प्राकृत’ और ‘अपभ्रंश’ को कृत्रिम भाषा माना है। ‘भाषा और समाज’ और ‘भारतीय साहित्य के इतिहास की समस्याएँ’ पुस्तकों में इन्होंने विस्तार से ‘प्राकृत’, ‘अपभ्रंश’ और ‘देशी’ की विवेचना एक-दूसरे के परिपे्रक्ष्य में की है। महत्त्वपूर्ण है कि आधुनिक आर्यभाषाओं के साथ ही द्रविड़ भाषाओं के विकासक्रम की चर्चा भी रामविलास शर्मा ने विस्तार से की है। उन्होंने किसी भी भाषा और उसके साहित्य के विकासक्रम को सामाजिक व राजनीतिक संदर्भ के साथ अलग-अलग रेखांकित करने की कोशिश की है। वास्तव में यही दृष्टिकोण सही भी है क्योंकि भाषा पर आश्रित होने के बावजूद साहित्य का अपना एक अलग समाजशास्त्र होता है, जैसे अनेक लोक प्रचलित भाषाओं या बोलियों में कोई लिखित सामग्री उपलब्ध नहीं होती इससे कत्तई यह निष्कर्ष नहीं निकालना चाहिए कि उस भाषा का अस्तित्व ही नहीं है। डाॅ. रामविलास शर्मा ने प्राकृत, अपभ्रंश और देशी भाषाओं की जो विवेचना की है उसके मूल में किशोरीदास वाजपेयी का यह मत है कि हिंदी का विकास संस्कृत से नहीं हुआ है -

"हिंदी की उत्पत्ति उस संस्कृत भाषा से नहीं है, जो कि वेदों में, उपनिषदों में तथा वाल्मीकि या कालिदास आदि के काव्यग्रंथों में हमें उपलब्ध है।"[1]  

गुलेरी जी ने भी ‘पुरानी हिंदी’ में यही स्थापना दी है कि हिंदी का विकास संस्कृत से नहीं हुआ है। नहर और नदी के रूपक के माध्यम से इसे स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा है - 

"सदा इस संस्कृत नहर को देखते-देखते हम असंस्कृत या स्वाभाविक, प्राकृतिक नदियों को भूल गये और फिर जब नहर का पानी आगे स्वछंद होकर सूत से नपे हुए किनारों को छोड़कर जल स्वभाव से कहीं टेढ़ा कहीं सीधा, कहीं गंदला, कहीं निखरा, कहीं पथरीली, कहीं रेतीली, भूमि पर और कहीं पुराने सूखे मार्गों पर प्राकृतिक रीति से बहने लगा तब हम यह कहने लगे कि नहर से नदी बनी है, नहर प्रकृति है और नदी विकृति (हेमचंद्र ने अपने प्राकृत व्याकरण का आरम्भ ही यों किया है कि संस्कृत प्रकृति है, उससे आया इसलिये प्राकृत कहलाया) यह नहीं कि नदी अब सुधारकों के पंजे से छूटकर फिर सनातन मार्ग पर आयी है।"[2]  

गुलेरी जी और वाजपेयी जी दोनों विद्वानों ने एक मूल भाषा के अस्तित्व को स्वीकार किया है। दोनों के विचार में फर्क यह है कि गुलेरी जी ‘छंदस’ के बाद संस्कृत और प्राकृत की दो धाराएँ मानते हैं और वाजपेयी जी छंदस की भाषा से पहले ही मूल भाषा को दो रूपों में विकसित मानते हैं। अब ‘प्राकृतों’ के संदर्भ में भी चर्चा कर लें। वाजपेयी जी के अनुसार मूल भाषा के बाद से ही आम बोलचाल की भाषाएँ प्राकृत हैं। इस प्रकार आधुनिक आर्यभाषाओं के विकास से पूर्व प्राकृत की तीन अवस्थाओं को वाजपेयी जी ने स्वीकार किया है। गुलेरी जी ने छंदस के बाद प्राकृत की अवस्थाओं को स्वीकार किया है - 

"वैदिक भाषा का प्रवाह प्राकृत में बहता गया और संस्कृत में बँध गया।"[3]  

गुलेरी जी और वाजपेयी जी दोनों लोगों ने ‘मध्यवर्ती प्राकृत’ या ‘साहित्यिक प्राकृत’ जिसका विभाजन देशभेद के आधार पर किया जाता है, जो मुख्यतः जैन रचनाओं में मिलती है; को सिर्फ साहित्यिक भाषा स्वीकार किया है आम बोलचाल की भाषा नहीं। स्पष्ट है कि इस साहित्यिक प्राकृत के समानांतर लोकभाषाओं के अस्तित्व को दोनों विचारकों ने स्वीकार किया है और आधुनिक आर्यभाषाओं के उदय की पृष्ठभूमि में इन भाषाओं का महत्त्वपूर्ण योगदान है। इन भाषाओं को ही ‘देशी’ भाषा के रूप में स्वीकार किया गया है। अपभ्रंश की निर्मिति में इन देशी भाषाओं के योगदान को स्पष्ट करते हए गुलेरी जी ने लिखा है - 

"देशी और कुछ नहीं, बाँध से बचा हुआ पानी है या वह जो नदी मार्ग पर चला आया बाँधा न गया। उसे भी कभी-कभी छानकर नहर में ले लिया जाता था। बाँध का जल भी रिसता रिसता इधर मिलता आ रहा था। पानी बढ़ने सेे नदी की गति वेग से निम्नाभिमुखी हुई, उसका ‘अपभ्रंश’ (नीचे को बिखरना) होने लगा।"[4] 

किशोरीदास वाजपेयी ने भी हिन्दी के उदय की पृष्ठभूमि में प्राकृत की तीसरी अवस्था को स्वीकार किया है जिसका संबंध कुरू जनपद से था - 

"कुरू जनपद में प्राकृत का तीसरा रूप जो प्रचलित था, उसका नाम रूप कुछ भी हमारे सामने नहीं है ! प्राकृत के (दूसरी तथा तीसरी अवस्था के) जो भी रूप साहित्य में उपलब्ध हैं, उनसे हिन्दी की पटरी बैठती नहीं है।"[5]  

जिस प्रकार साहित्यिक प्राकृत को देशभेद के अनुसार विभाजित किया गया है जबकि उसके मुख्यतः दो तीन भेद ही मिलते हैं उसी प्रकार अपभ्रंश का भी भेद किया गया है। गुलेरी जी के अनुसार उपलब्ध साहित्यिक अपभ्रंश का मूल क्षेत्र वही है जो कभी शौरसेनी प्राकृत का क्षेत्र था -

"अंतर्वेद, ब्रज, दक्षिणी पंजाब, टक्क, भादानक, मरू, त्रवण, राजपूताना, अवंती, परियात्र, दशपुर और सुराष्ट्र - यहीं की यह भाषा एक ही मुख्य अपभ्रंश थी जैसे पहले देशभेद होने पर भी एक ही प्राकृत थी।"[6]  


रामविलास जी की अपभ्रंश सम्बन्धी मान्यताओं और हिन्दी की पृष्ठभूमि का केन्द्र यही बिन्दु है। जहाँ गुलेरी जी के अनुसार हिन्दी की पृष्ठभूमि में अपभ्रंश है वहीं वाजपेयी जी की दृष्टि में साहित्यिक अपभ्रंश के ही समानांतर कुरू प्रदेश की कोई अन्य भाषा। हिन्दी की पृष्ठभूमि में कुरू प्रदेश की किसी प्राकृत को स्वीकार करने के बावजूद वाजपेयी जी ने प्राकृत की तीसरी अवस्थाओं के अस्तित्त्व को नहीं नकारा है। उनके अनुसार - 

"कई कड़ियाँ टूटी हैं। कुछ भी हो, साहित्य में उपलब्ध प्राकृतों में से कोई भी ऐसी नहीं है, जिसे हिन्दी (खड़ी बोली) का उद्गम माना जा सके। हाँ अवधी आदि का सम्बन्ध उनसे जरूर है।"[7]  
यदि अवधी आदि का सम्बन्ध प्राकृत की तीसरी अवस्था से मिलता है तो निश्चित तौर पर ‘अपभ्रंश’ का सम्बन्ध तत्कालीन समाज में प्रचलित क्षेत्रीय बोलियों से है। ये बोलियाँ धीरे-धीरे विकसित होती हुई साहित्यिक अपभ्रंश के रूप में उपलब्ध हैं। हिन्दी का विकास अपभ्रंश से नहीं हुआ है, वाजपेयी जी के इसी मत को रामविलास शर्मा ने अपनी अपभ्रंश स्थापनाओं का आधार बनाया है और संस्कृत, प्राकृत के साथ ही अपभ्रंश से भी देशी भाषाओं के संघर्ष को उजागर किया है। संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश के विरुद्ध देशी भाषाओं के संघर्ष को रामविलास जी ने अखिल भारतीय स्तर पर चिन्हित किया है। आधुनिक आर्यभाषाओं के साथ ही साथ द्रविड़ भाषाओं के विकासक्रम को भी रामविलास जी ने इसी परिपे्रक्ष्य में देखा है।

अपभ्रंश के संदर्भ में रामविलास जी की पहली स्थापना है कि अपभ्रंश कभी किसी प्रदेश में बोलचाल की भाषा नहीं रही है। इस स्थापना की पुष्टि के लिए उन्होंने अनेक तर्क दिये हैं। पहला यह कि उसका ध्वनितंत्र कृत्रिम प्राकृतों के ध्वनितंत्र से साम्य रखता है इसलिए वह साहित्यिक प्राकृतों के समान एक कृत्रिम भाषा है। हालाँकि उसके रूप तंत्र को आधुनिक आर्यभाषाओं से जुड़ा हुआ रामविलास जी ने भी स्वीकार किया है - 
"प्रसिद्ध है अपभ्रंश का ध्वनितंत्र लगभग वही है जो प्राकृत का है। अपभ्रंश के रूपतंत्र में देशी भाषाओं के रूपतंत्र के लक्षण मिलते हैं। स्पष्ट ही अपभ्रंश में एक आंतरिक विरोध है। इसका ध्वनितंत्र प्राकृत की ओर मुँह किये है और रूपतंत्र देशी भाषाओं की ओर।"[8]  
रामविलास जी के अनुसार किसी दो भाषाओं का अस्तित्व तभी स्वीकार किया जा सकता है जब उनका रूपतंत्र भिन्न हो, उनके व्याकरण और मूल शब्द भंडार में फर्क हो। ध्वन्यात्मक साम्य या वैषम्य के स्तर पर दो भाषाओं का अस्तित्व नहीं स्वीकार किया जा सकता। रामविलास जी की ही कसौटी पर अपने रूपतंत्र के आधार पर अपभ्रंश स्वतः प्राकृत से भिन्न भाषा सिद्ध हो जाती है। रही व्याकरण रचना की बात तो प्राकृत और अपभ्रंश क्या हिन्दी का भी व्याकरण संस्कृत व्याकरण को ही आधार मानकर बनाने की परम्परा रही है। संस्कृत-प्राकृत और आधुनिक आर्यभाषाओं के संदर्भ में रामविलास जी ने लिखा है - 
"संस्कृत-प्राकृत का मुख्य भेद ध्वनि संबंधित है जबकि संस्कृत और आधुनिक आर्यभाषाओं का भेद ध्वनि के अलावा रूप-गठन और मूल शब्दभंडार से सम्बन्धित भी है।"[9]  
अपभ्रंश के रूप गठन के संदर्भ में रामविलास जी ने स्वीकार किया है - 
"अपभ्रंश में प्राकृत की अपेक्षा देशी भाषाओं की रूप विविधता अधिक झलकती है, इसका प्रमाण केर है।"[10]  

रामविलास जी ने संस्कृत और हिन्दी के धातु रूपों का तुलनात्मक अध्ययन करते हुए उन रूपों को एक ही मूल धातु से विकसित उच्चारण भेद माना है -
"जब हम कहते हैं कि स्वप्, सस् और सो एक ही मूल धातु के तीन रूप हैं, तो उसका अर्थ इतना ही है कि धातु मूलतः एक है; उच्चारण भेद के कारण वह तीन रूपों में मिलती है।"[11]  
यहाँ रामवलिास जी ने यह अवश्य ध्यान दिया है कि वे प्राकृत का सम्बन्ध सीधे वैदिक से जोड़ते हैं - 
"रोने के लिए संस्कृत में रू (रूवति) और रूद् (रोदित) दो धातुएँ हैं। हिंदी ‘रो’ का सम्बन्ध रोद् से है, लेकिन उसके दकार-हीन रूप से। रोना संज्ञा रोदन से नहीं बनी; वह सीधे प्राचीन रो धातु से बनी है। रूद् की तुलना में रू-वाली धातु प्राचीन माननी चाहिए और रो को रू के समकक्ष। उत्तररामचरित में सीता राम के लिए कहती हैं: परूण्णो होदि। इसका संस्कृत रूप है: प्ररूदितो भवति। स्पष्ट ही रूदितो से रूण्णो नहीं बना; उसका सम्बन्ध वैदिक रू से है।"[12]  
सुनीति कुमार चटर्जी सदृश विद्वानों की हिंदी के विकास की सुगम नसेनी संस्कृत › प्राकृत › अपभ्रंश › हिंदी का विरोध करते-करते रामविलास जी ने हिंदी धातु रूपों के निर्माण की एक नयी नसेनी बना डाली।

अपभ्रंश बोलचाल की भाषा नहीं थी इसे सिद्ध करने के लिए रामविलास जी ने दूसरा तर्क दिया है कि अपभ्रंश णकार बहुला भाषा है और चूँकि हिंदी में ‘ण’ से शुरू होने वाले शब्द नहीं हैं अतः हिंदी की पृष्ठभूमि में अपभ्रंश नहीं हो सकती इसलिए अपभ्रंश बोलचाल की भाषा नहीं थी। पहली बात तो ये कि यदि किसी भाषा की शब्द परम्परा हिंदी में मिलती है या नहीं; इसे उस भाषा के बोलचाल की भाषा न होने की कसौटी नहीं माना जाना चाहिए। यह सही है कि हिंदी णकार बहुला भाषा नहीं है लेकिन जिन भागों में आज भी णकार बहुला भाषा का प्रयोग आम बोलचाल में किया जाता है उसकी पूर्वज बोली कौन सी है ? क्या कोई णकार बहुला भाषा ही नहीं रही होगी। दूसरी बात कि जब मूल धातु के अलग-अलग उच्चारण भेद को रामविलास जी ने स्वीकार किया ही है तो ‘न’ और ‘ण’ के स्थानीय उच्चारण भेद को स्वीकार करने में इतनी परेशानी क्यों ?

रामविलास जी का तीसरा तर्क तत्कालीन साहित्य में उपलब्ध भाषागत विभिन्नता को लेकर है - 
"अपभ्रंश पर कृत्रिम प्राकृतों का प्रभाव है; उसमें बोलचाल की भाषा के कुछ रूप ही आये हैं, वह बोलचाल की भाषा नहीं है। जैसे गोरखवाणी और पुष्पदंत की भाषा में अंतर है, वैसे ही एक कवि, विद्यापति की मैथिल और उनकी अपभ्रंश में अंतर है।"[13]  
विद्यापति और उनके अपभ्रंश एवं मैथिली की चर्चा आगे की जायेगी। पुष्पदंत और गोरखनाथ का समय लगभग एक ही है जिसे सामान्यतः 10वीं-11वीं सदी कहा जा सकता है। 10वीं-11वीं सदी तक अपभ्रंश किसी क्षेत्र की बोली से विकसित होते-होते साहित्यिक भाषा के रूप में प्रतिष्ठित हो चुकी थी। देश के बड़े भू-भाग में इसका साहित्यिक भाषा के स्तर पर प्रयोग होने लगा था इसी का उदाहरण है पुष्पदंत की रचनाएँ; जो अर्काट और मान्यखेट में रहते हुए अपभ्रंश में लिखी जा रही थीं। निश्चित तौर पर इस साहित्यिक भाषा का रूप अपनी मूल बोली से काफी-कुछ बदल चुका होगा और जिस बोलचाल की भाषा से इसका विकास हुआ उस बोलचाल की भाषा का रूप भी पिछले पाँच-छह सौ वर्षों में काफी परिवर्तित हो गया होगा। जब कोई दक्षिण भारतीय व्यक्ति उत्तर भारत की किसी भी भाषा में रचना करेगा तो वह उसका शुद्ध साहित्यिक रूप ही ग्रहण करेगा जबकि उसी प्रदेश या उसके आस-पास रहने वाले व्यक्ति की भाषा में बोलचाल की भाषा का पुट अधिक रहेगा। यही फर्क पुष्पदंत और गोरखवाणी की भाषा में है। गोरखनाथ का सम्बन्ध उत्तरी और पश्चिमी पंजाब से है स्पष्टतः उनकी भाषा पर उस भू-भाग में आम बोलचाल में प्रचलित बोलियों का प्रभाव अधिक पड़ा है। वैसे गोरख की रचनाओं की हस्तलिखित प्रतियाँ 17वीं या 18वीं शती की लिखी हुई हैं। ऐसे में गोरखनाथ की रचनाओं की मूल भाषा के विषय में अनुमान ही लगाया जा सकता है। फिर भी गोरखनाथ और पुष्पदंत की भाषा में अंतर स्वाभाविक है। रामविलास जी के अनुसार -
"प्रत्येक भाषा को बोलियों का एक समुदाय मानना चाहिए। इस समुदाय में से कुछ बोलियों के आधार पर जातीय भाषा के रूप में किसी एक बोली का विकास बाद की प्रक्रिया है।"[14]  

अपभ्रंश जातीय भाषा है या नहीं लेकिन भाषा विकास की जिस प्रक्रिया का उल्लेख रामविलास जी ने किया है वह अपभ्रंश पर भी इसी रूप में लागू होती है। साहित्यिक भाषा बनने से पूर्व अपभ्रंश का भी एक बोलचाल का स्वरूप अवश्य रहा होगा। लेकिन रामविलास जी की दृष्टि साहित्यिक अपभ्रंश की भ्रष्टता पर ही अधिक केन्द्रित है -

"अपभ्रंश में न केवल संस्कृत का भ्रष्ट रूप है, वरन् उसमें आधुनिक भाषाओं का भी भ्रष्ट रूप प्रस्तुत किया गया है। अपभ्रंश साहित्य में हम हिंदी रूपों को जहाँ-तहाँ पहचान सकते हैं, किन्तु संस्कृत-प्राकृत के बाद उसे विकास की कड़ी नहीं मान सकते।"[15]  

प्रश्न यह है कि जब हिंदी और अन्य आधुनिक आर्य भाषाओं के विकासक्रम में संस्कृत और प्राकृत की नसेनी का विरोध रामविलास जी ने किया और यह ठीक भी है तब संस्कृत-प्राकृत के विकास की कड़ी ढूँढ़ने की आवश्यकता क्या है? रही बात प्राकृत के बाद साहित्यिक भाषा के विकास की तो इस रूप में अपभ्रंश का महत्त्व स्वयंसिद्ध है। जहाँ तक अपभ्रंश के साहित्यिक रूप के विकास की बात है तो पुनः गुलेरी जी का रूपक याद आता है कि देशी और नहर के जल से रिसते हुए पानी से जो नदी बही वह भ्रष्ट कहलायीं रामविलास जी भी 8-14वीं सदी तक की साहित्यिक भाषा का विश्लेषण करते हुए ऐसी ही भ्रष्टता से मुक्त नहीं हो पाये। अपभ्रंश में संस्कृत और आधुनिक भाषाओं के भ्रष्ट रूपों के आधार पर यह नहीं कह सकते कि उसका सम्बन्ध कभी किसी क्षेत्र की बोलचाल की भाषा से नहीं था। सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण यह है कि अपभ्रंश और प्राकृत के रूप निर्माण में क्या भिन्नता है! क्या अपभ्रंश में भ्रष्ट रूपों का निर्माण उसी नियम की तरह किया जाता था जो प्राकृत में थे और जिनका उल्लेख रामविलास जी ने किशोरीदास वाजपेयी के हवाले से किया है ? वैसे भी किसी बोली से विकसित हुई साहित्यिक भाषा का स्वरूप एक स्थिरता लिये हुए होता है जबकि बोलचाल की भाषा का स्वरूप निरंतर बदलता रहता है। हर विकसित और साहित्य में पूर्णतः प्रतिष्ठित भाषा के अपने कुछ नियम और प्रयोग बन जाते हैं और अपभ्रंश के साथ भी ऐसा ही है। छठवीं सदी से विकसित होते-होते उस बोली का स्वरूप बहुत बदल गया होगा वह वही अपभ्रंश नहीं रही होगी जिसका प्रयोग विद्यापति द्वारा या प्राकृत पैंगलम् में किया गया। हालाँकि रामविलास जी के अनुसार अपभ्रंश सिर्फ अपभ्रंश है चाहे वह पूर्ववर्ती हो या परवर्ती! रामविलास जी का यह नियम अन्य भाषाओं पर लागू क्यों नहीं होता है? क्या तुलसी की अवधी वही है जो आजकल अवध क्षेत्र में बोली जाती है? क्या तुलसी की अवधी तत्कालीन समय में भी आम बोलचाल की अवधी से जरा भी भिन्न नहीं रही होगी ? तुलसी और जायसी की अवधी में या सूर और जगन्नाथदास रत्नाकर के ब्रज में कोई फर्क नहीं है? फिर एक ही भाषा अपभ्रंश को लेकर रामविलास जी का यह भाषा-स्थिरता का नियम क्या उनके पूर्वग्रह को स्पष्ट नहीं कर रहा है ?


अपभ्रंश के सम्बन्ध में रामविलास जी की दूसरी मान्यता है कि अपभ्रंश का व्यवहार मतवाद के कारण हुआ। वह भी संस्कृत और प्राकृत के समान सम्प्रदाय की भाषा थी - 
"यह तथ्य रोचक है कि अपभ्रंश के रचनाकार जैन, बौद्ध और शैव ही अधिक थे। या तो इन मतों से भाषा सम्बन्धी क्रांतिकारिता का विशेष सम्बन्ध था, या अपभ्रंश के रचनाकार लोक भाषाओं की मिलावट से एक विशेष प्रकार की भाषा तैयार कर रहे थे जिसे गुरु और उसके शिष्य ही समझ सकते थे।"[16]  
सबसे पहली बात यह कि अपभ्रंश साहित्य सिर्फ जैन, बौद्ध और शैव सम्प्रदाय तक ही सीमित नहीं है। कालिदास के यहाँ अपभ्रंश के जो दोहे मिले हैं उनका सम्बन्ध किस सम्प्रदाय से है? दूसरी बात कि तत्कालीन धार्मिक परिस्थिति में संक्रमण का जो दौर चल रहा था उसमें जैन और बौद्ध तो घोषित रूप से वेद बाह्य धर्म थे और शैव मत अपने कुछ रूपों में वेदानुकूल था और कुछ रूपों में वेद बाह्य भी। ऐसे में यदि वेद बाह्य धर्मों की कुछ शाखाएँ देववाणी और जिन वाणी के रूप में स्वीकृत संस्कृत और प्राकृत की अवहेलना कर एक नयी साहित्यिक रूप ग्रहण करती हुई भाषा का प्रयोग करती हैं तो उनका एक विस्तृत सामाजिक निहितार्थ भी है। साथ ही यह भाषा के समाजशास्त्र से भी सम्बंधित है और एक भाषा की सशक्त अभिव्यक्ति क्षमता को भी स्पष्ट करता है कि प्रबंध और प्राकृत में पारंगत जैन रचनाकारों को भी अपभ्रंश ने अपनी ओर आकर्षित किया। शैवों को भी अपनी उदार वैराग्यपूर्ण दर्शन की वाहक भाषा अपभ्रंश लगी संस्कृत और प्राकृत नहीं। अनेक धर्मों में इस भाषा के प्रयोग का कारण इसकी साहित्यिक भाषा के रूप में लोकप्रियता भी हो सकती है। अपभ्रंश के निर्माण की जिस प्रक्रिया की ओर रामविलास जी का संकेत है वैसी सम्प्रदायगत शब्दावलियाँ संत कवियों तक में मिलती हैं। इससे यह निष्कर्ष निकालना कहाँ तक उचित है कि कबीर आदि संत भी एक ऐसी भाषा में अपने विचार दे रहे थे जिसे उनके गुरु और शिष्य ही समझ सकते थे। सिद्धों की शब्दावलियों के कारण अपभ्रंश को एक सम्प्रदाय की भाषा मानना उचित नहीं है। गोरखनाथ आदि के यहाँ भी कुछ सम्प्रदायगत शब्दावलियों का प्रयोग है जबकि उनकी रचनाओं में बोलचाल की भाषा का पुट अधिक है ऐसे में हम उनकी भाषा को सम्प्रदाय की भाषा कहकर उसे कृत्रिम सिद्ध नहीं कर सकते हैं। जहाँ तक अपभ्रंश की बात है तो सिद्ध रचनाकारों ने इसे अपने विचारों को प्रकट करने का माध्यम बनाया न कि वे अपभ्रंश भाषा के निर्माणकर्ता थे। जहाँ तक सरहपा आदि सिद्धों का सम्बन्ध है तो वे वज्रयान से जुड़े हुए नहीं थे बल्कि मंत्रनय के अन्य भेद सहजयान से जुड़े थे। राहुल सांकृत्यायन के ‘वज्रयान और चैरासी सिद्ध’ के हवाले से रामविलास जी ने सिद्धों की जिस साधना का विश्लेषण किया है उसका स्वरूप वज्रयान और सहजयान दोनों में भिन्न-भिन्न है। वज्रयान की जिस एकांत साधना का उल्लेख रामविलास जी ने किया है सरहपा आदि सहज सिद्ध उसी कमल कुलिश की अराजकता के कारण सहजयान की ओर प्रवृत्त हुए। जो साधना रामविलास जी की नजर में गुप्त गोष्ठियों में ही सम्भव होने वाली थी सरहपा भी उसे निर्वाण का साधन नहीं मानते बल्कि उसे सुरति विलास का ही साधन कहा है। तांत्रिकता के जिस प्रभाव स्वरूप बौद्ध धर्म में वामाचारी साधना का प्रसार हुआ उसका भी अपना एक विशेष सामाजिक आधार है। रामशरण शर्मा ने इस पर विस्तार से विचार किया है। साथ ही यह भी सही है कि व्यापक सामाजिक सरोकार से जुड़े इस आंदोलन का प्रतिफलन कुछ धर्मों में अराजक रूप में हुआ। बौद्ध वज्रयान में तांत्रिकता की यह परिणति अपने चरम पर हुई, लेकिन रामविलास जी का यह कथन इस रूप में उचित नहीं है कि - 
"इस साधना से जो भाषा सम्बद्ध थी, वह अपभ्रंश थी।"[17]  
तंत्र-साधना से जुड़ी मुख्य भाषा संस्कृत थी गुह्यसमाजतंत्र, तंत्रालोक आदि ग्रंथ इसका प्रमाण हैं और बाद में बहुत सारी प्रादेशिक लिपियों जैसे बंगला (हेवज्रतंत्र) उड़िया आदि में तंत्र सम्प्रदाय से जुड़े ग्रंथ मिले हैं। कुछ जनजातियों की भाषा में भी और गुप्त लिपियों में लिखित ग्रंथ मिले हैं जैसे ‘सर्वज्ञानोत्तर तंत्र’, ‘योगरत्नमाला’, ‘परमेश्वरीतंत्र’ और ‘महाकौलज्ञानविनिर्णय’ आदि। वज्रयानी साधना के अराजक रूप से अलग सहज सिद्धों ने अपभ्रंश को अपने विचारों का माध्यम बनाया। इस स्थिति में सरहपा का स्थान यदि गौतम बुद्ध के समकक्ष न हो तब भी उन्हें एक नयी साहित्यिक भाषा के प्रचार-प्रसार का श्रेय देना ही पड़ेगा।

रामविलास जी ने लिखा है - 
"हेमचंद्र अपभ्रंश सिखाने के लिए अपना व्याकरण रच रहे हैं प्राकृत भी सिखानी है और अपभ्रंश भी। उन्हें सिखानी है जिन्हें संस्कृत आती है, इसलिए सूत्र संस्कृत में रखे हैं, उनका वार्तिक भी संस्कृत में लिखा है।"[18]  
हेमचंद्र अपभ्रंश सिखाने के लिए व्याकरण लिख रहे हैं या नये रूप में विकसित होती हुई अपभ्रंश को व्याकरण के माध्यम से बाँधने के लिए। साहित्यिक भाषा के रूप में अपभ्रंश का प्रयोग कालिदास के यहाँ से ही मिलने लगता है और 7वीं - 8वीं शताब्दी तक तो अपभ्रंश का प्रयोग एक प्रतिष्ठित साहित्यिक भाषा के रूप में होने लगा था। हेमचंद्र ने 12वीं सदी के पूर्वार्द्ध में अपभ्रंश का व्याकरण लिखा। 12वीं सदी के पूर्वार्द्ध तक परवर्ती अपभ्रंश भाषा एक नया रूप ले चुकी थी जिसे हेमचंद्र ग्राम्य अपभ्रंश कहते हैं जिसका रूप संदेशरासक और प्राकृत पैंगलम् के कुछ अंशों में देखा जा सकता है। 'उक्ति व्यक्ति प्रकरण' में भी परवर्ती अपभ्रंश का प्रयोग देखा जा सकता है। इसके बाद यह भाषा जिस रूप में विकसित हुई वह अवहट्ठ कहलायी। शिवप्रसाद सिंह के अनुसार - 
"हमारे विचार से अवहट्ठ परवर्ती अपभ्रंश का वह रूप है जिसके मूल में परिनिष्ठित अपभ्रंश यानी शौरसेनी है। व्यापक प्रचार के कारण इसमें कई रूप दिखायी पड़ते हैं। परवर्ती अपभ्रंश या अवहट्ठ भिन्न भिन्न स्थानों की क्षेत्रीय भाषाओं से प्रभावित हुआ है, जैसा हर साहित्य-भाषा होती है।"[19]  
हेमचंद्र ने शौरसेनी अपभ्रंश का ही व्याकरण लिखा है जो तब तक परिनिष्ठत भाषा हो चुकी थी। हेमचंद्र ने या तो इस परिनिष्ठत अपभ्रंश का रूप स्थिर करने के लिए व्याकरण की रचना की या फिर संस्कृत और प्राकृत के साथ ही साथ अपभ्रंश में भी अपनी विद्वता प्रकट करने के लिए क्योंकि हेमचंद्र ने जिन दोहों को उदाहरण स्वरूप दिया है वे स्वयं उनके बनाये हुए नहीं हैं। वे पूर्वप्रचलित दोहे थे जिन्हें हेमचंद्र ने संकलित किया। अपभ्रंश के सूत्र और वार्तिक संस्कृत में लिखने से ही स्पष्ट है कि हेमचंद्र ने संस्कृत व्याकरण के आधार पर ही अपभ्रंश का व्याकरण लिखने का प्रयास किया। जिस भाषा का उद्भव और विकास बोलचाल की भाषा से हुआ हो और जो लोक भाषा के स्वरूप को ग्रहण करते हुए विकसित हो रही थी यदि उसके व्याकरण को संस्कृत की कसौटी पर कसा जायेगा तो उसका रूप कैसा होगा; रामविलास जी के ही शब्दों में -  
"संस्कृत के आधार पर अपभ्रंश का व्याकरण लिखने का परिणाम यह है कि उन्हें अनेक संस्कृत शब्दों के देशी प्रतिरूप देते हुए आदेश सम्बन्धी सूत्र रचने पड़ते हैं। मूल शब्द कंकण, इसका आदेश हुआ चूडला; मूल शब्द ताप, इसका आदेश हुआ झलक। इस प्रकार जितने शब्द संस्कृत में न मिले, संस्कृत धातुओं से सिद्ध न हों, उन्हें आदेश सूत्रों से सिद्ध किया गया। पर ऐसे शब्दों की संख्या बहुत थी; जितने शब्द थे, उतने ही सूत्र रचने पड़ते। इसलिए अलग से देशी शब्दों  की सूची बना दी, नाम रखा देशी नाममाला।"[20]  
स्पष्ट है कि हेमचंद्र की दृष्टि में भी जिन शब्दों की व्युत्पत्ति प्रकृति-प्रत्यय के विचार के आधार पर नहीं थी वे सब देशी हैं। हेमचंद्र भी भरत और रूद्रट से आगे जाकर ‘देशी’ के सम्बन्ध में न सोच सके। हेमचंद्र की ‘लक्षण सिद्धता’ भी व्युत्पत्ति का प्रकृति-प्रत्यय नियम ही है। ‘देशी’ के सम्बन्ध में वैयाकरणों के संकुचित दृष्टिकोण को समझते हुए ही पिशेल ने लिखा है - 
"ये वैयाकरण प्राकृत और संस्कृत के प्रत्येक ऐसे शब्द को देशी कह सकते हैं जिसकी व्युत्पत्ति संस्कृत से न निकाली जा सके।"[21] 
जब वैयाकरणों की दृष्टि में प्राकृत और संस्कृत के शब्दों की व्युत्पत्ति के लिए प्रकृति-प्रत्यय नियम अनिवार्य था ऐसे में अपभ्रंश या अन्य लोकभाषाओं के शब्दों के विषय में उनका दृष्टिकोण क्या रहा होगा!

रामविलास जी के अनुसार अपभ्रंश इसलिए भी कृत्रिम भाषा है और उसका विकास मतवाद के कारण हुआ, क्योंकि अपभ्रंश ग्रंथों की संस्कृत टीकाएं लिखी गईं। पूरे मध्यकाल तक साहित्य के मूल्यांकन का आधार संस्कृत काव्यशास्त्र रहा है। टीकाएं किसी भी ग्रंथ की व्याख्या के लिए लिखी जाती थी लेकिन टीका लेखन का सम्बन्ध भी इस संस्कृत काव्यशास्त्रीय परम्परा से ही जुड़ा हुआ था। जिस युग में हर तरह के साहित्य के मूल्यांकन की कसौटी एक खास अभिजनवादी दृष्टिकोण वाली काव्यशास्त्रीय परम्परा ही रही हो, वैसी परिस्थिति में इस आधार पर किसी भाषा को कृत्रिम ठहराना कहाँ तक उचित है कि उसमें रचे ग्रंथें की टीकाएं संस्कृत में मिलती हैं। जब हम आधुनिक काल से पहले साहित्य के मूल्यांकन का काव्यशास्त्रीय परम्परा से अलग कोई आधार ही नहीं विकसित कर पाये थे तब यह उम्मीद कैसे की जा सकती है कि लोकभाषाओं में लिखित ग्रंथों की व्याख्या लोकभाषा में ही प्राप्त हो ! रामविलास जी ने लिखा है - 
"अपभ्रंश और संस्कृत में मौलिक अंतर यह था कि संस्कृत एक समय बोलचाल की भाषा रह चुकी थी और शिष्ट जनों की भाषा बहुत दिनों तक रही पर अपभ्रंश (या प्राकृत) कभी भी बोलचाल की भाषा नहीं थी, न शिष्ट जनों की भाषा थीं होती तो संस्कृत में भाष्य लिखने की नौबत न आती।"[22] 
इस अंश से ऐसा मालूम पड़ता है मानो पूरे मध्यकाल तक शिष्ट जन संस्कृत ही बोलते रहे हों। साथ ही यह भी सम्भव है कि जब अपभ्रंश बोलचाल की भाषा रही हो तो उसे शिष्ट जनों ने कभी प्रयोग न किया हो लेकिन अपभ्रंश न तो कभी बोलचाल की भाषा थी और न ही शिष्ट जनों की; इससे रामविलास जी का क्या आशय है? अपभ्रंश साहित्यिक भाषा के रूप में तो प्रतिष्ठित हो चुकी थी लेकिन रामविलास जी के अनुसार शिष्ट जन उसका प्रयोग नहीं करते थे। फिर वे कौन से अशिष्ट जन थे जिन्होंने अपभ्रंश का प्रयोग किया बौद्ध, जैन, शैव या चारण रचनाकार ! अन्यत्र रामविलास जी ने स्वीकार किया है कि 
"अपभ्रंश शिष्ट जनों के साहित्य का माध्यम थी। यह पश्चिमी अपभ्रंश बंगाल को भी आच्छादित किये हुए थी, यह सत्य है।"[23] 
इससे पहले यह सिद्ध हो चुका है कि प्रथम प्राकृत पाली का सम्बन्ध भी शौरसेनी से सम्बंधित किसी मध्यदेशीय भाषा से है। इसके बाद प्राकृत मुख्यतः दो रूपों में साहित्य का माध्यम बनी शौरसेनी और महाराष्ट्री। अवहट्ठ भी शौरसेनी आधार के साथ अनेक लोकभाषाओं का रूप ग्रहण करती हुई विकसित हुई। हिंदी जो वर्तमान में पूरे देश की साहित्यिक अभिव्यक्ति का माध्यम बनी हुई है; का सम्बन्ध भी इसी पश्चिमी प्रदेश से है। अपने समय में इसी पश्चिमी प्रदेश और शौरसेनी से संबंधित भाषा बंगाल तक शिष्ट जनों के साहित्यिक अभिव्यक्ति का माध्यम बनी रही। फिर इस बात से गुरेज क्यों कि अपभ्रंश कभी बोलचाल की भाषा नहीं रही ! किसी विस्तृत क्षेत्र की साहित्यिक अभिव्यक्ति के माध्यम भाषा से उसके जन्म का आधार छीनना कहाँ तक उचित है। हिंदी आज एक व्यापक क्षेत्र में साहित्यिक अभिव्यक्ति का माध्यम है। सिर्फ इसलिए यह तो नहीं कहा जा सकता कि यह शिष्ट जनों के साहित्यिक अभिव्यक्ति का माध्यम है अतः यह बोलचाल की भाषा नहीं है। व्यापक क्षेत्र में साहित्यिक माध्यम बनने वाली हर भाषा का कहीं न कहीं एक निश्चित जन्मस्थान होता है और उस निश्चित स्थान पर वह बोलचाल की बोली ही होती है।

अपभ्रंश कृत्रिम साहित्यिक भाषा थी इसे सिद्ध करने के लिए रामविलास जी ने विद्यापति का भी उदाहरण दिया है। विद्यापति ने अपभ्रंश में नहीं अवहट्ठ में लिखा है। अवहट्ठ के स्वरूप पर शिवप्रसाद सिंह ने विस्तार से लिखा है। विद्यापति ने जिस भाषा का प्रयोग 'कीर्तिलता' में किया है वह न तो सिद्धों की अपभ्रंश है और न स्वयंभू और पुष्पदंत जैसे रचनाकारों की। न ही 'कीर्तिलता' की भाषा को मैथिल अपभ्रंश कहा जा सकता है जिससे मैथिली विकसित हुई। रामविलास जी ने यह बिल्कुल ठीक कहा है कि 
"उससे मैथिल भाषाका जन्म नहीं हुआ है; मैथिल भाषा में उसके समानांतर साहित्य रचा जा रहा था।"[24] 
बावजूद इसके इन्होंने परवर्ती और पूर्ववर्ती भाषा भेद को स्वीकार नहीं किया है। किसी भी भाषा के स्वरूप को समझने के लिए उसकी विकास प्रक्रिया को समझना बेहद आवश्यक है। कब उसमें क्या परिवर्तन आये इसे लक्ष्य करना भी जरूरी है। रामविलास जी भी इस तथ्य से बखूबी परिचित हैं और दूसरी भाषाओं के विकास को समझने के लिए उन्होंने इस वैज्ञानिक दृष्टिकोण को ही अपना आधार बनाया है। विद्यापति 14वीं शताब्दी में अवहट्ठ और मैथिली दोनों में लिख रहे थे। दामोदर पंडित 12वीं सदी में ही ‘उक्ति व्यक्ति प्रकरण’ की रचना कर चुके थे जिसकी भाषा को सुनीति कुमार चटर्जी ने ‘पुरानी कोसली’ कहा है। जिसे रामविलास शर्मा किसी भी आधुनिक आर्य भाषा का पहला व्याकरण मानते हैं - 
"अतः उक्ति व्यक्ति प्रकरण को आधुनिक आर्य भाषा का प्रथम व्याकरण मानना चाहिए, और यह आधुनिक आर्य भाषा अवधी है।"[25] 
साथ ही यह भी सत्य है कि उक्तिव्यक्तिप्रकरण की भाषा में परवर्ती अपभ्रंश का भी प्रयोग हुआ है। यदि उक्तिव्यक्तिप्रकरण को आधार बनाकर पूर्ववर्ती अपभ्रंश और अवहट्ठ का मूल्यांकन किया जाय तो यह स्पष्ट रूप में पता चलता है कि 12वीं सदी से आधुनिक आर्यभाषाओं ने अपना रूप ग्रहण करना प्रारम्भ कर दिया था। ध्यातव्य है कि अपभ्रंश का स्वरूप परिवर्तित होता जा रहा था और वह अवहट्ठ का रूप ग्रहण कर एक नई साहित्यिक भाषा बन रही थी। एक विस्तृत क्षेत्र के रचनाकार अवहट्ठ को साहित्य का माध्यम बना रहे थे इसीलिए अवहट्ठ की रचनाओं में कई लोकभाषाओं के रूपों को ढूँढा जा सकता है। विद्यापति ने भी अवहट्ठ को साहित्य सृजन का माध्यम बनाया साथ ही उन्होंने मिथिला क्षेत्र की विकसित होती हुई भाषा मैथिली में भी रचना की। आज भी बहुत से रचनाकार हिंदी के साथ-साथ अपनी मातृभाषा में भी रचना करते हैं। इससे न तो हिन्दी कृत्रिम साहित्यिक भाषा मानी जा सकती है और न ही अन्य भाषाओं को हिंदी से विकसित माना जा सकता है। हिंदी के व्यापक विस्तार का अपना सामाजिक आधार है उसी प्रकार अवहट्ठ के साहित्यिक विस्तार का भी अपना एक निश्चित आधार रहा होगा।

12वीं सदी में ही उक्तिव्यक्तिप्रकरण की रचना की गई है और रामविलास जी के अनुसार दामोदर पंडित का उद्देश्य इस ग्रंथ के माध्यम से अवधी जानने वालों को संस्कृत सिखाना है - 
"यद्यपि दामोदर पंडित का उद्देश्य अवधी व्याकरण लिखना न था, फिर भी उनकी पुस्तक अवधी का व्याकरण बन गई है।"[26] 
जबकि आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी के अनुसार - 
"ऐसा अनुमान किया गया है कि पुस्तक राजकुमारों को काशी - कान्यकुब्ज की भाषा सिखाने के उद्देश्य से लिखी गई थी।''[27] 
इसका कारण यह है कि गाहड़वार राजवंश स्थानीय राजवंश नहीं था बल्कि ये लोग बाहर से आये थे। इसी कारण इनके दरबार में आरम्भ में देश भाषा और उसके रचनाकारों को कोई प्रश्रय नहीं मिला। गाहड़वार वैदिक धर्म के उपासक थे और अपने श्रेष्ठता बोध व धार्मिक लगाव के कारण इन्होंने संस्कृत को ही महत्त्व दिया, लेकिन कालांतर में स्थानीय जनता और वहाँ से जुड़ने की प्रवृत्ति इस राजवंश में आई और उक्तिव्यक्तिप्रकरण जैसी रचना इसका प्रमाण है। प्राकृतपैंगलम् में भी जयचंद्र के मंत्री विद्याधर का अपभ्रंश छंद मिलता है और कई अपभ्रंश छंद काशी नरेश से संबंधित हैं। किशोरीदास वाजपेयी ने भी मध्यदेश में अपभ्रंश कृतियों के अभाव के पीछे गाहड़वार राजवंश के बाहर से आने और स्थानीय संस्कृति की उपेक्षा करने की ओर संकेत किया है।

 यह पुस्तक भी उन लोगों को संस्कृत सिखाने के लिए लिखी गई जिन्हें पहले से ही थोड़ा बहुत संस्कृत व्याकरण का ज्ञान हो क्योंकि रामविलास जी के अनुसार 12वीं सदी में अलग-अलग प्रदेशों के लोगों की संपर्क भाषा संस्कृत थी और दामोदर पंडित के लिए अवधी बोलने वालों का संस्कृत जानना अधिक आवश्यक था और इस आवश्यकता के मूल में - 
"कान्यकुब्ज उस समय हिंदी प्रदेश का केन्द्र था। यहाँ का सामंतवर्ग संस्कृत को प्रश्रय देता था। यहाँ के ब्राह्मणों के लिए संस्कृत जानना आवश्यक था। ये ब्राह्मण सामान्य जीवन में अवधी बोलते थे।"[28] 
यदि कन्नौज का सामंतवर्ग संस्कृत को प्रश्रय देता था तब वह हिंदी प्रदेश का केन्द्र कैसे हो गया और वहाँ के ब्राह्मण सामान्य बोलचाल में अवधी बोलते थे! जब 12वीं सदी तक पूरे मध्यदेश के ब्राह्मण अवधी ही बोलते थे तब कन्नौजी आदि बोलियों का आदिरूप क्या था ? क्या उनका विकास अवधी से हुआ है या हिंदी से या संस्कृत से ? व्याकरणिक और ऐतिहासिक दोनों दृष्टियों से ऐसा संभव नहीं है। जहाँ तक ‘अपभ्रंश’ शब्द का सम्बन्ध है तो स्वयं दामोदर पंडित के अनुसार - 
"उक्तावपभ्रंशभाषिते व्यक्तीकृतं संस्कृतं नत्वा तदेव करिष्याभिः इत्यर्थः ... अथवा नाना प्रकारा प्रतिदेशं विभिन्ना येयमपभ्रंशवाग्रचना णामराणां भाषित भेदाभेदात्तद्वहिष्कृतं ततोऽन्यादृशम्। तद्धि मूर्खप्रलपितं प्रतिदेशं नाना।"[29]  
इस संदर्भ में शिवप्रसाद सिंह ने लिखा है - 
"ग्रंथकार ने इस देशभाषा का कोई विशिष्ट नाम न देकर अपभ्रंश नाम दिया है, परन्तु इस अपभ्रंश शब्द का उसके मन में वही अर्थ नहीं है जो हेमचंद्र के अपभ्रंश का यानी परिनिष्ठित अपभ्रंश का है। ‘उक्ति’ का अर्थ है लोकोक्ति यानी लोक में प्रचलित भाषा पद्धति, उसकी व्यक्ति यानी विवेचना, स्पष्टीकरण जो इस ग्रंथ में किया गया है।"[30]  
स्पष्ट है ‘अपभ्रंश’ शब्द का प्रयोग साहित्य से लेकर भाषा तक सिर्फ रूढ़ अर्थ में नहीं प्रयुक्त हुआ है जिसे रामविलास जी स्थापित करना चाहते हैं और न ही 700 वर्षों तक उसका अर्थ या स्वरूप स्थिर रहा है। जहाँ तक कान्यकुब्ज से लेकर बनारस तक के पंडितों के अवधी बोलने की बात रामविलास जी ने कही है, उसके पीछे भी अपभ्रंश के रूढ़ शब्दार्थ प्रयोग का आग्रह है। इसीलिए पूरे लेख में रामविलास जी को जगह-जगह यह स्वीकार करना पड़ता है कि अपभ्रंश में अवधी के तत्त्व काफी हैं और चर्यागीतों से लेकर राउरवेल तक की भाषा के संदर्भ में यह स्वीकृति है। दामोदर पंडित ने चाहे संस्कृत सिखाने के लिए ही ग्रंथ लिखा हो लेकिन इससे एक ऐसे अपभ्रंश का स्वरूप स्पष्ट होता है जिसे बाद में पुरानी कोसली और अवधी के रूप में पहचान मिली।



रामविलास जी ने यह स्वीकार किया है कि एक लम्बे समय तक साहित्यिक भाषा के रूप में पश्चिमी अपभ्रंश पूर्वी प्रदेशों में भी प्रतिष्ठित थी और इसीलिए रामविलास जी ने यह भी स्वीकार किया है कि अपभ्रंश में अनेक जनपदीय भाषाओं के तत्त्व मिलते हैं क्योंकि जनपदों की भाषाएँ विद्यमान हैं। हालाँकि अपभ्रंश की यह भूमिका भी रामविलास जी की दृष्टि में प्रतिगामी है क्योंकि अपभ्रंश बोलचाल की भाषा नहीं है और जब विभिन्न जनपदीय भाषाएं जैसे ब्रज और अवधी एक स्थान पर मिलती हैं तो भाषिक विकास की दृष्टि से उनकी भूमिका प्रगतिशील है क्योंकि दोनों बोलचाल की भाषा है - 
"जनपदीय भाषाओं का यह परस्पर संपर्क बोलचाल की भाषा के स्तर पर जायसी में दिखायी देता है साहित्यिक रूढ़ भाषा के स्तर पर अपभ्रंश में दिखाई देता है।"[31] 
पहली बात तो जायसी के समय में विभिन्न जनपदीय भाषाओं का जो स्वरूप विकसित हो चुका था वह राउरवेल, उक्तिव्यक्तिप्रकरण या संदेशरासक तक की भाषा में नहीं विकसित था दूसरी बात कि किसी प्रदेश में बोलचाल की भाषा का स्वरूप निर्धारित करने का निश्चित मापदण्ड क्या होना चाहिए। एक बड़े प्रदेश में साहित्यिक भाषा को छोड़कर सामान्य बोलचाल की भाषा के अनेकों रूप होते हैं और साहित्यिक भाषा भी उस स्थानीय बोली के अनुरूप बदलती रहती है। जैसे हिंदी साहित्यिक भाषा का स्वरूप वही नहीं है जो बोलचाल की भाषा का है और न ही वह उसी रूप में प्रयोग की जाती है। यदि मेरठ क्षेत्र के व्यक्ति की भाषा को ही हिंदी कहा जाये या बोलचाल की हिंदी मान लिया जाय तो बिहार प्रदेश में हिंदी बोलने वाले व्यक्ति की भाषा को बोलचाल की हिंदी नहीं कहा जा सकता। तब तो हिंदी की जातीय भाषा की संकल्पना भी खंडित हो जायेगी। अपभ्रंश ही एक ऐसी भाषा रही है जो एक बड़े प्रदेश की लगभग सभी बोलियों का पालन-पोषण लम्बे समय तक करती आयी जब तक कि वे विकसित होती हुई स्वतंत्र रूप से प्रयोग में न आने लगीं। अपभ्रंश की इस प्रगतिशील भूमिका को उसे संस्कृत और प्राकृत की श्रेणी में रखकर नकारा नहीं जा सकता है। यदि काशी के दामोदर पंडित अवधीयुक्त अपभ्रंश में व्याकरण लिख रहे थे तो यह उस भाषा का रूढ़ भाषिक प्रयोग नहीं है बल्कि एक ऐसी भाषा का प्रगतिशील ढाँचा है जिसमें बोलियाँ अपने निश्चित स्वरूप को तलाशती विकसित हो रही हैं। हर युग और हर समय का साहित्यकार अपने समय के प्रगतिशील भाषिक ढाँचे को अपनाने और उसे सुरक्षित रखने के लिए स्वतंत्र होता है। भाषाओं का अंतर्विरोध उनके विकास की प्रक्रिया को स्पष्ट करता है चाहे अवधी, हिंदी, ब्रज का हो या बँगला, असमिया और उड़िया का या गुजराती, मराठी, कन्नड़ का। देशी भाषाओं और अपभ्रंश के आंतरिक अंतर्विरोध को भी इसी भाषिक विकास के परिपे्रक्ष्य में देखा जाना चाहिए। आठवीं शताब्दी में अपभ्रंश की जो प्रगतिशील सामाजिक भूमिका थी वही 12वीं या 13वीं शताब्दी में नहीं रह गयी उस स्थान पर नयी भाषाओं या जनपदीय बोलियों का आगमन उस स्वाभाविक भाषिक विकास का परिणाम है लेकिन इससे यह कत्तई सिद्ध नहीं होता कि अपभ्रंश मात्र एक कृत्रिम साहित्यिक भाषा रही है उसका कहीं कोई बोलचाल का स्वरूप नहीं रहा होगा या उसका सम्बन्ध सिर्फ समाज के प्रतिगामी तत्त्वों से रहा है।

एक ओर तो रामविलास जी आधुनिक आर्य भाषाओं का विकास अपभ्रंश से भिन्न पुरानी देशी भाषाओं से मानते हैं वहीं दूसरी ओर वे एक बोली हिंदी से सभी भाषाओं के सम्बन्ध को स्थापित करते हुए जातीय भाषा की संकल्पना करने लगते हैं। उन्होंने लिखा है - 
"ब्रज से लेकर असम तक बोलचाल की भाषा में मूर्धन्य ण का बाहिष्कार हैं बाँगरू, पंजाबी, राजस्थानी, मराठी में इसकी भरमार है। एक विशाल प्रदेश से यह ध्वनि अचानक गायब क्यों हो गई और दूसरे विशाल प्रदेश में वह विद्यमान कैसे रही?''[32] 
आगे रामविलास जी ने सिद्ध किया है कि किस प्रकार संस्कृत और वैदिक भाषा मूर्धन्य नासिक्य ध्वनि के अभाव वाले क्षेत्र से संबंधित हैं और बाद में ण्-युक्त ध्वनियों को संस्कृत के भवन पर सजाया गया। अनुमान है इसी ण-विहीन क्षेत्र की बोलियाँ ब्रज से लेकर असम तक के क्षेत्र में आती हैं। अपभ्रंश की णकारता उस मूल भाषा (वैदिक भाषा और संस्कृत) के संस्कृतीकरण का रिक्थ है। रामविलास जी के अनुसार उत्तर भारत के सभी जनपद एक-दूसरे को छंद, काव्यरूप और भाषा के सभी स्तरों पर प्रभावित करते रहे हैं क्योंकि उत्तर भारत में पश्चिम से पूर्व की ओर क्रमशः आर्यों का विकास हुआ और आर्यभाषाओं का भी।

बाँगला का सम्बन्ध इसी आधार पर हिंदी से स्थापित करते हुए इन्होंने लिखा है कि - 
"यदि 17वीं सदी में पूर्वी और पश्चिमी हिंदी के रूप बँगला में प्रचलित थे, तो स्पष्ट है कि पूर्वी-पश्चिमी हिंदी के निर्माण से पहले बँगला का निर्माण भी न हो सकता था।''[33] 
रामविलास जी का पूर्वी और पश्चिमी हिंदी से क्या तात्पर्य है? सीधे-सीधे ये क्यों नहीं कहा जा रहा है कि ब्रज, अवधी, मगही, मैथिली और भोजपुरी आदि के संदर्भ में बातचीत की जा रही है। जब बात जनपदीय भाषाओं के स्तर पर की जा रही है तो पूर्वी हिंदी या पश्चिमी हिंदी जैसे शब्द एक भ्रम रचते हैं। जहाँ तक पूर्वी हिंदी और पश्चिमी हिंदी के रूप के बाँगला में प्रचलित होने की बात है तो पश्चिमी हिंदी में बांगरू जैसी णकार युक्त बोलियाँ भी हैं ऐसे में अपभ्रंश रचनाकारों के चर्यागीतों में बांगला के आदिरूप को ढूँढ़ने को लेकर रामविलास जी को इतनी आपत्ति क्यों? जहाँ तक बांगला के साहित्यिक विकास की बात है तो वह ब्रज और अवधी के समानांतर मध्यकाल में एक पूर्ण विकसित साहित्यिक भाषा के रूप में स्थापित हो चुकी थी। कृत्तिवास, मालाधरवसु, दामोदर सेन और चण्डीदास आदि की रचनाएँ भाषा, काव्यरूप, छंद आदि के आधार पर पूर्ण विकसित रचनाएँ हैं। चूँकि रामविलास जी को हिंदी की जातीयता को बंगाल तक स्थापित करना है इसलिए प्राचीन काल में दूसरे शब्दों में कहें तो आर्यों के विस्तार काल में भाषा के सहयोगात्मक रवैये पर उनका ध्यान केन्द्रित है -  
"वर्तमान युग भारत में जातीय प्रतिद्वन्द्विता का युग है। जातीय सहयोग की आकांक्षा निर्बल है। इस कारण पुराने जमाने में जहाँ ऐसा जातीय सहयोग भाषा और साहित्य में हुआ है, उसे हम देखना नहीं चाहते या देखकर भी उससे उचित निष्कर्ष निकालना नहीं चाहते।"[34]  
अपभ्रंश और देशी भाषाओं के अंतर्विरोध को स्पष्ट करने के लिए रामविलास जी ने भाषाओं के विकास का विश्लेषण तत्कालीन राजनीतिक, आर्थिक व सांस्कृतिक परिपे्रक्ष्य में करने की कोशिश की है। इस संदर्भ में उन्होंने तमिल भाषा को भारत की पहली देशी भाषा कहा जो सर्वप्रथम साहित्य का माध्यम बनी। इसकी पृष्ठभूमि में उन्होंने तमिलनाडु के व्यापारिक विस्तार की चर्चा की है। किसी भी भाषा की जातीय गठन के लिए जिस व्यापारिक पूँजी की आवश्यकता को रामविलास जी ने चिह्नित किया है वह परिस्थितियाँ तमिलनाडु के तत्कालीन व्यापारिक विस्तार में ढूँढी गयी हैं। जिस व्यापारिक केन्द्र के संदर्भ में तमिलनाडु का विश्लेषण किया गया है वही व्यापार केन्द्र केरल में भी स्थापित थे। फिर क्या कारण थे कि तमिल पहली जातीय भाषा के साथ ही साथ वर्चस्व की भाषा भी बनी। रामविलास जी के अनुसार अपभ्रंश सामंती भाषा है इसलिए जहाँ-जहाँ सामंतवाद मजबूत रहा उन-उन प्रदेशों की देशी भाषाएँ अपभ्रंश के समकक्ष उभर नहीं पायीं। व्यापारिक दृढ़ता के कारण तमिलनाडु में सामंतवाद बाद में सुदृढ़ हुआ इसलिए तमिल भाषा का विकास सबसे पहले हुआ - 
"तमिलनाडु में व्यापार का विकास उस प्राचीनकाल में होता है जिस काल में अखिल भारतीय स्तर पर सामंती व्यवस्था अभी सुदृढ़ हो रही है। तमिलनाडु इस व्यवस्था के केन्द्रों से सर्वाधिक दूर है, इसलिए इस व्यवस्था के वहाँ तक पहुँचने और सुदृढ़ होने में कुछ अधिक समय भी लगा।"[35]
हालाँकि इसी निबंध में इससे पहले रामविलास जी ने लिखा है - 
"तमिल भाषा का जो प्राचीनतम साहित्य मिलता है, वह सामंती व्यवस्था का साहित्य है, प्राक्सामंती व्यवस्था का नहीं।"[36]  
आगे रामविलास जी ने लिखा है - 
"धर्म का अभ्युदय, उसका संघबद्ध रूप सामंती व्यवस्था की स्थापना और पोषण के लिए ऐतिहासिक रूप से अनिवार्य होता है। वैदिक-पौराणिक धर्म, बौद्ध धर्म और जैन धर्म इन तीनों के केन्द्र उत्तर भारत में थे। समस्त भारत में सामंती व्यवस्था के प्रसार के साथ इन तीनों धर्मों का प्रसार भी जुड़ा हुआ है। तमिलनाडु के साहित्य का कोई ऐसा युग नहीं है जब वह प्रदेश इन धर्मों के प्रभाव से पूर्णतः मुक्त रहा हो।"[37] 
यदि साहित्यिक भाषा के रूप में तमिल भाषा पहली देशी भाषा है तो वह भी सामंतीकरण की प्रक्रिया के बाद प्रतिष्ठित हुई। रामविलास जी के उपरोक्त कथनों से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है। फिर अन्य भाषाओं का विकास उसी सामंतवाद के विस्तार के कारण पीछे क्यों रह गया! जहाँ तक व्यापार की बात है तो भारत का पूरा पश्चिमी तट निरंतर व्यापार का केन्द्र रहा है फिर वहाँ की भाषाओं का साहित्यिक विकास उस रूप में क्यों नहीं हुआ?

दक्षिण भारतीय भाषाओं के विकास को समझने के लिए सामंतीकरण से अधिक महत्त्वपूर्ण है आर्यीकरण की प्रक्रिया को समझना। इस संदर्भ में द्रविड़ भाषाओं की विकास प्रक्रिया आ.आ.भा. की विकास प्रक्रिया से भिन्न हो जाती हैं। सम्पूर्ण भारत की लोकभाषाओं के विकास की न तो समान परिस्थितियाँ रही हैं और न ही उनके विकास का मूल्यांकन एक ही आधार पर किया जा सकता है। कुछ ऐसे राजनीतिक कारक रहे हैं जिनसे ये भाषाएँ समान रूप से प्रभावित हुई हैं लेकिन सिर्फ उनके आधार पर किसी तथ्यात्मक निष्कर्ष तक पहुँचना उचित नहीं है। दक्षिण भारतीय भाषाओं के विकास में आर्यीकरण का बहुत अधिक प्रभाव है। तमिल भाषा के जनक के रूप में अगस्त्य का नाम बहुप्रचलित है और यह आर्यीकरण की प्रक्रिया का ही परिणाम है जबकि नीलकंठ शास्त्री के अनुसार - 
"तमिल साहित्य की अब तक ज्ञात किन्हीं भी प्राचीन कृतियों में संगम-युग के संग्रहों में कहीं भी अगस्त्य ऋषि का स्पष्ट तथा निश्चित रूप से उल्लेख नहीं आया है, उनके अद्भुत कार्यों का तो और भी नहीं।"[38] 
बाद में अगस्त्य संबंधी जितने भी उपाख्यान तमिल साहित्य से जुड़ते चले गये वे सब एक लम्बे समय तक दक्षिण भारत के आर्यीकरण की प्रक्रिया के परिचायक हैं। तमिल भाषा साहित्य और संस्कृति के आर्यीकरण का प्रभाव था कि लम्बे समय तक वह दक्षिण भारत की वर्चस्वशाली भाषा रही। साहित्य ही नहीं मुद्रा-लेख में भी तमिल पहली द्रविड़ भाषा है। दूसरी शताब्दी के सातवाहन मुद्रा-लेख में प्राकृत के साथ-साथ तमिल के शब्द भी मिलते हैं। वशिष्ठी पुत्र शातकर्णि के मुद्रा के पृष्ठभाग में तमिल में लेख है। तमिल के प्राचीन प्रयोग और वर्चस्व के कारण ही यह मान्यता भी प्रचलित है कि द्रविड़ शब्द प्राचीन तमिल का ही विकसित रूप है और यह दक्षिण भारतीय भाषा परिवार की मूल भाषा थी जिससे अन्य भाषाएँ विकसित हुई हैं। जहाँ तक उत्तर भारत में अपभ्रंश और सामंतवाद के साथ-साथ बौद्ध और जैन धर्मों के देशी भाषाओं के विकास में बाधक होने की स्थापना रामविलास जी ने दी है वह द्रविड़ भाषाओं के विकास के संदर्भ में उलट जाती है। यदि भाषाओं का अंतर्विरोध ही देखना मुख्य ध्येय हो तो यहाँ प्राकृत और संस्कृत के साथ तमिल भाषा भी अन्य भाषाओं के विकास में बाधक सिद्ध होगी। वर्चस्वशाली भाषा या संस्कृति चाहे वह संस्कृत की हो या अन्य देशी भाषाओं की, उसका प्रभाव और परिणाम लगभग समान होता है। इस अंतर्विरोध का ठीकरा किसी एक वर्ग के मत्थे ठोंककर नहीं निकला जा सकता है और न ही यह कहा जा सकता है, 
"भारतीय सामंतवाद के ह्रासकाल की इस स्थिति को ध्यान में रखना आवश्यक है। तुर्कों और उसके बाद अँगरेजों की विजय इसी तरह की परिस्थितियों से संभव हुई। यहाँ का व्यापारी वर्ग इतना असंगठित और दब्बू था कि वह सामंती तंत्र के बदले नया प्रजातंत्र स्थापित करने में असमर्थ रहा।"[39]
पहली बात तो तमिल सामंतवाद के ह्रासकाल में नहीं बल्कि उसके बहुत पहले से ही वर्चस्व की भाषा थी। जैसा कि रामविलास शर्मा का मानना है यदि मलयालम् तमिल से प्राचीन भाषा है फिर भी उसका साहित्य बहुत बाद में मिलता है तो उसके पीछे तमिल का कितना प्रभाव है ! भाषा के साथ-साथ भौगोलिक और अन्य सामाजिक परिस्थितियाँ भी किसी दूसरी भाषा के विकास में उतनी ही उत्तरदायी होती हैं। लम्बे समय तक केरल पर तमिल के वर्चस्व के बाद मलयालम ने अपने संस्कृतिकरण के लिए वट्टेलुटू लिपि को छोड़कर तमिल पर आधारित नई लिपि को ग्रहण किया।

दक्षिण भारतीय भाषाओं के विकास में जैन और बौद्ध धर्मों के साहित्य का बहुत बड़ा योगदान है। तमिल के पंचमहाकाव्यों में से प्राप्त तीन महाकाव्यों के लेखक बौद्ध और जैन हैं। नीलकंठ शास्त्री ने लिखा है - 
"व्याकरण तथा कोश रचना के क्षेत्रों में उल्लेखनीय प्रगति हुई। यहाँ प्रमुखता जैन तथा बौद्ध लेखों की रही।"[40] 
कन्नड़ के अधिकांश आरंभिक रचनाकार जैन थे। कन्नड़ भाषा को साहित्य में पूर्णतः प्रतिष्ठित करने वाले मुख्य रचनाकार पम्प, पौन्न और रन्न तीनों जैन धर्मावलम्बी थे। अभिलेखों को छोड़ दें तो तेलगु साहित्य का प्रारम्भ ही नान्नय के महाभारत के अनुवाद से हुआ। क्या कारण थे कि 5वीं-6ठी सदी से ही अभिलेखों में प्रयुक्त होने वाली भाषा का साहित्य इतने वर्षों बाद मिलता है। कन्नड़ और तेलगु की प्रतिद्वन्द्विता भी स्पष्ट है। ऐसे में सिर्फ संस्कृत और प्राकृत ही नहीं बल्कि तमिल और कन्नड़ जैसी देशी भाषाएँ भी मलयालम और तेलगु के विकास में बाधक हुईं। तमिल और कन्नड़ जैसी भाषाओं को भी राजकीय और धार्मिक संरक्षण प्राप्त था। सातवाहनों के सिक्कों पर तमिल का प्रयोग मिलता है। बाद में पल्लवों ने भी आंध्र सिक्कों के अनुकरण पर ही सिक्कों का निर्माण करवाया। चाहे संस्कृत हो या तमिल, प्राकृत हो या कन्नड़ जिस भी भाषा का वर्चस्व एक बार स्थापित हो जाता है उसे तोड़ना अन्य भाषाओं या संस्कृतियों के लिए अत्यंत कठिन होता है। तेलगु की वाक्य शैली पर आरम्भ से ही संस्कृत का प्रभाव रहा है। इस रूप में यह कहना अत्यंत भ्रामक है कि बौद्ध और जैन धर्म के कारण सर्वत्र देशी भाषाओं का विकास अवरुद्ध रहा या सामंतवाद के ह्रासकाल में जो भी भाषाएँ थीं वह सिर्फ खास मतवाद के कारण बड़े भू-भाग में प्रचलित थीं। अन्य आ.आ.भा. या द्रविड़ भाषाओं के विकास में उनका परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से कोई योगदान नहीं था।

अपभ्रंश का मूल्यांकन करते हुए रामविलास जी ने लिखा है - 
"मतवाद के बाहर अपभ्रंश में जो साहित्य रचा गया, उसका आधार भारत का बिखरा हुआ सामंतवर्ग था जो वीरता और शृंगार के अतिरंजित वर्णन से अपना मनोरंजन करता था।"[41]  
यह स्पष्ट हो चुका है कि रामविलास जी किस मतवाद की बात कर रहे हैं। जहाँ तक अपभ्रंश रचनाओं में वीरता और शृंगार के अतिरंजित वर्णन की बात है, यह तत्कालीन समाज के एक बहुत बड़े यथार्थ का भी संकेत देता है। जहाँ युद्ध मनुष्य की नियति हो गयी थी और शृंगार उसी के दूसरे पक्ष के रूप में उभर कर आया था। रामविलास जी की यह स्थापना सही नहीं है कि अपभ्रंश का आधार धार्मिक रचनाओं से बाहर बिखरा हुआ सामंतवर्ग था। संदेशरासक जैसी रचना रामविलास जी द्वारा बनाये गये दोनों खाँचों से बाहर है। इस रचना में भाषा का जो प्रौढ़ रूप मिलता है उसे देखते हुए यह विश्वास नहीं किया जा सकता कि उस समय अपने तरह की यह एकमात्र रचना रही होगी। बीसलदेवरासो में कथानक का आधार निश्चित तौर पर राजसी है लेकिन वह दरबारी काव्य नहीं है और शृंगार के वर्णन में भी नरपति नाल्ह यथार्थवादी दृष्टि रखने वाला रचनाकार है। इस रूप में यह बिल्कुल नहीं लगता कि अब्दुर्रहमान या नरपति नाल्ह ने शृंगार के अतिरंजित वर्णन के उद्देश्य से संदेशरासक या बीसलदेवरासो की रचना की। यह सही है कि अपभ्रंश साहित्य में ऐसी रचनाएँ कम उपलब्ध हैं लेकिन इन्हीं के आधार पर अपभ्रंश के भाषिक और साहित्यिक विस्तार को समझा जा सकता है। 

अपभ्रंश को लेकर रामविलास जी की सबसे बड़ी शिकायत यह है कि उसने कोई जातीय एकता स्थापित नहीं की। इसकी स्थापना के लिए रामविलास जी ने लिखा है, 
"संस्कृत के माध्यम से भारत के सामंतों, व्यापारियों और विद्वानों ने जो एकता कायम की थी, वह छिन्न-भिन्न हो गई थी।''[42] 
सबसे महत्त्वपूर्ण बात कि संस्कृत के माध्यम से कौन-सी एकता स्थापित की गयी थी ! वर्चस्वशाली सांस्कृतिक एकता या फिर एक वृहद सामाजिक सरोकार से जुड़ी एकता ? एक ओर तो रामविलास जी लिखते हैं कि जहाँ-जहाँ सामंतवाद अधिक मजबूत रहा वहाँ देशी भाषाओं के विकास में और भाषिक स्तर पर जातीय निर्माण में संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश सदृश भाषाएँ बाधक सिद्ध हुईं वहीं दूसरी ओर उन्होंने संस्कृत के आधार पर एकता की बात की है। स्पष्ट नहीं है कि यह एकता जातीय थी या सांस्कृतिक या फिर प्रशासनिक ! अपभ्रंश ने संस्कृत और प्राकृत दोनों के वर्चस्व को तोड़ा है। अपभ्रंश साहित्य संस्कृत और प्राकृत के समानांतर लिखा जा रहा था और यदि उस समय सामंतों के आपसी संघर्ष तीव्र थे और राष्ट्रीय फलक पर कोई भी बड़ा राजतंत्र नहीं उभरा तो उसका उत्तरदायित्व किसी भाषा पर नहीं डाला जा सकता है। सामंतवाद के उदय ने अपभ्रंश साहित्य को फलने-फूलने के लिए उपयुक्त पृष्ठभूमि तैयार की तो उसका भी सामाजिक निहितार्थ है। तत्कालीन परिस्थिति में प्रादेशिकता को बढ़ावा मिला। इसके साथ ही साथ प्रादेशिक भाषा और संस्कृति का भी उभार हुआ। अपभ्रंश साहित्य सामंती व्यवस्था के ह्रासकाल का ही नहीं बल्कि उसके विकास काल का भी साहित्य है। उदय से लेकर ह्रासकाल तक स्वयं अपभ्रंश का रूप काफी बदलता गया और अन्य भाषाओं के समान वह भी भाषागत और साहित्यगत दोनों प्रकार की रूढ़ियों की शिकार हुई। आगे भी रामविलास जी ने लिखा है कि, 
"अपभ्रंश काल में संस्कृति के वैसे केन्द्र स्थापित नहीं होते जैसे हर्ष के समय में और उनसे पहले थे।"[43]  
और 
"हर्ष के समय तक संस्कृति का मुख्य माध्यम संस्कृत था। इसके बाद अपभ्रंश का समय आता है। संस्कृत अपनी ऐतिहासिक भूमिका पूर कर चुकी थी।"[44] 
यह सही है कि सातवीं-आठवीं सदी के बाद संस्कृत साहित्य में रचनात्मक रूप से मंदी का दौर शुरू होता है वहीं दूसरी ओर काव्यशास्त्रीय रूढ़ियों का विस्तार आरम्भ होता है। लेकिन संस्कृत के जिस सांस्कृतिक केन्द्रों की बात रामविलास जी ने की है उन केन्द्रों का विस्तार अब दूर-दराज के इलाकों में भी होने लगा था और इस रूप में उस संस्कृति का स्वरूप भी काफी-कुछ बदलने लगा था। यह सांस्कृतिक स्तर पर एक बड़े संक्रमण का दौर है न सिर्फ संस्कृत भाषा और उससे जुड़ी संस्कृति के लिए बल्कि अन्य भाषाओं और संस्कृतियों के संदर्भ में भी। धर्म व साहित्य दोनों में तांत्रिकता और मातृसत्तात्मक संस्कृति का प्रवेश व विभिन्न धर्मों व संस्कृतियों द्वारा अपने अनुसार इसका स्वरूप परिवर्तन व उसकी अंतर्भुक्ति इस तरह के संक्रमण का बहुत बड़ा उदाहरण है। इस संक्रमण की पृष्ठभूमि में तत्कालीन राजनीतिक व आर्थिक स्थिति है। इन बातों का तात्पर्य यह है कि यदि किसी खास दौर में किसी भाषा और उससे जुड़ी संस्कृति का स्वरूप विघटित होता है तो उसके महत्त्वपूर्ण सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक कारण होते हैं। यदि संस्कृत ने सांस्कृतिक केन्द्र स्थापित किये और अपभ्रंश ने वैसा कोई केन्द्र स्थापित नहीं किया तो उसके मूल में तत्कालीन राजनीतिक व सामाजिक परिस्थितियाँ थीं। हालाँकि राजपूताना से लेकर बंगाल तक साहित्यिक माध्यम बनने वाली भाषा के संदर्भ में ऐसा कहना उचित नहीं लगता क्योंकि हर दौर की संस्कृति के अपने आयाम व अपना स्वरूप होता है।

रामविलास जी ने अपभ्रंश के पोषक सामंती केन्द्रों को चिह्नित करते हुए लिखा है - 
"जिन सामंतों को राजपूत कहा जाता है, उनसे अपभ्रंश साहित्य के पोषण का घनिष्ठ संबंध है।"[45] 
राजपूतों की उत्पत्ति के संदर्भ में अनेक कथाएं प्रचलित हैं। सातवीं सदी के लगभग एक ऐसा दौर शुरू हुआ जब उत्तर भारत के राजाओं में स्वयं को राजपूत सिद्ध करने की होड़ सी दिखाई देती है और ब्राह्मणों ने उनके लिए लम्बी-लम्बी वंशावलियाँ भी तैयार कीं। इस संदर्भ में रोमिला थापर ने लिखा है कि, 
"यह संभवतः पहला अवसर था जब राजाओं ने अपनी क्षत्रिय हैसियत प्रमाणित करने के लिए जान-बूझकर सजग प्रयास किया। विगत राजवंशों ने अपनी जातीय स्थिति को महत्त्व दिए बिना शासन किया था और राजा होने के कारण उन्हें उच्च वर्णों का सदस्य मान लिया गया था।"[46]  
यह प्रक्रिया संभवतः उस दौर के सामाजिक संक्रमण के कारण जातियों की संख्या में होने वाली वृद्धि का परिणाम थी। राजपूतों का संबंध राजस्थान से जोड़ने में भी अनेक मिथक कार्य करते हैं और अपभ्रंश का सम्बन्ध भी उसी क्षेत्र से जोड़ा जाता है, इसलिए अपभ्रंश का संबंध राजपूतों से जोड़ना सहज है और राजस्तुतिपरक चारण रचनाएँ इसका प्रमाण हैं। यदि सामंतों की यह राजपूतीकरण की प्रक्रिया नहीं हुई होती तो भी तत्कालीन परिस्थिति में (राजपूताने के) चारण अपनी राजस्तुतिपरक रचनाओं को उसी रूप और भाषा में लिखते। इसलिए अपभ्रंश का संबंध किसी खास जाति या सम्प्रदाय से नहीं है। अपभ्रंश साहित्य की उपलब्ध रचनाएँ अधिकांशतः या तो धार्मिक हैं या फिर राजस्तुतिपरक इसलिए इस भाषा का संबंध किसी धर्म या तत्कालीन सामंतवाद से जोड़ना बहुत सरल हो जाता है। प्राचीनकाल के सांस्कृतिक या साहित्यिक उपलब्धियों के अध्ययन में यह भी निश्चित रूप से शामिल होना चाहिए कि क्या कुछ बचा रह गया है और क्यों ! उसका समाजशास्त्रीय अध्ययन भी होना चाहिए। उपलब्ध अपभ्रंश साहित्य का अध्ययन भी संरक्षण की प्रवृत्ति के संदर्भ में होना चाहिए। अपभ्रंश साहित्य में निश्चित तौर पर ऐसी रचनाएँ बहुत कम उपलब्ध हैं जिनका संबंध आम जन-जीवन से है न कि धार्मिक अथवा राजसी। हेमचंद्र, सोमप्रभ और मेरूतुंग की रचनाओं में आम जन-जीवन से संबंधित जो दोहे संकलित हैं; इतने वर्षों बाद उनकी उपलब्धि का कारण निश्चित तौर पर इन रचनाकारों का जैन धर्म में दीक्षित होना और इनकी रचनाओं को जैन संरक्षण प्राप्त होना है। ऐसा नहीं है कि तत्कालीन समाज मंे लोक प्रचलित दोहे उतने ही रहे होंगे जिनका संकलन इन रचनाकारों द्वारा किया गया है।
तत्कालीन समय राजनीतिक रूप से छोटे-छोटे राजाओं के आपसी संघर्ष और विघटन का काल है और इस पारस्परिक संघर्ष के कारण अरब, तुर्क और अफगानों की विजय हुई। निश्चित तौर पर "यह जर्जर सामंतवाद मध्य एशिया के लड़ाकू कबीलों का सामना करने में नितांत असफल सिद्ध हुआ।"[47] और पुरोहित वर्ग की भी इसमें बड़ी भूमिका रही। लेकिन इसकी जिम्मेदारी किसी भाषा पर नहीं डाली जा सकती है। गुप्त काल से ही राजनीतिक और आर्थिक स्तर पर इसकी पृष्ठभूमि का निर्माण शुरू हो गया था। धर्म व अन्य सांस्कृतिक उपादान भी इससे प्रभावित हो रहे थे। तीनों मुख्य धर्म नये रूप में विकसित हो रहे थे। आर्थिक ह्रास शुरू हो गया था। इस पृष्ठभूमि निर्माण की प्रक्रिया को रामशरण शर्मा के इस उद्धरण के माध्यम से स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है, 
"भूमि अनुदान प्रथा के उत्थान तथा शहरों के पतन, दोनों के पीछे कलियुग के संकट की पे्ररणा दिखाई देती है, और इन दोनों के कारण जो उत्पादन पद्धति उभरी उससे एक प्रकार की आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था का जन्म हुआ। ... इस प्रकार की अर्थव्यवस्था को एशियाई उत्पादन पद्धति की संज्ञा दी गई है। किंतु यह वस्तुतः सामंती अर्थव्यवस्था की मुख्य विशेषता प्रतीत होती है - खास तौर से उसके क्लासिकी दौर की विशेषता, जब उसके विघटन की प्रक्रिया प्रारम्भ नहीं हुई थी। लेकिन जैसे ही उत्पादन संबंध सामंती पद्धति पर संगठित होते हैं, वे संघर्ष के अनेक कारणों को जन्म देने लगते हैं।"[48]  
आपसी संघर्ष के दौरान इन राज्यों में साहित्य और कला का विकास भी होता रहा ऐसा नहीं कि सांस्कृतिक या सामाजिक स्तर पर कोई गतिशीलता नहीं थी। इस विघटन काल की सांस्कृतिक उपलब्धि अपभ्रंश साहित्य वास्तव में है लेकिन तत्कालीन राजनीतिक परिस्थिति के चलते न तो अपभ्रंश साहित्य को नकारात्मक दृष्टिकोण से देखा जाना चाहिए और न ही अपभ्रंश भाषा को कृत्रिम भाषा सिद्ध किया जाना चाहिए। जहाँ तक भाषिक स्तर पर जातीय संगठन और राजनीतिक उलटफेर का सवाल है तो वह किसी भी समय या समाज के राजनीतिक, आर्थिक व अन्य सामाजिक ढाँचों के ऊपर निर्भर करता है। इस रूप में यह बिल्कुल उचित नहीं है कि किसी खास दौर के भाषा और साहित्य का मूल्यांकन तत्कालीन सामाजिक राजनीतिक परिस्थिति के प्ररिपे्रक्ष्य के स्थान पर किसी खास धारणा से ग्रस्त होकर किया जाए। भाषा स्वयं कोई राजनीति नहीं करती, हाँ भाषा को आधार बनाकर राजनीति अवश्य की जाती रही है। यदि भारतीय सामंतवाद इतना मजबूत नहीं था कि बाहरी आक्रमणकारियों को रोक सके या फिर बौद्धों ने अरबों का साथ दिया और मुस्लिम साम्राज्य स्थापित होने के बाद बड़े स्तर पर धर्मपरिवर्तन किया तो इसमें अपभ्रंश भाषा की कौन-सी भूमिका थी ? भाषा की अपनी सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका सांस्कृतिक होती है। बंगाल में तो भाषिक जातीयता मजबूत थी फिर अँगरेजों को सबसे पहले बंगाल पर ही कब्जा जमाने में सफलता कैसे मिली। इसके लिए बांग्ला को उत्तरदायी कैसे ठहराया जा सकता है ? 90ः मुस्लिम आबादी होने के बावजूद आज भी बांग्लादेश की राजभाषा बंगाली है जिसे लगभग 98ः  बांग्लादेशी जनता बोलती है। ऐसी स्थिति में भाषा का मूल्यांकन करने की कसौटी राजनीतिक व धार्मिक उलटफेर को बनाना कहाँ तक उचित है ! ‘बहुजातीय राष्ट्रीयता और साहित्य’ शीर्षक निबंध में  स्वयं रामविलास जी ने लिखा है -
"भारत के उन प्रदेशों पर दृष्टिपात कीजिए, जहाँ की आधी अथवा आधी से अधिक जनता मुसलमान है। ये मुसलमान चाहे अरबों, तुर्कों, पठानों अथवा अन्य जातियों के वंशज हों, चाहे इनमें से अधिकांश बौद्ध या हिन्दू रहे हों और उनका धर्म परिवर्तन हुआ हो, हर प्रदेश में उनकी जातीयता वही है जो शेष जनता की है।"[49]  
यदि अपभ्रंश में प्रचलित साहित्यिक परम्परा, कथानक रूढ़ियाँ, काव्य रूप छंद आदि का विकास हिंदी साहित्य में मिलता है तो निश्चित रूप से अपभ्रंश साहित्य हिंदी साहित्य का आदिकाल है और इस रूप में इसका अध्ययन होना चाहिए। भाषिक स्तर पर रामविलास जी को बार-बार स्वीकार करना पड़ता है कि अपभ्रंश में अवधी आदि भाषाओं के रूप मिलते हैं और ऐसा कोई अपभ्रंश नहीं है जिसमें अवधी के रूप उपलब्ध न हों। हालाँकि ब्रजभाषा रामविलास जी की दृष्टि से ओझल है और उस पर विशेष चर्चा नहीं हुई है। ऐसे में यदि अवधी और ब्रजभाषा काव्य हिंदी साहित्य का मध्यकाल हो सकता है तो अपभ्रंश साहित्य आदिकाल क्यों नहीं हो सकता है ? यदि खास दृष्टिकोण के तहत अपभ्रंश साहित्य को हिंदी से अलगाया जाये तो उसी आधार पर अवधी और ब्रज साहित्य को भी हिंदी साहित्य से अलग किया जा सकता है। ऐसे में वृहद हिंदी क्षेत्र और हिंदी जाति की जो संकल्पना की जाती है वह छिन्न-भिन्न हो जायेगी। रामविलास जी ने यह सही कहा है कि, "पुरानी संस्कृति के अवशेष बहुत दिनों तक कायम रहते हैं। इससे यह सिद्ध नहीं होता कि नये युग का सूत्रपात नहीं हुआ।"[50]  लेकिन नये युग के सूत्रपात के साथ-साथ उसकी पृष्ठभूमि में पुरानी संस्कृति के अवशेष को नकारा नहीं जा सकता है।



संदर्भ सूची

1. हिन्दी शब्दानुशासन - पं. किशोरीदास बाजपेयी, पृ. 1
2. पुरानी हिंदी - चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’, पृ. 1
3. वही, पृ. 2
4. वही, पृ. 6
5. हिन्दी शब्दानुशासन - पं. किशोरीदास बाजपेयी, पृ. 14
6. पुरानी हिंदी - चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’, पृ. 9
7. हिन्दी शब्दानुशासन - पं. किशोरीदास बाजपेयी, पृ. 14
8. भारतीय साहित्य के इतिहास की समस्याएँ - रामविलास शर्मा, पृ. 96
9. भाषा और समाज - रामविलास शर्मा, पृ. 177
10. भारतीय साहित्य के इतिहास की समस्याएँ - रामविलास शर्मा, पृ. 116
11. भाषा और समाज - रामविलास शर्मा, पृ. 188-189
12. वही, पृ. 189
13. वही, पृ. 178
14. भारतीय साहित्य के इतिहास की समस्याएँ - रामविलास शर्मा, पृ. 90
15. भाषा और समाज - रामविलास शर्मा, पृ. 178
16. भारतीय साहित्य के इतिहास की समस्याएँ - रामविलास शर्मा, पृ. 99
17. वही, पृ. 100
18. वही, पृ. 98
19. कीर्तिलता और अवहट्ठ भाषा - शिवप्रसाद सिंह, पृ. 7
20. भारतीय साहित्य के इतिहास की समस्याएँ - रामविलास शर्मा, पृ. 111
21. कीर्तिलता और अवहट्ठ भाषा - शिवप्रसाद सिंह, पृ. 41
22. भारतीय साहित्य के इतिहास की समस्याएँ - रामविलास शर्मा, पृ. 131
23. वही, पृ. 108
24. वही, पृ. 131
25. वही, पृ. 118
26. वही, पृ. 117
27   हिंदी साहित्य का आदिकाल - हजारी प्रसाद द्विवेदी, पृ. 48
28.  भारतीय साहित्य के इतिहास की समस्याएँ - रामविलास शर्मा, पृ. 117
29. कीर्तिलता और अवहट्ठ भाषा - शिवप्रसाद सिंह, पृ. 34
30. वही, पृ. 34
31. भारतीय साहित्य के इतिहास की समस्याएँ - रामविलास शर्मा, पृ. 121
32.   वही पृ. 97
33. वही, पृ. 123
34. वही, पृ. 123
35. वही, पृ. 90
36. वही, पृ. 80
37. वही, पृ. 80
38. दक्षिण भारत का इतिहास - डाॅ. के.ए. नीलकंठ शास्त्री, पृ. 81
39. भारतीय साहित्य के इतिहास की समस्याएँ - रामविलास शर्मा, पृ. 95
40. दक्षिण भारत का इतिहास - डाॅ. के.ए. नीलकंठ शास्त्री, पृ. 399
41. भारतीय साहित्य के इतिहास की समस्याएँ - रामविलास शर्मा, पृ. 100
42. वही, पृ. 100
43. वही, पृ. 137
44. वही, पृ. 137
45. वही, पृ. 132
46. भारत का इतिहास - रोमिला थापर, पृ. 205-208
47. भा.सा.के.अ., पृ. 137
48. पूर्व मध्यकालीन भारत का सामंती समाज और संस्कृति - रामशरण शर्मा, पृ. 25
49. भारतीय साहित्य के इतिहास की समस्याएँ - रामविलास शर्मा, पृ. 58
50. वही, पृ. 146

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दीपशिखा सिंह ने अपनी उच्च शिक्षा बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी (वाराणसी) और जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (नई दिल्ली) से पूरी की। इन दिनों अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (अलीगढ़) के हिंदी विभाग में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर के पद पर कार्यरत हैं। उनसे deepshikhabanaras@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है। 




Saturday, September 5, 2020

जब गांधी हुए क्वारंटीन! : उमेश यादव

                   

                    

                                        

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जब गांधी हुए क्वारंटीन!  

उमेश यादव 


साहित्य देश,काल और परिस्थितियों को समझने का आईना होता है। किसी समय और जगह विशेष की घटना-परिघटना को जानने के लिए हमेशा ही यह मददगार रहा है। आज ‘कोरोना’ जैसी भयावह महामारी ने पूरी दुनिया को अपनी चपेट में ले लिया है। विश्व के सभी देशों के शीर्ष वैज्ञानिक और अनुसंधानकर्ताओं की ओर हमारी आशा भरी निगाहें टिकी हैं। आज समय की मांग है कि शीघ्र इसका निदान हो और दुनिया फिर से इस भयावह माहौल से निकल सके। आखिर विश्व के तमाम ताकतवर देशों से लेकर गरीब देश भी इस आपदा के आगे पंगु बन गए हैं। भारत में भी ‘कोविड-19’ से पीड़ित व्यक्तियों की संख्या एक लाख प्रतिदिन होने को है, अर्थात् 24 घंटे में एक लाख व्यक्ति संक्रमित हो रहे हैं। कुल पीड़ितों की संख्या भी 50 लाख का आँकड़ा बस छूने ही वाला है। इससे मरने वालों की संख्या भी प्रतिदिन अर्थात् 24 घंटे में 1200 तक पहुँच चुकी है। कोविड-19 ने हमसे बहुत कुछ छीना है और लगातार छीनती जा रही है। धीरे-धीरे यह अब परिचितों, रिश्तेदारों से होते हुए परिजनों तक पहुँच चुकी है। यह आपदा भयंकर महामारी की तरफ बढ़ती ही जा रही है।

भारत में भी जब मा. प्रधानमंत्री मोदी जी ने 22 मार्च 2020 ई० को ‘जनता कर्फ्यू’ का ऐलान किया तो इस महामारी के बारे में देश एलर्ट हुआ। फिर 24 मार्च से पूरी तरह ‘लाकडाऊन’ लगा देने के कारण बहुत से नए शब्द अचानक से चर्चा में आ गए। बहुत से लोगों ने लाकडाऊन, क्वारांटाइन, आइसोलेशन, पैनडेमिक, सोशल डिस्टेशिंग, कोविड और कोविड वारियर्स जैसे शब्दों को पहली बार सुना। कोविड-19 या कोरोना वायरस को ग्रामीण इलाकों में ‘किरौना’ कहा गया। इसको भगाने के लिए लोकगीत गाया गया तथा पूजा-पाठ तक किया गया। साहित्य जगत में भी महामारी की खोजबीन शुरू हो गई। लोगों ने कविता, कहानियों, उपन्यासों और अन्य विधाओं में जहाँ कहीं भी महामारी पर सामग्री उपलब्ध थी, उसकी चर्चा-परिचर्चा शुरु की।

साहित्य में रुचि लेने वालों ने अल्बेयर कामू का बहुचर्चित उपन्यास ‘प्लेग’ और निराला का आत्मकथात्मक उपन्यास ‘कुल्लीभाट’, रेणु का उपन्यास ‘मैला आंचल’ और कहानी ‘पहलवान की ढोलक’ , उर्दू के ख्यातिलब्ध साहित्यकार राजिंदर सिंह बेदी की कहानी ‘क्वारंटीन’, मास्टर भगवानदास की कहानी ‘प्लेग की चुड़ैल’ और प्रेमचंद की बहुचर्चित कहानी ‘ईदगाह’ में महामारियों को खोजना,पढ़ना और लिखना शुरू किया। गंगा प्रसाद विमल ने ‘हिंदी की आरंभिक कहानियाँ’  में लिखा है कि- 

“सन् 1901 में प्रयाग में पहिले-पहिल प्लेग फैली थी। प्लेग का वह आक्रमण बहुत भयंकर था। इस कहानी (प्लेग की चुड़ैल) का महत्व यह प्रदर्शित करती है कि हिंदी कहानी के उस आरंभिक युग में भी हिंदी कहानीकार इतने सजग थे कि तत्कालीन घटनाओं की उनके संचेत्य मन पर तुरंत प्रतिक्रिया होती थी। प्लेग के छुतिहा रोग का इतना आतंक था कि स्वजन और प्रियजन भी रोगी को छोड़कर भाग जाते थे।” 

इससे प्लेग जैसी भयावह महामारी का तो पता चलता ही है, इसके साथ साहित्यकारों की संजीदगी का भी पता चलता है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि महात्मा गांधी भी एक बार क्वारांटाइन हुए थे? महात्मा गांधी ने अपनी आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ में स्वयं अपने ‘क्वारांटाइन’ होने का जिक्र किया है। गांधी जी दक्षिण अफ्रीका से 1896 ई. में भारत वापस आए थे। उन्होंने दिसंबर में कलकत्ता के ‘कांग्रेस अधिवेशन’ में भाग लिया और प्रयाग होते हुए वापस हुए। 1897 ई. के शुरुआती दिनों में मुंबई उन दिनों ‘प्लेग’ महामारी से ग्रसित था। गांधी जी अपनी आत्मकथा में लिखते हैं- 

“इन्हीं दिनों मुंबई में पहली बार प्लेग का प्रकोप हुआ। चारों तरफ घबराहट फैल रही थी। राजकोट में भी प्लेग फैलने का डर था। मैंने सोचा कि मैं आरोग्य-विभाग में अवश्य काम कर सकता हूँ। मैंने अपनी सेवा राज्य को अर्पण करने के लिए पत्र लिखा। राज्य ने जो कमेटी नियुक्त की उसमें मुझे भी स्थान दिया। मैंने पाखानों की सफाई पर जोर दिया और कमेटी ने निश्चय किया कि गली-गली जाकर पाखानों का निरीक्षण किया जाए। गरीब लोगों ने अपने पाखानों का निरीक्षण करने देने में बिलकुल आनाकानी नहीं की; यही नहीं, बल्कि जो सुधार उन्हें सुझाये गये वे भी उन्होंने कर लिये। पर जब हम मुत्सद्दी वर्ग के यानी बड़े लोगों के घरों का मुआयना करने निकले, तो कई जगहों में तो हमें पाखाने का निरीक्षण करने की इजाजत तक न मिली, सुधार की तो बात ही क्या की जाय? हमारा साधारण अनुभव यह रहा कि धनिक समाज के पाखाने ज्यादा गन्दे थे। उनमें अँधेरा, बदबू और बेहद गंदगी थी। खुड्डी पर कीड़े बिलबिलाते थे। जीते-जी रोज नरक में ही प्रवेश करने-जैसी वह स्थिति थी। हमारे सुझाये हुए सुधार बिलकुल साधारण थे। मैला जमीन पर न गिराकर कूंडे़ में गिरायें। पानी की व्यवस्था ऐसी की जाए कि वह जमीन में जज्ब होने के बदले कूंडे में इकट्ठा हो। खुड्डी और भंगी के आने की जगह के बीच जो दीवार रखी जाती है वह तोड़ दी जाय, जिससे भंगी सारी जगह को अच्छी तरह साफ कर सके, पाखाने कुछ बड़े हो जाएँ तथा उनमें हवा-उजेला पहुँच सके। बड़े लोगों ने इन सुधारों को स्वीकार करने में बहुत आपत्ति की, और आखिर में उन पर अमल तो किया ही नहीं।”

इसके उलट जब गांधी जी भंगियों की बस्ती में जाने के लिए कमेटी वालों से कहे तो सिवाय एक व्यक्ति के अन्य कोई तैयार न हुआ। स्वयं गांधी भी अपने जीवन में पहली बार भंगियो की बस्ती में पहुँचे थे। बकौल गांधी जी – 

“भंगी भाई-बहनों को हमें देखकर अचम्भा हुआ। मैंने उनके पाखाने देखने की इच्छा प्रकट की।” 

उन्होंने कहा : 

“हमारे यहाँ पाखाने कैसे? हमारे पाखाने तो जंगल में हैं। पाखाने तो आप बड़े आदमियों के यहाँ होते हैं।”

मैंने पूछा, 

“तो क्या आप अपने घर हमें देखने देंगे?”

“आइये न भाई साहब! जहाँ भी आपकी इच्छा हो, जाइए। ये ही हमारे घर हैं।"

गांधी जी कहते हैं कि- 

मैं अंदर गया और घर की तथा आँगन की सफाई देख कर खुश हो गया। घर के अंदर सब लिपा-पुता देखा। आँगन झाड़ा-बुहारा था; और जो इने-गिने बरतन थे, वह सब साफ और चमचमाते हुए थे। मुझे इस बस्ती में बीमारी के फैलने का डर नहीं दिखायी दिया।”

इस प्रकार गांधी ने राजकोट में फैले प्लेग का तथा निम्न जातियों या अछूतों द्वारा उच्च जातियों की अपेक्षा अधिक साफ-सफाई का वर्णन अपनी आत्मकथा में किया है। अब गांधी जी को दिसंबर 1897 ई. में ही दक्षिण अफ्रीका वापस जाना था। वे पहली बार सपरिवार दक्षिण अफ्रीका के लिए ‘बा और बच्चों संग’ रवाना हो गए। कुल अठारह दिनों के यात्रा में समुद्री तूफानों से बचते-बचाते उनका जहाज जब अफ्रीका के बंदरगाह पर डेरा डाला तो वहाँ उन्हें एक नई मुसीबत से सामना करना पड़ गया। मुंबई में फैले प्लेग के कारण गांधी जी सहित किसी भी यात्री को बंदरगाह पर जहाज से नीचे नहीं उतरने दिया गया। क्योंकि मुंबई में फैली प्लेग महामारी के मद्देनजर सरकार किसी भी प्रकार के रिस्क लेने के मूड में नहीं थी।

गांधी जी कहते हैं कि-

“अठारह दिसम्बर के आस-पास दोनों स्टिमरों ने लंगर डाले। दक्षिण अफ्रीका के बंदरगाहों में यात्रियों के स्वास्थ्य की पूरी जाँच की जाती है। यदि रास्ते में किसी को कोई छूतवाली बीमारी हुई हो, तो स्टीमर को सूतक में - क्वारण्टीन  में - रखा जाता है। हमारे बम्बई छोड़ते समय वहां प्लगे की शिकायत थी, इसलिए हमें इस बात का डर जरूर था कि सूतक की कुछ बाधा होगी। बंदर में लंगर डालने के बाद स्टीमर को सबसे पहले पीला झण्डा फहराना होता है। डॉक्टरी जाँच के बाद डॉक्टर के मुक्ति देने पर पीला झंडा उतरता है और फिर यात्रियों के रिश्तेदारों आदि को स्टीमर पर आने की इजाजत मिलती है।

तदनुसार हमारे स्टीमर पर भी पीला झंडा फहरा रहा था। डॉक्टर आये। जाँच करके उन्होंने पाँच दिन का सूतक घोषित किया, क्योंकि उनकी यह धारणा थी कि प्लेग के कीटाणु तेईस दिन तक जिंदा रह सकते हैं। इसलिए उन्होंने ऐसा आदेश दिया कि बम्बई छोड़ने के बाद तेईस दिन की अवधि पूरी होने तक स्टीमरों को सूतक में रखा जाए।

इस पर सूतक की आज्ञा का हेतु केवल स्वास्थ्य-रक्षा न था। डरबन के गोरे नागरिक हमें उलटे पैरों लौटा देने का जो आंदोलन कर रहे थे, वह भी इस आज्ञा के मूल में एक कारण था।”

ज्ञात हो कि गांधी जी अफ्रीका में ‘गोरों’ के बराबर भारतीयों को अधिकार दिए जाने के पक्ष में थे किन्तु गोरे लगातार गांधी का विरोध कर रहे थे। गोरों को जब गांधी के भारत से वापस आने की सूचना मिली तो वे बंदरगाह के इर्द-गिर्द जमा हो गये तथा उन्हें हर हाल में वापस भेजने पर आमदा थे। गांधी जी कहते हैं- 

“मतलब कि हमारा सूतक केवल स्वास्थ्य रक्षा के नियमों के ही कारण न था। उसका हेतु किसी भी तरह एजेंट को अथवा यात्रियों को दबा कर हमें वापस भेजना था। एजेंट को तो धमकी मिल ही रही थी। अब हमारे नाम भी धमकियां आने लगी:

“अगर तुम वापस न गये तो तुम्हें समुद्र में डुबो दिया जाएगा। लौट जाओगे तो लौटने का भाड़ा भी शायद तुम्हें मिल जाए।”

आखिरकार काफी टालमटोल के बाद अब गांधी जी के क्वारंटीन का समय समाप्त होने को आया। गांधी जी कहते हैं- 

“इस प्रकार हमारे दिन बीतते और लंबे होते गये। सूतक समाप्त करने की अवधि अन्त तक निश्चित नहीं हुई। इस विभाग के अधिकारी से इस पहुँचने पर वह कहता, “यह मेरी शक्ति से बाहर की बात है सरकार मुझे आदेश दे, तो मैं आप लोगों को उतरने की इजाजत दे दूं।” 

“अंत में यात्रियों को और मुझे अल्टिमेटम मिले। दोनों को धमकी दी गयी कि तुम्हारी जान खतरे में है। दोनों ने नेटाल के बंदर पर उतरने के अपने अधिकार के विषय में लिखा, और अपना यह निश्चय घोषित किया कि कैसा भी संकट क्यों न हो, हम अपने इस अधिकार पर डटे रहेंगे।

आखिर तेईसवें दिन अर्थात १३ जनवरी, १८९७ के दिन, स्टीमरों को मुक्ति मिली और यात्रियों को उतरने का आदेश मिला।”

अब उतरने के बाद गांधी जी का सामना गोरों के आक्रोश से हुआ। बकौल गांधी जी- 

“...मुझ पर कंकरों और सड़े अण्डों की वर्षा शुरू हुई। किसी ने मेरी पगड़ी उछाल कर फेंक दी। फिर लातें शुरू हुईं। मुझे गश आ गया। मैंने पास के घर की जाली पकड़ ली और दम लिया। वहाँ खड़ा रहना तो संभव ही न था। तमाचे पड़ने लगे। इतने में पुलिस अधिकारी की स्त्री, जो मुझे पहचानती थी, उस रास्ते से गुजरी। मुझे देखते ही वह मेरी बगल में आकर खड़ी हो गयी और धूप के न रहते भी उसने अपनी छत्री खोल ली। इससे भीड़ कुछ नरम पड़ी।अब मुझ पर प्रहार करने हों, तो मिसेज एलेक्जेण्डर को बचाकर ही किये जा सकते थे।” 

इस प्रकार तमाम झंझावातों से बचते-बचाते गांधी जी अपने अफ्रीका के आवास पहुंचे।


भारत में भी जब लगभग तीन महीने का लंबा लाकडाऊन लगा तो बाल बनाने वाले ‘नाईयों’ की दुकानें भी बंद थीं। इन दुकानों पर आने वाले ग्राहकों से संक्रमण फैलने का खतरा सबसे ज्यादा था। स्वाभाविक रूप से इतने दिनों तक
नाईं की दुकानों के बंद रहने से लोग बाल कटाने और दाढ़ी बनाने को व्याकुल हो गये। ज्यादातर लोगों ने इसका विकल्प ‘टकला’ होना खोजा और परस्पर एक दूसरे का टकला बनाने लगे। गांधी जी को भी अफ्रीका में इस तरह की असहज स्थिति का सामना करना पड़ा था। कोई भी नाईं उनका बाल बनाने को तैयार न था। नाईं को डर था कि गांधी जी के कारण उसकी दुकान पर ‘गोरों’ का आना बंद हो जायेगा। अतः गांधी जी ने अपने हाथ से ही अपना बाल बनाया। गांधी जी बताते हैं कि – 
“एक बार प्रिटोरिया में मैं एक अंग्रेज हज्जाम की दुकान पर पहुंचा। उसने मेरी हजामत बनाने से साफ इनकार कर दिया और इनकार करते हुए जो तिरस्कार प्रकट किया, सो घाते में रहा। मुझे दु:ख हुआ। मैं बाजार पहुँचा। मैंने बाल काटने की मशीन खरीदी और आईने के सामने खड़े रहकर बाल काटे। बाल जैसे-तैसे कट हो गये, पर पीछे के बाल काटने में बड़ी कठिनाई हुई। सीधे तो वे कट ही न पाये। कोर्ट में खूब कहकहे लगे। ‘तुम्हारे बाल ऐसे क्यों हो गए हैं? सिर पर चूहे तो नहीं चढ़ गये थे?’ मैंने कहा : “जी नहीं, मेरे काले सिर को गोरा हज्जाम कैसे छू सकता है ? इसलिए कैसे भी क्यों न हों, अपने हाथ से काटे हुए बाल मुझे अधिक प्रिय हैं।”

अंततः कुछ दिनों बाद दक्षिण अफ्रीका में भी प्लेग की यह महामारी फूट ही पड़ी। गांधी जी कहते हैं कि – 

“यह महामारी प्राणघातक थी। यह फेफड़ों की महामारी थी। गाँठवाली महामारी की तुलना में यह अधिक भयंकर मानी जाती थी।”

यद्यपि इस महामारी का प्रकोप भारतीय लोकेशनों पर नहीं था। अतः भारतीय इससे प्रभावित नहीं हुए, परन्तु सोने की खानों में काम करने वाले 23 हब्शी अफ्रीकी नागरिक गंभीर रूप से संक्रमण की स्थिति में भारतीय लोकेशंस की जगहों पर ही लाए गए। गांधी जी ने अपने हिन्दुस्तानी सहयोगियों के साथ-साथ अफ्रीकी सहयोगियों की भी मदद लेकर इन प्लेग पीड़ितों की खूब मदद की। गांधी जी उन दिनों को याद करते हुए लिखते हैं- 

“मैंने बहुत से बीमारों की सेवा सुश्रुषा की थी, पर प्लेग के बीमारों की सेवा-सुश्रुषा करने का अवसर मुझे कभी नहीं मिला था। डॉ.गॉडफ्रे की हिम्मत ने हमें निडर बना दिया था। बीमारों की विशेष सेवा-चाकरी कर सकने जैसी स्थिति नहीं थी। उन्हें दवा देना, ढाढ़स बँधाना, पानी पिलाना और उनका मल-मूत्र आदि साफ करना, इसके सिवा विशेष कुछ करने को था ही नहीं।”

अफ्रीका के म्युनिसिपालिटि के टाउन क्लर्क ने गांधी जी के मदद की सराहना की तथा उनसे कहा कि – ‘आपको जो मदद चाहिए, आप माँगिये। टाउन-कौंसिल से जितनी मदद बन सकेगी उतनी वह करेगी। इन परिस्थितियों में गांधी जी ने खुद एक गोदाम को साफ किया, जो काफी मैला व गंदा था। भारतीयों ने खटिया वगैरह से मदद की। इस प्रकार एक चलता-फिरता अस्पताल तैयार हो गया। म्युनिसपैलिटी ने एक नर्स भेजा और उसके साथ ब्राण्डी की बोतल और बीमारों के लिए अन्य आवश्यक वस्तुएं भेजीं।

अब प्लेग महामारी से पीड़ितों का इलाज़ चलने लगा था। गांधी जी बताते है कि-  

“बीमारों को समय-समय पर ब्राण्डी देने की सूचना थी। रोग की छूत से बचने के लिए नर्स हमें भी थोड़ी ब्राण्डी लेने को कहती और खुद भी लेती थी। हममें कोई ब्राण्डी लेनेवाला न था। मुझे तो बीमारों को भी ब्राण्डी देने में श्रद्धा न थी। डॉ.ग्रॉडफ्रे की इजाजत से तीन बीमारों पर, जो ब्राण्डी के बिना रहने को तैयार थे और मिट्टी के प्रयोग करने को राजी थे, मैंने मिट्टी का प्रयोग शुरू किया और उनके माथे और छाती में जहाँ-जहाँ दर्द होता था वहाँ-वहाँ मिट्टी की पट्टी रखी। इन तीन बीमारों में से दो बचे। बाकी सब बीमारों का देहांत हो गया। बीस बीमार तो इस गोदाम में ही चल बसे।”

गांधी जी ने आत्मकथा में आगे बताया है कि इस महामारी को रोकने के लिए सरकार ने जोहांसबर्ग में एक जगह तय कर दी। यह आज के कोविड-वार्ड जैसा था। परन्तु यह शहरों से बहुत दूर होता था। वहाँ बिना इजाजत के जाना संभव न था। उस पर कड़ा पहरा रहता था और बेहद चौकसी। इन प्लेग पीड़ितों को तम्बू में रखा गया था। तीन हफ्ते रखने के बाद ज्यादातर मरीजों को लाभ हुआ और वे इस जगह से मुक्त हुए। सरकार ने इन तम्बूओं की नगरी को बाद में जला दिया। सरकार ने इस संक्रामक महामारी को रोकने के लिए खूब पानी की तरह पैसे को बहाया। अफ्रीकी सरकार ने भारतीयों और गांधी जी को प्लेग महामारी में इस नि:स्वार्थ सेवा और सहायता के लिए धन्यवाद दिया।

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(यह लेख बनारस से उमेश यादव  ने भेजा है। उनसे 9451337577 पर संपर्क किया जा सकता है।)

Thursday, September 3, 2020

'सभा'के कार्य और कार्यकर्त्ता : श्री 'जनार्दन'






'सभा' का लोगो 


काशी-नागरी-प्रचारिणी सभाके कार्यों और कार्यकर्त्ताओंका विस्तृत विवरण, जो उसके पिछले 50 वर्षोंका इतिहास होगा, यहाँ दे सकना स्थानाभावके कारण हमारी सामर्थ्यके बाहर है। अतः पाठकोंकी सामान्य जानकारी के लिए हम उसके कुछ संस्थापकों तथा विभागोंके कार्योंपर ही यहाँ संक्षेपमें प्रकाश डालेंगे। वैसे सभाका विस्तृत इतिहास श्री वेदव्रत शास्त्री बी.ए. ने लिखा है, जो उसके अर्द्धशताब्दी महोत्सवपर प्रकाशित होने जा रहा है।

सभाके संस्थापक 

काशी-नागरी-प्रचारिणी सभाको स्थापित हुए पूरे 50 वर्ष बीत गए। इसे ईश्वरकी कृपा ही कहना चाहिए कि उसके संस्थापक तीनों प्रमुख व्यक्ति 'सभा'का जयन्ती-उत्सव देखनेको प्रस्तुत ही नहीं हैं, वरन् एक (मिश्रजी) इस उत्सवको सफल बनानेके लिए इस चौथेपनमें भी ऐसा उद्योग कर रहे हैं कि कोई नवयुवक क्या करेगा। अर्थ-संग्रहके लिए दूर-दूरकी यात्राएँ कर रहे हैं, सभाएँ करते हैं, व्याख्यान देते हैं और कार्यालयका संचालन करते हैं। इससे प्रथम अच्छे स्वास्थ्यकी दशामें रायबहादुर श्यामसुन्दरदास तन-मनसे 'सभा'की सेवा किया करते थे। उनके सम्बन्धमें पं. रामनारायण मिश्रने एक व्याख्यानमें कहा था -
"सारा कार्य-भार श्री श्यामसुन्दरदास ही पर था। अधिवेशनोंकी कार्यवाही और दैनिक पत्र आदि वे अपने हाथसे लिखा करते थे। युवावस्थामें वे बड़े प्रभावशाली व्याख्यानदाता थे। उन्होंने अपनी सारी शक्ति सभाके उत्थान में लगा दी थी। भिन्न-भिन्न समयपर कुल मिलाकर 17 वर्ष तक वे सभाके प्रधानमन्त्री रहे, 9 वर्ष सभापति, 10 वर्ष उपसभापति और 2 वर्ष सहायक अथवा अर्थ-मन्त्री - अर्थात् 38 वर्ष तक पदाधिकारी रहकर उन्होंने सभाकी अमूल्य सेवा की। विशेष प्रशंसाकी बात तो यह है कि संवत् 1950 से 1952 तक मन्त्री रहकर जब 1954 में सहायक-मन्त्री चुने गए और संवत् 1985 से 1987 तक सभापति रहकर संवत् 1990 में जब अर्थ-मन्त्री चुने गए, तब उन्होंने उच्चपदसे निम्नपदपर आकर सभाकी सेवा करनेमें तनिक भी हेठी नहीं समझी। उन्होंने जितने काम किए, सभाके यशको बढ़ानेवाले प्रमाणित हुए।... कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो कार्य तो स्वयं करते हैं, पर सफल कार्योंका यश दूसरोंको अर्पण कर देते हैं; कुछ ऐसे होते हैं, जो कार्य दूसरोंसे कराते हैं और स्वयं यश लूट लेते हैं; तथा कुछ ऐसे होते हैं, जो स्वयं भी परिश्रम करते हैं और दूसरोंसे भी कार्य लेनेकी क्षमता रखते हैं। बाबू श्यामसुन्दरदास इसी श्रेणीके कर्मठ हैं। डा. श्यामसुन्दरदासमें स्वाभिमानकी मात्रा अवश्य अधिक है; परन्तु अभ्युदयकी आकांक्षाके साथ मिलकर स्वाभिमान मनुष्यको ऊँचा उठाता है। कोरा स्वाभिमान तो निरा अभिमान है।"

पं. रामनारायण मिश्रको सरकारी नौकरीमें रहनेके कारण अधिक समय तक काशीसे बाहर रहना पड़ा, फिर भी वे बीच-बीचमें काशी आ जाते और सभाके कार्योंमें सम्मिलित होते रहते थे। वे बाहर रहते समय भी सभा और हिंदीकी उन्नतिके लिए सचेष्ट रहते थे। काशीमें स्थायी रूपसे आ जानेपर उनके अधिकांश समयका उपयोग शिक्षण संस्थाओं और सामाजिक कार्योंमें होता रहा। इससे सभा उनके उद्योगसे तादृश लाभ नहीं उठा सकी थी, यद्यपि मिश्रजीका ध्यान सभाकी उन्नतिके लिए सदा रहता था। इधर अन्य संस्थाओंकी सेवासे समय निकलकर वे सभाकी सेवामें ऐसे कटिबद्ध हो गए हैं, जैसे अच्छे स्वास्थ्यकी दशामें बाबू श्यामसुन्दरदास रहा करते थे। आजकल मिश्रजी दिन-रात सभाकी उन्नतिके लिए प्रयत्नशील रहा करते हैं। अर्द्धशताब्दी-उत्सवको सम्पन्न करने और सभाकी आर्थिक दशा सुधारनेमें उन्होंने जैसा प्रयत्न किया है, वह अतुलनीय है।

रायसाहब ठा. शिवकुमारसिंह भी नौकरीके सिलसिलेमें अधिकतर काशीसे बाहर ही रहे। इसके अतिरिक्त पारिवारिक कार्य भी उनका समय ले लेते थे, जिससे उनकी भरपूर सहायता सभाको नहीं मिल सकी। इधर नौकरीसे अवकाश ले चुकने और काशी आ जानेपर सभाको उनसे बहुत आशा हुई थी; पर उनकी घरेलू कठिनाइयाँ उनको फुरसत बहुत कम दे रही हैं। नौकरीके सिलसिलेमें वे जहाँ-जहाँ गए, वहीं हस्तलिपि-परीक्षाका चलन उन्होंने यथेष्ट किया, जिससे सभाका एक उद्देश्य पर्याप्त रूपसे पूर्ण हुआ और इस दिशामें ठाकुर साहब अद्वितीय हैं। हिन्दीका पक्ष समर्थन करनेमें भी उन्होंने कुछ उठा नहीं रखा, यहाँ तक कि कभी-कभी सरकारी अधिकारियोंसे इस मामलेमें कहा-सुनी हो जानेपर भी वे दबे नहीं। और अन्तमें ऐसे अधिकारियोंको अपने पक्षका प्रबल समर्थक बनाकर मित्र बना लिया।

तीनों ही संस्थापकोंका सभाकी सेवा करनेका एक-एक विशिष्ट अंग है और उसको उन्होंने बड़ी उत्तमतासे सम्पन्न किया है। यदि सभीका सभाकी सेवा करनेका एक ही मार्ग होता, तो सभाकी सर्वांगीण उन्नति होनेमें इतना सुभीता न हुआ होता। बाबू श्यामसुन्दरदासकी सेवा सर्वांगीण थी, जैसा कि पं. रामनारायण मिश्रने एक अवसरपर कहा था कि
'सभाकी एक-एक ईंटपर श्यामसुन्दरदास का नाम अंकित है।'
उन्होंने न केवल स्वयं साहित्य-सेवा ही की, वरन् दूसरोंको साहित्य-सेवी बनानेका सफल प्रयत्न भी किया। साहित्यके अपूर्ण अंगोंके निर्माणमें बहुत सफलता प्राप्त की। किसी अंगरेज़ ग्रन्थ-प्रणेताका कथन है कि किसी पुस्तकको एक बार बाजार में बिकते देखो, तो बारह वर्ष बीतनेपर फिर उसकी खोज करो। यदि वह पुस्तक फिर बाज़ार में दिखाई दे, तो उसे साहित्यकी स्थायी सम्पत्ति समझो। बाबू साहबकी कई पुस्तकें क्या, बीसों वर्षसे चल रही हैं।


खोज और उसके निरीक्षक 

हस्तलिखित हिन्दी-पुस्तकोंकी खोजका काम बाबू राधाकृष्णदास की सूझ का फल है। उन्हींके उद्योग और पथप्रदर्शनमें यह काम आरम्भ हुआ। इसके निरीक्षक प्रथम आठ वर्षों तक बाबू श्यामसुन्दरदास रहे। उनकी लिखी रिपोर्टोंकी प्रशंसा विद्वानोंने की है। बाबू साहबके इस सिद्धान्तके अनुसार कि 'पथ-प्रदर्शनका कार्य करके दूसरोंको उसे सौंप देना ही अनेक व्यक्तियोंको कार्यमें लगाकर साहित्यकी उन्नति करना है।' डा. श्यामबिहारी मिश्र निरीक्षक हुए। उनके अनन्तर पं.सुखदेवबिहारी मिश्रने एक वर्ष तक यह कार्य किया। फिर स्वर्गीय रायबहादुर डा.हीरालाल निरीक्षक हुए, जिन्होंने बड़ी महत्त्वपूर्ण रिपोर्टें लिखीं। उनकी लिखी पहली रिपोर्टोंमें मिश्र-बंधुओंकी लिखी अंतिम रिपोर्टका सम्पादन भी था। इसके विवेचनको देखनेसे हीरालालजीकी विद्वत्ता, सूझ और अनुसंधानके कार्यमें योग्यताका पूरा परिचय मिल जाता है। उन्होंने जितनी रिपोर्टें लिखी हैं, वे बड़े महत्त्वकी हैं। उन्हींका अनुसरण करके डा.पीताम्बरदत्त बड़थ्वालने एक बृहदाकार रिपोर्ट लिखी है, जो छप तो गई है; पर अभी सरकारी प्रेससे प्रकाशित नहीं हुई। सारांश यह कि इस कामको चलाया श्यामसुन्दर बाबूने; पर सबसे महत्त्वका कार्य रायबहादुर डा.हीरालालका है। बात यह है कि खोजके काममें वे सरकारी पदपर बहुत समयसे लगे हुए थे और उसमें पूर्णतया दक्ष गए थे। आजकल डा.वासुदेवशरण अग्रवाल इस कार्यके निरीक्षक हैं। आशा है, इनका कार्य भी परम्पराके अनुरूप महत्त्वपूर्ण होगा। 


आर्यभाषा-पुस्तकालय 

आर्यभाषा-पुस्तकालय 'सभा'से भी पुराना है - अर्थात् कोई 59 वर्ष पहले स्व.ठाकुर गदाधरसिंहने इसे मिर्ज़ापुरमें 'आर्यभाषा -पुस्तकालय'नामसे, संवत् 1941 में, स्थापित किया था। उस समय इसमें कुल 102 पुस्तकें थीं। ये ठाकुर साहब 'चीनमें तरह मास' आदि पुस्तकोंके लेखकसे भिन्न थे। ये क़ानूनगो थे। इन्होंने 'दुर्गेशनन्दिनी', 'बंगविजेता', 'कादम्बरी' आदि बँगला-पुस्तकोंका हिन्दीमें उल्था किया था। सरकारी नौकरीसे छुट्टी लेकर थोड़े दिनोंके लिए जब ये बनारस आए थे, तब सभाके सभासद हो गए थे। सभाके प्रबन्धसे सन्तुष्ट होकर इन्होंने अपना पुस्तकालय सभाको सौंप दिया। तब तक उसमें हज़ार पुस्तकें हो चुकी थीं। संवत् 1953 में 'नागरी-भण्डार' इसी पुस्तकालयमें सम्मिलित हो गया, जो सभाका था। उक्त ठाकुर साहबने पुस्तकालय तो सभाको दिया ही, साथ ही सभाके पक्षमें अपनी वसीयत भी कर दी, जिससे सभाको दो हज़ार मिला। इस वसीयतनामेके झगड़ेका निपटारा सभाको हाईकोर्टसे कराना पड़ा था। सभाके पुस्तकालयमें उत्कृष्ट ग्रन्थोंकी कमी नहीं है। अनेक विद्वान् और विश्वविद्यालयोंके छात्र इस पुस्तकालयमें अनुशीलनके लिए आया करते हैं। 

सभाको समय-समयपर विशिष्ट उदार सज्जनोंसे महत्त्वपूर्ण संग्रह प्राप्त होते आये हैं। वास्तवमें यह पुस्तकालय ऐसे ही विशेष संग्रहोंका बृहत् संग्रहालय है। इसे पहला संग्रह तो पूर्वोल्लिखित ठाकुर साहबका प्राप्त हुआ, फिर संवत् 1990 में आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदीका संग्रह मिला। उनके दिवंगत हो जानेपर द्विवेदीजीके भानजे पं.कमलाकिशोरजीने संग्रहके अवशिष्ट ग्रन्थ भी सभाको सौंप दिए। द्विवेदीजी इसकी आज्ञा उन्हें पहले ही दे गए थे। 'द्विवेदी-संग्रह'में 4280 पुस्तकें हैं, जो 12 आलमारियोंमें रक्षित हैं। इसमें छोटीसे छोटी और बड़ीसे बड़ी अलभ्य पुस्तकें हैं। प्राय: प्रत्येक पुस्तकके मुखपृष्ठपर द्विवेदीजीके हस्ताक्षर और प्राप्तिकी तिथि भी है। पुस्तकोंपर द्विवेदीजीके पढ़नेके चिह्न भी हैं - कहीं भूल-चूक सुधारी गई है, कहीं दूसरी बातोंके लिए संकेत हैं। 

तीसरा 'रत्नाकर'जीका संग्रह है, जो स्वर्गीय बाबू जगन्नाथदासजी 'रत्नाकर' बी.ए. के सुपुत्र बाबू राधाकृष्णदासने संवत् 1989 में प्रदान किया था। इसमें 1189 पुस्तकें हैं, जो 4 आलमारियोंमें सुरक्षित हैं। बिहारी और सूर-संबंधी साहित्य किसी अन्य स्थानमें दुर्लभ है। इसमें बिहारीपर सन् 1819 की छपी हुई एक पुस्तक है। इसके अतिरिक्त हिन्दी, फ़ारसी, अंगरेज़ी और गुजरातीमें बिहारीपर जितनी टीकाएँ मुद्रित हैं, वे सभी इस संग्रहमें हैं। प्राकृतपर कई ग्रन्थ हैं। चौथा संग्रह डा.हीरानन्द शास्त्री एम.ए. का है। इसकी 1012 पुस्तकें 4 आलमारियोंमें हैं। इस संग्रहमें जैन विद्वानोंके संस्कृत-ग्रन्थ, आत्मानन्द, वुलनर, आशुतोष और दयानन्द आदि सम्बन्धी स्मारक ग्रन्थ, नागरीमें गुरुग्रन्थ साहबकी एक सुन्दर प्रति और चित्रकला आदिपर अच्छी-अच्छी पुस्तकें हैं। रत्नाकरजी और शास्त्रीजीके संग्रहोंमें हस्तलिखित पुस्तकें भी हैं। 

सरकारी सहायतासे हिन्दी-पुस्तकोंकी खोज सभाका खोज-विभाग करता है। इस प्रान्तके बाहर दतिया, चरखारी, पन्ना, दिल्ली और पंजाबमें भी खोज की गई थी। यों सभाको सैकड़ों हस्तलिखित ग्रन्थ उपलब्ध होते जा रहे हैं। सभाको कला-सम्बन्धी बहुमूल्य सामग्री संवत् 1985 में राय कृष्णदासजीने दी। 'भारत-कला-भवन'में पुरातत्त्व-सम्बन्धी बहुत-से ग्रन्थ आते रहे हैं। बाबू शिवप्रसाद गुप्त जब अमेरिका गए थे, तब ऐसा प्रबन्ध कर आए थे, जिससे वहाँकी प्रतिष्ठित संस्था 'स्मिथ सोनियन इंस्टीट्यूशन'के सभी बहुमूल्य प्रकाशन सभाको बराबर मिल रहे हैं। इसी प्रकार हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन प्रयाग, गुजरात वर्नाक्यूलर सोसाइटी, हिन्दुस्तानी एकेडेमी, सार्वदेशिक आर्यप्रतिनिधि-सभा तथा अन्य नामी-गिरामी पुस्तक-प्रकाशक लोग सभाको अपने प्रकाशन भेंट किया करते हैं। 

रायबहादुर कौशलकिशोरने अपने स्वर्गीय पिता लाला सीताराम 'अवधवासी'के सब ग्रन्थोंकी एक-एक प्रति, सुन्दर ज़िल्द बँधवाकर, सभाको भेंट की है। पाँचवाँ संग्रह रायबहादुर डा.श्यामसुन्दरदासका है। इसमें उनकी रचित पुस्तकें हैं, जिनपर मूल्यवान् ज़िल्दें हैं। इसमें हिन्दी-साहित्यके अन्य अनेक उत्तम ग्रन्थ हैं। पं.रामनारायण मिश्रजीने अपना संग्रह सभाको दिया है, जिसमें शिक्षा और समाज-सुधार-विषयक पुस्तकें अधिक हैं। इन संग्रहोंकी संख्या इस वर्ष याज्ञिक-बन्धुओंने बढ़ा दी। उन्होंने अपने चचा स्वर्गीय पं.मयाशंकरजी याज्ञिकका हस्तलिखित पुस्तकोंका संग्रह सभाके अर्पण किया है। इसमें अधिकतर ब्रजभाषा-काव्यका भाण्डार है। यह ऐसी वस्तु है, जिसको प्राप्त करनेके लिए अनेक संस्थाएँ प्रयत्न कर रही थीं। इसमें 1178 पुस्तकें हैं। इनमें से मुख्य ग्रंथोंके प्रकाशनके लिए पं.जीवनशंकरजीने 1000)की निधि भी सभाको भेंट की है। इस समय पुस्तकालयमें 27637 छपी और 3357 हस्तलिखित पुस्तकें हैं। इनकी रक्षा कृमि-कीटोंसे तो करनी ही पड़ती है। इनके आक्रमण विविध रूपोंमें शिष्टतापूर्वक होते हैं। 

पुस्तकालयके ग्रन्थियों (लाइब्रेरियनों) में पं.केदारनाथ पाठक बहुत ही नामी थे। लाइब्रेरियनकी अपेक्षा वे एक आधार-ग्रन्थ थे। कौन-सा विषय किस-किस पुस्तकमें है, वह पुस्तक कहाँ-कब छपी है, उसके कितने संस्करण हुए हैं, इसके वे मानो कोष थे। बीस वर्षसे अधिक समय तक वे पुस्तकालयमें पुस्तकाध्यक्षके रूपमें सभाकी सेवा करते रहे। छोटे लाटको अदालतोंमें नागरीका प्रचलन करानेके लिए सभाने जो मेमोरियल दिया था, उसपर विभिन्न ज़िलोंमें हस्ताक्षर करानेके लिए उन्होंने यात्रा की थी और कहीं-कहीं कठिनाई भी झेली थी। जान पड़ता है, इनकी कर्णेन्द्रियकी शक्तिने खसककर स्मरणशक्तिको द्विगुणित कर दिया था। अनेक प्रसिद्ध लेखकोंसे आपका व्यक्तिगत परिचय था। स्वभावके आप खरे थे। वर्त्तमान ग्रन्थी पं.शम्भुनारायण चौबे बड़े त्यागी और मिलनसार हैं। गोस्वामीजीके ग्रन्थोंके आप पारखी और भक्त हैं। आशा है, आपकी इस योग्यताका समुचित उपयोग होगा। 

 
बाबू गोपालदासने सभाका कार्य करना स्वल्प वेतन लेकर आरम्भ किया था। किन्तु अपनी योग्यता, लगन और ईमानदारीके कारण धीरे-धीरे सभाकी आर्थिक दशा सँभलनेपर उनके वेतनमें ही वृद्धि नहीं हुई, अपितु वे सहायक मन्त्री भी बना दिए गए। यह पद बड़े दायित्त्वका है; क्योंकि पदाधिकारी तो प्राय: अदलते-बदलते रहते हैं; पर स्थायी कर्मचारियोंको आनुपूर्विक कार्य सँभालना पड़ता है - इसमें उन्हें यशकी अपेक्षा अपयशका अधिक डर रहता है। ऐसे गुरुत्त्वके कार्यको उन्होंने मुद्दत तक सँभाला, यह प्रशंसाकी बात है। उक्त पदपर इतने अधिक समय तक कार्य करनेका धैर्य और लोगोंमें कदचित् ही हो। 


सभाकी सन्तति 

सभाका ज्येष्ठ पुत्र है हिन्दी-साहित्य-सम्मलेन, जो आरम्भके बादसे ही प्रयागके जल-वायुमें प्रतिपालित होकर वयस्क हो गया है और समूचे भारतमें हिन्दीकी ध्वजा धूमधामसे उड़ाता हुआ अपनी जननीके उद्देश्योंको पूर्ण करनेमें तन-मनसे लगा हुआ है। यह संतानवान् भी हो गया है। सभाका दूसरा दत्तक पुत्र है 'कला-भवन', जो हो तो गया है वयस्क; पर रहता है जननीके कन्धेपर और सब प्रकारसे माताका दुलार पा रहा है। साथ रहनेसे दोनोंकी शोभा है। इस साल अपनी 50 वर्षकी अवस्था हो जानेपर एक और पुत्रका पालन-पोषण सभा करने लगी है। इसका नाम है 'सत्यज्ञान-निकेतन'। यह बालक हरद्वारके समीप ज्वालापुरमें खेल रहा है। अभी इसके पालन-पोषण और रक्षणावेक्षणका भार सभाको ही सँभालना है। आशा है, यह पुत्र उत्तर-भारतका सम्बन्ध इन प्रान्तोंसे घनिष्ट करके सभाके उद्देश्योंको पूर्ण करनेका भरसक प्रयत्न करेगा। 

फ़रवरी, 1931 में 'विशाल भारत' सम्पादकने हिन्दी-साहित्य-सम्मेलनके सम्बन्धमें ऐसी कुछ बातें लिखी थीं, जिनको तनिक परिवर्त्तित करके 'सभा'के सम्बन्धमें कह सकते हैं -
जिस भाषाके बोलनेवाले तेरह करोड़से ऊपर और समझनेवाले बीस करोड़से भी अधिक हैं, उसकी सर्वश्रेष्ठ संस्थाको ऐसा त्यागी व्यक्ति मिलना चाहिए, जो अपनी सम्पूर्ण शक्ति और अपना सारा समय उसीके लिए अर्पित कर दे।... जिन मदोंमें सभाकी आय बढ़ सकती है, उनकी भरपूर जाँच होनी चाहिए। सभाके पास इस समय जितने रुपएकी लागत और मूल्यकी पुस्तकें हैं, उनके यथोचित विज्ञापन और मूल्यकी सुव्यवस्था होनी चाहिए। सभाका माल प्रतिनिधि पुस्तक-विक्रेता हड़प न कर जायँ, इसपर सदा चौकस दृष्टि रहे। लोगोंको अन्धाधुन्ध पुस्तक न बँटें। कार्यालयके वेतनका व्यय इतना अधिक न होने पावे कि मँझधारमें नावके डूबनेकी आशंका  लगे। प्रकाशन हो, तो महत्त्वका; पर ऐसा न हो कि जो सभामें पड़ा-पड़ा दीमकोंका आहार बनने लग जाय, या जिसमें लगाई गई पूँजी वसूल ही न हो। हम हिन्दीवाले चाहे जितनी शेखी बघारते रहें; पर सच तो यह है कि हम लोगोंमें आदर्शवादिताकी बड़ी कमी है। अध्यापक, वकील, पुस्तक-विक्रेता या छापेखानेवाले अपने समयका सर्वोत्तम भाग तो अपने पेशेके लिए ही अर्पण कर सकते हैं और जिनके पास दुहरा-तिहरा काम है, वे सभाको और भी कम समय दे सकते हैं। इनकी सहायताका सम्मान अवश्य होगा, फिर भी कुछ लोग ऐसे हों, जिनका जीवन सभाके लिए अर्पित हो और सभाके पदाधिकारी तथा वेतनभोगी कर्मचारी लोग ऐसी उदात्त भावनावालोंके सहयोगसे सभाका हित होने दें। बिना त्यागके संस्थाओंका हित नहीं होता। अतः इस अंगकी पूर्ति अवश्य होनी चाहिए। 


 [ जनवरी, 1944 ]