Saturday, September 5, 2020

जब गांधी हुए क्वारंटीन! : उमेश यादव

                   

                    

                                        

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जब गांधी हुए क्वारंटीन!  

उमेश यादव 


साहित्य देश,काल और परिस्थितियों को समझने का आईना होता है। किसी समय और जगह विशेष की घटना-परिघटना को जानने के लिए हमेशा ही यह मददगार रहा है। आज ‘कोरोना’ जैसी भयावह महामारी ने पूरी दुनिया को अपनी चपेट में ले लिया है। विश्व के सभी देशों के शीर्ष वैज्ञानिक और अनुसंधानकर्ताओं की ओर हमारी आशा भरी निगाहें टिकी हैं। आज समय की मांग है कि शीघ्र इसका निदान हो और दुनिया फिर से इस भयावह माहौल से निकल सके। आखिर विश्व के तमाम ताकतवर देशों से लेकर गरीब देश भी इस आपदा के आगे पंगु बन गए हैं। भारत में भी ‘कोविड-19’ से पीड़ित व्यक्तियों की संख्या एक लाख प्रतिदिन होने को है, अर्थात् 24 घंटे में एक लाख व्यक्ति संक्रमित हो रहे हैं। कुल पीड़ितों की संख्या भी 50 लाख का आँकड़ा बस छूने ही वाला है। इससे मरने वालों की संख्या भी प्रतिदिन अर्थात् 24 घंटे में 1200 तक पहुँच चुकी है। कोविड-19 ने हमसे बहुत कुछ छीना है और लगातार छीनती जा रही है। धीरे-धीरे यह अब परिचितों, रिश्तेदारों से होते हुए परिजनों तक पहुँच चुकी है। यह आपदा भयंकर महामारी की तरफ बढ़ती ही जा रही है।

भारत में भी जब मा. प्रधानमंत्री मोदी जी ने 22 मार्च 2020 ई० को ‘जनता कर्फ्यू’ का ऐलान किया तो इस महामारी के बारे में देश एलर्ट हुआ। फिर 24 मार्च से पूरी तरह ‘लाकडाऊन’ लगा देने के कारण बहुत से नए शब्द अचानक से चर्चा में आ गए। बहुत से लोगों ने लाकडाऊन, क्वारांटाइन, आइसोलेशन, पैनडेमिक, सोशल डिस्टेशिंग, कोविड और कोविड वारियर्स जैसे शब्दों को पहली बार सुना। कोविड-19 या कोरोना वायरस को ग्रामीण इलाकों में ‘किरौना’ कहा गया। इसको भगाने के लिए लोकगीत गाया गया तथा पूजा-पाठ तक किया गया। साहित्य जगत में भी महामारी की खोजबीन शुरू हो गई। लोगों ने कविता, कहानियों, उपन्यासों और अन्य विधाओं में जहाँ कहीं भी महामारी पर सामग्री उपलब्ध थी, उसकी चर्चा-परिचर्चा शुरु की।

साहित्य में रुचि लेने वालों ने अल्बेयर कामू का बहुचर्चित उपन्यास ‘प्लेग’ और निराला का आत्मकथात्मक उपन्यास ‘कुल्लीभाट’, रेणु का उपन्यास ‘मैला आंचल’ और कहानी ‘पहलवान की ढोलक’ , उर्दू के ख्यातिलब्ध साहित्यकार राजिंदर सिंह बेदी की कहानी ‘क्वारंटीन’, मास्टर भगवानदास की कहानी ‘प्लेग की चुड़ैल’ और प्रेमचंद की बहुचर्चित कहानी ‘ईदगाह’ में महामारियों को खोजना,पढ़ना और लिखना शुरू किया। गंगा प्रसाद विमल ने ‘हिंदी की आरंभिक कहानियाँ’  में लिखा है कि- 

“सन् 1901 में प्रयाग में पहिले-पहिल प्लेग फैली थी। प्लेग का वह आक्रमण बहुत भयंकर था। इस कहानी (प्लेग की चुड़ैल) का महत्व यह प्रदर्शित करती है कि हिंदी कहानी के उस आरंभिक युग में भी हिंदी कहानीकार इतने सजग थे कि तत्कालीन घटनाओं की उनके संचेत्य मन पर तुरंत प्रतिक्रिया होती थी। प्लेग के छुतिहा रोग का इतना आतंक था कि स्वजन और प्रियजन भी रोगी को छोड़कर भाग जाते थे।” 

इससे प्लेग जैसी भयावह महामारी का तो पता चलता ही है, इसके साथ साहित्यकारों की संजीदगी का भी पता चलता है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि महात्मा गांधी भी एक बार क्वारांटाइन हुए थे? महात्मा गांधी ने अपनी आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ में स्वयं अपने ‘क्वारांटाइन’ होने का जिक्र किया है। गांधी जी दक्षिण अफ्रीका से 1896 ई. में भारत वापस आए थे। उन्होंने दिसंबर में कलकत्ता के ‘कांग्रेस अधिवेशन’ में भाग लिया और प्रयाग होते हुए वापस हुए। 1897 ई. के शुरुआती दिनों में मुंबई उन दिनों ‘प्लेग’ महामारी से ग्रसित था। गांधी जी अपनी आत्मकथा में लिखते हैं- 

“इन्हीं दिनों मुंबई में पहली बार प्लेग का प्रकोप हुआ। चारों तरफ घबराहट फैल रही थी। राजकोट में भी प्लेग फैलने का डर था। मैंने सोचा कि मैं आरोग्य-विभाग में अवश्य काम कर सकता हूँ। मैंने अपनी सेवा राज्य को अर्पण करने के लिए पत्र लिखा। राज्य ने जो कमेटी नियुक्त की उसमें मुझे भी स्थान दिया। मैंने पाखानों की सफाई पर जोर दिया और कमेटी ने निश्चय किया कि गली-गली जाकर पाखानों का निरीक्षण किया जाए। गरीब लोगों ने अपने पाखानों का निरीक्षण करने देने में बिलकुल आनाकानी नहीं की; यही नहीं, बल्कि जो सुधार उन्हें सुझाये गये वे भी उन्होंने कर लिये। पर जब हम मुत्सद्दी वर्ग के यानी बड़े लोगों के घरों का मुआयना करने निकले, तो कई जगहों में तो हमें पाखाने का निरीक्षण करने की इजाजत तक न मिली, सुधार की तो बात ही क्या की जाय? हमारा साधारण अनुभव यह रहा कि धनिक समाज के पाखाने ज्यादा गन्दे थे। उनमें अँधेरा, बदबू और बेहद गंदगी थी। खुड्डी पर कीड़े बिलबिलाते थे। जीते-जी रोज नरक में ही प्रवेश करने-जैसी वह स्थिति थी। हमारे सुझाये हुए सुधार बिलकुल साधारण थे। मैला जमीन पर न गिराकर कूंडे़ में गिरायें। पानी की व्यवस्था ऐसी की जाए कि वह जमीन में जज्ब होने के बदले कूंडे में इकट्ठा हो। खुड्डी और भंगी के आने की जगह के बीच जो दीवार रखी जाती है वह तोड़ दी जाय, जिससे भंगी सारी जगह को अच्छी तरह साफ कर सके, पाखाने कुछ बड़े हो जाएँ तथा उनमें हवा-उजेला पहुँच सके। बड़े लोगों ने इन सुधारों को स्वीकार करने में बहुत आपत्ति की, और आखिर में उन पर अमल तो किया ही नहीं।”

इसके उलट जब गांधी जी भंगियों की बस्ती में जाने के लिए कमेटी वालों से कहे तो सिवाय एक व्यक्ति के अन्य कोई तैयार न हुआ। स्वयं गांधी भी अपने जीवन में पहली बार भंगियो की बस्ती में पहुँचे थे। बकौल गांधी जी – 

“भंगी भाई-बहनों को हमें देखकर अचम्भा हुआ। मैंने उनके पाखाने देखने की इच्छा प्रकट की।” 

उन्होंने कहा : 

“हमारे यहाँ पाखाने कैसे? हमारे पाखाने तो जंगल में हैं। पाखाने तो आप बड़े आदमियों के यहाँ होते हैं।”

मैंने पूछा, 

“तो क्या आप अपने घर हमें देखने देंगे?”

“आइये न भाई साहब! जहाँ भी आपकी इच्छा हो, जाइए। ये ही हमारे घर हैं।"

गांधी जी कहते हैं कि- 

मैं अंदर गया और घर की तथा आँगन की सफाई देख कर खुश हो गया। घर के अंदर सब लिपा-पुता देखा। आँगन झाड़ा-बुहारा था; और जो इने-गिने बरतन थे, वह सब साफ और चमचमाते हुए थे। मुझे इस बस्ती में बीमारी के फैलने का डर नहीं दिखायी दिया।”

इस प्रकार गांधी ने राजकोट में फैले प्लेग का तथा निम्न जातियों या अछूतों द्वारा उच्च जातियों की अपेक्षा अधिक साफ-सफाई का वर्णन अपनी आत्मकथा में किया है। अब गांधी जी को दिसंबर 1897 ई. में ही दक्षिण अफ्रीका वापस जाना था। वे पहली बार सपरिवार दक्षिण अफ्रीका के लिए ‘बा और बच्चों संग’ रवाना हो गए। कुल अठारह दिनों के यात्रा में समुद्री तूफानों से बचते-बचाते उनका जहाज जब अफ्रीका के बंदरगाह पर डेरा डाला तो वहाँ उन्हें एक नई मुसीबत से सामना करना पड़ गया। मुंबई में फैले प्लेग के कारण गांधी जी सहित किसी भी यात्री को बंदरगाह पर जहाज से नीचे नहीं उतरने दिया गया। क्योंकि मुंबई में फैली प्लेग महामारी के मद्देनजर सरकार किसी भी प्रकार के रिस्क लेने के मूड में नहीं थी।

गांधी जी कहते हैं कि-

“अठारह दिसम्बर के आस-पास दोनों स्टिमरों ने लंगर डाले। दक्षिण अफ्रीका के बंदरगाहों में यात्रियों के स्वास्थ्य की पूरी जाँच की जाती है। यदि रास्ते में किसी को कोई छूतवाली बीमारी हुई हो, तो स्टीमर को सूतक में - क्वारण्टीन  में - रखा जाता है। हमारे बम्बई छोड़ते समय वहां प्लगे की शिकायत थी, इसलिए हमें इस बात का डर जरूर था कि सूतक की कुछ बाधा होगी। बंदर में लंगर डालने के बाद स्टीमर को सबसे पहले पीला झण्डा फहराना होता है। डॉक्टरी जाँच के बाद डॉक्टर के मुक्ति देने पर पीला झंडा उतरता है और फिर यात्रियों के रिश्तेदारों आदि को स्टीमर पर आने की इजाजत मिलती है।

तदनुसार हमारे स्टीमर पर भी पीला झंडा फहरा रहा था। डॉक्टर आये। जाँच करके उन्होंने पाँच दिन का सूतक घोषित किया, क्योंकि उनकी यह धारणा थी कि प्लेग के कीटाणु तेईस दिन तक जिंदा रह सकते हैं। इसलिए उन्होंने ऐसा आदेश दिया कि बम्बई छोड़ने के बाद तेईस दिन की अवधि पूरी होने तक स्टीमरों को सूतक में रखा जाए।

इस पर सूतक की आज्ञा का हेतु केवल स्वास्थ्य-रक्षा न था। डरबन के गोरे नागरिक हमें उलटे पैरों लौटा देने का जो आंदोलन कर रहे थे, वह भी इस आज्ञा के मूल में एक कारण था।”

ज्ञात हो कि गांधी जी अफ्रीका में ‘गोरों’ के बराबर भारतीयों को अधिकार दिए जाने के पक्ष में थे किन्तु गोरे लगातार गांधी का विरोध कर रहे थे। गोरों को जब गांधी के भारत से वापस आने की सूचना मिली तो वे बंदरगाह के इर्द-गिर्द जमा हो गये तथा उन्हें हर हाल में वापस भेजने पर आमदा थे। गांधी जी कहते हैं- 

“मतलब कि हमारा सूतक केवल स्वास्थ्य रक्षा के नियमों के ही कारण न था। उसका हेतु किसी भी तरह एजेंट को अथवा यात्रियों को दबा कर हमें वापस भेजना था। एजेंट को तो धमकी मिल ही रही थी। अब हमारे नाम भी धमकियां आने लगी:

“अगर तुम वापस न गये तो तुम्हें समुद्र में डुबो दिया जाएगा। लौट जाओगे तो लौटने का भाड़ा भी शायद तुम्हें मिल जाए।”

आखिरकार काफी टालमटोल के बाद अब गांधी जी के क्वारंटीन का समय समाप्त होने को आया। गांधी जी कहते हैं- 

“इस प्रकार हमारे दिन बीतते और लंबे होते गये। सूतक समाप्त करने की अवधि अन्त तक निश्चित नहीं हुई। इस विभाग के अधिकारी से इस पहुँचने पर वह कहता, “यह मेरी शक्ति से बाहर की बात है सरकार मुझे आदेश दे, तो मैं आप लोगों को उतरने की इजाजत दे दूं।” 

“अंत में यात्रियों को और मुझे अल्टिमेटम मिले। दोनों को धमकी दी गयी कि तुम्हारी जान खतरे में है। दोनों ने नेटाल के बंदर पर उतरने के अपने अधिकार के विषय में लिखा, और अपना यह निश्चय घोषित किया कि कैसा भी संकट क्यों न हो, हम अपने इस अधिकार पर डटे रहेंगे।

आखिर तेईसवें दिन अर्थात १३ जनवरी, १८९७ के दिन, स्टीमरों को मुक्ति मिली और यात्रियों को उतरने का आदेश मिला।”

अब उतरने के बाद गांधी जी का सामना गोरों के आक्रोश से हुआ। बकौल गांधी जी- 

“...मुझ पर कंकरों और सड़े अण्डों की वर्षा शुरू हुई। किसी ने मेरी पगड़ी उछाल कर फेंक दी। फिर लातें शुरू हुईं। मुझे गश आ गया। मैंने पास के घर की जाली पकड़ ली और दम लिया। वहाँ खड़ा रहना तो संभव ही न था। तमाचे पड़ने लगे। इतने में पुलिस अधिकारी की स्त्री, जो मुझे पहचानती थी, उस रास्ते से गुजरी। मुझे देखते ही वह मेरी बगल में आकर खड़ी हो गयी और धूप के न रहते भी उसने अपनी छत्री खोल ली। इससे भीड़ कुछ नरम पड़ी।अब मुझ पर प्रहार करने हों, तो मिसेज एलेक्जेण्डर को बचाकर ही किये जा सकते थे।” 

इस प्रकार तमाम झंझावातों से बचते-बचाते गांधी जी अपने अफ्रीका के आवास पहुंचे।


भारत में भी जब लगभग तीन महीने का लंबा लाकडाऊन लगा तो बाल बनाने वाले ‘नाईयों’ की दुकानें भी बंद थीं। इन दुकानों पर आने वाले ग्राहकों से संक्रमण फैलने का खतरा सबसे ज्यादा था। स्वाभाविक रूप से इतने दिनों तक
नाईं की दुकानों के बंद रहने से लोग बाल कटाने और दाढ़ी बनाने को व्याकुल हो गये। ज्यादातर लोगों ने इसका विकल्प ‘टकला’ होना खोजा और परस्पर एक दूसरे का टकला बनाने लगे। गांधी जी को भी अफ्रीका में इस तरह की असहज स्थिति का सामना करना पड़ा था। कोई भी नाईं उनका बाल बनाने को तैयार न था। नाईं को डर था कि गांधी जी के कारण उसकी दुकान पर ‘गोरों’ का आना बंद हो जायेगा। अतः गांधी जी ने अपने हाथ से ही अपना बाल बनाया। गांधी जी बताते हैं कि – 
“एक बार प्रिटोरिया में मैं एक अंग्रेज हज्जाम की दुकान पर पहुंचा। उसने मेरी हजामत बनाने से साफ इनकार कर दिया और इनकार करते हुए जो तिरस्कार प्रकट किया, सो घाते में रहा। मुझे दु:ख हुआ। मैं बाजार पहुँचा। मैंने बाल काटने की मशीन खरीदी और आईने के सामने खड़े रहकर बाल काटे। बाल जैसे-तैसे कट हो गये, पर पीछे के बाल काटने में बड़ी कठिनाई हुई। सीधे तो वे कट ही न पाये। कोर्ट में खूब कहकहे लगे। ‘तुम्हारे बाल ऐसे क्यों हो गए हैं? सिर पर चूहे तो नहीं चढ़ गये थे?’ मैंने कहा : “जी नहीं, मेरे काले सिर को गोरा हज्जाम कैसे छू सकता है ? इसलिए कैसे भी क्यों न हों, अपने हाथ से काटे हुए बाल मुझे अधिक प्रिय हैं।”

अंततः कुछ दिनों बाद दक्षिण अफ्रीका में भी प्लेग की यह महामारी फूट ही पड़ी। गांधी जी कहते हैं कि – 

“यह महामारी प्राणघातक थी। यह फेफड़ों की महामारी थी। गाँठवाली महामारी की तुलना में यह अधिक भयंकर मानी जाती थी।”

यद्यपि इस महामारी का प्रकोप भारतीय लोकेशनों पर नहीं था। अतः भारतीय इससे प्रभावित नहीं हुए, परन्तु सोने की खानों में काम करने वाले 23 हब्शी अफ्रीकी नागरिक गंभीर रूप से संक्रमण की स्थिति में भारतीय लोकेशंस की जगहों पर ही लाए गए। गांधी जी ने अपने हिन्दुस्तानी सहयोगियों के साथ-साथ अफ्रीकी सहयोगियों की भी मदद लेकर इन प्लेग पीड़ितों की खूब मदद की। गांधी जी उन दिनों को याद करते हुए लिखते हैं- 

“मैंने बहुत से बीमारों की सेवा सुश्रुषा की थी, पर प्लेग के बीमारों की सेवा-सुश्रुषा करने का अवसर मुझे कभी नहीं मिला था। डॉ.गॉडफ्रे की हिम्मत ने हमें निडर बना दिया था। बीमारों की विशेष सेवा-चाकरी कर सकने जैसी स्थिति नहीं थी। उन्हें दवा देना, ढाढ़स बँधाना, पानी पिलाना और उनका मल-मूत्र आदि साफ करना, इसके सिवा विशेष कुछ करने को था ही नहीं।”

अफ्रीका के म्युनिसिपालिटि के टाउन क्लर्क ने गांधी जी के मदद की सराहना की तथा उनसे कहा कि – ‘आपको जो मदद चाहिए, आप माँगिये। टाउन-कौंसिल से जितनी मदद बन सकेगी उतनी वह करेगी। इन परिस्थितियों में गांधी जी ने खुद एक गोदाम को साफ किया, जो काफी मैला व गंदा था। भारतीयों ने खटिया वगैरह से मदद की। इस प्रकार एक चलता-फिरता अस्पताल तैयार हो गया। म्युनिसपैलिटी ने एक नर्स भेजा और उसके साथ ब्राण्डी की बोतल और बीमारों के लिए अन्य आवश्यक वस्तुएं भेजीं।

अब प्लेग महामारी से पीड़ितों का इलाज़ चलने लगा था। गांधी जी बताते है कि-  

“बीमारों को समय-समय पर ब्राण्डी देने की सूचना थी। रोग की छूत से बचने के लिए नर्स हमें भी थोड़ी ब्राण्डी लेने को कहती और खुद भी लेती थी। हममें कोई ब्राण्डी लेनेवाला न था। मुझे तो बीमारों को भी ब्राण्डी देने में श्रद्धा न थी। डॉ.ग्रॉडफ्रे की इजाजत से तीन बीमारों पर, जो ब्राण्डी के बिना रहने को तैयार थे और मिट्टी के प्रयोग करने को राजी थे, मैंने मिट्टी का प्रयोग शुरू किया और उनके माथे और छाती में जहाँ-जहाँ दर्द होता था वहाँ-वहाँ मिट्टी की पट्टी रखी। इन तीन बीमारों में से दो बचे। बाकी सब बीमारों का देहांत हो गया। बीस बीमार तो इस गोदाम में ही चल बसे।”

गांधी जी ने आत्मकथा में आगे बताया है कि इस महामारी को रोकने के लिए सरकार ने जोहांसबर्ग में एक जगह तय कर दी। यह आज के कोविड-वार्ड जैसा था। परन्तु यह शहरों से बहुत दूर होता था। वहाँ बिना इजाजत के जाना संभव न था। उस पर कड़ा पहरा रहता था और बेहद चौकसी। इन प्लेग पीड़ितों को तम्बू में रखा गया था। तीन हफ्ते रखने के बाद ज्यादातर मरीजों को लाभ हुआ और वे इस जगह से मुक्त हुए। सरकार ने इन तम्बूओं की नगरी को बाद में जला दिया। सरकार ने इस संक्रामक महामारी को रोकने के लिए खूब पानी की तरह पैसे को बहाया। अफ्रीकी सरकार ने भारतीयों और गांधी जी को प्लेग महामारी में इस नि:स्वार्थ सेवा और सहायता के लिए धन्यवाद दिया।

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(यह लेख बनारस से उमेश यादव  ने भेजा है। उनसे 9451337577 पर संपर्क किया जा सकता है।)

Thursday, September 3, 2020

'सभा'के कार्य और कार्यकर्त्ता : श्री 'जनार्दन'






'सभा' का लोगो 


काशी-नागरी-प्रचारिणी सभाके कार्यों और कार्यकर्त्ताओंका विस्तृत विवरण, जो उसके पिछले 50 वर्षोंका इतिहास होगा, यहाँ दे सकना स्थानाभावके कारण हमारी सामर्थ्यके बाहर है। अतः पाठकोंकी सामान्य जानकारी के लिए हम उसके कुछ संस्थापकों तथा विभागोंके कार्योंपर ही यहाँ संक्षेपमें प्रकाश डालेंगे। वैसे सभाका विस्तृत इतिहास श्री वेदव्रत शास्त्री बी.ए. ने लिखा है, जो उसके अर्द्धशताब्दी महोत्सवपर प्रकाशित होने जा रहा है।

सभाके संस्थापक 

काशी-नागरी-प्रचारिणी सभाको स्थापित हुए पूरे 50 वर्ष बीत गए। इसे ईश्वरकी कृपा ही कहना चाहिए कि उसके संस्थापक तीनों प्रमुख व्यक्ति 'सभा'का जयन्ती-उत्सव देखनेको प्रस्तुत ही नहीं हैं, वरन् एक (मिश्रजी) इस उत्सवको सफल बनानेके लिए इस चौथेपनमें भी ऐसा उद्योग कर रहे हैं कि कोई नवयुवक क्या करेगा। अर्थ-संग्रहके लिए दूर-दूरकी यात्राएँ कर रहे हैं, सभाएँ करते हैं, व्याख्यान देते हैं और कार्यालयका संचालन करते हैं। इससे प्रथम अच्छे स्वास्थ्यकी दशामें रायबहादुर श्यामसुन्दरदास तन-मनसे 'सभा'की सेवा किया करते थे। उनके सम्बन्धमें पं. रामनारायण मिश्रने एक व्याख्यानमें कहा था -
"सारा कार्य-भार श्री श्यामसुन्दरदास ही पर था। अधिवेशनोंकी कार्यवाही और दैनिक पत्र आदि वे अपने हाथसे लिखा करते थे। युवावस्थामें वे बड़े प्रभावशाली व्याख्यानदाता थे। उन्होंने अपनी सारी शक्ति सभाके उत्थान में लगा दी थी। भिन्न-भिन्न समयपर कुल मिलाकर 17 वर्ष तक वे सभाके प्रधानमन्त्री रहे, 9 वर्ष सभापति, 10 वर्ष उपसभापति और 2 वर्ष सहायक अथवा अर्थ-मन्त्री - अर्थात् 38 वर्ष तक पदाधिकारी रहकर उन्होंने सभाकी अमूल्य सेवा की। विशेष प्रशंसाकी बात तो यह है कि संवत् 1950 से 1952 तक मन्त्री रहकर जब 1954 में सहायक-मन्त्री चुने गए और संवत् 1985 से 1987 तक सभापति रहकर संवत् 1990 में जब अर्थ-मन्त्री चुने गए, तब उन्होंने उच्चपदसे निम्नपदपर आकर सभाकी सेवा करनेमें तनिक भी हेठी नहीं समझी। उन्होंने जितने काम किए, सभाके यशको बढ़ानेवाले प्रमाणित हुए।... कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो कार्य तो स्वयं करते हैं, पर सफल कार्योंका यश दूसरोंको अर्पण कर देते हैं; कुछ ऐसे होते हैं, जो कार्य दूसरोंसे कराते हैं और स्वयं यश लूट लेते हैं; तथा कुछ ऐसे होते हैं, जो स्वयं भी परिश्रम करते हैं और दूसरोंसे भी कार्य लेनेकी क्षमता रखते हैं। बाबू श्यामसुन्दरदास इसी श्रेणीके कर्मठ हैं। डा. श्यामसुन्दरदासमें स्वाभिमानकी मात्रा अवश्य अधिक है; परन्तु अभ्युदयकी आकांक्षाके साथ मिलकर स्वाभिमान मनुष्यको ऊँचा उठाता है। कोरा स्वाभिमान तो निरा अभिमान है।"

पं. रामनारायण मिश्रको सरकारी नौकरीमें रहनेके कारण अधिक समय तक काशीसे बाहर रहना पड़ा, फिर भी वे बीच-बीचमें काशी आ जाते और सभाके कार्योंमें सम्मिलित होते रहते थे। वे बाहर रहते समय भी सभा और हिंदीकी उन्नतिके लिए सचेष्ट रहते थे। काशीमें स्थायी रूपसे आ जानेपर उनके अधिकांश समयका उपयोग शिक्षण संस्थाओं और सामाजिक कार्योंमें होता रहा। इससे सभा उनके उद्योगसे तादृश लाभ नहीं उठा सकी थी, यद्यपि मिश्रजीका ध्यान सभाकी उन्नतिके लिए सदा रहता था। इधर अन्य संस्थाओंकी सेवासे समय निकलकर वे सभाकी सेवामें ऐसे कटिबद्ध हो गए हैं, जैसे अच्छे स्वास्थ्यकी दशामें बाबू श्यामसुन्दरदास रहा करते थे। आजकल मिश्रजी दिन-रात सभाकी उन्नतिके लिए प्रयत्नशील रहा करते हैं। अर्द्धशताब्दी-उत्सवको सम्पन्न करने और सभाकी आर्थिक दशा सुधारनेमें उन्होंने जैसा प्रयत्न किया है, वह अतुलनीय है।

रायसाहब ठा. शिवकुमारसिंह भी नौकरीके सिलसिलेमें अधिकतर काशीसे बाहर ही रहे। इसके अतिरिक्त पारिवारिक कार्य भी उनका समय ले लेते थे, जिससे उनकी भरपूर सहायता सभाको नहीं मिल सकी। इधर नौकरीसे अवकाश ले चुकने और काशी आ जानेपर सभाको उनसे बहुत आशा हुई थी; पर उनकी घरेलू कठिनाइयाँ उनको फुरसत बहुत कम दे रही हैं। नौकरीके सिलसिलेमें वे जहाँ-जहाँ गए, वहीं हस्तलिपि-परीक्षाका चलन उन्होंने यथेष्ट किया, जिससे सभाका एक उद्देश्य पर्याप्त रूपसे पूर्ण हुआ और इस दिशामें ठाकुर साहब अद्वितीय हैं। हिन्दीका पक्ष समर्थन करनेमें भी उन्होंने कुछ उठा नहीं रखा, यहाँ तक कि कभी-कभी सरकारी अधिकारियोंसे इस मामलेमें कहा-सुनी हो जानेपर भी वे दबे नहीं। और अन्तमें ऐसे अधिकारियोंको अपने पक्षका प्रबल समर्थक बनाकर मित्र बना लिया।

तीनों ही संस्थापकोंका सभाकी सेवा करनेका एक-एक विशिष्ट अंग है और उसको उन्होंने बड़ी उत्तमतासे सम्पन्न किया है। यदि सभीका सभाकी सेवा करनेका एक ही मार्ग होता, तो सभाकी सर्वांगीण उन्नति होनेमें इतना सुभीता न हुआ होता। बाबू श्यामसुन्दरदासकी सेवा सर्वांगीण थी, जैसा कि पं. रामनारायण मिश्रने एक अवसरपर कहा था कि
'सभाकी एक-एक ईंटपर श्यामसुन्दरदास का नाम अंकित है।'
उन्होंने न केवल स्वयं साहित्य-सेवा ही की, वरन् दूसरोंको साहित्य-सेवी बनानेका सफल प्रयत्न भी किया। साहित्यके अपूर्ण अंगोंके निर्माणमें बहुत सफलता प्राप्त की। किसी अंगरेज़ ग्रन्थ-प्रणेताका कथन है कि किसी पुस्तकको एक बार बाजार में बिकते देखो, तो बारह वर्ष बीतनेपर फिर उसकी खोज करो। यदि वह पुस्तक फिर बाज़ार में दिखाई दे, तो उसे साहित्यकी स्थायी सम्पत्ति समझो। बाबू साहबकी कई पुस्तकें क्या, बीसों वर्षसे चल रही हैं।


खोज और उसके निरीक्षक 

हस्तलिखित हिन्दी-पुस्तकोंकी खोजका काम बाबू राधाकृष्णदास की सूझ का फल है। उन्हींके उद्योग और पथप्रदर्शनमें यह काम आरम्भ हुआ। इसके निरीक्षक प्रथम आठ वर्षों तक बाबू श्यामसुन्दरदास रहे। उनकी लिखी रिपोर्टोंकी प्रशंसा विद्वानोंने की है। बाबू साहबके इस सिद्धान्तके अनुसार कि 'पथ-प्रदर्शनका कार्य करके दूसरोंको उसे सौंप देना ही अनेक व्यक्तियोंको कार्यमें लगाकर साहित्यकी उन्नति करना है।' डा. श्यामबिहारी मिश्र निरीक्षक हुए। उनके अनन्तर पं.सुखदेवबिहारी मिश्रने एक वर्ष तक यह कार्य किया। फिर स्वर्गीय रायबहादुर डा.हीरालाल निरीक्षक हुए, जिन्होंने बड़ी महत्त्वपूर्ण रिपोर्टें लिखीं। उनकी लिखी पहली रिपोर्टोंमें मिश्र-बंधुओंकी लिखी अंतिम रिपोर्टका सम्पादन भी था। इसके विवेचनको देखनेसे हीरालालजीकी विद्वत्ता, सूझ और अनुसंधानके कार्यमें योग्यताका पूरा परिचय मिल जाता है। उन्होंने जितनी रिपोर्टें लिखी हैं, वे बड़े महत्त्वकी हैं। उन्हींका अनुसरण करके डा.पीताम्बरदत्त बड़थ्वालने एक बृहदाकार रिपोर्ट लिखी है, जो छप तो गई है; पर अभी सरकारी प्रेससे प्रकाशित नहीं हुई। सारांश यह कि इस कामको चलाया श्यामसुन्दर बाबूने; पर सबसे महत्त्वका कार्य रायबहादुर डा.हीरालालका है। बात यह है कि खोजके काममें वे सरकारी पदपर बहुत समयसे लगे हुए थे और उसमें पूर्णतया दक्ष गए थे। आजकल डा.वासुदेवशरण अग्रवाल इस कार्यके निरीक्षक हैं। आशा है, इनका कार्य भी परम्पराके अनुरूप महत्त्वपूर्ण होगा। 


आर्यभाषा-पुस्तकालय 

आर्यभाषा-पुस्तकालय 'सभा'से भी पुराना है - अर्थात् कोई 59 वर्ष पहले स्व.ठाकुर गदाधरसिंहने इसे मिर्ज़ापुरमें 'आर्यभाषा -पुस्तकालय'नामसे, संवत् 1941 में, स्थापित किया था। उस समय इसमें कुल 102 पुस्तकें थीं। ये ठाकुर साहब 'चीनमें तरह मास' आदि पुस्तकोंके लेखकसे भिन्न थे। ये क़ानूनगो थे। इन्होंने 'दुर्गेशनन्दिनी', 'बंगविजेता', 'कादम्बरी' आदि बँगला-पुस्तकोंका हिन्दीमें उल्था किया था। सरकारी नौकरीसे छुट्टी लेकर थोड़े दिनोंके लिए जब ये बनारस आए थे, तब सभाके सभासद हो गए थे। सभाके प्रबन्धसे सन्तुष्ट होकर इन्होंने अपना पुस्तकालय सभाको सौंप दिया। तब तक उसमें हज़ार पुस्तकें हो चुकी थीं। संवत् 1953 में 'नागरी-भण्डार' इसी पुस्तकालयमें सम्मिलित हो गया, जो सभाका था। उक्त ठाकुर साहबने पुस्तकालय तो सभाको दिया ही, साथ ही सभाके पक्षमें अपनी वसीयत भी कर दी, जिससे सभाको दो हज़ार मिला। इस वसीयतनामेके झगड़ेका निपटारा सभाको हाईकोर्टसे कराना पड़ा था। सभाके पुस्तकालयमें उत्कृष्ट ग्रन्थोंकी कमी नहीं है। अनेक विद्वान् और विश्वविद्यालयोंके छात्र इस पुस्तकालयमें अनुशीलनके लिए आया करते हैं। 

सभाको समय-समयपर विशिष्ट उदार सज्जनोंसे महत्त्वपूर्ण संग्रह प्राप्त होते आये हैं। वास्तवमें यह पुस्तकालय ऐसे ही विशेष संग्रहोंका बृहत् संग्रहालय है। इसे पहला संग्रह तो पूर्वोल्लिखित ठाकुर साहबका प्राप्त हुआ, फिर संवत् 1990 में आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदीका संग्रह मिला। उनके दिवंगत हो जानेपर द्विवेदीजीके भानजे पं.कमलाकिशोरजीने संग्रहके अवशिष्ट ग्रन्थ भी सभाको सौंप दिए। द्विवेदीजी इसकी आज्ञा उन्हें पहले ही दे गए थे। 'द्विवेदी-संग्रह'में 4280 पुस्तकें हैं, जो 12 आलमारियोंमें रक्षित हैं। इसमें छोटीसे छोटी और बड़ीसे बड़ी अलभ्य पुस्तकें हैं। प्राय: प्रत्येक पुस्तकके मुखपृष्ठपर द्विवेदीजीके हस्ताक्षर और प्राप्तिकी तिथि भी है। पुस्तकोंपर द्विवेदीजीके पढ़नेके चिह्न भी हैं - कहीं भूल-चूक सुधारी गई है, कहीं दूसरी बातोंके लिए संकेत हैं। 

तीसरा 'रत्नाकर'जीका संग्रह है, जो स्वर्गीय बाबू जगन्नाथदासजी 'रत्नाकर' बी.ए. के सुपुत्र बाबू राधाकृष्णदासने संवत् 1989 में प्रदान किया था। इसमें 1189 पुस्तकें हैं, जो 4 आलमारियोंमें सुरक्षित हैं। बिहारी और सूर-संबंधी साहित्य किसी अन्य स्थानमें दुर्लभ है। इसमें बिहारीपर सन् 1819 की छपी हुई एक पुस्तक है। इसके अतिरिक्त हिन्दी, फ़ारसी, अंगरेज़ी और गुजरातीमें बिहारीपर जितनी टीकाएँ मुद्रित हैं, वे सभी इस संग्रहमें हैं। प्राकृतपर कई ग्रन्थ हैं। चौथा संग्रह डा.हीरानन्द शास्त्री एम.ए. का है। इसकी 1012 पुस्तकें 4 आलमारियोंमें हैं। इस संग्रहमें जैन विद्वानोंके संस्कृत-ग्रन्थ, आत्मानन्द, वुलनर, आशुतोष और दयानन्द आदि सम्बन्धी स्मारक ग्रन्थ, नागरीमें गुरुग्रन्थ साहबकी एक सुन्दर प्रति और चित्रकला आदिपर अच्छी-अच्छी पुस्तकें हैं। रत्नाकरजी और शास्त्रीजीके संग्रहोंमें हस्तलिखित पुस्तकें भी हैं। 

सरकारी सहायतासे हिन्दी-पुस्तकोंकी खोज सभाका खोज-विभाग करता है। इस प्रान्तके बाहर दतिया, चरखारी, पन्ना, दिल्ली और पंजाबमें भी खोज की गई थी। यों सभाको सैकड़ों हस्तलिखित ग्रन्थ उपलब्ध होते जा रहे हैं। सभाको कला-सम्बन्धी बहुमूल्य सामग्री संवत् 1985 में राय कृष्णदासजीने दी। 'भारत-कला-भवन'में पुरातत्त्व-सम्बन्धी बहुत-से ग्रन्थ आते रहे हैं। बाबू शिवप्रसाद गुप्त जब अमेरिका गए थे, तब ऐसा प्रबन्ध कर आए थे, जिससे वहाँकी प्रतिष्ठित संस्था 'स्मिथ सोनियन इंस्टीट्यूशन'के सभी बहुमूल्य प्रकाशन सभाको बराबर मिल रहे हैं। इसी प्रकार हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन प्रयाग, गुजरात वर्नाक्यूलर सोसाइटी, हिन्दुस्तानी एकेडेमी, सार्वदेशिक आर्यप्रतिनिधि-सभा तथा अन्य नामी-गिरामी पुस्तक-प्रकाशक लोग सभाको अपने प्रकाशन भेंट किया करते हैं। 

रायबहादुर कौशलकिशोरने अपने स्वर्गीय पिता लाला सीताराम 'अवधवासी'के सब ग्रन्थोंकी एक-एक प्रति, सुन्दर ज़िल्द बँधवाकर, सभाको भेंट की है। पाँचवाँ संग्रह रायबहादुर डा.श्यामसुन्दरदासका है। इसमें उनकी रचित पुस्तकें हैं, जिनपर मूल्यवान् ज़िल्दें हैं। इसमें हिन्दी-साहित्यके अन्य अनेक उत्तम ग्रन्थ हैं। पं.रामनारायण मिश्रजीने अपना संग्रह सभाको दिया है, जिसमें शिक्षा और समाज-सुधार-विषयक पुस्तकें अधिक हैं। इन संग्रहोंकी संख्या इस वर्ष याज्ञिक-बन्धुओंने बढ़ा दी। उन्होंने अपने चचा स्वर्गीय पं.मयाशंकरजी याज्ञिकका हस्तलिखित पुस्तकोंका संग्रह सभाके अर्पण किया है। इसमें अधिकतर ब्रजभाषा-काव्यका भाण्डार है। यह ऐसी वस्तु है, जिसको प्राप्त करनेके लिए अनेक संस्थाएँ प्रयत्न कर रही थीं। इसमें 1178 पुस्तकें हैं। इनमें से मुख्य ग्रंथोंके प्रकाशनके लिए पं.जीवनशंकरजीने 1000)की निधि भी सभाको भेंट की है। इस समय पुस्तकालयमें 27637 छपी और 3357 हस्तलिखित पुस्तकें हैं। इनकी रक्षा कृमि-कीटोंसे तो करनी ही पड़ती है। इनके आक्रमण विविध रूपोंमें शिष्टतापूर्वक होते हैं। 

पुस्तकालयके ग्रन्थियों (लाइब्रेरियनों) में पं.केदारनाथ पाठक बहुत ही नामी थे। लाइब्रेरियनकी अपेक्षा वे एक आधार-ग्रन्थ थे। कौन-सा विषय किस-किस पुस्तकमें है, वह पुस्तक कहाँ-कब छपी है, उसके कितने संस्करण हुए हैं, इसके वे मानो कोष थे। बीस वर्षसे अधिक समय तक वे पुस्तकालयमें पुस्तकाध्यक्षके रूपमें सभाकी सेवा करते रहे। छोटे लाटको अदालतोंमें नागरीका प्रचलन करानेके लिए सभाने जो मेमोरियल दिया था, उसपर विभिन्न ज़िलोंमें हस्ताक्षर करानेके लिए उन्होंने यात्रा की थी और कहीं-कहीं कठिनाई भी झेली थी। जान पड़ता है, इनकी कर्णेन्द्रियकी शक्तिने खसककर स्मरणशक्तिको द्विगुणित कर दिया था। अनेक प्रसिद्ध लेखकोंसे आपका व्यक्तिगत परिचय था। स्वभावके आप खरे थे। वर्त्तमान ग्रन्थी पं.शम्भुनारायण चौबे बड़े त्यागी और मिलनसार हैं। गोस्वामीजीके ग्रन्थोंके आप पारखी और भक्त हैं। आशा है, आपकी इस योग्यताका समुचित उपयोग होगा। 

 
बाबू गोपालदासने सभाका कार्य करना स्वल्प वेतन लेकर आरम्भ किया था। किन्तु अपनी योग्यता, लगन और ईमानदारीके कारण धीरे-धीरे सभाकी आर्थिक दशा सँभलनेपर उनके वेतनमें ही वृद्धि नहीं हुई, अपितु वे सहायक मन्त्री भी बना दिए गए। यह पद बड़े दायित्त्वका है; क्योंकि पदाधिकारी तो प्राय: अदलते-बदलते रहते हैं; पर स्थायी कर्मचारियोंको आनुपूर्विक कार्य सँभालना पड़ता है - इसमें उन्हें यशकी अपेक्षा अपयशका अधिक डर रहता है। ऐसे गुरुत्त्वके कार्यको उन्होंने मुद्दत तक सँभाला, यह प्रशंसाकी बात है। उक्त पदपर इतने अधिक समय तक कार्य करनेका धैर्य और लोगोंमें कदचित् ही हो। 


सभाकी सन्तति 

सभाका ज्येष्ठ पुत्र है हिन्दी-साहित्य-सम्मलेन, जो आरम्भके बादसे ही प्रयागके जल-वायुमें प्रतिपालित होकर वयस्क हो गया है और समूचे भारतमें हिन्दीकी ध्वजा धूमधामसे उड़ाता हुआ अपनी जननीके उद्देश्योंको पूर्ण करनेमें तन-मनसे लगा हुआ है। यह संतानवान् भी हो गया है। सभाका दूसरा दत्तक पुत्र है 'कला-भवन', जो हो तो गया है वयस्क; पर रहता है जननीके कन्धेपर और सब प्रकारसे माताका दुलार पा रहा है। साथ रहनेसे दोनोंकी शोभा है। इस साल अपनी 50 वर्षकी अवस्था हो जानेपर एक और पुत्रका पालन-पोषण सभा करने लगी है। इसका नाम है 'सत्यज्ञान-निकेतन'। यह बालक हरद्वारके समीप ज्वालापुरमें खेल रहा है। अभी इसके पालन-पोषण और रक्षणावेक्षणका भार सभाको ही सँभालना है। आशा है, यह पुत्र उत्तर-भारतका सम्बन्ध इन प्रान्तोंसे घनिष्ट करके सभाके उद्देश्योंको पूर्ण करनेका भरसक प्रयत्न करेगा। 

फ़रवरी, 1931 में 'विशाल भारत' सम्पादकने हिन्दी-साहित्य-सम्मेलनके सम्बन्धमें ऐसी कुछ बातें लिखी थीं, जिनको तनिक परिवर्त्तित करके 'सभा'के सम्बन्धमें कह सकते हैं -
जिस भाषाके बोलनेवाले तेरह करोड़से ऊपर और समझनेवाले बीस करोड़से भी अधिक हैं, उसकी सर्वश्रेष्ठ संस्थाको ऐसा त्यागी व्यक्ति मिलना चाहिए, जो अपनी सम्पूर्ण शक्ति और अपना सारा समय उसीके लिए अर्पित कर दे।... जिन मदोंमें सभाकी आय बढ़ सकती है, उनकी भरपूर जाँच होनी चाहिए। सभाके पास इस समय जितने रुपएकी लागत और मूल्यकी पुस्तकें हैं, उनके यथोचित विज्ञापन और मूल्यकी सुव्यवस्था होनी चाहिए। सभाका माल प्रतिनिधि पुस्तक-विक्रेता हड़प न कर जायँ, इसपर सदा चौकस दृष्टि रहे। लोगोंको अन्धाधुन्ध पुस्तक न बँटें। कार्यालयके वेतनका व्यय इतना अधिक न होने पावे कि मँझधारमें नावके डूबनेकी आशंका  लगे। प्रकाशन हो, तो महत्त्वका; पर ऐसा न हो कि जो सभामें पड़ा-पड़ा दीमकोंका आहार बनने लग जाय, या जिसमें लगाई गई पूँजी वसूल ही न हो। हम हिन्दीवाले चाहे जितनी शेखी बघारते रहें; पर सच तो यह है कि हम लोगोंमें आदर्शवादिताकी बड़ी कमी है। अध्यापक, वकील, पुस्तक-विक्रेता या छापेखानेवाले अपने समयका सर्वोत्तम भाग तो अपने पेशेके लिए ही अर्पण कर सकते हैं और जिनके पास दुहरा-तिहरा काम है, वे सभाको और भी कम समय दे सकते हैं। इनकी सहायताका सम्मान अवश्य होगा, फिर भी कुछ लोग ऐसे हों, जिनका जीवन सभाके लिए अर्पित हो और सभाके पदाधिकारी तथा वेतनभोगी कर्मचारी लोग ऐसी उदात्त भावनावालोंके सहयोगसे सभाका हित होने दें। बिना त्यागके संस्थाओंका हित नहीं होता। अतः इस अंगकी पूर्ति अवश्य होनी चाहिए। 


 [ जनवरी, 1944 ]