पानी की समस्या दुनिया के तमाम देशों में जीवन की सबसे महत्वपूर्ण समस्याओं में से एक है। पानी दूषित हो तो पीने वाला कई तरह की बीमारियों का शिकार होकर जीवन से हाथ धो बैठता है।अच्छा और साफ पानी अमीरों और संपन्न लोगों के लिए सुरक्षित कर लिया गया है।आज हम पूरी दुनिया में बोतलबंद पानी की बिक्री के रूप में इसे देख रहे हैं। पानी बेचने वाली कंपनियों ने अनेक देशों में अनिवार्यतः पानी बेचने की शुरुआत की और थोड़े ही दिन में जब उनकी मुनाफाखोरी परवान चढ़ गई तब सारी व्यवस्था को तहस-नहस करके भाग खड़े हुए। बोलीविया जैसे अनेक दक्षिण अमेरिकी देश सबसे बड़े गवाह हैं।
भारत में पानी की समस्या के इतने आयाम हैं कि पूरा का पूरा वेद और पौराणिक-साहित्य पानी पर अधिकार की लड़ाईयों से भरा पड़ा है। ऋग्वेद में 'इंद्र' पानी का देवता माना जाता है और उसी के नाम पर अच्छे जल स्रोतों का नाम 'इन्द्रागार' या 'इनारा' हुआ,जिसे बाद में हम कुएं के रूप में देखते हैं। 'चाणक्य के अर्थशास्त्र का मत है कि प्रत्येक दस परिवारों के लिए एक सार्वजनिक कूप का निर्माण होना चाहिए।' बाद में भी कुछ शासकों ने तालाब जैसे बड़े जल स्रोतों का निर्माण करवाया लेकिन हम देखते हैं कि कुएं, तालाब और बावड़िया हमेशा अभिजातों के कब्जे में रही हैं। भारतीय समाज में एक ख़ास वर्ग को स्वच्छ पानी से वंचित रखा गया।
बीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक में डॉ.भीमराव अंबेडकर ने चावदार तालाब (महाड़ आंदोलन) के सार्वजनीकरण के लिए संघर्ष किया। उत्तर भारत में कुएं ठाकुरों के होते थे। जिस पर प्रेमचंद ने 'ठाकुर का कुआं' कहानी लिखी या किसी विधवा की सारी संपत्ति से कोई कुआं खुदवा दिया जाता था। लेकिन सामाजिक हालात को देखते हुए दलित और अछूत उन कुओं के पास जा नहीं सकते थे। इस विषय पर अनेक कहानियां और लेख मिलते हैं।
लेकिन क्या आप जानते हैं कि जिस देश की महारानी के राज में कभी सूरज अस्त नहीं होता था उनकी राजधानी से मात्र दस-पंद्रह किलोमीटर दूर भी कोई ऐसी जगह हो सकती है,जहां के लोग कुओं के अभाव में गंदे और अस्वस्थकर पानी पीने को अभिशप्त थे। प्रसिद्ध इतिहासकार काशीप्रसाद जायसवाल ने ब्रिटेन के स्टोकरी,आक्सफोर्ड में तत्कालीन काशी नरेश ईश्वरीप्रसाद सिंह द्वारा बनवाये गये एक ऐसे ही कुएं का ज़िक्र 'सरस्वती' पत्रिका (जुलाई, 1908) में किया था। इस कुएं का शताब्दी वर्ष भी मनाया गया था, जो सरस्वती के जुलाई 1964 के अंक में पुनः छपा था। वे दोनों ही रिपोर्ट आपके समक्ष प्रस्तुत हैं...
(प्रस्तुति : उमेश यादव )
(प्रस्तुति : उमेश यादव )
इंग्लैण्ड में काशी नरेश के कुएं का शताब्दि समारोह---
गत अप्रैल मास में आक्सफर्ड जिले के स्टाॅकरो नामक ग्राम में उस कुएँ की सती मनायी गयी जो काशी-नरेश ने वहाँ बनवाया था। संयोग की बात है कि आज से ठीक छप्पन वर्ष पहिले 'सरस्वती' में श्री काशीप्रसाद जायसवाल ने उस कुएँ का मनोरंजक वर्णन लिखा था जो हम इस अंक में 'पुरानी सरस्वती' शीर्षक स्तंभ में दे रहे हैं। हमारे पाठकों को इस लेख से इस कुएँ का इतिहास मालूम होगा। इस कुएँ की शती बड़ी धूमधाम से मनायी गयी।
काशीनरेश की ओर से श्री बी०पी०एन०साही इस उत्सव में सम्मिलित हुए थे। इस उत्सव की अध्यक्षता स्वयं ड्यूक आफ़ एडिनबरा ने की थी। समारोह का आरंभ कुएँ से जल निकालकर किया गया और उसमें से श्री शाही द्वारा काशी से लाया गया पवित्र गंगाजल डाला गया। उस अवसर पर काशीनरेश ने अपनी ये शुभकामनाएँ तार द्वारा भेजी थीं जो वहाँ पढ़कर सुनायी गयीं - "मेरे पितामह के द्वारा की गयी यह अनुपम भेंट भारत और ब्रिटेन के मध्य सहानुभूति और सद्भावना की प्रतीक है।"
काशी-नरेश |
काशीनरेश ने इस कुएँ को चालू रखने के खर्च के लिए उसके पास चैरी नामक फलों के वृक्षों का एक बाग भी लगवा दिया था। वह चैरी का बाग आज भी अच्छी दशा में है। इस शती के उपलक्ष में इस बाग में चैरी का एक और वृक्ष लगाया। उत्सव के अतिरिक्त रात्रि में एक भोज का भी आयोजन किया गया। भारत में जलदान के लिए लोग कुएँ और तालाब खुदवाते हैं। गर्मियों में प्याऊ या पौसरे बैठाते हैं। इंग्लैंड में इस ग्राम के वासियों को कुएँ की यह भेंट उसी परम्परा की कड़ी थी। आज स्टाॅकरो में जलकल लग गयी है किन्तु वहाँ के निवासी काशीनरेश की इस भेंट को अपने गाँव के इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना समझते हैं और उन्हें इस भेंट का गर्व है। यह शती-उत्सव उनके कृतज्ञतापूर्ण भावना की सुन्दर और मधुर अभिव्यक्ति थी।
(सरस्वती, सं.श्रीनारायण चतुर्वेदी, इलाहाबाद : जुलाई १९६४ : आषाढ़ २०२१ वि०, वर्ष - ६५, पूर्ण संख्या - ७७५, खण्ड - २, संख्या - १, पृष्ठ - १९)
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इंग्लैंड के देहात में महाराजा बनारस का कुवाँ
आक्सफ़र्ड से 20 मील पर स्टोकरो नाम का एक गाँव है। वहाँ पर ग्राम्यजीवन का सुख अनुभव करने के लिए मेरे एक मित्र (मि. शाकिरअली, सेक्रेटरी, लंदन इंडियन सोसाइटी) कुछ दिनों के लिए आ रहे थे। एक दिन जुलाई में, जो प्रातः काल भ्रमण से मैं लौटा तो अपने कमरे में इन्हें बैठे पाया। मैं नहर पर से जंगली गुलाब का एक फूल आया था। उसे उन्हें देकर मैंने कहा, देखा,शाकिर,आक्सफ़र्ड में जंगली गुलाब* होता है। इस पर उन्होंने हँस कर कहा कि जहां मैं रहता हूँ वहाँ तुम्हारे जंगली गुलाब के जंगल लगे हुए हैं। वहाँ का बहुत मनोहर वर्णन करके उन्होंने मुझे वहाँ जाने के लिए निमंत्रित किया। मैंने कहा कि किसी दिन दोपहर को पहुँचूँगा और शाम को लौट आऊँगा। अस्तु।
29 जुलाई को 1 बजे रेल के स्टेशन पर पहुँचा। वहाँ से गोरिंग नाम की जगह आध घंटे का रास्ता है। 3 शिलिंग में आने जाने का टिकट मिला। गोरिंग से स्टोकरो 6 मील पैदल जाना पड़ता है। कोई सवारी नहीं मिलती।
लंदन से 5 मील बाहर हर तरफ़ देहात है। खेतों में अन्न नहीं बोया जाता; घोड़ों के लिए घास उगाई जाती है। बारहों महीने खेत हरे रहते हैं। कोई सप्ताह ऐसा नहीं जाता कि 3, 4 दिन पानी न बरसे। कड़ी धूप,गर्मियों में,कभी-कभी होती है। नहीं तो हमेशा थोड़ी-बहुत बदली रहा करती है। आज कल, जुलाई में, बादल बिलकुल न रहे तो धूप से चीज़ें तप जाती हैं। एक दिन ख़ूब धूप थी। खिड़की से मेज़ पर जो धूप आती थी उससे दावात की स्याही बिलकुल सूख गई और किताबों की जिल्दे ऐंठ गईं। पानी बरसने से यह मतलब नहीं कि अपने यहाँ की सी वर्षा होती है। यहाँ वर्षा ऐसी होती है कि छतरी की ज़रूरत नहीं पड़ती। झीसी पड़ती है। ओवरकोट पहन लिया जाता है, उससे पानी से पूरी रक्षा हो जाती है। ओवरकोट से बर्साती का मतलब नहीं।
गोरिंग से स्टोकरो जाते समय ख़ूब धूप थी। खेत में जंगली लाल पोस्त फूले हुए थे।। सड़क के किनारे छोटे-छोटे जंगली फूल खिल रहे थे जिन्हें कहीं-कहीं लड़कियाँ चुन रहीं थीं। सड़क पर पथिक नहीं थे। चलने के श्रम से पसीना निकल रहा था। रास्ता निश्चय करने के लिए फ़ार्म (घास की खेती करने वालों के खलिहान) वालों से जाकर पूछना पड़ता था। 3 मील चलने पर दोनों तरफ़ सनोबर के ऊँचे-ऊँचे सीधे वृक्षों के जंगल बड़े ही सुहावने मिले।रास्ते में एक बुड्ढा आदमी अपनी देहाती गाड़ी लिए मिला। उसने गाड़ी रोककर कहा कि आप सवार होकर मेरे साथ एक मील तक चल सकते हैं। मैंने उसका यह सत्कार स्वीकार किया। बुड्ढा पूरा देहाती था। कहने लगा, वह जो मकान देख पड़ता है वहीं मैं पैदा हुआ था। और वह जो टीला देख पड़ता है उसकी एक झोपड़ी में मैं 19 बरस तक था। अब यहाँ से मील भर जो मकान है,उसमें 20 बरस से हूँ। उसकी अंग्रेजी बोलने के साथ ही समझ में नहीं आ जाती थी। उसने उँगली उठा बताया कि बग़ल के जंगल में चिड़ियाँ पली हुई हैं। उनके बच्चे दो महीने में तैयार हो जाएँगे, तब लोग शिकार खेलने आवेंगे। अस्तु। इसी तरह की बातें वह करता रहा।उतरते समय मैंने उसे आधे शिलिंग का एक रजत-खंड भेंट किया।
पौने दो घंटे में वेस्ट मैनेस्टर नामक स्थान पर,जहाँ मेरे मित्र थे, पहुँचा। यह मकान पहले रीड नामक प्रसिद्ध उपन्यासकार का था। इसी में रहकर वह उपन्यास लिखता था। इसके चारों ओर कोई दूसरी इमारत नहीं; जंगल और खेत हैं। यहाँ पहुँचने पर मैंने देखा कि मेरे मित्र नहीं है पास के किसी गाँव में किसी के यहां गए हैं।
मकान का मालिक अपना बाग़ और घास-प्रसवा भूमि दिखाने लगा। घास का भाव, शशकों का बाहुल्य,अपने घोड़ों की उम्र 7 बरस के कुत्ते की प्रशंसा, आदि से उसने मेरा मनोरंजन किया। इतने में रुँध में कुत्ते ने एक खरगोश जा पकड़ा। आप दौड़े और देखते-देखते कान पकड़ कर मुर्दा शशक को लिए प्रसन्नवदन लौट आए।कहने लगे कुत्ता ख़ूब समझदार नहीं; खरगोश छोटा है; व्यर्थ मारा। बड़े प्रेम से आपने पूछा, कि रात को खाइए "रैबिट" को पकवावें। मैंने कहा, बहुत-बहुत धन्यवाद; माफ़ कीजिए। मैं रात को कुछ न खाऊँगा। दूध अगर मिलेगा तो पीलूगाँ।
गाँव था, घर का मालिक ग्रामीण था; पर घर में घड़ी और पिआनो का अभाव नहीं था। रात हो गई; मित्र महाशय नहीं लौटे। मुझे चुपचाप देख गृहपति ने कहा ताश खेलिए। मैंने कहा, खेद है मुझे ताश का कोई खेल नहीं आता ।तब उसने अपनी दो बहनों की पियानो बजाने के लिए कहा। यदि नगर में किसी के यहाँ होता तो राजनैतिक बातों की कुछ न कुछ चर्चा ज़रूर छिड़ती; अमेरिका और जापान के बीच लड़ाई होने या न होने की संभावना पर राय देनी पड़ती; या इंग्लैंड के बैरी जर्मनी के बलविक्रम पर बहस होती।पर यहाँ घास की फ़सल और घोड़ों, कुत्तों की उम्र की प्रशंसा थी। रात के 11 बजे मेरे मित्र घर आए।
दूसरे दिन प्रातः काल धारोष्ण दूध पीने को मिला। दूध यहाँ का पतला होता है; बालाई नहीं पड़ती। पर यह उष्ण दूध सुस्वादु था। मेरे भोजन का सवाल दरपेश हुआ। मेरे मित्र को मेरा तितम्मा मालूम था। क्योंकि इन्हीं ने पहले पहल लंदन में मेरे लिए सब प्रबंध किया था। गृहपति ने कहा कि मेरी बाग़ में जितने फल हैं सब मेरी नज़र हैं। अस्तु मटर की फली, गूज़बरी, रैस्पबरी, करंट, स्ट्राबरी आदि में घंटों खेत में खाता रहा।
इसके बाद महाराजा बनारस का कुवाँ देखने रवाना हुए।इस गाँव में कोई कुवाँ पहले नहीं था। कुछ गड्ढे थे जिनके सड़े पानी पर गुजर होती थी। उपन्यासकार रीड का एक भाई कप्तान रीड ईस्ट इंडिया कंपनी में नौकर था। उसने महाराजा ईश्वरीप्रसाद सिंह से अपने गाँव में कुवाँ बनवा देने की प्रार्थना की। अतः 1863 इसी में कुएँ का काम शुरू हुआ और 64 में पूरा हुआ। 696 पौंड 12 शिलिंग 3 पेन्स इसके बनाने में खर्च पड़े। कोई साढ़े दस हज़ार रुपए हुए। कुएं के सामने एक उद्यान है जो मछली** के आकार का है। बग़ल में एक बड़ा सा रमना है। यह सिर्फ़ गायों के चरने के लिए है। यह देख कर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई कि अब तक इस रमने में गाय के सिवा कोई जीव नहीं जाने पाता; यहाँ तक कि मुझे भी भीतर नहीं जाने दिया। रक्षिका ने बड़े अदब से कहा कि महाराजा ने सिर्फ़ गायों के लिए इसे उत्सर्ग किया है। कुछ आमदनी के लिए इसमें 101 चेरी के वृक्ष लगे हैं। इसमें 120 रुपए सालाना आमदनी होती है। इसका नाम 'ईश्वरी पार्क' है। इसमें दो गड्ढे महाराजा के राजचिन्ह के आकार के हैं।जब कुवाँ बना था, उन्हीं गड्ढों का पानी लोग पीते थे।
काशी-नरेश |
कुवाँ पक्का बँधा है। जगत के ऊपर एक हिंदू ढाँचे की छतरी है। इस पर एक सुनहरी कलशी है। छतरी के छज्जे के ऊपर "महाराजा आव बनारस" अंग्रेजी में लिखा हुआ है। छज्जे के नीचे, द्वार पर,ऊपर नीचे,महाराज का सुनहरा राजचिन्ह,दो मछलियाँ, अंकित है। कुवें के चारों ओर लोहे का जंगला है।अरहट यंत्र पर एक डोल लटकता है; इसी यंत्र से पानी निकाला जाता है। 8 मिनट में एक डोल पानी ऊपर आता है। मैंने आजमाना चाहा, पर रक्षिका ने कहा आज इतवार है, आज नहीं। अरहट के ऊपर एक हाथी की मूर्ति है।यहाँ एक नोटिस लगा है, उसमें लिखा है कि पानी का कुछ मोल आप से नहीं माँगा जाता। आपसे कूपसमर्पक सिर्फ़ यही माँगता है कि जाते वक़्त कूप बंद करते जाइए। जिस में कोई गिर न पड़े। इसकी गहराई 346 फ़ीट है।
कुवें से हट कर आध मील पर, गाँववालों के कुछ मकान है। उनका नाम,महाराज के आदर के लिए,उन लोगों ने "ईश्वरी-टेरेस" रख दिया है।कुंवे के ट्रस्टी गाँव के गिरजाघर वाले हैं। गिरजाघर में इस कूप का एक बेहूदा सा कल्पित इतिहास टँगा है। कुँवे के पीछे कूपरक्षक के लिए एक छोटा सा कुटीर है। इसमें दो स्त्रियाँ इस समय रहती हैं। कूपदर्शन के बाद हम लोग ग्राम्य-शोभा देखने लगे। जंगली पुष्प और सनोबर के उगते हुए वृक्ष, जंगली मधुर फल, ऊँचे वृक्षों के फल, और वनों के बीच खलियान, बड़े मन लुभावते थे। एक पहाड़ी से आक्सफ़र्ड के समीपवर्ती गाँव देख पड़ते थे। एक खलियान बहुत ही प्रियदर्शी, 200 फ़ीट नीचे, स्थली पर था। खलीयानों की छाजन फूस या पत्थर के स्लेटों की होती है। पास ही घास का अटाल लगा होता है। घोड़ों से चलनेवाले गियर नामग यंत्र से घास की टाल लगाते हैं। एक "रोलर" से घास काटते हैं; वह भी घोड़ों ही से चलाया जाता है।खलियान में आदमी एक या दो होते हैं। काम पड़ने पर दूसरे खलियान के लोग मदद करते हैं। घास की कटनी पर ये लोग बड़ा आनंद मनाते हैं।
संध्या समय अपने मित्र के साथ टहलते हुए गोरिंग स्टेशन पहुँचा और फिर रेलद्वारा आक्सफ़र्ड।
* जंगली गुलाब का पेड़ साधारण गुलाब का सा होता है। फूल में पंखड़ियों की एक ही पांत होती है और सुगंध भी भीनी-भीनी रहती है।
** मछली, महाराज काशिराज का राजचिह्न है।
(संदर्भ : सरस्वती, भाग 9, संख्या 7, जुलाई 1908, पृष्ठ - 299-302)
Sahi hai... 💪💪💪💪
ReplyDeleteक्या इस लेख को प्रकशित कर सकते है
ReplyDeleteसंजय सक्सेना
सनराइज इंडिया समाचार
र्फ्रीलांस जर्नलिस्ट्स एंड राइटर्स फोरम
apnibaat@sunriseindiasamachar.com
हिंदीनवजागरण ब्लाॅग से साभार देते हुए इस लेख का प्रयोग कहीं भी कर सकते हैं।
Deleteबहुत ही शोधपरक आलेख।
ReplyDeleteबधाई