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श्री जगदीश बरनवाल 'कुन्द', बहादुर पटेल, घनश्याम कुमार 'देवांश' सहित तमाम मित्रों ने अच्छी बातचीत की। युवा कवि 'देवांश' ने 'वर्धा शब्दकोश' के माध्यम से अपनी बात को पुष्ट भी किया। इनकी बातचीत से यह भी लगा कि ये अंगरेज़ी भाषा के घनघोर विरोधी हैं।
दरअसल हम आँख मूँद कर शब्दकोशों पर विश्वास कर लेते हैं। प्रामाणिक शब्दकोशों में भी भारी बिगूचन है। आप विभिन्न शब्दकोशों को सावधानीपूर्वक देखेंगे तो उसमें वर्तनी संबंधी तमाम गलतियां भी मिल सकती हैं।
बीसवीं सदी के आरंभिक दो दशकों की हिंदी पत्रिकाओं को उलटते-पलटते 'अंगरेज़ी' की वर्तनी में मुझे अनेकरूपतायें मिलीं। जैसे :
इंदु (बनारस) : अँग्रेज़ी
नवजीवन (बनारस) : अङ्गरेज़ी
लक्ष्मी (गया) : अँगरेज़ी
मर्यादा (इलाहाबाद) : अंगरेज़ी
हिंदी प्रदीप (इलाहाबाद) : अंगरेज़ी
गृहलक्ष्मी (इलाहाबाद) : अँगरेज़ी
स्त्री दर्पण (इलाहाबाद) : अंग्रेज़ी / अंगरेज़ी
स्त्रीधर्म्म शिक्षक (इलाहाबाद) : अङ्गरेज़ी
स्वदेश-बान्धव (आगरा) : अंगरेज़ी
चान्द (लाहौर) : अंग्रेजी
[और हिंदी भाषा को परिमार्जित और व्यवस्थित करने वाली पत्रिका]
सरस्वती (इलाहाबाद) : अँगरेज़ी
उपर्युक्त विभिन्नताओं को देखकर घनश्याम कुमार 'देवांश' ने लिखा : ''इससे पता चलता कि हिंदी लेखकों और भाषा कर्मियों को अंग्रेज़ी शब्द से ही कितनी अरुचि थी।''
असल में नवजागरणकालीन हिंदी लेखक भाषा के माध्यम से भी साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ लड़ रहे थे।
वर्तनी संबंधी उपर्युक्त विभिन्नताएं हमें बताती हैं कि लोग अंगरेज़ और अंगरेजी भाषा के प्रति कितना नफ़रत का भाव रखते थे।
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