Sunday, October 18, 2020
असहयोग : एक राष्ट्रीय आत्मा
Wednesday, October 14, 2020
समय और समाज का भाष्य : विजय विशाल की कविताएँ : शशि कुमार सिंह
समय और समाज का भाष्य : विजय विशाल की कविताएँ
शशि कुमार सिंह
चींटियाँ शोर नहीं करतीं विजय विशाल का सद्यः प्रकाशित काव्य संग्रह है। यह सच है कि चींटियाँ शोर नहीं करतीं। पर यह अधूरा सच है। पूरा सच यह है कि अनेक ऐसे रचनाकार भी हैं जो बेहद ख़ामोशी से रचनारत रहते हैं।वे भी शोर नहीं करते। विजय विशाल ऐसे ही रचनाकार हैं जो शहरी चकाचौंध से दूर हिमाचल के पहाड़ी गाँव में मौन कवि-कर्म में विश्वास रखते हैं। इस संग्रह की कविताओं से गुजरना एक रोचक यात्रा की तरह है।इन कविताओं का वैविध्य विस्मित करता है। समय और समाज का शायद ही कोई पहलू हो जो इन कविताओं में न सिमट आया हो। यहाँ मज़दूर हैं। किसान हैं। शासक हैं। छात्र हैं।बेरोजगार हैं। स्त्रियां हैं। बुज़ुर्ग हैं। बच्चे हैं। पहाड़ हैं। पहाड़ के संघर्ष हैं। गाँव हैं। लोक संस्कृति है। शहरीकरण है। उसकी विकृतियाँ हैं। यानी यह संग्रह वर्तमान का विराट एलबम है।
इस संग्रह की कविताएं श्रम के सौंदर्य की कविताएं हैं। यहाँ श्रमिक हैं। उनके श्रम की महत्ता है। साथ ही उनका अस्थायित्व और शोषण भी। कवि को मजदूरों का श्रम चुरा लिए जाने की चिन्ता है। एक काम पूरा होते ही मज़दूरों को नए काम की तलाश में भटकना पड़ता है। लेकिन विजय विशाल मज़दूरों की जिजीविषा की प्रशंसा करते हुए कहते हैं -
"न मधुमक्खियां हार मानती हैं
न मजदूर काम तलाशना छोड़ते हैं
इनकी यह जिजीविषा ही बचाये रखती है
पृथ्वी पर सृजन की संभावनाओं को।"
श्रम और श्रमिक के प्रतीक के रूप में विजय विशाल प्रकृति के बीच से ही उपमान चुनते हैं। मधुमक्खी के अलावा चींटी उन्हें निरन्तर श्रम करती तथा औरों को प्रेरित करती हुई जान पड़ती है। यह अकारण नहीं है कि पहली कविता में मधुमक्खी आती है और अंतिम में चींटी। मधुमक्खी और चींटी से मिलकर श्रम का ऐसा वितान निर्मित होता है जिसमें कर्म-श्रम की पूरी गाथा है। संग्रह के शीर्षक वाली कविता भी श्रम के सौंदर्य की कविता है। मौन श्रम की -
''एक साथ एक जगह इकट्ठा होने पर भी चींटियाँ शोर नहीं करतीं
न ज़ुबान से न क़दमों की थाप से
चींटियाँ सिर्फ़ कर्म करती हैं
अपनी पूरी लगन से।"
कहने की आवश्यकता नहीं कि यहाँ चींटियाँ श्रमिक हैं। मज़दूरों की एकता और तदुपरांत उनकी जीत में कवि को विश्वास है -
"आकार में छोटी चींटियों से
डरते हैं विशालकाय हाथी भी
हाथियों का चींटियों से यूँ डरना
चींटियों की जीवन्तता का प्रमाण है।"
यह जिजीविषा और जीवंतता इस संग्रह में सर्वत्र विद्यमान है -
'यह भरोसा ही तो है
जिसके सहारे
हर तबाही के बाद भी
उठ खड़ा होता है आदमी।'
श्रम के प्रति रुझान की वजह से ही कवि सौंदर्य के प्रतिमानों पर प्रश्नचिह्न खड़े करता है। 'बया का घोंसला' ऐसी ही कविता है। इसकी प्रारंभिक पंक्तियां पढ़कर मुक्तिबोध के संग्रह 'चाँद का मुँह टेढ़ा है' की याद आ जाती है। कवि की दृष्टि में सुंदर इमारत 'बया का घोंसला' है क्योंकि वह श्रम से निर्मित है। उसमें विलासिता का अंश नहीं है। 'तुम /जो संसार की / सबसे सुंदर इमारतों की / सूची बना रहे हो/ इसमें शामिल कर लो/ एक अदद घोंसला।' कवि की नज़र में बया का घोंसला/ जो किसी बुर्ज खलीफा से कम नहीं/न तकनीक में / न बुनावट में/ न कसावट में।'
कवि यह स्पष्ट करता है कि श्रम की सार्थकता उसके परोपकार में ही निहित है -
"बया हमेशा के लिए
काबिज़ नहीं रहती
अपने इन घोंसलों पर
पंद्रह बीस दिन अंडे सेंक
अपने नवजात बच्चों सहित हो जाती है फुर्र
पीछे छोड़ देती है घोंसला
किसी दूसरे पक्षी को जो बना न पाया हो अपना कोई ठौर।'
यह श्रम का सौंदर्य विजय विशाल 'बूढ़ी औरतों' में भी देखते हैं जो घर के काम के अलावा 'उकड़ू बैठ निगोड़ती हैं खेत।' विजय विशाल किसान को देखकर कह उठते हैं, "पचास वर्षों की /खेती से/उग आए/शब्दों के समूह/उसके झुर्रीदार चेहरे को/कवि/होने की पहचान/देने में समर्थ हैं।"
बेरोजगारी के प्रति चिन्ता भी इसी श्रम-सौंदर्य की अगली कड़ी है। इसीलिए ऐसी कविताओं में भी बार-बार बेरोजगार आते हैं जो मूलतः बेरोजगारी पर नहीं लिखी गयी हैं। कवि की संवेदनशीलता उसे बेरोजगारों की पीड़ा से असंपृक्त नहीं रहने देती। यह अकारण नहीं है कि 'हुक्के के पलायन' में भी वह कहता है, "गाँव में उपेक्षित हुक्का /किसी बेरोजगार युवक की तरह / महानगर को पलायन कर गया।" 'जब पगडंडी सड़क हुई' में कवि कहता है, "इस तरह बैल ज़मीन से बेदखल हुए/अब सड़कों पर आवारा फिरते हैं/ हज़ारों हज़ार बेरोजगारों की तरह।" 'पढ़ाई बनाम श्रम' में भी बेरोजगारी है।
विजय विशाल पहाड़ के कवि हैं। गाँव में बसते हैं। इसलिए पहाड़ी जीवन की रीति- नीति और लोक संस्कृति उनकी कविताओं में व्यक्त होती है। धरती उनके लिए माँ है तो पहाड़ पिता। ऐसा पिता जो सदियों से अपने बच्चों का पालन-पोषण कर रहा है। यह आत्मीयता ज़मीन और स्थानीयता से जुड़ाव की परिचायक है। उन्हें पहाड़ी गाँवों में हुक्का याद आता है। कांसे की थाली में माँ के हाथ की बनी गर्मागर्म रोटी याद आती है। इसे सिर्फ़ 'नॉस्टेल्जिया' कहकर नहीं टाला जा सकता। यह एक संवेदनशील मन की पीड़ा है जो तेजी से हो रहे टूटन, विघटन और पलायन पर चिंतित है। गाँवों के विनाश की यह चिन्ता 'जब पगडण्डी सड़क हुई' में पूरे तीखेपन के साथ व्यक्त होती है। पगडण्डी का सड़क हो जाना महज रास्ते का चौड़ा होना भर नहीं है। यह विनाश का सूचक भी है। एक संस्कृति के लोप और दूसरी के उद्गम की प्रस्थान-यात्रा भी है। कवि कहता है, "जब पगडण्डी सड़क हुई/ पहले पेड़ गए/ फिर पत्थर और मिट्टी/ उनकी राह हो लिए और इस तरह पहाड़ हमेशा के लिए रीत गए।'' मगर कवि हार नहीं मानता है।वह विनाशक शक्तियों की शिनाख्त करता है।
विजय विशाल का काव्यात्मक साहस प्रशंसनीय है। वे सत्ता से टकराते हैं।उनके यहाँ अनेक राजनैतिक कविताएँ हैं। इन कविताओं का व्यंग्य नागार्जुन की तरह मारक भले न हो पर लक्ष्य स्पष्ट है। ''ऊँचे कगारों पर पहुँचे कई बौने लोग/घड़ी को रोककर/अपने पक्ष में बदलना चाहते हैं/समय।" यह काव्यांश क्या किसी व्याख्या की अपेक्षा रखता है? सत्ता के शीर्ष पर पहुँचे लोग कौन हैं? ये लोग इतिहास और राजनीति की मनमानी व्याख्या कर रहे हैं। वर्तमान राजनीति के मूल चरित्र पर इससे बड़ी और कड़ी टिप्पणी और क्या हो सकती है? आज कुछ ही कवि यह कहने का साहस जुटा पाते हैं -
"टुकड़े टुकड़े गैंग कहकर
वे कर दिए गए बहिष्कृत
इस विचारहीन दुनिया में
आसान नहीं होता शब्दों के नए अर्थ गढ़ना
या
पुरानी किताबों को नए दृष्टिकोण से पढ़ना।''
यह कहने की ज़रूरत नहीं कि विजय विशाल ऐसे ही कवि हैं जो सत्ता से टकराते हुए इस विचारहीन दुनिया में प्रगतिशील और मानवतावादी विचारों के साथ हैं। आत्मविश्वास के साथ शब्दों के नए अर्थ गढ़ और पुरानी किताबों को नए दृष्टिकोण से पढ़ रहे हैं। यह अन्याय के विरुद्ध आम आदमी और सचाई के साथ खड़े होने का साहस है। यह साहस उन्हें अन्य कवियों से अलग करता है। तेज़ी से बढ़ रही असहिष्णुता और मॉब लिंचिंग पर कवि क्षुब्ध है। यह उनका साहस ही है कि वे 'सत्ताधीशों के नाम एक पत्र' लिखते हैं। 'अबकी दंगों के बाद' में भी यही साहस है।आम आदमी से जुड़ाव की वजह से ही विजय विशाल की कविताओं में यह ताक़त आ पाई है।
वर्तमान का विरोधाभास है कि मनुष्य एक साथ कथित रूप से सभ्य और बर्बर दोनों होता जा रहा है। पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह अंधराष्ट्रवाद और युद्धोन्माद का माहौल तैयार किया गया है वह किसी भी सभ्य और संवेदनशील व्यक्ति को चिंतित करने के लिए पर्याप्त है। युद्धोन्माद के सहारे सत्ता अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेंकती है। उसे व्यापक तबाही की चिंता नहीं। सत्ता को चिन्ता नहीं कि युद्ध सभ्यताओं को लील जाता है। सुहाग उजाड़ देता है। बुजुर्गों से उनकी औलाद छीन लेता है। गोदी में खेलते हज़ारों बच्चे अनाथ हो जाते हैं। सैकड़ों विधवाएँ बेसहारा हो जाती हैं। कवि ऐसे हालात में भी 'आओ युद्ध करें' की चीख-पुकार करने वाली सत्ता को उन्मादी, शातिर और चालाक कहता है। इस उन्मादी माहौल में युद्ध के ख़िलाफ़ बयान देना भी देशद्रोह से कम नहीं है और शान्ति की बात कहना तो धुर दुश्मनों के एजेंट होना है। ऐसी विकट परिस्थितियों में भी कवि अपनी प्रतिबद्धता दुहराता है -
"युद्ध के विरुद्ध
मैं पहले भी था
आज भी हूँ
और कल भी रहूँगा। अपनी तमाम
प्रतिरोधक क्षमता के साथ।"
एक मानवतावादी और अपने कवि-कर्म के प्रति जिम्मेदारी अनुभव करने वाला कवि ही यह कह सकता है कि -
"इस पाषाण होते समय में
मानुष के भीतर
बचाये रखनी हैं
सम्वेदनाएँ
उकेरनी हैं उनमें भावनाएं
ताकि सृष्टि में
जिंदा रखा जा सके सद्भाव
ऐसे कठिन काम
पे जा चुके हैं कविता को।"
और कवि इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि "प्रेम ही काव्य की आत्मा होगी।'' यह कहना काव्यशास्त्र के मानदंडों को भी चुनौती देना है जो रस, रीति, ध्वनि, वक्रोक्ति आदि को काव्य की आत्मा घोषित कर चुके हैं। प्रेम विजय विशाल की कविता के केन्द्र में है।उनके लिए जीवन और प्रेम एक दूसरे के पर्याय हैं। वे कहते हैं, ''जहाँ जीवन है/ वहाँ प्रेम है/ जहाँ प्रेम है/ वहाँ कविता है/ प्रेम के बिना/ न जीवन है /न कविता है।'' इस तरह एक मानवतावादी कवि की कविता की घोषणा प्रेम है। प्रेम में इसी विश्वास की वजह से कवि कहता है कि ''जो भीतर तक /नफ़रत से भरा है / हद है/अपने को/ कवि कह रहा है।" कवि का विश्वास है कि ''जहाँ कविता होती है /वहाँ नफ़रत नहीं होती।"
'कविता' पर इस संग्रह में कई कविताएँ हैं। ये कविताएँ कवि की काव्य दृष्टि और प्राथमिकता की सूचक हैं। देखना दिलचस्प है कि कवि कैसी कविताओं को अमर और दीर्घायु कहता है। नफ़रत के बीच जीते हुए प्रेम की कविता, अविश्वास के माहौल में विश्वास और मित्रता की कविता, उजड़ते वनों के बीच प्रकृति की कविता, सत्ताधीशों के ज़ुल्म को सहते हुए सत्ता को चुनौती देने वाली कविता और बर्बरता के विरुद्ध कविता अमर और दीर्घायु होती है। यह दृष्टि कविता की जनपक्षधरता से निर्मित होती है। जनपक्षधर कविताएँ अमर होंगी ही। कवि की कविताओं में प्राण इसी जनपक्षधरता, मनुष्य की अदम्य जिजीविषा और सत्ता को चुनौती देने वाली चेतना से आती है। इसके विपरीत उन कवियों और कविता की लानत-मलामत भी है जो ''निहत्थों के विरुद्ध खड़े होते हैं/बर्बरों के साथ/ निज़ाम के ढहने /और कवि के मरने के साथ ही/मर जाती हैं वे कविताएँ जो शोषितों के ख़िलाफ़/ शोषकों के पक्ष में लिखी गई होती हैं।" संग्रह की कविताओं में कठिन समय में परिवर्तन की चाह है। यहाँ विद्रोह की चेतना है। कवि को सर्वहारा में विश्वास है और वह परिवर्तन के प्रति आश्वस्त है। लेकिन कवि यह भी भली-भांति जानता है कि सिर्फ 'शासक बदलने से /व्यवस्था नहीं बदलती।'
संग्रह की कविताएँ अपने समय से संपृक्त हैं। इसलिए यहाँ कोरोना महामारी पर भी कई कविताएँ हैं। उसके तमाम सकारात्मक और नकारात्मक पहलू उनकी कविता में आये हैं। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण है मनुष्य की जिजीविषा जो इस संग्रह में रक्त- मज्जा की तरह है। 'इतिहास गवाह है /अंततः महामारी ही पराजित हुई है/मनुष्य के पराक्रम के आगे।'
चींटियाँ शोर नहीं करतीं की कविताएँ मनुष्यता के महत्व की कविताएँ भी हैं। आज के बाज़ारवादी समय में व्यक्ति रिश्तों से दूर होता जा रहा है। रिश्ते निभाना मनुष्य होना है।कवि कहता है मैं 'जड़ें होना चाहता हूँ/ ताकि पकड़ सकूँ रिश्तों को/सींच सकूँ मनुष्यता को।' 'मन का पीपल हो जाना' भी 'मनुष्य होने के सुख' की कविता है। ये कविताएँ मनुष्यता के साथ उम्मीद की कविताएँ भी हैं।
कलात्मकता की खोज करने वाले पाठक इस संग्रह से थोड़े निराश भी हो सकते हैं। सीधे सरल शब्दों में कवि ने अपनी बात कही है। यह सादगी ही इस संग्रह की पहचान है। कवि का ध्यान कथ्य पर अधिक रहा है। कथ्य की ताज़गी और शिल्प की सादगी इस संग्रह का वैशिष्ट्य है।
प्रकाशक : प्रलेक प्रकाशन प्रा.लि.
मूल्य: 170₹
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शशि कुमार सिंह, असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, हिन्दी विभाग, महात्मा गाँधी गवर्नमेंट कॉलेज, मायाबंदर, अंडमान निकोबार द्वीपसमूह
संपर्क : +91 95318 34834
Saturday, October 10, 2020
सरजू, सरजू भैया और लल्लू महतो : बलभद्र
सरजू, सरजू भैया और लल्लू महतो : बलभद्र
(एक)
सरजू
तीन दिन पहले छोटे भाई विमल ने फोन पर बताया कि सरजू अब नहीं रहा। बीमारी की वजह से उसकी मृत्यु हो गई। वह बचपन से ही ममहर रहता था। जब तक नाना-नानी रहे, उनके साथ रहा। उसके छोटे भाई का नाम गरजन है। दोनों शादीशुदा एवं बाल-बच्चेदार हैं। नाना -नानी के मरते ही दोनों भाइयों को नाना-नानी का घर छोड़ना पड़ा। उसके नाना-नानी के पट्टीदारों ने घर छोड़ने को विवश कर दिया।
नोकझोंक और मारपीट और रोज-रोज के किचकिच से आजिज आ दोनों भाइयों ने वह घर छोड़ पट्टीदारों के छोटे से घर में आकर रहना शुरू किया। और पट्टीदार मय बाल-बच्चे उनके घर आ जमे। दोनों मिहनती, दोनों काम मे लगे रहनेवाले कुशल खेत-मजदूर थे। पर, बड़ा-सा कीता, दुआर-दालान वाला, छोड़ने का दुःख तो था ही। जिस घर में घरनी उतरी हो, रहना-सहना हुआ हो। वह घर छोड़ते मोह भला किसको नहीं होगा।
बहरहाल, दोनों बहुत ही मेहनती और लगनशील थे। जिस काम में हाथ लगाते उसे केवल पूरा ही नहीं करते बल्कि बहुत सज से करते थे कि देखनेवाले तबियत से वाह वाह करने लगते। अपनी तारीफ किसको नही भाती। दोनों बहुत खुश होते और दोनों की गाँव में पूछ बढ़ती गई। गाँव का भगीना होने के नाते ये किसी को नाना-नानी, किसी को मामा-मामी, किसी को मौसा-मौसी तो किसी को भाई-भौजाई निधड़क कहा करते थे। गाँव के लोग भी इन दोनों भाइयों से लगे रहते थे। गरजन तो अपने गोड़ के दरद से पामाल है।
कामधाम करना मुश्किल हो गया है। सरजू ज्यादा ही सीधा आदमी था और गमखोर भी। कोई दो बात कहे भी तो उलटकर जवाब देना उसके सुभाव में नहीं था। वह कुछ ज्यादा ही लगनशील और कार्यकुशल था। उसकी कार्यकुशलता को लेकर उसके लिए ही खासकर, लोगों ने एक विशेषण गढ़ा था- 'परीना'। उसके करीने से काम करने के चलते यह 'परीना' आया। हल जोतना हो चाहे आर-मेड़ सोझियाना अथवा गोहट फेंकना या करहा बनाना सरजू का कोई जवाब न था। करहा बनाए तो ऐसा कि पानी छलछलाते खेत तक पहुंच जाए। धान रोपाई के वक्त आर को छांटकर ऐसा साज दे कि क्या कहना!
सरजू को समय पर या उससे पहले ही काम पर आने की आदत थी और यह आदत जब तक वह काम करने लायक रहा तबतक बनी रही। और शाम को अगर गाँव-जवार का काम कर रहा होता तो घर जाने की कोई जल्दी भी नहीं होती। काम अगर थोड़ा रुक जाने से पूरा हो जाने लायक होता तो वह बिना कुछ कहे रुक जाता। कोई अगर कह दे कि थोड़ा बचा है, कल इतने के लिए ही आना होगा, तो वह खैनी बनाने को कहता और थोड़ा अगल-बगल ताककर काम में भिर जाता।
फिर तो थोड़ा और थोड़ा अधिक क्या! पूरा करके ही घर को चलता। उसकी इस भलमनसाहत का कुछ लोग बेजां फायदा उठाने से बाज नहीं आते। उसको मूर्ख समझते। मुँह पर उसकी तारीफों के पुल बांधते।कहते कि गांव का भगीना है, जो कहे सो हाज़िर है। वो समझता सबकुछ था। पर कहता कुछ नहीं था। चुप रह जाता।
हाँ, कभी-कभार जरूर कह देता कि 'एक खिली खइनी देल त पारे ना लागे, अउर तू का देबऽ!' उसकी इस आदत पर उसकी पत्नी जल-भुनकर रह जाती। पर वह उसका भी कोई जवाब नहीं देता। वह अपनी पत्नी को अपने बेटों के नाम के साथ पुकारता। फलनवा की माई कहकर कुछ कहता। वह पत्नी के लिए 'ओकनी के' का व्यवहार करता। एकवचन नहीं, हमेशा बहुवचन।
आठ-दस साल पहले उसके हाथ की दो अंगुलियां कुट्टी मशीन की भेंट चढ़ गईं। गांव के ही एक महतो जी के यहाँ पुआल की कुट्टी कटवा रहा था। दिनभर की मजूरी पर गया था कि कुछ कमाई हो जाएगी। जिन अंगुलियों से मुट्ठी बँधती है, काम में जोर लगता है, दाल -भात का कौर उठता है, उन्हीं अंगुलियों को गँवा बैठा।
एक तो छोटा कद, दुबली-पतली देह, ऊपर से अंगुलियां नदारत। जिनके बूते करहे को चिकन-चाकन गढ़ देता था, वो अब गायब। उसकी सारी 'परिनई' (निपुणता) अंगुलियों के साथ ही जाती रही। अब सरजू वो सरजू नहीं रहा। कोई मुआवजा वह पाए तो कहाँ से? इलाज हो पाया किसी तरह। जख्म तो भर गए, पर आत्मा का जख्म कभी नहीं भर पाया।कुदाल की बेंट अब मुँह चिढ़ाने लगी।
सरजू के बच्चे काफी इंतज़ार के बाद हुए। उसकी नानी को हमलोग बचपन में गेल्हिया माई कहते थे। गेल्हिया माई की बेटी जगरखनी के बेटे हुए - सरजू और गरजन। नाना का नाम था जयमंगल कहार। जब तक गेल्हिया माई जिंदा रही आँगन-घर-दुआर सब चमचमाता रहा। मजाल कि कहीं कोई गंदगी दिख जाए। उसके आँगन में एक चबूतरा हुआ करता था और चबूतरे के बगल में तुलसी के पौधे। दुआर पर गुड़हल के फूल। जाड़े में गेंदा और जटाधारी।
कुछ फूल प्रतिदिन उस चबूतरे पर नियमित चढ़े होते थे। दुआर पर एक नीम का पेड़ भी था। जो कि बाद में सरजू और गरजन के वहां से हटने के बाद जो रहने आए, दाम कर कटवा दिया। जयमंगल कहार कलकत्ता कमाते थे।अच्छी स्थिति थी गेल्हिया माई की। बचपन में मैं अपनी ईया (आजी) के साथ हमेशा गेल्हिया माई के घर जाता।अक्सर दोपहर में।
तब तक वह नदी नहाकर आ चुकी होती और चबूतरे पर कुछ फूल चढ़ गए होते। उसके यहाँ 'सोरठी बृजभार' था ,जिसको हमारी ईया गया-गाकर पढ़ती थी और कुछ औरतें मनाचित लगा सुना करती थीं। तब उस घर में एक और औरत हुआ करती थी जिसको सबलोग सधुआइन कहा करते थे। उस औरत के बारे में तब कहां सुध थी विशेष कुछ जानने की। ये तो बाद में थोड़ा-बहुत मालूम हुआ कि वो उस घर की नहीं थी। किसी दूसरे गाँव के राजपूत परिवार की बहू या कि बेटी थी। शायद भोजपुर ज़िला के जलपूरा गांव की। वो सिंदूर नहीं लगाती थी। शायद विधवा थी। वही लेकर आई थी 'सोरठी बृजभार'। वो बहुत रस ले लेकर सुनती थी।
संभव है अपने सपाट और बेरंग हुई दुनिया मे कुछ रंग वहीं से ले पाती हो। खैर, सधुआइन गईं, गेल्हिया माई गई, जयमंगल गए, इन दोनों भाइयों का वह घर छूटा, नीम का पेड़ गया और गेल्हिया माई की बेटी का एक बेटा भी अल्लाह का प्यारा हो गया। गेल्हिया माई थी तो हमें नहीं पता कि वो कमकर परिवार है और वहां किसी उच्च जाति के परिवार की औरत और बच्चे को वहाँ इस तरह नहीं जाना चाहिए। हम सब दिन दिन भर रहते और खेलते-खाते थे। आज की तरह तो इतना भेद नहीं था।
तो बात चली थी कि सरजू को बच्चे देर से हुए। और हुए तो तीन हुए। मुदई मुँहे कारिख पुत गई। लेकिन इस देर के कारण लोगों ने, खासकर महिलाओं ने क्या-क्या नहीं कहा, सुझाया। सरजू ने एक बछिया पाल रखी थी। वह बड़ी मरकही निकली। वह भी लंबे समय तक न बाही न बियाई। उसके दुआर पर, नीम के नीचे गोली खेलते लड़कों ने उसका नाम खीरमोहनी रख दिया था। उसके सामने हाथ नचा-नचा काँव-काँव करने लगे थे।
वह भी ससुरी पक्की खंचरिन। इधर बच्चे खीरमोहनी कहते, उधर वह हूँफने लगती। फनफना उठती सरजू बो कभी-कभी चिढ़ जाती तो उन गोली जमाये बच्चों को भगाने लगती - 'ना जइबऽ लोग अपना दुआरे।' पर, वे इधर हटे, उधर फिर आ डटे। धीरे-धीरे बच्चों ने खुद सरजू का नाम खीरमोहन रख दिया। और यह नाम चल पड़ा। संग के कामगार भी खीरमोहन कहने लगे। और तो और उसकी पत्नी भी खीरमोहन कहने से बाज़ नहीं आती। काशी, लालबाबू सब खीरमोहन कहने लगे।
अफसोस कि अब काशी भी नहीं रहे। काशी जो थे, वो कैंसर से गए। काशी उसी परिवार के रहे जिसके चलते सरजू दोनों भाइयों को अपने नाना वाला घर छोड़ना पड़ा था। शुरू में दोनों परिवारों में तनाव जैसा कुछ रहा, पर बाद में सब सामान्य हो गया। काशी के पिता का नाम था सीताराम कहार। खूब गाँजा पीते थे।
सीताराम जी हमसे उम्र में काफी बड़े थे। कलकत्ता की किसी प्राइवेट कंपनी में काम करते थे। नौकरी से रिटायरमेंट के बाद गांव आ गए और दिन-दिनभर उनकी मड़ई में, दुआर पर टोलाभर के गंजेड़ी बैठकी लगाने लगे। चिलम धकाधक जलती रही। तरह तरह की बोलबाजियों के साथ चिलम के शीर्ष पर लपालप प्रत्येक दम पर लाफें उठतीं रहीं।
सीताराम गए इस दुनिया से तो इसी गांजे के चलते। खांस खांस के बेदम होते सीताराम जी ने कभी चिलम से मुँह नहीं मोड़ा। अपने आखिरी वक्त में जब उठने बैठने में एकदम लाचार हो गए, करवट बदलना तक मुश्किल हो गया, अपनी बैठकी के लोगों से इशारे में ही गांजे की चिलम थामने की इच्छा जाहिर की।
साथियों ने सहारा देकर बिठाया, चिलम थमाई, भाय ने दम मारा।आखिरी लाफ़ थी वह चिलम के शीर्ष पर नृत्य के समापन की तरह विराम लेती। सब उनको भाई नहीं, 'भाय' कहते थे। जब उनकी अर्थी उठी तो किसी गंजेड़ी ने अर्थी के सिरहाने एक चिलम, एक साफीऔर गांजे की एक पुड़िया रख अपनी ओर से आखिरी सलाम पेश किया।
अर्थी उठाने से पहले समाजियों ने चिलम चढ़ाई।श्राद्ध के दिन उनकी जमात के लोगों ने प्रेमपूर्वक दम मारा। सीताराम भाय के बाद उनका बड़ा बेटा जिसका नाम बैजनाथ था, वो भी पिता के नक्शेकदम पर चलते हुए आखिरी साँस ली। वो भी कलकत्ता काम करता था। गाँव वो भी आया नौकरी पूरा कर, मरा वो भी पिता की तरह। सीताराम भाय का एक और बेटा है जो चिलम से बेइंतहां मुहब्बत करता है। वो भी कुछ दिन कलकते में रहा। सीताराम भाय की पत्नी को हमलोग भउजी कहते थे। मोटी थी इसलिए वो 'हथिया भउजी' थी। वो भी गई। जाने की उमर तो नहीं हुई थी पर चली गई। अपने पति के बाद गई।इस पूरे प्रकरण को लिखते हुए मन अज़ीब -सा हुआ जा रहा है।
यह कलकत्ता जो सो कमाल का है। जो जाता था उस समय वो आज की तरह तो तुरत-तुरत नहीं आ पाता था। साल -साल भर बाद आ पाना होता था। घर-परिवार सब छोड़कर जाते थे और साल साल भर अकेले रहते थे। जैसे तैसे। इसी दोहपंच में ही गांजे और चिलम की जगह बनी। सीताराम भाय सरजू के मामा लगते थे। सरजू के नाना सीताराम भाय के चाचा। सरजू भी दिल्ली-कलकत्ता सब घूम आया था।
पर उसे कहीं अड़ान नहीं मिल पाया। सो इसी मिट्टी पर खटते हुए बीमार पड़ा और चल बसा।उसके जाने से क्या फरक पड़ेगा किसी पर। कोई बड़ा आदमी तो वह था नहीं। घर-द्वार सब टूटा-फूटा,गरीब की किस्मत की तरह। इंदिरा आवास-योजना का फारम पर फारम भरता रहा,ब्लॉक में कई बार गया,सौ-पचास किसको किसको नहीं दिया,तहसीलदार को, गाँव के चालू-पुरजा लोगों को। पर पाया क्या? कहते-कहते चला गया।सिधवा था, पर जान चुका था कि उसकी कहीं कोई सुनवाई नहीं। पैसा दे तो देता था पर कहता था कि हो जाए तब तो जानें।
जिस उमर में सरजू गया, वह भी कोई जाने की उमर होती है। पर वह गया। हरेराम यादव गए, सुरेश यादव गए, सभा यादव गए। न जाने कितने गए। सब खेत-मजदूर थे। यह जाना अभी भी जारी है। इनके दुखों का एक अंतहीन सिलसिला दर्ज हो रहा है प्रतिदिन। खेत-मजदूरी छोड़ ये राजमिस्त्री के साथ मजदूरी में लगे।
अपने गांव से बाहर के गांवों में जाने लगे। गांव के नजदीक के बाजार बिहिया जाने लगे मजदूरी करने। सुबह- सुबह निकलते, देर रात वापस लौटते। काम नहीं मिलने पर मनमार खाली हाथ वापस आते। रोज सुबह बक्सर,पटना मोकामा शटल से जाते और रात में उसी से वापस लौटते। अब बिहिया जानेवालों में न सुरेश रहे, न सभा, न सरजू।
सरजू के नाना का नाम था जयमंगल कहार। पर, कलकत्ता से आने के बाद जब वे स्थायी तौर पर गाँव रहने लगे तो उनका भी एक उपनाम धरा गया। लोग उनको खोंखा कहने लगे।आज भी ऐसे कई लोग हैं जिनके उपनाम हैं।बहरहाल, जो सरजू था न वो बड़ा दिलचस्प भी था कई मामलों में। झगड़ालु तो बिल्कुल नहीं था। पर, एक खास प्रसंग याद आ रहा है। वो यूं है कि एक बार धान की कटाई हो रही थी। सरजू सहित कई कटनिहार लगे हुए थे।सतरह बोझा पर एक बोझा बन्न का होता था। बन्न का बोझा सामान्य बोझे से काफी भारी होता था।
सरजू ने भी खूब रच-रचकर बन्न का बोझ बांधा था। खेत में मैं ही बोझ उठा रहा था और मुझे ही बन्न फरियाना था। तब मैं इंटर में पढ़ता था। सबसे पहले सरजू का बन्न फरियाने का अवसर आया।मैंने उस बोझे को ले जाने से मना किया। सरजू ने हिला-डोलाकर दिखाया कि कहां बहुत भारी है। फिर भी हमने मना किया। खेत मालिक होने का एक गरूर था और भाषा भी वैसी ही ऐंठ वाली थी।
सरजू ने आखिर में कहा कि 'रोक लऽ,रोक के राजा हो जा।' फिर जब बात थोड़ी आगे बढ़ी कि सरजू का मिजाज गरम। बहुत कड़ा प्रतिवाद किया था। मुझे याद है वह सब। पूरी एक तसवीर बन-बिगड़ रही है स्मृति पटल पर। इतना शांत सरजू और इतना कड़ा प्रतिवाद।
बाद में जब मैं पार्टी (CPI - ML) से जुड़ा तो वह प्रतिवाद अनूठा लगने लगा। वह सरजू पार्टी के लिए दस-पाँच रुपये बतौर सहयोग देने लगा। कॉमरेड चंद्रमा प्रसाद को खाना भी खिलाने लगा। उसका छोटा भाई गरजन तब ज्यादा सक्रिय हुआ था।
उसके लिए और गाँव के बच्चों और युवकों के लिए होली का एक अलग आनंद हुआ करता था। एक फगुआ में उसने भंग जमा ली। भंग का रंग जब चढ़ा तो लगा मुँह से फटफटिया (मोटरसाइकिल) की आवाज़ एक सुर में निकालने। उसकी पत्नी और अगल बगल के लोगों को समझते देर नहीं लगी कि यह कुछ और नहीं भंग का रंग चढ़कर बोल रहा है। उसके आँगन में देखनिहार की भीड़ लग गई। और लगी तो देर तक लगी रही। एक दूसरे साल के फगुआ में वह लगा रटने कि 'हम बिआह करब, हम बिआह करब'।
लड़के तो ताक में थे आ जमे तुरत। 'केकरा से बिआह करबऽ?' कहने लगा कि 'हेमा मालिनी से'। लड़के सब लगे हुहकार मचाने। तब से पत फगुआ उसके आँगन में बोलबाजियों की चलती रही। पर जिस साल उसका मंझला बेटा मरा था, सरजू ने भांग छूने की बात तो दूर, ताका तक नहीं था उधर। मन ही मन रो रहे थे पति-पत्नी। उस दिन कुछ देर सरजू को अपने पास रखा। पर जब तक रहा गुमसुम रहा। बेटे की मौत ने तोड़ दिया था अंदर से।
सरजू हमको मामा कहता था। उसकी पत्नी मामाजी कहती है। उसके चेहरे पर चेचक के चंद दाग थे। पर उसका मन बिलकुल बेदाग था। एकबार की बात है कि मेरे यहाँ एक बारात आई थी। आगंतुकों में नाश्ते का डिब्बा दिया जा रहा था। सरजू बाल्टी और जग लिए पानी चला रहा था। भीड़ कुछ कम हुई तो वह आया मेरे पास अपने एक बेटे को लेकर और कहा 'ऐ मामा एकरा के एगो डिब्बा दिया द।'
हमने कहा कि 'अरे दे दे जाके अपनहीं।' पर, वह न गया और न उसको डिब्बा दिया। बच्चा उसका उसके आगे-पाछे ठुनुकता रहा। कुछ देर बाद मेरा जब उधर ध्यान गया तो समझ गया कि यह सरजू अपने से तो निकालकर देने से रहा। खुद लाकर मुझे देना पड़ा। सरजू को भी लाकर दिया कि अरे भाई तुम भी कुछ खा लो। ऐसा था वह।
अब वह नहीं है। उसकी पत्नी है। वह मामाजी कहेगी। मामा कहने वाला सरजू चला गया। नाम लेकर मामा कहता था। बलभद्र नहीं, बेलभदर मामा। एक लुंगी और एक कुरता के लिए उसने कह रखा था। धीरे से कहता था कुछ भी। जिस तरह धीरे से कुछ कहता था उसी तरह धीरे से चला गया। धीरे-धीरे वो बिसर जाएगा। पर मैं जबतक रहूँगा,रहेगा मेरे साथ। एक साथ हमने खेतों में काम किया है। पानी बराया है। करहा गढ़ा है। खलिहान की लिपाई की है। दवनी-ओसवनी की है। उसका जाना एक कुशल श्रमिक, एक सच्चे आदमी का जाना है।
(दो)
सरजू भैया
बात रामबृक्ष बेनीपुरी के 'सरजू भैया' की नहीं, हमारे गाँव वाले सरजू भैया की है। पूरा नाम सरजू सिंह। ठेहुना ऊपर धोती और आधा बाँह गोल गला वाली कमीज और एक छड़ी। गोड़ में जूता-चप्पल होना कोई जरूरी नहीं। वैसे ससुरारी जब जाना होता है तब तो उसकी दरकार उनको अवश्य समझ आती है। तब पूरी बाँह का कुरता पहनते हैं। लेकिन,छड़ी नहीं छोड़ते हैं। ऐसा नहीं कि छड़ी उनकी आज की जरूरत है। ऐसा नहीं कि वह बुढ़ापे का सहारा है। साँच बात तो यह है कि वे अभी बूढ़े हुए भी नहीं हैं। और उसको वे आज से थोड़े लिए हुए हैं। मैं जब और जहाँ से उनको देखता और पलटकर याद करता हूँ, यह छड़ी अवश्य दिखाई देती है।
अब की पीढ़ी यानी टटकी पीढ़ी को तो नहीं जानता कि वह सरजू भइया में कितना दिलचस्पी रखती है। पर अपनी और अपनी की तुरंत बाद वाली की तो जानता ही जानता हूँ कि सरजू भइया से बिना लागे-लपिटाए किसी का मन ही नहीं लगता। सबके सब उनको 'राय जी' कहते। गाँव में राय जी मतलब सरजू भइया। जिनके वे बेटा-भतीजा लगते वे भी उनको रायजी ही कहते।भउजी, जो कि अब नहीं रही, उनको राय जी ही कहती थी,और सरजू भइया उसके ऐसा कहने पर कगरी काटते मुसकाते दिखते। जिसने यह दृश्य न देखा,मेरा मानना है कि उसने सरजू भइया को पूरे में नहीं देखा।
वे भइया होने के नाते लोकप्रिय नहीं थे, न चाचा या किसी के भतीजा होने के नाते। आन्ही आए, घटा घेरे, बूनी पड़े, घाम हो या लूक चले, जाड़-ठाड़ हो - किसी को बैल खरीदना-बेंचना हो, या गाय-भैंस - सरजू भइया को चैन नहीं। होत प्रात वे छड़ी लिए आ जाते उसके दुआर। चाहे कोई राजपूत हो या बराभन, अहीर हो कोइरी या कोहार या पासवान या गंडेरी या कोई भी जाति, हिन्दू या मुसलमान - सब उनके लिए एक समान।
सब उनको खोजते आ जाते। सबके लिए वे निकल जाते। धांग देते पूरा गांव-जवार। सबके खूँटे की जानकारी रखते थे। खूँटे की जानकारी मतलब कि किसके यहाँ बैल है, गाय -भैंस है। बाछा-बाछी है, पाड़ा-पाड़ी है। किसका कितना मुनासिब दाम है। मवेशियों के सुभाव के साथ-साथ वे उनके मालिकों के सुभाव को भी कायदे से जानते थे। अपना हरज-गरज सब उनको कबूल था।
उनकी अपनी एक टीम हुआ करती थी। उस टीम के लोगों का अपना-अपना उपनाम हुआ करता था। एक जन को 'लुटाई सिंह' के नाम से लोग बुलाते थे। जबकि उनका अपना असली नाम अम्बिका सिंह है। इस टीम के एक सदस्य थे शिवधन यादव, एक काशी कहार। अम्बिका सिंह,शिवधन,काशी और सरजू भइया की इस चौकड़ी में से एक काशी छिटक गए हैं। कैंसर के कारण अल्लाह के प्यारे हो गए।
साल-डेढ़ साल हुआ, भउजी भी सरजू भइया का साथ छोड़कर चली गई। माल-मवेशी का बाज़ार भी ठप है। गाँव के गाँव बैलों से खाली हैं। गाय-भैंस भी अब कोई रखना नहीं चाहता। नाद-चरन, खूँटे सब उड़स गए। दुआर-दालान की बैठकियाँ उड़स गईं। रायजी और लुटाई सिंह भी पहले की तरह नहीं बैठते। लेकिन राय जी की छड़ी अभी भी उनके साथ है। लोग कहते हैं कि कभी-कभी काफी उदास हो जाते हैं सरजू भइया। हफ़्ता-दस दिन गुमसुम। बूनी-बदरी में तो और। लोग छेड़ते हैं तो भी कुछ नहीं बोलते। अबकी जो गाँव गया तो पूछा -
'का हो रायजी, ससुरारी गइला कतना दिन भइल त कहलें तनी कगरी प मुस्कात--गइल रहीं, दू -तीन दिन पहिले।'
(तीन)
लल्लू महतो
आज अपने गाँव पहुंचा, कल होली है। होली परिवार और गाँव के लोगों के साथ मनाने गाँव पहुंचा।
रात 9:20 मिनट पर गाँव के लोगों ने होलिका दहन किया। इसी बीच मालूम हुआ की पाँच-छह दिन पहले लल्लू महतो का देहांत हो गया है। एक तरफ मेरी नज़रों के सामने होलिका का दृश्य था और दूसरी तरफ लल्लू महतो के गुज़र जाने का दुःख मन में घुमड़ रहा था। लल्लू महतो जब जवान थे तब होलिका दहन वाले स्थान पे ढोलक-झाल लिए हाज़िर रहते थे और होलिका दहन के उपरांत उनके नेतृत्व में उसी जगह पर लोग ताल ठोकते थे, होली के गीत गाया करते थे। आज उनका न रहना अखर रहा है।
करीबपाँच-सात साल पहले रामनाथ सिंह का देहांत हुआ था। ये भी गीत-गवनई के शौक़ीन थे। रामनाथ सिंह और लल्लू महतो हमउम्र भी थे। अब कहा जा सकता है कि लल्लू महतो के जाने के बाद इस तरह का कोई व्यक्तित्व गाँव में नहीं रहा। मैं लल्लू महतो के प्रति अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ। वे किसान थे, गीत-गवनई के शौक़ीन थे,सहज और सरल भी थे।
होली अब पहले की तरह नहीं मनाई जाती है और लोग पहले की तरह गाते-बजाते भी नहीं है। पर मैं मन ही मन लल्लू महतो के द्वारा गाये गए गीतों की पंक्तियों को दोहरा रहा हूँ -
'अँखिया भइली लाल
अँखिया भइली लाल
एक नीन सुते द बलमु हो...'
और
'बाबू कुंवर सिंह तेगवा बहादुर / बांग्ला में उड़े ल अबीर।'
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डाॅ.बलभद्र अपने प्रगतिशील विचारों व देशज अंदाज़ के लिए जाने जाते हैंं। हाशिए के नागरिकोंं से उन्हें बेपनाह मुहब्बत है। उन्हीं के साथ खेत की माटी मेंं लोटने मेंं बलभद्र जी को आनंद आता है। आजकल झारखण्ड के गिरिडीह के एक काॅलेज में अध्यापनकार्य। संपर्क : +91 81272 91103
अपभ्रंश और हिंदी भाषा : कुछ अनसुलझे सवाल - दीपशिखा सिंह
अपभ्रंश और हिंदी भाषा : कुछ अनसुलझे सवाल
दीपशिखा सिंह
अपभ्रंश को कुछ विचारकों और भाषा वैज्ञानिकों ने आधुनिक आर्यभाषाओं के विकासक्रम की एक कड़ी माना है। कुछ ऐसे विचारक और भाषा वैज्ञानिक भी हैं जिन्होंने आधुनिक आर्यभाषाओं की पृष्ठभूमि में अपभ्रंश के बजाय ‘देशी’ को महत्त्व दिया है। ‘देशी’ की कल्पना तत्कालीन समाज की प्रादेशिक भाषाओं के रूप में की गयी है। इसे हम लोकभाषा भी कह सकते हैं। ‘देशी’ शब्द का प्रयोग सिर्फ अपभ्रंश के समानांतर ही नहीं किया गया है बल्कि प्राकृत साहित्य के साथ भी ‘देशी’ शब्द मिलता है। ‘देशी’ का प्रयोग दो रूपों में किया गया है - पहला तो शब्द के रूप में दूसरा भाषा के रूप में। भरत, रूद्रट, हेमचंद्र आदि ने ‘देशी’ का प्रयोग शब्द के विशेषण रूप में किया है और पादलिप्त, उद्योतन, कोऊहल, स्वयंभू आदि ने इसका प्रयोग भाषा के संदर्भ में किया है। शब्द और भाषा दोनों रूपों में ‘देशी’ का प्रयोग लम्बे समय से संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश के साथ चला आ रहा है। रामविलास शर्मा ने ‘देशी’ प्रयोग के इसी साक्ष्य के आधार पर ‘प्राकृत’ और ‘अपभ्रंश’ को कृत्रिम भाषा माना है। ‘भाषा और समाज’ और ‘भारतीय साहित्य के इतिहास की समस्याएँ’ पुस्तकों में इन्होंने विस्तार से ‘प्राकृत’, ‘अपभ्रंश’ और ‘देशी’ की विवेचना एक-दूसरे के परिपे्रक्ष्य में की है। महत्त्वपूर्ण है कि आधुनिक आर्यभाषाओं के साथ ही द्रविड़ भाषाओं के विकासक्रम की चर्चा भी रामविलास शर्मा ने विस्तार से की है। उन्होंने किसी भी भाषा और उसके साहित्य के विकासक्रम को सामाजिक व राजनीतिक संदर्भ के साथ अलग-अलग रेखांकित करने की कोशिश की है। वास्तव में यही दृष्टिकोण सही भी है क्योंकि भाषा पर आश्रित होने के बावजूद साहित्य का अपना एक अलग समाजशास्त्र होता है, जैसे अनेक लोक प्रचलित भाषाओं या बोलियों में कोई लिखित सामग्री उपलब्ध नहीं होती इससे कत्तई यह निष्कर्ष नहीं निकालना चाहिए कि उस भाषा का अस्तित्व ही नहीं है। डाॅ. रामविलास शर्मा ने प्राकृत, अपभ्रंश और देशी भाषाओं की जो विवेचना की है उसके मूल में किशोरीदास वाजपेयी का यह मत है कि हिंदी का विकास संस्कृत से नहीं हुआ है -
"हिंदी की उत्पत्ति उस संस्कृत भाषा से नहीं है, जो कि वेदों में, उपनिषदों में तथा वाल्मीकि या कालिदास आदि के काव्यग्रंथों में हमें उपलब्ध है।"[1]
गुलेरी जी ने भी ‘पुरानी हिंदी’ में यही स्थापना दी है कि हिंदी का विकास संस्कृत से नहीं हुआ है। नहर और नदी के रूपक के माध्यम से इसे स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा है -
"सदा इस संस्कृत नहर को देखते-देखते हम असंस्कृत या स्वाभाविक, प्राकृतिक नदियों को भूल गये और फिर जब नहर का पानी आगे स्वछंद होकर सूत से नपे हुए किनारों को छोड़कर जल स्वभाव से कहीं टेढ़ा कहीं सीधा, कहीं गंदला, कहीं निखरा, कहीं पथरीली, कहीं रेतीली, भूमि पर और कहीं पुराने सूखे मार्गों पर प्राकृतिक रीति से बहने लगा तब हम यह कहने लगे कि नहर से नदी बनी है, नहर प्रकृति है और नदी विकृति (हेमचंद्र ने अपने प्राकृत व्याकरण का आरम्भ ही यों किया है कि संस्कृत प्रकृति है, उससे आया इसलिये प्राकृत कहलाया) यह नहीं कि नदी अब सुधारकों के पंजे से छूटकर फिर सनातन मार्ग पर आयी है।"[2]
गुलेरी जी और वाजपेयी जी दोनों विद्वानों ने एक मूल भाषा के अस्तित्व को स्वीकार किया है। दोनों के विचार में फर्क यह है कि गुलेरी जी ‘छंदस’ के बाद संस्कृत और प्राकृत की दो धाराएँ मानते हैं और वाजपेयी जी छंदस की भाषा से पहले ही मूल भाषा को दो रूपों में विकसित मानते हैं। अब ‘प्राकृतों’ के संदर्भ में भी चर्चा कर लें। वाजपेयी जी के अनुसार मूल भाषा के बाद से ही आम बोलचाल की भाषाएँ प्राकृत हैं। इस प्रकार आधुनिक आर्यभाषाओं के विकास से पूर्व प्राकृत की तीन अवस्थाओं को वाजपेयी जी ने स्वीकार किया है। गुलेरी जी ने छंदस के बाद प्राकृत की अवस्थाओं को स्वीकार किया है -
"वैदिक भाषा का प्रवाह प्राकृत में बहता गया और संस्कृत में बँध गया।"[3]
गुलेरी जी और वाजपेयी जी दोनों लोगों ने ‘मध्यवर्ती प्राकृत’ या ‘साहित्यिक प्राकृत’ जिसका विभाजन देशभेद के आधार पर किया जाता है, जो मुख्यतः जैन रचनाओं में मिलती है; को सिर्फ साहित्यिक भाषा स्वीकार किया है आम बोलचाल की भाषा नहीं। स्पष्ट है कि इस साहित्यिक प्राकृत के समानांतर लोकभाषाओं के अस्तित्व को दोनों विचारकों ने स्वीकार किया है और आधुनिक आर्यभाषाओं के उदय की पृष्ठभूमि में इन भाषाओं का महत्त्वपूर्ण योगदान है। इन भाषाओं को ही ‘देशी’ भाषा के रूप में स्वीकार किया गया है। अपभ्रंश की निर्मिति में इन देशी भाषाओं के योगदान को स्पष्ट करते हए गुलेरी जी ने लिखा है -
"देशी और कुछ नहीं, बाँध से बचा हुआ पानी है या वह जो नदी मार्ग पर चला आया बाँधा न गया। उसे भी कभी-कभी छानकर नहर में ले लिया जाता था। बाँध का जल भी रिसता रिसता इधर मिलता आ रहा था। पानी बढ़ने सेे नदी की गति वेग से निम्नाभिमुखी हुई, उसका ‘अपभ्रंश’ (नीचे को बिखरना) होने लगा।"[4]
किशोरीदास वाजपेयी ने भी हिन्दी के उदय की पृष्ठभूमि में प्राकृत की तीसरी अवस्था को स्वीकार किया है जिसका संबंध कुरू जनपद से था -
"कुरू जनपद में प्राकृत का तीसरा रूप जो प्रचलित था, उसका नाम रूप कुछ भी हमारे सामने नहीं है ! प्राकृत के (दूसरी तथा तीसरी अवस्था के) जो भी रूप साहित्य में उपलब्ध हैं, उनसे हिन्दी की पटरी बैठती नहीं है।"[5]
जिस प्रकार साहित्यिक प्राकृत को देशभेद के अनुसार विभाजित किया गया है जबकि उसके मुख्यतः दो तीन भेद ही मिलते हैं उसी प्रकार अपभ्रंश का भी भेद किया गया है। गुलेरी जी के अनुसार उपलब्ध साहित्यिक अपभ्रंश का मूल क्षेत्र वही है जो कभी शौरसेनी प्राकृत का क्षेत्र था -
"अंतर्वेद, ब्रज, दक्षिणी पंजाब, टक्क, भादानक, मरू, त्रवण, राजपूताना, अवंती, परियात्र, दशपुर और सुराष्ट्र - यहीं की यह भाषा एक ही मुख्य अपभ्रंश थी जैसे पहले देशभेद होने पर भी एक ही प्राकृत थी।"[6]
"कई कड़ियाँ टूटी हैं। कुछ भी हो, साहित्य में उपलब्ध प्राकृतों में से कोई भी ऐसी नहीं है, जिसे हिन्दी (खड़ी बोली) का उद्गम माना जा सके। हाँ अवधी आदि का सम्बन्ध उनसे जरूर है।"[7]
"प्रसिद्ध है अपभ्रंश का ध्वनितंत्र लगभग वही है जो प्राकृत का है। अपभ्रंश के रूपतंत्र में देशी भाषाओं के रूपतंत्र के लक्षण मिलते हैं। स्पष्ट ही अपभ्रंश में एक आंतरिक विरोध है। इसका ध्वनितंत्र प्राकृत की ओर मुँह किये है और रूपतंत्र देशी भाषाओं की ओर।"[8]
"संस्कृत-प्राकृत का मुख्य भेद ध्वनि संबंधित है जबकि संस्कृत और आधुनिक आर्यभाषाओं का भेद ध्वनि के अलावा रूप-गठन और मूल शब्दभंडार से सम्बन्धित भी है।"[9]
"अपभ्रंश में प्राकृत की अपेक्षा देशी भाषाओं की रूप विविधता अधिक झलकती है, इसका प्रमाण केर है।"[10]
"जब हम कहते हैं कि स्वप्, सस् और सो एक ही मूल धातु के तीन रूप हैं, तो उसका अर्थ इतना ही है कि धातु मूलतः एक है; उच्चारण भेद के कारण वह तीन रूपों में मिलती है।"[11]
"रोने के लिए संस्कृत में रू (रूवति) और रूद् (रोदित) दो धातुएँ हैं। हिंदी ‘रो’ का सम्बन्ध रोद् से है, लेकिन उसके दकार-हीन रूप से। रोना संज्ञा रोदन से नहीं बनी; वह सीधे प्राचीन रो धातु से बनी है। रूद् की तुलना में रू-वाली धातु प्राचीन माननी चाहिए और रो को रू के समकक्ष। उत्तररामचरित में सीता राम के लिए कहती हैं: परूण्णो होदि। इसका संस्कृत रूप है: प्ररूदितो भवति। स्पष्ट ही रूदितो से रूण्णो नहीं बना; उसका सम्बन्ध वैदिक रू से है।"[12]
"अपभ्रंश पर कृत्रिम प्राकृतों का प्रभाव है; उसमें बोलचाल की भाषा के कुछ रूप ही आये हैं, वह बोलचाल की भाषा नहीं है। जैसे गोरखवाणी और पुष्पदंत की भाषा में अंतर है, वैसे ही एक कवि, विद्यापति की मैथिल और उनकी अपभ्रंश में अंतर है।"[13]
"प्रत्येक भाषा को बोलियों का एक समुदाय मानना चाहिए। इस समुदाय में से कुछ बोलियों के आधार पर जातीय भाषा के रूप में किसी एक बोली का विकास बाद की प्रक्रिया है।"[14]
अपभ्रंश जातीय भाषा है या नहीं लेकिन भाषा विकास की जिस प्रक्रिया का उल्लेख रामविलास जी ने किया है वह अपभ्रंश पर भी इसी रूप में लागू होती है। साहित्यिक भाषा बनने से पूर्व अपभ्रंश का भी एक बोलचाल का स्वरूप अवश्य रहा होगा। लेकिन रामविलास जी की दृष्टि साहित्यिक अपभ्रंश की भ्रष्टता पर ही अधिक केन्द्रित है -
"अपभ्रंश में न केवल संस्कृत का भ्रष्ट रूप है, वरन् उसमें आधुनिक भाषाओं का भी भ्रष्ट रूप प्रस्तुत किया गया है। अपभ्रंश साहित्य में हम हिंदी रूपों को जहाँ-तहाँ पहचान सकते हैं, किन्तु संस्कृत-प्राकृत के बाद उसे विकास की कड़ी नहीं मान सकते।"[15]
"यह तथ्य रोचक है कि अपभ्रंश के रचनाकार जैन, बौद्ध और शैव ही अधिक थे। या तो इन मतों से भाषा सम्बन्धी क्रांतिकारिता का विशेष सम्बन्ध था, या अपभ्रंश के रचनाकार लोक भाषाओं की मिलावट से एक विशेष प्रकार की भाषा तैयार कर रहे थे जिसे गुरु और उसके शिष्य ही समझ सकते थे।"[16]
"इस साधना से जो भाषा सम्बद्ध थी, वह अपभ्रंश थी।"[17]
"हेमचंद्र अपभ्रंश सिखाने के लिए अपना व्याकरण रच रहे हैं प्राकृत भी सिखानी है और अपभ्रंश भी। उन्हें सिखानी है जिन्हें संस्कृत आती है, इसलिए सूत्र संस्कृत में रखे हैं, उनका वार्तिक भी संस्कृत में लिखा है।"[18]
"हमारे विचार से अवहट्ठ परवर्ती अपभ्रंश का वह रूप है जिसके मूल में परिनिष्ठित अपभ्रंश यानी शौरसेनी है। व्यापक प्रचार के कारण इसमें कई रूप दिखायी पड़ते हैं। परवर्ती अपभ्रंश या अवहट्ठ भिन्न भिन्न स्थानों की क्षेत्रीय भाषाओं से प्रभावित हुआ है, जैसा हर साहित्य-भाषा होती है।"[19]
"संस्कृत के आधार पर अपभ्रंश का व्याकरण लिखने का परिणाम यह है कि उन्हें अनेक संस्कृत शब्दों के देशी प्रतिरूप देते हुए आदेश सम्बन्धी सूत्र रचने पड़ते हैं। मूल शब्द कंकण, इसका आदेश हुआ चूडला; मूल शब्द ताप, इसका आदेश हुआ झलक। इस प्रकार जितने शब्द संस्कृत में न मिले, संस्कृत धातुओं से सिद्ध न हों, उन्हें आदेश सूत्रों से सिद्ध किया गया। पर ऐसे शब्दों की संख्या बहुत थी; जितने शब्द थे, उतने ही सूत्र रचने पड़ते। इसलिए अलग से देशी शब्दों की सूची बना दी, नाम रखा देशी नाममाला।"[20]
"ये वैयाकरण प्राकृत और संस्कृत के प्रत्येक ऐसे शब्द को देशी कह सकते हैं जिसकी व्युत्पत्ति संस्कृत से न निकाली जा सके।"[21]
"अपभ्रंश और संस्कृत में मौलिक अंतर यह था कि संस्कृत एक समय बोलचाल की भाषा रह चुकी थी और शिष्ट जनों की भाषा बहुत दिनों तक रही पर अपभ्रंश (या प्राकृत) कभी भी बोलचाल की भाषा नहीं थी, न शिष्ट जनों की भाषा थीं होती तो संस्कृत में भाष्य लिखने की नौबत न आती।"[22]
"अपभ्रंश शिष्ट जनों के साहित्य का माध्यम थी। यह पश्चिमी अपभ्रंश बंगाल को भी आच्छादित किये हुए थी, यह सत्य है।"[23]
"उससे मैथिल भाषाका जन्म नहीं हुआ है; मैथिल भाषा में उसके समानांतर साहित्य रचा जा रहा था।"[24]
"अतः उक्ति व्यक्ति प्रकरण को आधुनिक आर्य भाषा का प्रथम व्याकरण मानना चाहिए, और यह आधुनिक आर्य भाषा अवधी है।"[25]
"यद्यपि दामोदर पंडित का उद्देश्य अवधी व्याकरण लिखना न था, फिर भी उनकी पुस्तक अवधी का व्याकरण बन गई है।"[26]
"ऐसा अनुमान किया गया है कि पुस्तक राजकुमारों को काशी - कान्यकुब्ज की भाषा सिखाने के उद्देश्य से लिखी गई थी।''[27]
"कान्यकुब्ज उस समय हिंदी प्रदेश का केन्द्र था। यहाँ का सामंतवर्ग संस्कृत को प्रश्रय देता था। यहाँ के ब्राह्मणों के लिए संस्कृत जानना आवश्यक था। ये ब्राह्मण सामान्य जीवन में अवधी बोलते थे।"[28]
"उक्तावपभ्रंशभाषिते व्यक्तीकृतं संस्कृतं नत्वा तदेव करिष्याभिः इत्यर्थः ... अथवा नाना प्रकारा प्रतिदेशं विभिन्ना येयमपभ्रंशवाग्रचना णामराणां भाषित भेदाभेदात्तद्वहिष्कृतं ततोऽन्यादृशम्। तद्धि मूर्खप्रलपितं प्रतिदेशं नाना।"[29]
"ग्रंथकार ने इस देशभाषा का कोई विशिष्ट नाम न देकर अपभ्रंश नाम दिया है, परन्तु इस अपभ्रंश शब्द का उसके मन में वही अर्थ नहीं है जो हेमचंद्र के अपभ्रंश का यानी परिनिष्ठित अपभ्रंश का है। ‘उक्ति’ का अर्थ है लोकोक्ति यानी लोक में प्रचलित भाषा पद्धति, उसकी व्यक्ति यानी विवेचना, स्पष्टीकरण जो इस ग्रंथ में किया गया है।"[30]
"जनपदीय भाषाओं का यह परस्पर संपर्क बोलचाल की भाषा के स्तर पर जायसी में दिखायी देता है साहित्यिक रूढ़ भाषा के स्तर पर अपभ्रंश में दिखाई देता है।"[31]
"ब्रज से लेकर असम तक बोलचाल की भाषा में मूर्धन्य ण का बाहिष्कार हैं बाँगरू, पंजाबी, राजस्थानी, मराठी में इसकी भरमार है। एक विशाल प्रदेश से यह ध्वनि अचानक गायब क्यों हो गई और दूसरे विशाल प्रदेश में वह विद्यमान कैसे रही?''[32]
"यदि 17वीं सदी में पूर्वी और पश्चिमी हिंदी के रूप बँगला में प्रचलित थे, तो स्पष्ट है कि पूर्वी-पश्चिमी हिंदी के निर्माण से पहले बँगला का निर्माण भी न हो सकता था।''[33]
"वर्तमान युग भारत में जातीय प्रतिद्वन्द्विता का युग है। जातीय सहयोग की आकांक्षा निर्बल है। इस कारण पुराने जमाने में जहाँ ऐसा जातीय सहयोग भाषा और साहित्य में हुआ है, उसे हम देखना नहीं चाहते या देखकर भी उससे उचित निष्कर्ष निकालना नहीं चाहते।"[34]
"तमिलनाडु में व्यापार का विकास उस प्राचीनकाल में होता है जिस काल में अखिल भारतीय स्तर पर सामंती व्यवस्था अभी सुदृढ़ हो रही है। तमिलनाडु इस व्यवस्था के केन्द्रों से सर्वाधिक दूर है, इसलिए इस व्यवस्था के वहाँ तक पहुँचने और सुदृढ़ होने में कुछ अधिक समय भी लगा।"[35]
"तमिल भाषा का जो प्राचीनतम साहित्य मिलता है, वह सामंती व्यवस्था का साहित्य है, प्राक्सामंती व्यवस्था का नहीं।"[36]
"धर्म का अभ्युदय, उसका संघबद्ध रूप सामंती व्यवस्था की स्थापना और पोषण के लिए ऐतिहासिक रूप से अनिवार्य होता है। वैदिक-पौराणिक धर्म, बौद्ध धर्म और जैन धर्म इन तीनों के केन्द्र उत्तर भारत में थे। समस्त भारत में सामंती व्यवस्था के प्रसार के साथ इन तीनों धर्मों का प्रसार भी जुड़ा हुआ है। तमिलनाडु के साहित्य का कोई ऐसा युग नहीं है जब वह प्रदेश इन धर्मों के प्रभाव से पूर्णतः मुक्त रहा हो।"[37]
"तमिल साहित्य की अब तक ज्ञात किन्हीं भी प्राचीन कृतियों में संगम-युग के संग्रहों में कहीं भी अगस्त्य ऋषि का स्पष्ट तथा निश्चित रूप से उल्लेख नहीं आया है, उनके अद्भुत कार्यों का तो और भी नहीं।"[38]
"भारतीय सामंतवाद के ह्रासकाल की इस स्थिति को ध्यान में रखना आवश्यक है। तुर्कों और उसके बाद अँगरेजों की विजय इसी तरह की परिस्थितियों से संभव हुई। यहाँ का व्यापारी वर्ग इतना असंगठित और दब्बू था कि वह सामंती तंत्र के बदले नया प्रजातंत्र स्थापित करने में असमर्थ रहा।"[39]
"व्याकरण तथा कोश रचना के क्षेत्रों में उल्लेखनीय प्रगति हुई। यहाँ प्रमुखता जैन तथा बौद्ध लेखों की रही।"[40]
"मतवाद के बाहर अपभ्रंश में जो साहित्य रचा गया, उसका आधार भारत का बिखरा हुआ सामंतवर्ग था जो वीरता और शृंगार के अतिरंजित वर्णन से अपना मनोरंजन करता था।"[41]
"संस्कृत के माध्यम से भारत के सामंतों, व्यापारियों और विद्वानों ने जो एकता कायम की थी, वह छिन्न-भिन्न हो गई थी।''[42]
"अपभ्रंश काल में संस्कृति के वैसे केन्द्र स्थापित नहीं होते जैसे हर्ष के समय में और उनसे पहले थे।"[43]
"हर्ष के समय तक संस्कृति का मुख्य माध्यम संस्कृत था। इसके बाद अपभ्रंश का समय आता है। संस्कृत अपनी ऐतिहासिक भूमिका पूर कर चुकी थी।"[44]
"जिन सामंतों को राजपूत कहा जाता है, उनसे अपभ्रंश साहित्य के पोषण का घनिष्ठ संबंध है।"[45]
"यह संभवतः पहला अवसर था जब राजाओं ने अपनी क्षत्रिय हैसियत प्रमाणित करने के लिए जान-बूझकर सजग प्रयास किया। विगत राजवंशों ने अपनी जातीय स्थिति को महत्त्व दिए बिना शासन किया था और राजा होने के कारण उन्हें उच्च वर्णों का सदस्य मान लिया गया था।"[46]
"भूमि अनुदान प्रथा के उत्थान तथा शहरों के पतन, दोनों के पीछे कलियुग के संकट की पे्ररणा दिखाई देती है, और इन दोनों के कारण जो उत्पादन पद्धति उभरी उससे एक प्रकार की आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था का जन्म हुआ। ... इस प्रकार की अर्थव्यवस्था को एशियाई उत्पादन पद्धति की संज्ञा दी गई है। किंतु यह वस्तुतः सामंती अर्थव्यवस्था की मुख्य विशेषता प्रतीत होती है - खास तौर से उसके क्लासिकी दौर की विशेषता, जब उसके विघटन की प्रक्रिया प्रारम्भ नहीं हुई थी। लेकिन जैसे ही उत्पादन संबंध सामंती पद्धति पर संगठित होते हैं, वे संघर्ष के अनेक कारणों को जन्म देने लगते हैं।"[48]
"भारत के उन प्रदेशों पर दृष्टिपात कीजिए, जहाँ की आधी अथवा आधी से अधिक जनता मुसलमान है। ये मुसलमान चाहे अरबों, तुर्कों, पठानों अथवा अन्य जातियों के वंशज हों, चाहे इनमें से अधिकांश बौद्ध या हिन्दू रहे हों और उनका धर्म परिवर्तन हुआ हो, हर प्रदेश में उनकी जातीयता वही है जो शेष जनता की है।"[49]