सरजू, सरजू भैया और लल्लू महतो : बलभद्र
(एक)
सरजू
तीन दिन पहले छोटे भाई विमल ने फोन पर बताया कि सरजू अब नहीं रहा। बीमारी की वजह से उसकी मृत्यु हो गई। वह बचपन से ही ममहर रहता था। जब तक नाना-नानी रहे, उनके साथ रहा। उसके छोटे भाई का नाम गरजन है। दोनों शादीशुदा एवं बाल-बच्चेदार हैं। नाना -नानी के मरते ही दोनों भाइयों को नाना-नानी का घर छोड़ना पड़ा। उसके नाना-नानी के पट्टीदारों ने घर छोड़ने को विवश कर दिया।
नोकझोंक और मारपीट और रोज-रोज के किचकिच से आजिज आ दोनों भाइयों ने वह घर छोड़ पट्टीदारों के छोटे से घर में आकर रहना शुरू किया। और पट्टीदार मय बाल-बच्चे उनके घर आ जमे। दोनों मिहनती, दोनों काम मे लगे रहनेवाले कुशल खेत-मजदूर थे। पर, बड़ा-सा कीता, दुआर-दालान वाला, छोड़ने का दुःख तो था ही। जिस घर में घरनी उतरी हो, रहना-सहना हुआ हो। वह घर छोड़ते मोह भला किसको नहीं होगा।
बहरहाल, दोनों बहुत ही मेहनती और लगनशील थे। जिस काम में हाथ लगाते उसे केवल पूरा ही नहीं करते बल्कि बहुत सज से करते थे कि देखनेवाले तबियत से वाह वाह करने लगते। अपनी तारीफ किसको नही भाती। दोनों बहुत खुश होते और दोनों की गाँव में पूछ बढ़ती गई। गाँव का भगीना होने के नाते ये किसी को नाना-नानी, किसी को मामा-मामी, किसी को मौसा-मौसी तो किसी को भाई-भौजाई निधड़क कहा करते थे। गाँव के लोग भी इन दोनों भाइयों से लगे रहते थे। गरजन तो अपने गोड़ के दरद से पामाल है।
कामधाम करना मुश्किल हो गया है। सरजू ज्यादा ही सीधा आदमी था और गमखोर भी। कोई दो बात कहे भी तो उलटकर जवाब देना उसके सुभाव में नहीं था। वह कुछ ज्यादा ही लगनशील और कार्यकुशल था। उसकी कार्यकुशलता को लेकर उसके लिए ही खासकर, लोगों ने एक विशेषण गढ़ा था- 'परीना'। उसके करीने से काम करने के चलते यह 'परीना' आया। हल जोतना हो चाहे आर-मेड़ सोझियाना अथवा गोहट फेंकना या करहा बनाना सरजू का कोई जवाब न था। करहा बनाए तो ऐसा कि पानी छलछलाते खेत तक पहुंच जाए। धान रोपाई के वक्त आर को छांटकर ऐसा साज दे कि क्या कहना!
सरजू को समय पर या उससे पहले ही काम पर आने की आदत थी और यह आदत जब तक वह काम करने लायक रहा तबतक बनी रही। और शाम को अगर गाँव-जवार का काम कर रहा होता तो घर जाने की कोई जल्दी भी नहीं होती। काम अगर थोड़ा रुक जाने से पूरा हो जाने लायक होता तो वह बिना कुछ कहे रुक जाता। कोई अगर कह दे कि थोड़ा बचा है, कल इतने के लिए ही आना होगा, तो वह खैनी बनाने को कहता और थोड़ा अगल-बगल ताककर काम में भिर जाता।
फिर तो थोड़ा और थोड़ा अधिक क्या! पूरा करके ही घर को चलता। उसकी इस भलमनसाहत का कुछ लोग बेजां फायदा उठाने से बाज नहीं आते। उसको मूर्ख समझते। मुँह पर उसकी तारीफों के पुल बांधते।कहते कि गांव का भगीना है, जो कहे सो हाज़िर है। वो समझता सबकुछ था। पर कहता कुछ नहीं था। चुप रह जाता।
हाँ, कभी-कभार जरूर कह देता कि 'एक खिली खइनी देल त पारे ना लागे, अउर तू का देबऽ!' उसकी इस आदत पर उसकी पत्नी जल-भुनकर रह जाती। पर वह उसका भी कोई जवाब नहीं देता। वह अपनी पत्नी को अपने बेटों के नाम के साथ पुकारता। फलनवा की माई कहकर कुछ कहता। वह पत्नी के लिए 'ओकनी के' का व्यवहार करता। एकवचन नहीं, हमेशा बहुवचन।
सरजू को तीन बेटे हुए। मंझले बेटे की दो-तीन साल पहले मृत्यु हो गई थी। वह ग़ाज़ियाबाद में मजदूरी करता था।वहीं बीमार पड़ा। बीमारी की हालत में घर आया। पटना के किसी अस्पताल में उसके पेट संबंधी किसी बीमारी का ऑपेरशन हुआ, पर बच नहीं पाया। दहाड़ मारकर रह गए दोनों। इतनी भयावह गरीबी कि सरजू तो कुछ कह भी नहीं पाया किसी से। बेटा शादीशुदा था। कमाने गया था रुपया-पैसा। घर का काम चलाने। पर बीमारी और आखिर में मौत कमाकर आया। सरजू से उस वक्त आंखें मिलाने की हिम्मत मुझमें नहीं थी। कुछ कहना चाहकर भी नहीं कह सका। कुछ कहता भी तो क्या?
आठ-दस साल पहले उसके हाथ की दो अंगुलियां कुट्टी मशीन की भेंट चढ़ गईं। गांव के ही एक महतो जी के यहाँ पुआल की कुट्टी कटवा रहा था। दिनभर की मजूरी पर गया था कि कुछ कमाई हो जाएगी। जिन अंगुलियों से मुट्ठी बँधती है, काम में जोर लगता है, दाल -भात का कौर उठता है, उन्हीं अंगुलियों को गँवा बैठा।
एक तो छोटा कद, दुबली-पतली देह, ऊपर से अंगुलियां नदारत। जिनके बूते करहे को चिकन-चाकन गढ़ देता था, वो अब गायब। उसकी सारी 'परिनई' (निपुणता) अंगुलियों के साथ ही जाती रही। अब सरजू वो सरजू नहीं रहा। कोई मुआवजा वह पाए तो कहाँ से? इलाज हो पाया किसी तरह। जख्म तो भर गए, पर आत्मा का जख्म कभी नहीं भर पाया।कुदाल की बेंट अब मुँह चिढ़ाने लगी।
सरजू के बच्चे काफी इंतज़ार के बाद हुए। उसकी नानी को हमलोग बचपन में गेल्हिया माई कहते थे। गेल्हिया माई की बेटी जगरखनी के बेटे हुए - सरजू और गरजन। नाना का नाम था जयमंगल कहार। जब तक गेल्हिया माई जिंदा रही आँगन-घर-दुआर सब चमचमाता रहा। मजाल कि कहीं कोई गंदगी दिख जाए। उसके आँगन में एक चबूतरा हुआ करता था और चबूतरे के बगल में तुलसी के पौधे। दुआर पर गुड़हल के फूल। जाड़े में गेंदा और जटाधारी।
कुछ फूल प्रतिदिन उस चबूतरे पर नियमित चढ़े होते थे। दुआर पर एक नीम का पेड़ भी था। जो कि बाद में सरजू और गरजन के वहां से हटने के बाद जो रहने आए, दाम कर कटवा दिया। जयमंगल कहार कलकत्ता कमाते थे।अच्छी स्थिति थी गेल्हिया माई की। बचपन में मैं अपनी ईया (आजी) के साथ हमेशा गेल्हिया माई के घर जाता।अक्सर दोपहर में।
तब तक वह नदी नहाकर आ चुकी होती और चबूतरे पर कुछ फूल चढ़ गए होते। उसके यहाँ 'सोरठी बृजभार' था ,जिसको हमारी ईया गया-गाकर पढ़ती थी और कुछ औरतें मनाचित लगा सुना करती थीं। तब उस घर में एक और औरत हुआ करती थी जिसको सबलोग सधुआइन कहा करते थे। उस औरत के बारे में तब कहां सुध थी विशेष कुछ जानने की। ये तो बाद में थोड़ा-बहुत मालूम हुआ कि वो उस घर की नहीं थी। किसी दूसरे गाँव के राजपूत परिवार की बहू या कि बेटी थी। शायद भोजपुर ज़िला के जलपूरा गांव की। वो सिंदूर नहीं लगाती थी। शायद विधवा थी। वही लेकर आई थी 'सोरठी बृजभार'। वो बहुत रस ले लेकर सुनती थी।
संभव है अपने सपाट और बेरंग हुई दुनिया मे कुछ रंग वहीं से ले पाती हो। खैर, सधुआइन गईं, गेल्हिया माई गई, जयमंगल गए, इन दोनों भाइयों का वह घर छूटा, नीम का पेड़ गया और गेल्हिया माई की बेटी का एक बेटा भी अल्लाह का प्यारा हो गया। गेल्हिया माई थी तो हमें नहीं पता कि वो कमकर परिवार है और वहां किसी उच्च जाति के परिवार की औरत और बच्चे को वहाँ इस तरह नहीं जाना चाहिए। हम सब दिन दिन भर रहते और खेलते-खाते थे। आज की तरह तो इतना भेद नहीं था।
तो बात चली थी कि सरजू को बच्चे देर से हुए। और हुए तो तीन हुए। मुदई मुँहे कारिख पुत गई। लेकिन इस देर के कारण लोगों ने, खासकर महिलाओं ने क्या-क्या नहीं कहा, सुझाया। सरजू ने एक बछिया पाल रखी थी। वह बड़ी मरकही निकली। वह भी लंबे समय तक न बाही न बियाई। उसके दुआर पर, नीम के नीचे गोली खेलते लड़कों ने उसका नाम खीरमोहनी रख दिया था। उसके सामने हाथ नचा-नचा काँव-काँव करने लगे थे।
वह भी ससुरी पक्की खंचरिन। इधर बच्चे खीरमोहनी कहते, उधर वह हूँफने लगती। फनफना उठती सरजू बो कभी-कभी चिढ़ जाती तो उन गोली जमाये बच्चों को भगाने लगती - 'ना जइबऽ लोग अपना दुआरे।' पर, वे इधर हटे, उधर फिर आ डटे। धीरे-धीरे बच्चों ने खुद सरजू का नाम खीरमोहन रख दिया। और यह नाम चल पड़ा। संग के कामगार भी खीरमोहन कहने लगे। और तो और उसकी पत्नी भी खीरमोहन कहने से बाज़ नहीं आती। काशी, लालबाबू सब खीरमोहन कहने लगे।
अफसोस कि अब काशी भी नहीं रहे। काशी जो थे, वो कैंसर से गए। काशी उसी परिवार के रहे जिसके चलते सरजू दोनों भाइयों को अपने नाना वाला घर छोड़ना पड़ा था। शुरू में दोनों परिवारों में तनाव जैसा कुछ रहा, पर बाद में सब सामान्य हो गया। काशी के पिता का नाम था सीताराम कहार। खूब गाँजा पीते थे।
सीताराम जी हमसे उम्र में काफी बड़े थे। कलकत्ता की किसी प्राइवेट कंपनी में काम करते थे। नौकरी से रिटायरमेंट के बाद गांव आ गए और दिन-दिनभर उनकी मड़ई में, दुआर पर टोलाभर के गंजेड़ी बैठकी लगाने लगे। चिलम धकाधक जलती रही। तरह तरह की बोलबाजियों के साथ चिलम के शीर्ष पर लपालप प्रत्येक दम पर लाफें उठतीं रहीं।
सीताराम गए इस दुनिया से तो इसी गांजे के चलते। खांस खांस के बेदम होते सीताराम जी ने कभी चिलम से मुँह नहीं मोड़ा। अपने आखिरी वक्त में जब उठने बैठने में एकदम लाचार हो गए, करवट बदलना तक मुश्किल हो गया, अपनी बैठकी के लोगों से इशारे में ही गांजे की चिलम थामने की इच्छा जाहिर की।
साथियों ने सहारा देकर बिठाया, चिलम थमाई, भाय ने दम मारा।आखिरी लाफ़ थी वह चिलम के शीर्ष पर नृत्य के समापन की तरह विराम लेती। सब उनको भाई नहीं, 'भाय' कहते थे। जब उनकी अर्थी उठी तो किसी गंजेड़ी ने अर्थी के सिरहाने एक चिलम, एक साफीऔर गांजे की एक पुड़िया रख अपनी ओर से आखिरी सलाम पेश किया।
अर्थी उठाने से पहले समाजियों ने चिलम चढ़ाई।श्राद्ध के दिन उनकी जमात के लोगों ने प्रेमपूर्वक दम मारा। सीताराम भाय के बाद उनका बड़ा बेटा जिसका नाम बैजनाथ था, वो भी पिता के नक्शेकदम पर चलते हुए आखिरी साँस ली। वो भी कलकत्ता काम करता था। गाँव वो भी आया नौकरी पूरा कर, मरा वो भी पिता की तरह। सीताराम भाय का एक और बेटा है जो चिलम से बेइंतहां मुहब्बत करता है। वो भी कुछ दिन कलकते में रहा। सीताराम भाय की पत्नी को हमलोग भउजी कहते थे। मोटी थी इसलिए वो 'हथिया भउजी' थी। वो भी गई। जाने की उमर तो नहीं हुई थी पर चली गई। अपने पति के बाद गई।इस पूरे प्रकरण को लिखते हुए मन अज़ीब -सा हुआ जा रहा है।
यह कलकत्ता जो सो कमाल का है। जो जाता था उस समय वो आज की तरह तो तुरत-तुरत नहीं आ पाता था। साल -साल भर बाद आ पाना होता था। घर-परिवार सब छोड़कर जाते थे और साल साल भर अकेले रहते थे। जैसे तैसे। इसी दोहपंच में ही गांजे और चिलम की जगह बनी। सीताराम भाय सरजू के मामा लगते थे। सरजू के नाना सीताराम भाय के चाचा। सरजू भी दिल्ली-कलकत्ता सब घूम आया था।
पर उसे कहीं अड़ान नहीं मिल पाया। सो इसी मिट्टी पर खटते हुए बीमार पड़ा और चल बसा।उसके जाने से क्या फरक पड़ेगा किसी पर। कोई बड़ा आदमी तो वह था नहीं। घर-द्वार सब टूटा-फूटा,गरीब की किस्मत की तरह। इंदिरा आवास-योजना का फारम पर फारम भरता रहा,ब्लॉक में कई बार गया,सौ-पचास किसको किसको नहीं दिया,तहसीलदार को, गाँव के चालू-पुरजा लोगों को। पर पाया क्या? कहते-कहते चला गया।सिधवा था, पर जान चुका था कि उसकी कहीं कोई सुनवाई नहीं। पैसा दे तो देता था पर कहता था कि हो जाए तब तो जानें।
जिस उमर में सरजू गया, वह भी कोई जाने की उमर होती है। पर वह गया। हरेराम यादव गए, सुरेश यादव गए, सभा यादव गए। न जाने कितने गए। सब खेत-मजदूर थे। यह जाना अभी भी जारी है। इनके दुखों का एक अंतहीन सिलसिला दर्ज हो रहा है प्रतिदिन। खेत-मजदूरी छोड़ ये राजमिस्त्री के साथ मजदूरी में लगे।
अपने गांव से बाहर के गांवों में जाने लगे। गांव के नजदीक के बाजार बिहिया जाने लगे मजदूरी करने। सुबह- सुबह निकलते, देर रात वापस लौटते। काम नहीं मिलने पर मनमार खाली हाथ वापस आते। रोज सुबह बक्सर,पटना मोकामा शटल से जाते और रात में उसी से वापस लौटते। अब बिहिया जानेवालों में न सुरेश रहे, न सभा, न सरजू।
सरजू के नाना का नाम था जयमंगल कहार। पर, कलकत्ता से आने के बाद जब वे स्थायी तौर पर गाँव रहने लगे तो उनका भी एक उपनाम धरा गया। लोग उनको खोंखा कहने लगे।आज भी ऐसे कई लोग हैं जिनके उपनाम हैं।बहरहाल, जो सरजू था न वो बड़ा दिलचस्प भी था कई मामलों में। झगड़ालु तो बिल्कुल नहीं था। पर, एक खास प्रसंग याद आ रहा है। वो यूं है कि एक बार धान की कटाई हो रही थी। सरजू सहित कई कटनिहार लगे हुए थे।सतरह बोझा पर एक बोझा बन्न का होता था। बन्न का बोझा सामान्य बोझे से काफी भारी होता था।
सरजू ने भी खूब रच-रचकर बन्न का बोझ बांधा था। खेत में मैं ही बोझ उठा रहा था और मुझे ही बन्न फरियाना था। तब मैं इंटर में पढ़ता था। सबसे पहले सरजू का बन्न फरियाने का अवसर आया।मैंने उस बोझे को ले जाने से मना किया। सरजू ने हिला-डोलाकर दिखाया कि कहां बहुत भारी है। फिर भी हमने मना किया। खेत मालिक होने का एक गरूर था और भाषा भी वैसी ही ऐंठ वाली थी।
सरजू ने आखिर में कहा कि 'रोक लऽ,रोक के राजा हो जा।' फिर जब बात थोड़ी आगे बढ़ी कि सरजू का मिजाज गरम। बहुत कड़ा प्रतिवाद किया था। मुझे याद है वह सब। पूरी एक तसवीर बन-बिगड़ रही है स्मृति पटल पर। इतना शांत सरजू और इतना कड़ा प्रतिवाद।
बाद में जब मैं पार्टी (CPI - ML) से जुड़ा तो वह प्रतिवाद अनूठा लगने लगा। वह सरजू पार्टी के लिए दस-पाँच रुपये बतौर सहयोग देने लगा। कॉमरेड चंद्रमा प्रसाद को खाना भी खिलाने लगा। उसका छोटा भाई गरजन तब ज्यादा सक्रिय हुआ था।
उसके लिए और गाँव के बच्चों और युवकों के लिए होली का एक अलग आनंद हुआ करता था। एक फगुआ में उसने भंग जमा ली। भंग का रंग जब चढ़ा तो लगा मुँह से फटफटिया (मोटरसाइकिल) की आवाज़ एक सुर में निकालने। उसकी पत्नी और अगल बगल के लोगों को समझते देर नहीं लगी कि यह कुछ और नहीं भंग का रंग चढ़कर बोल रहा है। उसके आँगन में देखनिहार की भीड़ लग गई। और लगी तो देर तक लगी रही। एक दूसरे साल के फगुआ में वह लगा रटने कि 'हम बिआह करब, हम बिआह करब'।
लड़के तो ताक में थे आ जमे तुरत। 'केकरा से बिआह करबऽ?' कहने लगा कि 'हेमा मालिनी से'। लड़के सब लगे हुहकार मचाने। तब से पत फगुआ उसके आँगन में बोलबाजियों की चलती रही। पर जिस साल उसका मंझला बेटा मरा था, सरजू ने भांग छूने की बात तो दूर, ताका तक नहीं था उधर। मन ही मन रो रहे थे पति-पत्नी। उस दिन कुछ देर सरजू को अपने पास रखा। पर जब तक रहा गुमसुम रहा। बेटे की मौत ने तोड़ दिया था अंदर से।
सरजू हमको मामा कहता था। उसकी पत्नी मामाजी कहती है। उसके चेहरे पर चेचक के चंद दाग थे। पर उसका मन बिलकुल बेदाग था। एकबार की बात है कि मेरे यहाँ एक बारात आई थी। आगंतुकों में नाश्ते का डिब्बा दिया जा रहा था। सरजू बाल्टी और जग लिए पानी चला रहा था। भीड़ कुछ कम हुई तो वह आया मेरे पास अपने एक बेटे को लेकर और कहा 'ऐ मामा एकरा के एगो डिब्बा दिया द।'
हमने कहा कि 'अरे दे दे जाके अपनहीं।' पर, वह न गया और न उसको डिब्बा दिया। बच्चा उसका उसके आगे-पाछे ठुनुकता रहा। कुछ देर बाद मेरा जब उधर ध्यान गया तो समझ गया कि यह सरजू अपने से तो निकालकर देने से रहा। खुद लाकर मुझे देना पड़ा। सरजू को भी लाकर दिया कि अरे भाई तुम भी कुछ खा लो। ऐसा था वह।
अब वह नहीं है। उसकी पत्नी है। वह मामाजी कहेगी। मामा कहने वाला सरजू चला गया। नाम लेकर मामा कहता था। बलभद्र नहीं, बेलभदर मामा। एक लुंगी और एक कुरता के लिए उसने कह रखा था। धीरे से कहता था कुछ भी। जिस तरह धीरे से कुछ कहता था उसी तरह धीरे से चला गया। धीरे-धीरे वो बिसर जाएगा। पर मैं जबतक रहूँगा,रहेगा मेरे साथ। एक साथ हमने खेतों में काम किया है। पानी बराया है। करहा गढ़ा है। खलिहान की लिपाई की है। दवनी-ओसवनी की है। उसका जाना एक कुशल श्रमिक, एक सच्चे आदमी का जाना है।
(दो)
सरजू भैया
बात रामबृक्ष बेनीपुरी के 'सरजू भैया' की नहीं, हमारे गाँव वाले सरजू भैया की है। पूरा नाम सरजू सिंह। ठेहुना ऊपर धोती और आधा बाँह गोल गला वाली कमीज और एक छड़ी। गोड़ में जूता-चप्पल होना कोई जरूरी नहीं। वैसे ससुरारी जब जाना होता है तब तो उसकी दरकार उनको अवश्य समझ आती है। तब पूरी बाँह का कुरता पहनते हैं। लेकिन,छड़ी नहीं छोड़ते हैं। ऐसा नहीं कि छड़ी उनकी आज की जरूरत है। ऐसा नहीं कि वह बुढ़ापे का सहारा है। साँच बात तो यह है कि वे अभी बूढ़े हुए भी नहीं हैं। और उसको वे आज से थोड़े लिए हुए हैं। मैं जब और जहाँ से उनको देखता और पलटकर याद करता हूँ, यह छड़ी अवश्य दिखाई देती है।
अब की पीढ़ी यानी टटकी पीढ़ी को तो नहीं जानता कि वह सरजू भइया में कितना दिलचस्पी रखती है। पर अपनी और अपनी की तुरंत बाद वाली की तो जानता ही जानता हूँ कि सरजू भइया से बिना लागे-लपिटाए किसी का मन ही नहीं लगता। सबके सब उनको 'राय जी' कहते। गाँव में राय जी मतलब सरजू भइया। जिनके वे बेटा-भतीजा लगते वे भी उनको रायजी ही कहते।भउजी, जो कि अब नहीं रही, उनको राय जी ही कहती थी,और सरजू भइया उसके ऐसा कहने पर कगरी काटते मुसकाते दिखते। जिसने यह दृश्य न देखा,मेरा मानना है कि उसने सरजू भइया को पूरे में नहीं देखा।
वे भइया होने के नाते लोकप्रिय नहीं थे, न चाचा या किसी के भतीजा होने के नाते। आन्ही आए, घटा घेरे, बूनी पड़े, घाम हो या लूक चले, जाड़-ठाड़ हो - किसी को बैल खरीदना-बेंचना हो, या गाय-भैंस - सरजू भइया को चैन नहीं। होत प्रात वे छड़ी लिए आ जाते उसके दुआर। चाहे कोई राजपूत हो या बराभन, अहीर हो कोइरी या कोहार या पासवान या गंडेरी या कोई भी जाति, हिन्दू या मुसलमान - सब उनके लिए एक समान।
सब उनको खोजते आ जाते। सबके लिए वे निकल जाते। धांग देते पूरा गांव-जवार। सबके खूँटे की जानकारी रखते थे। खूँटे की जानकारी मतलब कि किसके यहाँ बैल है, गाय -भैंस है। बाछा-बाछी है, पाड़ा-पाड़ी है। किसका कितना मुनासिब दाम है। मवेशियों के सुभाव के साथ-साथ वे उनके मालिकों के सुभाव को भी कायदे से जानते थे। अपना हरज-गरज सब उनको कबूल था।
उनकी अपनी एक टीम हुआ करती थी। उस टीम के लोगों का अपना-अपना उपनाम हुआ करता था। एक जन को 'लुटाई सिंह' के नाम से लोग बुलाते थे। जबकि उनका अपना असली नाम अम्बिका सिंह है। इस टीम के एक सदस्य थे शिवधन यादव, एक काशी कहार। अम्बिका सिंह,शिवधन,काशी और सरजू भइया की इस चौकड़ी में से एक काशी छिटक गए हैं। कैंसर के कारण अल्लाह के प्यारे हो गए।
साल-डेढ़ साल हुआ, भउजी भी सरजू भइया का साथ छोड़कर चली गई। माल-मवेशी का बाज़ार भी ठप है। गाँव के गाँव बैलों से खाली हैं। गाय-भैंस भी अब कोई रखना नहीं चाहता। नाद-चरन, खूँटे सब उड़स गए। दुआर-दालान की बैठकियाँ उड़स गईं। रायजी और लुटाई सिंह भी पहले की तरह नहीं बैठते। लेकिन राय जी की छड़ी अभी भी उनके साथ है। लोग कहते हैं कि कभी-कभी काफी उदास हो जाते हैं सरजू भइया। हफ़्ता-दस दिन गुमसुम। बूनी-बदरी में तो और। लोग छेड़ते हैं तो भी कुछ नहीं बोलते। अबकी जो गाँव गया तो पूछा -
'का हो रायजी, ससुरारी गइला कतना दिन भइल त कहलें तनी कगरी प मुस्कात--गइल रहीं, दू -तीन दिन पहिले।'
(तीन)
लल्लू महतो
आज अपने गाँव पहुंचा, कल होली है। होली परिवार और गाँव के लोगों के साथ मनाने गाँव पहुंचा।
रात 9:20 मिनट पर गाँव के लोगों ने होलिका दहन किया। इसी बीच मालूम हुआ की पाँच-छह दिन पहले लल्लू महतो का देहांत हो गया है। एक तरफ मेरी नज़रों के सामने होलिका का दृश्य था और दूसरी तरफ लल्लू महतो के गुज़र जाने का दुःख मन में घुमड़ रहा था। लल्लू महतो जब जवान थे तब होलिका दहन वाले स्थान पे ढोलक-झाल लिए हाज़िर रहते थे और होलिका दहन के उपरांत उनके नेतृत्व में उसी जगह पर लोग ताल ठोकते थे, होली के गीत गाया करते थे। आज उनका न रहना अखर रहा है।
करीबपाँच-सात साल पहले रामनाथ सिंह का देहांत हुआ था। ये भी गीत-गवनई के शौक़ीन थे। रामनाथ सिंह और लल्लू महतो हमउम्र भी थे। अब कहा जा सकता है कि लल्लू महतो के जाने के बाद इस तरह का कोई व्यक्तित्व गाँव में नहीं रहा। मैं लल्लू महतो के प्रति अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ। वे किसान थे, गीत-गवनई के शौक़ीन थे,सहज और सरल भी थे।
होली अब पहले की तरह नहीं मनाई जाती है और लोग पहले की तरह गाते-बजाते भी नहीं है। पर मैं मन ही मन लल्लू महतो के द्वारा गाये गए गीतों की पंक्तियों को दोहरा रहा हूँ -
'अँखिया भइली लाल
अँखिया भइली लाल
एक नीन सुते द बलमु हो...'
और
'बाबू कुंवर सिंह तेगवा बहादुर / बांग्ला में उड़े ल अबीर।'
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डाॅ.बलभद्र अपने प्रगतिशील विचारों व देशज अंदाज़ के लिए जाने जाते हैंं। हाशिए के नागरिकोंं से उन्हें बेपनाह मुहब्बत है। उन्हीं के साथ खेत की माटी मेंं लोटने मेंं बलभद्र जी को आनंद आता है। आजकल झारखण्ड के गिरिडीह के एक काॅलेज में अध्यापनकार्य। संपर्क :
+91 81272 91103