Wednesday, February 28, 2024

 हमारी राष्ट्रभाषा : हिन्दी या हिन्दुस्तानी

सुजीत कुमार सिंह 


‘हिन्दी राष्ट्रवाद’ उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध और बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में हिन्दी व उर्दू के बीच हुए बहसों को आधार बनाकर लिखा गया एक विचारोत्तेजक किताब है । इसे पढ़ते हुए मन उदास हो जाता है । दिल को एक धक्का-सा लगता है । शरीर की समूची शक्ति कहीं और चली जाती है । सात अध्यायों में फैले इस भाषायी झगड़े को पढ़कर क्रोध आता है । देखा जाए तो यह झगड़ा अभी ख़त्म नहीं हुआ है । आज के परिवेश में फ़ारसी लिपि को हिन्दू जनता ने अपना दुश्मन मान लिया है । भाषा की राजनीति अभी जारी है ।

ब्रिटिश उपनिवेश का हिन्दी-उर्दू के इस भयानक झगड़े में रुचि लेना देश के लिए ख़तरनाक सिद्ध हुआ । उसने हिन्दुओं और मुसलमानों को उकसाया । इससे संबंधित एक अध्याय ही इस किताब में ‘मैक्डानेल भये कोतवाल’ शीर्षक से है । इसी मैक्डानेल को साधने का काम किया मदनमोहन मालवीय और श्यामसुन्दरदास जैसे लोगों ने । मैक्डानेल को नागरी प्रचारिणी सभा में आमंत्रित कर उर्दू के ख़िलाफ माहौल बनाया गया । इसका नतीज़ा यह हुआ कि अदालतों में नागरी लिपि को स्थान मिला । यह सब राधाकृष्ण दास पर लिखे गये संस्मरणों में रोचक ढंग से मिलता है ।

भाषा के अध्येताओं का मानना है कि हिन्दी व उर्दू दो भाषा नहीं हैं । मामला संस्कृत और अरबी-फ़ारसी के शब्दों के मिलावट को लेकर है । हिन्दी वाले चाहते थे कि हिन्दी संस्कृतनिष्ठ हो और उर्दू जन अरबी-फ़ारसी मिश्रित । इस किताब में एक जगह लिखा है कि “गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे ने गांधी पर यह भी एक इल्ज़ाम लगाया था कि गांधी संस्कृत-प्रधान हिन्दी के ख़िलाफ थे ।’’ इन पंक्तियों को पढ़ते हुए मुझे ‘विशाल भारत’ (अक्टूबर 1942) में छपे सावरकर के एक भाषण की याद आती है । यह भाषण ‘राष्ट्रभाषा हिन्दी’ शीर्षक से प्रकाशित है । 1942 के अगस्त माह में पुणे में ‘राष्ट्रभाषा प्रचार संघ’ के वार्षिक अधिवेशन में विनायक दामोदर सावरकर ने कहा : “अब तो हिन्दी यानी हिन्दुस्तानी अर्थात् उर्दू सब एक ही है,  ऐसा  कहा जा रहा है । फ़र्क़ है सिर्फ़ लिपि का । अगर हम ऐसे ही सोते रहेंगे, तो हिन्दी के स्थान पर उर्दू का सिक्का जम जायगा । इसीलिए मैं कहता हूँ कि इस आन्दोलन में भी शुद्धीकरण की आवश्यकता है ।... हमारी संस्कृतनिष्ठ हिन्दी-भाषा का घर चार दीवारों से मज़बूत चाहिए । उन दीवारों में दरवाज़ा, खिड़की आदि की आवश्यकता ज़रूर है, क्योंकि बाहर की हवा अन्दर आनी चाहिए । किन्तु उस दरवाज़े पर वैशम्पायन जी – जैसे संस्कृतनिष्ठ हिन्दी के प्रहरी भी चाहिएँ ।... संस्कृतोत्पन्न हिन्दी राष्ट्रभाषा हो, यही मेरा विचार है । हमें संस्कृतनिष्ठ हिन्दी का ही प्रचार करना चाहिए – उसके लिए चाहे जितना विरोध क्यों न खड़ा हो जाय । अगर अलग संस्था बनानी पड़े, तो राष्ट्रीय कार्य के लिए, राष्ट्रभाषा के प्रचार के लिए, हमें उस मार्ग पर चलना होगा । संस्कृतनिष्ठ हिन्दी का मार्ग छोड़कर हिन्दी यानी हिन्दुस्तानी अर्थात् उर्दू के मार्ग पर हम कभी नहीं चलेंगे । संस्कृतनिष्ठ हिन्दी ही हमारी राष्ट्रभाषा है और सदा रहेगी ।’’

इस किताब में एक बहस तत्कालीन स्कूलों के पाठ्यक्रम और पाठ्यपुस्तकों को लेकर है । उस ज़माने की पाठ्यपुस्तकें साम्प्रदायिकता के रंग में रँगी हुई होती थीं । उर्दू या फ़ारसी पढ़ने से नौकरी आसानी से मिल जाती थी मगर हिन्दी के साथ ऐसा न था । आँकड़े बताते हैं कि फ़ारसी-उर्दू पढ़ने वालों की एक भारी संख्या हिन्दुओं की थी । यह सब हिन्दीसेवियों को असह्य लगता । नागरी  प्रचारिणी सभा ने अपनी स्थापना के आरम्भिक वर्षों में ही यह तय किया था कि हमें हर हाल में ‘शिक्षा कमेटी’ में अपने लोगों को प्रवेश कराना होगा । इस दौर की पाठ्यपुस्तकों को लेकर दोनों वर्गों में जबर्दस्त तनाव का माहौल मिलता है । उर्दू के विरोध में किसिम-किसिम की हिन्दी में पुस्तिकाएँ लिखी गयीं । आलोक राय ने सोहन प्रसाद की नाटिका ‘हिन्दी उर्दू की लड़ाई’ का ज़िक्र किया है । इसी तरह ‘उर्दू बेग़म’ उस दौर की एक मशहूर पुस्तिका थी जिसके बारे में नवजादिकलाल श्रीवास्तव ने महादेवप्रसाद सेठ से संबंधित एक संस्मरण में इसका नाम लिया है । इस संस्मरण से यह पता चलता है कि इस तरह की पुस्तिकाओं का अबोध बच्चों पर क्या प्रभाव पड़ता था । जून 1936 के ‘विशाल भारत’ में प्रकाशित अपने संस्मरण में नवजादिकलाल श्रीवास्तव लिखते हैं : “(महादेवप्रसाद) मिरज़ापुर के मिशन स्कूल में पढ़ते थे, तभी से उर्दू में ग़ज़लें लिखा करते थे । तख़ल्लुस शायद ‘रज़ा’ था ।... मिशन स्कूल के कोई मौलवी साहब ही उनके उस्ताद थे । ये उन्हीं से इस्लाह लिया करते थे ।... उस समय ‘उर्दू बेग़म’ नाम की पुस्तक की मिरज़ापुर में बड़ी धूम थी । सेठजी ने भी यह पुस्तक पढ़ी, और तभी से उनका झुकाव हिन्दी साहित्य की ओर हुआ ।’’

इस किताब से यह पता चलता है कि क्यों अयोध्याप्रसाद खत्री के ‘खड़ी बोली आन्दोलन’ को तत्कालीन साहित्यकारों ने कोई तवज्जो नहीं दी ! नागरी प्रचारिणी सभा के ‘गृहप्रवेशोत्सव’ में श्यामसुन्दरदास ने ग्रुप फोटो के लिए गुलेरी जी को तो बुलाया लेकिन खत्री जी को जानबूझकर पूछा तक नहीं । कारण यह था कि कामताप्रसाद गुरु ने लोगों को बताया कि खड़ी बोली उर्दू के काफ़ी करीब है । इस करीबी के नाते ही खत्रीजी का आन्दोलन फ्लॉप हो गया ।

खड़ी बोली और ब्रजभाषा के बीच हुए तक-झक को आलोक राय ने एक अध्याय में समेटा गया है । भारतेन्दु सहित तमाम साहित्यकारों का यह मानना था कि खड़ी बोली में कविता नहीं हो सकती । यह धारणा द्विवेदी युग के आरम्भ तक चलती रही । किन्तु प्रतापनारायण मिश्र जैसे लोग यह जान गये कि आने वाला कल खड़ी बोली कविता का ही है । महावीरप्रसाद द्विवेदी ने तो ब्रजभाषा के खिलाफ़ मोर्चा ही खोल दिया था । छायावादी कवि पंत ने ‘पल्लव’ की भूमिका में जहर उगला । इस अध्याय से पता चलता है कि यह सब सुनियोजित था । यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए कि रामचंद्र शुक्ल जैसे लोग ब्रजभाषा को किसी क़ीमत में ख़त्म होते नहीं देखना चाहते थे ।

‘ये कहाँ आ गये हम’ शीर्षक अध्याय में संवैधानिक बहसों को आधार बनाकर हिन्दी-उर्दू विवाद पर प्रकाश डाला गया है । भाषायी बहस के उस तीखे माहौल का उदाहरण आलोक राय ने यों दिया है : “ड्राफ्टिंग कमेटी के एक सदस्य, एम. सत्यनारायण, के हवाले से मिले एक सायक्लोस्टाइल्ड दस्तावेज़ में इस सिलसिले की एक झलक मिलती है । नेहरू ने उनसे भाषाओं की एक सूची बनाने को कहा । उन्होंने जो सूची तैयार की उसमें हिन्दुस्तान की 12 भाषाएँ शामिल थीं । नेहरू ने उस सूची को कमेटी के सामने रखने से पहले, एक नाम और जोड़ दिया – उर्दू का । जब एक ‘हिन्दी मित्र’ ने पूछा कि ये उर्दू आख़िर किसकी भाषा है, तो उस पर नेहरू ने तन्ना के कहा – “ये मेरी और मेरे बाप-दादाओं की भाषा है ।’’ इस पर उस ‘हिन्दी मित्र’ ने निशाना साधा : “ब्राह्मण होते हुए उर्दू को अपनी भाषा कहते हो, शर्म नहीं आती ?’’ नेहरू ने जवाब नहीं दिया ।’’

यह किताब बीसेक साल पहले अँग़रेजी में आई थी । तब स्त्री और दलित विमर्श हिन्दी साहित्य के केन्द्र में थे। इस किताब में अगर दलितों और स्त्रियों को आधार बनाकर लिखे जा रहे तत्कालीन लेखों का भी विवेचन होता तो ‘हिन्दी राष्ट्रवाद’ का मुकम्मल चेहरा सामने आता । अब जरूरत है कि हाशिए का जीवन जीने वाले वर्गों को भी कथित हिन्दी राष्ट्रवाद में स्थान दिया जाय । इससे हिन्दुत्त्व का खौफनाक रूप उजागर होगा । नवजागरणकालीन साहित्य को खँगालते हुए हम पाते हैं कि हिन्दू सुधारक धर्मशास्त्रों में फेरबदल के बिल्कुल खिलाफ थे । वे धर्मशास्त्र और वर्ण-व्यवस्था को बचा लेना चाहते हैं । ‘प्रभा’ की फाइलों को देखने से ज्ञात होता है कि कुंवरनारायण सिंह, दुर्गाप्रसाद शुक्ल जैसे लोग वर्ण-व्यवस्था को ‘स्वाभाविक’ मानते थे । इन लोगों की चिन्ता यह थी कि अछूत शिक्षित हो गये तो वे हमारी बराबरी कर लेंगे । सांवरमल नागर, श्रीप्रकाश आदि दलितों-पिछड़ों की शिक्षा पर प्रतिबंध लगाने की बात करते हैं । ये लोग पैतृक पेशों को बचाने के लिए अपील करते नजर आते हैं । 1910 ई. में प्रकाशित ‘सच्चा-सुधार’ पुस्तक में पाण्डेय रामलोचन शर्मा लिखते हैं : “कुरमी, कहार इत्यादि सभी को अपने सुधार की सनक चढ़ी हुई है, सभी को ब्राह्मण क्षत्री बनने का शौक चर्राया है । परम्परा से करते आये अपने बाप दादा के काम को लात मार कर खासा ज्यन्टलमैन बनने का लार टपका रहा है ।’’

इस कथित हिन्दी राष्ट्रवाद में जब दलित, पिछड़े और स्त्रियाँ हाशिए पर धकेल दी गयीं, इन्हें शास्त्रानुसार बाँधने की कोशिश की गयी तो भद्र हिन्दू वर्ग मुसलमानों को क्यों अपने राष्ट्र में तरजीह दे । आज डंके की चोट पर यह ऐलान किया जा रहा है कि ‘हम दो हजार साल पुराना भारत चाहते हैं ।’ आप दो हजार साल पुराने भारत को महसूस करना चाहते हैं तो उन नवजागरणकालीन साहित्य का अध्ययन करना होगा जिसे हिन्दी के आलोचकों ने नज़र अन्दाज़ कर दिया है ।


समीक्षित पुस्तक : हिन्दी राष्ट्रवाद (आलोक राय)

प्रथम संस्करण : 2022

राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली।

मूल्य : 250


सुजीत कुमार सिंह 

हिन्दी विभाग,

गवर्नमेंट पीजी कॉलेज, हमीरपुर- 210301 (उत्तर प्रदेश)

मोबाइल : 9454351608

ई-मेल : sujeetksingh16@gmail.com 


Thursday, April 22, 2021

आर्य समाज का भंगी : श्री कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर'

 


कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर'




"तू बड़ा बदमाश है बे! कल शाम क्यों नहीं आया था? वेतन माँगने तो 20वें ही दिन आ धमकता है और काम करते कलेजा फटता है सूअर का!"

"वेतन ही कौन सा अठमाशी दे देते हैं आप मुझे? इतना बड़ा चौक है, कन्या पाठशाला के कमरे और तीन पाखानों की तरफ़! तब कहीं दस आने पल्ले पड़ते हैं।"

"जहाँ अठमाशी मिले, वहाँ चला जा। बदमाश, गज भर की ज़बान निकालता है हर वक़्त! सारी दुनिया में जो क़ायदा है, वही हम देते हैं।"

 

यह हमारे प्रांत की एक प्रसिद्ध आर्य समाज के महामंत्री और आर्य समाज के मंदिर के भंगी नानक के बीच होने वाली एक आम 'इंटरव्यू' का नमूना है। महामंत्री जी आर्य समाज के बहुत अच्छे लेक्चरार हैं। अछूतोध्दार उनका ख़ास विषय है और उस पर जब वे बोलते हैं, तो कलेजा निकाल कर रख देते हैं। उस समय ऐसा मालूम होता है कि उनके मुँह से मनुष्यता की नदी बह रही है। मनुष्य मात्र की समानता के सिद्धांत का निरूपण करके जब वे अछूतों पर होने वाले अत्याचारों की कथा कहते हैं और पब्लिक की आँखों में भी करुणा की गंगा बह उठती हैं। 

यह हमारे जीवन में बहने वाली विचारधाराओं के दो चित्र हैं, एक व्यवहार का और दूसरा विचार का। विचार वही स्थान है, जो आत्मा  का,पर आत्मा शरीर के साथ ही जैसे काम करती है, वैसे ही विचार भी व्यवहार में आने के बाद ही अपनी शक्ति को प्रदान करता है। ऊपर के चित्र इस बात का प्रमाण हैं कि आज हमारे जीवन में - सिद्धांत और व्यवहार में एकता नहीं है। यह भयंकर स्थिति है। 

(1942)

 

 

 

Friday, February 26, 2021

गोरखपुर की पत्रकारिता

 गोरखपुर जनपद साहित्य के क्षेत्र में कितना उर्वर है, इसे हम जैसे विद्यार्थी बहुत ही कम जानते हैं। यों कहिए कि कुछ नहीं जानते। गोरखपुर की नागरी प्रचारिणी सभा के अनुमोदन से पंडित मन्नन द्विवेदी गजपुरी लिखित एक पुस्तिका सन् 1911 ई. में गोरखपुर विभाग के कवि शीर्षक से छपी थी। इसमें आज़मगढ़ और बस्ती ज़िले के कवि तो हैं ही गोरखपुर के गोपालपुर, मझौली, गजपुर, गगहा, कोठा आदि के रचनाकारों का भी ज़िक्र है। 


पीपीगंज से कवि (1909) नाम की पत्रिका निकलती थी तो गगहा से समालोचक (1925)। विशुनपुर से प्रभाकर (1915) पत्रिका की प्रशंसा मैनपुरी निवासी नारायणप्रसाद गौड़ ने अपनी पत्रिका में की तो गोरखपुर के ही शिवकुमार शास्त्री सम्पादित ज्ञानशक्ति  (1916) की समीक्षा और प्रशंसा भानुंजय सहाय, रामजी लाल शर्म्मा और कृष्णकांत मालवीय ने अपने-अपने पत्रों में। स्वदेश के बारे में सभी जानते ही हैं। 1921 में विन्ध्यवासिनी प्रसाद बीए, एलएलबी के संपादन में 'युगांतर' (साप्ताहिक) निकला और इसका चरखा-अंक बहुचर्चित रहा। बहरहाल... मैं ज़्यादा विस्तार में न जाकर मूल बिंदु पर आना चाहूँगा। उपर्युक्त पत्रिकाएँ तो इतिहास में दर्ज़ हैं लेकिन जो बात मुझे कचोट रही है, वह है एक ऐसी पत्रिका जिसके सम्पादक से मेरी बातचीत है। जिनके घर से मेरा निकटतम संबंध है। उनके कृतित्व के बारे में थोड़ा बहुत जानता भी हूँ। 

इलाहाबाद के हिंदी साहित्य सम्मलेन में सारिका उलटते-पलटते जब उनका नाम देखा तो मन कितना उदास हो गया, यह बता पाना यहाँ कठिन है। यह सब पढ़ते हुए गोरखपुर विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष और मेरे आदरणीय गुरुदेव प्रो. अनिल कुमार राय का सम्पूर्ण व्यक्तित्त्व मेरे ज़ेहन में आ गया। आग का राग! बस्स, यही एक नाम। अपने गुरुदेव से उनके व्यक्तित्त्व और कृतित्त्व के संबंध में न हमने कभी पूछा और न उन्होंने कभी बताया। 

जी हाँ, मैं बात कर रहा हूँ श्री माधव मधुकर जी के बारे में। 

कन्हैयालाल नन्दन संपादित 1 दिसंबर 1978 की सारिका में नयी पत्रिकाएँ स्तंभ में रमेश बत्तरा ने श्री माधव मधुकर संपादित संभावना की एक दिलचस्प समीक्षा लिखी है। गोरखपुर की साहित्यिक पत्रिकारिता में जो एक आग है, वह इस समीक्षा द्वारा समझा जा सकता है। पूरी समीक्षा यों है-

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संभावना (सं: माधव मधुकर) राजभवन, रायगंज, गोरखपुर। 

किसी पत्रिका द्वारा रचनाओं और चयन की दृष्टि से व्यक्ति और दल की सीमाओं से ऊपर, सही रचना चुनने की 'विनयपूर्वक' दी गयी सूचना को 'निरपेक्ष उफानदारी' माना जाए या अमूर्त्त संपादकीय व्यक्तित्त्व अथवा अपने तौर पर 'कीचड़-कमल' के गुमान में गुम एक और अ-दलगत अखाड़ा? 'संभावना' ने जो कुछ कहना चाहा है, उसे इस स्तर भी स्पष्ट  कर दिया होता तो इसके आसार और भी बेहतर हो जाते हैं, क्योंकि जब तक यह सवाल साफ़-साफ़ जवाब नहीं पायेंगे तब तक सामाजिकता, परिवर्तन, क्रांतिकर्म, प्रगतिशील आदि शब्द अपने सही अर्थ हासिल नहीं कर पायेंगे। 

इसके बावज़ूद प्रस्तुत अंक में 'कविता' को मिट्टी की गंध में से खगालने की कारगर कोशिश की गयी है। रमेश रंजक, हरिहर द्विवेदी, आलोक धन्वा, श्रीहर्ष, विनय श्रीकर की रचनाओं  सन्दर्भ में सवालों से जुड़-जुड़कर जवाब भी देते हैं और वर्तमान हिंदी कविता में यह प्रवृत्ति संभव है। अपने इस प्रारूप में कविता को फिर से इसकी खोयी हुयी जनप्रियता दिलवा दे-

खामोश मत देखो 

भूखी लाश को खाली पड़े कटोरे-सी 

या गोली मारे गए आदमी को 

खून सने बोरे-सा 

जबान खोलो ...  (सर्वेश्वर)

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मैं समझता था कविता लिखना, खबरें लिखने से बड़ा काम है 

और वह आदमी सचमुच महान है 

जो अपनी कविताओं में ख़तरनाक़ खबरें सुनाता है 

और 'अभिव्यक्ति के खतरे' उठाता है। (कुमार विकल) 

कविताओं का य.............  मूलत: परिचर्या (समकालीन ....... कुछ सवाल) में भी उभरा है और विशेषतः चंचल चौहान के कथन में कि - छंद लोक का हो या परलोक का, तब तक कुछ न कर पायेगा जब तक कवि उसमें सही समझ और संवेदना को व्यक्त नहीं करता।

'संभावना' में दिविक रमेश, नचिकेता, दिनेश जोशी, अश्वघोष, ठाकुर प्रसाद सिंह, डी.प्रेमपति, शिवशंकर मिश्र, अजातशत्रु और मैनेजर पाण्डेय की रचनाएँ अपने आप उल्लेखनीय हैं। 'सताये हुए लोगों के पक्षधर' ये साहित्यिक कविता के परिप्रेक्ष्य में जितनी ज्वलंत और तथ्यात्मक स्थितियों का पर्दाफ़ाश कर पाये हैं, तुलना में 'कहानीपक्ष' उतना ही कमजोर और बेजान है। इस संदर्भ में 'कहानी के अभाव' को देखते हुए हमारे चिंतक-समीक्षक क्या सोच या तय कर रहे हैं? यह सवाल जवाब मांगता है। ■ र.ब.


(............ अस्पष्ट)

 


प्रस्तुति : सुजीत कुमार सिंह 

Wednesday, January 20, 2021

हंस का रेखाचित्रांक : आशीष सिंह



(एक)

आज हमारे बीच  हिन्दी गद्य की विविध विधाओं में से अधिकतर उपन्यास, कहानी, साक्षात्कार, यात्रा वृतांत  , समीक्षा, जीवनी  का ही  जिक्र ज्यादा मिलता है। हम सोचते हैं और सोचते रह जाते हैं कि पिछली बार किस पत्रिका में कोई विचारपरक निबंध, ललित निबंध या रेखाचित्र जैसे लगभग भुलाई जा रही गद्य विधाओं को पढ़ा था या देखा था। अगर कोई नाम याद आता भी है तो कभी कभार 'यायावर की डायरी ' के लेखक सत्यनारायण जैसे एकाध भूले भटके साहित्यकारों की लेखनी से उभरे शब्दचित्रों तक आकर ठहर जाता है। आखिर इसकी क्या वजहें हो सकती हैं ! मन लगातार सोचता है। क्या आज कहानी -उपन्यास जैसे पहली पंक्ति में दर्ज होने वाली विधायें अपने में ललित निबंध या शब्दचित्र के बहुलांश रूप में समेट ले रही हैं इसीलिए स्वतंत्र रूप से इनकी जगहें सिकुड़ती जा रही हैं या कुछ दूसरी वजहें हैं?  रम्य गद्य रचनाओं के जरिए आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, धर्मवीर भारती, विवेकी राय, विद्यानिवास मिश्र, कुबेरनाथ राय जैसे तमाम साहित्यकारों ने अतीत में गंभीर से गंभीर विषय को बेहद संप्रेषणीय सहज लहजे में पाठकों तक पहुंचाने का काम किया है । खैर !

आज जब इस किताब को  जिसे आधुनिक हिन्दी साहित्य के अध्येता व पुरानी साहित्यिक पत्रिकाओं के पीले पड़ चुके हर्फो को आहिस्ते-आहिस्ते टटोलकर बाहर लाने की कोशिश में लगे भाई सुजीत कुमार सिंह ने प्रस्तुत किया है, देखकर कुछ कहे बगैर मन मान नहींं रहा। इस किताब पर पहले भी लोगों ने अपनी बातें कही होंगी और आगे भी कहेंगे। इस किताब में मौजूद सामग्री की ऐतिहासिक महत्ता ही नहीं बल्कि हिन्दी भाषा के लिए समर्पित सम्पादकों की अटूट निष्ठा भी हम तक हस्तान्तरित हो रही है। शब्दचित्र, नखचित्र या रेखाचित्र के नाम से जानी जाने वाली चर्चित गद्य विधा के बिल्कुल शुरूआती समय में स्थापित करने की कोशिशों का एक नमूना भी यहाँ देखने को मिलता है। मार्च 1939 का हंस रेखाचित्रांक के रूप में निकला था, जिसके सम्पादक श्रीपत राय जी थे। उन्होंने हिन्दी गद्य में उभरती एक नयी विधा 'रेखाचित्र' को रेखांकित करने के लिए ही हंस का यह अंक प्रकाशित किया था। इस अंक में न केवल तत्कालीन साहित्यिक हस्तियों के व्यक्तिव का रेखांकन मिलता है बल्कि साथ ही साथ उनकी  वैचारिकी का सांगोपांग चाक्षुष छवि देखने को मिलती है। जैसे निराला के बारे में आलोचक रामविलास शर्मा "निराला" शीर्षक से लिखे रेखाचित्र में कहते हैं कि 

उनकी कविताओं में जो अद्भुत पुरुषार्थ व्यक्त है, जो विद्रोह की, विजय-कामना की भावना वर्तमान है, वह बैसवाड़े की भूमि की श्रेष्ठ देन है। सड़कों पर मैले कुचैले कपड़े पहने, तोहमत में स्याही का भारी धब्बा लगा हुआ, फटे चप्पल या नंगे पैर बड़े बाल रखाये उसे लापरवाही से अमीनाबाद में चलते देखा है। लोगों ने कहा - 'जानबूझकर कहता है सनकी है'। कुछ नहीं, वह सामाजिक विद्रोह की भावना मात्र थी। 'तुमने कपड़ों को पूजना सीखा है ,मनुष्य का आदर करना नहीं। 'देवी' कहानी में 'निराला' ने पगली को देवी बनाके पूजा है।  


आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का स्केच खींचते हुये जाने-माने अभिनेता व लेखक बलराज साहनी मंद स्मित भावभंगिमा भरी भाषा-शैली का प्रयोग करते हुए अपनी बात कुछ इन शब्दों से शुरू करते हैं :

द्विवेदी जी में एक दोष है। ढीलम-ढालम रहते हैं, हजामत हफ़्ते में एक बार से अधिक नहीं करते; तिस पर जो व्यक्ति पहली नज़र में उन्हें जंच जाए उसकी खैर, जो न जंचे  उसे सामने बिठाकर उसके मुंह की ओर देखते रहते हैं। इसलिए कई महानुभाव शान्ति-निकेतन से यह धारणा बनाकर लौटते हैं कि द्विवेदी जी वैरागी आदमी हैं। 


'भेड़िए ' कहानी के लेखक और कई एब्सर्ड एकांकी के रचनाकार भुवनेश्वर प्रसाद  शब्बीर हसन 'जोश' मलीहाबादी पर लिखते हुए बड़ी मानीखेज तथ्य सामने रखते हैं। वे 'जोश ' को इंकलाबी शायर ही नहीं बल्कि सही मायने में भारतीय परम्परा को देखने वाले शायर बताते हुए कहते हैं कि -

तो जोश के कवित्व के उद्गम की खोज कहाॅं की जाय । 'जोश' अंग्रेजी कविता और साहित्य से अछूता है, इतनी अंग्रेजी कभी जानी नहीं। इक़बाल के "पैन इस्लामिज़्म'' का उस पर असर नहीं पड़ा। वह सन् 1920 तक में खि़लाफत आन्दोलन का कायल न हो सका । उसके प्रिय कवि हैं हजार साल पुराने 'का़वी ' और 'फिरदौसी'।


फिरदौसी ' ईरान का हेलर है। यही नहींं, दसवीं शताब्दी में 'फिरदौसी' ने ही अरबों के विरुद्ध झंडा गाड़ा था, जब उसने इस्लामी बुजुर्गों के गीत न गाकर यारा, नौशेरवां, रुस्तम और सोहराब का राग अलापना शुरु किया। लेकिन वह विद्रोह बहुत निर्बल था। ईरानी जन-समुदाय उससे उदासीन था और अब तक रहा। तभी तो मरने पर 'फिरदौसी' को सार्वजनिक कब्रिस्तान में दफ़न करने की इजाज़त नहींं मिली, और मजबूरन वह अपने घर में दफ़न किया गया। हजार साल तक 'शाहनामा ' ईरान में ही नहींं, भारत तक में, बहुत लोकप्रिय रहा सो भी काव्य रसास्वाद और मनोरंजन के लिये, जातीय जोश को उभारने के लिये नहींं। किन्तु महासमर के बाद ईरान के नवयुग में 'शाहनामा' ईरान का वेद है, 'फिरदौसी' ईरान का ब्रह्मा  है। 'फिरदौसी' की क़ब्र को लोग बिलकुल भूल गये थे। बड़ी मुश्किल से तूसी शहर के खंडहरों को खोदकर वह निकाली गई, और ईरान ने अपनी खानों के कीमती संगमरमर से उसका आलीशान मक़बरा बनाया। दरवाजों और दीवारों पर 'शाहनामा' के प्राचीन ईरानी वीरों और सम्राटों की मूर्तियाँ खोदी गई हैं। यह सरासर इस्लाम के खिलाफ है। 'जोश' अगर राष्ट्रीय कवि है तो वह बहुत अंश में 'फिरदौसी' की तरह। वह भी प्राचीन गौरव की दुहाई देता है, वह भी बीते हुये को गर्व और जलन से देखता है और वर्तमान पर आठ-आठ आंसू रोता है, दांत किटकिटाता है। उपमाओं में अर्जुन और अभिमन्यु को याद करता है और तलवार ऐसी चीज़ की याद दिलाता रहता है ।

 'जोश ' हिन्दुस्तान का 'फिरदौसी 'ही नहींं है वह विक्टर ह्यूगो भी है।

'जोश' क्रांति का कवि है न।


  (दो)                             

सियारामशरण गुप्त पर लिखते हुए अज्ञेय ने उनके निष्ठा, सहजता और  ज्ञान पिपासु छवि का सुंदर रेखांकन प्रस्तुत किया है। राहुल सांकृत्यायन, मैथिलीशरण गुप्त, बच्चन, दिनकर, श्यामसुंदर दास, महादेवी वर्मा, जैनेंद्र, काका कालेलकर, जैसे तमाम हिन्दी सेवियों के साथ ही सम्पूर्णानन्द, बाबूराव विष्णु पराड़कर जैसे पत्रकारों-राजनीतिज्ञों के विचारवान व्यक्तित्व की झांकी प्रस्तुत करते रेखाचित्र भी हैं। अहिन्दी भाषा-भाषी क्षेत्र के लेखकों, विचारकों पर लिखे शब्द चित्र को अनुवाद कराके श्रीपत राय जी ने हंस में प्रकाशित कराया। एक तरह से यह प्रयास रेखाचित्र के तत्कालीन  अखिल भारतीय रूप की निशानदेही भी करती है। हमारे पूर्वजों के द्वारा हिन्दी के संवर्धन के लिए किये प्रयासों को याद दिलाती यह प्रस्तुति उल्लेखनीय है। प्रस्तुतकर्ता व सम्पादक  सुजीत कुमार सिंह जी का यह काम बड़े महत्व का है ।                             

और अन्त में भूमिका में उद्धृत एक वाकये का जिक्र किये बगैर मन मान नहीं रहा तथैव वह चित्र व संदर्भ आपके लिए प्रस्तुत है। यह संदर्भ हिन्दी की विविध विधाओं की अधोगति या एकांगी विकास को चिन्हित करती आज भी उतनी ही तीखी टिप्पणी सी लगती है- 

हिन्दी की इस अवस्था को ही देखकर आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने फरवरी-मार्च 1903 की 'सरस्वती' में 'साहित्य समालोचना/ साहित्य सभा ' शीर्षक एक व्यंग्य चित्र प्रकाशित किया था। इस चित्र में नौ कुर्सियाँ हैं जिसमें पहली कुर्सी 'इतिहास' की है जो खाली है। दूसरी 'जीवन चरित' की है‌, वह भी खाली है। तीसरी कुर्सी 'पय् र्यटन' की है जिस पर एक बाबू साहब बैठे हुए हैं। चौथी कुर्सी 'समालोचना' की है जिस पर हाथ में दर्पण लिए मनुष्य वेश में एक बन्दर बैठा है। पांचवी कुर्सी  'उपन्यास' की है। कुर्सी के पास एक बंदर-बकरी लिये एक मदारी को खड़ा दिखलाया गया है। छठीं कुर्सी 'व्याकरण' की है, जिसे महावीरप्रसाद द्विवेदी ने 'व्या-(धि ) -करण' लिखा है। सातवीं  'काव्य' और आठवीं 'नाटक ' की है । 'नाटक'  वाली कुर्सी पर एक कृशकाय मनुष्य बैठा है जिसकी ठठरियां दिख रही हैं। नौवीं कुर्सी ' कोश ' की है और खाली है। इस साहित्य-सभा को देखकर सरस्वती माता रो रही हैं। महावीरप्रसाद द्विवेदी की व्यथा को आसानी से समझा जा सकता है।   

प्रतीकात्मक तौर पर प्रस्तुत यह व्यंग्यात्मक रेखांकन बहुत कुछ कह दे रहा है। यह उस समय के लेखकों के साहित्य और जीवन को देखने के नजरिए का दर्शन भी कराता है।

अपनी पुरानी पोथियों से खंगाल कर बहिरियाने का उद्यम प्रशंसनीय है, कीमती भी है। हम सब हिन्दी पाठकों के लिए एक जरूरी पुस्तक है यह।


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हंस का रेखाचित्रांक 

भूमिका एवं प्रस्तुति : सुजीत कुमार सिंह

प्रकाशक- 

शिल्पायन 

10295, लेन नं. 1, वेस्ट गोरखपार्क,

शाहदरा, दिल्ली -110032

silpayanbooks@gmail.com


मूल्य -  300 ₹  (पेपरबैक)

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आशीष सिंह 

युवा आलोचक,

लखनऊ (उत्तर प्रदेश)

Sunday, October 18, 2020

असहयोग : एक राष्ट्रीय आत्मा

 








असहयोग 

एक राष्ट्रीय आत्मा 


सुख - समृद्धि की कौन कहे, अब तो दुर्लभ आहार हुआ। 
नित्य   भार   ढोते - ढोते,  दीनों  का   जीवन  भार  हुआ।।
आश्वासन   का  अर्थ    गूढ़   भाषा   में   अत्याचार  हुआ। 
शीतल - मन्द - समीर, हाय, कमलों के लिये तुषार हुआ।।
अमर - लोक  में  असुर - त्रास से भीषण हाहाकार हुआ। 
असहायों  के   लिये  अंत  में   असहयोग  आधार  हुआ।।

यह    कैसा   व्यापार   देश   में   करने  व्यापारी  आये। 
नीति,  न्याय,  विज्ञान,  धर्म   की  गठरी  वे  भारी  लाये।।
प्रेमी   बनकर  भांति  भांति  के  वचन  सुनाये  मनभाये।
क्रमश: नित - नूतन,  विचित्र अपने हथकण्डे दिखलाये।।
वणिकों की दूकान बदल कर दिव्य राज - दरबार हुआ। 
असहायों  के  लिये  अंत  में  असहयोग  आधार  हुआ।।

कर  देंगे   स्वच्छन्द  तुम्हें,  है  अभी  नीति  का  ज्ञान  नहीं। 
सारासार - विचार,  झूठ - सच  क्या है, कुछ पहचान नहीं।।
राज - भक्त रह कर, देना कुछ कूट - नीति पर ध्यान नहीं। 
स्वतन्त्रता    देवी   की   वेदी   पर   होना   बलिदान   नहीं।।
चतुरों  की  इस  चतुर  चाल  को  देख  चकित संसार हुआ। 
असहायों   के   लिये   अंत   में   असहयोग  आधार   हुआ।।

देश - भक्ति   ही  राज - द्रोह है,  लेना  उसका  नाम  नहीं। 
जन्म सिद्ध अधिकार - प्राप्ति की चर्चा का कुछ काम नहीं।।
छेड़ोगे   यदि   तान   मुक्ति   की   पाओगे   विश्राम   नहीं। 
मृत्युलोक   में   जीवित - मृत  पुरुषों  को  है  आराम  नहीं।।
कुशल  कर्मवीरों  का  आश्रम  दुःख-मय  कारागार  हुआ। 
असहायों   के   लिये   अंत   में   असहयोग  आधार  हुआ।।

यूरोपीय  समर  में  जिनने  अपना  रुधिर बहाया है। 
आर्यों का वीरत्व जिन्होंने सब जग को दिखलाया है।। 
है  वह भी  प्रत्यक्ष उन्होंने  जो  उसका फल पाया है। 
देख  लिया  हा हन्त ! दैव  की कैसी निष्ठुर माया है।। 
विजयी वीरों को बदले में रौलट - बिल उपहार हुआ। 
असहायों  के लिये  अंत में असहयोग  आधार  हुआ।।

अति निराश हो बने हाय हम जब सत्याग्रह व्रत - धारी। 
कर  लें   अत्याचार   चैन  से   निबलों  पर  अत्याचारी।।
शान्त  खड़े  हैं, कर  लें जी - भर मनमानी स्वेच्छाचारी। 
दिखला   लें   निश्चिन्त   निरंकुशता  अपनी   सत्ताधारी।।
अमृतसर  में  अमर - वंश  का  शस्त्रों  से  संहार हुआ। 
असहायों   के  लिये  अंत  में असहयोग  आधार  हुआ।।

अनजानों  को  रेंग  रेंग  डायर  ने  चलना  सिखलाया। 
परतन्त्रों को मार और  गम  खाकर पलना सिखलाया।।
अबलाओं की लाज लूट,  गलियों में गलना सिखलाया।
अकर्मण्य पुरुषों को पछताना, कर मलना सिखलाया।।
हाँ, असभ्य भक्तों के प्रति यह सभ्यों का व्यवहार हुआ। 
असहायों   के  लिये  अंत  में असहयोग  आधार  हुआ।।

कायरता - द्योतक  बहादुरी  के  झूठे  पद  छोड़ दिये। 
स्वार्थ,  शृंखला - बद्ध  देख  धोखे  के  टट्टे  तोड़  दिये।।
भेद - भाव विष भरे घड़े  मोहन  ने उठकर फोड़ दिये। 
हिन्दू - यवन, हिन्द - हिन्दी,  चारों के जीवन जोड़ दिये।।
जागृत जीवन मिला, पाप से मुक्त मुक्ति का द्वार खुला। 
असहायों   के  लिये  अंत  में  असहयोग  आधार  हुआ।।


(1921 ई.)

Wednesday, October 14, 2020

समय और समाज का भाष्य : विजय विशाल की कविताएँ : शशि कुमार सिंह

                                                 




                                            

 




समय और समाज का भाष्य : विजय विशाल की कविताएँ

शशि कुमार सिंह 


चींटियाँ शोर नहीं करतीं  विजय विशाल का सद्यः प्रकाशित काव्य संग्रह है। यह सच है कि चींटियाँ शोर नहीं करतीं। पर यह अधूरा सच है। पूरा सच यह है कि अनेक ऐसे रचनाकार भी हैं जो बेहद ख़ामोशी से रचनारत रहते हैं।वे भी शोर नहीं करते। विजय विशाल ऐसे ही रचनाकार हैं जो शहरी चकाचौंध से दूर हिमाचल के पहाड़ी गाँव में मौन कवि-कर्म में विश्वास रखते हैं। इस संग्रह की कविताओं से गुजरना एक रोचक यात्रा की तरह है।इन कविताओं का वैविध्य विस्मित करता है। समय और समाज का शायद ही कोई पहलू हो जो इन कविताओं में न सिमट आया हो। यहाँ मज़दूर हैं। किसान हैं। शासक हैं। छात्र हैं।बेरोजगार हैं। स्त्रियां हैं। बुज़ुर्ग हैं। बच्चे हैं। पहाड़ हैं। पहाड़ के संघर्ष हैं। गाँव हैं। लोक संस्कृति है। शहरीकरण है। उसकी विकृतियाँ हैं। यानी यह संग्रह वर्तमान का विराट एलबम है।

इस संग्रह की कविताएं श्रम के सौंदर्य की कविताएं हैं। यहाँ श्रमिक हैं। उनके  श्रम की महत्ता है।  साथ ही उनका अस्थायित्व और शोषण भी। कवि को मजदूरों का श्रम चुरा लिए जाने की चिन्ता है। एक काम पूरा होते ही मज़दूरों को नए काम की तलाश में भटकना पड़ता है। लेकिन विजय विशाल  मज़दूरों की जिजीविषा की प्रशंसा करते हुए कहते हैं -

"न मधुमक्खियां हार मानती हैं

न मजदूर काम तलाशना छोड़ते हैं 

इनकी यह जिजीविषा ही बचाये रखती है

पृथ्वी पर सृजन की संभावनाओं को।" 

श्रम और श्रमिक के प्रतीक के रूप में विजय विशाल प्रकृति के बीच से ही उपमान चुनते हैं। मधुमक्खी के अलावा चींटी उन्हें निरन्तर श्रम करती तथा औरों को प्रेरित करती हुई जान पड़ती है। यह अकारण नहीं है कि पहली कविता में मधुमक्खी आती है और अंतिम में चींटी। मधुमक्खी और चींटी से मिलकर श्रम का ऐसा वितान निर्मित होता है जिसमें कर्म-श्रम की पूरी गाथा है। संग्रह के शीर्षक वाली कविता भी श्रम के सौंदर्य की कविता है। मौन श्रम की - 

''एक साथ एक जगह इकट्ठा होने पर भी चींटियाँ शोर नहीं करतीं 

न ज़ुबान से न क़दमों की थाप से 

चींटियाँ सिर्फ़ कर्म  करती हैं

अपनी पूरी लगन से।" 

कहने की आवश्यकता नहीं कि यहाँ चींटियाँ श्रमिक हैं। मज़दूरों की एकता और तदुपरांत उनकी जीत में कवि को विश्वास है -

"आकार में छोटी चींटियों से 

डरते हैं विशालकाय हाथी भी 

हाथियों का चींटियों से यूँ डरना  

चींटियों की जीवन्तता का प्रमाण है।"

यह जिजीविषा और जीवंतता इस संग्रह में सर्वत्र विद्यमान है -

'यह भरोसा ही तो है

जिसके सहारे 

हर तबाही के बाद भी 

उठ खड़ा होता है आदमी।'

श्रम के प्रति रुझान की वजह से ही कवि सौंदर्य के प्रतिमानों पर प्रश्नचिह्न खड़े करता है। 'बया का घोंसला' ऐसी ही कविता है। इसकी प्रारंभिक पंक्तियां पढ़कर मुक्तिबोध के संग्रह 'चाँद का मुँह टेढ़ा है' की याद आ जाती है। कवि की दृष्टि में सुंदर इमारत 'बया का घोंसला' है क्योंकि वह श्रम से निर्मित है। उसमें विलासिता का अंश नहीं है। 'तुम /जो संसार की / सबसे सुंदर इमारतों की /  सूची बना रहे हो/ इसमें शामिल कर लो/ एक अदद घोंसला।' कवि की नज़र में बया का घोंसला/ जो किसी बुर्ज खलीफा से कम नहीं/न तकनीक में / न बुनावट में/ न कसावट में।' 

कवि यह स्पष्ट करता है कि श्रम की सार्थकता उसके परोपकार में ही निहित है -

"बया हमेशा के लिए  

काबिज़ नहीं रहती 

अपने इन घोंसलों पर

पंद्रह बीस दिन अंडे सेंक 

अपने नवजात बच्चों सहित हो जाती है फुर्र 

पीछे छोड़ देती है घोंसला 

किसी दूसरे पक्षी को जो बना न पाया हो अपना कोई ठौर।' 

यह श्रम का सौंदर्य विजय विशाल 'बूढ़ी औरतों' में भी देखते हैं जो घर के काम के अलावा 'उकड़ू बैठ निगोड़ती हैं खेत।'  विजय विशाल किसान को देखकर कह उठते हैं, "पचास वर्षों की /खेती से/उग आए/शब्दों के समूह/उसके झुर्रीदार चेहरे को/कवि/होने की पहचान/देने में समर्थ हैं।"

बेरोजगारी के प्रति चिन्ता भी इसी श्रम-सौंदर्य की अगली कड़ी है। इसीलिए ऐसी कविताओं में भी बार-बार बेरोजगार आते हैं जो मूलतः बेरोजगारी पर नहीं लिखी गयी हैं। कवि की संवेदनशीलता उसे बेरोजगारों की पीड़ा से असंपृक्त नहीं रहने देती। यह अकारण नहीं है कि 'हुक्के के पलायन' में भी वह कहता है, "गाँव में उपेक्षित हुक्का /किसी बेरोजगार युवक की तरह / महानगर को पलायन कर गया।" 'जब पगडंडी सड़क हुई' में कवि कहता है, "इस तरह बैल ज़मीन से बेदखल हुए/अब सड़कों पर आवारा फिरते हैं/ हज़ारों हज़ार बेरोजगारों की तरह।" 'पढ़ाई बनाम श्रम' में भी बेरोजगारी है। 

विजय विशाल पहाड़ के कवि हैं। गाँव में बसते हैं। इसलिए पहाड़ी जीवन की रीति- नीति और लोक संस्कृति उनकी कविताओं में व्यक्त होती है। धरती उनके लिए माँ है तो पहाड़ पिता। ऐसा पिता जो सदियों से अपने बच्चों का पालन-पोषण कर रहा है। यह आत्मीयता ज़मीन और स्थानीयता से जुड़ाव की परिचायक है। उन्हें पहाड़ी गाँवों में हुक्का याद आता है। कांसे की थाली में माँ के हाथ की बनी गर्मागर्म रोटी याद आती है। इसे सिर्फ़ 'नॉस्टेल्जिया' कहकर नहीं टाला जा सकता। यह एक संवेदनशील मन की पीड़ा है जो तेजी से हो रहे टूटन, विघटन और पलायन पर चिंतित है। गाँवों के विनाश की यह चिन्ता 'जब पगडण्डी सड़क हुई' में पूरे तीखेपन के साथ व्यक्त होती है। पगडण्डी का सड़क हो जाना महज रास्ते का चौड़ा होना भर नहीं है। यह विनाश का सूचक भी है। एक संस्कृति के लोप और दूसरी के उद्गम की प्रस्थान-यात्रा भी है। कवि कहता है, "जब पगडण्डी सड़क हुई/ पहले पेड़ गए/ फिर पत्थर और मिट्टी/ उनकी राह हो लिए और इस तरह पहाड़ हमेशा के लिए रीत गए।'' मगर कवि हार नहीं मानता है।वह विनाशक शक्तियों की शिनाख्त करता है।

विजय विशाल का काव्यात्मक साहस प्रशंसनीय है। वे सत्ता से टकराते हैं।उनके यहाँ अनेक राजनैतिक कविताएँ हैं। इन कविताओं का व्यंग्य नागार्जुन की तरह मारक भले न हो पर लक्ष्य स्पष्ट है। ''ऊँचे कगारों पर पहुँचे कई बौने लोग/घड़ी को रोककर/अपने पक्ष में बदलना चाहते हैं/समय।" यह काव्यांश क्या किसी व्याख्या की अपेक्षा रखता है? सत्ता के शीर्ष पर पहुँचे लोग कौन हैं? ये लोग इतिहास और राजनीति की मनमानी व्याख्या कर रहे हैं। वर्तमान राजनीति के मूल चरित्र पर इससे बड़ी और कड़ी टिप्पणी और क्या हो सकती है? आज कुछ ही कवि यह कहने का साहस जुटा पाते हैं - 

"टुकड़े टुकड़े गैंग कहकर

वे कर दिए गए बहिष्कृत

इस विचारहीन दुनिया में  

आसान नहीं होता शब्दों के नए अर्थ गढ़ना  

या 

पुरानी किताबों को नए दृष्टिकोण से पढ़ना।''

यह कहने की ज़रूरत नहीं कि विजय विशाल ऐसे ही कवि हैं जो सत्ता से टकराते हुए इस विचारहीन दुनिया में प्रगतिशील और मानवतावादी विचारों के साथ हैं। आत्मविश्वास के साथ शब्दों के नए अर्थ गढ़ और पुरानी किताबों को नए दृष्टिकोण से पढ़ रहे हैं। यह अन्याय के विरुद्ध आम आदमी और सचाई के साथ खड़े होने का साहस है। यह साहस उन्हें अन्य कवियों से अलग करता है। तेज़ी से बढ़ रही असहिष्णुता और मॉब लिंचिंग पर कवि क्षुब्ध है। यह उनका साहस ही है कि वे 'सत्ताधीशों के नाम एक पत्र' लिखते हैं। 'अबकी दंगों के बाद' में भी यही साहस है।आम आदमी से जुड़ाव की वजह से ही विजय विशाल की कविताओं में यह ताक़त आ पाई है। 

वर्तमान का विरोधाभास है कि मनुष्य एक साथ कथित रूप से सभ्य और बर्बर दोनों होता जा रहा है। पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह अंधराष्ट्रवाद और युद्धोन्माद का माहौल तैयार किया गया है वह किसी भी सभ्य और संवेदनशील व्यक्ति को चिंतित करने के लिए पर्याप्त है। युद्धोन्माद के सहारे सत्ता अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेंकती है।  उसे व्यापक तबाही की चिंता नहीं। सत्ता को चिन्ता नहीं कि युद्ध सभ्यताओं को लील जाता है। सुहाग उजाड़ देता है। बुजुर्गों से उनकी औलाद छीन लेता है। गोदी में खेलते हज़ारों बच्चे अनाथ हो जाते हैं। सैकड़ों विधवाएँ बेसहारा हो जाती हैं। कवि ऐसे हालात में भी 'आओ युद्ध करें' की चीख-पुकार करने वाली सत्ता को उन्मादी, शातिर और चालाक कहता है। इस उन्मादी माहौल में युद्ध के ख़िलाफ़ बयान देना भी देशद्रोह से कम नहीं है और शान्ति की बात कहना तो  धुर दुश्मनों के एजेंट होना है। ऐसी विकट परिस्थितियों में भी कवि अपनी प्रतिबद्धता दुहराता है -

"युद्ध के विरुद्ध 

मैं पहले भी था 

आज भी हूँ 

और कल भी रहूँगा। अपनी तमाम 

प्रतिरोधक क्षमता के साथ।" 

एक मानवतावादी और अपने कवि-कर्म के प्रति जिम्मेदारी अनुभव करने वाला कवि ही यह कह सकता है कि -

"इस पाषाण होते समय में  

मानुष के भीतर 

बचाये रखनी हैं

सम्वेदनाएँ 

उकेरनी हैं उनमें भावनाएं 

ताकि सृष्टि में 

जिंदा रखा जा सके सद्भाव 

ऐसे कठिन काम

पे जा चुके हैं कविता को।"  

और कवि इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि "प्रेम ही काव्य की आत्मा होगी।'' यह कहना काव्यशास्त्र के मानदंडों को भी चुनौती देना है जो रस, रीति, ध्वनि, वक्रोक्ति आदि को काव्य की आत्मा घोषित कर चुके हैं। प्रेम विजय विशाल की कविता के केन्द्र में है।उनके लिए जीवन और प्रेम एक दूसरे के पर्याय हैं। वे कहते हैं, ''जहाँ जीवन है/ वहाँ प्रेम है/ जहाँ प्रेम है/ वहाँ कविता है/ प्रेम के बिना/ न जीवन है /न कविता है।'' इस तरह एक मानवतावादी कवि की कविता की घोषणा प्रेम है। प्रेम में इसी विश्वास की वजह से कवि कहता है कि ''जो भीतर तक /नफ़रत से भरा है / हद है/अपने को/ कवि कह रहा है।" कवि का विश्वास है कि ''जहाँ कविता होती है /वहाँ नफ़रत नहीं होती।"


'कविता' पर इस संग्रह में कई कविताएँ हैं। ये कविताएँ कवि की काव्य दृष्टि और प्राथमिकता की सूचक हैं। देखना दिलचस्प है कि कवि कैसी कविताओं को अमर और दीर्घायु कहता है। नफ़रत के बीच जीते हुए प्रेम की कविता, अविश्वास के माहौल में विश्वास और मित्रता की कविता, उजड़ते वनों के बीच प्रकृति की कविता, सत्ताधीशों के ज़ुल्म को सहते हुए सत्ता को चुनौती देने वाली कविता और बर्बरता के विरुद्ध कविता अमर और दीर्घायु होती है। यह दृष्टि कविता की जनपक्षधरता से निर्मित होती है। जनपक्षधर कविताएँ अमर होंगी ही। कवि की कविताओं में प्राण इसी जनपक्षधरता, मनुष्य की अदम्य जिजीविषा और सत्ता को चुनौती देने वाली चेतना से आती है। इसके विपरीत उन कवियों और कविता की लानत-मलामत भी है जो ''निहत्थों के विरुद्ध खड़े होते हैं/बर्बरों के साथ/ निज़ाम के ढहने /और कवि के मरने के साथ ही/मर जाती हैं वे कविताएँ जो शोषितों के ख़िलाफ़/ शोषकों के पक्ष में लिखी गई होती हैं।" संग्रह की कविताओं में कठिन समय में परिवर्तन की चाह है। यहाँ विद्रोह की चेतना है। कवि को सर्वहारा में विश्वास है और वह परिवर्तन के प्रति आश्वस्त है। लेकिन कवि यह भी भली-भांति जानता है कि सिर्फ 'शासक बदलने से /व्यवस्था नहीं बदलती।'

संग्रह की कविताएँ अपने समय से संपृक्त हैं। इसलिए यहाँ कोरोना महामारी पर भी कई कविताएँ हैं। उसके तमाम सकारात्मक और नकारात्मक पहलू उनकी कविता में आये हैं। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण है मनुष्य की जिजीविषा जो इस संग्रह में रक्त- मज्जा की तरह है। 'इतिहास गवाह है /अंततः महामारी ही पराजित हुई है/मनुष्य के पराक्रम के आगे।'

चींटियाँ शोर नहीं करतीं की कविताएँ मनुष्यता के महत्व की कविताएँ भी हैं। आज के बाज़ारवादी समय में व्यक्ति रिश्तों से दूर होता जा रहा है। रिश्ते निभाना मनुष्य होना है।कवि कहता है मैं 'जड़ें होना चाहता हूँ/ ताकि पकड़ सकूँ रिश्तों को/सींच सकूँ मनुष्यता को।' 'मन का पीपल हो जाना' भी 'मनुष्य होने के सुख' की कविता है। ये कविताएँ मनुष्यता के साथ उम्मीद की कविताएँ भी हैं।

कलात्मकता की खोज करने वाले पाठक इस संग्रह से थोड़े निराश भी हो सकते हैं। सीधे सरल शब्दों में कवि ने अपनी बात कही है। यह सादगी ही इस संग्रह की पहचान है। कवि का ध्यान कथ्य पर अधिक रहा है। कथ्य की ताज़गी और शिल्प की सादगी इस संग्रह का वैशिष्ट्य है।


प्रकाशक : प्रलेक प्रकाशन प्रा.लि.

मूल्य: 170₹

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शशि कुमार सिंह, असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, हिन्दी विभाग, महात्मा गाँधी गवर्नमेंट कॉलेज, मायाबंदर, अंडमान निकोबार द्वीपसमूह

संपर्क : +91 95318 34834



Saturday, October 10, 2020

सरजू, सरजू भैया और लल्लू महतो : बलभद्र





सरजू, सरजू भैया और लल्लू महतो : बलभद्र 


(एक)


सरजू


तीन दिन पहले छोटे भाई विमल ने फोन पर बताया कि सरजू अब नहीं रहा। बीमारी की वजह से उसकी मृत्यु हो गई। वह बचपन से ही ममहर रहता था। जब तक नाना-नानी रहे, उनके साथ रहा। उसके छोटे भाई का नाम गरजन है। दोनों शादीशुदा एवं बाल-बच्चेदार हैं। नाना -नानी के मरते ही दोनों भाइयों को नाना-नानी का घर छोड़ना पड़ा। उसके नाना-नानी के पट्टीदारों ने घर छोड़ने को विवश कर दिया। 

नोकझोंक और मारपीट और रोज-रोज के किचकिच से आजिज आ दोनों भाइयों ने वह घर छोड़ पट्टीदारों के छोटे से घर में आकर रहना शुरू किया। और पट्टीदार मय बाल-बच्चे उनके घर आ जमे। दोनों मिहनती, दोनों काम मे लगे रहनेवाले कुशल खेत-मजदूर थे। पर, बड़ा-सा कीता, दुआर-दालान वाला, छोड़ने का दुःख तो था ही। जिस घर में घरनी उतरी हो, रहना-सहना हुआ हो। वह घर छोड़ते मोह भला किसको नहीं होगा।

बहरहाल, दोनों बहुत ही मेहनती और लगनशील थे। जिस काम में हाथ लगाते उसे केवल पूरा ही नहीं करते बल्कि बहुत सज से करते थे कि देखनेवाले तबियत से वाह वाह करने लगते। अपनी तारीफ किसको नही भाती। दोनों बहुत खुश होते और दोनों की गाँव में पूछ बढ़ती गई। गाँव का भगीना होने के नाते ये किसी को नाना-नानी, किसी को मामा-मामी, किसी को मौसा-मौसी तो किसी को भाई-भौजाई निधड़क कहा करते थे। गाँव के लोग भी इन दोनों भाइयों से लगे रहते थे। गरजन तो अपने गोड़ के दरद से पामाल है। 

कामधाम करना मुश्किल हो गया है। सरजू ज्यादा ही सीधा आदमी था और गमखोर भी। कोई दो बात कहे भी तो उलटकर जवाब देना उसके सुभाव में नहीं था। वह कुछ ज्यादा ही लगनशील और कार्यकुशल था। उसकी कार्यकुशलता को लेकर उसके लिए ही खासकर, लोगों ने एक विशेषण गढ़ा था- 'परीना'। उसके करीने से काम करने के चलते यह 'परीना' आया। हल जोतना हो चाहे आर-मेड़ सोझियाना अथवा गोहट फेंकना या करहा बनाना सरजू का कोई जवाब न था। करहा बनाए तो ऐसा कि पानी छलछलाते खेत तक पहुंच जाए। धान रोपाई के वक्त आर को छांटकर ऐसा साज दे कि क्या कहना!

सरजू को समय पर या उससे पहले ही काम पर आने की आदत थी और यह आदत जब तक वह काम करने लायक रहा तबतक बनी रही। और शाम को अगर गाँव-जवार का काम कर रहा होता तो घर जाने की कोई जल्दी भी नहीं होती। काम अगर थोड़ा रुक जाने से पूरा हो जाने लायक होता तो वह बिना कुछ कहे रुक जाता। कोई अगर कह दे कि थोड़ा बचा है, कल इतने के लिए ही आना होगा, तो वह खैनी बनाने को कहता और थोड़ा अगल-बगल ताककर काम में भिर जाता। 

फिर तो थोड़ा और थोड़ा अधिक क्या! पूरा करके ही घर को चलता। उसकी इस भलमनसाहत का कुछ लोग बेजां फायदा उठाने से बाज नहीं आते। उसको मूर्ख समझते। मुँह पर उसकी तारीफों के पुल बांधते।कहते कि गांव का भगीना है, जो कहे सो हाज़िर है। वो समझता सबकुछ था। पर कहता कुछ नहीं था। चुप रह जाता। 

हाँ, कभी-कभार जरूर कह देता कि 'एक खिली खइनी देल त पारे ना लागे, अउर तू का देबऽ!' उसकी इस आदत पर उसकी पत्नी जल-भुनकर रह जाती। पर वह उसका भी कोई जवाब नहीं देता। वह अपनी पत्नी को अपने बेटों के नाम के साथ पुकारता। फलनवा की माई कहकर कुछ कहता। वह पत्नी के लिए 'ओकनी के' का व्यवहार करता। एकवचन  नहीं, हमेशा बहुवचन।




सरजू को तीन बेटे हुए। मंझले बेटे की दो-तीन साल पहले मृत्यु हो गई थी। वह ग़ाज़ियाबाद में मजदूरी करता था।वहीं बीमार पड़ा। बीमारी की हालत में घर आया। पटना के किसी अस्पताल में उसके पेट संबंधी किसी बीमारी का ऑपेरशन हुआ, पर बच नहीं पाया। दहाड़ मारकर रह गए दोनों। इतनी भयावह गरीबी कि सरजू तो कुछ कह भी नहीं पाया किसी से। बेटा शादीशुदा था। कमाने गया था रुपया-पैसा। घर का काम चलाने। पर बीमारी और आखिर में मौत कमाकर आया। सरजू से उस वक्त आंखें मिलाने की हिम्मत मुझमें नहीं थी। कुछ कहना चाहकर भी नहीं कह सका। कुछ कहता भी तो क्या?

आठ-दस साल पहले उसके हाथ की दो अंगुलियां कुट्टी मशीन की भेंट चढ़ गईं। गांव के ही एक महतो जी के यहाँ पुआल की कुट्टी कटवा रहा था। दिनभर की मजूरी पर गया था कि कुछ कमाई हो जाएगी। जिन अंगुलियों से मुट्ठी बँधती है, काम में जोर लगता है, दाल -भात का कौर उठता है, उन्हीं अंगुलियों को गँवा बैठा। 

एक तो छोटा कद, दुबली-पतली देह, ऊपर से अंगुलियां नदारत। जिनके बूते करहे को चिकन-चाकन गढ़ देता था, वो अब गायब। उसकी सारी 'परिनई' (निपुणता) अंगुलियों के साथ ही जाती रही। अब सरजू वो सरजू नहीं रहा। कोई मुआवजा वह पाए तो कहाँ से? इलाज हो पाया किसी तरह। जख्म तो भर गए, पर आत्मा का जख्म कभी नहीं भर पाया।कुदाल की बेंट अब मुँह चिढ़ाने लगी।

सरजू के बच्चे काफी इंतज़ार के बाद हुए। उसकी नानी को हमलोग बचपन में गेल्हिया माई कहते थे। गेल्हिया माई की बेटी जगरखनी के बेटे हुए - सरजू और गरजन। नाना का नाम था जयमंगल कहार। जब तक गेल्हिया माई जिंदा रही आँगन-घर-दुआर सब चमचमाता रहा। मजाल कि कहीं कोई गंदगी दिख जाए। उसके आँगन में एक चबूतरा हुआ करता था और चबूतरे के बगल में तुलसी के पौधे। दुआर पर गुड़हल के फूल। जाड़े में गेंदा और जटाधारी।

कुछ फूल प्रतिदिन उस चबूतरे पर नियमित चढ़े होते थे। दुआर पर एक नीम का पेड़ भी था। जो कि बाद में सरजू और गरजन के वहां से हटने के बाद जो रहने आए, दाम कर कटवा दिया। जयमंगल कहार कलकत्ता कमाते थे।अच्छी स्थिति थी गेल्हिया माई की। बचपन में मैं अपनी ईया (आजी) के साथ हमेशा गेल्हिया माई के घर जाता।अक्सर दोपहर में। 

तब तक वह नदी नहाकर आ चुकी होती और चबूतरे पर कुछ फूल चढ़ गए होते। उसके यहाँ 'सोरठी बृजभार' था ,जिसको हमारी ईया गया-गाकर पढ़ती थी और कुछ औरतें मनाचित लगा सुना करती थीं। तब उस घर में एक और औरत हुआ करती थी जिसको सबलोग सधुआइन कहा करते थे। उस औरत के बारे में तब कहां सुध थी विशेष कुछ जानने की। ये तो बाद में थोड़ा-बहुत मालूम हुआ कि वो उस घर की नहीं थी। किसी दूसरे गाँव के राजपूत परिवार की बहू या कि बेटी थी। शायद भोजपुर ज़िला के जलपूरा गांव की। वो सिंदूर नहीं लगाती थी। शायद विधवा थी। वही लेकर आई थी 'सोरठी बृजभार'। वो बहुत रस ले लेकर सुनती थी। 

संभव है अपने सपाट और बेरंग हुई दुनिया मे कुछ रंग वहीं से ले पाती हो। खैर, सधुआइन गईं, गेल्हिया माई गई, जयमंगल गए, इन दोनों भाइयों का वह घर छूटा, नीम का पेड़ गया और गेल्हिया माई की बेटी का एक बेटा भी अल्लाह का प्यारा हो गया। गेल्हिया माई थी तो हमें नहीं पता कि वो कमकर परिवार है और वहां किसी उच्च जाति के परिवार की औरत और बच्चे को वहाँ इस तरह नहीं जाना चाहिए। हम सब दिन दिन भर रहते और खेलते-खाते थे। आज की तरह तो इतना भेद नहीं था।

तो बात चली थी कि सरजू को बच्चे देर से हुए। और हुए तो तीन हुए। मुदई मुँहे कारिख पुत गई। लेकिन इस देर के कारण लोगों ने, खासकर महिलाओं ने क्या-क्या नहीं कहा, सुझाया। सरजू ने एक बछिया पाल रखी थी। वह बड़ी मरकही निकली। वह भी लंबे समय तक न बाही न बियाई। उसके दुआर पर, नीम के नीचे गोली खेलते लड़कों ने उसका नाम खीरमोहनी रख दिया था। उसके सामने हाथ नचा-नचा काँव-काँव करने लगे थे। 

वह भी ससुरी पक्की खंचरिन। इधर बच्चे खीरमोहनी कहते, उधर वह हूँफने लगती। फनफना उठती  सरजू बो कभी-कभी चिढ़ जाती तो उन गोली जमाये बच्चों को भगाने लगती - 'ना जइबऽ लोग अपना दुआरे।' पर, वे इधर हटे, उधर फिर आ डटे। धीरे-धीरे बच्चों ने खुद सरजू का नाम खीरमोहन रख दिया। और यह नाम चल पड़ा। संग के कामगार भी खीरमोहन कहने लगे। और तो और उसकी पत्नी भी खीरमोहन कहने से बाज़ नहीं आती। काशी, लालबाबू सब खीरमोहन कहने लगे। 

अफसोस कि अब काशी भी नहीं रहे। काशी जो थे, वो कैंसर से गए। काशी उसी परिवार के रहे जिसके चलते सरजू दोनों भाइयों को अपने नाना वाला घर छोड़ना पड़ा था। शुरू में दोनों परिवारों में तनाव जैसा कुछ रहा, पर बाद में सब सामान्य हो गया। काशी के पिता का नाम था सीताराम कहार। खूब गाँजा पीते थे। 

सीताराम जी हमसे उम्र में काफी बड़े थे। कलकत्ता की किसी प्राइवेट कंपनी में काम करते थे। नौकरी से रिटायरमेंट के बाद गांव आ गए और दिन-दिनभर उनकी मड़ई में, दुआर पर टोलाभर के गंजेड़ी बैठकी लगाने लगे। चिलम धकाधक जलती रही। तरह तरह की बोलबाजियों के साथ चिलम के शीर्ष पर लपालप प्रत्येक दम पर लाफें उठतीं रहीं। 

सीताराम गए इस दुनिया से तो इसी गांजे के चलते। खांस खांस के बेदम होते सीताराम जी ने कभी चिलम से मुँह नहीं मोड़ा। अपने आखिरी वक्त में जब उठने बैठने में एकदम लाचार हो गए, करवट बदलना तक मुश्किल हो गया, अपनी बैठकी के लोगों से इशारे में ही गांजे की चिलम थामने की इच्छा जाहिर की। 

साथियों ने सहारा देकर बिठाया, चिलम थमाई, भाय ने दम मारा।आखिरी लाफ़ थी वह चिलम के शीर्ष पर नृत्य के समापन की तरह विराम लेती। सब उनको भाई नहीं, 'भाय' कहते थे। जब उनकी अर्थी उठी तो किसी गंजेड़ी ने अर्थी के सिरहाने एक चिलम, एक साफीऔर गांजे की एक पुड़िया रख अपनी ओर से आखिरी सलाम पेश किया। 

अर्थी उठाने से पहले समाजियों ने चिलम चढ़ाई।श्राद्ध के दिन उनकी जमात के लोगों ने प्रेमपूर्वक दम मारा। सीताराम भाय के बाद उनका बड़ा बेटा जिसका नाम बैजनाथ था, वो भी पिता के नक्शेकदम पर चलते हुए आखिरी साँस ली। वो भी कलकत्ता काम करता था। गाँव वो भी आया नौकरी पूरा कर, मरा वो भी पिता की तरह। सीताराम भाय का एक और बेटा है जो चिलम से बेइंतहां मुहब्बत करता है। वो भी कुछ दिन कलकते में रहा। सीताराम भाय की पत्नी को हमलोग भउजी कहते थे। मोटी थी इसलिए वो 'हथिया भउजी' थी। वो भी गई। जाने की उमर तो नहीं हुई थी पर चली गई। अपने पति के बाद गई।इस पूरे प्रकरण को लिखते हुए मन अज़ीब -सा हुआ जा रहा है। 

यह कलकत्ता जो सो कमाल का है। जो जाता था उस समय वो आज की तरह तो तुरत-तुरत नहीं आ पाता था। साल -साल भर बाद आ पाना होता था। घर-परिवार सब छोड़कर जाते थे और साल साल भर अकेले रहते थे। जैसे तैसे। इसी दोहपंच में ही गांजे और चिलम की जगह बनी। सीताराम भाय सरजू के मामा लगते थे। सरजू के नाना सीताराम भाय के चाचा। सरजू भी दिल्ली-कलकत्ता सब घूम आया था। 

पर उसे कहीं अड़ान नहीं मिल पाया। सो इसी मिट्टी पर खटते हुए बीमार पड़ा और चल बसा।उसके जाने से क्या फरक पड़ेगा किसी पर। कोई बड़ा आदमी तो वह था नहीं। घर-द्वार सब टूटा-फूटा,गरीब की किस्मत की तरह। इंदिरा आवास-योजना का फारम पर फारम भरता रहा,ब्लॉक में कई बार गया,सौ-पचास किसको किसको नहीं दिया,तहसीलदार को, गाँव के चालू-पुरजा लोगों को। पर पाया क्या? कहते-कहते चला गया।सिधवा था, पर जान चुका था कि उसकी कहीं कोई सुनवाई नहीं। पैसा दे तो देता था पर कहता था कि हो जाए तब तो जानें। 

जिस उमर में सरजू गया, वह भी कोई जाने की उमर होती है। पर वह गया। हरेराम यादव गए, सुरेश यादव गए, सभा यादव गए। न जाने कितने गए। सब खेत-मजदूर थे। यह जाना अभी भी जारी है। इनके दुखों का एक अंतहीन सिलसिला दर्ज हो रहा है प्रतिदिन। खेत-मजदूरी छोड़ ये राजमिस्त्री के साथ मजदूरी में लगे। 

अपने गांव से बाहर के गांवों में जाने लगे। गांव के नजदीक के बाजार बिहिया जाने लगे मजदूरी करने। सुबह- सुबह निकलते, देर रात वापस लौटते। काम नहीं मिलने पर मनमार खाली हाथ वापस आते। रोज सुबह बक्सर,पटना मोकामा शटल से जाते और रात में उसी से वापस लौटते। अब बिहिया जानेवालों में न सुरेश रहे, न सभा, न सरजू।



सरजू के नाना का नाम था जयमंगल कहार। पर, कलकत्ता से आने के बाद जब वे स्थायी तौर पर गाँव रहने लगे तो उनका भी एक उपनाम धरा गया। लोग उनको खोंखा कहने लगे।आज भी ऐसे कई लोग हैं जिनके उपनाम हैं।बहरहाल, जो सरजू था न वो बड़ा दिलचस्प भी था कई मामलों में। झगड़ालु तो बिल्कुल नहीं था। पर, एक खास प्रसंग याद आ रहा है। वो यूं है कि एक बार धान की कटाई हो रही थी। सरजू सहित कई कटनिहार लगे हुए थे।सतरह बोझा पर एक बोझा बन्न का होता था। बन्न का बोझा सामान्य बोझे से काफी भारी होता था। 

सरजू ने भी खूब रच-रचकर बन्न का बोझ बांधा था। खेत में मैं ही बोझ उठा रहा था और मुझे ही बन्न फरियाना था। तब मैं इंटर में पढ़ता था। सबसे पहले सरजू का बन्न फरियाने का अवसर आया।मैंने उस बोझे को ले जाने से मना किया। सरजू ने हिला-डोलाकर दिखाया कि कहां बहुत भारी है। फिर भी हमने मना किया। खेत मालिक होने का एक गरूर था और भाषा भी वैसी ही ऐंठ वाली थी। 

सरजू ने आखिर में कहा कि  'रोक लऽ,रोक के राजा हो जा।' फिर जब बात थोड़ी आगे बढ़ी कि सरजू का मिजाज गरम। बहुत कड़ा प्रतिवाद किया था। मुझे याद है वह सब। पूरी एक तसवीर बन-बिगड़ रही है स्मृति पटल पर। इतना शांत सरजू और इतना कड़ा प्रतिवाद। 

बाद में जब मैं पार्टी (CPI - ML) से जुड़ा तो वह प्रतिवाद अनूठा लगने लगा। वह सरजू पार्टी के लिए दस-पाँच रुपये बतौर सहयोग देने लगा। कॉमरेड चंद्रमा प्रसाद को खाना भी खिलाने लगा। उसका छोटा भाई गरजन तब ज्यादा सक्रिय हुआ था।

उसके लिए और गाँव के बच्चों और युवकों के लिए होली का एक अलग आनंद हुआ करता था। एक फगुआ में उसने भंग जमा ली। भंग का रंग जब चढ़ा तो लगा मुँह से फटफटिया (मोटरसाइकिल) की आवाज़ एक सुर में निकालने। उसकी पत्नी और अगल बगल के लोगों को समझते देर नहीं लगी कि यह कुछ और नहीं भंग का रंग चढ़कर बोल रहा है। उसके आँगन में देखनिहार की भीड़ लग गई। और लगी तो देर तक लगी रही। एक दूसरे साल के फगुआ में वह लगा रटने कि 'हम बिआह करब, हम बिआह करब'। 

लड़के तो ताक में थे आ जमे तुरत। 'केकरा से बिआह करबऽ?' कहने लगा कि 'हेमा मालिनी से'। लड़के सब लगे हुहकार मचाने। तब से पत फगुआ उसके आँगन में बोलबाजियों की चलती रही। पर जिस साल उसका मंझला बेटा मरा था, सरजू ने भांग छूने की बात तो दूर, ताका तक नहीं था उधर। मन ही मन रो रहे थे पति-पत्नी। उस दिन कुछ देर सरजू को अपने पास रखा। पर जब तक रहा गुमसुम रहा। बेटे की मौत ने तोड़ दिया था अंदर से।

सरजू हमको मामा कहता था। उसकी पत्नी मामाजी कहती है। उसके चेहरे पर चेचक के चंद दाग थे। पर उसका मन बिलकुल बेदाग था। एकबार की बात है कि मेरे यहाँ एक बारात आई थी। आगंतुकों में नाश्ते का डिब्बा दिया जा रहा था। सरजू बाल्टी और जग लिए पानी चला रहा था। भीड़ कुछ कम हुई तो वह आया मेरे पास अपने एक बेटे को लेकर और कहा 'ऐ मामा एकरा के एगो डिब्बा दिया द।' 

हमने कहा कि 'अरे दे दे जाके अपनहीं।' पर, वह न गया और न उसको डिब्बा दिया। बच्चा उसका उसके आगे-पाछे ठुनुकता रहा। कुछ देर बाद मेरा जब उधर ध्यान गया तो समझ गया कि यह सरजू अपने से तो निकालकर देने से रहा। खुद लाकर मुझे देना पड़ा। सरजू को भी लाकर दिया कि अरे भाई तुम भी कुछ खा लो। ऐसा था वह।

अब वह नहीं है। उसकी पत्नी है। वह मामाजी कहेगी। मामा कहने वाला सरजू चला गया। नाम लेकर मामा कहता था। बलभद्र नहीं, बेलभदर मामा। एक लुंगी और एक कुरता के लिए उसने कह रखा था। धीरे से कहता था कुछ भी। जिस तरह धीरे से कुछ कहता था उसी तरह धीरे से चला गया। धीरे-धीरे वो बिसर जाएगा। पर मैं जबतक रहूँगा,रहेगा मेरे साथ। एक साथ हमने खेतों में काम किया है। पानी बराया है। करहा गढ़ा है। खलिहान की लिपाई की है। दवनी-ओसवनी की है। उसका जाना एक कुशल श्रमिक, एक सच्चे आदमी का जाना है।

 

(दो)

सरजू भैया


बात रामबृक्ष बेनीपुरी के 'सरजू भैया' की नहीं, हमारे गाँव वाले सरजू भैया की है। पूरा नाम सरजू सिंह। ठेहुना ऊपर धोती और आधा बाँह गोल गला वाली कमीज और एक छड़ी। गोड़ में जूता-चप्पल होना कोई जरूरी नहीं। वैसे ससुरारी जब जाना होता है तब तो उसकी दरकार उनको अवश्य समझ आती है। तब पूरी बाँह का कुरता पहनते हैं। लेकिन,छड़ी नहीं छोड़ते हैं। ऐसा नहीं कि छड़ी उनकी आज की जरूरत है। ऐसा नहीं कि वह बुढ़ापे का सहारा है। साँच बात तो यह है कि वे अभी बूढ़े हुए भी नहीं हैं। और उसको वे आज से थोड़े लिए हुए हैं। मैं जब और जहाँ से उनको देखता और पलटकर याद करता हूँ, यह छड़ी अवश्य दिखाई देती है। 

अब की पीढ़ी यानी टटकी पीढ़ी को तो नहीं जानता कि वह सरजू भइया में कितना दिलचस्पी रखती है। पर अपनी और अपनी की तुरंत बाद वाली की तो जानता ही जानता हूँ कि सरजू भइया से बिना लागे-लपिटाए किसी का मन ही नहीं लगता। सबके सब उनको 'राय जी' कहते। गाँव में राय जी मतलब सरजू भइया। जिनके वे बेटा-भतीजा लगते वे भी उनको रायजी ही कहते।भउजी, जो कि अब नहीं रही, उनको राय जी ही कहती थी,और सरजू भइया उसके ऐसा कहने पर कगरी काटते मुसकाते दिखते। जिसने यह दृश्य न देखा,मेरा मानना है कि उसने सरजू भइया को पूरे में नहीं देखा।

वे भइया होने के नाते लोकप्रिय नहीं थे, न चाचा या किसी के भतीजा होने के नाते। आन्ही आए, घटा घेरे, बूनी पड़े, घाम हो या लूक चले, जाड़-ठाड़ हो - किसी को बैल खरीदना-बेंचना हो, या गाय-भैंस - सरजू भइया को चैन नहीं। होत प्रात वे छड़ी लिए आ जाते उसके दुआर। चाहे कोई राजपूत हो या बराभन, अहीर हो कोइरी या कोहार या पासवान या गंडेरी या कोई भी जाति, हिन्दू या मुसलमान - सब उनके लिए एक समान। 

सब उनको खोजते आ जाते। सबके लिए वे निकल जाते। धांग देते पूरा गांव-जवार। सबके खूँटे की जानकारी रखते थे। खूँटे की जानकारी मतलब कि किसके यहाँ बैल है, गाय -भैंस है। बाछा-बाछी है, पाड़ा-पाड़ी है। किसका कितना मुनासिब दाम है। मवेशियों के सुभाव के साथ-साथ वे उनके मालिकों के सुभाव को भी कायदे से जानते थे। अपना हरज-गरज सब उनको कबूल था।


उनकी अपनी एक टीम हुआ करती थी। उस टीम के लोगों का अपना-अपना उपनाम हुआ करता था। एक जन को 'लुटाई सिंह' के नाम से लोग बुलाते थे। जबकि उनका अपना असली नाम अम्बिका सिंह है। इस टीम के एक सदस्य थे शिवधन यादव, एक काशी कहार। अम्बिका सिंह,शिवधन,काशी और सरजू भइया की इस चौकड़ी में से एक काशी छिटक गए हैं। कैंसर के कारण अल्लाह के प्यारे हो गए। 

साल-डेढ़ साल हुआ, भउजी भी सरजू भइया का साथ छोड़कर चली गई। माल-मवेशी का बाज़ार भी ठप है। गाँव के गाँव बैलों से खाली हैं। गाय-भैंस भी अब कोई रखना नहीं चाहता। नाद-चरन, खूँटे सब उड़स गए। दुआर-दालान की बैठकियाँ उड़स गईं। रायजी और लुटाई सिंह भी पहले की तरह नहीं बैठते। लेकिन राय जी की छड़ी अभी भी उनके साथ है। लोग कहते हैं कि कभी-कभी काफी उदास हो जाते हैं सरजू भइया। हफ़्ता-दस दिन गुमसुम। बूनी-बदरी में तो और। लोग छेड़ते हैं तो भी कुछ नहीं बोलते। अबकी जो गाँव गया तो पूछा -

'का हो रायजी, ससुरारी गइला कतना दिन भइल त कहलें तनी कगरी प मुस्कात--गइल रहीं, दू -तीन दिन पहिले।'

                  


(तीन)


लल्लू महतो


आज अपने गाँव पहुंचा, कल होली है। होली परिवार और गाँव के लोगों के साथ मनाने गाँव पहुंचा।  

रात 9:20 मिनट पर गाँव के लोगों ने होलिका दहन किया। इसी बीच मालूम हुआ की पाँच-छह दिन पहले लल्लू महतो का देहांत हो गया है। एक तरफ मेरी नज़रों के सामने होलिका का दृश्य था और दूसरी तरफ लल्लू महतो के गुज़र जाने का दुःख मन में घुमड़ रहा था। लल्लू महतो जब जवान थे तब होलिका दहन वाले स्थान पे ढोलक-झाल लिए हाज़िर रहते थे और होलिका दहन के उपरांत उनके नेतृत्व में उसी जगह पर लोग ताल ठोकते थे, होली के गीत गाया करते थे। आज उनका न रहना अखर रहा है। 

करीबपाँच-सात साल पहले रामनाथ सिंह का देहांत हुआ था।  ये भी गीत-गवनई के शौक़ीन थे। रामनाथ सिंह और लल्लू महतो हमउम्र भी थे। अब कहा जा सकता है कि लल्लू  महतो के जाने के बाद इस तरह का कोई व्यक्तित्व गाँव में नहीं रहा। मैं लल्लू महतो के प्रति अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ। वे किसान थे, गीत-गवनई के शौक़ीन थे,सहज और सरल भी थे। 


होली अब पहले की तरह नहीं मनाई जाती है और लोग पहले की तरह गाते-बजाते भी नहीं है। पर मैं मन ही मन लल्लू महतो के द्वारा गाये गए गीतों की पंक्तियों को दोहरा रहा हूँ -  


'अँखिया भइली लाल

अँखिया भइली लाल

एक नीन सुते द बलमु हो...'

और

'बाबू कुंवर सिंह तेगवा बहादुर / बांग्ला में उड़े ल अबीर।'


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 डाॅ.बलभद्र अपने प्रगतिशील विचारों व देशज अंदाज़ के लिए जाने जाते हैंं। हाशिए के नागरिकोंं से उन्हें बेपनाह मुहब्बत है। उन्हीं के साथ खेत की माटी मेंं लोटने मेंं बलभद्र जी को आनंद आता है। आजकल झारखण्ड के गिरिडीह के एक काॅलेज में अध्यापनकार्य। संपर्क : +91 81272 91103