Friday, May 30, 2025

बुद्ध-गया-मन्दिर का महत्त्वपूर्ण प्रश्न : सत्यदेव परिव्राजक





|| शताब्दियों से बुद्ध-गया का मन्दिर बुरी हालत में पड़ा था। दसनामी संन्यासी-सम्प्रदाय का लालगिरि नामक एक संन्यासी घूमता-फिरता बुद्ध-गया की ओर आ निकला। यहां का एकान्त स्थल उसे बहुत पसन्द आया। उसकी वृत्ति विरक्तों जैसी थी। वह उस स्थान पर आकर ठहर गया, क्योंकि जगह वीरान थी और उसका कोई मालिक न था। इसके बाद कई एक साधु वहाँ बस गये। बुद्ध-गया का ग्राम, जिसमें बौद्धों का प्रसिद्ध ऐतिहासिक मन्दिर स्थित है, टिकारी-राज की जिमींदारी में शामिल था। सन् १७२७ में महाबोधी ग्राम के निकटवर्ती मस्तीपुर और तारादी नामक दो गाँव लालगिरि को मुसलमान बादशाह महम्मदशाह की तरफ़ से भेट में मिले। भग्नप्राय मन्दिर पहले सरकारी नक़्शे में महाबोधी ग्राम के अन्तर्गत था, लेकिन सन् १८४२ के सरकारी नक़्शे में वह तारादी ग्राम के अन्तर्गत कर दिया गया। यह किस चाल से हुआ था, इसकी लीला कम्पनी बहादुर ही जाने।

सन् १८३३ के मार्च महीने में बर्मा-नरेश के भेजे हुए प्रतिनिधि बोधी-वृक्ष के दर्शन करने के लिए आये। उस समय के महन्त योगीजी ने राज-प्रतिनिधियों को सूचना दी कि यह मन्दिर बौद्धों का है और सदा से उन्हीं के कब्जे में रहा है, इसलिए यह मन्दिर बर्मा-नरेश के अधीन रहना चाहिए।

सन् १८७५ में वर्मा के महाराज मिन्दून ने अपने राज-प्रतिनिधि हिन्दुस्तान में भेजे। वे बुद्ध-गया में आये और उन्होंने मन्दिर को टूटी-फूटी हालत में देखा। भारत-सरकार और बर्मा-नरेश के बीच मन्दिर के उद्धार के सम्बन्ध में पत्र-व्यवहार होना शुरू हुआ।

सन् १८७७ में बर्मा-नरेश ने अपने कुशल मिस्त्री और कारीगरों को मन्दिर का पुनरुद्धार करने के लिए भेजा।

सन् १८७७ में भारतीय सरकार को पता लगा कि बर्मा-नरेश के कारीगर मन्दिर की मरम्मत बेढंगे तरीक़े से कर रहे हैं, अतएव उसकी ठीक मरम्मत करने के उद्देश से भारत-सरकार ने बर्मा नरेश की स्वीकृति के अनुसार उसका कार्य अपने हाथ में लिया और वह कार्य जनरल कनिङ्गहम को सुपुर्द किया गया। उसने मिस्टर जे० डी० बगलर, इंजीनियर, को वह कार्य सौंप दिया। सन् १८८४ में मन्दिर की मरम्मत पूरी हो गई और गया के कलक्टर महाशय के पास उसकी रिपोर्ट भेजी गई। उस रिपोर्ट में, महन्त का मन्दिर पर किसी प्रकार का भी अधिकार है, इसका कुछ भी जिक्र नहीं था। इसके विपरीत बर्मा-नरेश की बनवाई हुई धर्मशाला का उसमें जिक्र मौजूद है।

सन् १८८४ में बर्मी बौद्ध भिक्षु, जो बर्मी धर्म्मशाला में रहते थे, अपने महाराज बर्मा-नरेश थीबो और भारत-सरकार के बीच युद्ध छिड़ जाने के कारण बर्मा लौट गये और वह अभागा मन्दिर फिर बुरी हालत में छोड़ दिया गया ।

सन् १८८५ के शीतकाल में सर एडविन आरनोल्ड बुद्ध-गया देखने के लिए गये और मन्दिर की खराब हालत देख कर उन्होंने गवर्नमेंट को सलाह दी कि उसे बौद्ध भिक्षुओं के हवाले कर देना उचित है।

सन् १८९० की जुलाई में गया के कलक्टर सर ग्रीयर्सन ने बङ्गाल सरकार को सलाह दी कि बुद्ध-गया का मन्दिर सरकार को अपने कब्जे में कर लेना चाहिए, क्योंकि इसकी कोई खबरदारी करनेवाला नहीं है। सरकार ने एडविन आरनोल्ड की सलाह न मान कर सर ग्रीयर्सन के कहने के मुताबिक़ मन्दिर को अपने कब्जे में कर लिया। मन्दिर पर धार्म्मिक अधिकार महन्त को दे दिया गया और गवर्नमेंट की निगरानी में मन्दिर की इमारत और बर्मी धर्म्मशाला कर दी गई। इस प्रकार बौद्ध-मन्दिर के दो स्वामी बन गये ताकि दो मुल्लाओं के बीच मुर्गी हराम हो जाय। बर्मा-नरेश ने जो खर्च मन्दिर की मरम्मत करवाने और धर्मशाला बनवाने में किया था वह सब जरा से हुक्म से निष्फल हो गया। महन्त, जिसका मन्दिर से कोई सम्बन्ध न था, बङ्गाल-सरकार की कृपा से मालिक बन बैठा। पब्लिक-वर्क्स-डिपार्टमेंट की ओर से एक संरक्षक मन्दिर की इमारत और बर्मी धर्मशाला की देख-रेख करने के लिए नियत किया गया। गया के कलक्टर ने महन्त को हुक्म दिया कि सब मूर्तियाँ इकट्ठी करके गोदाम में रख दी जायं।

सन् १८९१ के जनवरी महीने में प्रसिद्ध बौद्ध भिक्षु ब्रह्मचारी अनागरिक धर्मशाला और मन्दिर के दर्शनार्थ आये। उन्होंने मन्दिर को त्यक्त दशा में पाया। उसकी ऐसी दशा देख कर वे बड़े दुःखी हुए। उन्होंने प्रतिज्ञा की कि वे मन्दिर को नष्ट होने से बचावेंगे और नये सिरे से वहां बौद्ध-भिक्षुओं की स्थापना करेंगे ।

सन् १८९१ के मई महीने में श्रीमहाबोधी सोसाईटी का जन्म बुद्ध-गया का मन्दिर बौद्धों को वापस दिलाने के उद्देश से हुआ ।

सन् १८९१ के जुलाई महीने में ब्रह्मचारी धर्म्मपाल जी लङ्का से बौद्ध-भिक्षुओं को वहाँ लाये और पीडब्ल्यूडी के सुपरिण्टेण्डेण्ट की आज्ञा से उन्होंने बर्मी धर्मशाला में निवास करना शुरू किया।

उसी वर्ष के आक्टोबर महीने में बुद्ध-गया में बौद्धों की एक कांग्रेस हुई और उनका डेपुटेशन बङ्गाल के लेफ्टिनेंट गवर्नर सर चार्ल्स इलियट की सेवा में उपस्थित हुआ ताकि बौद्ध-मन्दिर की रक्षा का भार बौद्ध भिक्षुओं के हाथों में आ सके, परन्तु लेफ्टिनेन्ट गवर्नर साहब तो बुद्ध-गया-मन्दिर को मिलकियत के अधिकारों के सम्बन्ध में कुछ बात भी करना नहीं चाहते थे। वृद्ध महन्त हेमनारायण गिरि २७ दिसम्बर सन् १८९१ में परलोक सिधार गये। श्रीकृष्ण-दयाल गिरि ४थी फ़रवरी सन् १८९२ को गद्दी के मालिक बनाये नये। बर्मी धर्म्मशाला सन् १८९१ के जुलाई मास से लेकर सन् १८९३ के फरवरी मास तक सिलोन के बौद्ध-भिक्षुओं के कब्जे में रही। महाबोधी सोसाईटी के डाइरेक्टर-जनरल कर्नल आलकाट ने उन बौद्ध भिक्षुओं को कुछ समय तक खास गया में रहने के लिए कहा। धर्म्मशाला की कुञ्जी उन बौद्ध भिक्षओं के पास रहती थी।

सन् १८९४ के एप्रिल मास में भगवान् बुद्ध की एक बड़ी सुन्दर मूर्ति, जिसे जापानियों ने भारतीय बौद्ध-भिक्षुओं को भेंट किया था, गया आ पहुंची। ब्रह्मचारी धर्म्मपाल जी इसकी स्थापना बुद्ध-गया के मन्दिर में करना चाहते थे, जो एक स्वाभाविक बात थी। महन्त कृष्ण-दयाल गिरि ने इस मामूली सी बात का विरोध किया और महन्त के नौकरों ने उस मूर्ति को मन्दिर से निकाल कर बाहर कर दिया। तब गया के कलक्टर की सलाह से बौद्ध-भिक्षु उस भव्य मूर्ति को बर्मी धर्मशाला में रख कर वहीं उसकी पूजा करने लगे, परन्तु इस अन्याय की मूर्ति हिन्दू महन्त से यह भी सहन न हो सका और उसके नौकरों ने पूजा में मग्न बौद्ध भिक्षुओं पर हमला किया। बेचारे भिक्षु पीटे गये और उनकी मूर्ति धर्मशाला से बाहर फेंक दी गई। यदि महन्त में कुछ भी न्याय-प्रियता और सहृदयता होती तो वह कदापि इसका विरोध न करता, लेकिन उसका दिल तो साफ़ नहीं था। बस, इसी कारण टण्टा हो गया

महाबोधी सोसाईटी ने महन्त के ऊपर मुक़द्द‌मा दायर किया। गया के कलक्टर मिस्टर मैक्फ़रसन ने उस मूर्ति को बर्मी धर्मशाला में फिर रखवा दिया ।

सन् १८९६ के मई मास में यह बात स्पष्ट रूप से स्वीकार की गई कि बर्मी धर्मशाला बौद्ध भिक्षुओं की जाय-दाद है, इसमें वे भगवान् बुद्ध की मूर्ति रख सकते हैं और अपनी इच्छानुकूल पूजा कर सकते हैं।

सन् १९०२ के एप्रिल मास में स्वामी विवेकानन्द मिस्टर ओकोकुरा नामी जापानी सज्जन के साथ बुद्ध-गया में आये और महन्त के साथ इस विषय की चर्चा की कि एक महायान बौद्ध-मन्दिर बुद्ध-गया में बनाया जाय। जब इस चर्चा की भनक भारतीय सरकार के कान तक पहुंची तब उसके कान खड़े होगये। फिर क्या था ? पटना के कमि-श्नर ने ब्रह्मचारी धर्मपालजी को लिख भेजा कि बौद्ध-भिक्षुओं का भला इसी में है कि वे बुद्ध-गया छोड़ कर चले जायें। परन्तु भिक्षुधों ने कमिश्नर की अन्याय-पूर्ण बात न मानी ।

सन् १९०५ में पटना के कमिश्नर मिस्टर केमिंज बुद्ध-गया आये और महन्त को बौद्धों के विरुद्ध मुक़द्दमा दायर करने की सलाह दी। मतलब यह था कि बौद्ध-भिक्षु येन केन प्रकारेण बुद्ध-गया से निकाल दिये जायँ। जब रक्षक ही भक्षक हो जाता है तब बेचारे दीनों की दशा कौन पूछे।

सन् १९०६ के सितम्बर महीने में महन्त ने गवर्नमेंट के उसकाने पर महाबोधी सोसाईटी पर मुक़द्दमा दायर कर दिया। कलकत्ता-हाईकोर्ट ने महन्त के हक़ में फैसला दे दिया। हिन्दू-धर्म के स्तम्भ कहलाने वाले महन्तजी बौद्धों के विरुद्ध फैसला पाकर बड़े प्रसन्न हुए। बेचारे दीन बर्मी बौद्ध भिक्षु सन् १९१० में अपने पवित्र स्थान बुद्ध-गया से सदा के लिए निकाल दिये गये। अब उस मन्दिर पर महन्त का और भारत सरकार का साझा अधिकार है। यह, संक्षेप में, उस मन्दिर के झगड़े का हृदयविदारक इतिहास है ।

हमारे बड़े-बड़े व्याख्यानदाता कहा करते हैं कि हिन्दू लोग न्यायप्रिय होते हैं। अन्याय का सारा दोष पाश्चात्य सभ्यता के गले मढ़ा जाता है। भगवान् बुद्ध की मूर्त्ति और उनके मन्दिर का पुजारी एक ऐसा महन्त है जो भगवान् बुद्ध के धर्म का कट्टर विरोधी है, जो बौद्ध-धर्म के विषय में कुछ भी नहीं जानता, जो भगवान् बुद्ध का अनादर करके करोड़ों आत्माओं को सन्ताप दे रहा है। भग-वान् बुद्ध की मूर्ति पर शैवी तिलक लगाया जाता है और उसकी पूजा बौद्ध-सिद्धान्तों के विपरीत की जाती है। मूर्ति की भद्दी शकल बना दी गई है। उसका सब ढङ्ग पौराणिक कर डाला गया है। महन्त के नौकर मन्दिर को अपवित्र करते हैं और भगवान् बुद्ध की मूर्त्ति के सामने काली-पूजा के दिन करोड़ों निरपराध पशुओं के गले कटवाते हैं। जरा इस भयङ्कर अत्याचार की पराकाष्ठा देखिए ! यदि कोई मुसलमान हमारे किसी प्राचीन मन्दिर में गाय काटे तो हमारे रोंगटे कैसे खड़े होते हैं। लेकिन हम स्वयं बौद्धों के प्रसिद्ध मन्दिर में इस प्रकार का हत्या-काण्ड करते हैं और हमारे हिन्दू-हृदयों को जरा भी ठेस नहीं लगती। जो दूसरों को अन्यायी और अत्याचारी बतलाते हैं वे जरा अपने गरेवाँ में मुँह डाल कर तो देखें। यह है हृदयों को चीरनेवाला बुद्ध-गया-मन्दिर का इतिहास ।

अब मैं अपने पाठकों से इसका इन्साफ़ चाहता हूँ। लोग मुझ पर इल्जाम लगाते हैं कि स्वामी सत्यदेव बौद्ध-धर्म का प्रचार करने लग गया है। यदि बौद्धों पर किये गये अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाना बौद्ध धर्म का प्रचार करना है, यदि शुद्ध हिंसा की घोषणा देनेवाले भगवान् बुद्ध के मन्दिर में निरपराध पशुओं की हत्या के क्रूर कृत्य को रोकना बौद्ध धर्म का प्रचार करना है, यदि बौद्ध धर्म्म के कर्मयोग और बौद्ध-सभ्यता के गुणों का बखान करना बौद्ध-धर्म का प्रचार करना है, यदि बुद्ध-गया के मन्दिर को उसके असली अधिकारी बौद्ध भिक्षुओं को दिलाना तथा ५० करोड़ बौद्धों को भारतवर्ष के प्रेमपाश में बाँधना बौद्ध-धर्म का प्रचार करना है, यदि भारतवर्ष के देदीप्यमान, तेजस्वी और प्रतिभाशाली सुपुत्र गौतमबुद्ध के सुन्दर उप-देशों का स्मरण हिन्दू बच्चों को कराना बौद्ध-धर्म्म का प्रचार करना है, तो सचमुच मैं बौद्ध धर्म का प्रचार करता हूँ और मैं इसको अपना सौभाग्य समझता हूँ कि मेरी तुच्छ सेवा इस महान् उद्देश की पूर्ति में कुछ काम आ रही है। यदि मेरा शरीर भी उस सेवा में अर्पण हो जाय तो अपने आपको कृतकृत्य मानूंगा ।

[सरस्वती, १९२३]

प्रस्तुति : सुजीत कुमार सिंह 



7 comments:

  1. ऐसे समय में जब बोधगया के मंदिर को लेकर बौद्ध धर्म वाले लगातार उसके ट्रस्ट में गैर बौद्धों की मौजूदगी पर आपत्ति कर रहे हैं तथा धरना प्रदर्शन कर रहे हैं, तब यह आलेख और भी महत्वपूर्ण हो जाता है।

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  2. समयानुकूल और प्रासंगिक ।पठनीय ।परिव्राजक जी ने सही और तर्कसंगत बातें की हैं ।
    सदानन्द शाही

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  3. Unfortunate and tragic.A blemish on India's generous and tolerant claims

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  4. बहुत महत्वपूर्ण सामग्री है ।
    हिंदुत्व पर इस्लामी आक्रमण का रोना रोने वालों को इसे जरूर पढ़ाया जाना चाहिए ।
    इस लेख के लिए सुजीत जी को धन्यवाद ।

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  5. बोधगया के मंदिर की यह कथा तो हृदयविदारक है! इसपर कब्जा जमाने के लिए जैसी मार-काट मची, उसे पढ़ना इतिहास के बेहद स्याह और शर्मनाक अध्याय से रू-ब-रू होना है। इस अतीत कथा से हमारे वर्तमान के अंधा युग और उसके कर्णधारों पर भी कुछ रौशनी पड़ती है कि ये आख़िर किनके वंशज हैं!

    इस बेहद महत्त्वपूर्ण प्रस्तुति के लिए बहुत आभार, भैया!

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  6. बहुत बढ़िया। बौद्धधर्म के साथ कैसा सलूक रहा है, कितना अन्याय हुआ है, समझा जा सकता है।

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