मैंने अपने गुरुवर प्रोफ़ेसर अनिल कुमार राय पर एक टिप्पणी फेसबुक पर लिखी। हमने ग्रोक से कहा कि इसमें जो सुधार हो सकता है, उसे सुधार दीजिए।
तो उसने मेरी आज्ञा का पालन यों किया :
आपका लेख बहुत ही हृदयस्पर्शी और प्रेरणादायक है। इसमें प्रो. अनिल कुमार राय के व्यक्तित्व और प्रभाव का बहुत सुंदर चित्रण किया गया है। मैंने इसे पढ़ा और इसमें व्याकरण, शैली, और प्रवाह को और बेहतर करने के लिए कुछ छोटे-मोटे बदलाव सुझाए हैं। मैंने कोशिश की है कि मूल भाव और शैली बरकरार रहे, केवल भाषा को और अधिक संयत और स्पष्ट किया जाए।
नीचे संशोधित लेख प्रस्तुत है :
अवकाशप्राप्त प्रो. अनिल कुमार राय
किसी परिचित के साथ मैं उनके घर गया था। स्थान था मुहम्मदपुर। मुझे देखते ही उन्होंने कहा, "आप फलाँ के पुत्र हैं?" मेरे 'हाँ' कहने पर बोले, "आपका चेहरा अपने पिताजी से मिलता है।" मैं अवाक् रह गया!
यह हमारी पहली मुलाकात थी। साल था 1995।
गाँव के कुछ लोग गोरखपुर विश्वविद्यालय में पढ़ते थे। उनमें से कुछ प्रो. राय की घनघोर प्रशंसा करते थे। उनकी कक्षाओं की तारीफ करते नहीं थकते थे। बात-बात में उनकी बहुत-सी बातें सुनने को मिलती थीं। उस समय मुझे 'तारीफों का पुल' का अर्थ समझ में आया।
उनकी प्रशंसा का असर यह हुआ कि मैं भी गोरखपुर विश्वविद्यालय पहुँच गया। हिन्दी पढ़ने। हालाँकि, मैं हिन्दी विषय नहीं पढ़ना चाहता था। जिन तीन विषयों को मैंने चुना था, उनमें हिन्दी शामिल नहीं थी।
1998 में आजमगढ़ के उत्तरी हिस्से में बाढ़ ने भारी तबाही मचाई थी। गोरखपुर में तो प्रलय जैसी स्थिति थी। सड़कें या तो उखड़ गई थीं या बह गई थीं। महीनों आवागमन बाधित रहा। लोग उजड़ गए थे। सब कुछ प्रलयंकारी था।
उसी दौरान मैंने जोकहरा की लाइब्रेरी से प्रेमचंद की किताबें लाकर पढ़ना शुरू किया।
बाढ़ के कारण गोरखपुर विश्वविद्यालय में प्रवेश प्रक्रिया भी देर से शुरू हुई। अक्टूबर के अंत में मेरा दाखिला हुआ। प्रवेश के समय बताया गया कि अगर मैं विषय बदलना चाहता हूँ, तो बदल सकता हूँ।
प्रेमचंद का असर था। मैंने विषय बदल लिया।
विभाग में, कक्षा में प्रो. अनिल कुमार राय से मुलाकात हुई। वे एकदम अभिभावक जैसे थे। मैं उन्हें 'गुरुजी' कहता तो वे नाराज हो जाते। कहते, "आप हमारे घर के हैं।" मैं उन्हें एकटक देखता रह जाता।
वे न केवल तेजस्वी थे, बल्कि ऊर्जावान भी। कक्षा में उनकी आवाज बाहर तक गूँजती थी। प्रो. चित्तरंजन मिश्र 'गोदान' पढ़ाते थे। एक दिन जब वे कक्षा में आए, तो प्रो. राय की ऊँची आवाज का जिक्र करने लगे। उन्होंने पूछा, "प्रो. राय ने क्या पढ़ाया?" हमने बताया। आश्चर्य की बात, प्रो. मिश्र ने हमसे भी अधिक विस्तार से बताया कि प्रो. राय ने क्या-क्या पढ़ाया। दरअसल, प्रो. मिश्र बाहर कुर्सी पर बैठकर प्रो. राय के व्याख्यान को ध्यान से सुन रहे थे।
प्रो. मिश्र ने हमसे एक महत्वपूर्ण बात कही, "तुम लोगों को प्रो. अनिल कुमार राय से सीखना चाहिए। उनके पास अपार ज्ञान है। उसे हासिल करो।"
प्रो. अनिल कुमार राय सामाजिक व्यवहार में अत्यंत दक्ष हैं। यदि आप उनसे मिले हों या उनके घर गए हों, तो यह बात महसूस कर सकते हैं। उनके सरल और सहज व्यवहार की लोग नकल करते हैं।
मेरे गाँव में एक मास्टर साहब हैं। वे प्रो. राय की हू-ब-हू नकल करते हैं। उनकी तरह बोलने की कोशिश भी करते हैं। एक बार क्या हुआ, मास्टर साहब एक ठेठ गँवई व्यक्ति से बात करने लगे। वह व्यक्ति उन्हें सुनता रहा, फिर खीझकर बोला, "आप तो प्रो. राय की नकल कर रहे हैं।" यह सुनकर मास्टर साहब भाग खड़े हुए।
मेरे एक मित्र ने गाँव में स्कूल खोला। वे उद्घाटन किसी बड़े अधिकारी से करवाना चाहते थे। मैंने उनसे कई सवाल किए। मेरी बातों से सहमत होकर उन्होंने प्रो. अनिल कुमार राय को उद्घाटन के लिए आमंत्रित किया। पंडाल खचाखच भरा था। बैठने की जगह नहीं थी। लोग प्रो. राय को मंत्रमुग्ध होकर सुन रहे थे।
अगले दिन मित्र ने कहा, "लोग प्रो. राय को सुनने आए थे। उनके आने से मेरा कार्यक्रम सफल रहा। यदि किसी अधिकारी को बुलाता, तो इतनी भीड़ न होती।"
मैंने देखा कि मित्र का मन प्रसन्न था।
प्रो. अनिल कुमार राय का चिंतन, सोच-विचार, भाषा पर पकड़, और विषय को व्याख्या करने का ढंग अद्भुत है। मैं उनके जैसा बनना चाहता था, पर बन न सका।
प्रो. अनिल कुमार राय या उनके जैसा बनना मुश्किल है।
आसान है—उनसे मुलाकात करना, बात करना, किसी विषय पर सवाल पूछना और उसका जवाब पाना।
आसान है—मुलाकात के बाद उनसे ईर्ष्या करना कि भगवान ने उन्हें इतना अच्छा क्यों बनाया? कि दुनिया के सारे अच्छे गुण उनमें ही क्यों भरे?
आप दीर्घायु हों। अपनी लेखन और अध्यापन की योजनाओं को पूर्ण करें।
शुभकामनाओं के साथ!
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संशोधन के मुख्य बिंदु :
वाक्य संरचना : कुछ वाक्यों को और स्पष्ट व संक्षिप्त किया गया है, जैसे "मैं अवाक्!" को "मैं अवाक् रह गया!" किया।
विराम चिह्न : उद्धरण चिह्नों और अन्य विराम चिह्नों का उपयोग सुसंगत किया गया।
शब्द चयन : कुछ स्थानों पर शब्दों को और परिष्कृत किया गया, जैसे "घनघोर तारीफ़" को "घनघोर प्रशंसा"।
प्रवाह : कुछ वाक्यों को जोड़ा गया या पुनर्व्यवस्थित किया गया ताकि कथानक का प्रवाह और सुसंगत रहे।
हिन्दी की शुद्धता : "उद् घाटन" को "उद्घाटन" जैसे छोटे सुधार किए गए।
यदि आप और अधिक संशोधन या विशिष्ट बदलाव चाहते हैं, तो कृपया बताएँ!
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