Thursday, April 22, 2021

आर्य समाज का भंगी : श्री कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर'

 


कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर'




"तू बड़ा बदमाश है बे! कल शाम क्यों नहीं आया था? वेतन माँगने तो 20वें ही दिन आ धमकता है और काम करते कलेजा फटता है सूअर का!"

"वेतन ही कौन सा अठमाशी दे देते हैं आप मुझे? इतना बड़ा चौक है, कन्या पाठशाला के कमरे और तीन पाखानों की तरफ़! तब कहीं दस आने पल्ले पड़ते हैं।"

"जहाँ अठमाशी मिले, वहाँ चला जा। बदमाश, गज भर की ज़बान निकालता है हर वक़्त! सारी दुनिया में जो क़ायदा है, वही हम देते हैं।"

 

यह हमारे प्रांत की एक प्रसिद्ध आर्य समाज के महामंत्री और आर्य समाज के मंदिर के भंगी नानक के बीच होने वाली एक आम 'इंटरव्यू' का नमूना है। महामंत्री जी आर्य समाज के बहुत अच्छे लेक्चरार हैं। अछूतोध्दार उनका ख़ास विषय है और उस पर जब वे बोलते हैं, तो कलेजा निकाल कर रख देते हैं। उस समय ऐसा मालूम होता है कि उनके मुँह से मनुष्यता की नदी बह रही है। मनुष्य मात्र की समानता के सिद्धांत का निरूपण करके जब वे अछूतों पर होने वाले अत्याचारों की कथा कहते हैं और पब्लिक की आँखों में भी करुणा की गंगा बह उठती हैं। 

यह हमारे जीवन में बहने वाली विचारधाराओं के दो चित्र हैं, एक व्यवहार का और दूसरा विचार का। विचार वही स्थान है, जो आत्मा  का,पर आत्मा शरीर के साथ ही जैसे काम करती है, वैसे ही विचार भी व्यवहार में आने के बाद ही अपनी शक्ति को प्रदान करता है। ऊपर के चित्र इस बात का प्रमाण हैं कि आज हमारे जीवन में - सिद्धांत और व्यवहार में एकता नहीं है। यह भयंकर स्थिति है। 

(1942)

 

 

 

Friday, February 26, 2021

गोरखपुर की पत्रकारिता

 गोरखपुर जनपद साहित्य के क्षेत्र में कितना उर्वर है, इसे हम जैसे विद्यार्थी बहुत ही कम जानते हैं। यों कहिए कि कुछ नहीं जानते। गोरखपुर की नागरी प्रचारिणी सभा के अनुमोदन से पंडित मन्नन द्विवेदी गजपुरी लिखित एक पुस्तिका सन् 1911 ई. में गोरखपुर विभाग के कवि शीर्षक से छपी थी। इसमें आज़मगढ़ और बस्ती ज़िले के कवि तो हैं ही गोरखपुर के गोपालपुर, मझौली, गजपुर, गगहा, कोठा आदि के रचनाकारों का भी ज़िक्र है। 


पीपीगंज से कवि (1909) नाम की पत्रिका निकलती थी तो गगहा से समालोचक (1925)। विशुनपुर से प्रभाकर (1915) पत्रिका की प्रशंसा मैनपुरी निवासी नारायणप्रसाद गौड़ ने अपनी पत्रिका में की तो गोरखपुर के ही शिवकुमार शास्त्री सम्पादित ज्ञानशक्ति  (1916) की समीक्षा और प्रशंसा भानुंजय सहाय, रामजी लाल शर्म्मा और कृष्णकांत मालवीय ने अपने-अपने पत्रों में। स्वदेश के बारे में सभी जानते ही हैं। 1921 में विन्ध्यवासिनी प्रसाद बीए, एलएलबी के संपादन में 'युगांतर' (साप्ताहिक) निकला और इसका चरखा-अंक बहुचर्चित रहा। बहरहाल... मैं ज़्यादा विस्तार में न जाकर मूल बिंदु पर आना चाहूँगा। उपर्युक्त पत्रिकाएँ तो इतिहास में दर्ज़ हैं लेकिन जो बात मुझे कचोट रही है, वह है एक ऐसी पत्रिका जिसके सम्पादक से मेरी बातचीत है। जिनके घर से मेरा निकटतम संबंध है। उनके कृतित्व के बारे में थोड़ा बहुत जानता भी हूँ। 

इलाहाबाद के हिंदी साहित्य सम्मलेन में सारिका उलटते-पलटते जब उनका नाम देखा तो मन कितना उदास हो गया, यह बता पाना यहाँ कठिन है। यह सब पढ़ते हुए गोरखपुर विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष और मेरे आदरणीय गुरुदेव प्रो. अनिल कुमार राय का सम्पूर्ण व्यक्तित्त्व मेरे ज़ेहन में आ गया। आग का राग! बस्स, यही एक नाम। अपने गुरुदेव से उनके व्यक्तित्त्व और कृतित्त्व के संबंध में न हमने कभी पूछा और न उन्होंने कभी बताया। 

जी हाँ, मैं बात कर रहा हूँ श्री माधव मधुकर जी के बारे में। 

कन्हैयालाल नन्दन संपादित 1 दिसंबर 1978 की सारिका में नयी पत्रिकाएँ स्तंभ में रमेश बत्तरा ने श्री माधव मधुकर संपादित संभावना की एक दिलचस्प समीक्षा लिखी है। गोरखपुर की साहित्यिक पत्रिकारिता में जो एक आग है, वह इस समीक्षा द्वारा समझा जा सकता है। पूरी समीक्षा यों है-

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संभावना (सं: माधव मधुकर) राजभवन, रायगंज, गोरखपुर। 

किसी पत्रिका द्वारा रचनाओं और चयन की दृष्टि से व्यक्ति और दल की सीमाओं से ऊपर, सही रचना चुनने की 'विनयपूर्वक' दी गयी सूचना को 'निरपेक्ष उफानदारी' माना जाए या अमूर्त्त संपादकीय व्यक्तित्त्व अथवा अपने तौर पर 'कीचड़-कमल' के गुमान में गुम एक और अ-दलगत अखाड़ा? 'संभावना' ने जो कुछ कहना चाहा है, उसे इस स्तर भी स्पष्ट  कर दिया होता तो इसके आसार और भी बेहतर हो जाते हैं, क्योंकि जब तक यह सवाल साफ़-साफ़ जवाब नहीं पायेंगे तब तक सामाजिकता, परिवर्तन, क्रांतिकर्म, प्रगतिशील आदि शब्द अपने सही अर्थ हासिल नहीं कर पायेंगे। 

इसके बावज़ूद प्रस्तुत अंक में 'कविता' को मिट्टी की गंध में से खगालने की कारगर कोशिश की गयी है। रमेश रंजक, हरिहर द्विवेदी, आलोक धन्वा, श्रीहर्ष, विनय श्रीकर की रचनाओं  सन्दर्भ में सवालों से जुड़-जुड़कर जवाब भी देते हैं और वर्तमान हिंदी कविता में यह प्रवृत्ति संभव है। अपने इस प्रारूप में कविता को फिर से इसकी खोयी हुयी जनप्रियता दिलवा दे-

खामोश मत देखो 

भूखी लाश को खाली पड़े कटोरे-सी 

या गोली मारे गए आदमी को 

खून सने बोरे-सा 

जबान खोलो ...  (सर्वेश्वर)

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मैं समझता था कविता लिखना, खबरें लिखने से बड़ा काम है 

और वह आदमी सचमुच महान है 

जो अपनी कविताओं में ख़तरनाक़ खबरें सुनाता है 

और 'अभिव्यक्ति के खतरे' उठाता है। (कुमार विकल) 

कविताओं का य.............  मूलत: परिचर्या (समकालीन ....... कुछ सवाल) में भी उभरा है और विशेषतः चंचल चौहान के कथन में कि - छंद लोक का हो या परलोक का, तब तक कुछ न कर पायेगा जब तक कवि उसमें सही समझ और संवेदना को व्यक्त नहीं करता।

'संभावना' में दिविक रमेश, नचिकेता, दिनेश जोशी, अश्वघोष, ठाकुर प्रसाद सिंह, डी.प्रेमपति, शिवशंकर मिश्र, अजातशत्रु और मैनेजर पाण्डेय की रचनाएँ अपने आप उल्लेखनीय हैं। 'सताये हुए लोगों के पक्षधर' ये साहित्यिक कविता के परिप्रेक्ष्य में जितनी ज्वलंत और तथ्यात्मक स्थितियों का पर्दाफ़ाश कर पाये हैं, तुलना में 'कहानीपक्ष' उतना ही कमजोर और बेजान है। इस संदर्भ में 'कहानी के अभाव' को देखते हुए हमारे चिंतक-समीक्षक क्या सोच या तय कर रहे हैं? यह सवाल जवाब मांगता है। ■ र.ब.


(............ अस्पष्ट)

 


प्रस्तुति : सुजीत कुमार सिंह 

Wednesday, January 20, 2021

हंस का रेखाचित्रांक : आशीष सिंह



(एक)

आज हमारे बीच  हिन्दी गद्य की विविध विधाओं में से अधिकतर उपन्यास, कहानी, साक्षात्कार, यात्रा वृतांत  , समीक्षा, जीवनी  का ही  जिक्र ज्यादा मिलता है। हम सोचते हैं और सोचते रह जाते हैं कि पिछली बार किस पत्रिका में कोई विचारपरक निबंध, ललित निबंध या रेखाचित्र जैसे लगभग भुलाई जा रही गद्य विधाओं को पढ़ा था या देखा था। अगर कोई नाम याद आता भी है तो कभी कभार 'यायावर की डायरी ' के लेखक सत्यनारायण जैसे एकाध भूले भटके साहित्यकारों की लेखनी से उभरे शब्दचित्रों तक आकर ठहर जाता है। आखिर इसकी क्या वजहें हो सकती हैं ! मन लगातार सोचता है। क्या आज कहानी -उपन्यास जैसे पहली पंक्ति में दर्ज होने वाली विधायें अपने में ललित निबंध या शब्दचित्र के बहुलांश रूप में समेट ले रही हैं इसीलिए स्वतंत्र रूप से इनकी जगहें सिकुड़ती जा रही हैं या कुछ दूसरी वजहें हैं?  रम्य गद्य रचनाओं के जरिए आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, धर्मवीर भारती, विवेकी राय, विद्यानिवास मिश्र, कुबेरनाथ राय जैसे तमाम साहित्यकारों ने अतीत में गंभीर से गंभीर विषय को बेहद संप्रेषणीय सहज लहजे में पाठकों तक पहुंचाने का काम किया है । खैर !

आज जब इस किताब को  जिसे आधुनिक हिन्दी साहित्य के अध्येता व पुरानी साहित्यिक पत्रिकाओं के पीले पड़ चुके हर्फो को आहिस्ते-आहिस्ते टटोलकर बाहर लाने की कोशिश में लगे भाई सुजीत कुमार सिंह ने प्रस्तुत किया है, देखकर कुछ कहे बगैर मन मान नहींं रहा। इस किताब पर पहले भी लोगों ने अपनी बातें कही होंगी और आगे भी कहेंगे। इस किताब में मौजूद सामग्री की ऐतिहासिक महत्ता ही नहीं बल्कि हिन्दी भाषा के लिए समर्पित सम्पादकों की अटूट निष्ठा भी हम तक हस्तान्तरित हो रही है। शब्दचित्र, नखचित्र या रेखाचित्र के नाम से जानी जाने वाली चर्चित गद्य विधा के बिल्कुल शुरूआती समय में स्थापित करने की कोशिशों का एक नमूना भी यहाँ देखने को मिलता है। मार्च 1939 का हंस रेखाचित्रांक के रूप में निकला था, जिसके सम्पादक श्रीपत राय जी थे। उन्होंने हिन्दी गद्य में उभरती एक नयी विधा 'रेखाचित्र' को रेखांकित करने के लिए ही हंस का यह अंक प्रकाशित किया था। इस अंक में न केवल तत्कालीन साहित्यिक हस्तियों के व्यक्तिव का रेखांकन मिलता है बल्कि साथ ही साथ उनकी  वैचारिकी का सांगोपांग चाक्षुष छवि देखने को मिलती है। जैसे निराला के बारे में आलोचक रामविलास शर्मा "निराला" शीर्षक से लिखे रेखाचित्र में कहते हैं कि 

उनकी कविताओं में जो अद्भुत पुरुषार्थ व्यक्त है, जो विद्रोह की, विजय-कामना की भावना वर्तमान है, वह बैसवाड़े की भूमि की श्रेष्ठ देन है। सड़कों पर मैले कुचैले कपड़े पहने, तोहमत में स्याही का भारी धब्बा लगा हुआ, फटे चप्पल या नंगे पैर बड़े बाल रखाये उसे लापरवाही से अमीनाबाद में चलते देखा है। लोगों ने कहा - 'जानबूझकर कहता है सनकी है'। कुछ नहीं, वह सामाजिक विद्रोह की भावना मात्र थी। 'तुमने कपड़ों को पूजना सीखा है ,मनुष्य का आदर करना नहीं। 'देवी' कहानी में 'निराला' ने पगली को देवी बनाके पूजा है।  


आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का स्केच खींचते हुये जाने-माने अभिनेता व लेखक बलराज साहनी मंद स्मित भावभंगिमा भरी भाषा-शैली का प्रयोग करते हुए अपनी बात कुछ इन शब्दों से शुरू करते हैं :

द्विवेदी जी में एक दोष है। ढीलम-ढालम रहते हैं, हजामत हफ़्ते में एक बार से अधिक नहीं करते; तिस पर जो व्यक्ति पहली नज़र में उन्हें जंच जाए उसकी खैर, जो न जंचे  उसे सामने बिठाकर उसके मुंह की ओर देखते रहते हैं। इसलिए कई महानुभाव शान्ति-निकेतन से यह धारणा बनाकर लौटते हैं कि द्विवेदी जी वैरागी आदमी हैं। 


'भेड़िए ' कहानी के लेखक और कई एब्सर्ड एकांकी के रचनाकार भुवनेश्वर प्रसाद  शब्बीर हसन 'जोश' मलीहाबादी पर लिखते हुए बड़ी मानीखेज तथ्य सामने रखते हैं। वे 'जोश ' को इंकलाबी शायर ही नहीं बल्कि सही मायने में भारतीय परम्परा को देखने वाले शायर बताते हुए कहते हैं कि -

तो जोश के कवित्व के उद्गम की खोज कहाॅं की जाय । 'जोश' अंग्रेजी कविता और साहित्य से अछूता है, इतनी अंग्रेजी कभी जानी नहीं। इक़बाल के "पैन इस्लामिज़्म'' का उस पर असर नहीं पड़ा। वह सन् 1920 तक में खि़लाफत आन्दोलन का कायल न हो सका । उसके प्रिय कवि हैं हजार साल पुराने 'का़वी ' और 'फिरदौसी'।


फिरदौसी ' ईरान का हेलर है। यही नहींं, दसवीं शताब्दी में 'फिरदौसी' ने ही अरबों के विरुद्ध झंडा गाड़ा था, जब उसने इस्लामी बुजुर्गों के गीत न गाकर यारा, नौशेरवां, रुस्तम और सोहराब का राग अलापना शुरु किया। लेकिन वह विद्रोह बहुत निर्बल था। ईरानी जन-समुदाय उससे उदासीन था और अब तक रहा। तभी तो मरने पर 'फिरदौसी' को सार्वजनिक कब्रिस्तान में दफ़न करने की इजाज़त नहींं मिली, और मजबूरन वह अपने घर में दफ़न किया गया। हजार साल तक 'शाहनामा ' ईरान में ही नहींं, भारत तक में, बहुत लोकप्रिय रहा सो भी काव्य रसास्वाद और मनोरंजन के लिये, जातीय जोश को उभारने के लिये नहींं। किन्तु महासमर के बाद ईरान के नवयुग में 'शाहनामा' ईरान का वेद है, 'फिरदौसी' ईरान का ब्रह्मा  है। 'फिरदौसी' की क़ब्र को लोग बिलकुल भूल गये थे। बड़ी मुश्किल से तूसी शहर के खंडहरों को खोदकर वह निकाली गई, और ईरान ने अपनी खानों के कीमती संगमरमर से उसका आलीशान मक़बरा बनाया। दरवाजों और दीवारों पर 'शाहनामा' के प्राचीन ईरानी वीरों और सम्राटों की मूर्तियाँ खोदी गई हैं। यह सरासर इस्लाम के खिलाफ है। 'जोश' अगर राष्ट्रीय कवि है तो वह बहुत अंश में 'फिरदौसी' की तरह। वह भी प्राचीन गौरव की दुहाई देता है, वह भी बीते हुये को गर्व और जलन से देखता है और वर्तमान पर आठ-आठ आंसू रोता है, दांत किटकिटाता है। उपमाओं में अर्जुन और अभिमन्यु को याद करता है और तलवार ऐसी चीज़ की याद दिलाता रहता है ।

 'जोश ' हिन्दुस्तान का 'फिरदौसी 'ही नहींं है वह विक्टर ह्यूगो भी है।

'जोश' क्रांति का कवि है न।


  (दो)                             

सियारामशरण गुप्त पर लिखते हुए अज्ञेय ने उनके निष्ठा, सहजता और  ज्ञान पिपासु छवि का सुंदर रेखांकन प्रस्तुत किया है। राहुल सांकृत्यायन, मैथिलीशरण गुप्त, बच्चन, दिनकर, श्यामसुंदर दास, महादेवी वर्मा, जैनेंद्र, काका कालेलकर, जैसे तमाम हिन्दी सेवियों के साथ ही सम्पूर्णानन्द, बाबूराव विष्णु पराड़कर जैसे पत्रकारों-राजनीतिज्ञों के विचारवान व्यक्तित्व की झांकी प्रस्तुत करते रेखाचित्र भी हैं। अहिन्दी भाषा-भाषी क्षेत्र के लेखकों, विचारकों पर लिखे शब्द चित्र को अनुवाद कराके श्रीपत राय जी ने हंस में प्रकाशित कराया। एक तरह से यह प्रयास रेखाचित्र के तत्कालीन  अखिल भारतीय रूप की निशानदेही भी करती है। हमारे पूर्वजों के द्वारा हिन्दी के संवर्धन के लिए किये प्रयासों को याद दिलाती यह प्रस्तुति उल्लेखनीय है। प्रस्तुतकर्ता व सम्पादक  सुजीत कुमार सिंह जी का यह काम बड़े महत्व का है ।                             

और अन्त में भूमिका में उद्धृत एक वाकये का जिक्र किये बगैर मन मान नहीं रहा तथैव वह चित्र व संदर्भ आपके लिए प्रस्तुत है। यह संदर्भ हिन्दी की विविध विधाओं की अधोगति या एकांगी विकास को चिन्हित करती आज भी उतनी ही तीखी टिप्पणी सी लगती है- 

हिन्दी की इस अवस्था को ही देखकर आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने फरवरी-मार्च 1903 की 'सरस्वती' में 'साहित्य समालोचना/ साहित्य सभा ' शीर्षक एक व्यंग्य चित्र प्रकाशित किया था। इस चित्र में नौ कुर्सियाँ हैं जिसमें पहली कुर्सी 'इतिहास' की है जो खाली है। दूसरी 'जीवन चरित' की है‌, वह भी खाली है। तीसरी कुर्सी 'पय् र्यटन' की है जिस पर एक बाबू साहब बैठे हुए हैं। चौथी कुर्सी 'समालोचना' की है जिस पर हाथ में दर्पण लिए मनुष्य वेश में एक बन्दर बैठा है। पांचवी कुर्सी  'उपन्यास' की है। कुर्सी के पास एक बंदर-बकरी लिये एक मदारी को खड़ा दिखलाया गया है। छठीं कुर्सी 'व्याकरण' की है, जिसे महावीरप्रसाद द्विवेदी ने 'व्या-(धि ) -करण' लिखा है। सातवीं  'काव्य' और आठवीं 'नाटक ' की है । 'नाटक'  वाली कुर्सी पर एक कृशकाय मनुष्य बैठा है जिसकी ठठरियां दिख रही हैं। नौवीं कुर्सी ' कोश ' की है और खाली है। इस साहित्य-सभा को देखकर सरस्वती माता रो रही हैं। महावीरप्रसाद द्विवेदी की व्यथा को आसानी से समझा जा सकता है।   

प्रतीकात्मक तौर पर प्रस्तुत यह व्यंग्यात्मक रेखांकन बहुत कुछ कह दे रहा है। यह उस समय के लेखकों के साहित्य और जीवन को देखने के नजरिए का दर्शन भी कराता है।

अपनी पुरानी पोथियों से खंगाल कर बहिरियाने का उद्यम प्रशंसनीय है, कीमती भी है। हम सब हिन्दी पाठकों के लिए एक जरूरी पुस्तक है यह।


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हंस का रेखाचित्रांक 

भूमिका एवं प्रस्तुति : सुजीत कुमार सिंह

प्रकाशक- 

शिल्पायन 

10295, लेन नं. 1, वेस्ट गोरखपार्क,

शाहदरा, दिल्ली -110032

silpayanbooks@gmail.com


मूल्य -  300 ₹  (पेपरबैक)

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आशीष सिंह 

युवा आलोचक,

लखनऊ (उत्तर प्रदेश)