Saturday, May 23, 2020

क्या सीता त्याग उचित था ? : मायावती जैन




श्रीराम द्वारा सीता त्याग सिर्फ कल्पना का परिणाम तो नहीं मालूम होता, क्योंकि बाल्मीकि रामायण में भी यह घटना वर्णित की गयी है। आदि कवि ने इस प्रसंग का जैसा वर्णन किया है, उससे जाना जाता है कि निस्संदेह सीता का त्याग किया गया था। इस विश्व विदित घटना की चार बातों गौर करना चाहिए -

(1) क्या सीता त्याग उचित था?
(2) इस त्याग के लिए उल्लिखित कारण उचित था?
(3) यह त्याग धर्म था?
(4) उस समय की परिस्थितियों में क्या सीता त्याग आवश्यक था?

यह घटना उस समय हुई, जब राम चौदह वर्ष बाद लौटकर अयोध्या का साम्राज्य वापिस पा लेते हैं तथा आदर्श राजा बनकर प्रजा के हृदय में अमृत सींचते हैं। कवि बतलाते हैं कि राम के राज्य में एक भी अन्याय का काम नहीं हुआ तथा किसी राज सेवक द्वारा प्रजा को कष्ट दिया गया, ऐसा भी कभी नहीं सुना गया।

इस प्रकार राम राज्य में प्रजा निश्चिंत भाव से रहती है, वहां एक शाम को अयोध्यावासी आश्चर्यचकित और किंकर्तव्यविमूढ़ होकर सुनते हैं कि राम ने राजरानी सीता का सदैव के लिए परित्याग कर दिया। वृद्ध प्रजाजन सिर ठोंक रहे हैं, वृद्ध स्त्रियां एकत्र हो यही चर्चा कर रही हैं, युवतियां पतियों से, बालक माताओं से पूछते हैं, क्या हुआ? यहाँ तक कि राज्य के मंत्रियों तक को  त्याग के कारण या सबब का पता तक न था। राज-माताएं भयभीत होकर दासियों द्वारा घटना का कारण जानना चाहती हैं। किसी को कुछ मालूम ही नहीं है। भरत और शत्रुघ्न स्तब्ध हो जाते हैं। राम के पास जाने की किसी की हिम्मत ही नहीं होती। वशिष्ठ की प्रखर बुद्धि भी क्षण भर के लिए स्तब्ध हो जाती है। सिर्फ राम और लक्ष्मण तथा वन में जाने के बाद सीता को इसका कारण मालूम था। रामायणकार ने जो कारण बतलाया था, वह यह है :-

राम का गुप्तचर शहर में क्या-क्या चर्चा होती है, यह जानने के लिए शहर का चक्कर लगा रहा था। उसने धोबी दंपति को बातें करते सुना, उसके कानों में शब्द गए कि रावण के महल में सीता काफी समय तक रही, फिर भी उसे शुद्ध मानकर राम ने स्वीकार कैसे कर लिया? गुप्तचर ने आकर यह बात राम से कही, बस! इसी बात पर राम सीता के त्याग का निश्चय और निश्चय को कार्य रूप में परिणित करते हैं।

राम सोचते हैं, 'मेरी प्रजा मेरी प्रिय देवी के लिए ऐसे विषम शब्द कहती है...देवी तो विशुद्ध है ही, पर...? पर इस समय मेरा धर्म क्या है? इस भयंकर आक्षेप के निवारण के लिए मुझे क्या करना चाहिए? प्रजा के मन में यह बात तो नहीं है कि राम अपनी स्त्री का पक्षपात करता है? मैं पक्षपात नहीं करता, फिर राम के यश:शरीर पर यह दाग क्यों रहे? किसी का पक्षपात किया तो वह राम राज्य क्या, कैसा?


 इस प्रकार विचार-मंथन के उपरान्त बिना किसी से सलाह लिए ही मन की सहायता से राम ने उक्त निश्चय किया कि सीता का त्याग करने से ही छुटकारा है। लक्ष्मण की गद्गद प्रार्थनाओं के बावजूद, कुलगुरु की सम्मति जाने बिना ही, राज्य माता को अंधकार में रखकर तथा सीता को अंतिम दर्शन दिए बिना, राम सीता को लक्ष्मण के साथ महा वन में भिजवा देते हैं।


डेनमार्क के राजकुमार की कुछ कम या ज्यादा ऐसी ही अवस्था हुई थी। शेक्सपीयर ने अपने नाटक में ऐसा ही दिखलाया है। अपनी मां को चाचा के प्रेम  पड़कर पिता का खून कराते देखकर हेमलेट का हृदय चूर-चूर हो जाता है। क्या करे? क्या न करे? वह कुछ भी समझ नहीं पाता। चाचा को मार डालूं या अपनी हत्या कर लूं? उस समय वह To be or not to be के फेर में पड़ जाता है। दुर्भाग्य से हेमलेट को सच्ची सलाह देने वाला नीतिज्ञ नहीं था, अत: हेमलेट का पतन होता है, किन्तु राम के सामने तो सकल शास्त्र विशारद, नीति तत्व के गहन विचारक, महातपस्वी वशिष्ठ उपस्थित थे। राम के पिता और पितामह वशिष्ठ से प्रेरणा पाते थे। राम ने उन वशिष्ठ से भी सलाह न ली! निश्चयात्मक बुद्धि पर कितना असीम, साथ ही कितना अविचारी अंधविश्वास था? उस समय राम को कौन समझाता कि विपत्ति के समय धीर वीरों की मति भी मलिन हो जाती है। शायद किसी ने कहा भी हो तो उस समय राज्य पालन के अभिमान से राम के कान बंद हो गए थे।

साधारणतया एक नज़र में राम का यह कार्य कितना उदात्त, धर्मयुक्त और मर्यादाशील मालूम होता है। प्रजा की शिकायत या नाराजी का  कारण न रहना चाहिए,  महातपस्या के अग्निकुंड में प्राण प्रिय सीता की आहुति देने में भी राम नहीं हिचके। हृदय टूक-टूक हो रहा होगा, दुःख के भर से मन पिस होगा तब भी राज्य पालन और प्रजानुरंजन के लिए राम ने महान बलिदान किया। साम्राज्यवादियों की दृष्टि में सचमुच यह महान बलिदान था, है। राम पर चारों तरफ से फूल बरस रहे होंगे?  राम की दुंदुभि चारों दिशाओं में गूँज उठी होगी, किन्तु राजा राम से पति राम या मनुष्य राम की हैसियत से राम के इस कृत्य पर विचार किया जाए, तो? मनुष्य ताज पहनकर सम्राट बनता है, पर वह मनुष्य ही रहता है। साम्राज्य की सेवा करता हुआ वह मनुष्य धर्म नहीं छोड़ सकता। साम्राज्य आज है कल नहीं। किन्तु मनुष्य तो जन्म से मृत्यु तक अविच्छिन्न है। सम्राट धर्म के पालन के लिए वह मनुष्य धर्म छोड़कर पशु बने, इससे अधम दशा कल्पना में नहीं आ सकती। मनुष्य धर्म के सामने क्षणिक भोगशील सम्राट धर्म की कोई कीमत नहीं हैं। और -

न जातु कामात् न भयात् न लोभात्। 
धर्मत्यजेत्          जीवितस्यापिहेतो:।।


रावण के यहाँ रहने पर, उसके वध के बाद सीता राम से मिलने आती है, राम सीता को स्पर्श नहीं करते  हैं और कहते हैं कि "तुम शुद्ध हो, इसे मैं निश्चय पूर्वक मानता हूँ, किन्तु मैं दुनिया को कैसे मनाऊं और वह कैसे माने? इसलिए अग्नि तुम्हें शुद्ध प्रमाणित करे तो मैं तुम्हें स्वीकार कर लूं।"


हजारों बानरों, राक्षसों, विभीषण आदि के सामने सीता ने अग्नि प्रवेश किया, अग्नि ने सीता को शुद्ध सिद्ध किया और राम ने उसे स्वीकार किया। यह घटना घर के किसी कोने में नहीं हुई थी, उस समय वहां असंख्य समुदाय उपस्थित था। इस घटना के बाद राम अयोध्या आते हैं, उनके साथ हनुमान, सुग्रीव आदि भी अयोध्या आते हैं। इन लोगों ने कम-से-कम राम की प्रशंसा के लिए ही सही, यह बात जरूर कही होगी तथा प्रत्येक अयोध्यावासी यह बात जानता ही होगा। इसके बाद भी धोबी दंपति ऐसी बात करे तो राम से कैसे सहा जाए? वशिष्ठ स्मृति में व्यभिचारिणी स्त्री का वध धर्म माना है, परन्तु राम सीता को निर्दोष मानते थे, इसलिए आजीवन देश निकाले की सजा दी।


राम का यह काम कितना निष्ठुर, कितना दयाहीन, कितना अधम मालूम होता है। इस कृत्य से हम राम को पुरुषोत्तम पद के महाशिखर से गिरते देखते हैं। देश निकाले की सजा पाए हुए अपराधियों को भी राज्य सुरक्षित स्थान पर भेजता है। उनके शरीर और प्राण की रक्षा राज्य की तरफ से की जाती है। किन्तु  सीता को भयंकर वन में जंगली पशुओं के भक्षण के लिए छोड़ दिया जाता है। कवि यह भी लिखते हैं कि राम जानते थे कि सीता उस समय गर्भवती थी। 

जिस सीता ने महाराज्य के ऐश्वर्य को लात मारकर, चौदह वर्षों तक वन में साथ निभाया, निरंतर ब्रह्मचर्य का पालन कर, पतिपरायणा रह, पति की सेवा की, उसे कितना सुन्दर प्रतिफल मिला?

एक बात और भी है, सीता स्वेच्छा से रावण के यहाँ नहीं गयी थीं, नहीं रही थीं। यह बात भी राम जानते थे, फिर भी सीता को वन भेजने के पहले उसे सफाई देने के लिए क्षण भर का समय भी नहीं दिया गया। राम स्वयं ही फरियादी, गवाह, प्रमाण, जज बन बैठे हैं तथा अंत:करण पर दबाव डालकर मनचाहा फैसला कर डालते हैं।

राम धोबी दंपति की बात की अवगणना करते तो अयोध्या की प्रजा के दिलों में तूफ़ान न आ जाता, राम राज्य के यश कमल की एक पंखुरी भी न मुरझाती, धोबी दंपति के भाग्य में दोनों तरह से फटकार ही लिखी थी। सीता त्याग के बाद भी इस दंपति को बेहद तिरस्कृत होना पड़ा होगा तथा राम सीता का त्याग न करते, तब भी प्रजा की फटकार उन्हें सुननी ही पड़ती। सीता सोलहों आने निर्दोष थी और प्रजा कभी भी निर्दोष को सताया जाना पसंद नहीं करती।  इन बातों से लेख के प्रारम्भ के उत्तर ये होते हैं -


  1.  सीता त्याग उचित न था। 
  2.  त्याग का कारण वास्तविक नहीं मालूम होता। 
  3.  त्याग धर्म नहीं था, क्योंकि इस निर्णय के साथ धर्मशास्त्र की स्वीकृति नहीं थी। 
  4.  उस समय की परिस्थिति देखते हुए सीता परित्याग बिल्कुल आवश्यक नहीं था। नीति, धर्म, समानता के सूक्ष्म दर्शक यन्त्र से राम का यह कार्य देखा जाये तो इस कार्य की कोई उचित कैफ़ियत नहीं मिलती, नहीं मिल सकती। 



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(महिला, अक्टूबर 1938)

Saturday, May 16, 2020

अछूत : हिन्दी नवजागरण का अमूल्य दस्तावेज

सुरेश कुमार 
    
युवा शोध आलोचक सुजीत कुमार सिंह द्वारा संकलित-सम्पादित कहानी संग्रह अछूत : राष्ट्रवादयुगीन (1920-1940 ) दलित समाज की कहानियां हिन्दी नवजागरण का एक खोया हुआ महत्वपूर्ण अध्याय है, जिस पर हिन्दी नवजागरण पर काम करने वाले विद्वानों की दृष्टि नहीं गई थी। इन कहानियों को खोजकर उन्होंने नवजागरणकाल की सच्ची तस्वीर भी प्रस्तुत की है। सुजीत कुमार सिंह ने इस कहानी संग्रह में नवजागरण काल के गुमनाम हिन्दी लेखकों की उनतालीस कहानियों को खोजकर संकलित किया है। ये कहानियां गैर दलित लेखकों द्वारा दलित समाज की समस्याओं को केन्द्रित कर के लिखी गई हैं। इन कहानियों को सुजीत कुमार सिंह ने कई वर्षों तक अथक परिश्रम करके नवजागरणकालीन हिन्दी की पत्रिकाओं से खोज कर सामने लाए हैं। उन्होंने इन कहानियों को बिना किसी काट-छाँट के मूल स्वरुप में रखा है। 


इनमें अछूत- श्री उग्र, प्रतिशोध- प्रतापनारायण श्रीवास्तव, सम्पत पासी-विशम्भरनाथ शर्म्मा कौशिक, बुद्धू-कुलदीपसहाय बी.ए., पिता-पुत्र-श्रीनाथ सिंह, बदला’-श्रीयुत ऋषभचरण जैन, हसीना- श्री श्यामपति पान्डेय,बी.ए., तेजो की झोपड़ी- श्री पृृथ्वीनाथ जी शर्मा, अछूत-पण्डित तारादत्त उप्रेती, अछूत की बेटी- श्री डा. रघुवरदयाल जी एस.ए.एस., मन्दिर प्रवेश- श्री रघुनाथ सहाय, रामू भंगी- श्रीयुत इन्द्र यू. वसाव़ड़ा ,बांसरी-डा. धनीराम प्रेम,कायापलट- भाई सोमदत्त विद्यालंकार, महन्त जी - राजाराम खरे आदि कहानियां संकलित हैं। सुजीत कुमार सिंह सम्पादित  अछूतकहानी संकलन हिन्दी साहित्य में एक बड़ी देन के रुप में देखा जाना चाहिए।


हिन्दी नवजागरणकाल की बात करें तो सन् 1920 से लेकर 1940 के बीच कई महत्वपूर्ण घटनाएं घटी थीं। इनमें पहली घटना स्वामी अछूतानंद द्वारा आदि हिन्दू आन्दोलन की स्थापना, साइमन कमीशन का आगमन, संतराम बी.ए. का जाँति-पाति तोड़क मण्डल और सन् 1935 में बाबा साहेब डा. भीमराव अम्बेडकर की यह घोषणा कि मैं हिन्दू धर्म में पैदा जरुर हुआ हूॅ, लेकिन हिन्दू धर्म में मरुंगा नहींअर्थात हिन्दू धर्म को छोड़कर  किसी और धर्म को ग्रहण कर लूँगा। इन घटनाओं ने नवजागरणकालीन लेखकों, संपादकों और विचारकों को अन्दर से झकझोर दिया था। इन घटनाओं के चलते उस समय के लेखक यह सोचने पर मजबूर हुए कि यदि वर्ण- व्यवस्था और छुआछूत  खत्म नहीं हुई तो अछूत उनके हाथ से निकल जाएगें। यानि कि वे हिन्दू धर्म को छोड़कर मुसलमान या इसाई बन जाएंगे। अछूत धर्मान्तरण न करें इस उद्देश्य को लेकर नवजागरणकाल की अनेक पत्रिकाएं - चांद, सुधा, विशाल भारत, सरस्वती,युगान्तर, विश्वमित्र, मर्यादा, माधुरी, ब्राह्मण सर्वस्व, मनोरमा आदि अछूतोद्धार आंदोलन में कूद पड़ीं।


इस संग्रह की पहली  कहानी श्री उग्र की अछूत है। यह कहानी मर्यादापत्रिका में छपी थी। इस संग्रह में अछूतशीर्षक से ही कुल ग्यारह कहानियां संकलित हैं। इन सभी कहानियों का तानाबाना और इनका सुर लगभग एक-सा है। श्री उग्र की कहानी की शुरुआत इस तरह से होती है - 

नवपुर के पण्डित देवर्षिदत्त त्रिपाठी काफी प्रसिद्ध हैं, उनकी प्रसिद्धि का प्रभाव यह कि उनकी यजमानी पूरे गांव में चलती है, उनके केवल एक सन्तान है जिसका नाम सुभद्रा है। इसी गांव में रामू नाम का एक चमार रहता है जो अपनी जीविका जूता गांठ के चलाता है। रामू के केवल एक बेटा है, जिसका नाम किसुन है। सुभद्रा और किसुन एक साथ खेलते हैं। लेकिन सुभद्रा के पिता को यह पसन्द नहीं है कि उसकी बेटी किसी अछूत यानि चमार के बेटे के साथ खेले। एक दिन सुभद्रा के पिता ने उसे किसुन के साथ खेलते हुए देख लिया। इस बात को लेकर उसने किसुन की जमकर पिटाई की। वह कहता है कि ‘‘चमार ससुरे ! तुझे  और कहीं जगह नहीं थी जो यहां आया ? अब फिर कहीं दिखाई पड़ा तो जान ले लूँगा। किसुनने देखा कि उक्त बातें सुभद्राके पिता के मुख से निकल रही थीं। वह एक साँसमें वहाँसे भागा। चोट लगने पर सुभद्राके घरके बाहर आये बिना उसे रोया नहीं गया।इस घटना का किसुन पर प्रभाव यह पड़ता है कि वह  गांव छोड़कर चला जाता है। कहानीकार अपने लक्ष्य पर आता है और किसुन के पिता रामू चमार के मुख से यह कहलवाता है कि ‘‘मेरी सम्मति तो यहाँ तक दृढ़ है कि हमें अछूत समझनेवालों को अपनी करनी पर अवश्य पश्चाताप करना पडे़गा। लोग कैसे मूर्ख हैं कि जब तक चमार हिन्दू रहता है तबतक तो वह अछूत है, पर प्रभु ईसा की चरणों में जाते ही- बपतीसमा लेते ही- उसमें पवित्रता आ जाती है। वह ढोंगियोंका देवादिदेव हो जाता है। धिक्कार है ऐसे विचारवानों को!’’ 

संग्रह की दूसरी कहानी भी अछूत है। इस कहानी के लेखक कृष्णानंद गुप्त हैं। लेखक बताता है कि चतुर्भुज शर्मा एक अछूत गरीब की दशा को देखकर द्रवित हो जाते हैं लेकिन जब उन्हें यह पता चलता है कि वह बूढ़ा व्यक्ति भंगी समाज से है तो उनकी सहृदयता दूर हो जाती है- "उन्होंने बूढ़े को छूआ ही था कि वह बोला - ‘‘बाबू जी मैं भंगी हूँ।’’ मानो बंदूक की गोली लगी हो। शर्मा जी एक कदम पीछे हट गए। दुराग्रही पवित्रता ने डपटकर कहा - छिः ! छिः! कहां सवेरे से भंगी के निकट आकर खड़े हुए।’’


 अछूतोद्धार (देवी प्रसाद शर्मा) अछूत समस्या पर आधारित कहानी है। इस कहानी का ताना बाना महात्मा गांधी के अछूतोद्धार आंदोलन के इर्द-गिर्द घूमता है। कहानी के प्रमुख पात्र सरला और पं. रामनाथ मिश्र हैं। लेखक बताता है कि सरला के पिता ने  आर्य समाज मन्दिर में एक मुसलमान  औरत की शुद्धि कर के उससे विवाह कर लिया था जो  जाति से अछूत थी। इधर पं. रामनाथ मिश्र के पिता को सरला स्वीकार नहीं है। रामनाथ मिश्र के पिता हरिनाथ मिश्र कहते हैं कि ‘‘रामनाथ तुम फौरन बाहर निकाल दो यह एक अछूत म्लेच्छ की कन्या है।’’ इस कहानी में दिखाया गया है कि सरला और पं. रामनाथ मिश्र गांधी जी के अछूत आंदोलन से प्रेरित होकर अपने जीवन को अछूत सेवा के लिए समर्पित कर देते हैं।


                                

स्वामी अछूतानंद का आदि हिन्दू आंदोलन नवजागरणकालीन लेखकों के लिए मुसीबत बना हुआ था। लाला लाजपत राय समेत हिन्दी के तमाम लेखक इस आंदोलन के विरोध में थे। स्वामी अछूतानंद के आंदोलन को लेकर यहां तक घोषणाएं की गईं कि यदि आदि हिन्दू आदोलन को रोका नहीं गया तो भारत में दलितों की ओर से बहुत बड़ी क्रान्ति हो जाएगी। अर्थात अछूत हिन्दुओं के हाथ से निकल जाएंगे। इतना ही नहीं स्वामी अछूतानंद को इस काल के लेखक एक मुसीबत के रुप में देख रहे थे। आदि हिन्दू आंदोलन 1926-27 में आकर पूरे देश में फैल जाता है। इस आंदोलन की नोटिस नवजागरणकाल की तमाम पत्रिकाएं ले रही थीं। स्वामी अछूतानंद के आंदोलन को विफल करने के लिए तत्कालीन समय के तमाम लेखक प्रयास कर रहे थे।


चन्द्रशेखर शास्त्री की कहानी चमार की बिटियाइसी रणनीति की उपज है। यह कहानी 1927 के महारथीपत्रिका में  दो किस्तों में छपी थी। कहानी के प्रथम  परिच्छेद में कहानीकार बताता है कि मुन्ना चमार पानी पीने के लिए कुएं के समीप तड़प रहा है और पण्डित  हेतराम उसे कुएं से पानी नहीं भरने देते हैं। कहानी का संवाद देखें -

पं.- दूर हट! नीच कहीं का ! हम क्या तेरे नौकर हैं जो तुझे पानी पिला दें।’’ 

महराज! मेरे पास लोटा और डोर है। मैं आप के सामने इसको साफ कर लेता हूं। पानी नहीं पिलाते तो मुझे भर ही लेने दीजिए।’’ 

तमाम मिन्नतें करने के बाद भी पण्डित उस चमार को पानी तो भरना दूर कुएँ के आसपास भटकने तक नहीं देता है। तब तक इधर एक दूसरा चमार कल्लू कुएँ पर चढ़कर पानी भर रहा था। पण्डित जी उसे देखते ही अपना आपा खो बैठे और उस चमार से बोले -

क्यों बे कल्लू! क्या तू ने भी बदमाशी पर कमर कस ली,क्या तेरी शामत आई है जो कुएं पर चढ़कर चला आता है।’ 

पण्डित हेतराम की यह बात सुनकर कल्लू ने जवाब देते हुए कहा -

 पंडित जी होश में रह कर बोलना, अब मै कल्लू नहीं हूं जो आप के डांटने से कुएं पर चढ़ने  से रुक जाऊँ,  अब मैं  नब्बीबख्स हूं। जो अब की दफा मुझसे कुछ कच्ची बात कही तो महराज अभी गंगा की बालू फांकते फिरोगे।’ 

कहानीकार मुन्ना से कल्लू के द्वारा किए गए धर्मान्तरण का विरोध करते हुए लिखता है, ‘यद्यपि नबीबख्स मुन्ना को पानी पिलाने आया था किन्तु हिन्दू धर्म के पक्के अनुयायी  मुन्ना ने ऐसी अवस्था में भी उसके हाथ का पानी पीना स्वीकार न किया।' 

यहां देखा जा सकता है कि नवजागरण काल के लेखक कैसे दलित और मुसलमानों के बीच सांप्रदायिकता की हवा दे रहे थे। दूसरी ओर स्वामी अछूतानंद दलितों को हिन्दूधर्म से अलग कर रहे थे। लेकिन इस कहानी का जो पात्र मुन्ना है, उसे हिन्दुओं के तमाम जुल्म के बाद भी हिन्दू धर्म स्वीकार है। मुन्ना की एक बेटी मोहनिया है, उस पर गांव का जमींदार ढाकन सिंह कुदृष्टि रखता है। गांव के पंडित और जमींदार चमारों पर असीम अत्याचार और जुल्म करते हैं। गांव के सारे चमार मिलकर एक पंचायत करते हैं। इस पंचायत में बीस हजार अछूत शामिल होते हैं। इस पंचायत में कहानीकार मुसलमानों के विरोध में चमारों को खड़ा कर देता है। 

रामू कहता है कि ‘‘सभापति जी और भाइयों! इसमें कोई शक नहीं की आप को हिन्दुओं से तकलीफ है किन्तु उन तकलीफों का उत्तर यह नहीं की आप मुसलमान बन जावें। मुसलमान धर्म कभी हमारे धर्म के बराबर नहीं हो सकता है।’’ इतना ही नहीं मोहनिया चमारिन  के मुख से कहानीकार  यहां तक कहलवा देता है कि मुसलमान लोग तो विषय-प्रधान होते हैं और व्यभिचार में इनके धर्म में लैस मात्र पाप नहीं है। इनमें अधर्म यहां तक बढ़ा हुआ है कि इस धर्म में अपनी सौतेली बहिन तक से विवाह किया जाता है। लेखक की मानसिकता को यहां भली-भाँति समझा जा सकता है। इस पंचायत के दबाव में ब्राह्मण सभा, क्षत्रिय सभा और वैश्य सभा यह निर्णय लेती है कि अछूतों को कुएं से पानी भरने और मन्दिरों में जाने से न रोका जाए।


नवजागरणकाल में अछूतों को लेकर हिन्दू लेखक ही नहीं बल्कि उस समय की हिन्दू लेखिकाएं भी विचार कर रही थीं। सुजीत कुमार सिंह ने अपने इस संकलित और संपादित कहानी संग्रह में उस दौर की पांच ऐसी कहानियां खोजकर लाए हैं, जो स्त्रियों द्वारा लिखी गई हैं। इनमें उमा नेहरु की धर्म-अधर्म, श्रीमती कुमारी सत्यवती झँवर, देहरादून की हिन्दू समाज की धर्मान्धता,कुमारी सुषमादेवी, अमृतसर की गंगा, कुमारी जगदम्बा माथुर, बी.ए की अछूतकुमारी कमला वांचू की चमारिन ललितासंकलित है। 

धर्म-अधर्मकहानी में अछूतों पर किए जा रहे अत्याचार को उजागर किया गया है। इस कहानी का पात्र सुक्खू चमार पं. चंद्रिका प्रसाद की जुल्म और जास्ती का शिकार है। पं. चद्रिका प्रसाद की प्रताड़ना के कारण उसका पूरा परिवार मौत के मुंह में चला जाता है। लेखिका ने बड़े ही मार्मिक ढंग से अछूतों पर हो रहे अत्याचारों को उजागर किया है। हिन्दू समाज की धर्मान्धता कहानी में हिन्दूधर्म की कुरीतियों का खुलासा किया गया है। लेखिका इस कहानी में बताती है कि यदि अछूत धर्मान्तरण करता है तो उसकी सामाजिक स्थिति में परिवर्तन हो जाता है लेकिन कोई सवर्ण अछूत की बात करता है तो उसे समाज द्वारा बहिष्कृत कर दिया जाता है। लेखिका कहती हैं, विजन शुद्ध कर लिया गया पर गोपाल ने धर्म न छोड़ा। वह नित्य विजन के पास आता था। कोई रोक न थी। समाज ने विजन के पुनः प्रवेश के कारण मनोहर लाल को जाति च्युत कर दिया था पर गोपाल (अछूत) का सम्मान बढ़ गया। कुएँ परघर में, गोपाल सब जगह आ जा सकता था। पर विजन के लिए यह व्यवस्था न थी । धर्म परिवर्तन में वह चमत्कार था।


डा. अम्बेडकर ने 1935 में यह घोषणा की थी कि वे जल्द ही हिन्दू धर्म को छोड़ देंगे। उनकी इस घोषणा का प्रभाव पूरे भारत के बुद्धजीवियों के साथ ही हिंदी के विभिन्न संपादकों और लेखकों पर पड़ा। डा. अम्बेडकर की घोषणा को लेकर हिन्दी की कई पत्रिकाओं ने अपने संपादकीय लिखकर प्रतिक्रिया व्यक्त की और इस घोषणा को हिन्दू धर्म पर आफत के रुप में देखा। इस संकलन में सुजीत कुमार ने छह ऐसी कहानियां खोजकर संकलित की हैं जो डा. अम्बेडकर की घोषणा के बाद लिखी गई हैं। इनमे स्नेह मन्दिर- श्री प्रेमबन्धु प्रभाकर,  अछूत -श्री गोवरधनदास जी गुप्त, शीर्षकहीन कहानी- श्री राम शर्मा, चमारिन ललिता -कुमारी कमला वांचू  और श्रीनाथ सिंह की कहानी धर्म परिवर्तन को इस श्रेणी में रखा जा सकता है। श्री रघुनाथ सहाय और भदन्त आनंद कोसल्यायन की  कहानी में मन्दिर प्रवेश की समस्या को उठाया गया है।
                      
अछूत : राष्ट्रवादयुगीन (1920-1940 ) दलित समाज की कहानियांनवजागरणकाल की वास्तविक सामाजिक स्थिति को हमारे सामने रखता है। नवजागरणकाल के लेखक दलित की समस्या को उठा जरुर रहे थे, लेकिन वे अछूतों के अधिकारों की बात अपने लेखन में नहीं कर रहे थे। इन लेखकों का लक्ष्य यह नहीं था कि अछूतों की समस्याओं को उठाया जाए, बल्कि यह था कि दलित को धर्मान्तरण करने से कैसे रोका जाए। इस कहानी संग्रह से यह पता चलता है कि उस समय के लेखक दलित को लेकर क्या सोच रहे थे? यह कहानी संग्रह बताता है कि अछूतों को लेकर उस समय के लेखक शुद्धि और घर वापसी का आंदोलन चला रहे थे। इन कहानियों को पढ़ने से यह भी पता चलता है कि मुसलमान और इसाईयों के प्रति हिन्दू लेखकों का दृष्टिकोण क्या था? इतना ही नहीं सनातनी और आर्य समाजियों के बीच अछूत कैसे पिस रहा था, इसका खुलासा इन कहानियों से होता है। इस संग्रह की कहानियां उन विद्वानोंविचारकों और शोधार्थियों के लिए अमूल्य दस्तावेज है जो अछूत समस्या के साथ ही नवजागरणकाल को गहराई से समझना चाहते हैं।


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 (युवा आलोचक सुरेश कुमार नवजागरणकालीन साहित्य के गहन अध्येता हैं। इलाहाबाद में रहते हैं। उनसे 8009824098 पर संपर्क किया जा सकता है।)