स्वतन्त्रता-पूर्व की अछूत केन्द्रित कहानियाँ
(कँवल भारती)
1920 से 1940 के दौरान लिखी गईं अछूत-केन्द्रित कहानियों का एक महत्वपूर्ण संकलन ‘अछूत’ नाम से प्रकाशित हुआ है। इसमें 50 कहानियां हैं, जिनमें परिशिष्ट में 11 रचनाएँ भी शामिल हैं। संपादक ने ‘क्या एक दिन नई सुबह होगी’ शीर्षक से ऐतिहासिक महत्व की भूमिका लिखी है, जो अछूत समस्या पर एक गंभीर विमर्श प्रस्तुत करती है।
हिंदी में लगभग अस्सी के दशक में जब मुख्यधारा में दलित साहित्य ने अपनी दस्तक दी, और नब्बे के दशक तक आते-आते उसने जबर्दस्त जोर पकड़ा, तो प्रतिष्ठित गैर-दलित लेखकों ने दलित साहित्य के विरोध में इस तरह के प्रश्न उठाने शुरू कर दिए थे कि क्या दलित साहित्य लिखने के लिए दलित होना ज़रूरी है? या, जो दलित नहीं है, क्या वह दलित साहित्य नहीं लिख सकता? उसी समय सहानुभूति और स्वानुभूति के प्रश्न भी चर्चा के केंद्र में आए। दलित लेखकों का उत्तर था कि दलित साहित्य लिखने के लिए दलित होना बिलकुल ज़रूरी नहीं है। किन्तु प्रश्न यह है कि अब तक लिखा क्यों नहीं गया? हिंदी में उनके लिए दलित साहित्य लिखने वाले एकमात्र उदाहरण प्रेमचन्द थे। किन्तु अगर सुजीतकुमार सिंह की ‘अछूत’ कहानियों का यह संकलन अस्सी-नब्बे के दशक में छप गया होता, तो प्रेमचन्द की श्रेणी में दलित-समस्या पर लिखने वाले कुछ और लेखक भी ज़रूर जुड़ जाते।
संकलित कहानियों पर चर्चा करने से पूर्व उनके काल-खंड को समझना ज़रूरी है। यह काल-खंड स्वतन्त्रता-संग्राम आन्दोलन का है। उल्लेखनीय है कि 1927 में इलाहाबाद की ‘चाँद’ पत्रिका ने ‘अछूत अंक’ निकाला था। ऐसा कौन सा दबाव था, जो चाँद को अछूत अंक निकालना पड़ा? कारण दो थे, एक हिन्दुओं के अत्याचारों से मुक्ति के लिए अछूतों का बड़ी संख्या में ईसाई और इस्लाम धर्मों में धर्मांतरण हो रहा था। और, दो, महाराष्ट्र में डा. आंबेडकर और उत्तर भारत में स्वामी अछूतानंद के पृथक अछूत आंदोलनों ने कांग्रेस और राष्ट्रवादी हिन्दुओं के स्वतन्त्रता की लड़ाई के लिए चुनौती खड़ी कर दी थी। उन्होंने अपने अलग अधिकारों के लिए, और ख़ास तौर से राजनीतिक अधिकारों के लिए, सीधी लड़ाई शुरू कर दी थी। 1930 के दशक में अछूत आंदोलनों का प्रभाव इतना व्यापक हो गया था कि उसने हिन्दुओं के राष्ट्रीय आन्दोलन को ही नहीं, भगत सिंह तक को विचलित कर दिया था, और उसकी गूँज सात समन्दर पार लन्दन तक पहुँच गई थी। यह इसी का परिणाम था कि भारत को सत्ता सौंपने और नया संविधान बनाने के ध्येय से भारत की स्थिति का जायज़ा लेने के लिए ब्रिटिश सरकार को साइमन कमीशन की नियुक्ति करनी पड़ी थी। इस कमीशन का हिन्दुओं ने बहिष्कार किया था। लेकिन पूरे देश में दलितों ने स्वागत किया था, और उसे अपनी वास्तविक दशा से अवगत कराया था। स्वामी अछूतानन्द के नेतृत्व में लखनऊ में भारी संख्या में अछूतों ने साइमन कमीशन का भव्य स्वागत किया था। इसके बाद लंदन में गोलमेज सम्मलेन हुआ, जिसमें डा. आंबेडकर ने अंग्रेज़ सरकार को ज्ञापन दिया कि भारत का दलित वर्ग वह समुदाय है, जिसे हिन्दुओं ने हज़ारों साल से सभी मानवीय अधिकारों से वंचित करके अछूत बनाकर रखा है। अगर अंग्रेज़ों ने भारत को स्वतंत्र किया और सत्ता हिन्दुओं को सौंपी, तो अछूतों को कुछ नहीं मिलने वाला। वे हिन्दुओं के राज में उसी तरह अछूत और ग़ुलाम बने रहेंगे, जिस तरह वे आज बने हुए हैं। आंबेडकर ने मांग की कि वे हिन्दू नहीं हैं, और न उन्हें हिन्दू माना जाता है; इसलिए उन्हें हिन्दुओं और मुसलमानों की तरह अलग अधिकार चाहिए। इसके बाद कांग्रेस के हिन्दू राष्ट्रवादियों में भूकम्प आ गया। रातोंरात हिन्दू मीडिया ने कांग्रेस और गांधी को अछूतों का नायक और मसीहा बना दिया। ‘हरिजन सेवक संघ’ खड़ा हो गया, जिसका अध्यक्ष किसी दलित को नहीं, घनश्याम दास बिरला को बनाया गया। हरिजन अख़बार निकलने लगा। शुद्धि आन्दोलन शुरू हो गया। हिन्दू महासभा और आर्यसमाज के नेताओं ने हिन्दुओं की नहीं, बल्कि अछूतों की शुद्धि का स्वांग रचाना शुरू कर दिया। हिन्दू कवियों ने अछूतों की प्रशंसा में कविताएँ, कहानियां और लेख लिखने शुरू कर दिए। और इस सारे अभियान का उद्देश्य अछूतों को हिन्दू धर्म और गाँधी-कांग्रेस से जोड़ने के सिवा कुछ नहीं था, ताकि वे धर्मान्तरण करके ईसाईयों और मुसलमानों की संख्या न बढ़ाएं। ‘चाँद’ का अछूत अंक इसी उद्देश्य से निकाला गया था। इस अंक में किसी दलित नायक का नहीं, पर अछूतों के उद्धारक के रूप में सी. ऍफ़. एंड्रूज़, स्वामी श्रद्धानंद, योगीश्वर गांधी, देवी सरोजिनी का ज़िक्र है, साथ ही ईसाई और मुसलमान बन गए अछूतों के चित्र हैं। इसमें दलितों के किसी नायक का कोई उल्लेख नहीं है।
‘अछूत’ में संकलित कहानियां भी उसी राष्ट्रवादी युग की हैं, और उसी गांधीवादी अभियान के दबाव का हिस्सा हैं। आइए, देखते हैं, इन कहानियोँ में अछूत समस्या को किस दृष्टि से देखा गया था? इनमें 11 कहानियाँ ‘अछूत’ शीर्षक से हैं, जिनमें पहली कहानी ‘अछूत’ के लेखक श्री उग्र हैं। इनका पूरा नाम नहीं दिया गया है, इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि यह बेचन शर्मा उग्र थे या कोई और? अधिकांश कहानियों के केंद्र में अछूत पात्र चमार है, और चमार के बारे में लगभग सभी कथाकारों की यही रूढ़ धारणा है कि चमार वह है, जो चमड़े का काम करता है।
उग्र जी की कहानी में ब्राह्मण देवर्षिदत्त के विशाल गृह के सामने रामू चमार की झोंपड़ी है। वह जूता सीने का काम करता है। उसका सात वर्ष का पुत्र किसुन और ब्राह्मण की पांच वर्षीय पुत्री सुभद्रा बाहर मैदान में साथ-साथ खेल रहे हैं। दूल्हा-दुल्हन का खेल खेलने के लिए सुभद्रा अपने घर से मिट्टी का घोड़ा लेने जाती है, ताकि किसुन उस पर दूल्हा बनकर बैठ सके। बहुत देर तक जब वह नहीं लौटती है, तो किसुन उसे देखने ब्राह्मण के घर जाता है। उसने बगीचे से फूल तोड़ लिए हैं, जिन्हें वह दूल्हा बनकर अपने सर पर रखना चाहता है। पर वह जैसे ही ब्राह्मण की दहलीज पर पहुँचता है, ब्राह्मण उसे देख लेता है और उसे लात मारकर भगा देता है—‘चमार ससुरे, अब फिर कभी दिखाई पड़ा तो जान ले लूँगा।’ इस घटना के बाद किसुन पलायन कर जाता है। उसके ग़म में उसकी माँ भी मर जाती है। ब्राह्मण रामू का झोंपड़ा बलपूर्वक हटाना चाहता है। सुभद्रा आठ वर्ष की हो जाती है, और उसकी शादी हो जाती है। शादी से एक दिन पहले रामू के झोंपड़े में आग लगा दी जाती है, जिसमें रामू भी जलकर मर जाता है। इसके बारह साल बाद कोई दरोगा रामू की हत्या में ब्राह्मण को गिरफ्तार कर लेता है। मामला अदालत में जाता है। जज कोई जैक्सन है, जिसे लेखक ने अपनी घृणा-वश म्लेच्छ लिखा है। ब्राह्मण देवर्षि जज के पैरों में गिर जाता है, उसका मस्तक उसके जूतों को चूमने लगता है। तभी जज कहता है, मुझे पहचाना? मैं वही किसुन हूँ, मैं आपकी लात अभी तक भूला नहीं हूँ। ब्राह्मण की कंपकंपी छूट जाती है। अंत में जज जैक्सन के रूप में किसुन ब्राह्मण को दोष-मुक्त कर देता है। ब्राह्मण की रक्षा चमार की कृपा से हो गई। यह कहानी का अंत है।
दूसरी ‘अछूत’ कहानी के लेखक कृष्णानंद गुप्त हैं। इस कहानी में कड़ाके की ठंड में सड़क पर चल रहे चतुर्भुज शर्मा को आवाज़ सुनाई देती है, बाबू जी। वह पीछे मुड़कर देखते हैं, फटे चिथड़ों में एक भिखारी गठरी बना पड़ा है। वह उस पर दया दिखाते हुए जेब से चवन्नी निकालकर फेंक देते हैं। भिखारी में इतनी ताकत नहीं कि चवन्नी उठा ले। वह कहता है, बाबू जी मुझे थोड़ा सहारा देकर उस दूकान तक पहुंचा दीजिए। वहां भट्टी जल रही है। चतुर्भुज शर्मा में दया आई। उन्होंने उसे उठाने के लिए उसके कपड़ों को छुआ ही था कि वह बोला, बाबू जी मैं भंगी हूँ। शर्मा जी पीछे हट गए। चवन्नी वहीँ पड़ी रही, और वह गठरी बना भिखारी भी।
तीसरी ‘अछूत’ कहानी ऑक्सफ़ोर्ड (इंग्लैंड) के कामताप्रसाद सागरीय की रचना है। कहानी में किसी पात्र का नाम नहीं है। कहानी बस इतनी सी है कि प्रयाग में त्रिवेणी संगम पर चन्द्र ग्रहण स्नान होने के कारण काफी भीड़ है। मन्दिर से कुछ दूरी पर एक अछूत खड़ा है, जो मन्दिर में प्रवेश नहीं कर सकता। इसी समय एक युवक और युवती हताश होकर पत्थर पर बैठ जाते हैं। उन्हें देर से आने से किसी धर्मशाला में जगह नहीं मिली है। ठंड का मौसम है। तभी टन-टन की आवाज़ करता हुआ वह अछूत उनके पास आता है। उसके गले में एक घंटी बंधी है, जो टन-टन की आवाज़ करती है। उस आवाज़ को सुनकर ‘अछूत-अछूत’ का शोर मच जाता है, और लोग उसे रास्ता देकर खुद रास्ते से हट जाते हैं। वह अछूत उन युवक-युवती को अपनी झोंपड़ी में ले जाकर उनके रहने की व्यवस्था कर देता है, और स्वयं यह सोचता हुआ कि वह भले अछूत है, पर परमेश्वर की दृष्टि में नहीं, गंगा में कूद जाता है और उसी में समा जाता है।
चौथी ‘अछूत’ कहानी के रचनाकार रामेश्वर प्रसाद श्रीवास्तव हैं। यह एक अछूत कन्या रूपा की कहानी है, जो बहुत खूबसूरत है और आसपास के लोग उसे वासना की निगाह से देखते हैं, पर अछूत होने के नाते उससे छूत भी करते हैं। यह कहानी आत्मकथ्य की शैली में लिखी गई है। सिर्फ एक जगह नायक का नाम आया है ज्ञानू, जो एक विद्यार्थी है। रूपा उसके घर साफ़-सफाई का काम करती है। ज्ञानू उसे पसंद करता है। एक दिन घर में लिपाई करते हुए रूपा के हाथ से घड़े और बर्तन छू जाते हैं। इस ग़लती पर ज्ञानू की माँ उसे लकड़ी फेंक कर मारती है, जो उसके पैर में लगती है और खून बहने लगता है। ज्ञानू को उसकी माँ का इस तरह मारना बुरा लगता है, पर वह असहाय है। घड़े फेंक दिए जाते हैं और बर्तनों को आग में तपाकर शुद्ध कर लिया जाता है। यह भी अजीब पाखंड है कि अछूत द्वारा घर में साफ़-सफाई करने से घर शुद्ध रहता है, लेकिन बर्तन अशुद्ध हो जाते हैं। रूपा अपने अछूतपन और अपनी ग़रीबी को पिछले जन्म के कर्म का फल मानती है, जो हिन्दुओं का भी विश्वास है, इसलिए कहानी में भी उसका कोई खंडन नहीं है। लेकिन ज्ञानू रूपा को चाहने लगा है और मन से चाहता है, इसमें कहानी में कोई संदेह नहीं है। रूपा का पिता जब बीमार पड़ता है, तो ज्ञानू न सिर्फ उसकी आर्थिक मदद करता है, बल्कि उसकी बस्ती में जाकर उसका हाल-चाल भी लेता है। वह आसपास के लोगों से भी रूपा के पिता की बीमारी में कुछ मदद करने को कहता है, और उसके कहने पर दो-चार लोग कुछ पैसे ‘फेंकते’ भी देते हैं। यहाँ पैसे फेंकने का प्रयोग कहानीकार ने अछूतों के प्रति घृणा के अर्थ में किया है, जिसे झुठलाया नहीं जा सकता। रूपा का पिता ठीक हो जाता है। उसके कुछ समय बाद शहर में हैजा फ़ैल जाता है। लोग शहर छोड़कर जाने लगते हैं। ज्ञानू की माँ भी बनारस जाने का निश्चय करती है। पर जाने से पहले ही ज्ञानू की माँ को भी क़ै-दस्त शुरू हो जाते हैं। कोई मदद को नहीं है। कोई रिश्तेदार तक सहायता के लिए नहीं आता। अंतत: ज्ञानू ने रूपा की मदद के लिए माँ को तैयार किया। ऐसी स्थिति में माँ भी छुआछूत भूलकर रूपा की मदद लेने के लिए हाँ कह देती है। रूपा आकर माँ की सेवा करती है, उसके क़ै-दस्त साफ़ करती है, और इस तरह वह दवाई और सेवा से ठीक हो जाती है। उसके बाद ज्ञानू को हैजा हो जाता है। रूपा ज्ञानू की भी सेवा करती है। वह भी दवा और सेवा से ठीक हो जाता है। पर हैजे के मरीज़ों के बीच रहकर रूपा कैसे बच पाती? उसे भी हैजा हो जाता है। ज्ञानू डाक्टर को बुलाकर उसे दवा दिलवाता है। पर रूपा को कोई लाभ नहीं होता और उसके नेत्र सदा के लिए बंद हो जाते हैं। ज्ञानू के लिए सारा संसार अंधकारमय हो जाता है। वह रूपा की मृतक देह पर हाथ रखकर जीवन-पर्यन्त अविवाहित रहने और अछूतोद्धार में तन-मन अर्पण करने की शपथ खाता है।
इन चार कहानियों में पहली कहानी में तो ब्राह्मण-चेतना ही है, जिसमें अछूत के प्रति रत्ती-भर सहानुभूति नहीं है। दूसरी कहानी में अछूत के प्रति घृणा और तिरस्कार का चित्रण है, जिसमें शर्माजी बूढ़े को चवन्नी फेंककर एक ओर अपने दयालु होने का प्रदर्शन करते हैं, तो दूसरी ओर, जब बूढ़ा अपने को भंगी बताता है, तो शर्माजी तुरंत पीछे भी हट जाते हैं। यह एक जबरदस्ती की लिखी गयी कहानी है, जिसका कथानक ही अस्वाभाविक है। बूढ़े में चलने-फिरने की शक्ति नहीं है। वह शर्मा जी से कहता है कि उसे उठाकर सामने की दुकान तक पहुंचा दो। जब शर्माजी उसको उठाने को हाथ लगाते हैं, तो तुरंत बूढ़े के मुंह से यह कहलवा देना कि वह भंगी है, कहानी को अस्वाभाविक बना देता है। प्रथम तो उस दौर में यह कल्पना भी नहीं की जा सकती कि कोई अछूत किसी राहगीर से अपने को सहारा देकर उठाने के लिए कहेगा, और अगर कोई व्यक्ति बिना जाति पूछे, उसे सहारा दे भी रहा है, तो वह उस वक़्त अपनी जाति बताने की मूर्खता क्यों करेगा? तीसरी कहानी तो किसी भी कोण से विश्वसनीय नहीं है। त्रिवेणी संगम पर किसी अछूत का एक सवर्ण तीर्थ यात्री को रहने के लिए अपनी झोंपड़ी देना, और स्वयं गंगा में डूबकर मर जाना एकदम बकवास की बात है। कोई सवर्ण जाति का व्यक्ति, जिसे भले ही धर्मशाला में जगह न मिली हो, फुटपाथ पर रह लेगा, पर किसी अछूत की झोंपड़ी में कभी नहीं रहेगा। जिस दौर में मदनमोहन मालवीय जैसे सुधारक तक एक अछूत से गले में फूलों की माला पहनने के बाद कपड़ों सहित स्नान करके अपनी शुद्धि करते थे, उस दौर में कोई सवर्ण किसी अछूत के घर में रहेगा, यह सोचना ही अकल्पनीय है।
लेकिन चौथी कहानी में ज्ञानू के रूप में जिस सवर्ण पात्र का आदर्श गढ़ा गया है, वह प्रभावित करता है। यह कहानी एक अछूत कन्या रूपा की संवेदना और मानवीयता को तो गहराई से अनुभव कराती है, और ज्ञानू की सहानुभूति को भी, लेकिन उसे बनाकर सेविका ही रखा जाता है, और सवर्णों की सेवा करते हुए ही उसकी मौत भी होती है। इसे अछूत-समस्या की कहानी कैसे कहा जा सकता है?
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अन्य कुछ कहानियां भी देखते हैं। पांचवीं ‘अछूत’ कहानी के लेखक अल्मोड़ा के तारादत्त उप्रेती हैं। यह एक ज़मींदार परिवार की स्त्री प्रभावती की अछूत के प्रति मानवीय होने की कहानी है। वह मंदिर के सामने ज़मीन पर गिरी बूढ़ी अछूत महिला सुखिया को उठाकर उसका सिर गोद में रखकर घाव धोती है, और अपनी साड़ी का छोर फाड़कर सिर पर पट्टी बांधती है। सुखिया मंदिर में अपने बीमार बच्चे के लिए पूजा करने के लिए गई थी, पर मंदिर में घुसने से पहले ही वह सवर्णों की हिंसा का शिकार हो जाती है। उसका सिर फट जाता है और वह नीचे गिर जाती है। प्रभावती उसके बच्चे का भी इलाज़ कराती है, यहाँ तक कि वह सुखिया और उसके बच्चे को अपने घर में रखकर इलाज़ कराती है। जो वैद्य छूत के डर से सुखिया के घर नहीं जाता था, वह प्रभावती के घर ख़ुशी-ख़ुशी जाकर अछूत बच्चे का इलाज़ करता है। कहानी में अचानक सभी का हृदय-परिवर्तन हो जाता है, ऐसा परिवर्तन कि कथाकार कहता है, ‘उस गाँव में अब छुआछूत का नामोनिशान भी नहीं है, और जिस मंदिर में सुखिया की दुर्गति हुई, वह अब समस्त हिन्दू मात्र के लिए ख़ुला रहता है। इस कहानी में मन्दिर-प्रवेश को अछूत-समस्या बताया गया है।
छठी ‘अछूत’ कहानी डाक्टर धनीराम प्रेम की है। यह 1932 की कहानी है, जब डा. आंबेडकर और स्वामी अछूतानन्द के नेतृत्व में दलितों का संघर्ष अपने निर्णायक स्वरूप में था, जिसके केंद्र में प्रमुख रूप से शिक्षा, सरकारी नौकरियां और राजनीतिक प्रतिनिधित्व की मांग थी। इसलिए इस कहानी में काफी हद तक दलित-चेतना के स्वर दिखाई भी देते हैं। यह कहानी एक ब्राह्मण गायक श्याम लाल और उसके गायन पर मुग्ध एक चमार बालिका गंगा की है। इसमें सहानुभूति की भले ही एक आदर्शवादी कल्पना है, पर वह प्रभावित करती है। रायसाहब के घर कोई कार्यक्रम है, जिसमें उन्होंने श्यामलाल को बुलाया है। श्यामलाल उस कार्यक्रम में एक गाना गाता है : ‘एक पिता की सब संतान/ कोई बड़ा न छोटा हममें, सब हैं एक समान।’ राय साहब के घर के पास ही कुछ मड़इयां चमारों की हैं। उसी एक मड़ई में गंगा रहती है। वह बाहर खड़े होकर उस आवाज़ को सुनती है, और वह गाना उसे इतना अच्छा लगता है कि वह एक फूल लेकर श्यामलाल को भेंट करने जाती है। श्यामलाल फूल लेकर उससे पूछता है, तुमने बाहर से गाना सुना, अंदर क्यों नहीं आईं? गंगा कहती है कि मैं भीतर कैसे आ सकती थी, ‘मैं तो चमारी हूँ, अछूत हूँ।’ यह सुनते ही श्यामलाल क्रोधित होकर फूल ज़मीन पर फेंक देता है, और कहता है, ‘चमार की बच्ची, पहले ही क्यों न कह दिया?’ गंगा फेंके गए फूल को उठाकर कहती है, ‘मैं जानती थी कि आप भी ऐसे ही होंगे। वह एकता और समानता का राग केवल महफ़िल के लिए ही था? मैं समझती थी कि आप ही संसार में ऐसे हैं, जो ऊंचनीच का भेद नहीं मानते।’ तब श्यामलाल को ज्ञान होता है कि जिसे वह सिर्फ एक गाना समझते थे, उसका अर्थ सिर्फ इस अछूत लड़की ने समझा। वह अपनी ग़लती पर पछताता है और गंगा के साथ संवाद जारी रखता है। गंगा उसके हर प्रश्न का परिपक्व उत्तर देती है। श्यामलाल पूछता है, ‘क्या तुम पढ़ना चाहती हो?’ उसके ‘हाँ’ बोलने पर श्यामलाल उसे अपने घर ले जाता है। वहां गाँव वाले उसका बहिष्कार कर देते हैं। जिस लड़की से उसका बचपन में लग्न हुआ था, उसके पिता भी रिश्ता तोड़ देते हैं। गंगा भी पढ़ना-लिखना सीख गई है। अंतत: श्यामलाल गंगा से ही विवाह कर लेता है। यह वास्तव में उस दौर में एक नए विमर्श की कहानी रही होगी, जिसने दलित शिक्षा और अंतरजातीय विवाह को प्रोत्साहित किया था।
सातवीं ‘अछूत’ कहानी के रचनाकार इन्द्रनारायण झा ‘इंद्र’ हैं। यह धर्मांतरण के विरोध में लिखी गई कहानी है। कहानी के अनुसार, मक्खन चमार है, पर साफ़-सुथरा रहने के बावजूद हिन्दू उससे छूत करते हैं। वह भगवान और भगवान की इच्छा में परम आस्था रखता है। इसलिए अपने अछूतपन को भी भगवान की इच्छा समझकर आनन्द अनुभव करता है। वह मन्दिर में नहीं घुस सकता, पर मन्दिर के द्वार पर ही धूल में लेटकर मूर्ति को साष्टांग दंडवत कर अपनी भक्ति प्रदर्शित कर देता है। एक दिन मंदिर में प्रसाद मांगने पर पुजारी उसका अपमान करता है। मक्खन के गाँव का ज़मींदार बाबू हरिकृष्ण कृष्ण-जन्माष्टमी के दिन मन्दिर में वेश्या का नृत्य कराता है, जिसे देखकर वह विचलित हो जाता है। उसे एहसास होता है कि वह वेश्या से भी नीच समझा जाता है। गाँव में ईसाई मिशनरी मक्खन को समझाते हैं कि देखो, इस हिन्दू समाज में तुम्हें अपमान के सिवा कुछ नहीं मिलेगा। तुम ईशू की शरण में आ जाओ, वहां सबको समान स्थान मिलता है। पहले तो वह मना करता है, पर बाद में ईसाई बनने के लिए तैयार हो जाता है। जब यह खबर गाँव में फैलती है कि मक्खन ईसाई बनेगा, तो हिन्दू महासभा के अध्यक्ष केशव देव को काठ मार जाता हैं। वह मक्खन के घर जाकर उसे समझाते हैं, भगवान ने धर्म-परिवर्तन का विरोध किया है। उन्होंने कहा है कि अपने धर्म में मरना भी अच्छा, पर दूसरा धर्म भयावह है। और भगवान में विश्वास करने वाला मक्खन ईसाई बनने का इरादा बदल देता है। उसे एक स्कूल में चपरासी बना दिया जाता है। एक दिन पुजारी का बेटा स्कूल से आते समय धूप में गर्मी से बेहोश होकर ज़मीन पर गिर जाता है। सारे छात्र उसे यूं ही छोड़कर आगे बढ़ जाते हैं, पर मक्खन उसे उठाकर छाँव में लिटाकर उस पर पानी की छींटें मारता है और उसे होश आ जाता है। पुजारी को जब पता चलता है कि मक्खन ने उसके बेटे की जान बचाई है, तो उसका हृदय-परिवर्तन हो जाता है, और वह मक्खन को गले लगा लेता है। यह अछूत की हिन्दू पहचान बनाने की कहानी है।
आठवीं ‘अछूत’ कहानी कुमारी जगदम्बा माथुर की रचना है। यह मेहतर का काम करने वाले परिवार की कहानी है। मार्मिक स्थिति है कि अस्पताल में एक अछूत को दवाई लेने के लिए भीड़ ख़त्म होने का इंतज़ार करना पड़ता है। डाक्टर मरीज़ को छूते नहीं थे, दूर से हाल पूछकर दवाई लिख कर परचा नीचे फेंक देते थे। दवाई के काउंटर पर दवाई लेने के लिए भी अछूत को दूर से कम्पोडर पर्चा दिखाना पड़ता था। कहानी में सुखिया का बच्चा बीमार है। वह दवाई लेने अस्पताल जाती है। उसे कोई भीड़ में घुसने नहीं देता है। दो घंटे इंतजार करने के बाद जब भीड़ खत्म होती है, तब वह डाक्टर को हाल बताती है। वह दवाई लिखता है, और किसी तरह वह दवाई लेकर घर जाकर बच्चे को दवाई देती है। तब तक बहुत देर हो जाती है, बच्चे की हालत और बिगड़ जाती है। अस्पताल की दवाई कोई असर नहीं करती। सुखिया की बहन, जो पास में ही रहती थी, बच्चे को ‘अछूत औषधालय’ में दिखाने की सलाह देती है। वह अस्पताल शायद ईसाई मिशन का है। सुखिया का पति अछूत औषधालय से जब डाक्टर को बुलाकर लाता है, तब तक बच्चे की साँसें थम चुकी होती हैं। यह कहानी उस हिन्दू परिवेश को रेखांकित करती है कि जिसमें दलित जातियों रहना पड़ता था।
नौवीं ‘अछूत’ कहानी के लेखक कालीचरण चटर्जी हैं। इस कहानी में कलार जाति की एक लड़की है कोकिला, परित्यक्ता और उपेक्षिता। एक ठाकुर कप्तान सिंह हैं, जिनकी पत्नी एक बच्चे को जन्म देने के बाद चल बसी हैं। कोकिला उसे पालने के लिए कप्तान सिंह से आग्रह करती है। स्वीकृति मिलने पर वह बच्चे को गोद में उठाकर घर ले जाती है। यह बात जब गाँव वालों को पता चलती है, तो वे उसका बहिष्कार कर देते हैं, और उसे प्रायश्चित करने को कहते हैं। वह प्रायश्चित करने को मना कर देता है। कोकिला, यह सोचकर कि उसी के कारण कप्तान सिंह का हुक्का-पानी बंद हुआ है, उस बच्चे को वापस दे देती है। इस विषय पर दोनों के बीच कुछ कहा-सुनी भी होती है। कप्तान सिंह भी अब बाक़ायदे प्रायश्चित कर लेता है। बच्चा अब बड़ा हो जाता है, स्कूल जाने लगता है। कोकिला उससे अब भी प्यार करती है और रोज़ उसे आते-जाते देखती है। फिर एक नाटकीय तरीक़े से बच्चा भी रोज़ कोकिला के घर जाने लगता है, और उसे अम्मा कहने लगता है। जब कप्तान सिंह को मालूम होता है, तो वह एक दिन कोकिला के घर से ज़बरदस्ती बच्चे को डांटते हुए ले आता है। बच्चे की ममता में कोकिला बीमार पड़ जाती है। अंत में कप्तान सिंह भी बच्चे को लेकर कोकिला की देखने जाता है। कोकिला बच्चे की आवाज़ सुनकर उठकर देखती है, और उसी समय मर जाती है। यह कहानी एक परित्यक्ता और उपेक्षिता स्त्री की ममता को रेखांकित करती है, लेकिन पूरी कहानी में उसे अछूत नहीं लिखा गया है।
दसवीं ‘अछूत’ कहानी मंगलदेव शर्मा की है। इसमें रमुआ चमार गाँव के लाला सुखराम के घर नौकर है। उससे पहले उसका बाप झबुआ नौकर था। झबुआ मरा तो उसकी जगह उसके बेटे रमुआ ने ले ली। दलितों के नाम लगभग सभी कथाकारों ने बिगाड़कर ही लिखे हैं, यहाँ तक कि प्रेमचन्द ने भी। गाँव में ठाकुर मनोहर सिंह हैं, जो अंग्रेज़ साहबानों की बहुत ख़िदमत करते हैं। पर इस बात का भी ख़याल रखते हैं कि गाँव में कोई भी, ख़ासकर नीची जातियों के लोग शास्त्र-विरुद्ध आचरण न करें। एक दिन रमुआ अपने घर सत्यनारायण की कथा करवाता है। ठाकुर उसके विरुद्ध पंचायत बिठा देता है, जिसमें रमुआ को दंड देने का निर्णय लिया जाता है। लाला भी रमुआ को नौकरी से निकालने को राज़ी हो जाता है। लेकिन सारे चमार रमुआ के पक्ष में खड़े हो जाते हैं। रमुआ भी दुखी होकर गाँव छोड़ने का फ़ैसला करता है। पर उसी रात गाँव में लाला के घर डकैत घुस जाते हैं। गोलियों की आवाज़ सुनकर रमुआ डकैतों से भिड़ने चला जाता है और वही डाकुओं की गोली लगने से ढेर हो जाता है। यह कहानी भी चमार की हिन्दू पहचान और उच्च जातियों के रक्षक के रूप में कायम करती है।
‘अछूत’ शीर्षक से लिखी गई अंतिम और ग्यारहवीं कहानी के रचयिता गोवर्धनदास गुप्त हैं। यह अछूत की गरिमा को नहीं, बल्कि ब्राह्मण की गरिमा और उच्चता को प्रतिष्ठित करती है। इसमें दारोगा मि. जौन हैं, जो चमार से धर्मान्तरित ईसाई है। एक किशोरी रमन शर्मा हैं, जिसके बेटे रामनिरंजन को दारोगा ने आवारागर्दी में गिरफ्तार किया है। किशोरी रमन शर्मा अपने बेटे को छुड़ाने के लिए थाने में फ़रियाद लेकर जाता है। जौन उसे पहचान लेता है कि यह वही शर्मा है, जिसने उसकी ज़मीन हथियाने के लिए उसकी झोंपड़ी में आग लगवाई थी, जिसमें वह झुलस गया था, और माँ ने बड़े मुश्किलों से गुज़रकर एक ईसाई के घर में शरण लेकर उसकी मदद से उसका इलाज कराया था। फिर माँ ने भी ईसाई धर्म अपना लिया था। पिता पहले ही चल बसे थे। माँ ने उसे पढ़ाया और वह दारोगा बन गया। वही किशोरी रमन शर्मा अब जौन के पाँव पकड़ कर अपने बेटे को छोड़ देने की विनती करता है। पहले तो जौन इंकार करके उसे वापस लौटा देता है। किन्तु बाद में वह यह सोचकर कि ईसाई बदला नहीं लेते, रामनिरंजन को यह कहकर छोड़ देता है, ‘जाओ, तुम ब्राह्मण हो, तुम्हें अपने ब्राह्मणत्व की रक्षा करनी चाहिए।’
‘अछूत’ शीर्षक से लिखी गईं उपर्युक्त सभी कहानियां दलित जातियों की हिन्दू पहचान रेखांकित करती हैं, लेकिन हिन्दू के रूप में उनके अधिकारों को स्वीकार नहीं करती हैं।
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यद्यपि, अन्य कहानियां भी अस्पृश्यता और मन्दिर-प्रवेश, इन्हीं दो विषयों पर केन्द्रित हैं, पर कुछ कहानियों में बेगार जैसे मुद्दे भी उठाए गए हैं, जो एक प्रमुख अछूत-समस्या थी। इन कहानियों में प्रतापनारायण श्रीवास्तव की ‘प्रतिशोध’ , देवीप्रसाद शर्मा की ‘अछूतोद्धार’ , चंद्रशेखर शास्त्री की ‘चमार की बिटिया’ , उमा नेहरू की ‘धर्म-अधर्म’ और प्रेमचन्द की ‘मन्दिर’ उल्लेखनीय हैं। ‘प्रतिशोध’ में दीना डोम के बच्चे को चेचक निकली है, वह पुजारी से सीतला देवी का नीर मांगने जाता है। पुजारी डांटकर भगा देता है कि नीर डोमों के घर नहीं जाता है। इसके बाद दीना की स्त्री धनिया चुपचाप मन्दिर में जाकर कुंड में से एक कटोरी नीर लेकर वापस जाने लगती है। पुजारी उसे देख लेता है। वह शोर मचाता है कि डोम ने मन्दिर अपवित्र कर दिया। तुरंत धर्म के रक्षक इकट्ठे हो जाते हैं, और वे लात-घूंसों से मार-मार कर धनिया को अधमरा कर देते हैं। उधर धनिया का बेटा इलाज के अभाव में मर जाता है। बाद में मन्दिर को शुद्ध करने के लिए हवन किया जाता है, उसी दौरान दीना नाटकीय ढंग से मन्दिर गिरा देता है। इसमें दीना का एक असम्भव प्रतिशोध दिखाया गया है। जो अछूत गाँव में पुजारी से लड़ने का साहस नहीं कर सकता था, वह मन्दिर गिराने का साहस करेगा, ऐसा सोचना भी हास्यास्पद लगता है।
‘अछूतोद्धार’ रामनाथ मिश्र के दोहरे चरित्र की कहानी है, जो बाहर अछूतों के उद्धार का स्वांग करता है और घर में जब उसे यह पता चलता है कि उसकी पत्नी सरला किसी म्लेच्छ की कन्या है, तो उसे त्यागने को तैयार हो जाता है।
‘चमार की बिटिया’ कहानी का मुख्य विषय धर्मपरिवर्तन है। इसमें नगर के चमार पंचायत करके हिन्दुओं को अल्टीमेटम देते हैं, कि हमें कुओं से पानी भरने, उन स्थानों पर जाने, जहाँ तक मुसलमान और ईसाई जाते हैं, प्याऊ पर लोटे से पानी पिलाने, और मन्दिरों में दर्शन करने के अधिकार दिए जाएँ, वरना एक महीने के बाद हम मुसलमान बन जायेंगे। इस अल्टीमेटम से खलबली मच जाती है। तुरंत ही हिन्दू महासभा और आर्य समाज के नेताओं के प्रयास से नगरवासी हिन्दुओं द्वारा चमारों का यथोचित सम्मान किया जाता है, कई महाशय अपने लोटों से उन्हें जल पिलाते हैं, और उन्हें साथ ले जाकर देव-मन्दिरों के दर्शन कराते हैं। इस कहानी पर 1930 के दशक में उत्तर प्रदेश के कई जनपदों में घटित धर्मांतरण की घटनाओं का प्रभाव है। वास्तव में 1925 में बरेली में चमारों ने नगर में ऐसे ही पोस्टर लगाए थे, जिनमें लिखा गया था, “सभी जातीय भेदभाव समाप्त किए जाएँ, वरना सभी चमार एक माह बाद इस्लाम धर्म स्वीकार कर लेंगे।” इसी तरह के अल्टीमेटम चमारों ने आगरा, खीरी, इलाहाबाद और बनारस जनपदों में भी दिए थे। गोरखपुर की पडरोना तहसील में 750 चमार ईसाई हो गए थे। उसी तरह मेरठ, बुलन्दशहर, इटावा और मुरादाबाद में भी चमारों ने धर्म-परिवर्तन किया था। ‘प्रताप’ की ख़बर के अनुसार, 1925 में ही बदाऊं जनपद में जमींदार के अत्याचारों से पीड़ित पांच हज़ार चमारों ने इस्लाम धर्म अपना लिया था।
1920 के दशक में चमारों ने हिन्दू समाज की दो असमानताओं के विरुद्ध आन्दोलन शुरू किया था, उनमें एक था मन्दिर प्रवेश और दूसरा था सार्वजनिक कुओं से पानी लेने का अधिकार। आर्यसमाज ने न केवल इस आन्दोलन का समर्थन किया था, बल्कि दोनों असमानताओं को समाप्त करने के लिए शुद्धि आन्दोलन चलाया था। हिंदी साहित्य में उसी के बाद से अछूतों के लिए मन्दिर और सार्वजानिक कुओं पर अस्पृश्यता के विरुद्ध कहानियां लिखी गईं। बाद में हिन्दू महासभा भी इसके पक्ष में आ गई थी। प्रेमचन्द ने इन दोनों विषयों पर कहानियां लिखीं, एक मन्दिर, जो जहाँ आलोच्य है, और दूसरी ‘ठाकुर का कुआँ’। ‘मन्दिर’ कहानी में सुखिया का बच्चा बीमार है और वह मन्दिर में मनौती मांगने और पूजा करने मन्दिर जाती है, पर पुजारी उसे मन्दिर में नहीं घुसने देता है, और भगा देता है। बच्चे का ज्वर बढ़ता जाता है। वह रात के अँधेरे में तीन बजे बच्चे को कम्मल में ढांप कर मंदिर में जाने का प्रयास करती है, पर उससे पहले ही पुजारी की आँख खुल जाती है। पुजारी लोगों को भड़का देता है कि सुखिया ने मन्दिर के ठाकुर जी को भ्रष्ट कर दिया है। कई आदमी झल्लाए हुए आते हैं और सुखिया पर लात-घूंसे बरसाना शुरू कर देते हैं। बच्चा उसकी गोद से नीचे गिर जाता है, और उसके प्राण निकल जाते हैं।
ये हिन्दुओं के कठोर हृदय और उनकी निष्ठुरता की कहानियां मानी जा सकती हैं, किन्तु वास्तव में ये उनके धार्मिक आचरण की कहानियां हैं; जैसाकि डा. आंबेडकर ने कहा है, जाति हिन्दुओं को अमानवीयता की हद तक इसलिए नहीं ले जाती कि वे स्वयं अमानवीय प्रवृत्ति के हैं, बल्कि इसलिए ले जाती है, क्योंकि वे अपने धर्म में गहराई से विश्वास करते हैं, और अपने शास्त्रों की शिक्षा के ख़िलाफ़ नहीं जाना चाहते।
इस संकलन में विशम्भरनाथ शर्मा ‘कौशिक’ की ‘संपत पासी’ , कुलदीप सहाय की ‘बुद्धू’ , श्रीनाथ सिंह की ‘पिता-पुत्र’ , कुमारी सत्यवती झंवर की ‘हिन्दू जाति की धर्मान्धता’ , ऋषभ चरण की ‘बदला’ और श्यामापति पाण्डेय की ‘हसीना’ ऐसी कहानियां हैं, जो उस दौर की सबसे ज्वलंत अछूत-समस्या को इतने सतही तरीक़े से उठाती हैं, जैसे ऐसी कोई समस्या थी ही नहीं और हिन्दू समाज तो अछूतों के प्रति बहुत उदार था। संपत पासी सिंहपुर के ज़मींदार का चौकीदार है, और उसे ज़मींदार की ओर से बारह बीघे भूमि माफ़ी मिली हुई है। वह इतना वफ़ादार नौकर है कि नौकरी से हटाए जाने के बाद भी, और दूसरे ज़मींदार द्वारा कई प्रलोभन दिए जाने के बाद भी वह वफ़ादारी नहीं छोड़ता है, जिससे खुश होकर वह उसे फिर नौकरी पर रख लेता है, और चार बीघे ज़मीन उसे और दे देता है।
‘बुद्धू’ चमार भी एक बैरिस्टर के बाग़ में नौकर है। उसे बाग़वानी का कोई ज्ञान नहीं है। बस यह जानता है कि पेड़ों को पानी देना ज़रूरी है। इसलिए वह हर समय पेड़ों को पानी देने में लगा रहता है। परिणामत: अधिक पानी देने से पेड़ मुरझा जाते हैं, और बाग़ सूख जाता है। इसके बाद भी बैरिस्टर उससे नाराज़ नहीं होते हैं, और उसकी पगार में दो रूपये और बढ़ा देते हैं।
‘पिता-पुत्र’ में कृपाशंकर अछूतों से सामाजिक व्यवहार के विरुद्ध हैं, जबकि उनका पुत्र राधाचरण विपरीत स्वभाव का है। उसके घर एक वैवाहिक कार्यक्रम होता है, जिसमें डफली बजाने वाला एक मेहतर भी बांसुरी के साथ गाना गाता है, जो राधाचरण को बहुत प्रभावित करता है, और वह उस मेहतर को न केवल अपने गले लगा लेता है, बल्कि उसे खींचकर अपनी खाट पर बैठा लेता है। कृपाशंकर को यह बर्दाश्त नहीं होता है, और डंडा लेकर उस मेहतर पर पिल पड़ते हैं। दो-चार डंडे वह राधाचरण को भी लगाते हैं, और मेहतर के साथ-साथ उसे भी घर से भगा देते हैं। पर राधाचरण मेहतर का साथ नहीं छोड़ता है।
‘हिन्दू समाज की धर्मान्धता’ की कहानी यह है कि मनोहरलाल की धर्मपत्नी और पुत्र अपनी फिटन में जा रहे हैं कि अचानक उन पर डाकुओं का हमला हो जाता है। फिटन एक पेड़ से टकराकर पलट जाती है। वहीँ पास में एक वृद्ध चमार का झोंपड़ा है। वह अपने पुत्र गोपाल की सहायता से उन दोनों को उठाकर अपने झोंपड़े में ले जाता है, और उनकी सेवा करता है। पता लगने पर मनोहर लाल आकर अपनी पत्नी और बेटे को ले जाते हैं। वह उस बूढ़े को कुछ पैसे देना चाहते हैं। पर वह मना कर देता है। उसके सालभर बाद उसका पुत्र गोपाल अपने पिता की बीमारी में कुछ मदद मांगने मनोहरलाल के घर जाता है। वह उनकी बैठक में चला जाता है, जो मनोहरलाल को अपमानजनक लगता है। एक चमार बैठक में कैसे घुस सकता है? इसी बात पर वह गोपाल को ख़ूब गालियाँ देते हैं। मनोहरलाल की इस हृदय-हीनता पर उनके पुत्र विजन को क्रोध आ जाता है, और वह गोपाल को लेकर घर से निकल जाता है। बाद में दोनों ईसाई हो जाते हैं। कुछ समय बाद विजन घर लौट आता है, और उसकी शुद्धि हो जाती है। पर गोपाल ईसाई बना रहता है। पता ही नहीं चलता कि यह कहानी कहना क्या चाहती है?
इसी तरह ‘बदला’ कहानी है, जिसमें दीना मोची के बेटे को रहीम जुलाहे का बेटा रहमत सिर्फ इसलिए मार देता है कि वह उसको सलाम नहीं करता है। दीना उसका बदला लेना चाहता है, पर यह सोचकर कि रहमत उसके बचपन के दोस्त रहीम का बेटा है, वह उसे माफ़ कर देता है।
‘हसीना’ कहानी में तो और भी ग़ज़ब है, एक दम कबीर साहब के जीवन से उतारी गई। काशी में एक मेहतरानी को सुबह सड़क बुहारते हुए कूड़े में एक बच्ची मिलती है। वह उसे घर ले जाती है, उसे पालती है, और नाम रखती है हसीना। ज़ाहिर है कि वह किसी स्त्री की अवैध संतान है, जिसे वह लोकलाज के भय से कूड़े में डाल गई थी। वह जब जवान होती है, तो एक सवर्ण युवक उसकी ओर आकर्षित होता है। दोनों शादी कर लेते हैं। युवक डिप्टी कलेक्टर बन जाता है। एक दिन वे कुम्भ नहाने प्रयाग जाते हैं। वहाँ उन्हें एक भिखारिणी मिलती है। वह हसीना को गौर से देखती है, और पहचान लेती है। भिखारिणी कहती है, ‘मैं भी काशी की रहने वाली हूँ, ब्राह्मण-वंश की बेटी हूँ, आज अपने कर्म का फल भोग रही हूँ, यह मेरी ही बेटी है, मेरे ही पाप से इसका यह हसीना नाम पड़ा।’ हसीना ब्राह्मण है, यह जानकार हसीना और उसका पति, दोनों खुश हो जाते हैं। ब्राह्मण जन्म से होता है, यह कहानी यही बताना चाहती है।
कायापलट , तेजो की झोपडी , अछूत की बेटी , दासू भगत , मंगरू का भार , रामू भंगी , महंतजी , मन्दिर-प्रवेश , बाँसरी , चमारिन ललिता , धर्म-परिवर्तन , हाय पानी , कुएं पर आदि लगभग सभी कहानियां अछूतों को कुएं से पानी भरने और मन्दिर में देव-दर्शन कराने की बात करती हैं। इन कहानियों के रचनाकारों ने इन कहानियों में धर्म-परिवर्तन के विरुद्ध ऐसे-ऐसे पात्रों की रचना की है, जो सौ-सौ जूते खाकर, और सारे अपमान सहकर भी हिन्दूधर्म में ही रहना पसंद करते हैं। यही नहीं, कई कहानियां ईसाइयों और मुसलमानों के विरुद्ध अछूतों की नफ़रत भी दिखाती हैं। जैसे, ‘हाय पानी’ का यह संवाद :
‘माँ : भाई, मेरा बच्चा प्यास से व्याकुल है, थोडा पानी पिलवा दो।
बटोही : अरे कौन जात है तू?
माँ : हिन्दू चमार हूँ, महाराज।
बटोही : तो ले जा इसे। तेरे पानी के लिए अपना धर्म-कर्म डुबा दें?
(इतने में एक मुसलमान आता है और कुएं पर चढ़कर पानी खेंचता है।)
मुसलमान पानी का गिलास लेकर चमारिन को कहता है—बहन, मैं मुसलमान हूँ। अगर मेरे हाथ का पानी पिलाने में कोई उज्र न हो, तो इस बच्चे को पिला दो।
माँ : तेरा भला हो भाई। पर क्या करूं, मैं अपना धर्म नहीं तोड़ सकती। मैं हिन्दू हूँ, धर्म के तागे को नहीं तोड़ सकती।’
इसी तरह ‘कुए पर’ कहानी में सुचित चमार का यह कथन ‘मुझे तो जिस धर्म में मेरे बाप दादा पैदा हुए, वही प्यारा है। हम हिन्दू हैं और रहेंगे।’
इन कहानियों में अछूत पात्रों का मुस्लिम-विरोध अकारण नहीं है। प्रत्युत, यह अछूतों में आर्यसमाज और हिन्दू महासभा के शुद्धि-आन्दोलन का एक अनिवार्य हिस्सा था। इतिहासकार रामनारायण रावत के अनुसार, ‘चमारों में उनकी हिन्दू पहचान कायम करना ही आर्य समाज और हिन्दू महासभा का मुख्य उद्देश्य था। बिजनौर जिले के नजीबाबाद कस्बे में चमारों को शुद्धि के दौरान बताया गया था कि वे मुसलमानों से संपर्क नहीं करेंगे और मुस्लिम दुकानों से कुछ भी नहीं खरीदेंगे। जौनपुर जिले के बल्लाशपुर तहसील में चमारों से गऊओं की रक्षा करने और बदलापुर गाँव में उन्हें शाकाहारी बनने के लिए कहा गया था। हमीरपुर जिले में हिन्दू महासभा ने चमारों के गाँवों (चमरोटी या चमार टोला) में मुहर्रम के धार्मिक इस्लामी माह के दौरान, मुसलमानों के साथ कोई सहयोग न करने का अभियान चलाया था। इसी आन्दोलन का प्रभाव हमें प्रेमचन्द के उपन्यास ‘कर्मभूमि’ में दिखाई देता है, जिसमें रैदासी गाँव के चमार गोमांस और सुरापान छोड़ने के लिए तैयार हो जाते हैं। इस प्रकार आर्य समाज और हिन्दू महासभा का शुद्धि आन्दोलन अछूत जातियों को हिन्दू बनाने के साथ-साथ उनमें मुस्लिम-विरोधी भावनाएं भी पैदा कर रहा था। यही कारण है कि इन कहानियों में अछूत पात्र मुसलमानों के ख़िलाफ़ बोलते हैं। इसी मुस्लिम विरोधी नीति के तहत आरएसएस दलित वर्गों में हिंदुत्व का प्रचार कर रहा है।
इसी प्रचार की एक कहानी मदनमोहन लाल की ‘अछूत की आत्मकथा’ है। हालाँकि यह किसी अछूत की लिखी आत्मकथा नहीं है, बल्कि इसमें एक ऐसे अछूत युवक को कल्पना से गढ़ा गया है, जिसे पढ़ा-लिखाकर योग्य व्यक्ति बनाने का काम तो ईसाई मिशन करता है, और लेखक उसके मुख से प्रशंसा हिन्दू धर्म की करवाता है। यह रामू चमार की कहानी है, जो प्रिन्स्पिल को स्वयं बयाँ करता है। वह बताता है, पांच-छह वर्ष की अवस्था में उसके पिता का देहांत हो गया था। चाचा दुष्ट था, माँ को मारता-पीटता था। एक दिन वह मुझे लेकर घर से निकल गई। माँ को कहीं काम नहीं मिला, हम भूखे ही सो गए। भूख से व्याकुल होकर वह बाज़ार में एक जूता चुराकर भागता है, पर पकड़ा जाता है। जूते का मालिक उसे पुलिस में दे देता है। मामला मजिस्ट्रेट के सामने पेश हुआ। मजिस्ट्रेट ने पूछा—
क्या तुमने जूता चुराया?
हाँ!
क्यों चुराया?’
मेरी माता और मैं भूखा था।
माता कहाँ है?
बाहर से रोटी विलपती माता दौड़ी आई। हाथ जोड़कर बोली, सरकार, बच्चे का अपराध नहीं, मेरा अपराध है, मुझे दंड दीजिए। साहब ने फ़ैसला सुनाया, ‘जा तेरा बच्चा आगरे में पढ़ेगा, ख़र्च सरकार देगी।’
मिशन स्कूल में उसका दाख़िला करा दिया गया। एंट्रेंस पास किया, फिर कालेज में भर्ती हुआ, और वहां से बी.ए. करके निकला। आगे उसी के शब्दों में, ‘हाईस्कूल के हेडमास्टर से छह महीने का अवकाश ईसाई-धर्म पर विचार करने के लिए मैं नौकर हो गया। 75 रूपये मासिक मिलने लगा। मुझे यह चिंता चढ़ी थी कि छह मास पश्चात् या तो ईसाई-धर्म स्वीकार करना होगा अथवा नौकरी से हाथ धोना पड़ेगा। मैंने ईसाई-धर्म के ग्रंथों का अध्ययन किया और साथ ही साथ गीता, उपनिषद और दर्शनों के अंग्रेज़ी अनुवाद भी देखे। चाहे संस्कार कहिए, चाहे कुछ और समझिए, मेरा मन हिन्दू धर्म पर ही दृढ़ रहा।’
यह कहानी इसी प्रयोजन से लिखी गई कि अछूत जातियां अपने ऊपर हिन्दुओं के तमाम अत्याचारों और अपमान-तिरस्कार के बावजूद हिन्दू-धर्म पर दृढ़ रहे, ईसाई या इस्लाम धर्म स्वीकार न करें। एक तरफ हिन्दू समाज था, जो अछूतों को न इज्ज़त दे सकता था, न रोज़गार और न शिक्षा, और दूसरी तरफ ईसाई मिशन था, जो अछूतों को शिक्षित बनाकर उनका अछूतपन दूर कर रहा था, उन्हें रोज़गार दे रहा था, मनुष्य बना रहा था, और फिर भी उन पर यह दबाव नहीं था कि वे ईसाई बनें।
वास्तव में राष्ट्रवादयुगीन हिंदी साहित्य में अछूतों को केंद्र में रखकर लिखी गईं ये कहानियां अछूत-समस्या की कहानियां नहीं हैं। इनमें न तो अछूतों के लिए शिक्षा पर ज़ोर दिया गया है, और न उनके राजनीतिक अधिकारों को स्वीकार किया गया है। ये असल में उस दौर में कांग्रेस के विरुद्ध चल रहे अछूतों के आन्दोलन से उत्पन्न चिंताओं की कहानियां हैं। चमारों के आन्दोलन अंग्रेज़ सरकार के प्रति वफ़ादार थे। वे अपनी मुक्ति की आशा अंग्रेज़ों से करते थे, हिन्दुओं से नहीं। उन्होंने कांग्रेस के असहयोग आन्दोलन से अपनी दूरी बनाकर रखी थी। 1920-22 में मेरठ में चमारों की सभा ने कांग्रेस के विरुद्ध प्रस्ताव पारित किया था। बिजनौर की अछूत सभा में, जिसमें सात हज़ार चमारों ने भाग लिया था, कांग्रेस के स्वराज की मांग का विरोध किया था। बदाऊं, बुलन्दशहर, देहरादून और कुमाऊं में भी अछूतों की सभाओं ने कांग्रेस के स्वराज के विरुद्ध प्रस्ताव पास किया था। कांग्रेस के प्रति चमारों की खुली शत्रुता को देखकर उत्तर प्रदेश की कांग्रेस कमेटी ने अपनी ज़िला इकाइयों को चमारों के साथ समतावादी सम्बन्ध बनाने के निर्देश जारी किए थे। इसी तरह, दिसंबर 1927 में उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में दो दिवसीय एक विशाल अछूत सम्मेलन स्वामी अछूतानन्द के नेतृत्व में हुआ था, जिसमें 25 हज़ार अछूतों ने भाग लिया था, और पंजाब, बिहार, दिल्ली, मध्य प्रदेश, पूना, हैदराबाद और बंगाल से 350 प्रतिनिधि शामिल हुए थे। एक दिन पूर्व इलाहाबाद में बग्गी-तांगों और गाजे-बाजे के साथ जुलूस निकाला गया था, जिसमें कांग्रेस के विरोध और अंग्रेज़ सरकार के समर्थन में नारे लगाए गए थे। सम्मेलन में अछूतों के लिए तीन विचारों का प्रतिपादन किया गया था। एक, अछूत भारत के मूल निवासी हैं, जिन्हें हिन्दू ग्रंथों में दैत्य, असुर, राक्षस, दास-दस्यु बताया गया है; दो, अछूत हिन्दू नहीं हैं, और अगर हिन्दू समाज अछूतों को हिन्दू समझता है, तो वे अछूतों को समान अधिकार दें; और तीन, अछूतों को पृथक निर्वाचन क्षेत्रों के द्वारा विधायी संस्थानों में पर्याप्त प्रतिनिधित्व दिया जाए। इस सम्मेलन में दस प्रस्ताव पास किए गए थे, जिनमें अंग्रेज़ सरकार के प्रति निष्ठा और साइमन कमीशन के प्रति विश्वास व्यक्त किया गया था, एवं अछूतों के लिए सरकारी नौकरियों में स्थान, अछूत बच्चों के लिए शिक्षा और पर्याप्त संख्या में छात्रवृत्ति की मांग की गई थी।
ये कहानियां इसी आन्दोलन की उपज थीं, जो अछूतों के संघर्ष और विचारों के खंडन में लिखी गई थीं।
(13/7/2024)
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