हमारी राष्ट्रभाषा : हिन्दी या हिन्दुस्तानी
सुजीत कुमार सिंह
‘हिन्दी राष्ट्रवाद’ उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध और बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में हिन्दी व उर्दू के बीच हुए बहसों को आधार बनाकर लिखा गया एक विचारोत्तेजक किताब है । इसे पढ़ते हुए मन उदास हो जाता है । दिल को एक धक्का-सा लगता है । शरीर की समूची शक्ति कहीं और चली जाती है । सात अध्यायों में फैले इस भाषायी झगड़े को पढ़कर क्रोध आता है । देखा जाए तो यह झगड़ा अभी ख़त्म नहीं हुआ है । आज के परिवेश में फ़ारसी लिपि को हिन्दू जनता ने अपना दुश्मन मान लिया है । भाषा की राजनीति अभी जारी है ।
ब्रिटिश उपनिवेश का हिन्दी-उर्दू के इस भयानक झगड़े में रुचि लेना देश के लिए ख़तरनाक सिद्ध हुआ । उसने हिन्दुओं और मुसलमानों को उकसाया । इससे संबंधित एक अध्याय ही इस किताब में ‘मैक्डानेल भये कोतवाल’ शीर्षक से है । इसी मैक्डानेल को साधने का काम किया मदनमोहन मालवीय और श्यामसुन्दरदास जैसे लोगों ने । मैक्डानेल को नागरी प्रचारिणी सभा में आमंत्रित कर उर्दू के ख़िलाफ माहौल बनाया गया । इसका नतीज़ा यह हुआ कि अदालतों में नागरी लिपि को स्थान मिला । यह सब राधाकृष्ण दास पर लिखे गये संस्मरणों में रोचक ढंग से मिलता है ।
भाषा के अध्येताओं का मानना है कि हिन्दी व उर्दू दो भाषा नहीं हैं । मामला संस्कृत और अरबी-फ़ारसी के शब्दों के मिलावट को लेकर है । हिन्दी वाले चाहते थे कि हिन्दी संस्कृतनिष्ठ हो और उर्दू जन अरबी-फ़ारसी मिश्रित । इस किताब में एक जगह लिखा है कि “गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे ने गांधी पर यह भी एक इल्ज़ाम लगाया था कि गांधी संस्कृत-प्रधान हिन्दी के ख़िलाफ थे ।’’ इन पंक्तियों को पढ़ते हुए मुझे ‘विशाल भारत’ (अक्टूबर 1942) में छपे सावरकर के एक भाषण की याद आती है । यह भाषण ‘राष्ट्रभाषा हिन्दी’ शीर्षक से प्रकाशित है । 1942 के अगस्त माह में पुणे में ‘राष्ट्रभाषा प्रचार संघ’ के वार्षिक अधिवेशन में विनायक दामोदर सावरकर ने कहा : “अब तो हिन्दी यानी हिन्दुस्तानी अर्थात् उर्दू सब एक ही है, ऐसा कहा जा रहा है । फ़र्क़ है सिर्फ़ लिपि का । अगर हम ऐसे ही सोते रहेंगे, तो हिन्दी के स्थान पर उर्दू का सिक्का जम जायगा । इसीलिए मैं कहता हूँ कि इस आन्दोलन में भी शुद्धीकरण की आवश्यकता है ।... हमारी संस्कृतनिष्ठ हिन्दी-भाषा का घर चार दीवारों से मज़बूत चाहिए । उन दीवारों में दरवाज़ा, खिड़की आदि की आवश्यकता ज़रूर है, क्योंकि बाहर की हवा अन्दर आनी चाहिए । किन्तु उस दरवाज़े पर वैशम्पायन जी – जैसे संस्कृतनिष्ठ हिन्दी के प्रहरी भी चाहिएँ ।... संस्कृतोत्पन्न हिन्दी राष्ट्रभाषा हो, यही मेरा विचार है । हमें संस्कृतनिष्ठ हिन्दी का ही प्रचार करना चाहिए – उसके लिए चाहे जितना विरोध क्यों न खड़ा हो जाय । अगर अलग संस्था बनानी पड़े, तो राष्ट्रीय कार्य के लिए, राष्ट्रभाषा के प्रचार के लिए, हमें उस मार्ग पर चलना होगा । संस्कृतनिष्ठ हिन्दी का मार्ग छोड़कर हिन्दी यानी हिन्दुस्तानी अर्थात् उर्दू के मार्ग पर हम कभी नहीं चलेंगे । संस्कृतनिष्ठ हिन्दी ही हमारी राष्ट्रभाषा है और सदा रहेगी ।’’
इस किताब में एक बहस तत्कालीन स्कूलों के पाठ्यक्रम और पाठ्यपुस्तकों को लेकर है । उस ज़माने की पाठ्यपुस्तकें साम्प्रदायिकता के रंग में रँगी हुई होती थीं । उर्दू या फ़ारसी पढ़ने से नौकरी आसानी से मिल जाती थी मगर हिन्दी के साथ ऐसा न था । आँकड़े बताते हैं कि फ़ारसी-उर्दू पढ़ने वालों की एक भारी संख्या हिन्दुओं की थी । यह सब हिन्दीसेवियों को असह्य लगता । नागरी प्रचारिणी सभा ने अपनी स्थापना के आरम्भिक वर्षों में ही यह तय किया था कि हमें हर हाल में ‘शिक्षा कमेटी’ में अपने लोगों को प्रवेश कराना होगा । इस दौर की पाठ्यपुस्तकों को लेकर दोनों वर्गों में जबर्दस्त तनाव का माहौल मिलता है । उर्दू के विरोध में किसिम-किसिम की हिन्दी में पुस्तिकाएँ लिखी गयीं । आलोक राय ने सोहन प्रसाद की नाटिका ‘हिन्दी उर्दू की लड़ाई’ का ज़िक्र किया है । इसी तरह ‘उर्दू बेग़म’ उस दौर की एक मशहूर पुस्तिका थी जिसके बारे में नवजादिकलाल श्रीवास्तव ने महादेवप्रसाद सेठ से संबंधित एक संस्मरण में इसका नाम लिया है । इस संस्मरण से यह पता चलता है कि इस तरह की पुस्तिकाओं का अबोध बच्चों पर क्या प्रभाव पड़ता था । जून 1936 के ‘विशाल भारत’ में प्रकाशित अपने संस्मरण में नवजादिकलाल श्रीवास्तव लिखते हैं : “(महादेवप्रसाद) मिरज़ापुर के मिशन स्कूल में पढ़ते थे, तभी से उर्दू में ग़ज़लें लिखा करते थे । तख़ल्लुस शायद ‘रज़ा’ था ।... मिशन स्कूल के कोई मौलवी साहब ही उनके उस्ताद थे । ये उन्हीं से इस्लाह लिया करते थे ।... उस समय ‘उर्दू बेग़म’ नाम की पुस्तक की मिरज़ापुर में बड़ी धूम थी । सेठजी ने भी यह पुस्तक पढ़ी, और तभी से उनका झुकाव हिन्दी साहित्य की ओर हुआ ।’’
इस किताब से यह पता चलता है कि क्यों अयोध्याप्रसाद खत्री के ‘खड़ी बोली आन्दोलन’ को तत्कालीन साहित्यकारों ने कोई तवज्जो नहीं दी ! नागरी प्रचारिणी सभा के ‘गृहप्रवेशोत्सव’ में श्यामसुन्दरदास ने ग्रुप फोटो के लिए गुलेरी जी को तो बुलाया लेकिन खत्री जी को जानबूझकर पूछा तक नहीं । कारण यह था कि कामताप्रसाद गुरु ने लोगों को बताया कि खड़ी बोली उर्दू के काफ़ी करीब है । इस करीबी के नाते ही खत्रीजी का आन्दोलन फ्लॉप हो गया ।
खड़ी बोली और ब्रजभाषा के बीच हुए तक-झक को आलोक राय ने एक अध्याय में समेटा गया है । भारतेन्दु सहित तमाम साहित्यकारों का यह मानना था कि खड़ी बोली में कविता नहीं हो सकती । यह धारणा द्विवेदी युग के आरम्भ तक चलती रही । किन्तु प्रतापनारायण मिश्र जैसे लोग यह जान गये कि आने वाला कल खड़ी बोली कविता का ही है । महावीरप्रसाद द्विवेदी ने तो ब्रजभाषा के खिलाफ़ मोर्चा ही खोल दिया था । छायावादी कवि पंत ने ‘पल्लव’ की भूमिका में जहर उगला । इस अध्याय से पता चलता है कि यह सब सुनियोजित था । यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए कि रामचंद्र शुक्ल जैसे लोग ब्रजभाषा को किसी क़ीमत में ख़त्म होते नहीं देखना चाहते थे ।
‘ये कहाँ आ गये हम’ शीर्षक अध्याय में संवैधानिक बहसों को आधार बनाकर हिन्दी-उर्दू विवाद पर प्रकाश डाला गया है । भाषायी बहस के उस तीखे माहौल का उदाहरण आलोक राय ने यों दिया है : “ड्राफ्टिंग कमेटी के एक सदस्य, एम. सत्यनारायण, के हवाले से मिले एक सायक्लोस्टाइल्ड दस्तावेज़ में इस सिलसिले की एक झलक मिलती है । नेहरू ने उनसे भाषाओं की एक सूची बनाने को कहा । उन्होंने जो सूची तैयार की उसमें हिन्दुस्तान की 12 भाषाएँ शामिल थीं । नेहरू ने उस सूची को कमेटी के सामने रखने से पहले, एक नाम और जोड़ दिया – उर्दू का । जब एक ‘हिन्दी मित्र’ ने पूछा कि ये उर्दू आख़िर किसकी भाषा है, तो उस पर नेहरू ने तन्ना के कहा – “ये मेरी और मेरे बाप-दादाओं की भाषा है ।’’ इस पर उस ‘हिन्दी मित्र’ ने निशाना साधा : “ब्राह्मण होते हुए उर्दू को अपनी भाषा कहते हो, शर्म नहीं आती ?’’ नेहरू ने जवाब नहीं दिया ।’’
यह किताब बीसेक साल पहले अँग़रेजी में आई थी । तब स्त्री और दलित विमर्श हिन्दी साहित्य के केन्द्र में थे। इस किताब में अगर दलितों और स्त्रियों को आधार बनाकर लिखे जा रहे तत्कालीन लेखों का भी विवेचन होता तो ‘हिन्दी राष्ट्रवाद’ का मुकम्मल चेहरा सामने आता । अब जरूरत है कि हाशिए का जीवन जीने वाले वर्गों को भी कथित हिन्दी राष्ट्रवाद में स्थान दिया जाय । इससे हिन्दुत्त्व का खौफनाक रूप उजागर होगा । नवजागरणकालीन साहित्य को खँगालते हुए हम पाते हैं कि हिन्दू सुधारक धर्मशास्त्रों में फेरबदल के बिल्कुल खिलाफ थे । वे धर्मशास्त्र और वर्ण-व्यवस्था को बचा लेना चाहते हैं । ‘प्रभा’ की फाइलों को देखने से ज्ञात होता है कि कुंवरनारायण सिंह, दुर्गाप्रसाद शुक्ल जैसे लोग वर्ण-व्यवस्था को ‘स्वाभाविक’ मानते थे । इन लोगों की चिन्ता यह थी कि अछूत शिक्षित हो गये तो वे हमारी बराबरी कर लेंगे । सांवरमल नागर, श्रीप्रकाश आदि दलितों-पिछड़ों की शिक्षा पर प्रतिबंध लगाने की बात करते हैं । ये लोग पैतृक पेशों को बचाने के लिए अपील करते नजर आते हैं । 1910 ई. में प्रकाशित ‘सच्चा-सुधार’ पुस्तक में पाण्डेय रामलोचन शर्मा लिखते हैं : “कुरमी, कहार इत्यादि सभी को अपने सुधार की सनक चढ़ी हुई है, सभी को ब्राह्मण क्षत्री बनने का शौक चर्राया है । परम्परा से करते आये अपने बाप दादा के काम को लात मार कर खासा ज्यन्टलमैन बनने का लार टपका रहा है ।’’
इस कथित हिन्दी राष्ट्रवाद में जब दलित, पिछड़े और स्त्रियाँ हाशिए पर धकेल दी गयीं, इन्हें शास्त्रानुसार बाँधने की कोशिश की गयी तो भद्र हिन्दू वर्ग मुसलमानों को क्यों अपने राष्ट्र में तरजीह दे । आज डंके की चोट पर यह ऐलान किया जा रहा है कि ‘हम दो हजार साल पुराना भारत चाहते हैं ।’ आप दो हजार साल पुराने भारत को महसूस करना चाहते हैं तो उन नवजागरणकालीन साहित्य का अध्ययन करना होगा जिसे हिन्दी के आलोचकों ने नज़र अन्दाज़ कर दिया है ।
समीक्षित पुस्तक : हिन्दी राष्ट्रवाद (आलोक राय)
प्रथम संस्करण : 2022
राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली।
मूल्य : 250
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सुजीत कुमार सिंह
हिन्दी विभाग,
गवर्नमेंट पीजी कॉलेज, हमीरपुर- 210301 (उत्तर प्रदेश)
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