गोरखपुर जनपद साहित्य के क्षेत्र में कितना उर्वर है, इसे हम जैसे विद्यार्थी बहुत ही कम जानते हैं। यों कहिए कि कुछ नहीं जानते। गोरखपुर की नागरी प्रचारिणी सभा के अनुमोदन से पंडित मन्नन द्विवेदी गजपुरी लिखित एक पुस्तिका सन् 1911 ई. में गोरखपुर विभाग के कवि शीर्षक से छपी थी। इसमें आज़मगढ़ और बस्ती ज़िले के कवि तो हैं ही गोरखपुर के गोपालपुर, मझौली, गजपुर, गगहा, कोठा आदि के रचनाकारों का भी ज़िक्र है।
पीपीगंज से कवि (1909) नाम की पत्रिका निकलती थी तो गगहा से समालोचक (1925)। विशुनपुर से प्रभाकर (1915) पत्रिका की प्रशंसा मैनपुरी निवासी नारायणप्रसाद गौड़ ने अपनी पत्रिका में की तो गोरखपुर के ही शिवकुमार शास्त्री सम्पादित ज्ञानशक्ति (1916) की समीक्षा और प्रशंसा भानुंजय सहाय, रामजी लाल शर्म्मा और कृष्णकांत मालवीय ने अपने-अपने पत्रों में। स्वदेश के बारे में सभी जानते ही हैं। 1921 में विन्ध्यवासिनी प्रसाद बीए, एलएलबी के संपादन में 'युगांतर' (साप्ताहिक) निकला और इसका चरखा-अंक बहुचर्चित रहा। बहरहाल... मैं ज़्यादा विस्तार में न जाकर मूल बिंदु पर आना चाहूँगा। उपर्युक्त पत्रिकाएँ तो इतिहास में दर्ज़ हैं लेकिन जो बात मुझे कचोट रही है, वह है एक ऐसी पत्रिका जिसके सम्पादक से मेरी बातचीत है। जिनके घर से मेरा निकटतम संबंध है। उनके कृतित्व के बारे में थोड़ा बहुत जानता भी हूँ।
इलाहाबाद के हिंदी साहित्य सम्मलेन में सारिका उलटते-पलटते जब उनका नाम देखा तो मन कितना उदास हो गया, यह बता पाना यहाँ कठिन है। यह सब पढ़ते हुए गोरखपुर विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष और मेरे आदरणीय गुरुदेव प्रो. अनिल कुमार राय का सम्पूर्ण व्यक्तित्त्व मेरे ज़ेहन में आ गया। आग का राग! बस्स, यही एक नाम। अपने गुरुदेव से उनके व्यक्तित्त्व और कृतित्त्व के संबंध में न हमने कभी पूछा और न उन्होंने कभी बताया।
जी हाँ, मैं बात कर रहा हूँ श्री माधव मधुकर जी के बारे में।
कन्हैयालाल नन्दन संपादित 1 दिसंबर 1978 की सारिका में नयी पत्रिकाएँ स्तंभ में रमेश बत्तरा ने श्री माधव मधुकर संपादित संभावना की एक दिलचस्प समीक्षा लिखी है। गोरखपुर की साहित्यिक पत्रिकारिता में जो एक आग है, वह इस समीक्षा द्वारा समझा जा सकता है। पूरी समीक्षा यों है-
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संभावना (सं: माधव मधुकर) राजभवन, रायगंज, गोरखपुर।
किसी पत्रिका द्वारा रचनाओं और चयन की दृष्टि से व्यक्ति और दल की सीमाओं से ऊपर, सही रचना चुनने की 'विनयपूर्वक' दी गयी सूचना को 'निरपेक्ष उफानदारी' माना जाए या अमूर्त्त संपादकीय व्यक्तित्त्व अथवा अपने तौर पर 'कीचड़-कमल' के गुमान में गुम एक और अ-दलगत अखाड़ा? 'संभावना' ने जो कुछ कहना चाहा है, उसे इस स्तर भी स्पष्ट कर दिया होता तो इसके आसार और भी बेहतर हो जाते हैं, क्योंकि जब तक यह सवाल साफ़-साफ़ जवाब नहीं पायेंगे तब तक सामाजिकता, परिवर्तन, क्रांतिकर्म, प्रगतिशील आदि शब्द अपने सही अर्थ हासिल नहीं कर पायेंगे।
इसके बावज़ूद प्रस्तुत अंक में 'कविता' को मिट्टी की गंध में से खगालने की कारगर कोशिश की गयी है। रमेश रंजक, हरिहर द्विवेदी, आलोक धन्वा, श्रीहर्ष, विनय श्रीकर की रचनाओं सन्दर्भ में सवालों से जुड़-जुड़कर जवाब भी देते हैं और वर्तमान हिंदी कविता में यह प्रवृत्ति संभव है। अपने इस प्रारूप में कविता को फिर से इसकी खोयी हुयी जनप्रियता दिलवा दे-
खामोश मत देखो
भूखी लाश को खाली पड़े कटोरे-सी
या गोली मारे गए आदमी को
खून सने बोरे-सा
जबान खोलो ... (सर्वेश्वर)
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मैं समझता था कविता लिखना, खबरें लिखने से बड़ा काम है
और वह आदमी सचमुच महान है
जो अपनी कविताओं में ख़तरनाक़ खबरें सुनाता है
और 'अभिव्यक्ति के खतरे' उठाता है। (कुमार विकल)
कविताओं का य............. मूलत: परिचर्या (समकालीन ....... कुछ सवाल) में भी उभरा है और विशेषतः चंचल चौहान के कथन में कि - छंद लोक का हो या परलोक का, तब तक कुछ न कर पायेगा जब तक कवि उसमें सही समझ और संवेदना को व्यक्त नहीं करता।
'संभावना' में दिविक रमेश, नचिकेता, दिनेश जोशी, अश्वघोष, ठाकुर प्रसाद सिंह, डी.प्रेमपति, शिवशंकर मिश्र, अजातशत्रु और मैनेजर पाण्डेय की रचनाएँ अपने आप उल्लेखनीय हैं। 'सताये हुए लोगों के पक्षधर' ये साहित्यिक कविता के परिप्रेक्ष्य में जितनी ज्वलंत और तथ्यात्मक स्थितियों का पर्दाफ़ाश कर पाये हैं, तुलना में 'कहानीपक्ष' उतना ही कमजोर और बेजान है। इस संदर्भ में 'कहानी के अभाव' को देखते हुए हमारे चिंतक-समीक्षक क्या सोच या तय कर रहे हैं? यह सवाल जवाब मांगता है। ■ र.ब.
(............ अस्पष्ट)
प्रस्तुति : सुजीत कुमार सिंह